अंधा प्रेम बहुत बुरी चीज़ है
1998 में, मैंने और मेरी तीन बहनों ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया था। हम अक्सर परमेश्वर के वचनों की संगति करते, भजन गाते, साथ में परमेश्वर की स्तुति करते और पूरी निष्ठा से एक-दूसरे को सत्य खोजने और उद्धार पाने के लिए प्रोत्साहित भी करते। आगे चलकर हमने कलीसिया में काम करना शुरू कर दिया और जब कभी हम एक-दूसरे से मिलते तो अपनी वर्तमान स्थितियों और अपने कर्तव्य-निर्वहन में हमने जो कुछ सीखा होता, उस पर बातचीत करते। लेकिन मेरी सबसे छोटी बहन, शाओ झी, जब अपने काम में आने वाली मुश्किलों के बारे में शिकायत नहीं कर रही होती, तो ज्यादातर बाकी लोगों से संबंधित समस्याओं के बारे में चर्चा करती। एक बार, शाओ झी बोली कि जब उसने सिंचन टीम की अगुआ के रूप में शुरुआत की तो उसे बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा था, लेकिन कलीसिया अगुआ ने उसकी कोई मदद नहीं की। उसने यह भी कहा कि भाई-बहनों को अपने काम में सिद्धांतों की समझ नहीं है, अगुआ इस मुद्दे पर सहभागिता करके उसे हल नहीं कर पाया, वह वास्तविक कार्य करने में सक्षम नहीं था। लेकिन मैं उसकी कलीसिया के अगुआ से परिचित थी और वह सच में वास्तविक कार्य करने में सक्षम था। यह देखते हुए कि मेरी बहन अपने अनुभव से सीखने की कोशिश नहीं कर रही, बल्कि सिर्फ अपने अगुआ के दोष ढूँढ़ रही है, मुझे लगा उसमें अनुभव की कमी है और अभी तक खुद को जान नहीं पाई है, इसलिए मैं अक्सर उसकी मदद और परमेश्वर के वचनों पर संगति करने लगी। मैंने उसे समझाया कि वह दूसरों पर ध्यान देने के बजाय, अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान दे और अपनी हर कठिनाई से सीखने की कोशिश करे। जैसे-जैसे समय बीतता गया, हमारा एक-दूसरे से मिलना-जुलना कम होता गया, क्योंकि हम दोनों ही अपने काम में व्यस्त थे।
अगस्त, 2018 में एक दिन, मेरी नजर एक पत्र पर पड़ी जो एक अगुआ ने बहन शियांग युशुन को लिखा था, जिसमें एक ऐसे बुरे व्यक्ति की फाइल के लिए और ज्यादा विवरण माँगे गए थे जिसे निष्कासित किया जाना था। हैरानी की बात यह थी कि वह बुरी व्यक्ति मेरी सबसे छोटी बहन शाओ झी ही थी। उस समय, मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरी बहन को निकाल दिया जाएगा। मैंने युशुन के विवरण पर गौर किया तो देखा कि जिस दौरान शाओ झी सिंचन कार्य निरीक्षक थी, उसने अक्सर दूसरों को डांटने और नीचा दिखाने के लिए अपने पद का दुरुपयोग किया था। जब एक बहन ने उसकी कमियों के बारे में उसे आगाह किया, तो शाओ झी ने अपनी आलोचना स्वीकार नहीं की, उल्टे उस बहन का मजाक उड़ाया और उस पर हमला किया। आखिरकार, वह बहन इतनी विवश और दुखी हो गई कि अपने कर्तव्य से मुक्ति चाहने लगी थी। अन्य भाई-बहन भी किसी न किसी कारण से शाओ झी के हाथों विवश महसूस कर रहे थे और मायूस हो चुके थे। जब मैंने इस जानकारी को देखा, तो मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि शाओ झी इस तरह की दुष्टता करेगी, मेरे मन में युशुन को लेकर तरह-तरह के ख्याल आने लगे : “तुम्हारे मन में मेरी बहन के खिलाफ कोई पूर्वाग्रह तो नहीं है? हो सकता है कि उसका जीवन प्रवेश बढ़िया न हो, लेकिन वह बुरी इंसान नहीं है। कहीं तुम मामले को बढ़ा-चढ़ाकर तो पेश नहीं कर रही?” सोच-सोचकर मैं बेचैन हो गई। उस रात मैं सो नहीं पाई। मेरी बहन ने अपना परिवार और नौकरी छोड़ दी थी, उसके लिए सुसमाचार फैलाने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए सालों