जिम्मेदारी से मुँह मोड़ने के नतीजे
फरवरी 2021 में एक दिन, एक अगुआ ने बताया कि मुझे स्पैनिश देशों के नये सदस्यों की कलीसियाओं की जिम्मेदारी लेनी है। मुझे बहुत हैरानी हुई। मैं हमेशा सुसमाचार कार्य किया करती थी, कभी नये विश्वासियों की कलीसियाओं की जिम्मेदारी नहीं उठाई थी। मुझे नये सदस्यों के सिंचन का कोई अनुभव नहीं था, मुझे स्पैनिश भी नहीं आती थी। मुझे यकीन था मुझे बहुत-सी समस्याएँ और परेशानियाँ होंगी। मैं इन्हें हल नहीं कर पाऊँगी। नये विश्वासी नवजात शिशुओं जैसे होते हैं। अगर समय पर उनका सिंचन नहीं किया गया, तो वे सत्य नहीं समझ पाएंगे और सच्चे मार्ग पर कदम नहीं जमा पाएंगे। अगर उन्होंने आस्था छोड़ दी, तो क्या मैं बुरा कर्म नहीं करूंगी? मुझे बर्खास्त किया या हटाया जा सकता है। इससे पहले जिसने ये काम किया, उसे खराब प्रदर्शन के कारण हटा दिया गया था। नये सदस्यों की कलीसियाओं का काम आरंभिक चरण में ही था, बहुत-सी चीजें अभी शुरुआती दौर में थीं। यह आसान नहीं था। मुझे लगा यह काम मुझसे नहीं होगा। मगर मैं जानती थी कि मुझे यह काम दिया गया है, तो इससे इनकार नहीं कर सकती। मैं बस अपनी भावनाएँ शांत नहीं कर पा रही थी। सुसमाचार कार्य में सब कितना अच्छा चल रहा था। मैं हर महीने बहुत से लोगों का मत-परिवर्तन कर रही थी। पर नये सदस्यों की कलीसियाओं का काम मुश्किल होगा, अच्छा न करने पर मैं हटाई जा सकती हूँ। मेरे मन में बहुत सी चिंताएं थीं, मुझे विश्वास नहीं था कि मैं अच्छा काम कर पाऊँगी। मैं सुसमाचार साझा करने के अपने समय को याद करने लगी। मैंने देखा कि नये सदस्यों की कलीसियाओं में बहुत-सी समस्याएं थीं, कुछ समस्याओं को हल करना भी नहीं आता था। मुझे बेबसी महसूस होने लगी, मानो यह काम बहुत मुश्किल हो। अगर मैंने जल्दी से समस्याओं को हल नहीं किया, तो इसका असर कलीसिया के काम पर पड़ेगा। कुछ समझ नहीं आया, तो परमेश्वर से प्रार्थना की, उसे राह दिखाने को कहा जिससे उसकी इच्छा समझकर उसके प्रति समर्पित हो सकूँ।
अगले दिन, एक भाई ने उन कलीसियाओं की कुछ समस्याएं मुझे बताईं। उन्होंने कहा, "अधिक से अधिक लोग परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर रहे हैं। जब कलीसियाओं को बाँटा गया, तो कुछ कलीसिया अगुआ गैर-जिम्मेदार थे, उन्होंने सदस्यों को छोड़ दिया। वे सामूहिक सभाएं नहीं कर सके, परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ सके। कुछ नये सदस्यों के संदेश देखिए।" मैंने उनके भेजे हुए संदेश देखे, एक ने कहा था, "भाई, क्या आप सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया से हैं? मैं कलीसिया की सभा वाले समूह में शामिल नहीं हूँ। मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों पर ऑनलाइन सहभागिता करनी है। क्या आप मेरी मदद करेंगे? मुझे दुख है कि मैं अभी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन खा-पी नहीं सकता।" दूसरे नये सदस्य का कहना था, "भाई, मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन खा-पी नहीं सकता। मैं परमेश्वर के घर से बाहर हूँ और बिल्कुल भी खुश नहीं हूँ। क्या आप सभाएं ढूंढने में मेरी मदद करेंगे?" कुछ लोग हर दिन बेसब्री से सभाओं की प्रतीक्षा करते थे, मगर अगुआ उनको समय नहीं दे रहे थे। भाई काफी परेशान थे, उन्होंने कहा, "मैं नहीं जानता कि उनका सिंचन कैसे होता