सत्य के अभ्यास की मिठास का स्वाद
मार्च 2021 में मेरी अगुआ ने मुझे एक कलीसिया के सुसमाचार-कार्य की जिम्मेदारी दी। खबर सुनने के बाद मैंने मन ही मन सोचा, "उस कलीसिया में सुसमाचार-कार्य हमेशा ही फीका रहा है। वहाँ कई निरीक्षक लगाए गए, लेकिन कभी काम ठीक से नहीं हो पाया। अगुआ चाहती हैं कि मुझ जैसी नौसिखिया, जो कभी सुसमाचार-कार्य की प्रभारी नहीं रही, यह कार्य सँभाले। क्या इससे चीजें और खराब नहीं होंगी? अगर मैंने यह काम लेकर अच्छे से नहीं किया, तो न केवल इससे मेरी अक्षमता प्रकट होगी, बल्कि लोग यह भी कह सकते हैं कि मुझमें आत्म-बोध और आत्म-ज्ञान नहीं है। बेहतर है, मैं काम हाथ में न लूँ।" यह सोचकर मैंने अगुआ की व्यवस्था ठुकरा दी।
बाद में मेरी अगुआ ने यह कहकर मेरे साथ संगति की कि कोई उपयुक्त उम्मीदवार नहीं है और उसे आशा है कि मैं परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखकर यह दायित्व उठा सकती हूँ। अगुआ को यह कहते सुनकर मुझे लगा कि यह आदेश ठुकराना परमेश्वर की इच्छा नहीं है। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए, "तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? ... क्या तुम मेरी इच्छा को स्वयं में पूरा होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के प्रश्नों के आगे मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। हमें सुसमाचार-कार्य में मुश्किलें आ रही थीं, और इस नाजुक घडी में मुझे परमेश्वर की इच्छा का खयाल रखना था। लेकिन मैं उजागर और अपमानित होने से डरती थी, इसलिए मैंने परमेश्वर का आदेश ठुकरा दिया और जिम्मेदारी से बच गई। मैं कितनी स्वार्थी और निकम्मी थी! मुझे याद आया कि परमेश्वर ने भी कहा था, "यरूशलम जाने के मार्ग पर यीशु बहुत संतप्त था, मानो उसके हृदय में कोई चाकू भोंक दिया गया हो, फिर भी उसमें अपने वचन से पीछे हटने की जरा-सी भी इच्छा नहीं थी; एक सामर्थ्यवान ताक़त उसे लगातार उस ओर बढ़ने के लिए बाध्य कर रही थी, जहाँ उसे सलीब पर चढ़ाया जाना था। अंततः उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया और वह मानवजाति के छुटकारे का कार्य पूरा करते हुए पापमय देह के सदृश बन गया। वह मृत्यु एवं अधोलोक की बेड़ियों से मुक्त हो गया। उसके सामने नैतिकता, नरक एवं अधोलोक ने अपना सामर्थ्य खो दिया और उससे परास्त हो गए। वह तेंतीस वर्षों तक जीवित रहा, और इस पूरे समय उसने परमेश्वर के उस वक्त के कार्य के अनुसार परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए, कभी अपने व्यक्तिगत लाभ या नुकसान के बारे में विचार किए बिना और हमेशा परमपिता परमेश्वर की इच्छा के बारे में सोचते हुए, हमेशा अपना अधिकतम प्रयास किया। अत:, उसका बपतिस्मा हो जाने के बाद, परमेश्वर ने कहा : 'यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ।' परमेश्वर के सामने उसकी सेवा के कारण, जो परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप थी, परमेश्वर ने उसके कंधों पर समस्त मानवजाति के छुटकारे की भारी ज़िम्मेदारी डाल दी और उसे पूरा करने के लिए उसे आगे बढ़ा दिया, और वह इस महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करने के योग्य और उसका पात्र बन गया। जीवन भर उसने परमेश्वर के लिए अपरिमित कष्ट सहा, उसे शैतान द्वारा अनगिनत बार प्रलोभन दिया गया, किंतु वह कभी भी निरुत्साहित नहीं हुआ। परमेश्वर ने उसे इतना बड़ा कार्य इसलिए दिया, क्योंकि वह उस पर भरोसा करता था और उससे प्रेम करता था, और इसलिए परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से कहा : 'यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ'" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप सेवा कैसे करें)। "यदि, यीशु के समान, तुम लोग परमेश्वर की ज़िम्मेदारी पर पूरा ध्यान देने में समर्थ हो, और अपनी देह की इच्छाओं से मुँह मोड़ सकते हो, तो परमेश्वर अपने महत्वपूर्ण कार्य तुम लोगों को सौंप देगा, ताकि तुम लोग परमेश्वर की सेवा करने की शर्तें पूरी कर सको। केवल ऐसी परिस्थितियों में ही तुम लोग यह कहने की हिम्मत कर सकोगे कि तुम परमेश्वर की इच्छा और आदेश पूरे कर रहे हो, और केवल तभी तुम लोग यह कहने की हिम्मत कर सकोगे कि तुम सचमुच परमेश्वर की सेवा कर रहे हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप सेवा कैसे करें)। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन से मैं बहुत प्रेरित हुई। प्रभु यीशु देहधारण करके पृथ्वी पर आया और पिता की इच्छा के लिए सब-कुछ किया। सूली पर चढ़ाए जाने से हालाँकि उसे कमजोरी महसूस हुई, लेकिन पीछे हटने या हार मानने का उसका कोई इरादा नहीं था, उसने कभी अपना निजी नफा-नुकसान नहीं सोचा, और आखिरकार उसने सारी मानव-जाति के छुटकारे का कार्य पूरा किया। शैतान द्वारा भ्रष्ट होने के बावजूद मुझे परमेश्वर का आदेश स्वीकारने का मौका मिला, तो यह परमेश्वर द्वारा मेरा बड़ा उत्कर्ष था। अगर मैंने उजागर होने के डर से इसे ठुकराया, तो यह परमेश्वर के लिए दिल तोड़ने वाला होगा! यह सोचकर मैंने बहुत प्रेरित महसूस किया। मेरी भूमिका बेझिझक परमेश्वर का आदेश मानने और काम करने का भरसक प्रयास करने की थी, और मुझे परमेश्वर की अगुआई का भरोसा था। तो मैंने अगुआ की व्यवस्था मानकर सुसमाचार-कार्य देखना शुरू कर दिया। तब मैं नहीं जानती थी कि काम अच्छी तरह कैसे करना है, इसलिए मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती और उसे पुकारती। कोई काम ठीक से करने के लिए कई अच्छे लोग साथ होने चाहिए, इसलिए मैंने कुछ ऐसे भाई-बहन ढूँढ़ लिए, जो जिम्मेदारी निभा सकते थे और काम करने में सक्षम थे, हमारी अगुआ भी अक्सर हमारा मार्गदर्शन करती थीं। दूसरी कलीसियाओं के भाई-बहनों ने भी बताया कि उन्होंने सुसमाचार-कार्य कैसे किया। सितंबर तक उस कलीसिया का सुसमाचार-कार्य लगभग दस गुना अच्छा हो गया! मेरी अगुआ ने भी मेरी तारीफ की, "हाल ही में तुम्हारे निरीक्षण वाली कलीसिया में सुसमाचार-कार्य काफी अच्छा रहा है।" एक अन्य निरीक्षक ने कहा, "अब अपने आपको नौसिखिया मत समझो।" उनकी बातें सुनकर मुझे बहुत संतोष हुआ। आखिरकार भाई-बहनों ने मुझे एक योग्य निरीक्षक मान लिया था। भविष्य में अगर मैं अपने कर्तव्य में स्थिर रहती और सुसमाचार-कार्य हर महीने और अच्छा होता जाता, तो मुझे स्थानांतरित या बरखास्त होने की चिंता न करनी पड़ती।
जल्दी ही अगुआ ने कुछ कर्मी हमारी कलीसिया में भेजने की व्यवस्था की। यह सुनकर मैं थोड़ी हैरान हो गई, और मेरे मन में कुछ प्रतिरोध जागा, "अगुआ इतने लोगों का तबादला करती है। क्या इसका मतलब यह नहीं कि हमारा सुसमाचार-कार्य एक ही महीने में कई गुना प्रभावी हो जाना चाहिए? यह लक्ष्य मेरे लिए बहुत बड़ा है। इन भाई-बहनों ने पिछली कलीसियाओं में अच्छी तरह सुसमाचार का प्रचार किया था। अगर मेरी जिम्मेदारी वाली कलीसिया में उनके सुसमाचार-कार्य के नतीजे अच्छे नहीं रहे, तो क्या यह नहीं लगेगा कि मेरी कार्य-क्षमता कम है और मैं दूसरों से कमतर हूँ? अगर हमारे काम का असर नहीं बढ़ता, तो मुझे बरखास्त किया जा सकता है, मेरे भाई-बहन मेरी असली क्षमता जान जाएँगे, अगुआ निश्चित रूप से मुझसे निराश हो जाएगी, फिर मुझे फिर पदोन्नत या विकसित नहीं किया जाएगा! अभी मैं कलीसिया के हालात जानती हूँ। मुझे पता है कि मैं अच्छा काम कर सकती हूँ, हम हर महीने थोड़ी और प्रगति करते हैं, और एक निरीक्षक के रूप में मेरी स्थिति सुरक्षित है। लेकिन अब इतने सारे लोगों के साथ, अगर भविष्य में चीजें ठीक न रहीं, तो क्या होगा? बेहतर है, यथास्थिति बनी रहे। अगर मैं यह व्यवस्था स्वीकार नहीं करती, तो सुसमाचार-कार्य बाधित होगा, और अगुआ निश्चित ही मुझे बरखास्त कर देगी। पर मैं यह व्यवस्था स्वीकार कर संतुष्ट बिलकुल नहीं हूँ।" मैं अपने कंप्यूटर के सामने बैठ गई और उन लोगों की सूची देखने लगी, जिन्हें भेजा जाना था, और बहुत निराश हुई। मुझे याद आया कि मैंने ही अगुआ से पहले कहा था, "अगर हमारे पास कुछ और कर्मी हों, तो सुसमाचार का कार्य ज्यादा कामयाब होगा," अब मुझे इसका पछतावा हुआ। और कर्मचारी भेजने का फैसला लेते वक्त अगुआ ने मेरी बात ध्यान रखी होगी। अगर हम नतीजे नहीं दे पाए, तो क्या अगुआ मुझे जवाबदेह नहीं मानेगी? यह सोचते हुए मैं इन नए कर्मियों के लिए धीमी गति से काम की व्यवस्था कर रही थी। अगुआ ने मेरी हालत देखी और बोलीं कि मैं खुद को बचा रही हूँ। उन्होंने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भी भेजा। "अगर तुम्हें लगता है कि तुम किसी कार्य-विशेष को कर सकते हो, लेकिन साथ ही तुम गलती करने और निकाल दिए जाने से डरते भी हो, इसलिए तुम दब्बू और काहिल हो और प्रगति नहीं कर सकते, तो क्या यह आज्ञाकारी रवैया है? उदाहरण के लिए, यदि भाई-बहन तुम्हें अपना अगुआ चुन लेते हैं, तो तुम अपने चुने जाने के कारण उस काम को करने के लिए अनुगृहीत तो महसूस करते हो, लेकिन तुम उस काम को सक्रिय रवैये से स्वीकार नहीं करते। तुम सक्रिय क्यों नहीं होते? क्योंकि उसके बारे में तुम्हारे कुछ विचार होते हैं, तुम्हें लगता है, 'अगुआ होना बिल्कुल अच्छी बात नहीं है। यह तलवार की धार पर जीने या बर्फ की पतली तह पर चलने जैसा है। अच्छा काम करने पर मुझे कोई विशेष इनाम तो मिलने से रहा, लेकिन खराब काम करने पर मुझसे निपटा जाएगा और मेरी काट-छाँट की जाएगी। निपटा जाना फिर भी इतना बुरा नहीं है। लेकिन अगर मुझे हटा ही दिया गया या निकाल दिया गया, तो क्या होगा? अगर ऐसा हुआ, तो क्या मेरा खेल खत्म नहीं हो जाएगा?' ऐसी स्थिति में तुम दुविधाग्रस्त हो जाते हो। यह कैसा रवैया है? यह सतर्कता और गलतफहमी है। अपने कर्तव्य के प्रति लोगों का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए। यह एक हताशा से भरा और नकारात्मक रवैया है। ... तो तुम वास्तव में इस समस्या को कैसे हल कर सकते हो? तुम्हें सक्रियता से सत्य खोजना चाहिए और आज्ञाकारिता और सहयोग का रवैया अपनाना चाहिए। इससे समस्या पूरी तरह हल हो सकती है। दब्बूपन, डर और चिंता फिजूल हैं। तुम्हें उजागर कर बाहर किया जाएगा या नहीं, क्या इसका तुम्हारे अगुआ होने से कोई संबंध है? अगर तुम एक अगुआ नहीं हो तो क्या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव लुप्त हो जाएगा? देर-सवेर, तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को हल करना होगा। साथ ही, अगर तुम एक अगुआ नहीं हो, तो तुम्हें अभ्यास के लिए ज्यादा अवसर नहीं मिलेंगे और तुम जीवन में धीमी प्रगति करोगे, और तुम्हारे पास पूर्ण बनाए जाने की संभावनाएं कम होंगी। हालांकि एक अगुआ या कार्यकर्ता होने पर थोड़ा ज्यादा कष्ट उठाना पड़ता है, पर बहुत-से फल भी मिलते हैं, और अगर तुम सत्य के अनुसरण के रास्ते पर चल सकते हो, तो तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो। यह कितना बड़ा आशीष है! इसलिए तुम्हें समर्पित होना चाहिए और सक्रिय रूप से सहयोग करना चाहिए। यह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है। आगे का मार्ग कैसा भी हो, तुम्हारा दिल आज्ञापालन करने वाला होना चाहिए। अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हें यह रवैया अपनाना चाहिए" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी स्थिति उजागर कर दी। सुसमाचार-कर्मियों की संख्या बढ़ने के बाद मुझे पहले अपने भविष्य और नियति का खयाल आया। मुझे डर लगा कि तुरंत इतने सारे लोग भेजने के बाद अगर सुसमाचार-कार्य अधिक प्रभावी न हुआ, तो मुझे उजागर करके बरखास्त कर दिया जाएगा, भाई-बहनों को मेरी असली क्षमता पता चल जाएगी, अगुआ मेरी असलियत जान जाएगी और फिर मुझे कभी पदोन्नत या विकसित नहीं करेगी। इससे डरकर मैं रक्षात्मक हो गई और परमेश्वर को गलत समझ लिया और इस माहौल से बचना चाहा। परमेश्वर के वचनों में मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। मुझे अपने कर्तव्य में हमेशा परमेश्वर की व्यवस्था माननी चाहिए। यह मेरी जिम्मेदारी थी और अपने कर्तव्य के प्रति मेरा यही रवैया होना चाहिए था। परमेश्वर के वचनों पर मनन के बाद मैंने धीरे-धीरे खुद को शांत किया। मैंने आज्ञाकारी रहने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की और इस माहौल में मार्गदर्शन करने को कहा। प्रार्थना के बाद, मुझे परमेश्वर के वचनों की एक पंक्ति याद आई, "परमेश्वर का अधिकार और मनुष्य के भाग्य पर उसकी संप्रभुता मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र हैं, और मनुष्य की प्राथमिकताओं और पसंद के अनुसार बदलते नहीं हैं" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचन समय पर मिली चेतावनी थे। सुसमाचार किसी खास जगह कब फैलेगा, यह पूरी तरह परमेश्वर की संप्रभुता पर निर्भर है। पिछले छह महीनों में मेरे क्षेत्र में बहुत-से लोगों का अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकार करना इस बात का प्रमाण था कि पवित्र आत्मा उनके बीच गहनता से कार्य कर रहा है। परमेश्वर उनमें से ज्यादा लोग प्राप्त करना चाहता था, और इसके पीछे परमेश्वर की इच्छा थी। यह देखते हुए, और ज्यादा भाई-बहनों को परमेश्वर का सुसमाचार और ज्यादा फैलाने के लिए साथ काम करने को कहना अनिवार्य भी था और अत्यधिक उचित व्यवस्था भी। मेरा अगुआ से स्टाफ देने के लिए कहना और अगुआ के अपने विचार परमेश्वर के हाथ में थे। इसका आयोजन और व्यवस्था परमेश्वर ने की थी। राज्य का सुसमाचार निश्चित रूप से इस इलाके में फैल गया था। यह सोचकर मेरे मन में कुछ विश्वास आया। मैं अपने बचाव और गलतफहमियों को सुसमाचार-कार्य में बाधक नहीं होने दे सकती थी। मुझे परमेश्वर की व्यवस्था के आगे समर्पण कर सुसमाचार-कार्य ठीक से करके कर्तव्य निभाना था। इसलिए अगली सुबह ही मैंने सभी नए भाई-बहनों को काम सौंप दिए।
