मुश्किल परिवेश वालाइम्तिहान

07 दिसम्बर, 2022

बचपन से ही, मुझ पर समाज का बहुत असर था। मुझे हर काम में दूसरों से सहमत होना अच्छा लगता था। मेरे आसपास के लोग ईसाई थे, इसलिए मैं भी था। पर जब मैंने परमेश्वर के बारे में जानना और जानकारी हासिल करनी चाही, तो मैं कुछ सवालों पर मनन करने लगा : मैं परमेश्वर में क्यों विश्वास करता हूँ? हम परमेश्वर को कैसे जान सकते हैं? इस अंधेरी और बुरी दुनिया में सत्य आखिर कहाँ है? लोग ज़िंदगी में मुश्किलों का सामना क्यों करते हैं? ये सारे सवाल रहस्यों की तरह थे, मुझे कभी इनका जवाब नहीं मिला था। सौभाग्य से, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का सुसमाचार स्वीकारने के बाद, मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों में सवालों के जवाब मिल गए। मैंने जाना कि आस्था में लोग परमेश्वर के वचनों और कार्य का अनुभव करके परमेश्वर का ज्ञान और उसके लिए समर्पण और प्रेम पा सकते हैं। और अंत के दिनों में परमेश्वर न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन से लोगों को पूर्ण बनाकर उनकी भ्रष्टता साफ करता है। इसलिए मैंने परीक्षणों से गुजरने के लिए प्रार्थना की। मैं सोचता, काश मैं चीन में पैदा होता ताकि मैं चीनी भाई-बहनों की तरह शैतानी शासन के दमन और अत्याचारों से गुजर पाता, और परमेश्वर की शानदार गवाही दे पाता, कष्टों के जरिए उसके द्वारा विजेता बन पाता। मुझमें यह जागृति आ जाने के बाद, जल्दी ही मेरे साथ कुछ घटने लगा।

वैश्विक महामारी की वजह से मेरी कंपनी बंद हो गई और नौकरी चली गई। मैंने दूसरी कंपनियों में काम ढूँढने की कोशिश की, पर इंटरव्यू के लिए एक कॉल तक नहीं आया। वक्त निकलता गया और हालात खराब होते गए। मेरे पास आमदनी या खाने-पीने के पैसे नहीं थे। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। इससे पहले, मैं ऑनलाइन सभाओं में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़ता था, कलीसिया की फिल्में देखता था, काम से लौटने के बाद अपना कर्तव्य निभाता था। मेरे लिए ये सबसे महत्वपूर्ण चीजें थीं, आस्था का यह अभ्यास शानदार लगता था। पर अब इस मुश्किल दौर से गुजरने के कारण, मैं सोचने लगा कि मैं एक सच्चे परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, वह जरूर मेरा ध्यान रखेगा, मदद करेगा। मैंने उससे प्रार्थना करके नौकरी पाने के लिए विनती की। मुझे लगता था एक विश्वासी होने के कारण मैं परमेश्वर से जो भी माँगूँगा वह देगा, पर परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया। मैं थोड़ा कमजोर और भ्रमित महसूस करने लगा। मैं रोज परमेश्वर के वचन पढ़ता और प्रार्थना करता था, फिर मेरी तकलीफ देखकर वह मदद क्यों नहीं करता? मन में यह विचार आते ही मैं अय्यूब के बारे में सोचने लगा। अपना सब कुछ खोकर भी वह अपनी गवाही में मजबूती से खड़ा रहा था। अय्यूब का मानना था कि अच्छ-बुरा सब कुछ परमेश्वर ही व्यवस्थित करता था, उसने कभी कोई शिकायत नहीं की। सांसारिक आशीषों के लिए धन्यवाद कहा, जब परमेश्वर ने ये आशीष वापस ले लिए, तब भी यहोवा परमेश्वर का गुणगान किया। अय्यूब की आस्था और प्रार्थनाओं की सोचकर, ये एहसास हुआ कि मेरी आस्था कितनी तुच्छ थी, मैं अय्यूब से तुलना नहीं कर सकता था। मुझे अय्यूब के उदाहरण का अनुसरण कर परमेश्वर के नियमों और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करना चाहिए। पर दो वक्त की रोटी भी नसीब न होने की संभावनाओं को देखते हुए समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ। सबसे अहम था कि मैंने तीन महीने पहले ही सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकारा था, उसके वचन ज्यादा नहीं समझता था। मोबाइल डाटा खर्च हो चुका था, तो ऑनलाइन सभा भी नहीं कर सकता था। मैं बस परमेश्वर से विनती कर सकता था। "परमेश्वर, मैं भूख से मरूंगा या नहीं, यह तुम्हारे हाथ में है। अगर मैं मर भी जाऊँ, तो भी मैं तुम्हारे नियम और व्यवस्था मानूँगा।" प्रार्थना करके मुझे थोड़ी शांति मिली। उसी दिन, मेरी प्रार्थना के बाद, अचानक ही कुछ हुआ। मेरे अंकल ने फोन करके मुझसे पूछा, क्या मैं उनकी कन्स्ट्रकशन कंपनी के लिए काम करूंगा। लेकिन निर्माण का काम थकाऊ था, एक हफ्ते काम करके मैं इतना कमा चुका था कि कुछ समय तक गुजारा कर सकूँ। मैंने सच्चे दिल से परमेश्वर का शुक्रिया किया। उस समय, मैं यह सोचने लगा कि परमेश्वर ने तब ऐसा क्यों नहीं किया जब मैं नौकरी के लिए विनती कर रहा था, समर्पण के लिए तैयार होने की बात कहने पर उसने मेरी मदद की।

