मैंने कार्य के निरीक्षण की हिम्मत क्यों नहीं की
दो साल पहले, जब मैंने कलीसिया अगुआ के रूप में काम करना शुरू किया, उस समय मेरे कई साथी मुझसे भी पुराने विश्वासी थे। मुझे लगा वे मुझसे ज्यादा अनुभवी हैं और सत्य की अधिक समझ रखते हैं, तो मैं कलीसिया के काम के बारे में उनसे ज्यादा पूछताछ नहीं करती थी। मुझे डर था कि कहीं वे यह न कहें कि अगुआ बनते ही मैं हर काम में हस्तक्षेप करने लगी हूँ और जानकारी न होने के बावजूद उसमें घुसने की कोशिश कर रही हूँ। सिद्धांत के कुछ मामलों में, मैं अपने ही विचारों और राय पर टिकने की हिम्मत नहीं कर पाई। मुझे डर था कहीं लोग मुझे अहंकारी और अपने बारे में अज्ञानी न कहें, तो काम के मामले में मैं हमेशा पीछे ही रहती।
उस समय, मैंने देखा कि कलीसिया के काम की गति बहुत धीमी हो गई है, भाई-बहन बिना सिद्धांत समझे काम कर रहे थे, और प्रगति में देरी की वजह उनका छोटी-छोटी बातों पर अटकना था। बहन झांग लगभग दो वर्षों से उस कार्य का निरीक्षण कर रही थी, फिर भी वह न तो उस काम को समझ पाई और न ही व्यावहारिक समस्याएँ हल कर पाई। वह एक अगुआ के रूप में सही नहीं थी। बहन ली पर बहन झांग की जिम्मेदारी थी, तो मैंने मामले की सूचना बहन ली को दी और सुझाव दिया कि वह बहन झांग को बर्खास्त कर दे, लेकिन उसने कहा कि बहन झांग को कुछ समय तक काम करने दो, चूँकि उसकी जगह कोई उपयुक्त प्रत्याशी नहीं मिला है, वह चाहती है कि अभी वह अपने पद पर बनी रहे। मैं बहन ली की बात से बिल्कुल सहमत नहीं थी, "बहन झांग लगभग दो वर्षों से अगुआ है, लेकिन उसने किसी भी बुनियादी समस्या का समाधान नहीं किया, जिससे काम की प्रगति प्रभावित हुई है। तुम उसे कैसे बनी रहने दे सकती हो? चूँकि हम जानते हैं कि वह काम के योग्य नहीं है, उसे यहाँ बने नहीं रहने देना चाहिए और किसी काबिल व्यक्ति को तैयार करना चाहिए।" मैं बहन ली को बताना चाहती थी कि हमें सिद्धांतों के अनुसार काम करना है, लेकिन फिर सोचा, "वह पहले ही कह चुकी है कि उसे अभी कोई उपयुक्त प्रत्याशी नहीं मिल रहा है। अगर मैं बहन झांग के तबादले पर जोर देती रही, तो कहीं उसे यह न लगे कि मैं हद से बाहर जाकर उसके काम में दखल दे रही हूँ। मैंने हाल ही में कलीसिया में काम करना शुरू किया है, अगर मैंने बहन ली पर यह प्रभाव छोड़ा, तो क्या हम मिलकर काम कर पाएँगे? जाने दो, मैं इस मामले को छोड़ ही देती हूँ।"
फिर मुझे पता चला कि वीडियो कार्य की निरीक्षक, बहन चेन, व्यावहारिक काम नहीं करती। वह जिस वीडियो प्रोजेक्ट की प्रभारी थी, उसने तीन महीने से मानक-स्तर का कोई वीडियो नहीं बनाया था। उसे न तो अपने समूह के लोगों की स्थिति के बारे में पता था और न ही वीडियो बनाने की समस्याओं और मुश्किलों की जानकारी थी, उन्हें बार-बार अपने वीडियो पर काम करना पड़ रहा था, जिससे प्रगति रुक रही थी। मैंने इस मामले से निपटने के तरीके पर सहकर्मियों के साथ चर्चा की। उन्हें लगता था कि बहन चेन में अच्छी मानवता है और वह काफी समय से वीडियो कार्य की प्रभारी होने के नाते, उस काम से परिचित थी, चूंकि फिलहाल कोई उपयुक्त प्रत्याशी नहीं है, इसलिए उसे प्रभारी बनाए रखा जा सकता है। मैं इस बात से सहमत नहीं थी और सोच रही थी, "तुम उसे सिर्फ इसलिए नहीं रख सकती क्योंकि उसमें बुरी मानवता नहीं है और वह काम की जानकार है। सवाल यह है कि क्या वह