बाद में मैंने आत्म-चिंतन किया कि मैं हमेशा जिम्मेदारी लेने से क्यों डरती हूँ, और हमेशा अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत के बारे में इतनी चिंतित क्यों रहती हूँ। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने अपने बारे में थोड़ी समझ हासिल की। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "मसीह-विरोधी चालाक किस्म के होते हैं, है न? वे जो कुछ भी करते हैं, उसकी आठ-दस बार या उससे भी अधिक बार गुप्त योजना बनाते और हिसाब-किताब करते हैं। वे सोचते रहते हैं कि कैसे भीड़ में अपनी स्थिति को अधिक मजबूत बनाया जाए, कैसे और अधिक प्रतिष्ठा और ज्यादा सम्मान प्राप्त किया जाए, कैसे उच्च की कृपा हासिल की जाए, भाई-बहनों का समर्थन, प्रेम और सम्मान कैसा पाया जाए और वे इन परिणामों को प्राप्त करने के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। वे किस मार्ग पर चल रहे हैं? उनके लिए परमेश्वर के घर के हित, कलीसिया के हित और परमेश्वर के घर का कार्य कोई मायने नहीं रखता, उनसे जुड़ी चीजों की तो उन्हें और भी चिंता नहीं होती। वे क्या सोचते हैं? 'इन बातों का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। हर आदमी अपनी सोचे और बाकियों को शैतान ले जाए; लोगों को अपने लिए, अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए जीना चाहिए। यही सर्वोच्च लक्ष्य होता है। अगर कोई नहीं जानता कि उसे अपने लिए जीना और अपनी रक्षा करनी चाहिए तो वह मूर्ख है। अगर मुझे सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने, परमेश्वर और उसके घर की व्यवस्था के प्रति समर्पित होने को कहा जाए, तो यह इस पर निर्भर करेगा कि इससे मेरा हित सधेगा या नहीं और क्या ऐसा करने का कोई लाभ होगा। यदि परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण न करने से मुझे बाहर निकाल दिए जाने का और आशीष प्राप्त करने का अवसर खोने का डर है, तो मैं समर्पण कर दूंगा।' इस प्रकार, अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत की रक्षा के लिए, मसीह-विरोधी अक्सर कुछ समझौते करने को तैयार हो जाते हैं। तुम कह सकते हो कि हैसियत के लिए मसीह-विरोधी किसी भी प्रकार की पीड़ा सहने को और एक अच्छी प्रतिष्ठा के लिए हर तरह की कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं। यह कहावत उन पर खरी उतरती है, 'एक महान व्यक्ति जानता है कि कब झुकना है और कब नहीं।' यह शैतान का तर्क है, है न? यह संसार में रहने के लिए शैतान का फलसफा है और यह जीवित रहने का शैतान का सिद्धांत भी है। यह बेहद घृणित है!" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो))। परमेश्वर प्रकट करता है कि मसीह-विरोधी विशेष रूप से धूर्त हैं। वे चाहे जो करें, उनके मन में कोई योजना होती है। वे हमेशा सोचते हैं कि वे जो कर रहे हैं, वह उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए अच्छा है या नहीं और भीड़ में ऊँची प्रतिष्ठा और हैसियत कैसे हासिल करें, जबकि परमेश्वर के घर के काम की उनके मन में कोई जगह नहीं होती। वे इस पर बिलकुल भी विचार नहीं करते। क्या मेरा व्यवहार मसीह-विरोधी जैसा ही नहीं था? जब अगुआ ने मुझे निरीक्षक बनाया, तब मेरा पहला खयाल यह था कि मैं इस काम में अच्छी नहीं हूँ, कि यह बहुत कठिन है, और अगर मैंने अच्छा नहीं किया, तो मेरे अक्षम और अयोग्य के रूप में उजागर होने की संभावना है, और इस वजह से बरखास्त होना कितना शर्मनाक होगा, इसलिए मुझे लगा कि मैं ऐसा बेकार कर्तव्य स्वीकार नहीं कर सकती। जब अगुआ ने हमारी कलीसिया को ज्यादा कर्मचारी दिए, तो मुझे लगा कि ज्यादा लोगों का अर्थ है ज्यादा दबाव, कि मुझ पर ज्यादा जिम्मेदारी होगी, और अगर इन कर्मचारियों के आने के बाद सुसमाचार का कार्य उतना प्रभावी न हुआ, तो मेरी असली क्षमता प्रकट हो जाएगी और मैं पद से हटा दी जाऊँगी, जो बहुत शर्मनाक होगा। अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत बचाने के लिए मैं कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने के बजाय कलीसिया के काम में देरी करने को तैयार थी। मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी! क्या मैं मसीह-विरोधी की तरह ही काम नहीं कर रही थी? इस पर चिंतन करने से मुझे अपने व्यवहार को लेकर डर लगने लगा, खासकर जब मैंने देखा कि परमेश्वर प्रकट करता है कि मसीह-विरोधी बाहर से आज्ञाकारी लग सकते हैं, पर असल में यह अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत की रक्षा के लिए होता है; वे दूसरों