फिर एक दिन, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, जिनसे मुझे थोड़ी समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुज़ारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैंने अपना क्रोध नीचे मनुष्यों पर उतारा और उसका सारा आनंद और शांति छीन ली, तो मनुष्य संदिग्ध हो गया। जब मैंने मनुष्य को नरक का कष्ट दिया और स्वर्ग के आशीष वापस ले लिए, तो मनुष्य की लज्जा क्रोध में बदल गई। जब मनुष्य ने मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहा, तो मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया और उसके प्रति घृणा महसूस की; तो मनुष्य मुझे छोड़कर चला गया और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगा। जब मैंने मनुष्य द्वारा मुझसे माँगा गया सब-कुछ वापस ले लिया, तो हर कोई बिना कोई निशान छोड़े गायब हो गया। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य मुझ पर इसलिए विश्वास करता है, क्योंकि मैं बहुत अनुग्रह देता हूँ, और प्राप्त करने के लिए और भी बहुत-कुछ है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। "मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के संबंध के समान है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कार्य करता है। इस प्रकार के संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेनदेन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझदारी नहीं होती, केवल दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है। अब जबकि चीज़ें इस बिंदु तक आ गई हैं, तो कौन इस क्रम को उलट सकता है? और कितने लोग इस बात को वास्तव में समझने में सक्षम हैं कि यह संबंध कितना भयानक बन चुका है? मैं मानता हूँ कि जब लोग आशीष प्राप्त होने के आनंद में निमग्न हो जाते हैं, तो कोई यह कल्पना नहीं कर सकता कि परमेश्वर के साथ इस प्रकार का संबंध कितना शर्मनाक और भद्दा है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। वचन हमारी भ्रष्ट अवस्थाओं और आशीष के इरादों को उजागर करते हैं। बहुत-से लोग अपनी आस्था में सिर्फ परमेश्वर से सुख-आराम चाहते हैं। वे दुर्भाग्य नहीं चाहते, और उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर उन्हें मनचाहा सब कुछ देगा, पर वे उसे संतुष्ट करने की कभी परवाह नहीं करते, उनके लिए परमेश्वर के आगे समर्पण करना, उसकी मांगों पर खरा उतरना महत्वपूर्ण नहीं है। सबसे जरूरी है कि उन्हें मनचाहा सब कुछ दे। प्रभु में मेरी आस्था में, पादरी और एल्डर अक्सर उपदेश देते थे कि हमें परमेश्वर से आशीष माँगने चाहिए, पर ऐसे अनुसरण से परमेश्वर के साथ हमारा संबंध कलंकित होता है। जैसेकि परमेश्वर के वचन कहते हैं : "मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के संबंध के समान है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कार्य करता है। इस प्रकार के संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेनदेन होता है।" परमेश्वर के वचन सत्य हैं, इसलिए मैं आत्मचिंतन करने लगा। मैंने देखा कि मेरी आस्था भी परमेश्वर से आशीष पाने के लिए थी। यह मेरे दिल की गहराइयों में छिपा हुआ था। मैं सोचता था कि परमेश्वर पृथ्वी पर लौट चुका है, वह उसे स्वीकार करने वाले हर इंसान को आशीष देगा। मैंने परमेश्वर के अंत के दिनों का काम स्वीकारा है, इसलिए आशीष मिलेगा ही, और मेरी जिंदगी बेहतर हो जाएगी। पर चीजें इस तरह से नहीं हुईं। मैं मुसीबतों में घिर गया और जिंदगी दूभर हो गई, इसलिए मैं कमजोर और नकारात्मक हो गया। मेरी आमदनी नहीं थी, खाने-पीने के लाले पड़े थे, सभाओं में शामिल होने के लिए इंटरनेट तक नहीं था। फिर मैं कैसे अपनी आस्था जारी रखता? मेरा मन खराब था, और मुझे लगता था परमेश्वर मेरी परवाह नहीं करता। मैं काम की तलाश में खाक छान रहा था, परमेश्वर से मदद मांग रहा था, पर उसने कोई जवाब नहीं दिया था, जो मांगा वह नहीं दिया। मुझे परमेश्वर पर शंका होने लगी : क्या वह सच्चा परमेश्वर है? जैसाकि परमेश्वर ने कहा है : "जब मैंने अपना क्रोध नीचे मनुष्यों पर उतारा और उसका सारा आनंद और शांति छीन ली, तो मनुष्य संदिग्ध हो गया।" परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे खुद पर शर्म आने लगी। परमेश्वर ने मुझे यह भी दिखाया कि आशीषों की खातिर आस्था रखना गलत नजरिया था, क्योंकि मैं परमेश्वर को आशीषें देने वाला और खुद को आशीषें पाने वाला समझता था। जब परमेश्वर ने मुझे एक अच्छा रोजगार नहीं दिया, तो मैं उसे दोष देते हुए यह कहने लगा कि वह मेरी बिल्कुल परवाह नहीं करता। मैंने देखा कि आस्था को लेकर मेरा नजरिया कितना बेतुका, अज्ञानी और मूर्खतापूर्ण था। मुझे याद आया कि मैं बचपन से ही सभाओं में यह सुना करता था, "परमेश्वर तुम्हें महान आशीषें देगा! अगर तुम एक विश्वासी हो तो परमेश्वर तुम्हें आशीष देगा। प्रार्थना करो और परमेश्वर से मांगो, वह जरूर उन्हें पूरा करेगा।" ये बातें मैं अपने आसपास की धार्मिक दुनिया, अपने माता-पिता और लोगों से सुना करता था, मुझ पर इनका बहुत असर था, मुझे लगने लगा था कि परमेश्वर की आशीषें पाने के लिए ही विश्वास करना है, फिर मैं सांसारिक दुखों से मुक्त हो जाऊंगा। पहले मुझे नहीं लगा था कि आस्था में आशीष की इच्छा रखना गलत था, मुझे यह एक शैतानी स्वभाव बिल्कुल नहीं लगता था। लोगों की भ्रष्टता उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़ने से पहले मैं इसे समझता नहीं था। मैंने खुद से पूछा, क्या आस्था सिर्फ सांसारिक आशीष पाने के लिए