जिन्हें आप काम पर रखते हैं उन पर कभी संदेह न करने के नतीजे
पिछले साल, मैं कलीसिया के सिंचन और सुसमाचार कार्य की सुपरवाइजर थी। चूंकि यह मेरी शुरुआत थी, मुझे काम के बारे में बहुत-सी बातें मालूम नहीं थीं, तो मैंने उन टीम अगुआओं पर काफी भरोसा किया। मैंने सोचा कि वे अपने काम में निपुण और हर मामले में मुझसे बेहतर होंगे, तो मुझे उनसे सीखना चाहिए, खासकर बहन लिली से, जो खूब काबिल और प्रतिभाशाली कार्यकर्ता थी। वह हमेशा सभाओं में कार्य चर्चाओं की अध्यक्षता करती थी और उसके ग्रुप का सुसमाचार कार्य दूसरों के मुकाबले बेहतर था। नतीजतन, मैं उसका बहुत आदर और उस पर भरोसा करती थी। मुझे उसके काम की सामान्य-सी समझ थी, कभी गहराई में नहीं गई। मुझे उस पर बहुत विश्वास था। उस वक्त, भाई-बहनों ने याद दिलाया कि मुझे लिली के काम की जांच के लिए हर हफ्ते थोड़ा समय निकालना चाहिए, मगर हामी भरने के बाद भी मैं सोचती : “लिली कभी-कभी अड़ियल हो सकती है, पर वह काम के हर पहलू में काफी अच्छा करती है और इस क्षेत्र में सबसे प्रतिभाशाली है, तो शायद उसमें कोई बड़ी समस्या न हो। अगर मैं हमेशा उसके काम के बारे में पूछताछ करती रही, तो ऐसा लगेगा मैं उस पर भरोसा नहीं करती।” इसलिए मैंने उनके सुझाव गंभीरता से लिए ही नहीं। एक दिन, दो बहनों ने बताया कि लिली व्यावहारिक काम नहीं कर रही है। वह अक्सर टीम के काम की खोज-खबर नहीं लेती है या भाई-बहनों की समस्याएं और परेशानियां हल करने के लिए संगति नहीं करती है, और जब कभी-कभार जांच करती भी है, तो इससे ज्यादा मदद नहीं मिलती, इसलिए टीम का सुसमाचार कार्य उतना असरदार नहीं हो रहा। यह सुनकर मैं हैरान रह गई। लिली व्यावहारिक कार्य कैसे नहीं कर रही है? उसने मुझे बताया था कि वह टीम के काम की खोज-खबर लेती रहती है, और जब मैं उससे पूछती, तो वह यही कहती कि कोई समस्या नहीं है। फिर बहनें क्यों कह रही हैं कि वह अपने काम की खोज-खबर नहीं ले रही? मगर फिर मैंने सोचा : “लिली की टीम कुल मिलाकर अच्छा काम कर रही है, शायद इन बहनों को पूरी कहानी पता नहीं है। मैं सिर्फ उनकी बातों पर फैसला नहीं कर सकती। वैसे भी, इन बहनों में भी तो कुछ समस्याएं हैं—अगर लिली को काम में समस्याएं आ भी रही हैं, तो यह सामान्य बात है। कोई भी परिपूर्ण नहीं होता!” इसलिए मैंने उनकी शिकायतों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और बस लिली को अलग से याद दिलाते हुए, आगे से टीम के काम की खोज-खबर लेने पर ध्यान लगाने को कहा, और बात वहीं खत्म कर दी। मुझे हैरानी हुई जब कुछ ही दिनों में लिली के काम में बड़ी समस्याएं दिखने लगीं।
एक दिन, एक अगुआ ने कहा कि लिली के बारे में फिर से रिपोर्ट मिली है कि वह व्यावहारिक काम नहीं कर रही। सुसमाचार कार्य ठीक से न चलने पर वह इसकी खोज-खबर नहीं लेती है, टीम को सुसमाचार साझा करने में दिक्कतें आने पर वह फौरन टीम की मदद नहीं करती है। काम करवाते समय भी वह कभी चीजों पर गौर नहीं करती है—बैठकों के दौरान वह योजनाओं का खाका तो बनाती है, पर बाद में उन पर अमल नहीं करती है, इसलिए काम पूरा नहीं होता है जिसका असर सुसमाचार साझा करने के नतीजों पर पड़ता है। यह सुनकर, मैं फिर से हैरान रह गई—मुझे मालूम था कि लिली के काम में कुछ समस्याएं हैं, पर यह नहीं जानती थी कि वे इतनी गंभीर थीं। वह खूब काबिल थी और आगे बढ़कर काम करती थी, तो अपना व्यावहारिक काम क्यों नहीं कर