है। आप चाहे कितने भी व्यस्त हों या आपका काम कितना भी मुश्किल हो, क्या आपको यह परेशान नहीं करता कि सुसमाचार स्वीकारने वाले सभा नहीं कर सकते या परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ सकते? अगर हमने उनकी थोड़ी-सी भी परवाह की, तो वे परमेश्वर के घर से बाहर नहीं रहेंगे।" उनकी बात सुनकर और उनके सदेशों को देखकर मुझे बहुत बुरा लगा, मैं अपने आंसुओं को नहीं रोक पाई। हमारी भूल की वजह से नये सदस्य परमेश्वर के घर के बाहर छूट गए थे। वे कलीसियाई जीवन जीने या परमेश्वर के वचन पढ़ने में असमर्थ थे, जिससे उनके जीवन को नुकसान हो रहा था। जहां तक मेरी बात है, मैं कलीसियाओं की समस्याएँ देखकर भी उनकी जिम्मेदारी नहीं ले रही थी। मुझ पर उनके जीवन का कोई दायित्व नहीं था। मैं यह नहीं सोच रही थी कि उनका कलीसियाई जीवन कैसे जल्दी से ठीक करूँ, बल्कि बचकर भागना चाहती थी। मैं बहुत स्वार्थी थी! मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? ... क्या तुम मेरी इच्छा को स्वयं में पूरा होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। ऐसा लगा जैसे परमेश्वर का हर वचन का सीधा निशाना मैं हूँ। मैं उदास हो गई, अपराध-बोध भी हुआ। परमेश्वर के घर ने मुझे नए सदस्यों की कलीसिया के काम का प्रभारी बनाया, मुझसे परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने की अपेक्षा थी। मुझे भाई-बहनों का सिंचन करने के लिए उनके साथ एकमत होना था, ताकि वे सभा करके परमेश्वर के वचन पढ़ सकें सच्चे मार्ग पर कदम जमा सकें। नये सदस्यों की कलीसियाएं कई देशों में स्थापित की जा रही थीं ऐसी बहुत-सी समस्याएं थीं जिन पर फौरन ध्यान देना ज़रूरी था, पर मैं परमेश्वर की इच्छा का ध्यान नहीं रख रही थी। उस आदेश को स्वीकारने के बाद से, मैं सिर्फ अपने भविष्य के बारे में सोच रही थी, डरती थी कि अच्छा काम न करने पर मुझे उजागर किया जाएगा और मेरा कोई परिणाम नहीं होगा। मुझमें अपने कर्तव्य का बोझ या जिम्मेदारी बिल्कुल भी नहीं थी। मैं बहुत नीच थी, मुझमें इंसानियत नहीं थी! उस भाई ने मुझे नये सदस्यों के संदेश भेजे, इसके पीछे परमेश्वर की इच्छा थी। ये मेरे सुन्न पड़े दिल को जगाने के लिए था ताकि मैं अपनी जिम्मेदारी समझूँ और अपने कर्तव्य का सही बोझ महसूस कर सकूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, अब मैं अपने भविष्य के बारे में न सोचकर उस पर भरोसा करना, आदेश स्वीकारकर ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाना, दूसरों के साथ सत्य खोजना और जल्द से जल्द कलीसिया की समस्याओं को हल करना चाहती थी।
फिर मैंने कुछ लोगों की व्यवस्था की जो उन नये सदस्यों के लिए व्यवस्था कर सकें जो सभाएं नहीं कर पा रहे थे। मैंने कलीसियाओं के कामों की असल समझ हासिल करने की भी कोशिश की। नये सदस्यों की बहुत-सी कलीसियाओं में, कुछ सुपरवाइजर अपने काम में नये थे और उन्हें काम की जानकारी नहीं थी, उनमें से कुछ लोग जैसे-तैसे काम कर रहे थे, नये विश्वासियों की समस्याओं पर फौरन ध्यान नहीं दे पा रहे थे। उनकी मदद या बर्खास्तगी ज़रूरी थी। खास तौर पर, कुछ नये सदस्यों ने सभाओं में जाना इसलिए बंद कर दिया क्योंकि याजक-वर्ग उन्हें गुमराह कर रहा था, ऐसे सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही थी। इन समस्याओं को देखकर मैं घबराए बिना नहीं रह पाई। कुछ समय तक प्रभारी रहने के बाद भी, अगर हमारे काम में कोई सुधार नहीं हुआ, तो सारी जिम्मेदारी मुझ पर ही होगी, समय के साथ मुझे उजागर कर दिया जाएगा। मुझे बहुत निराशा होने लगी। वैसे तो मैं हमेशा इधर-उधर भागती दिखती थी, मगर मेरे दिल पर बहुत भारी दबाव था। महीने के अंत में, मैंने देखा कि सभाओं में हिस्सा न लेने वाले नये विश्वासियों की संख्या बढ़ गई है। मुझे साँप सूंघ गया। मैंने सोचा कि अभी तो यह दायित्व संभाला है, अगर जल्दी इस्तीफा दे दिया, तो अधिक दुष्टता नहीं करूंगी। अगर मैं काम करती रही और नये विश्वासियों की समस्याएं हल नहीं हुईं, और वे कलीसिया छोड़कर चले गए, तो ये बड़ी दुष्टता होगी। फिर मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा, फिर मेरी मंज़िल और परिणाम, सब बरबाद हो जाएंगे। काम छोड़ने की मेरी इच्छा प्रबल होती गई पर आखिर में मैंने काम करने का फैसला किया। यह सोचकर जैसे ही मैं खड़ी हुई तो अचानक चक्कर आने लगा। सब कुछ घूम रहा था, मैं बेहोश होने वाली थी। मुझे ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ था, मैंने सोचा क्या यह तनाव की वजह से हुआ है। मैंने एक बहन को बताया तो उसने सहभागिता करते हुए कहा कि उस अचानक हुई घटना के पीछे परमेश्वर की इच्छा थी, इससे एक सबक सीखना चाहिए। यह सुनकर मेरा मन शांत हो गया, मैंने सत्य की खोज और चिंतन किया, परमेश्वर से प्रार्थना की, अपनी भ्रष्टता को समझने के लिए उससे प्रबोधन मांगा।
पेज 672 पर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना, प्रार्थना का अभ्यास करना, परमेश्वर के बोझ को स्वीकार करना, और उसे स्वीकार करना जो उसने तुम्हें सौंपा है—ये सब मार्ग को प्राप्त करने के उद्देश्य से हैं। परमेश्वर द्वारा सौंपा गया जितना अधिक बोझ तुम्हारे ऊपर होगा, तुम्हारे लिए उसके द्वारा पूर्ण बनाया जाना उतना ही आसान होगा। कुछ लोग परमेश्वर की सेवा में दूसरों के साथ समन्वय करने के इच्छुक नहीं होते, तब भी नहीं जबकि वे बुलाए जाते हैं; ये आलसी लोग केवल आराम का सुख उठाने के इच्छुक होते हैं। तुमसे जितना अधिक दूसरों के साथ समन्वय करने का आग्रह किया जाएगा, तुम उतना ही अधिक अनुभव प्राप्त करोगे। तुम्हारे पास अधिक बोझ होने के कारण, तुम अधिक अनुभव करोगे, तुम्हारे पास पूर्ण बनाए जाने का अधिक मौका होगा। इसलिए, यदि तुम सच्चे मन से परमेश्वर की सेवा कर सको, तो तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहोगे; और इस तरह तुम्हारे पास परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाये जाने का अधिक अवसर होगा। ऐसे ही मनुष्यों के एक समूह को इस समय पूर्ण बनाया जा रहा है। पवित्र आत्मा जितना अधिक तुम्हें स्पर्श करेगा, तुम उतने ही अधिक परमेश्वर के बोझ के लिए विचारशील रहने के प्रति समर्पित होओगे, तुम्हें परमेश्वर द्वारा उतना अधिक पूर्ण बनाया जाएगा, तुम्हें उसके द्वारा उतना अधिक प्राप्त किया जाएगा, और अंत में, तुम ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जिसे परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त किया जाता है। वर्तमान में, कुछ ऐसे लोग हैं जो कलीसिया के लिए कोई बोझ नहीं उठाते। ये लोग सुस्त और ढीले-ढाले हैं, और वे केवल अपने शरीर की चिंता करते हैं। ऐसे लोग बहुत स्वार्थी होते हैं और अंधे भी होते हैं। यदि तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम नहीं होते हो, तो तुम कोई बोझ नहीं उठा पाओगे। तुम जितना अधिक परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखोगे, तुम्हें परमेश्वर उतना ही अधिक बोझ सौंपेगा। स्वार्थी लोग ऐसी चीज़ें सहना नहीं चाहते; वे कीमत नहीं चुकाना चाहते, परिणामस्वरूप, वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के अवसर से चूक जाते हैं। क्या वे अपना नुकसान नहीं कर रहे हैं? यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखता है, तो तुम कलीसिया के लिए वास्तविक बोझ विकसित करोगे। वास्तव में, इसे कलीसिया के लिए बोझ उठाना कहने की बजाय, यह कहना चाहिए कि तुम खुद अपने जीवन के लिए बोझ उठा रहे हो, क्योंकि कलीसिया के प्रति बोझ तुम इसलिए पैदा करते हो, ताकि तुम ऐसे अनुभवों का इस्तेमाल परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के लिए कर सको। इसलिए, जो भी कलीसिया के लिए सबसे भारी बोझ उठाता है, जो भी जीवन में प्रवेश के लिए बोझ उठाता है, उसे ही परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाता है। क्या तुमने इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लिया है? जिस कलीसिया के साथ तुम हो, यदि वह रेत की तरह बिखरी हुई है, लेकिन तुम न तो चिंतित हो और न ही व्याकुल, यहाँ तक कि जब तुम्हारे भाई-बहन परमेश्वर के वचनों को सामान्य ढंग से खाते-पीते नहीं हैं, तब भी तुम आँख मूंद लेते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम कोई जिम्मेदारी वहन नहीं कर रहे। ऐसे मनुष्य से परमेश्वर प्रसन्न नहीं होता। परमेश्वर जिनसे प्रसन्न होता है वे लोग धार्मिकता के भूखे और प्यासे होते हैं और वे परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होते हैं। इसलिए, तुम्हें परमेश्वर के बोझ के लिए अभी तुरंत विचारशील हो जाना चाहिए; परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील होने से पहले तुम्हें इंतजार नहीं करना चाहिए कि परमेश्वर सभी लोगों के सामने अपना धार्मिक स्वभाव प्रकट करे। क्या तब तक बहुत देर नहीं हो जाएगी? परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के लिए अभी अच्छा अवसर है। यदि तुम अपने हाथ से इस अवसर को निकल जाने दोगे, तो तुम जीवन भर पछताओगे, जैसे मूसा कनान की अच्छी भूमि में प्रवेश नहीं कर पाया और जीवन भर पछताता रहा, पछतावे के साथ ही मरा। एक बार जब परमेश्वर अपना धार्मिक स्वभाव सभी लोगों पर प्रकट कर देगा, तो तुम पछतावे से भर जाओगे। यदि परमेश्वर तुम्हें ताड़ना नहीं भी देता है, तो भी तुम स्वयं ही अपने आपको अपने पछतावे के कारण ताड़ना दोगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखो)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश से, मैंने जाना कि उसके द्वारा सौंपे आदेश का बोझ उठाने का संबंध व्यक्ति को पूर्ण किये जाने से है। किसी पर जितना अधिक बोझ होता है वह परमेश्वर के दायित्व के प्रति उतना ही विचारशील होता है, और परमेश्वर उसे उतनी ही आशीष देता है। हालांकि, जो लोग कलीसिया के कार्य और अपने कर्तव्य की ज़रा-भी जिम्मेदारी नहीं लेते, जो कलीसिया के हितों को कायम न रखकर सिर्फ खुद की रक्षा करते हैं, वे स्वार्थी और नीच लोग हैं, जिन्हें परमेश्वर द्वारा पूर्ण नहीं किया जा सकता। मैंने विचार किया कि मैं कितनी स्वार्थी थी, असल