व्यावहारिक कार्य करती है और व्यावहारिक समस्याएँ हल करती है। बहन चेन वीडियो कार्य में आने वाली समस्याएँ हल नहीं कर सकती। उसे इस पद पर बनाए रखना ठीक नहीं है। उसे बदल देना चाहिए।" मुझे चिंता है, "बहन लियू की मुख्य जिम्मेदारी वीडियो कार्य है और उन्हें लगता है कि बहन चेन उपयुक्त है, इसलिए मेरी असहमति से उन्हें कहीं यह तो नहीं लगेगा कि मैं कुछ ज्यादा ही नियंत्रण रख रही हूँ? पहले मैं बहन झांग का तबादला करना चाहती थी और अब बहन चेन को बर्खास्त करना चाहती हूँ। सहकर्मी कहीं मुझे अहंकारी न समझ लें, कि जो भी मुझे सही न लगता, मैं उसे पश्चात्ताप का मौका दिए बिना ही हटा देना चाहती हूँ, कि मैं पत्थरदिल हूँ?" शब्द मेरी जबान पर आते-आते रह गए और मैं उन्हें जब्त कर गई।
करीब महीने भर बाद, बहन झांग और बहन चेन दोनों को व्यावहारिक काम न करने के कारण बर्खास्त कर दिया गया। उसी दौरान, वरिष्ठ अगुआओं ने मुझे एक गैर-जिम्मेदार अगुआ माना, क्योंकि मैंने अयोग्य अगुआओं को नहीं बदला था, जिससे कलीसिया के काम में देरी हुई। व्यावहारिक कार्य न करने के कारण वे मेरे साथ कठोरता से निपटे और यह कहते हुए मेरा विश्लेषण किया कि मैं खुशामदी होने के शैतानी फलसफे पर चल रही थी, मैंने सत्य का अभ्यास नहीं किया और कलीसिया के कार्य को कायम नहीं रखा। उन्होंने यह कहकर मुझे बर्खास्त कर दिया कि मैं अगुआ बनने के काबिल नहीं हूँ। अगुआओं द्वारा काट-छाँट और निपटारा मेरे लिए एक गहरा धक्का था। मुझे लगा ही नहीं कि मेरी समस्या इतनी गंभीर है कि बर्खास्त कर दी जाऊं। मुझे बहुत दुख हुआ। लगा जैसे मैंने कर्तव्य-निर्वहन में पीछे सिर्फ पछतावा और परमेश्वर का कर्ज ही छोड़ा है। मुझे सच में खुद से घृणा हो गई। मैं सत्य का अभ्यास कर कलीसिया का कार्य कायम क्यों नहीं रख सकी? मैं शैतानी फलसफे पर ही क्यों चलती रही? मैंने मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की ताकि अपनी समस्याएँ समझ सकूँ।
आध्यात्मिक भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, "वह कैसा स्वभाव होता है, जब लोग अपने कर्तव्य के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, उसे लापरवाह और अनमने ढंग से निभाते हैं, जी-हुजूरी करने वालों जैसे कार्य करते हैं, और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते? यह चालाकी है, यह शैतान का स्वभाव है। इंसान के जीवन-दर्शनों में चालाकी सबसे अधिक उलल्रेखनीय है। लोग सोचते हैं कि अगर वे चालाक न हों, तो वे दूसरों को नाराज करेंगे और खुद की रक्षा करने में असमर्थ होंगे; उन्हें लगता है कि कोई उनसे आहत या नाराज न हो जाए, इसलिए उन्हें पर्याप्त रूप से चालाक होना चाहिए, जिससे वे खुद को सुरक्षित रख सकें, अपनी आजीविका की रक्षा कर सकें, और जन-साधारण के बीच पाँव जमाने के लिए एक सुदृढ़ जगह हासिल कर सकें। सभी अविश्वासी शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हैं। वे सभी जी-हुजूरी करते हैं और किसी को ठेस नहीं पहुँचाते। तुम परमेश्वर के घर आए हो, तुमने परमेश्वर के वचन पढ़े हैं, और परमेश्वर के घर के उपदेश सुने हैं। तो तुम हमेशा जी-हुजूरी क्यों करते हो? जी-हुजूरी करने वाले केवल अपने हितों की रक्षा करते हैं, कलीसिया के हितों की नहीं। जब वे किसी को बुराई करते और कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचाते देखते