रही थी? मैं यकीन नहीं कर पाई कि यह सच था। बाद में, अगुआ ने उसके साथ संगति कर उसकी समस्याएं बताईं। मैंने सोचा वह आत्मचिंतन कर इससे सबक सीख लेगी, पर मुझे हैरानी हुई कि उसने न तो आत्मचिंतन किया, न रत्ती भर स्वीकृति और समर्पण की प्रवृत्ति दिखाई। उसने कह दिया, वह टीम अगुआ के लिए नहीं बनी है और पद छोड़ने की पेशकश कर दी। वह न तो व्यावहारिक कार्य कर रही थी, न निपटान को ही स्वीकार कर रही थी। आखिर उसे सिद्धांतों के आधार पर टीम अगुआ लायक नहीं माना गया और दूसरा काम सौंप दिया गया। इसके बाद, मुझे काफी बुरा लगा। मैं यह कैसे नहीं देख पायी कि टीम अगुआ व्यावहारिक काम नहीं कर रही है? मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की और कहा : “परमेश्वर, मैं कितनी अंधी हूँ। कृपा करके मुझे प्रबुद्ध करो, मुझे राह दिखाओ ताकि मैं अपनी नाकामी की वजह जान सकूं।”
एक दिन, भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “झूठे अगुआ उन निरीक्षकों की जाँच नहीं करेंगे जो वास्तविक कार्य नहीं कर रहे हैं, या जो अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें बस एक निरीक्षक चुनना है और सब-कुछ ठीक हो जाएगा; फिर निरीक्षक सभी कार्य मामलों को संभालेगा, उन्हें तो बस बीच-बीच में सभाएँ आयोजित करते रहना है, उन्हें काम पर नजर रखने या यह पूछने की आवश्यकता नहीं होगी कि कैसा चल रहा है, वे इन बातों से दूर रह सकते हैं। अगर कोई निरीक्षक से जुड़ी समस्या को लेकर आता है, तो झूठा अगुआ कहेगा, ‘यह तो मामूली-सी समस्या है, कोई बड़ी बात नहीं है। इसे तो तुम लोग खुद ही संभाल सकते हो। मुझसे मत पूछो।’ समस्या की रिपोर्ट करने वाला व्यक्ति कहता है, ‘वह निरीक्षक आलसी पेटू है। बस खा-पीकर मजे करने के सिवा कुछ नहीं करता, एकदम निकम्मा है। वह अपने काम में थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं उठाना चाहता, काम और जिम्मेदारियों से बचने के लिए हमेशा धोखा देने के तरीके खोजता है और बहाने बनाता है। वह निरीक्षक बनने लायक नहीं है।’ झूठा अगुआ जवाब देगा, ‘जब उसे निरीक्षक चुना गया था, तब तो वह ठीक था। तुम जो कह रहे हो, वह सच नहीं है, और अगर है भी तो यह सिर्फ एक अस्थायी अभिव्यक्ति है।’ झूठा अगुआ निरीक्षक की स्थिति के बारे में अधिक जानने की कोशिश नहीं करता, बल्कि उस व्यक्ति के साथ अपने पिछले अनुभवों के आधार पर ही मामले को परखता और उसका निर्धारण करता है। चाहे कोई भी निरीक्षक की समस्याओं की रिपोर्ट करे, झूठा अगुआ उसे अनदेखा करता है। निरीक्षक के लिए काम बस के बाहर होता है, वे अपना काम पूरा कर पाने में सक्षम नहीं होते और पहले ही सब कुछ काम खराब कर चुकने के करीब होते हैं—लेकिन नकली अगुआ को कोई परवाह नहीं होती। यह वैसे भी बुरी बात है कि जब कोई व्यक्ति निरीक्षक के मुद्दों की रिपोर्ट करता है, तो अगुआ आंखें मूंद लेता है। लेकिन सबसे घृणित क्या होता है? जब लोग उसे निरीक्षक के गंभीर मुद्दों के बारे में बताते हैं, तो वह उन्हें सुलझाने की कोशिश नहीं करता, बल्कि दुनियाभर के बहाने बनाता है : ‘मैं इस निरीक्षक को जानता हूँ, वह सच में परमेश्वर में विश्वास करता है, उसे कभी कोई समस्या नहीं होगी। यदि हुई भी, तो परमेश्वर उसकी रक्षा और उसे अनुशासित करेगा। अगर उससे कोई गलती हो भी जाती है, तो वह उसके और परमेश्वर के बीच का मामला है—हमें उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है।’ नकली अगुआ इस तरह अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार काम करते हैं। वे सत्य समझने और आस्था होने का दिखावा करते हैं—नतीजतन, वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर देते हैं, यहाँ तक कि उसे ठप्प कर देते हैं, और इस दौरान अज्ञानता का ढोंग करते हैं। क्या वे सिर्फ नौकरशाह नहीं हैं? नकली अगुआ कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते, न ही वे समूह अगुआओं और निरीक्षकों के कार्य को गंभीरता से लेते हैं। लोगों के बारे में उनका नजरिया उनकी अपनी सोच और कल्पनाओं पर आधारित होता है। किसी को कुछ समय के लिए अच्छा काम करते देखकर, उसे लगता है कि वह व्यक्ति हमेशा ही अच्छा काम करेगा, उसमें कोई बदलाव नहीं आएगा; अगर कोई कहता है कि इस व्यक्ति के साथ कोई समस्या है, तो वह उस पर विश्वास नहीं करता, अगर कोई उस व्यक्ति पर उंगली उठाता है, तो वह उसे अनदेखा कर देता है। ... झूठे अगुआ की यह भी एक बड़ी विफलता होती है : वे अपनी कल्पनाओं के आधार पर लोगों पर जल्दी भरोसा कर लेते हैं। और यह सत्य को न समझने के कारण होता है, है न? परमेश्वर के वचन भ्रष्ट लोगों का सार कैसे प्रकट करते हैं? जब परमेश्वर ही लोगों पर भरोसा नहीं करता, तो वे क्यों करें? रूप-रंग से लोगों को आँकने के बजाय परमेश्वर उनके दिलों पर लगातार नजर रखता है—तो नकली अगुआओं को दूसरों को आँकते और उन पर भरोसा करते समय इतना लापरवाह क्यों होना चाहिए? नकली अगुआ बहुत घमंडी होते हैं, है न? वे यह सोचते हैं, ‘जब मैंने इस व्यक्ति को खोजा था, तो मैं गलत नहीं था। कोई गड़बड़ नहीं हो सकती; वह निश्चित रूप से ऐसा नहीं है, जो गड़बड़ करे, मस्ती करना पसंद करे और मेहनत से नफरत करे। वे पूरी तरह से भरोसेमंद और विश्वसनीय हैं। वे बदलेंगे नहीं; अगर वे बदले, तो इसका मतलब होगा कि मैं उनके बारे में गलत था, है न?’ यह कैसा तर्क है? क्या तुम कोई विशेषज्ञ हो? क्या तुम्हारे पास एक्सरे जैसी दृष्टि है? क्या यह तुम्हारा विशेष कौशल है? तुम उस व्यक्ति के साथ एक-दो साल तक रह सकते हो, लेकिन क्या तुम उसकी प्रकृति और सार को पूरी तरह से उजागर करने वाले किसी उपयुक्त वातावरण के बिना यह देख पाओगे कि वह वास्तव में कौन है? अगर परमेश्वर द्वारा उन्हें उजागर न किया जाए, तो तुम्हें तीन या पाँच वर्षों तक उनके साथ रहने के बाद भी यह जानने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा कि उनकी प्रकृति और सार किस तरह का है। और जब तुम उनसे शायद ही कभी मिलते हो, शायद ही कभी उनके साथ होते हो, तो यह भी कितना सच होगा? उनके साथ थोड़ी-बहुत बातचीत या किसी के द्वारा उनके सकारात्मक मूल्यांकन के आधार पर तुम प्रसन्नतापूर्वक उन पर भरोसा कर लेते हो और ऐसे लोगों को कलीसिया का काम सौंप देते हो। इसमें क्या तुम अत्यधिक अंधे नहीं हो जाते हो? उतावले नहीं हो जाते हो? और जब नकली अगुआ इस तरह से काम करते हैं, तो क्या वे बेहद गैर-जिम्मेदार नहीं होते?” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करके मुझे एहसास हुआ कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होता है, जब तक वे सत्य हासिल कर खुद को बदल नहीं लेते, तब तक विश्वास के लायक नहीं होते, उनमें से किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मगर झूठे अगुआ सत्य नहीं समझते, वे लोगों के सार को नहीं पहचान पाते, वे बस यूं ही दूसरों पर भरोसा कर लेते हैं, काफी समय तक उनके काम की खोज-खबर लेने या निगरानी करने में नाकाम रहते हैं। वे बहुत अहंकारी और गैर-जिम्मेदार होते हैं। मैं भी ऐसा ही व्यवहार कर रही थी। मैंने लिली के काम की निगरानी या जांच नहीं की, इसकी मुख्य वजह यही थी कि मैं उस पर बहुत अधिक विश्वास करती थी। मैंने देखा कि वह खूब काबिल है, सुसमाचार साझा करने में अनुभवी और असरदार है, तो मैंने उस पर पूरी तरह विश्वास किया और उसका सम्मान किया, कभी उसके काम की निगरानी करने की नहीं सोची। जब दूसरों ने मुझे उसकी समस्याएं बताईं, तो उन पर ध्यान न देकर मैंने यहाँ तक सोच लिया कि समस्याएं तो उनमें ही हैं। नतीजतन, काम में बड़ी समस्याएं आने लगीं और मुझे इनका पता भी नहीं चला। मैंने लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के आईने में नहीं देखा, बस अपनी आँखों देखी पर भरोसा किया, मानो मैं गहरी अंतर्दृष्टि वाली कोई विशेषज्ञ हूँ। मैं बहुत दंभी थी। असल में, किसी भी भ्रष्ट इंसान पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता—कोई नहीं जानता कि वे किस समय क्या कर बैठेंगे। सिर्फ इसलिए कि किसी को कुछ समय तक कामयाबी मिली है और वह थोड़े व्यावहारिक काम कर पाता है, इसका मतलब यह नहीं कि उस पर पूरी तरह विश्वास किया जा सकता है। लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होता है, इसलिए वे मनमाने ढंग से काम कर सिद्धांतों का उल्लंघन कर सकते हैं, वे काम में ढीले और लापरवाह होकर उसे नुकसान पहुंचा सकते हैं। सबसे बड़ी बात, मैं तो लिली को कुछ ही समय से जानती थी, उसे ठीक से समझती भी नहीं थी, फिर भी उस पर इतना अधिक विश्वास किया, सोचा कि वह हर काम में अच्छी होगी और उसके काम की निगरानी करने की कोई जरूरत नहीं होगी। मैं कितनी अहंकारी और अंधी थी! मुझे कभी नहीं लगा कि लिली इतनी अधिक स्वार्थी होगी। वह एक टीम अगुआ थी, पर उसने खुद ही ज्यादातर लोगों का मत परिवर्तन करने की परवाह की, अपनी टीम के काम को अनदेखा कर दिया। जब दूसरों के काम में समस्याएं आईं, तो उसने उन्हें हल करने के लिए संगति नहीं की। उसने ऐसा कोई काम नहीं किया जो अगुआ के तौर पर करना चाहिए था। मैं हमेशा यही सोचती रही कि वह काबिल और प्रतिभाशाली कार्यकर्ता है, व्यावहारिक काम करने में सक्षम है, तो उसका काफी सम्मान करने लगी। अब जाकर मुझे एहसास हुआ कि यह सही नहीं था। लिली प्रकृति से स्वार्थी थी, वह सिर्फ अपने काम की परवाह करती थी, उसने कलीसिया के समग्र हितों की रक्षा नहीं की। वह सिर्फ सुसमाचार फैलाने लायक थी, टीम अगुआ बनने लायक नहीं। चूंकि मैंने आँखें मूंदकर उस पर विश्वास किया, उसके काम की जांच नहीं की, तो उसके भटकावों और चूकों को फौरन पकड़ नहीं पायी। नतीजतन, सुसमाचार कार्य में रुकावट आ गई। सुपरवाइजर होने के नाते, यह गलती माफी लायक नहीं थी। इस बारे में जितना सोचा उतना ही खुद को दोषी पाया, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए, सच में आत्मचिंतन करने और अपनी गलत दशा और सोच को बदलने में मदद माँगी।