तक यात्रा करना कितना कठिन रहा था। मुझे याद है एक बार जब वह सुसमाचार का प्रचार कर रही थी तो एक बुरे व्यक्ति ने उसकी रिपोर्ट कर दी, उसे गिरफ्तारी से बचने के लिए रात भर एक टूटे-फूटे घर में छिपने के लिए मजबूर होना पड़ा था। बरसों तक सुसमाचार साझा करने के दौरान, धार्मिक लोगों ने उसे मारा-पीटा था, वे लोग उस पर चीखे-चिल्लाए थे, वह घास के ढेर और सुअर के बाड़े में सोई थी और अक्सर उसे भूखा रहना पड़ा था। भले ही सालों तक एक विश्वासी के रूप में उसके पास दिखाने के लिए बहुत कुछ न रहा हो, लेकिन उसने बहुत मेहनत की थी। अब उसे बुरी इंसान कहकर कैसे निकाला जा सकता है? हालाँकि, फिर मैंने सोचा कि कलीसिया सिद्धांत के अनुसार कार्य करती है, निष्कासन हमेशा किसी भी व्यक्ति के व्यवहार और उसके प्रकृति सार पर आधारित होता है। कलीसिया कभी भी लोगों पर गलत आरोप नहीं लगाती। क्या शाओ झी वास्तव में बुरी इंसान है? यह सोचकर ही मैं दुखी हो गई। यदि उसे वास्तव में निष्कासित कर दिया गया, तो उसे बचाया नहीं जा सकेगा और उसने जो मुश्किलें सही हैं, वे सारी व्यर्थ हो जाएँगी। आने वाले दिनों में भी मैं इस बारे में सोचकर बहुत परेशान रही, मानो मेरी छाती पर कोई भारी पत्थर रखा हो।
कुछ दिनों बाद ही, मुझे अपनी दूसरी बहन शाओ यू का पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि हमारी सबसे छोटी बहन की तबीयत बहुत खराब है और उसे ऑपरेशन की जरूरत है। पत्र पढ़कर मैंने सोचा : “यदि शाओ झी इस बीमारी के समय का उपयोग आत्मचिंतन और परमेश्वर के सामने पश्चाताप करने के लिए कर सके, तो शायद वह निष्कासित होने से बच सकती है?” मैंने तुरंत शाओ झी को लिखा और परमेश्वर के वचनों का उपयोग करते हुए उसे उसके धार्मिक स्वभाव के बारे में बताया। मैंने लिखा कि उसे बाहरी कारण तलाशने के बजाय, अपनी बीमारी को आत्मचिंतन और पश्चाताप के अवसर के रूप में उपयोग करना चाहिए। लेकिन शाओ झी का मामला उतना आसान नहीं था जितना मैंने सोचा था। दो महीने बाद जब मैं घर गई, तो शाओ यू ने मुझे हमारी छोटी बहन के व्यवहार के बारे में बताया। शाओ झी का स्वभाव अहंकारी था; सिंचन कार्य संभालने के बाद, उसने इस बात पर बल दिया कि सब-कुछ उसके तरीके से किया जाए। जिस बहन के साथ वह मिलकर काम कर रही थी, जब वह काम को लेकर उससे असहमत हुई और उसके विचारों के अनुसार नहीं चली, तो शाओ झी नाराज हो गई और उस बहन पर हमला करने और उसे बाहर करने पर उतारू हो गई। उसने दूसरों को भी उस बहन के खिलाफ करने की कोशिश की, लोगों के बीच उसके खिलाफ पूर्वाग्रह फैलाया ताकि वे गुमराह हो जाएँ और उसके साथ मिलकर उसकी आलोचना करें। बाद में, जब उस बहन की दशा अच्छी नहीं चल रही थी तो शाओ झी ने उसकी कोई मदद नहीं की, बल्कि यह कहकर उसके और अन्य लोगों के बीच एक दरार पैदा कर दी कि बुरी दशा में होने में कारण बहन अपना कर्तव्य नहीं निभा सकी, उसने उन्हें उसकी मदद करने से भी रोका। इससे बहन और भी नकारात्मक हो गई, आखिरकार वह अपना कर्तव्य नहीं निभा पाई और उसे बर्खास्त कर दिया गया। जब एक अन्य बहन ने कहा कि वह शाओ झी द्वारा विवश महसूस कर रही है, तो शाओ झी उससे बहुत चिढ़ गई और उसने उस बहन पर पलटवार करने और उस पर हमला करने का कोई अवसर नहीं छोड़ा। वह अन्य भाई-बहनों के सामने उस बहन की आलोचना और अपमान भी करती थी। जब वह बहन व्यथित और नकारात्मक हो गई, तो शाओ झी ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए अगुआ और अन्य लोगों से कहा कि बहन ने पवित्र आत्मा का कार्य गँवा दिया है