है, तो इसे अनदेखा कर देते हैं। उन्हें जी-हुजूरी करने वाला बनना पसंद है, और वे किसी को ठेस नहीं पहुँचाते। यह गैर-जिम्मेदाराना है, और ऐसा व्यक्ति बहुत चालाक होता है, भरोसे लायक नहीं होता। अपने घमंड और प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए, और अपनी साख और हैसियत बनाए रखने के लिए कुछ लोग हर कीमत पर दूसरों की मदद और अपने दोस्तों के लिए त्याग करके प्रसन्न होते हैं। लेकिन जब उन्हें परमेश्वर के घर के हितों, सत्य और न्याय की रक्षा करनी होती है, तो वे ऐसे अच्छे इरादे नहीं रखते, वे पूरी तरह से गायब हो गए होते हैं। जब उन्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए, तो वे नहीं करते। यह क्या हो रहा है? अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए वे कोई भी कीमत चुकाएँगे और कुछ भी सहेंगे। लेकिन जब उन्हें वास्तविक कार्य करने, सकारात्मक चीजों की रक्षा करने, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा करने और उन्हें पोषण प्रदान करने की आवश्यकता होती है, तो उनमें कोई भी कीमत चुकाने और कुछ भी सहने की ताकत क्यों नहीं रहती? यह अकल्पनीय है। असल में, उनका स्वभाव सत्य से चिढ़ने वाला होता है। मैं क्यों कहता हूँ कि उनका स्वभाव सत्य से चिढ़ने वाला होता है? क्योंकि जब भी किसी चीज में परमेश्वर के लिए गवाही देना, सत्य का अभ्यास करना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा करना, शैतान के धोखे से लड़ना, या सकारात्मक चीजों की रक्षा करना शामिल होता है, तो वे भागकर छिप जाते हैं, और जो उचित होता है, वह नहीं करते" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है)। "जब तुम लोग कोई समस्या देखते हो, उसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते, उसके बारे में संगति नहीं करते, उसे सीमित करने की कोशिश नहीं करते और इसके अलावा, तुम उसे अपने वरिष्ठों को रिपोर्ट नहीं करते, बल्कि 'नेक व्यक्ति' होने का नाटक करते हो, तो क्या यह विश्वासघात की निशानी है? क्या नेक लोग परमेश्वर के प्रति वफादार होते हैं? बिल्कुल नहीं होते। ऐसा व्यक्ति न केवल परमेश्वर के प्रति विश्वासघाती होता है, बल्कि वह शैतान का सहयोगी, उसका अनुचर और अनुयायी होता है। वे अपने कर्तव्य और जिम्मेदारी में निष्ठावान नहीं होते, बल्कि शैतान के प्रति वफादार होते हैं। समस्या का सार इसी में निहित है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचन खुलासा करते हैं कि धूर्त लोग अपने हितों की रक्षा के लिए सब-कुछ करते हैं। अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए, वे जब लोगों से मिलते-जुलते हैं, तो सांसारिक फलसफे पर ही चलते हैं और किसी को नाराज नहीं करते। अगर उन्हें कलीसिया के कार्य को सुरक्षित रखने के लिए सत्य का अभ्यास करना पड़े, तो वे पीछे हट जाते हैं। मैं भी वैसी ही धूर्त इंसान थी। अगुआ बनने के बाद, मैंने ऐसे सहकर्मी देखे जो परमेश्वर के पुराने विश्वासी और कार्य में मुझसे अधिक अनुभवी थे, तो लगा कि मुझे आत्म-ज्ञान होना चाहिए। अगर मेरी जिम्मेदारी का काम न हो, तो मैं उसकी चिंता या उसके बारे में पूछताछ न करती, ताकि उन्हें यह न लगे कि मैं टाँग अड़ाती हूँ और जिससे मेरी छवि खराब हो। सहकर्मियों से अच्छे संबंध बनाए रखने और उनके बीच एक मजबूत पैठ बनाए रखने के लिए, मैं धूर्त