बोझ उठाने या परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना नहीं चाहती थी, मुझे सिर्फ अपने भविष्य की परवाह थी। जब ज्यादा नए सदस्य सभाओं में नहीं जाने लगे, तो मैं फौरन उनकी मदद करने के लिए कोई हल ढूंढने के बजाय, इस चिंता में डूबी थी कि कर्तव्य में बनी रही, तो मुझे उजागर करके हटा दिया जाएगा। उन आत्माओं की जिम्मेदारी मैं नहीं उठा पा रही थी। तो खुद को बचाने के लिए, मैं उस काम से इस्तीफ़ा देना चाहती थी। मैं परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं थी। अपने कर्तव्य में, मैं सिर्फ अपने हितों की परवाह करती थी। जब मेरा फायदा नहीं हुआ और मुझे कष्ट उठाकर जिम्मेदारी निभानी पड़ी, तो बचने का रास्ता ढूंढकर मैं भाग जाना चाहती थी। जब सब कुछ अच्छा चल रहा था, तब मैं अपने काम से बहुत खुश थी, मगर जब समस्याएं सामने आईं और मेरे भविष्य पर खतरा मंडराने लगा, तो मैं छोड़ देना चाहती थी। मैं परमेश्वर के प्रति ईमानदार नहीं थी, मेरा दिल सच्चा नहीं था। मैं कपटी, खुदगर्ज़ और दुष्ट इंसान थी जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। परमेश्वर मुझ जैसी स्वार्थी और कपटी इंसान को पूर्ण नहीं करेगा। जितना सोचती, उतना ही ज़मीर न होने पर खुद से नफ़रत करती। मैं परमेश्वर के सामने जीने लायक नहीं थी। मैं अपराध बोध और पछतावे से भर गई।
अपने कर्तव्य में, हम हमेशा अपने हितों और भविष्य के बारे में ही क्यों सोचते हैं? हम इतने स्वार्थी क्यों हैं? मैं इस पर भी सोचती थी। जब मैंने धार्मिक कार्यों के दौरान मसीह-विरोधियों का विश्लेषण करने वाले वचन पढ़े, तो बात और साफ समझ आ गई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "सामान्य परिस्थितियों में व्यक्ति को अपने कर्तव्य में परिवर्तन स्वीकार करने चाहिए और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए। लेकिन उन्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए, समस्या का सार पहचानना चाहिए और अपनी कमियाँ माननी चाहिए। यह बहुत अच्छी बात है और इसमें कोई दुर्गम बाधा नहीं है। यह जटिल नहीं है; यह बहुत आसान है और कोई भी इस पर स्पष्ट रूप से विचार कर सकता है। जब किसी सामान्य व्यक्ति के साथ ऐसा कुछ होता है, तो वह कम से कम कुछ सीखता है, अपने बारे में अधिक सटीक समझ और आकलन हासिल साथ करता है। लेकिन मसीह-विरोधियों के साथ ऐसा नहीं है—वे सामान्य लोगों से अलग होते हैं, चाहे उन्हें कुछ भी हो जाए। यह अंतर कहाँ होता है? वे समर्पण नहीं करते; वे सक्रिय रूप से और स्वेच्छा से सहयोग नहीं करते, इसे स्वीकार तो बिल्कुल भी नहीं करते। इसके बजाय, वे इसके प्रति घृणा महसूस करते हैं, और वे इसका विरोध और विश्लेषण करते हैं, इस पर चिंतन करते हैं, और दिमाग के घोड़े दौड़ाकर अटकलें लगाते हैं : 'मुझे कहीं और काम करने के लिए स्थानांतरित क्यों किया जा रहा है? मैं अपना वर्तमान कर्तव्य क्यों नहीं करता रह सकता? क्या मैं वास्तव में इसके लिए उपयुक्त नहीं हूँ? क्या वे मुझे बरखास्त कर देंगे, या मुझे हटा देंगे?' वे इस घटना को अपने दिमाग में उलटते-पलटते रहते हैं, उसका अंतहीन विश्लेषण करते हैं और उस पर चिंतन करते हैं। ... इतना सरल मामला—फिर भी मसीह-विरोधी इसके बारे में भारी उपद्रव करते हैं, बार-बार इसके बारे में सोचते रहते हैं, यहाँ तक कि चैन से सो भी नहीं पाते। वे इस तरह क्यों