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। “यह कहना गलत न होगा कि अधिकांश लोग इस मुहावरे को सच मानते हैं ‘उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम काम पर रखते हो, और जिन लोगों पर तुम संदेह करते हो उन्हें काम पर मत रखो’, और वे इससे धोखा खाकर बंधे जाते हैं। लोगों को चुनते या नियुक्त करते समय वे इससे परेशान और प्रभावित हो जाते हैं, यहाँ तक कि इससे उनके कार्य भी निर्देशित होने लगते हैं। परिणामस्वरूप, बहुत से अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया के काम की जाँच करते समय, लोगों को तरक्की देते और नियुक्त करते समय मुश्किलें पेश आती हैं और आशंका होने लगती है। अंत में, वे बस इन शब्दों से खुद को तसल्ली दे पाते हैं, ‘उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम काम पर रखते हो, और जिन लोगों पर तुम संदेह करते हो उन्हें काम पर मत रखो।’ काम का निरीक्षण या पूछताछ करते समय, वे सोचते हैं, ‘“उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम काम पर रखते हो, और जिन लोगों पर तुम संदेह करते हो उन्हें काम पर मत रखो।” मुझे अपने भाई-बहनों पर भरोसा करना चाहिए, आखिरकार, पवित्र आत्मा लोगों को देखता है, इसलिए मुझे हमेशा दूसरों पर संदेह और उनकी निगरानी नहीं करनी चाहिए।’ वे इस मुहावरे से प्रभावित हो गए हैं, है न? इस मुहावरे के प्रभाव से क्या परिणाम सामने आते हैं? सबसे पहले, तुम परमेश्वर के वचन, तुम्हारे लिए परमेश्वर के आदेश के प्रति वफादार नहीं हो और न ही परमेश्वर के प्रति, बल्कि जीने के लिए शैतानी फलसफे और शैतानी तर्क के प्रति वफादार हो। तुम परमेश्वर और परमेश्वर के वचनों को खुले तौर पर धोखा देते हुए परमेश्वर में विश्वास रखते हो। यह एक गंभीर समस्या है, है न? दूसरा, यह परमेश्वर के वचनों और कर्तव्यों का पालन करने में तुम्हारी विफलता मात्र नहीं है, बल्कि यह शैतान की साजिशों और जीने के उसके फलसफों को सत्य मानना है, उनका अनुसरण और अभ्यास करना है। तुम शैतान की आज्ञा का पालन कर रहे हो और शैतानी फलसफे के अनुसार जी रहे हो, है न? ऐसा करने का अर्थ है कि तुम परमेश्वर की आज्ञा मानने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम परमेश्वर के वचनों का पालन करने वाले व्यक्ति तो बिलकुल नहीं हो। तुम बदमाश हो। परमेश्वर के वचनों को दर-किनार कर, शैतानी मुहावरे को अपनाना और सत्य के रूप में उसका अभ्यास करना, सत्य और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना है! तुम परमेश्वर के घर में काम करते हो, फिर भी जीवन जीने के लिए शैतानी तर्क और फलसफे के अनुसार काम करते हो, तुम किस तरह के व्यक्ति हो? ऐसा व्यक्ति परमेश्वर से विद्रोह करता है और उसे बुरी तरह लज्जित करता है। इस हरकत का सार क्या है? खुले तौर पर परमेश्वर की निंदा करना और सत्य को नकारना। क्या यही इसका सार नहीं है? तुम परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के बजाय, शैतान की भ्रांतियों और उसके जीने के शैतानी फलसफों को कलीसिया में निरंकुशता करने दे रहे हो। ऐसा करके, तुम खुद शैतान के सहयोगी बन जाते हो और कलीसिया में शैतान के कार्यों में सहायता करते हो। इस समस्या का सार गंभीर है, है न?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि “उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम काम पर रखते हो” कोई सकारात्मक बात या सत्य नहीं है। यह शैतान का फलसफा है। मैंने लिली पर भरोसा किया और उसके काम की निगरानी नहीं की, इसकी मुख्य वजह थी कि मैं इस फलसफे पर जी रही थी और उस पर बहुत ज्यादा विश्वास करती थी। जब मैं उसकी जांच करना भी चाहती थी, तो चिंता हुई कि अगर मैंने पूरी ईमानदारी दिखाई, तो कहीं उसे यह न लगे कि मैं उस पर भरोसा नहीं