और कपटी बन गई और खुशामदी लोगों की तरह पेश आने लगी। कलीसिया में नकली अगुआओं को देखकर भी, मैंने उन्हें समय रहते बर्खास्त नहीं किया। मैंने कभी उनसे ज्यादा पूछताछ नहीं की, जबकि वह मेरी जिम्मेदारी के दायरे में था। मुझे डर था कि ज्यादा पूछताछ से कहीं लोगों को यह न लगे कि मैं अपने दायरे से बाहर जा रही हूँ। मेरा फलसफा था, "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है," "जब पता हो कि कुछ गड़बड़ है, तो चुप रहना ही बेहतर है," "चुप्पी सोना है और जो ज्यादा बोलता है, वह ज्यादा गलतियाँ करता है।" "खुद को बचाओ, केवल आरोप से बचने का रास्ता सोचो," और ऐसे अन्य शैतानी फलसफे थे। मैंने हर मामले में लोगों से अच्छे संबंध और सहकर्मियों की नजर में अच्छी छवि बनाए रखती। मैं उन्हीं का अनुसरण करती और उन्हीं के विचारों पर चलती, यह चिंता न करती कि कहीं कलीसिया के काम को तो नुकसान नहीं हो रहा। मुझे समस्याएं तो दिखतीं, लेकिन उन्हें उजागर न करती। मुझे सत्य का अभ्यास करना चाहिए था, लेकिन मैंने अपनी रक्षा की और भीड़ के पीछे चली। मैं धूर्त और धोखेबाज तो थी ही, मुझे सत्य से ऊब भी होती थी। मुझे लगता, लोगों की गलतियों पर चुप रहना ही बुद्धिमानी है। इस तरह, मैं सहकर्मियों के साथ अच्छे संबंध बनाए रख सकती हूँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर एक मजबूत पकड़ बना सकती हूँ। मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरा खुलासा हो जाएगा और इतनी जल्दी बर्खास्त कर दिया जाएगा। मैंने अयोग्य अगुआओं को देखा, मगर सिद्धांतों को कायम रखने के लिए उन्हें समय पर बर्खास्त करने की हिम्मत नहीं की। बल्कि मैंने उन्हें कलीसिया के काम में देरी करने और नुकसान पहुंचाने दिया। मैं नकली अगुआओं को बचा रही थी, सार रूप में में, मैं शैतान की अनुचर बनकर कार्य कर रही थी। मैं दुष्टता कर परमेश्वर का विरोध कर रही थी। यह सोचकर मुझे बहुत पछतावा हुआ। अगर मैंने सिद्धांतों को कायम रखते हुए दोनों नकली अगुआओं को पहले ही बर्खास्त कर दिया होता, तो इतने लंबे समय तक कलीसिया के काम में विलंब न होता।
मैंने आत्मचिंतन भी किया। मुझे हमेशा ऐसा क्यों लगा कि अपनी राय अधिक व्यक्त करने का मतलब मेरा काम में अधिक घुसना है? कर्तव्य क्या है, इस पर परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे लगा यह नजरिया तो एकदम बेतुका है। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "कर्तव्य आखिर है क्या? यह परमेश्वर द्वारा लोगों को सौंपा गया कार्य होता है, यह परमेश्वर के घर के कार्य का हिस्सा होता है, यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है जिसे परमेश्वर के चुने हुए प्रत्येक व्यक्ति को वहन करना चाहिए। क्या कर्तव्य एक प्रकार का प्रयास होता है? क्या यह व्यक्तिगत पारिवारिक मामला होता है? क्या यह कहना उचित है कि जब तुम्हें कोई कर्तव्य दे दिया जाता है, तो वह कर्तव्य तुम्हारा व्यक्तिगत व्यवसाय बन जाता है? ऐसा बिल्कुल नहीं है। तो तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? परमेश्वर की अपेक्षाओं, वचनों और मानकों के अनुसार कार्य करके, अपने व्यवहार को मानवीय व्यक्तिपरक इच्छाओं के बजाय सत्य के सिद्धांतों पर आधारित करके। कुछ लोग कहते हैं, 'जब मुझे कोई कर्तव्य दे दिया गया है, तो क्या वह मेरा अपना व्यवसाय नहीं बन