है? क्या जिनके पास धन और सांसारिक सुख-सुविधाएं हैं, वे परमेश्वर को पसंद हैं? अगर ऐसा है, तो प्रभु यीशु ने यूहन्ना 6:27 में क्यों कहा, "नाशवान् भोजन के लिये परिश्रम न करो, परन्तु उस भोजन के लिये जो अनन्त जीवन तक ठहरता है, जिसे मनुष्य का पुत्र तुम्हें देगा; क्योंकि पिता अर्थात् परमेश्‍वर ने उसी पर छाप लगाई है"? उसने यह भी कहा, "अपने लिये पृथ्वी पर धन इकट्ठा न करो, जहाँ कीड़ा और काई बिगाड़ते हैं, और जहाँ चोर सेंध लगाते और चुराते हैं। परन्तु अपने लिये स्वर्ग में धन इकट्ठा करो, जहाँ न तो कीड़ा और न काई बिगाड़ते हैं, और जहाँ चोर न सेंध लगाते और न चुराते हैं। क्योंकि जहाँ तेरा धन है वहाँ तेरा मन भी लगा रहेगा" (मत्ती 6:19-21)। तब मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर से हमेशा सांसारिक आशीष मांगना मनुष्य की बड़बोली इच्छा है—यह भ्रष्टता है, परमेश्वर को नापसंद है। इसका कारण यह है कि शैतान मनुष्य को गुमराह करता है, हमें परमेश्वर की पहचान जानने नहीं देता, हमें यह जानने से रोकता है कि परमेश्वर हमारी नियति का शासक है, इसलिए हम सृष्टिकर्ता को समर्पित नहीं हो पाते। सब कुछ ठीक हो, तो हम परमेश्वर का धन्यवाद देते, उसकी तारीफ करते हैं, पर जिंदगी में मुश्किल आने पर, जब परमेश्वर हमारी मांगों को संतुष्ट नहीं करता, तो हम उसे गलत समझते हैं और दोष देते हैं। इससे मुझे अब्राहम की याद आती है। वह परमेश्वर से आने वाली हर चीज के लिए तैयार था, अच्छी या बुरी, उसका अपना कोई निजी चयन नहीं था। जब परमेश्वर ने उसे अपने बेटे की बलि देने के लिए कहा, तो अब्राहम यह भी करने को तैयार हो गया। यह उसके लिए तकलीफदेह था, पर उसने परमेश्वर से यह नहीं पूछा, "तुम मुझे ऐसा करने के लिए क्यों कह रहे हो? तुम मेरे साथ ऐसा बर्ताव कैसे कर सकते हो?" अब्राहम का विश्वास था कि परमेश्वर चाहे कुछ भी मांगे, उसे इसका पालन करना था। वह जानता था कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और वह एक सृजित प्राणी। इसलिए उसे बिना शर्त समर्पण करना चाहिए, परमेश्वर के हर आदेश या मांग को स्वीकारना चाहिए। अब्राहम की आस्था को परमेश्वर की स्वीकृत मिली। पर आज के लोग अब्राहम से बिल्कुल अलग हैं। हम हमेशा सांसारिक आशीषों के बारे में सोचते हैं और परमेश्वर की इच्छा को अनदेखा करते हैं। प्रभु यीशु ने हमें समझाया था, "इसलिये पहले तुम परमेश्‍वर के राज्य और उसके धर्म की खोज करो तो ये सब वस्तुएँ भी तुम्हें मिल जाएँगी" (मत्ती 6:33)। हमें सांसारिक आशीषों की कामना नहीं करनी चाहिए, बल्कि हमें परमेश्वर की इच्छा का पालन, सत्य का अनुसरण और कर्तव्य अच्छी तरह निभाने की कामना करनी चाहिए। यही सबसे महत्वपूर्ण है। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। वह हमारे विचारों को सबसे अच्छी तरह समझता है, हमारी जरूरतें भी समझता है। पर शैतान द्वारा भ्रष्टता के कारण, मानवजाति के विचारों पर लोभ और सांसारिक आशीष हावी हो गए हैं, इसलिए हम परमेश्वर के आज्ञापालन और उसे संतुष्ट करने के लिए विश्वास नहीं करते, बल्कि आशीष पाने और अपनी इच्छाएँ पूरी करने के लिए करते हैं। जैसकि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन हैं, "सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह पुरस्कार पाने के लिए होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य निभाते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं दुःख का भी सामना कर सकते हैं : मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सच्चाई उजागर कर दी। मैंने अपनी अज्ञानता और स्वार्थ को देखा, जाना कि जब मैं किसी अप्रिय स्थिति का सामना करता हूँ, तो मुझे कैसे प्रार्थना करके खुद को परमेश्वर को समर्पित करना चाहिए, सिर्फ अनुग्रह और आशीषों के पीछे नहीं भागना चाहिए। पर जल्दी ही यही समस्या फिर से आ गई। क्योंकि मैंने अपने अंकल की कंपनी में सिर्फ एक हफ्ते काम करके छोड़ दिया था, घर पर ही रहकर अपना कर्तव्य निभा रहा था, मेरे पैसे जल्दी ही खत्म हो गए। मुझे नहीं पता था मेरा अगली बार खाना कहाँ से आएगा या मैं कैसे काम ढूँढने निकलूँ, क्योंकि मेरे पास नौकरी के लिए कोई डिग्री या योग्यता नहीं थी। मेरे पास अपने मोबाइल प्लान के लिए और डाटा खरीदने के भी पैसे नहीं थे। सभाओं में शामिल होने और कर्तव्य निभाने के लिए इंटरनेट की जरूरत थी। मैं फिर से पस्त महसूस करने लगा, मुझे उम्मीद की कोई किरण नहीं दिख रही थी। तभी मेरी माँ ने मुझसे कहा कि महामारी की वजह से उनके पास गुजर-बसर के लिए कुछ नहीं है, उन्हें मुझसे कुछ पाने की उम्मीद थी। यह जानकर कि मेरी माँ की भी हालत वही थी, मुझे बहुत लाचारी और तकलीफ हुई। समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ। लगता था कि मैं दूसरों से कहीं ज्यादा तकलीफ में हूँ। कि मेरी जिंदगी सचमुच बहुत दुष्कर थी। मुझे परमेश्वर की इच्छा समझ नहीं आ रही थी। सोचता कि सारा दिन कर्तव्य में व्यस्त रहता हूँ, इसलिए परमेश्वर को मेरा ध्यान रखना चाहिए, फिर मेरी हालत और खराब क्यों हो रही थी?