और वह अपने कर्तव्य-निर्वहन के काबिल नहीं रही, वह चाहती है कि उसे बर्खास्त कर दिया जाए। शाओ झी के लगातार हमले और दंड से और जिस तरह से उसने उन्हें बाहर कर उन्हें अपमानित किया था, उससे भाई-बहनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा था, परिणामस्वरूप वे अपने काम में आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। कलीसिया का सिंचन कार्य गंभीर रूप से बाधित हो रहा था। उसके अगुआ ने उसके मुद्दों की ओर इशारा किया और कई बार उसकी मदद करने की कोशिश की, लेकिन अपनी आलोचना स्वीकारने के बजाय, उसने लगातार तर्क-वितर्क किया। जब उसे बर्खास्त किया गया था, तब तक उसने कोई आत्मज्ञान प्राप्त नहीं किया था, वह उद्दंड ही थी। वह तो अगुआ की कमियाँ भी गिनाती थी और पीठ पीछे उसकी आलोचना करती थी। जब शाओ यू ने उसकी समस्याएँ बतानी चाही, तो उसने शिकायत की कि शाओ यू ने उसे समझा नहीं और उसके पक्ष में नहीं बोली। उसने यह भी दावा किया : “कलीसिया में कोई ईमानदारी से बात नहीं कर सकता। मुझे जो लगता था, उसके बारे में खुलकर बात करने के कारण मुझे बर्खास्त कर दिया गया।” यह सुनकर तो मैं दंग रह गई। मुझे नहीं पता था कि मेरी सबसे छोटी बहन रुतबे में इतनी उलझी हुई थी, और इतनी शातिर प्रकृति की थी, वह उन्हीं लोगों पर हमला कर उन्हें दंडित कर रही थी जो उससे असहमत थे। यह कोई साधारण भ्रष्टता नहीं थी, बल्कि उसकी प्रकृति में ही समस्या थी! बाद में, जब मैं उससे मिली तो मैंने तत्काल उसके साथ संगति की और उसे अपने दुष्कर्मों पर विचार करने की सलाह दी। अगर उसने पश्चात्ताप नहीं किया, तो उसे निष्कासित कर दिया जाएगा और वह उद्धार पाने का मौका खो देगी। मुझे हैरानी हुई जब मेरी सलाह मानने की बात तो दूर, उसने गुस्से से जवाब दिया : “तुम्हें नहीं पता कि बात क्या है और मैं इस बारे में और कुछ नहीं कहना चाहती। अगर मैं कुछ और कहती हूँ तो तुम तो बस यही कहोगी कि मैं अपनी बात को सिद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ।” उसे इतना व्यथित देखकर मैं दंग रह गई। मुझे नहीं पता था कि वह इतनी जिद्दी है और सत्य बिल्कुल स्वीकार नहीं करती। क्या वह बचाई नहीं जा सकती? यह सोचकर मेरे हौसले पस्त हो गए। मुझे याद आया, जब कभी हम साथ होते थे, तो वह हमेशा लोगों की आलोचना किया करती थी, उनके बारे में कठोरता से अपनी राय व्यक्ति करती थी और कभी आत्मचिंतन नहीं करती थी। हमेशा अगुआ के दोष ढूँढ़ती रहती थी। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “जो लोग कलीसिया के भीतर विषैली, दुर्भावनापूर्ण बातों का गुबार निकालते हैं, भाई-बहनों के बीच अफवाहें व अशांति फैलाते हैं और गुटबाजी करते हैं, तो ऐसे सभी लोगों को कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए था। अब चूँकि यह परमेश्वर के कार्य का एक भिन्न युग है, इसलिए ऐसे लोग नियंत्रित हैं, क्योंकि उन्हें निश्चित रूप से निकाला जाना है। शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली दानव और शैतान हैं। उनके आचरण से परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी और विघ्न पैदा होता है; इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में विघ्न पड़ता है और कलीसिया के सामान्य कार्यकलापों को क्षति पहुंचती है। आज नहीं तो कल, भेड़ की खाल में छिपे इन भेड़ियों का सफाया किया जाना चाहिए, और शैतान के इन अनुचरों के प्रति एक सख्त और अस्वीकृति का रवैया अपनाया जाना चाहिए। केवल ऐसा करना ही परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना है; और जो ऐसा करने में विफल हैं वे शैतान के साथ कीचड़ में लोट रहे हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मेरी सबसे छोटी बहन का व्यवहार क्षणिक रूप से भ्रष्ट स्वभाव दिखाना नहीं था, बल्कि उसके अत्यधिक दुष्ट स्वभाव की परछाईं थी। वह लोगों को दंडित करती, परेशान करती, उनसे प्रतिशोध लेती और जो भी उससे असहमत होता या उसके हितों पर चोट करता, तो उसे बाहर कर देती और उस पर हमला करती। वह लोगों की आलोचना और निंदा करने के लिए तथ्यों को तोड़ती-मरोड़ती जब तक कि लोग नकारात्मक स्थिति में नहीं चले जाते। अगुआ और दूसरे लोगों ने कई मौकों पर उसके व्यवहार को लेकर उसकी काट-छाँट और सहायता की, लेकिन उसने कभी भी अपनी गलती स्वीकार नहीं की और हमेशा अड़े रहकर बहस की। उसने कभी पश्चात्ताप या आत्म-चिंतन नहीं किया, यहाँ तक कि वह अगुआ से घृणा और उसकी कटु आलोचना भी करती थी। शाओ यू और मैंने कई बार उसके साथ संगति की और उसकी सहायता की, लेकिन उसने कभी हमारी बात नहीं मानी और यह सोचकर हमारे प्रति अपनी नाराजगी और विरोध प्रकट किया कि हम उससे सख्ती से पेश आ रहे हैं। बर्खास्त किए जाने के बाद, उसने कभी आत्म-चिंतन नहीं किया बल्कि यह कहकर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया कि कलीसिया में ईमानदारी से बात नहीं कर सकते, उसे केवल इसलिए बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि उसने अपने मन की बात कही थी। क्या यह सत्य को उलटना और दूसरों को गुमराह करना नहीं था? क्या वह परमेश्वर की धार्मिकता को नकारकर इस बात से इंकार नहीं कर रही थी कि परमेश्वर के घर में सत्य का बोलबाला है? पहले मुझे यह लगता था कि अभी वह जीवन-प्रवेश नहीं कर पाई है, उसका दुष्ट व्यवहार क्षणिक भ्रष्टता मात्र है, इसलिए मैं उसकी सहायता और समर्थन करती रही। लेकिन अब मुझे एहसास हुआ कि यह अपर्याप्त जीवन प्रवेश या क्षणिक भ्रष्टता का मामला नहीं है। वह सत्य से विमुख होकर उससे घृणा करती थी, उसका सार एक बुरे इंसान का सार था।
पहले मुझे लगता था कि चूंकि मेरी बहन ने त्याग किए हैं, खुद को खपाया है, अपने कर्तव्य में बहुत कष्ट उठाए हैं और कड़ी मेहनत की है, भले ही उसने कुछ महत्वपूर्ण हासिल न किया हो, सत्य का अनुसरण न किया हो, फिर भी परमेश्वर इस बात पर गौर करेगा। लेकिन बाद में, परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे एहसास हुआ कि यह समझ विकृत थी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिल्कुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है। इसलिए, जो लोग दंडित किए जाते हैं, वे सब इस तरह परमेश्वर की धार्मिकता के कारण और अपने अनगिनत बुरे कार्यों के प्रतिफल के रूप में दंडित किए जाते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि परमेश्वर किसी इंसान की मंजिल उसकी वरिष्ठता या इसके आधार पर तय नहीं करता कि उसने कितने कष्ट उठाए हैं, त्याग किए हैं और स्वयं को कितना खपाया है, बल्कि इस आधार पर तय करता है कि क्या उसके स्वभाव में बदलाव आया है और क्या उसने सत्य प्राप्त कर लिया है। जो लोग सत्य स्वीकारते हैं, सत्य का अभ्यास करते हैं और अंततः अपने स्वभाव में बदलाव लाते हैं, वही उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन जहाँ तक उन बुरे लोगों, छद्म-विश्वासियों और मसीह-विरोधियों की बात है जो सत्य को तिरस्कृत या उससे घृणा करते हैं, वे चाहे कितने भी कष्ट उठाएँ, उन्हें अंततः हटा दिया जाएगा और वे उद्धार