गया है? मेरा कर्तव्य मेरा प्रभार है, और जिसका प्रभार मुझे दिया गया है, क्या वह मेरा निजी व्यवसाय नहीं है? यदि मैं अपने कर्तव्य को अपने व्यवसाय की तरह करता हूँ, तो क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं उसे ठीक से करूँगा? अगर मैं उसे अपना व्यवसाय न समझूँ, तो क्या मैं उसे अच्छी तरह से करूँगा?' ये बातें सही हैं या गलत? ये गलत हैं; ये सत्य के विपरीत हैं। कर्तव्य तुम्हारा निजी काम नहीं है, वह परमेश्वर से संबंधित है, यह परमेश्वर के कार्य का हिस्सा है, और तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार ही काम करना चाहिए; केवल परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी हृदय से अपने कर्तव्य का पालन करके ही तुम मानक के अनुरूप हो सकते हो। यदि तुम हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार और अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कर्तव्य का निर्वहन करते हो, तो तुम कभी भी मानक के अनुसार कार्य नहीं कर पाओगे। हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना कर्तव्य-निर्वहन नहीं कहलाता, क्योंकि तुम जो कर रहे हो वह परमेश्वर के प्रबंधन के दायरे में नहीं आता, यह परमेश्वर के घर का कार्य नहीं हुआ; बल्कि तुम अपना कारोबार चला रहे हो, अपने काम कर रहे हो और परमेश्वर इन्हें याद नहीं रखता" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के सिद्धांतों की खोज करके ही व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है)। परमेश्वर के वचन स्पष्ट रूप से कर्तव्य की परिभाषा बताते हैं। कर्तव्य लोगों को परमेश्वर द्वारा सौंपी गई जिम्मेदारी और आदेश होता है। जब हम कोई कर्तव्य स्वीकारते हैं, तो हम एक जिम्मेदारी और दायित्व स्वीकारते हैं। अपने कर्तव्य-निर्वहन के दौरान, हमें परमेश्वर की इच्छा खोजकर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। परमेश्वर की इच्छा के अनुसार अभ्यास करने का यही एकमात्र तरीका है। एक कलीसिया अगुआ के रूप में, कलीसिया के काम के तमाम पहलू, कर्मियों की व्यवस्था या तबादले, कार्य की खोज-खबर लेना, विभिन्न समस्याएँ सुलझाना और अन्य सहकर्मियों के काम की देखरेख करना, ये सारी बातें मेरी जिम्मेदारियों और कार्य के दायरे में आते थे। लेकिन मैंने अपना काम अच्छे से करने को टाँग अड़ाना मान लिया। मुझे लगा कि अपने काम की निगरानी करना और ज्यादा जिम्मेदारी लेना कुछ ज्यादा ही हो जाता है, इससे लोग नाराज होंगे और सहकर्मियों से मेरे संबंध खराब हो जाएँगे। मैंने अपने कर्तव्य-निर्वहन और सत्य के अभ्यास को सकारात्मक चीज नहीं माना। उल्टे यह सोचा कि सत्य का अभ्यास करने से मेरे ही हितों को नुकसान पहुँचेगा। मेरा विचारा एकदम बेतुका था। मैं इस गलत सोच की शिकार हो गई, ठीक से कर्तव्य-पालन नहीं कर पाई और परमेश्वर की इच्छा के बारे में विचार नहीं किया। कलीसिया में नकली अगुआओं को देखकर भी बोलने या बताने की हिम्मत नहीं हुई और अपने काम की खोज-खबर नहीं ले पाई। मैं तो बस सहकर्मियों से संबंध और अपने अगुआ पद को कायम रखने में लगी थी। अपना काम तो कर ही नहीं रही थी! क्योंकि कर्तव्य-पालन में मेरा इरादा ही गलत था, सत्य का अभ्यास करना मुझे अपनी सीमा का उल्लंघन करना लगता था और मैंने इसे व्यावहारिक काम न करने का बहाना बना लिया था। मैं बहुत धूर्त थी!