उस दौरान, मैंने परमेश्वर के बहुत-से वचन पढ़े, उसकी प्रशंसा के कई भजन भी सुने। परमेश्वर के वचनों के दो अंशों ने उसकी इच्छा समझने में मेरी मदद की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर में अपने विश्वास में लोग, भविष्य के लिए आशीर्वाद पाने की खोज करते हैं; यह उनकी आस्‍था में उनका लक्ष्‍य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन, उनकी प्रकृति के भीतर के भ्रष्टाचार का हल परीक्षण के माध्यम से किया जाना चाहिए। जिन-जिन पहलुओं में तुम शुद्ध नहीं किए गए हो और भ्रष्टता दिखाते हो, इन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाता है, परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपने खुद के भ्रष्टाचार को जान जाओ। अंततः तुम उस बिंदु पर पहुंच जाते हो जहां तुम मर जाना और अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ देना और परमेश्वर की सार्वभौमिकता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करना अधिक पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों को कई वर्षों का शुद्धिकरण नहीं मिलता है, अगर वे एक हद तक पीड़ा नहीं सहते हैं, तो वे, अपनी सोच और हृदय में देह के भ्रष्टाचार के बंधन से बचने में सक्षम नहीं होंगे। जिन भी पहलुओं में लोग अभी भी शैतान के बंधन के अधीन हैं, जिन भी पहलुओं में वे अभी भी अपनी इच्छाएं रखते हो, जिनमें उनकी अपनी मांगें हैं, यही वे पहलू हैं जिनमें उन्हें कष्ट उठाना होगा। केवल दुख से ही सबक सीखा जा सकता है, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे को समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्यों को कष्टदायक परीक्षणों के अनुभव से समझा जाता है। कोई भी व्यक्ति एक आरामदायक और सहज परिवेश में या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। "लोग मन में हमेशा परमेश्वर से फिजूल माँगें करते हैं। वे हमेशा सोचते रहते हैं, 'हमने अपने परिवार छोड़ दिए हैं और कर्तव्य निभा रहे हैं, इसलिए परमेश्वर को हमें आशीष देना चाहिए; परमेश्वर जैसा चाहता है, हम करते हैं, इसलिए परमेश्वर को हमें पुरस्कार देना चाहिए।' परमेश्वर में विश्वास करते हुए बहुत-से लोगों के दिलों में ऐसी चीजें रहती हैं। ... लोग इतने नासमझ हैं। वे सत्य का अभ्यास नहीं करते, फिर भी परमेश्वर को दोष देते हैं। वे वह नहीं करते, जो उन्हें करना चाहिए। लोगों को सत्य का अनुसरण करने का मार्ग चुनना चाहिए, लेकिन वे सत्य से चिढ़ते हैं और दैहिक सुखों के लिए तरसते हैं। वे हमेशा आशीषों और अनुग्रह के आनंद की खोज में रहते हैं, और हमेशा शिकायत करते हैं कि मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत बड़ी हैं। वे हमेशा इस कोशिश में लगे रहते हैं कि परमेश्वर उनके साथ दयालुतापूर्ण व्यवहार करे, उन्हें और ज्यादा अनुग्रह प्रदान करे, और उन्हें दैहिक सुखों का आनंद लेने दे। क्या वे वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करने वाले लोग हैं? ... लोग ये बातें इसलिए कहते हैं, क्योंकि उनमें न तो जरा भी समझदारी है, न आस्था। वे सभी परमेश्वर के प्रति मनुष्य के असंतोष से उपजी हैं, क्योंकि उनकी फिजूल माँगें पूरी नहीं की गई हैं; वे सभी मनुष्य के हृदय से निकलने वाली चीजें हैं, और वे पूरी तरह से मनुष्य की प्रकृति की द्योतक हैं। ये चीजें मनुष्य के भीतर हैं, और अगर वे उन्हें दूर नहीं करते, तो वे उन्हें किसी भी समय या स्थान पर परमेश्वर को दोष देने और उसे गलत समझने के लिए प्रेरित कर सकती हैं। मनुष्य परमेश्वर की निंदा भी कर सकता है, और वे कहीं भी, किसी भी समय सच्चे मार्ग से भटक सकते हैं। ऐसा होना स्वाभाविक है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने कुछ सीखा। मैं रोज अपने कर्तव्य पर इतना ध्यान देता था कि मुझे अपने परिवार की सुध नहीं थी, लगता था कि इस तरह खपने से परमेश्वर मुझे इनाम देगा, आशीष देगा। मुझे परमेश्वर से कोई बड़ा इनाम नहीं चाहिए था, सिर्फ गुजर-बसर के लिए एक नौकरी चाहिए थी, नौकरी मिलने के बाद मैं कर्तव्य भी अच्छी तरह निभा पाता। मुझे यह एक उचित अनुरोध लगा, इसमें कुछ भी ज्यादा नहीं था। पर परमेश्वर के वचनों पर मनन के बाद मैंने देखा कि ऐसी उच्छृंखल इच्छाओं और चाहतों का मतलब था उसके आगे समर्पण न करना। मैं चाहता था कि परमेश्वर मेरे लिए यह करे, वह करे। उसके वचनों ने मुझे यह भी दिखाया कि अगर कोई परमेश्वर से