करती। आखिर, वह काफी समय से यह काम कर रही थी और काफी अनुभवी भी थी, वह कई मामलों में मुझसे बेहतर थी और उसके नतीजे संतोषजनक थे। उस जैसी इंसान में भला कौन सी बड़ी समस्या हो सकती है? मैंने सोचा कि मुझे मामूली बात का बतंगड़ बनाने की कोई जरूरत नहीं, अगर उसे काम सौंपा है, तो उस पर भरोसा भी करना चाहिए, इसमें कोई समस्या नहीं होगी। चूंकि मैं जीवन जीने के शैतानी फलसफे से प्रभावित थी, मैंने कभी उसके काम की निगरानी या जांच-पड़ताल नहीं की। जब लोगों ने उसकी समस्याओं की रिपोर्ट की, तब भी मैंने उन पर विश्वास नहीं किया या आगे छानबीन नहीं की। इसी वजह से सुसमाचार कार्य में बाधा आई, मैंने जो नुकसान किया उसकी भरपाई नहीं हो सकती थी। असल में, परमेश्वर की अपेक्षा रहती है कि अगुआ और कार्यकर्ता काम की निगरानी करें, उसकी खोज-खबर लें, ताकि हम समस्याओं और भटकावों को जल्दी से पकड़कर उन्हें हल कर सकें। यह लोगों के कर्तव्य के साथ-साथ कलीसिया के काम के लिए भी फायदेमंद है। मगर मैं “उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम काम पर रखते हो” के शैतानी फलसफे पर जी रही थी, मैंने लोगों को काम सौंपने के बाद उनकी निगरानी या जांच-पड़ताल नहीं की, उनका मार्गदर्शन या मदद करने की तो बात ही दूर थी। मैं अपने कर्तव्य में लापरवाह थी, व्यावहारिक कार्य नहीं कर रही थी—यह एक झूठे अगुआ का व्यवहार है। मैंने ऐसी टीम अगुआ को काम सौंपा जो व्यावहारिक काम नहीं करती थी, इससे कलीसिया के काम को कोई मदद नहीं मिली, असल में उसका भारी नुकसान हो गया। मैं नीच कर्म कर रही थी! तब जाकर मुझे समझ आया कि “उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम काम पर रखते हो” की यह शैतानी सोच बेहद नुकसानदेह थी। अगर हम हमेशा इसी विचार पर जीते रहे, तो कलीसिया के काम में देरी कर सकते हैं। मैंने इस पर जितना मनन किया, उतना ही अधिक पछतावा हुआ, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “मैं अब से लोगों और अपने कर्तव्य को शैतान के फलसफे के अनुसार नहीं देखना चाहती। मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ। मैं पछताने वाला कोई काम नहीं करना चाहती।”
बाद में, परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “क्या तुम मानते हो कि मुहावरा ‘उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम काम पर रखते हो, और जिन लोगों पर तुम संदेह करते हो उन्हें काम पर मत रखो’ सही है? क्या यह मुहावरा सत्य है? परमेश्वर के घर के काम में और अपने कर्तव्य को पूरा करने में कोई इस मुहावरे का उपयोग क्यों करेगा? यहां क्या समस्या है? यह मुहावरा साफ तौर से अविश्वासियों के शब्द हैं, शैतान के मुँह से निकले हुए शब्द हैं—तो वे उन्हें सत्य क्यों मानते हैं? वे लोग क्यों नहीं बता पाते कि ये सही हैं या गलत? ये स्पष्ट रूप से मनुष्य के शब्द हैं, भ्रष्ट इंसान के शब्द हैं, ये सत्य नहीं हैं, ये पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के विपरीत हैं, इन्हें लोगों के कार्यों, आचरण और परमेश्वर की आराधना के लिए मानदंड नहीं मानना चाहिए। तो इस मुहावरे को कैसे लेना चाहिए? यदि तुम वास्तव में भेद कर पाने में सक्षम हो, तो अभ्यास के अपने सिद्धांत के रूप में तुम्हें इसकी जगह किस प्रकार के मानदंड का उपयोग करना चाहिए? मानदंड यह होना चाहिए कि ‘तुम अपना कर्तव्य पूरे दिल, आत्मा और मन से निभाओ।’ अपने पूरे दिल, पूरी आत्मा और पूरे मन से कार्य करना किसी के द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाना है; यह एक दिलो-दिमाग का होना है और कुछ नहीं। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और कर्तव्य है और तुम्हें इसे अच्छी तरह से निभाना चाहिए, जैसा कि स्वर्ग द्वारा निर्धारित और पृथ्वी द्वारा अभिस्वीकृत है। तुम्हारे सामने जो भी समस्याएँ आएँ, तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। उनसे तुम वैसे ही निपटो, जैसा जरूरी हो; यदि काट-छाँट और निपटान की आवश्यकता है, तो वैसे ही करो और यदि बर्खास्तगी अनिवार्य है, तो वही सही। परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर कार्य करो। क्या यही सिद्धांत नहीं है? क्या यह इस वाक्यांश के ठीक विपरीत नहीं है ‘उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम काम पर रखते हो, और जिन लोगों पर तुम संदेह करते हो उन्हें काम पर मत रखो।’ यह कहने का क्या अर्थ है कि उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम काम पर रखते हो, और जिन लोगों पर तुम संदेह करते हो उन्हें काम पर मत रखो? इसका अर्थ यह है कि यदि तुमने किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखा है तो तुम्हें उस पर शक नहीं करना चाहिए। यदि तुमने किसी व्यक्ति को काम पर रखा है, तो तुम्हें बागडोर ढीली छोड़ देनी चाहिए, उसकी निगरानी नहीं करनी चाहिए और वह जैसा चाहे उसे वैसा करने देना चाहिए; यदि तुम उस पर संदेह करते हो, तो तुम्हें उसे काम पर नहीं रखना चाहिए। क्या यही इसका मतलब नहीं है? यह तो एकदम गलत है। शैतान ने इंसान को बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है। हर व्यक्ति में एक शैतानी स्वभाव होता है, वह परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर उसका विरोध कर सकता है। तुम कह सकते हो कि भरोसे लायक तो कोई भी नहीं होता। यहां तक कि अगर कोई व्यक्ति दुनियाभर की कसम खा ले, तो भी कोई फायदा नहीं, क्योंकि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव में जकड़े हुए हैं और अपने कार्य-कलापों को नियंत्रित नहीं कर सकते। अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने से पहले, उन्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए, परमेश्वर का विरोध और उससे विश्वासघात करने की समस्या को पूरी तरह से दूर करना चाहिए—लोगों के पापों की जड़ को समूल नष्ट करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण से नहीं गुजरे हैं और उद्धार प्राप्त नहीं कर पाए हैं, वे भरोसे लायक नहीं हैं। वे विश्वासपात्र नहीं हैं। इसलिए, जब तुम किसी को नियुक्त करो, तो उसकी निगरानी करो, उसे निर्देशित करो, उसकी काट-छाँट करो और उससे निपटो और अक्सर सत्य पर संगति करो। तभी तुम समझ पाओगे कि उस व्यक्ति को काम पर रहने देना चाहिए या नहीं। अगर कुछ लोग सत्य स्वीकार कर लेते हैं, काट-छांट और निपटारा स्वीकार कर लेते हैं, निष्ठापूर्वक अपना कार्य करते हैं और जीवन में निरंतर प्रगति कर रहे हैं, तभी सही मायनों में ये लोग काम पर रखने लायक होते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। परमेश्वर कहता है कि हम अपने कर्तव्य में पूरा दिल लगाएं। अपनी निगरानी वाले सभी कामों के लिए, चाहे मैं किसी व्यक्ति से परिचित हूँ या नहीं, या मैं उनके बारे में जो भी सोचती