प्राप्त नहीं कर पाएँगे क्योंकि वे हर तरह की बुराई करते हैं और उनमें जरा-सा भी परिवर्तन नहीं आता। मेरी छोटी बहन ने कई वर्षों तक विश्वास रखा था, लेकिन दिखावे के तौर पर त्याग करने, खुद को खपाने और अपने कर्तव्य के लिए कष्ट उठाने के बावजूद, उसने किसी भी तरह सत्य नहीं खोजा था, उसने खुद को नहीं जाना था और कलीसिया के कार्य में इतना व्यवधान पैदा करने के बावजूद उसे कोई पछतावा या पश्चात्ताप नहीं था। उसके निष्कासन तक बात आने के लिए वह खुद ही दोषी थी। यह परमेश्वर की धार्मिकता थी। मैं हमेशा मानती थी कि त्याग करने, खुद को खपाने और अपने कर्तव्य-निर्वहन के दौरान कष्ट सहने की उसकी क्षमता का मतलब है कि वह एक सच्ची विश्वासी है, लेकिन अब मुझे समझ आया कि उसने यह सब सत्य खोजने और स्वाभाव में बदलाव लाने के बजाय प्रसिद्धि और रुतबा हासिल करने के लिए किया था। चाहे उसने कितने समय तक भी विश्वास बनाए रखा हो या कष्ट सहा हो, लेकिन उसने सत्य थोड़ा-भी नहीं स्वीकारा था, सच्चा पश्चात्ताप कर खुद को बदला नहीं था, अंततः उसका हटाया जाना तय था। पौलुस ने भी दिखावे के लिए त्याग किए, खुद को खपाया और अपने कर्तव्य में कड़ी मेहनत की, आधे यूरोप में सुसमाचार का प्रसार करने के लिए यात्राएँ कीं, लेकिन चूँकि उसके स्वभाव में बदलाव नहीं आया था और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वहन करने की कोशिश नहीं की थी—बल्कि मुकुट और स्वर्गिक राज्य की आशीषों की खोज में उसने खुद को खपा दिया था—उसकी यह तक कहने की हिम्मत हुई : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। पौलुस ने निर्लज्जतापूर्वक परमेश्वर से मुकुट की मांग की, उसके द्वारा किए गए बलिदानों में परमेश्वर के प्रति कोई ईमानदारी या समर्पण नहीं था—यह सब महत्वाकांक्षा और इच्छा से प्रेरित लेन-देन था। वह परमेश्वर-विरोध के मार्ग पर चला, अंततः परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर अनंत दंड का भागी बना। मुझे एहसास हुआ कि अगर कोई सत्य खोजकर उसे स्वीकार न करे और केवल दिखावे के लिए त्याग कर कष्ट सहन करे तो मात्र आस्था से कुछ नहीं होता। इसके अंत में दंड भी मिल सकता है, क्योंकि संभव है इस तरह इंसान दुनियाभर की बुराइयों में लिप्त हो जाए।
बाद में, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जिसने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “परमेश्वर पर विश्वास न रखने वाले प्रतिरोधियों के सिवाय भला शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं? क्या ये वे नहीं, जो विश्वास करने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें सत्य नहीं है? क्या ये वे लोग नहीं, जो सिर्फ़ आशीष पाने की फ़िराक में रहते हैं जबकि परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं? तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनसे अंतःकरण और प्रेम से पेश आते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र नहीं कर रहे? यदि लोग इस बिंदु तक आ गए हैं और अच्छाई-बुराई में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर के इरादों को खोजने की कोई इच्छा किए बिना या परमेश्वर के इरादों को अपने इरादे मानने में असमर्थ रहते हुए आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं तो उनका अंत और भी अधिक खराब होगा। जो भी व्यक्ति देहधारी परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, वह परमेश्वर का शत्रु है। यदि तुम शत्रु के प्रति साफ़ अंतःकरण और