मुझे यह भी लगा कि जब मैं बहन चेन के निरीक्षक बनने की उपयुक्तता आँक रही थी, तो मैं सोच रही थी कि अगर मैंने उसे बर्खास्त करने का प्रस्ताव रखा, तो सहकर्मी कहीं यह न सोचें कि मैं बहुत अहंकारी हूँ और पश्चात्ताप का मौका दिए बिना ही किसी को भी अनुपयुक्त पाकर हटा देना चाहती हूँ। इस मामले में, मैं शैतानी फलसफे के अनुसार जीकर चलकर, अहंकार और सत्य के सिद्धांतों के पालन के बीच अंतर नहीं कर पाई थी। परमेश्वर के वचनों में मैंने पढ़ा, "जब तुम्हारे पास कोई विचार या राय हो, तब अगर तुम आँख मूँदकर दावा करते हो कि वह सही है और यही किया जाना चाहिए, तो तुम अहंकारी और आत्म-तुष्ट हो रहे हो। अगर तुम्हारे पास कोई विचार या राय है जो तुम्हें सही लगती है, लेकिन तुम्हें अपने आप पर पूरा भरोसा नहीं है, और तुम खोज और संगति से इस बात को सुनिश्चित कर सकते हो, तो यह आत्म-तुष्ट होना नहीं है। कार्यान्वयन से पहले सभी की सहमति और अनुमोदन प्राप्त करना कार्य करने का तर्कसंगत तरीका है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। "अगर तुम सुनिश्चित हो कि तुमने जो पाया है वह एक समस्या है, और उसके बारे में बात करना कार्य के लिए फायदेमंद होगा, फिर भी तुम सिद्धांतों का पालन करने की हिम्मत नहीं करते, तो समस्या क्या है? अगर तुम समझ गए कि कुछ समस्या है, तो तुम सिद्धांतों का पालन करने से क्यों डरते हो? यह एक गंभीर चारित्रिक मुद्दा है, जो यह बताता है कि क्या तुम सत्य से प्रेम करते हो और क्या तुममें धार्मिकता की भावना है। तुम्हें अपनी राय बतानी चाहिए, भले ही तुम न जानते हो कि वह सही है या नहीं। अगर तुम्हारी कोई राय या विचार है, तो तुम्हें उसे कह देना चाहिए और दूसरों को उसका आकलन करने देना चाहिए। ऐसा करने से तुम्हें लाभ होगा और यह समस्या हल करने में मददगार होगा। अगर तुम अपने मन में सोचते हो, 'मैं इसमें नहीं पड़ूँगा। अगर मैंने सही कहा, तो मुझे श्रेय नहीं मिलेगा, और अगर गलत कहा, तो मुझसे निपटा जाएगा। यह इस लायक नहीं है,' तो क्या यह स्वार्थी और नीच होना नहीं है? मनुष्य हमेशा अपने हितों पर विचार करता है और सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ रहता है। लोगों के बारे में यही सबसे कठिन बात है। क्या तुम सभी लोगों के भीतर ऐसे कई जीवन-दर्शन और योजनाएँ नहीं हैं? तुम सभी में शैतान के फलसफों की काफी चीजें हैं, और वे लंबे समय से तुम पर हावी हैं। तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि लोग सत्य समझे बिना वर्षों तक प्रवचन सुनते हैं, और सत्य की वास्तविकता में उनका प्रवेश धीमा है, और उनका आध्यात्मिक कद हमेशा बहुत छोटा रहता है। कारण यह है कि ऐसी भ्रष्ट चीजें उन्हें बाधित और परेशान करती हैं। जब मनुष्य के लिए सत्य का अभ्यास करना जरूरी होता है, तो वह किसके अनुसार जीता है? वह इन भ्रष्ट स्वभावों, धारणाओं, कल्पनाओं, जीवन-दर्शनों और गुणों के अनुसार जीता है। इन चीजों के अनुसार जीते हुए मनुष्य के लिए परमेश्वर के सामने आना बहुत कठिन है, क्योंकि उनका भार बहुत अधिक और जुआ बहुत भारी होता है। मनुष्य का इन चीजों के अनुसार जीना सत्य से बहुत अलग है। ये चीजें तुम्हें सत्य समझने और उसका अभ्यास करने से रोकती हैं। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास निश्चित रूप से नहीं बढ़ेगा, उसके बारे में तुम्हारा ज्ञान बढ़ने की तो बात ही छोड़ दो। यह बहुत ही शोचनीय और भयानक बात है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं?)। परमेश्वर के वचनों से समझ आया कि अगर तुम्हारे पास कोई विचार या नजरिया है, लेकिन तुम सत्य के सिद्धांत नहीं खोजते, उस पर सभी से संगति और चर्चा नहीं करते, आँख मूँदकर अपने विचारों को सही मानते हो और चाहते हो कि लोग भी तुम्हारी बात मानें, तो यह अहंकार है। अगर तुम्हारे विचार गलत हैं, बेतुके हैं और सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं, फिर भी तुम खुद को हमेशा सही मानकर किसी और की राय पर ध्यान नहीं देते, तो यह भी अहंकार है। लेकिन अगर तुम सत्य खोजते और निर्धारित करते हो कि तुम्हारे विचार और कर्म सत्य के अनुरूप