हूँ, मुझे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए बनाये गए परमेश्वर के सिद्धांतों के आधार पर ही अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, वह सब करना चाहिए जिसकी मुझसे अपेक्षा की जाती है, हर किसी के काम की निगरानी करना, इसे अच्छी तरह समझना, समस्याएं ढूंढना और उन्हें जल्दी से हल करना, और जिन लोगों में गंभीर समस्याएं हैं उनके साथ निपटान और काट-छांट करना। ये ही मेरे कर्तव्य के सिद्धांत हैं और इनके जरिये ही मैं अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकती हूँ। इसका एहसास होने पर, मुझे काफी कुछ साफ हो गया और अपने कर्तव्य में आगे बढ़ने का रास्ता मिल गया।
इसके बाद, कलीसिया ने लिली को नए सदस्यों के सिंचन का काम सौंपा, और वह इस काम में खुश थी। मैंने मन-ही-मन सोचा : “शायद वह अपनी बर्खास्तगी से कुछ सबक सीखकर इस बार अच्छे से कर्तव्य निभा सके।” मगर जल्दी ही, जिन सदस्यों का उसने सिंचन किया था उनमें से कई ने सामान्य रूप से सभाओं में आना बंद कर दिया। मुझे ठीक नहीं लगा, तो मैंने उससे विस्तार में जानना चाहा कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। मैं हैरान रह गई जब उसने बहाना बनाया कि उसके पास खोज-खबर रखने का वक्त ही नहीं था। यह सुनकर मैं बहुत परेशान हो गई। मैंने सोचा था कि बर्खास्त होने के बाद वह आत्मचिंतन करेगी और कुछ व्यावहारिक काम करेगी, पर मेरी सोच गलत साबित हो गई। मैं जानती थी कि लोगों को अपनी धारणाओं के आधार पर देखती नहीं रह सकती। सुपरवाइजर होने के नाते, मुझे काम की निगरानी और जांच करनी होगी, दिशानिर्देश देने होंगे और अपनी जिम्मेदारियां पूरी करनी होंगी। तब मुझे परमेश्वर के वचन याद आये : “अपने पूरे दिल, पूरी आत्मा और पूरे मन से कार्य करना किसी के द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाना है; यह एक दिलो-दिमाग का होना है और कुछ नहीं। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और कर्तव्य है और तुम्हें इसे अच्छी तरह से निभाना चाहिए, जैसा कि स्वर्ग द्वारा निर्धारित और पृथ्वी द्वारा अभिस्वीकृत है। तुम्हारे सामने जो भी समस्याएँ आएँ, तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। उनसे तुम वैसे ही निपटो, जैसा जरूरी हो; यदि काट-छाँट और निपटान की आवश्यकता है, तो वैसे ही करो और यदि बर्खास्तगी अनिवार्य है, तो वही सही। परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर कार्य करो” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है)। सही बात है। मुझे परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना होगा। इसके बाद, मैंने लिली को उसकी सभी समस्याएं बताकर और उजागर करते हुए संगति की, अपने कर्तव्य में उसके लापरवाह रवैये और इसके खतरनाक परिणामों का विश्लेषण किया। तब जाकर लिली को अपनी समस्याओं का एहसास हुआ। बाद में, मैं समय-समय पर लिली के काम की जांच-पड़ताल और पूछताछ करती रही, अगर कोई समस्या दिखती, तो उसे हल करने के लिए उसके साथ संगति करती। उसके बाद, लिली को नए सदस्यों के सिंचन में बेहतर नतीजे मिलने लगे। यह देखकर मुझे बहुत खुशी हुई, यह समझ आ गया कि कैसे परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीजों को देखने और काम करने से कर्तव्य में बेहतर नतीजे मिलते हैं। मुझे काफी सुकून और शांति महसूस हुई।
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