को धोखा देने के लिए आज्ञापालन करते हैं। मैंने सोचा कि जब अगुआ ने हमारी कलीसिया को ज्यादा कर्मी दिए, तो मैंने भी कुछ ऐसा ही किया था। मुझे पता था कि यह एक पूर्वनिर्धारित निष्कर्ष था, इसलिए अगर मैं व्यवस्था स्वीकार न करती, तो इससे सुसमाचार-कार्य में रुकावट आती। बहुत होता तो लोगों के दिल में मेरी छवि खराब हो जाती। और अगर चीजें बेहद खराब होतीं, तो मुझे स्थानांतरित या बरखास्त किया जा सकता था। इन कारणों से मुझे आज्ञा माननी पड़ी। क्या मैंने परमेश्वर द्वारा प्रकट किए गए मसीह-विरोधियों की तरह ही नहीं किया? मैं यह सोचकर प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए कुछ भी सह सकती थी कि "महान व्यक्ति जानता है कि कब झुकना है और कब नहीं।" मुझ जैसी आज्ञाकारिता परमेश्वर के लिए घृणित और नागवार थी।
उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "यदि कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है और वह सत्य का अनुसरण करता है, लेकिन सार में, जो लक्ष्य वह हासिल करना चाहता है, वह है अपनी अलग पहचान बनाना, दिखावा करना, लोगों का सम्मान प्राप्त करना और अपने हित साधना, और उसके लिए अपने कर्तव्य का पालन करने का अर्थ परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना या उसे संतुष्ट करना नहीं है बल्कि प्रतिष्ठा और हैसियत प्राप्त करना है, तो फिर उसका अनुसरण अवैध है। ऐसा होने पर, जब कलीसिया के कार्य की बात आती है, तो उनके कार्य एक बाधा होते हैं या आगे बढ़ने में मददगार होते हैं? वे स्पष्ट रूप से बाधा होते हैं; वे आगे नहीं बढ़ाते। कुछ लोग कलीसिया का कार्य करने का झंडा लहराते फिरते हैं, लेकिन अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और हैसियत के पीछे भागते हैं, अपनी दुकान चलाते हैं, अपना एक छोटा-सा समूह, अपना एक छोटा-सा साम्राज्य बना लेते हैं—क्या इस प्रकार का व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है? वे जो भी कार्य करते हैं, वह अनिवार्य रूप से कलीसिया के कार्य को बाधित करता है, अस्त-व्यस्त करता है और बिगाड़ता है। उनके हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे भागने का क्या परिणाम होता है? पहला, यह इस बात को प्रभावित करता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के वचनों को कैसे खाते-पीते हैं और सत्य को कैसे समझते हैं, यह उनके जीवन-प्रवेश में बाधा डालता है, यह उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने से रोकता है और उन्हें गलत मार्ग पर ले जाता है—जो चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाता है, और उन्हें बरबाद कर देता है। और यह अंततः कलीसिया के साथ क्या करता है? यह विघटन, रुकावट और हानि है। यह लोगों के प्रसिद्धि और हैसियत के पीछे भागने का परिणाम है। जब वे इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो क्या इसे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना नहीं कहा जा सकता? जब परमेश्वर कहता है कि लोग अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को अलग रखें, तो ऐसा नहीं है कि वह लोगों को चुनने के अधिकार से वंचित कर रहा है; बल्कि यह इस कारण से है कि रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे भागते हुए लोग कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाते हैं, वे भाई-बहनों का जीवन में प्रवेश बाधित करते हैं, यहाँ तक कि उनका दूसरों के द्वारा परमेश्वर के वचनों को सामान्य रूप से खाने-पीने और सत्य को समझने और इस प्रकार परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने पर भी प्रभाव पड़ता है। इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि जब लोग अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो इस तरह के व्यवहार और कार्यों को परमेश्वर के कार्य की सामान्य प्रगति को हद दर्जे तक नुकसान पहुँचाने और बाधित करने, और उसके चुने हुए लोगों के बीच परमेश्वर की इच्छा को सामान्य रूप से पूरा होने से रोकने के लिए शैतान के साथ सहयोग करने के रूप में वर्णित किया जा सकता है। वे जानबूझकर परमेश्वर का विरोध और उसके निर्णयों पर विवाद खड़ा करते हैं। यह लोगों के हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे भागने की प्रकृति है। अपने हितों के पीछे भागने वाले लोगों के साथ समस्या यह है कि वे जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं, वे शैतान के लक्ष्य हैं—वे ऐसे लक्ष्य हैं, जो दुष्टतापूर्ण और अन्यायपूर्ण हैं। जब लोग प्रतिष्ठा और