सोचते हैं? एक सरल चीज़ के बारे में भी वे इतने जटिल तरीके से क्यों सोचते हैं? इसका एक ही कारण है : परमेश्वर के घर के द्वारा उनके संबंध में जो भी व्यवस्था की जाती है, वे उस चीज़ को अपने आशीष और भावी गंतव्य की आशा से जोड़ने के लिए एक मजबूत गाँठ बाँध लेते हैं। इसीलिए वे सोचते हैं, 'मुझे सावधान रहना होगा; एक गलत कदम हर कदम को गलत कर देगा, और मुझे आशीष प्राप्त करने की अपनी इच्छा को अलविदा कहना पड़ सकता है—और यह मेरा अंत होगा। मैं लापरवाह नहीं हो सकता! परमेश्वर का घर, भाई और बहनें, ऊपरी अगुआ-गण, यहाँ तक कि परमेश्वर भी—ये सभी अविश्वसनीय हैं। मैं इनमें से किसी पर भरोसा नहीं रखता। सबसे अधिक विश्वसनीय और सबसे भरोसेमंद आदमी खुद है; अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बनाओगे, तो और कौन तुम्हारा ध्यान रखेगा? तुम्हारी संभावनाओं पर, और तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं, इस पर और कौन विचार करेगा? इसलिए मुझे अपने लिए योजनाएँ बनाने के लिए सावधानीपूर्वक तैयारियाँ और बहुत मेहनत करनी पड़ेगी; मैं ज़रा भी ढीला नहीं पड़ सकता—वरना लोगों के लिए मुझे मुझे धोखा देना और मेरा फायदा उठाना आसान होगा।' मसीह-विरोधी स्वयं को स्वर्ग से भी अधिक धन्य, जीवन से भी बड़ा, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से अधिक महत्वपूर्ण, और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो शायद ही उल्लेखनीय हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। और इसलिए, उनके सामने चाहे कुछ भी जाए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का रास्ता रखते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं')। जब मैंने इन वचनों पर विचार किया, तो देखा कि अपने कर्तव्य में खुद को बचाने और अपने हितों की परवाह करने का मतलब था मैं उन मसीह-विरोधियों का स्वभाव दिखा रही थी जिन्हें परमेश्वर बेनकाब करता है, जो बेहद स्वार्थी होते हैं, सिर्फ निजी फायदा और आशीष पाने की सोचते हैं। उनकी आस्था का मकसद परमेश्वर से आशीष पाना होता है। कोई भी समस्या होने पर, मैं पहले अपने परिणाम और मंज़िल के बारे में सोचती थी, आशीष को जीवन जितना कीमती समझती थी। मैंने सभी पहलुओं पर विचार किया, परमेश्वर से बचती रही, बच निकलने का रास्ता बनाए रखा डरती थी कि सावधान नहीं रही तो उजागर होकर निकाल दी जाऊँगी। मुझे परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं था। नये सदस्यों की कलीसियों का दायित्व संभालने के बाद, बहुत-सी परेशानियों का सामना होते ही, मैं वापस सुसमाचार प्रचार करना चाहती थी। मुझे लगा मैं वो काम अच्छा करती थी, अच्छे नतीजे हासिल हुए, तो मुझे परमेश्वर का वादा और एक सुंदर मंज़िल हासिल होगी। नए विश्वासियों की कलीसियाओं में इतनी सारी समस्याएं देखकर, मुझे डर लगा कि सिंचन कार्य अच्छे से नहीं हुआ तो लोग छोड़कर चले जाएंगे, इसके लिए मुझे जिम्मेदार ठहराकर हटा दिया जाएगा। इससे मेरे रुतबे और भविष्य पर बुरा असर पड़ेगा और मुझे आशीष नहीं मिलेगी, इसलिए मैं पीठ दिखाकर भागना चाहती थी, वह काम बिल्कुल नहीं करना चाहती थी। मैं सिर्फ आशीष पाने के लिए कर्तव्य निभा रही थी, परमेश्वर से सौदा करना चाहती थी। यह परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए नहीं था। मैंने पौलुस के बारे में सोचा जो सुसमाचार