हमेशा अनुचित मांग करता है, तो उसके लिए सत्य का अभ्यास करना मुश्किल होता है, ऐसे लोगों की मांगें पूरी न होने पर उनके परमेश्वर को धोखा देने और त्यागने की संभावना रहती है। तब समझ आया कि मैं जिन मुश्किलों का सामना कर रहा था वे ऊपर से देखने पर बहुत कष्टदायक और दयनीय लगती थीं, पर असल में, कष्ट मुझे मजबूत बना रहा था। मुझे लगता था मैं नहीं झेल सकता, पर परमेश्वर ने मुझे त्यागा नहीं। यह सब इसलिए हुआ कि मैं अपने गलत मकसद और आस्था में मिलावट को देखूँ, उन्हें सही दिशा में मोड़ूँ, जिसकी परमेश्वर को लोगों से उम्मीद है। मैं सोचे बिना नहीं रह सका, क्या मैं एक अच्छी नौकरी नहीं चाहता, जिसमें मैं ज्यादा पैसे कमा सकूँ? क्या मैं ज्यादा मोबाइल डाटा और अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करना नहीं चाहता? क्या मैं अपना कर्तव्य बिना रुकावट, बिना किसी मुसीबत के नहीं निभाना चाहता? हाँ, मैं चाहता हूँ। क्योंकि मैं ये चीजें पाने की उम्मीद करता हूँ, परमेश्वर मेरे लिए इनकी व्यवस्था क्यों नहीं करता? क्या मैं इतना बदनसीब, इतना अभागा हूँ? बिल्कुल नहीं—मैं बेहद खुशनसीब हूँ। यह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम था। परमेश्वर ने मेरे लिए यह स्थिति बनाई थी, ताकि मैं सत्य खोजूं, सबक सीखूँ, अपनी आस्था में मिलावट को साफ कर सकूँ। अगर मैं एक अच्छे, आरामदायक माहौल में आस्था का अभ्यास करूँ, विपरीत और प्रतिकूल स्थितियों का सामना न करूँ, तो परमेश्वर के प्रति मेरी आस्था और प्रेम में मकसद, इच्छाएँ और मिलावट होगी, जिसे परमेश्वर स्वीकार नहीं करेगा। परमेश्वर उम्मीद करता है कि लोग हर परिस्थिति में उसके प्रति ईमानदार रहें, उसके प्रति समर्पित और आज्ञाकारी रहें। यह वैसा ही जैसे, अगर बच्चे अपने पिता को सिर्फ तब प्रेम करें जब वह उन्हें एक सुविधासंपन्न जीवन दे, अन्यथा उससे नफरत करें और कहें, "अगर आप मुझे वह सब नहीं देंगे जो मैं चाहता हूँ, तो मैं आपकी इज्जत नहीं करूंगा, आपको अपना पिता नहीं मानूँगा।" तो यह किस तरह का बच्चा है? संतानोचित काम न करने वाला, जिसमें जमीर और समझ नहीं है। परमेश्वर का धन्यवाद! मैं भी ऐसी ही स्थिति का सामना कर रहा था। आस्था में अशुद्धताओं को साफ करने के लिए मुझे ऐसे अनुभवों की जरूरत थी।

मैंने परमेश्वर के वचनों में यह भी पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "आज परमेश्वर में वास्तविक विश्वास क्या है? यह परमेश्वर के वचन को अपने जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना, और परमेश्वर का सच्चा प्यार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचन से परमेश्वर को जानना है। स्पष्ट कहूँ तो : परमेश्वर में विश्वास इसलिए है, ताकि तुम परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सको, उससे प्रेम कर सको, और वह कर्तव्य निभा सको, जिसे परमेश्वर के एक प्राणी द्वारा निभाया जाना चाहिए। यही परमेश्वर पर विश्वास करने का लक्ष्य है। तुम्हें परमेश्वर की मनोहरता का और इस बात का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि परमेश्वर आदर के कितने योग्य है, कैसे अपने द्वारा सृजित प्राणियों में परमेश्वर उद्धार का कार्य करता है और उन्हें पूर्ण बनाता है—ये परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास की एकदम अनिवार्य चीज़ें हैं। परमेश्वर पर विश्वास मुख्यतः देह-उन्मुख जीवन से परमेश्वर से प्रेम करने वाले जीवन में बदलना है; भ्रष्टता के भीतर जीने से परमेश्वर के वचनों के जीवन के भीतर जीना है; यह शैतान के अधिकार-क्षेत्र से बाहर आना और परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में जीना है; यह देह की आज्ञाकारिता को नहीं, बल्कि परमेश्वर की आज्ञाकारिता को प्राप्त करने में समर्थ होना है; यह परमेश्वर को तुम्हारा संपूर्ण हृदय प्राप्त करने और तुम्हें पूर्ण बनाने देना है, और तुम्हें भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से मुक्त करने देना है। परमेश्वर में विश्वास मुख्यतः इसलिए है, ताकि परमेश्वर का सामर्थ्य और महिमा तुममें प्रकट हो सके, ताकि तुम परमेश्वर की इच्छा पर चल सको, और परमेश्वर की योजना संपन्न कर सको, और शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दे सको। परमेश्वर पर विश्वास संकेत और चमत्कार देखने की इच्छा के इर्द-गिर्द नहीं घूमना चाहिए, न ही यह तुम्हारी व्यक्तिगत देह के वास्ते