हैं और तुम कलीसिया के कार्य की रक्षा कर रहे हो, अगर तुम लोगों से विवश हुए बिना सिद्धांतों को कायम रख सकते हो, तो यह न्याय-भावना और परमेश्वर के प्रति निष्ठा की अभिव्यक्ति है। यह अहंकार नहीं है। इसके अलावा, अगर तुम्हें यकीन नहीं कि तुम्हारी सोच सही है, तो अभ्यास का सिद्धांत भी है, जो कि अपने विचारों को व्यक्त करना है, ताकि सब संगति कर सकें, समझ सकें और चीजों को ठीक से करने का तरीका जान सकें। बहन झांग और बहन चेन कोई नए अगुआ नहीं थे जिनके काम में थोड़ी-बहुत गड़बड़ हुई हो और जो अवसर, सहायता और समर्थन के हकदार हों। वे काफी समय से अगुआ थे। फिर भी, न तो उनमें काबिलियत थी और न ही उन्होंने कोई व्यावहारिक काम किया था, वे अपने काम में कोई समस्या भी नहीं सुलझा पाए थे। ऐसे लोग नकली अगुआ होते हैं। नकली अगुआओं की पहचान करना और उन्हें समय पर बदलना कलीसिया के काम को कायम रखना और सिद्धांतों के अनुरूप काम करना है। यह अहंकार नहीं है, न ही यह बेरहमी से उन्हें अवसर से वंचित रखना है। मैंने साफ तौर पर दोनों अगुआओं के साथ समस्याएं देखीं, लेकिन सहकर्मियों के अहंकारी कहने के डर से, मैं अपने विचारों पर टिक नहीं पाई। मैं शैतानी फलसफे के अनुसार जी रही थी, खुशामदी थी, सत्य का अभ्यास नहीं करती थी, काम में विलंब होने की वजह को बेबसी से देखती रहती थी और कुछ नहीं करती थी। मैं अगुआ पद पर तो थी, लेकिन वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी। मैं यकीनी तौर पर नकली अगुआ थी। परमेश्वर को मेरे कृत्यों से बेहद घृणा है। मेरी बर्खास्तगी परमेश्वर की धार्मिकता और मेरे लिए उसका उद्धार थी। मैं मन ही मन परमेश्वर की आभारी थी और अपनी करनी पर मुझे बहुत पछतावा था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं शैतानी फलसफे के अनुसार जीती रही। बार-बार सत्य को धोखा देती रही और तेरी इच्छा पर खरी नहीं उतरी। मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं सत्य का अभ्यास कर कलीसिया के कार्य की रक्षा कर सकूँ।" अप्रत्याशित रूप से, मेरा रवैया बदलते ही, भाई-बहनों ने मुझे फिर से अगुआ चुन लिया और कर्तव्य-निर्वहन अच्छे से करने के लिए प्रोत्साहित किया। मैं बहुत भावुक हो गई, मुझे एक और अवसर देने के लिए मैंने परमेश्वर का आभार व्यक्त किया।
बाद में, मैंने अपनी समस्याओं के लिए अभ्यास का मार्ग खोजा और परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, "अगर तुम्हारे पास एक 'नेक व्यक्ति' होने की प्रेरणाएं और दृष्टिकोण हैं, तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों का पालन नहीं कर पाओगे, तुम हमेशा असफल होकर नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते, तो तुम गैर-विश्वासी हो और कभी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर, तुम्हें प्रार्थना में परमेश्वर को पुकारना चाहिए, उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और माँगना चाहिए कि परमेश्वर तुम्हें अधिक आस्था और शक्ति दे, तुम्हें समर्थ बनाए कि तुम सिद्धांत का पालन करो, वो करो जो तुम्हें करना चाहिये, चीजों को सिद्धांत के अनुसार संभालो, अपनी बात पर मजबूती से खड़े रहो, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने हितों को, अपनी प्रतिष्ठा और एक 'नेक व्यक्ति' होने के दृष्टिकोण को छोड़ने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, संपूर्ण हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिये, तो तुमने शैतान को हरा दिया है, और तुमने सत्य के इस पहलू को हासिल कर लिया है। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, दूसरों के साथ अपने संबंध बनाए रखते हो और कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, सिद्धांतों का पालन नहीं करते, तो क्या तुम अन्य मामलों में सत्य का अभ्यास कर पाओगे? तुममें न तो आस्था होगी और न ही शक्ति होगी। यदि तुम सत्य नहीं खोजते या स्वीकार नहीं करते, तो क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था से तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे? (नहीं।) और यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या तुम बचाए जा सकते हो? नहीं बचाए जा सकते। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, सत्य की वास्तविकता से पूरी तरह वंचित रहते हो, तो तुम कभी भी नहीं बचाए जा सकते। यह बात तुम्हें स्पष्ट होनी चाहिए कि उद्धार के लिए सत्य प्राप्त करना एक आवश्यक शर्त है। तो फिर, तुम सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो, सत्य के अनुसार जी सकते हो और सत्य तुम्हारे जीवन का आधार बन जाता है, तो तुम सत्य प्राप्त कर जीवन पा लोगे, तब तुम बचाए जाने वाले लोगों में से एक होगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि एक खुशामदी बनकर, लोगों से अच्छे संबंध बनाए रखना, सत्य के सिद्धांतों को कायम न रखना और कलीसिया के काम की रक्षा न करना, दर्शाता है कि मेरे कर्मों का सार कलीसिया के हितों की कीमत पर निजी हितों की रक्षा करना था। यह परमेश्वर के विरुद्ध अपराध और विश्वासघात था। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया और अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य नहीं खोजा, तो अंतत:, परमेश्वर मुझे नकारकर त्याग देगा। साथ ही, मुझे अभ्यास का मार्ग भी मिला। कुछ घटित होने पर अगर हम अपने हितों की रक्षा करना चाहें, तो हमें प्रार्थना कर परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए और उससे हिम्मत माँगनी चाहिए, दैहिक-सुख त्याग देना चाहिए, सत्य के सिद्धांतों को कायम रखकर, कलीसिया के हितों पर ध्यान देना चाहिए। इस तरह अभ्यास करने की प्रक्रिया में, पवित्र आत्मा के प्रबोधन के साथ, हम और अधिक सत्य समझने लगते हैं, सत्य के अभ्यास का हमारा संकल्प बढ़ता है और हमारा भ्रष्ट स्वभाव हमें बांध नहीं पाता, इस तरह हम थोड़ा और खुलकर जी सकते हैं। मैंने मन बना लिया कि अब से कर्तव्य-निर्वहन में, दूसरों से संबंध बनाने के चक्कर में नहीं पडूँगी, और सिद्धांत के मामलों में, कलीसिया के कार्य की रक्षा के लिए सत्य का अभ्यास करूँगी।
कुछ समय बाद, मैंने पाया कि कलीसिया में बहन वांग की देखरेख में सिंचन-कार्य में अच्छे परिणाम नहीं आ रहे और नए सदस्यों की कई सभाओं में उपस्थिति अनियमित थी। पता चला कि बहन वांग व्यावहारिक काम नहीं कर रही थी। वह नए सदस्यों की समस्याएँ और कठिनाइयाँ भी हल नहीं कर रही थी, वह सिंचन कर्मियों के काम की जानकारी और खोज-खबर भी नहीं लेती थी। कुछ सिंचन कर्मी बुरी मानवता वाले थे, जो आदतन लापरवाही करते थे, चालें चलते थे और अपने काम में धूर्त थे, लेकिन उसने उन्हें समय पर बर्खास्त नहीं किया। मैं अच्छी तरह जानती थी कि बहन वांग अब निरीक्षक नहीं रह सकती। पर फिर मैंने सोचा, "बहन वांग मेरी साथी हुआ करती थी। अगर उसे पता चला कि मैंने उसकी जाँच-पड़ताल की है और उसे बर्खास्त करना चाहती हूँ, तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगी? मुझे कठोरता से काम करने वाली तो नहीं समझेगी?" मुझे लगा मैं लोगों के साथ फिर से रिश्ते बनाने की फिराक में हूं। मैंने परमेश्वर से हिम्मत देने की प्रार्थना की, ताकि सत्य के सिद्धांतों को कायम रखकर कलीसिया के कार्य की रक्षा कर सकूं। उसके बाद, मैंने सहकर्मियों को बहन वांग को बर्खास्त करने का अपना विचार बताया। बहन लियू ने कहा, "बहन वांग काफी समय से सिंचन-कार्य की निगरानी कर रही है और उसे काम का थोड़ा-बहुत अनुभव भी है। अगर उसे बर्खास्त कर दिया, तो तुरंत कोई उपयुक्त प्रत्याशी नहीं मिल पाएगा।" लेकिन इस बार मैं अपनी बात पर अड़ी रही और समझौता नहीं किया। साथ ही, मैंने इस मामले की रिपोर्ट वरिष्ठ अगुआओं को भी कर दी, संगति और विश्लेषण के बाद, उन्होंने बहन वांग को उसके पद से बर्खास्त कर दिया। अपने अनुभव से मैंने जाना कि शैतानी फलसफे के अनुसार जीने वाले लोग सिर्फ नीच और निकृष्ट ही हो सकते हैं। कलीसिया के कार्य को हानि पहुँचाने वाले ऐसे लोगों से परमेश्वर घृणा करता है। सत्य और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने से हमें सच्ची आध्यात्मिक मुक्ति और स्वतंत्रता मिल सकती है।
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