फैलाने के लिये पूरे यूरोप में घूमता रहा, काफी कष्ट सहकर उसने बहुत-सी कलीसियाओं की स्थापना की, मगर यह सारी कड़ी मेहनत सिर्फ आशीष पाने के लिए थी। वह अपने काम के बल पर परमेश्वर के साथ सौदा करना चाहता था। यही कारण है कि उसने कहा, "मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है" (2 तीमुथियुस 4:7-8)। मैंने ठीक पौलुस जैसा काम किया, मेरे कर्तव्य में कोई ईमानदारी नहीं थी। मैं अपने मामूली प्रयासों के बदले में परमेश्वर से मुआवजा और आशीष चाहती थी, मैं इस जहर के अनुसार जी रही थी, "हर व्यक्ति अपनी सोचे, बाकियों को शैतान ले जाये।" यह कर्तव्य निभाना नहीं था। मैं एक गैर-विश्वासी और मौकापरस्त थी जो परमेश्वर के घर में आ गई थी। मैं बेहद नीच इंसान थी। कलीसियाओं में ऐसी बहुत-सी व्यावहारिक समस्याएं थीं जिन्हें हल करना ज़रूरी था, मगर मैंने उन पर ध्यान नहीं दिया। मैं सिर्फ अपने परिणाम और मंज़िल के बारे में सोच रही थी कि मुझे आशीष मिलेगी या नहीं, मैं इंसान कहलाने लायक नहीं थी। यह देखकर मुझे बहुत अपराध बोध हुआ, मैंने प्रार्थना करते हुए कहा, अब मैं अपने परिणाम के बारे में न सोचकर, शांत दिल से कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती हूँ।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे काफी प्रबुद्ध किया, यह पेज 1167 का दूसरा अंश है। "मनुष्य द्वारा अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में उस सबकी सिद्धि है, जो मनुष्य के भीतर अंतर्निहित है, अर्थात् जो मनुष्य के लिए संभव है। इसके बाद उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है। मनुष्य की सेवा के दौरान उसके दोष उसके क्रमिक अनुभव और न्याय से गुज़रने की प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे कम होते जाते हैं; वे मनुष्य के कर्तव्य में बाधा या विपरीत प्रभाव नहीं डालते। वे लोग, जो इस डर से सेवा करना बंद कर देते हैं या हार मानकर पीछे हट जाते हैं कि उनकी सेवा में कमियाँ हो सकती हैं, वे सबसे ज्यादा कायर होते हैं। यदि लोग वह व्यक्त नहीं कर सकते, जो उन्हें सेवा के दौरान व्यक्त करना चाहिए या वह हासिल नहीं कर सकते, जो उनके लिए सहज रूप से संभव है, और इसके बजाय वे सुस्ती में समय गँवाते हैं और बेमन से काम करते हैं, तो उन्होंने अपना वह प्रयोजन खो दिया है, जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए। ऐसे लोग 'औसत दर्जे के' माने जाते हैं; वे बेकार का कचरा हैं। इस तरह के लोग उपयुक्त रूप से सृजित प्राणी कैसे कहे जा सकते हैं? क्या वे भ्रष्ट प्राणी नहीं हैं, जो बाहर से तो चमकते हैं, परंतु भीतर से सड़े हुए हैं? ... मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कार्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। इससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि आशीष या अभिशाप पाने से हमारे कर्तव्य का कोई लेना-देना नहीं है। एक सृजित प्राणी के रूप में, आशीष के साथ जोड़े बिना कर्तव्य निभाना मेरा दायित्व है। किसी काम में चाहे कोई भी मुश्किल आये, मुझे दिल लगाकर काम करना होगा और उसकी जिम्मेदारी लेनी होगी। अच्छा काम न करने पर मुझे ट्रांसफर या बर्खास्त कर दिया जाता है, तब भी कुछ न कुछ सीख ज़रूर मिलेगी। उजागर करके हटा दिये जाने के डर से मुझे काम नहीं छोड़ना चाहिए। परमेश्वर