हैसियत जैसे व्यक्तिगत हितों के पीछे भागते हैं, तो वे अनजाने ही शैतान का औजार बन जाते हैं, वे शैतान के लिए एक वाहक बन जाते हैं, और तो और, वे शैतान का मूर्त रूप बन जाते हैं। वे कलीसिया में एक नकारात्मक भूमिका निभाते हैं; कलीसिया के कार्य के प्रति, और सामान्य कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामान्य लक्ष्य पर उनका प्रभाव परेशान करने और बिगाड़ने वाला होता है; उनका प्रतिकूल और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक))। जब अगुआ ने सुसमाचार-कर्मियों की संख्या बढ़ाई, तो हमारे पास बहुत कम सुसमाचार-कर्मी थे, और हम उतनी तेजी से सुसमाचार का प्रसार नहीं कर पा रहे थे, जितना ज्यादा लोग होने से कर पाते। उस समय का अपना काम देखूँ, तो मैं इससे परिचित थी। मैं हर महीने थोड़ी और प्रगति करती थी, और अपने कर्तव्य में कामयाब थी, और इसके लिए भाई-बहन मेरा बहुत सम्मान करते थे। उस दौरान अपनी हैसियत बरकरार रखने के लिए मैंने चाहा कि सुसमाचार कार्य का विस्तार सुसमाचार-कर्मियों की संख्या बढ़ाने के मुकाबले धीमा हो। क्या मैं कलीसिया के कार्य में बाधा नहीं डाल रही थी? यह कितना स्वार्थपूर्ण और घिनौना था! यह सोचकर मुझे खास तौर से डर लगा, और अपने किए पर पछतावा हुआ। मैं पश्चात्ताप कर बदलना चाहती थी, इसी तरह करते रहना नहीं चाहती थी। मैंने पढ़ा कि नूह ने कैसे परमेश्वर के आदेश का पालन किया था, और मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "इस आदेश को स्वीकार कर लेने के बाद, परमेश्वर के वचनों को समझते हुए, परमेश्वर ने जो कुछ कहा था उसे देखते हुए, नूह जानता था कि यह कोई आसान मामला नहीं है, कोई सरल कार्य नहीं है। ... हालाँकि नूह को इस बात का एहसास और समझ थी कि परमेश्वर ने उसे जो काम सौंपा है वह कितना मुश्किल है और उसे कितने बड़े इम्तहानों से गुजरना होगा, लेकिन उस काम को नकारने का उसका कोई इरादा नहीं था, बल्कि वह यहोवा परमेश्वर का अत्यंत आभारी था। नूह आभारी क्यों था? क्योंकि परमेश्वर ने अप्रत्याशित रूप से उसे बहुत ही महत्वपूर्ण काम सौंप दिया था और व्यक्तिगत रूप से उसे हर विवरण बताया और समझाया था। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर ने नूह को शुरू से लेकर अंत तक की पूरी कहानी भी बता दी थी कि जहाज क्यों बनाना है। यह परमेश्वर की अपनी प्रबंधन योजना का मामला था, यह परमेश्वर का अपना काम था और चूँकि परमेश्वर ने उसे इस बारे में बताया था, इसलिए नूह ने उसके महत्व को समझा। संक्षेप में, इन विभिन्न संकेतों से, परमेश्वर की बातचीत के लहजे और परमेश्वर ने नूह को जो कुछ बताया, उन तमाम पहलुओं को देखते हुए, नूह परमेश्वर के उसे जहाज का निर्माण सौंपने के महत्व को महसूस कर पाया, वह पूरे दिल से इसे समझ गया और उसने इसे हल्के में लेने या किसी बात को नजरअंदाज करने की हिम्मत की" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचन सुने और उसकी आज्ञा का पालन किया (भाग दो))। "हर तरह की कठिनाइयों, परेशानियों और चुनौतियों का सामना करते हुए, नूह कभी पीछे नहीं हटा। जब कभी वह किसी तकनीकी कार्य में नाकाम हो जाता, कोई टूट-फूट हो जाती, तो नूह अंदर ही अंदर परेशान और बेचैन भले ही हो जाता था, लेकिन जब वह परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचता, जब उसे परमेश्वर के आदेश के तमाम वचन याद आते, परमेश्वर द्वारा अपना उत्कर्ष याद आता, तो अक्सर उसके अंदर प्रेरणा और स्फूर्ति भर जाती : 'मैं हार नहीं मान सकता, परमेश्वर ने मुझे जो आज्ञा दी है और जो कार्य मुझे सौंपा है, मैं उसे अस्वीकार नहीं कर सकता; यह परमेश्वर का आदेश है और चूँकि मैंने इसे स्वीकार किया है, मैंने परमेश्वर के वचन और उसकी वाणी सुनी है, चूँकि मैंने इसे परमेश्वर से स्वीकार किया है, तो मुझे पूरी तरह से इसका पालन करना चाहिए और यही वह है जिसे मनुष्य को हासिल करना चाहिए।' इसलिए उसे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, तमाम तरह के उपहास या निंदा का सामना करना पड़ा, उसके शरीर को कितनी भी थकान और कमजोरी हुई, लेकिन उसने परमेश्वर द्वारा सौंपा गया काम नहीं छोड़ा, उसने परमेश्वर की कही हर बात और आज्ञा को लगातार दिलो-दिमाग में रखा। उसका परिवेश चाहे जैसे बदला, उसने कितनी भी भयंकर कठिनाइयों का सामना किया, पर उसे भरोसा था कि मुसीबतों के ये बादल एक दिन छँट जाएँगे, एकमात्र परमेश्वर के वचन ही शाश्वत हैं और केवल उसी की आज्ञा को पूरा करना चाहिए। नूह को परमेश्वर में सच्चा विश्वास था और वह आज्ञाकारिता थी जो उसमें होनी चाहिए