होना चाहिए। यह परमेश्वर को जानने की कोशिश के लिए, और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने, और पतरस के समान मृत्यु तक परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम होने के लिए, होना चाहिए। यही परमेश्वर में विश्वास करने के मुख्य उद्देश्य हैं। व्यक्ति परमेश्वर के वचन को परमेश्वर को जानने और उसे संतुष्ट करने के उद्देश्य से खाता और पीता है। परमेश्वर के वचन को खाना और पीना तुम्हें परमेश्वर का और अधिक ज्ञान देता है, जिसके बाद ही तुम उसका आज्ञा-पालन कर सकते हो। केवल परमेश्वर के ज्ञान के साथ ही तुम उससे प्रेम कर सकते हो, और यह वह लक्ष्य है, जिसे मनुष्य को परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में रखना चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के वचन के द्वारा सब-कुछ प्राप्त हो जाता है)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर में आस्था रखने के फौरन बाद इसे पढ़ा था, पर तब मैं इसे समझ नहीं पाया था। इस मुश्किल वक्त से गुजरने के बाद ही मुझे परमेश्वर की इच्छा की थोड़ी समझ आई थी, सच्ची आस्था वैसी नहीं होती जैसी मैं समझता था, कि अगर मैंने खुद को परमेश्वर के लिए खपाया, तो वह मुझ पर नजर रखेगा, मेरी रक्षा करेगा, मेरी जरूरतें पूरी करेगा। आस्था का यह दृष्टिकोण सही नहीं है। आस्था में परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना चाहिए और सभी बातों में उसे संतुष्ट करना चाहिए। परमेश्वर कुछ दे या छीन ले, हमें उसके आगे समर्पण करना चाहिए, ईमानदारी से खुद को सौंपना चाहिए। अगर लोग सिर्फ परमेश्वर के वचनों से उसे जानना चाहते हैं, उसके नियमों और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करते हैं, तो परमेश्वर इस तरह की आस्था को पसंद करता है। जो कोई भी परमेश्वर से असीम प्रेम और पतरस की तरह मरते दम तक उसका आज्ञापालन कर सकता है, परमेश्वर उसे पूर्ण बनाता है। शुक्र है कि इस हालात के जरिए परमेश्वर ने मुझे आस्था के सही नजरिए को समझने के लिए प्रबुद्ध किया, जिससे मेरे दिल को बहुत शांति और सकून मिला। मैंने परमेश्वर से समर्पण की प्रार्थना की, इस मुश्किल वक्त को झेलने के लिए शक्ति देने की विनती की।

मुझे हैरानी हुई, जब अगले दिन, मेरे अंकल ने मुझे थोड़े पैसे भेजे, जिससे मैं अपनी जरूरतें पूरी कर सकूँ। आगे का रास्ता दिखाने के लिए मैंने दिल से परमेश्वर का धन्यवाद किया।

और तो और मुझे एक पार्टटाइम काम मिल गया। यह आसान काम नहीं था, पर मैं अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने लायक कमा सकता था। जानता था कि परमेश्वर ने यह व्यवस्था की थी। मैंने सचमुच ही अनुभव किया था कि परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकारना और समर्पण करना एक बुनियादी सबक है, जिसे हमें असली जिंदगी से सीखना चाहिए, इससे हम अपने अनुभवों से परमेश्वर के सर्वशक्तिमान शासन और रहस्यमय तरीके जान सकते हैं। जिंदगी के सभी मसलों के प्रति यही रवैया अपनाना चाहिए। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आता है। "जीवन की वास्तविक समस्याओं का सामना करते समय, तुम्हें किस प्रकार परमेश्वर के अधिकार और उसकी संप्रभुता को जानना और समझना चाहिए? जब तुम्हारे सामने ये समस्याएँ आती हैं और तुम्हें पता नहीं होता कि किस प्रकार इन समस्याओं को समझें, सँभालें और अनुभव करें, तो तुम्हें समर्पण करने की नीयत, समर्पण करने की तुम्हारी इच्छा, और परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने की तुम्हारी सच्चाई को दर्शाने के लिए तुम्हें किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? पहले तुम्हें प्रतीक्षा करना सीखना होगा; फिर तुम्हें खोजना सीखना होगा; फिर तुम्हें समर्पण करना सीखना होगा। 'प्रतीक्षा' का अर्थ है परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करना, उन लोगों, घटनाओं एवं चीज़ों की प्रतीक्षा करना जो उसने तुम्हारे लिए व्यवस्थित की हैं, और उसकी इच्छा स्वयं को धीरे-धीरे तुम्हारे सामने प्रकट करे, इसकी प्रतीक्षा करना। 