के घर में लोगों को बर्खास्त करने और हटाने के सिद्धांत हैं। परमेश्वर के घर से किसी को सिर्फ उसके किसी एक काम के लिए नहीं हटाया जाता या इसलिए कि उसने अपने काम में कोई गलती कर दी है। ऐसा कभी नहीं होता। यह सिर्फ इसलिए होता है कि वे सत्य नहीं खोजते, सही मार्ग पर नहीं चलते, और पश्चाताप करने से बार-बार इनकार करते हैं। सत्य की खोज करने वाले भाई-बहनों को अपराध करने के बाद भी एक मौका दिया जाता है। मदद और निपटान के ज़रिये, अगर कोई खुद को जान पाता है, पश्चाताप करके बदल पाता है, तो वह परमेश्वर के घर में रह सकता है। मैंने यह भी जाना कि कोई अपना काम अच्छे से करता है या नहीं, इसका विचार करते समय परमेश्वर यह नहीं देखता कि वो इंसान खुद को कितना खपाता हुआ दिख रहा है या उसने कितनी उपलब्धियां हासिल की हैं, बल्कि यह देखता है कि वो सत्य की खोज और सिद्धांतों के पालन पर ध्यान दे रहा है या नहीं, दिल लगाकर अपना भरसक प्रयास कर रहा है या नहीं। कोई इंसान चाहे कितनी भी समस्याओं का सामना करता हो, अगर वह परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखकर सत्य खोजता है, तो वह उसे प्रबुद्ध करेगा, फिर कोई भी समस्या हल हो सकती है। अगर कोई सत्य की खोज न करके सिर्फ अपने फायदे-नुकसान की परवाह करता है, जैसे-तैसे कर्तव्य निभाकर कभी पश्चाताप नहीं करता, तो उसे बेशक उजागर करके हटा दिया जाएगा। परमेश्वर की इच्छा समझने के बाद, मैंने एक और प्रार्थना की, अब मैं अपने फायदे-नुकसान के बारे में न सोचकर अपना सब कुछ अपने कर्तव्य में लगाना चाहती थी।
फिर, मैंने खुद को अपने कर्तव्य में झोंक दिया, कलीसियाओं के काम की पूरी जानकारी को ध्यान से पढ़ा, सभी वास्तविक समस्याओं की सूची तैयार की। जिन समस्याओं को खुद हल नहीं कर पाई उनके लिए अगुआ से बात की, दूसरी कलीसियाओं के अगुआओं से सहभागिता की। सिद्धांतों और अभ्यासों को अच्छे से समझकर, मैं कई समस्याएं हल कर सकी। जब मैंने अपना रवैया बदला और भविष्य के बारे में सोचना बंद किया, यह सोचने लगी कि नए सदस्यों की समस्याओं को हल करने के लिए भाई-बहनों के साथ मिलकर काम कैसे करें, तो कुछ समय बाद, धीरे-धीरे कलीसिया जीवन पटरी पर लौट आया। सभाओं में न आने वाले नये विश्वासी भी धीरे-धीरे अपना कलीसियाई जीवन जीने लगे, अब वे परमेश्वर के वचनों को खा-पी सकते थे। कुछ नये सदस्य तो सुसमाचार के प्रचार का काम भी संभालने लगे। मैंने इसमें परमेश्वर का मार्गदर्शन और आशीष देखी। परमेश्वर के कथन, "परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य सक्रिय रूप से निभाना ही सफलता का पथ है" को मैंने निजी तौर पर अनुभव किया। इन सारी बातों पर मुड़कर सोचें, तो जब नये सदस्यों की कलीसियाओं में बहुत-सी समस्याएं थीं तब से लेकर, धीरे-धीरे जब सब कुछ पटरी पर लौटा और नये विश्वासी सामान्य कलीसियाई जीवन जीने लगे, यह सब परमेश्वर के कार्य का ही फल था। मैंने देखा कि परमेश्वर का कार्य सचमुच परमेश्वर ही करता है, हम तो बस एक किरदार निभाते हैं। चाहे कोई भी काम या परेशानी हो, हमें अपने फायदे-नुकसान की परवाह न करके, उसके प्रति समर्पित होना चाहिए। हमें सत्य की खोज करनी है, परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखकर अपना भरसक प्रयास करना है, तभी हमें परमेश्वर की आशीष मिलेगी।
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