प्रेम रख सकते हो, तो क्या तुममें न्यायबोध की कमी नहीं है? यदि तुम उनके साथ सहज हो, जिनसे मैं घृणा करता हूँ, और जिनसे मैं असहमत हूँ और तुम तब भी उनके प्रति प्रेम और निजी भावनाएँ रखते हो, तब क्या तुम विद्रोही नहीं हो? क्या तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्या ऐसे व्यक्ति में सत्य होता है? यदि लोग शत्रुओं के प्रति साफ़ अंतःकरण रखते हैं, दुष्टात्माओं से प्रेम करते हैं और शैतान पर दया दिखाते हैं, तो क्या वे जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाल रहे हैं?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे गहरा अपराधबोध हुआ। परमेश्वर चाहता है कि हम उससे प्रेम करें जिससे वह प्रेम करता है और जिससे वह घृणा करता है उससे हम घृणा करें। जो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, बल्कि उससे घृणा करते हैं, वे बुरे लोग हैं; वे दुष्ट शैतान की तरह हैं और हमें भी उनसे घृणा करनी चाहिए। मेरी बहन ने हर तरह की बुराई की, पश्चात्ताप करने में विफल रही और एक बुरी इंसान के रूप में उजागर हुई, लेकिन मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार उसके असली सार को नहीं पहचाना और लगातार दावा किया कि उसके साथ अन्याय हो रहा है क्योंकि उसने अपने कर्तव्य में बहुत कष्ट उठाया है, बहुत-से त्याग किए हैं और भले ही उसके पास दिखाने के लिए कुछ न हो पर उसने कड़ी मेहनत की है। क्या मैं शैतान के साथ अच्छा व्यवहार कर परमेश्वर का विरोध करते हुए शैतान के पक्ष में खड़ी नहीं थी? मैं बरसों से विश्वासी थी, परमेश्वर के बहुत-से वचन खाए-पिए थे, लेकिन मैं उसके वचनों के आलोक में लोगों और स्थितियों पर विचार नहीं कर पाती थी। इसके बजाय, मेरा स्नेह मेरे शब्दों पर हावी हो जाता था, अच्छे-बुरे में अंतर नहीं कर पाती थी, मुझमें सिद्धांतों की थोड़ी-सी भी समझ नहीं थी। मैं अव्यवस्थित और भ्रमित थी, परमेश्वर ने मेरा तिरस्कार कर मुझसे घृणा की। इस बात का एहसास होने पर, मैंने अपनी बहन के साथ अपना स्नेह कम कर दिया और उसके निष्कासन को सही दृष्टिकोण से देखने लगी।
तीन महीने बाद, एक दिन जब मैंने अपनी सहकर्मी बहन को यह कहते हुए सुना कि मेरी बहन के निष्कासन के लिए आवश्यक सभी जानकारी व्यवस्थित कर ली गई है, तो दुख की एक लहर उठी। मैंने सोचा, “अब उसके उद्धार की सारी उम्मीदें खत्म हो गई हैं।” सोच-सोचकर मुझे अपनी बहन पर दया आने लगी। मैं यह आशा भी करने लगी कि शायद निष्कासन के लिए एकत्रित की गई जानकारी पर्याप्त न हो और कलीसिया में उसका परिश्रम करना जारी रहे। लेकिन फिर मुझे अपने रवैये के गलत होने का एहसास हुआ। मुझे साफ तौर पर पता था कि मेरी बहन का सार एक बुरी इंसान का है और उसे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं होगा, लेकिन फिर भी मुझे उससे सहानुभूति थी, उस पर दया आती थी और चाहती थी कि उसे कलीसिया में बनाए रखूँ। क्या मुझे एक शैतान से सहानुभूति नहीं थी और मैं परमेश्वर के विरोध में नहीं खड़ी थी? इसलिए, मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना कर उसका मार्गदर्शन माँगा ताकि मैं अपने स्नेह की बाधाओं पर काबू पा सकूँ। प्रार्थना के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों के निम्नलिखित अंशों पर विचार किया : “पूरी मानवजाति भावनाओं की एक दशा में जीती है—और इसलिए परमेश्वर उनमें से किसी एक को भी बख़्शता नहीं है, और संपूर्ण मानवजाति के हृदयों में छिपे रहस्यों को उजागर करता है। लोगों के लिए स्वयं