थी, उसने वह जहाज बनाना जारी रखा जिसके निर्माण के लिए परमेश्वर ने उसे आदेश दिया था। दिन गुजरते गए, साल गुजरते गए और नूह बूढ़ा हो गया, लेकिन उसका विश्वास कम नहीं हुआ, परमेश्वर के आदेश को पूरा करने के उसके रवैये और दृढ़-संकल्प में कोई बदलाव नहीं आया। यद्यपि ऐसा भी समय आया जब उसका शरीर थकने लगा, उसे कमजोरी महसूस होने लगी और वह बीमार पड़ गया, दिल से वह कमजोर हो गया, लेकिन परमेश्वर के आदेश को पूरा करने और उसके वचनों का पालन करने के प्रति उसका संकल्प और दृढ़ता कम नहीं हुई। जिन वर्षों के दौरान, नूह जहाज का निर्माण-कार्य कर रहा था, वह परमेश्वर के वचन सुनने और उनका पालन करने का अभ्यास कर रहा था, उसने परमेश्वर के जीव के एक महत्वपूर्ण सत्य का और एक सामान्य व्यक्ति के परमेश्वर के आदेश को पूरा करने का अभ्यास भी किया" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचन सुने और उसकी आज्ञा का पालन किया (भाग दो))। मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया और देखा कि नूह परमेश्वर के आदेश के प्रति कृतज्ञता से भरा था। उसने परमेश्वर को अपने उत्कर्ष के लिए धन्यवाद दिया। नूह जानता था कि जहाज का निर्माण बहुत बड़ा काम है, जिसमें काफी समय लगेगा, और उसे अनगिनत मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। फिर भी नूह ने परमेश्वर का आदेश स्वीकारने में संकोच नहीं किया, और वह एक क्षण के लिए भी शिथिल नहीं हुआ। उसने बस जहाज बनाने के लिए जरूरी सामान और चीजें तैयार करनी शुरू कर दीं। इस दौरान उसे कई मुश्किलों, अपने परिवार की गलतफहमी और अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के तानों का सामना करना पड़ा। उसने काफी भावनात्मक दबाव झेला, और यह प्रक्रिया बहुत कठिन रही होगी, लेकिन चाहे जो कठिनाइयाँ आईं, नूह ने कभी हार नहीं मानी, और सच्ची आस्था और आज्ञाकारिता के साथ उसने जहाज का निर्माण जारी रखा। परमेश्वर कहते हैं, "नूह परमेश्वर के वचन सुनने और उनका पालन करने का अभ्यास कर रहा था, उसने परमेश्वर के जीव के एक महत्वपूर्ण सत्य का और एक सामान्य व्यक्ति के परमेश्वर के आदेश को पूरा करने का अभ्यास भी किया।" परमेश्वर के आदेश के प्रति नूह के रवैये ने मुझे शर्मिंदा भी किया और प्रेरित भी। मैंने नूह से कहीं ज्यादा परमेश्वर के वचन खाए-पिए थे, फिर भी जब परमेश्वर के सुसमाचार-कार्य के विस्तार के लिए मेरे सहयोग की जरूरत थी, तो मैंने केवल अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत बचानी चाही, परमेश्वर की इच्छा का जरा भी खयाल नहीं किया। मैं वास्तव में स्वार्थी और नीच थी, और परमेश्वर की बहुत ऋणी थी! राज्य का सुसमाचार फैलाना परमेश्वर की अत्यावश्यक इच्छा है, और चाहे जो कठिनाई आए, परमेश्वर हमारी अगुआई और मार्गदर्शन करेगा। इसके अलावा, बहुत-से भाई-बहन हैं, जिनके साथ हम बातचीत कर सकते हैं। हमारे अगुआ भी अक्सर संगति कर हमारा मार्गदर्शन करते हैं। मैंने ध्यान से सोचा और महसूस किया कि मेरी कठिनाइयाँ नूह की तुलना में कुछ भी नहीं थीं। मैं जानती थी कि मुझे नूह की तरह आस्था और आज्ञाकारिता के साथ कर्तव्य निभाते हुए स्थानीय तौर पर सुसमाचार-कार्य का विस्तार करना चाहिए। बाद में मैंने अन्य कलीसियाओं में सुसमाचार-कार्य देख चुके भाई-बहनों से चर्चा की कि कैसे सुसमाचार-कार्य और प्रभावी बनाया जाए। उन्होंने मुझे कुछ सलाह और सुझाव दिए, और एक-एक कर मैंने उन सुझावों पर अमल किया।
कुछ समय बीतने के बाद हमें बड़ी संख्या में ऐसे लोग मिले जो सच्चे मार्ग की पड़ताल कर रहे थे। रोज कई लोगों ने अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारा। लेकिन हमारे पास अभी भी सिंचन-कर्मियों की कमी थी। अगर ये नवागत सिंचन की कमी के कारण सच्चे मार्ग में नींव नहीं बना पाए, तो मसीह-विरोधियों की बुरी ताकतें उन्हें परेशान कर सकती थीं। इस खयाल से मुझे बहुत अपराध-बोध हुआ, मैं इन नवागतों की बहुत ऋणी थी। उस समय, मुझे पता नहीं था कि क्या करना है। मैं इतनी चिंतित हो गई कि रोने लगी, इस बेबसी में मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश याद आया। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "जब चीजें होती हैं, तो सभी को एक-साथ ज्यादा प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के प्रति श्रद्धापूर्ण हृदय रखना चाहिए। लोगों को मनमाने ढंग से कार्य करने के लिए अपने विचारों पर बिलकुल भरोसा नहीं करना चाहिए। अगर लोग एक दिल और एक दिमाग वाले होकर परमेश्वर से प्रार्थना और सत्य की खोज करते हैं, तो वे पवित्र आत्मा के कार्य की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करने में सक्षम होंगे, और वे परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर पाएँगे। प्रभु यीशु ने क्या कहा था? ('यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिए एक मन होकर उसे माँगें, तो वह मेरे पिता की ओर से जो स्वर्ग में है, उनके लिए हो जाएगी। क्योंकि जहाँ दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठा होते हैं, वहाँ मैं उनके बीच में होता हूँ' [मत्ती 18:19–20]।) यह किस मुद्दे को दर्शाता है? यह दर्शाता है कि मनुष्य परमेश्वर से जुदा नहीं हो सकता, कि मनुष्य को परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, कि मनुष्य अकेले कुछ नहीं कर सकता, और कि उसका अपने रास्ते पर जाना स्वीकार्य नहीं है। हमारे यह कहने का क्या मतलब है कि कि मनुष्य अकेले कुछ नहीं कर सकता? इसका मतलब है कि तुम्हें सामंजस्यपूर्वक सहयोग करना चाहिए, एक दिल और एक दिमाग से काम करना चाहिए और एक सामान्य लक्ष्य रखना चाहिए। बोलचाल की भाषा में कहा जा सकता है कि 'गट्ठे में बँधी लकड़ियाँ तोड़ी नहीं जा सकतीं।' तो तुम लकड़ियों के गट्ठे के समान कैसे बन सकते हो? तुम्हें एकमत होना चाहिए, तब पवित्र आत्मा कार्य करेगा" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे मार्ग और दिशा दी। मैंने इस कठिनाई को लेकर हर समूह के निरीक्षकों से चर्चा की, और हमने मिलकर समाधान खोजा। ये दायित्व हम सबने मिलकर उठाया, और हमने खुद ही अपने समूह के कुछ भाई-बहनों को नवागतों के सिंचन के लिए भेजा, जिससे कलीसियाओं की समस्या दूर हो गई। दिसंबर के अंत तक हमारी कलीसिया के सुसमाचार-कार्य के नतीजे पिछले महीने से करीब दोगुने और छह महीने पहले के नतीजों से दस गुना हो गए। उस समय मेरे भाई-बहन इतने उत्साहित थे कि रोने लगे, और मैं भी बहुत उत्साहित थी। मार्गदर्शन के लिए मैंने तहेदिल से परमेश्वर का धन्यवाद किया! परमेश्वर का कार्य परमेश्वर स्वयं करता है, लोग केवल सहयोग करते हैं। मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हो रही थी, क्योंकि प्रतिष्ठा और हैसियत बनाए रखने की मेरी इच्छा ने सुसमाचार-कार्य लगभग बाधित कर दिया था।
कुछ समय बाद मैंने कलीसिया का काम देखने वाली साथी बहन को कुछ ज्यादा व्यस्त पाया। मैंने उसका बोझ कुछ कम करने में मदद करनी चाही, और वह खुशी-खुशी मान गई। लेकिन जब मैंने काम शुरू किया, तो मुझे पता चला कि वह मेरी कल्पना से कहीं अधिक जटिल था। मुझे अनुभव नहीं था, और मैं समस्या हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने में भी माहिर नहीं थी। मुझे चिंता हुई कि अगर मैं अच्छी तरह काम न कर पाई, तो दूसरे यह न सोचें कि मेरे पास सत्य की कोई वास्तविकता नहीं है, और मैं बेकार हूँ? तब तो निरीक्षक के रूप में उनके बीच जगह बनाने का मेरे पास कोई उपाय नहीं होगा। जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही लगा कि यह जोखिम भरा काम है, मुझे इसे नहीं लेना चाहिए। यह सोचकर मुझे अपने निर्णय पर पछतावा हुआ, और मैंने बहाना बनाकर वह काम अपनी साथी बहन को दे देना चाहा। तभी मुझे कुछ समय पहले का अपनी नाकामी का अनुभव याद आया। मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपनी प्रतिष्ठा बचा रही हूँ, और मुझे परमेश्वर के वचनों का ये अंश याद आया। "अपने कर्तव्य को निभाने वाले उन तमाम लोगों के लिए, चाहे सत्य की उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत इरादों, अभिप्रेरणाओं, प्रतिष्ठा और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचन समय पर मिली चेतावनी थे कि मुझे अपनी हैसियत छोड़कर परमेश्वर के घर के हित पहले रखने चाहिए। कलीसिया में करने को बहुत काम है, और मेरी साथी बहन बहुत व्यस्त है, जबकि मेरे पास अभी भी कुछ समय और ऊर्जा है, इसलिए मुझे हाथ बँटाना चाहिए। अगर मैंने अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए अपनी साथी से काम कराने की कोशिश की, तो यह स्वार्थ और नीचता होगी। इसलिए मैंने यह विचार छोड़ दिया। अभ्यास का मौका देने के लिए मैंने तहेदिल से परमेश्वर को धन्यवाद दिया, और यह काम अच्छी तरह करने का निश्चय कर लिया।
अगर मैं प्रतिष्ठा और हैसियत के बंधन से आजाद हूँ, सच्चे दिल से परमेश्वर का दायित्व उठा सकती हूँ, और पूरी क्षमता से अपना कर्तव्य निभा सकती हूँ, तो यह पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों और कार्य का फल है। परमेश्वर का धन्यवाद!
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