'खोजने' का अर्थ है परमेश्वर द्वारा निर्धारित लोगों, घटनाओं और चीज़ों के माध्यम से, तुम्हारे लिए परमेश्वर के जो विचारशील इरादें हैं उनका अवलोकन करना और उन्हें समझना, उनके माध्यम से सत्य को समझना, जो मनुष्यों को अवश्य पूरा करना चाहिए, उसे समझना और उन सच्चे मार्गों को समझना जिनका उन्हें पालन अवश्य करना चाहिए, यह समझना कि परमेश्वर मनुष्यों में किन परिणामों को प्राप्त करने का अभिप्राय रखता है और उनमें किन उपलब्धियों को पाना चाहता है। निस्सन्देह, 'समर्पण करने', का अर्थ उन लोगों, घटनाओं, और चीज़ों को स्वीकार करना है जो परमेश्वर ने आयोजित की हैं, उसकी संप्रभुता को स्वीकार करना और उसके माध्यम से यह जान लेना है कि किस प्रकार सृजनकर्ता मनुष्य के भाग्य पर नियंत्रण करता है, वह किस प्रकार अपना जीवन मनुष्य को प्रदान करता है, वह किस प्रकार मनुष्यों के भीतर सत्य गढ़ता है। परमेश्वर की व्यवस्थाओं और संप्रभुता के अधीन सभी चीज़ें प्राकृतिक नियमों का पालन करती हैं, और यदि तुम परमेश्वर को अपने लिए सभी चीज़ों की व्यवस्था करने और उन पर नियंत्रण करने देने का संकल्प करते हो, तो तुम्हें प्रतीक्षा करना सीखना चाहिए, तुम्हें खोज करना सीखना चाहिए, और तुम्हें समर्पण करना सीखना चाहिए। हर उस व्यक्ति को जो परमेश्वर में अधिकार के प्रति समर्पण करना चाहता है, यह दृष्टिकोण अवश्य अपनाना चाहिए, और हर वह व्यक्ति जो परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं को स्वीकार करना चाहता है, उसे यह मूलभूत गुण अवश्य रखना चाहिए। इस प्रकार का दृष्टिकोण रखने के लिए, इस प्रकार की योग्यता धारण करने के लिए, तुम लोगों को और अधिक कठिन परिश्रम करना होगा; और सच्ची वास्तविकता में प्रवेश करने का तुम्हारे लिए यही एकमात्र तरीका है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। मैंने वचनों का यह अंश पहले भी पढ़ा था, पर मुश्किल वक्त से गुजरने के बाद इसे पढ़ना अलग ही अनुभव था। परमेश्वर के वचनों से मैं यह देख पाया कि परमेश्वर की इच्छा को जानना, प्रतीक्षा और समर्पण करना किसी समस्या का सामना होने पर हमारा पहला प्रयास होना चाहिए। पर यह निष्क्रिय प्रतीक्षा नहीं है। इसमें प्रार्थना, परमेश्वर के वचन पढ़ना, परमेश्वर की इच्छा जानना, और आत्मचिंतन शामिल है। इस तरह तुम अपनी असली अवस्था के बारे में जान सकते हो, समझ सकते हो कि किसमें प्रवेश करना है। इस तरह की खोज और अनुभव से, हम परमेश्वर के सर्वशक्तिमान शासन और उसके वास्तविक कर्मों को देख सकते हैं।

पहले मैं सिर्फ एक महीने के लिए पार्टटाइम करना चाहता था, ताकि कुछ गुजारे लायक हाथ में आ जाए, और अपना बाकी समय अपने कर्तव्य के लिए इस्तेमाल करूँ। पर मेरे सेलफोन में कुछ समस्या आ गई। एक महीना और काम करके मैं दूसरा सेलफोन और एक लैपटॉप खरीद सकता था। पर मैं कलीसिया अगुआ था, इसलिए कलीसिया का बहुत-सा काम सँभालना पड़ता था। मेरे लिए अपना कर्तव्य निभाना सबसे महत्वपूर्ण था—यह मेरी प्राथमिकता थी। इसलिए मैंने नौकरी छोड़ने का फैसला किया। बड़ी अगुआ को मेरी स्थिति का पता चला तो उसने मुझसे कहा, अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने में मदद करने के लिए कलीसिया लैपटॉप और इंटरनेट बैंडविड्थ खरीदने में मेरी मदद करेगा। यह सुनकर मैं खुशी से झूम उठा—मैं इतना खुश था कि बता नहीं सकता। मैं जानता था यह पूरी तरह से परमेश्वर का अनुग्रह था, उसने मेरे लिए एक रास्ता खोला, ताकि मैं अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभा सकूँ। मैंने यह भी देखा कि परमेश्वर मेरे लिए बिल्कुल भी मुश्किलें खड़ी नहीं कर रहा था। वह चाहता था मैं सच्चा और आज्ञाकारी बनूँ। मैंने मुश्किल वक्त में परमेश्वर के प्रेम को खुद महसूस किया। पहले मैं मनुष्य के लिए परमेश्वर के प्रेम की बड़ी अस्पष्ट-सी कल्पना करता था जो हकीकत से मेल नहीं खाती थी। असली जिंदगी की स्थितियों के जरिए ये सबक सीखने के बाद ही, मैंने इसे सचमुच समझा। इन परिस्थितियों से मैंने अपनी अज्ञानता और स्वार्थ को देखा। इससे धीरे-धीरे आस्था के गलत नजरिए को बदलने की राह मिली, जिससे मैं सही रास्ते पर जा सका। सच में यह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम था। मेरी समझ में यह भी आया कि मुश्किल वक्त में सही रवैया क्या होता है, और परमेश्वर से कैसे जुड़ना चाहिए। पहले मैं हमेशा सोचता था कि अगर मुझमें आस्था है, तो परमेश्वर मुझे सब कुछ देता रहेगा। अब मैं जानता हूँ कि आस्था में, हमें परमेश्वर से हमेशा मांगना नहीं चाहिए, बल्कि समर्पण करना चाहिए, उसकी इच्छा का ध्यान रखना चाहिए।