को अपनी भावनाओं से पृथक करना इतना कठिन क्यों है? क्या ऐसा करना अंतरात्मा के मानकों के परे जाना है? क्या अंतरात्मा परमेश्वर की इच्छा पूरी कर सकती है? क्या भावनाएँ विपत्ति में लोगों की सहायता कर सकती हैं? परमेश्वर की नज़रों में, भावनाएँ उसकी दुश्मन हैं—क्या यह परमेश्वर के वचनों में स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 28)। “मैं लोगों को अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त करने का अवसर नहीं देता, क्योंकि मैं दैहिक भावनाओं से रहित हूँ, और चरम सीमा तक लोगों की भावनाओं से घृणा करने लगा हूँ। लोगों के बीच की भावनाओं के कारण ही मुझे एक तरफ कर दिया गया है, और इस तरह मैं उनकी नजरों में ‘दूसरा’ बन गया हूँ; यह लोगों के बीच की भावनाओं के कारण ही है कि मैं भुला दिया गया हूँ; यह मनुष्य की भावनाओं के कारण ही है कि वह अपने ‘विवेक’ को पाने के अवसर का लाभ उठता है; यह मनुष्य की भावनाओं के कारण ही है कि वह हमेशा मेरी ताड़नाओं से विमुख रहता है; यह मनुष्य की भावनाओं के कारण ही है कि वह मुझे गलत और अन्यायी कहता है, और कहता है कि मैं चीजें सँभालने में मनुष्य की भावनाओं से बेपरवाह रहता हूँ। क्या पृथ्वी पर मेरे भी सगे-संबंधी हैं?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 28)। परमेश्वर के वचनों की व्याख्या से मैंने जाना कि हमारा स्नेह ही सत्य का अभ्यास करने में सबसे बड़ी बाधा है। जब हम अपने स्नेह के सहारे जीते हैं तो हम सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों और स्थितियों पर विचार नहीं कर पाते। जब मुझे पता चला कि मेरी सबसे छोटी बहन को कलीसिया से निष्कासित किया जा रहा है, तो मुझे उसके साथ सहानुभूति हुई और उस पर दया आई, मैंने यह उम्मीद भी की कि उसका मामला निष्कासन के मानदंडों को पूरा न करे और वह कलीसिया में बनी रह सके। यह सब उसके प्रति मेरे अत्यधिक स्नेह के कारण था। क्योंकि मैं इस तरह के शैतानी जहर के सहारे जी रही थी, “मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?” और “खून के रिश्ते सबसे मजबूत होते हैं,” मैं अच्छे-बुरे में भेद नहीं कर पा रही थी और समझ नहीं पर रही थी कि किससे प्रेम करना चाहिए और किसका तिरस्कार करना चाहिए। जब युशुन ने मेरी बहन के बारे में जानकारी दी, तो मैंने स्थिति के तथ्यों को समझे बिना ही उसे अन्याय समझा और अपनी बहन का बचाव किया। मैंने सोचा कि युशुन ने अपनी रिपोर्ट में मामले को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया है, मुझे इस बात की पीड़ा थी कि वह मेरी बहन की मदद नहीं कर रही। जबकि सच यह है कि भाई-बहनों ने उसके साथ संगति की थी और कई बार उसकी मदद भी की थी, लेकिन उसने उनकी मदद स्वीकार नहीं की और पीठ पीछे उनकी आलोचना की। मैं स्थिति को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रही थी और शैतान की ओर से बोल रही थी। अपनी बहन की तमाम बुराइयाँ जानते हुए भी, मैं उससे नफरत नहीं करती थी, बल्कि चाहती थी कि वह कलीसिया में बनी रहे; मैंने अपने स्नेह को खुद पर हावी होने दिया था। उसके जैसी बुरी इंसान को कलीसिया में रहने की अनुमति देने का मतलब था वह एक और दिन बुराई करेगी, भाई-बहनों और कलीसिया के काम को और अधिक नुकसान पहुँचाएगी। क्या मैं शाओ झी को कलीसिया में बने रहने और कलीसिया के काम में बाधा डालने की इजाजत देकर उसके कुकर्मों को शह नहीं दे रही थी? एक बुरे इंसान के कुकर्मों में मैंने भी भूमिका निभाई थी! तब जाकर मुझे परमेश्वर के वचनों में आए इस कथन : “भावना उसका शत्रु है,” का मतलब समझ आया। मुझे एहसास हुआ कि समस्याएँ आने पर अगर हम सत्य खोजने के बजाय अपने स्नेह को खुद पर हावी होने देंगे तो हम किसी भी समय बुराई कर परमेश्वर का विरोध कर सकते हैं।