कुछ ही दिन में मुझे एक और इम्तिहान का सामना करना पड़ा। एक महीना नौकरी करने के बाद, जिस दिन मुझे तनख़्वाह मिली अचानक ही गली में कुछ बदमाशों ने मुझे लूट लिया। वे मेरी आधी तनख्वाह ले भागे। पर शुक्र है परमेश्वर की सुरक्षा का, चाकू-छुरे होने के बावजूद उन्होंने वार नहीं किया। मुझे फौरन ही लगा कि परमेश्वर ने अच्छे इरादे से ऐसा होने दिया था, मुझे याद आया कि अय्यूब कितना अमीर था, पर जब उसकी सारी संपत्ति ले ली गई, सब बच्चे मारे गए, तो उसने बेशर्त समर्पण किया, शिकायत नहीं की, परमेश्वर का गुणगान करता रहा। मैं अमीर नहीं था—मैं एक मामूली इंसान था। थोड़े-से पैसे चोरी हो गए थे, हालांकि मुझे उनकी जरूरत थी, उन पैसों का क्या करूंगा सब सोच रखा था, पर मैं आस्था और आज्ञाकारिता में अय्यूब का अनुसरण करने को तैयार था। मैंने प्रार्थना की, "परमेश्वर, तुम अथाह हो। मैं पूरी तरह नहीं समझ पा रहा कि क्या हुआ है, पर मेरा विश्वास है इसमें तुम्हारी इच्छा छिपी है। मैं तुम्हारी व्यवस्थाओं के आगे समर्पण के लिए तैयार हूँ। कृपया मेरे मन को प्रेरित कर राह दिखाओ, ताकि मैं नकारात्मक न हो जाऊँ।" प्रार्थना के बाद मुझे सचमुच शांति मिली, जैसे कुछ हुआ ही न हो। मैं हमेशा की तरह शांत मन से, बिना किसी चिंता या परेशानी के अपना कर्तव्य निभाता रहा। मेरा यह रवैया, परमेश्वर को समझने से पहले के रवैये से बिल्कुल अलग था। क्योंकि मैं जान गया था कि परमेश्वर हमें शुद्ध कर हमें बचाने के लिए इस तरह की व्यवस्थाएँ करता है। इससे परमेश्वर के प्रेम की मेरी समझ और गहरी हो गई। उसके प्रेम की अभिव्यक्ति सिर्फ हमें भौतिक आशीष देना नहीं होती, क्योंकि ये चीजें सिर्फ हमारी दैहिक इच्छाएँ संतुष्ट कर सकती हैं। परमेश्वर का सच्चा प्रेम हमें उसके वचनों के न्याय, परीक्षणों और शोधन के अनुभव से सत्य की सीख देने के लिए हैं, ताकि हम जानें कि हम आस्था क्यों रखें, बुराई से दूर रहें, परमेश्वर को आदर और श्रद्धा से देखें, उससे प्रेम करना और उसे संतुष्ट करना सीख सकें, अंतत: परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करें। इससे मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आ गए। "परमेश्वर के प्रति मनुष्य का प्रेम परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले शोधन और न्याय की नींव पर निर्मित होता है। यदि तुम शांतिमय पारिवारिक जीवन या भौतिक आशीषों के साथ केवल परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हो, तो तुमने परमेश्वर को प्राप्त नहीं किया है, और परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास सफल नहीं माना जा सकता। परमेश्वर ने अनुग्रह के कार्य का एक चरण देह में पहले ही पूरा कर लिया है, और मनुष्य को भौतिक आशीष पहले ही प्रदान कर दिए हैं, परंतु मनुष्य को केवल अनुग्रह, प्रेम और दया से पूर्ण नहीं बनाया जा सकता। अपने अनुभवों में मनुष्य परमेश्वर के कुछ प्रेम का अनुभव करता है, और परमेश्वर के प्रेम और उसकी दया को देखता है, फिर भी कुछ समय तक इसका अनुभव करने के बाद वह देखता है कि परमेश्वर का अनुग्रह, प्रेम और दया मनुष्य को पूर्ण बनाने में असमर्थ हैं, वे मनुष्य के भीतर की भ्रष्टता प्रकट करने में असमर्थ हैं, और वे मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से छुड़ाने या उसके प्रेम और विश्वास को पूर्ण बनाने में असमर्थ हैं। परमेश्वर का अनुग्रह का कार्य एक अवधि का कार्य था, और परमेश्वर को जानने के लिए मनुष्य उसके अनुग्रह का आनंद उठाने पर निर्भर नहीं रह सकता" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। "परमेश्वर द्वारा मनुष्य की पूर्णता किन साधनों से संपन्न होती है? वह उसके धार्मिक स्वभाव द्वारा संपन्न होती है। परमेश्वर के स्वभाव में मुख्यतः धार्मिकता, क्रोध, प्रताप, न्याय और शाप शामिल हैं, और वह मनुष्य को मुख्य रूप से न्याय द्वारा पूर्ण बनाता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। वचन पढ़कर, मैं गहराई से महसूस करता हूँ कि परमेश्वर का अंत के दिनों का न्याय-कार्य सारी मानवजाति को शुद्ध करने के लिए है। हमारी आस्था की अशुद्धियाँ और हमारे भ्रष्ट स्वभाव सिर्फ परमेश्वर के वचनों के न्याय, परीक्षणों और शोधन के माध्यम से स्वच्छ किए जा सकते हैं। इसे सिर्फ उसके अनुग्रह पर निर्भर रहकर हासिल नहीं किया जा सकता। परमेश्वर के वचनों के बिना, और इन मुश्किल अनुभवों के बिना, मैं कभी भी इन बातों को नहीं समझ पाता। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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