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा जिसमें लिखा है : “परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, यदि वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास सही मार्ग है और यह उनका उद्धार कर सकता है, फिर भी ग्रहणशील नहीं होते, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे सत्य से विमुख रहने वाले और नफरत करने वाले लोग हैं और वे परमेश्वर का विरोध और उससे नफरत करते हैं—और स्वाभाविक तौर पर परमेश्वर उनसे अत्यंत घृणा और नफरत करता है। क्या तुम ऐसे माता-पिता से अत्यंत घृणा कर सकते हो? वे परमेश्वर का विरोध और उसकी आलोचना करते हैं—ऐसे में वे निश्चित रूप से दानव और शैतान हैं। क्या तुम उनसे नफरत कर उन्हें धिक्कार सकते हो? ये सब वास्तविक प्रश्न हैं। यदि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकें, तो तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? जैसा कि परमेश्वर चाहता है, परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो। अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा था : ‘कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?’ ‘क्योंकि जो भी मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा के अनुसार चलेगा, वही मेरा भाई, मेरी बहिन और मेरी माँ है।’ ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : ‘परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो।’ ये वचन बिल्कुल सीधे हैं, फिर भी लोग अक्सर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे उसकी धार्मिकता का एहसास हुआ। परमेश्वर लोगों के साथ सिद्धांत के अनुसार व्यवहार करता है और चाहता है कि हम भी वैसा ही करें। जो लोग सत्य खोजते हैं, ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य निभाते हैं, उनसे हमें प्रेम करना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे जो लोग लगातार कलीसिया में गड़बड़ी पैदा करते हैं, सत्य और परमेश्वर से घृणा करते हुए भाई-बहनों को दंडित करते हैं और उनकी कटु आलोचना करते हैं, वे सब बुरे लोग हैं और हमें उनका तिरस्कार करते हुए उन्हें ठुकरा देना चाहिए। भले ही वे हमारे रिश्तेदार ही क्यों न हों, हमें उन्हें परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में देखना चाहिए, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करना चाहिए और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करनी चाहिए। लेकिन मुझमें कोई सत्य था ही नहीं। मैं हर चीज को अपने स्नेह के नजरिए से देखती थी। मुझमें सिद्धांत और विवेक की कमी थी, मैं एक ऐसे बुरे इंसान, शैतान के प्रति प्रेम और सहानुभूति दिखा रही थी जो साफ तौर पर उजागर हो चुका था। यह अंधा प्रेम था! जब मुझे इसका एहसास हुआ, तो मैंने परमेश्वर की धार्मिकता की प्रशंसा की और स्वयं देखा कि परमेश्वर के घर में सत्य और धार्मिकता का बोलबाला है जहाँ कोई भी बुरा व्यक्ति अपने पैर नहीं जमा सकता। अब, परमेश्वर के वचनों की सहायता से, मैं खुद को स्नेह की बेड़ियों से मुक्त करने और अपने बारे में थोड़ी-बहुत समझ हासिल करने में कामयाब हुई। परमेश्वर का धन्यवाद!
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