झूठ से सिर्फ दर्द मिले
मई 2021 में, एक दिन हम भाई लूका के गाने के वीडियो का फिल्मांकन करने की तैयारी कर रहे थे, और मैं स्टेज लाइटिंग का काम कर रहा था। शुरुआत में मैं काफ़ी सावधान था, और पहले कुछ शॉट्स लेने में कोई दिक्कत नहीं हुई, तो मैं धीरे-धीरे थोड़ा ढीला पड़ गया। हमारा फिल्मांकन खत्म होने को ही था कि निर्देशक ने एक शॉट को अलग-अलग ढंग से दोबारा लेने की बात कही। मेरा ध्यान नहीं था, तो शॉट शुरू होने के बाद भी मेरी नजर दूसरे मॉनीटर पर ही थी। मेरा ध्यान तब गया जब लूका लाइटिंग वाले हिस्से से बाहर निकल गए। मैंने जल्दी से लाइटिंग ठीक की, मगर मैं फुर्ती नहीं दिखा पाया, और लूका का सिर लाइटिंग से बाहर गया और फिर अंदर आ गया। यह शॉट बेकार हो गया था। आमतौर पर मंच पर कोई समस्या होने पर, हमें दूसरे टेक के लिए निर्देशक से फौरन पूछना होता है, लेकिन मैं बस वॉकी-टॉकी पकड़े हुए पूछने से डरता रहा। शब्द मेरे गले में अटक गए थे और मैं वास्तव में दुविधा में था। मैंने सोचा कि वहाँ सिर्फ निर्देशक ही नहीं थे, बहुत-से दूसरे भाई-बहन भी थे। अगर मैंने उन्हें बताया कि मैंने ऐसी बुनियादी गलती की है, तो वे सब मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैं अपने कर्तव्य में लापरवाह था? यह बड़ी शर्मिंदगी की बात होगी। लेकिन अगर मैंने कुछ नहीं कहा, तो यह अपना कर्तव्य निभाना नहीं होगा। अगर एडिटिंग में फुटेज का इस्तेमाल किया गया, तो इसका वीडियो क्वालिटी पर सीधा असर पड़ेगा। मेरे मन में यही संघर्ष चल रहा था कि कहूँ या न कहूँ, तभी मैंने निर्देशक को यह कहते सुना, “ये वाला तो हो गया, चलो अगला शुरू करें।” मैंने देखा कि फिल्मांकन करने वाला भाई अपना स्टैंड बंद कर चुका था और इंतज़ार कर रहा था, तो मैं खुद को सही ठहराते हुए सोचने लगा, “फिल्मांकन पूरा हो चुका है, इसलिए अब अगर मैंने कुछ कहा, तो सभी को अपने सामान फिर खोलने होंगे, और बड़ी परेशानी हो जाएगी। मुझे कुछ नहीं बोलना चाहिए, वैसे भी यह बस एक शॉट है, दूसरा शॉट भी तो है, शायद इसका इस्तेमाल भी न हो। इसके अलावा, अगर लोग बारीकी से न देखें तो उन्हें पता ही नहीं चलेगा।” मैं इस पर सोचता रहा पर अंत में मैंने चुप रहने का फैसला किया। फिल्मांकन के बाद, मुझ पर अपराधबोध हावी हो गया, सोचने लगा, “क्या मैं जानबूझकर धोखा नहीं दे रहा था? मैं लोगों को बेवकूफ बना सकता था, मगर क्या मैं परमेश्वर को धोखा दे सकता हूँ?” तो मैंने निर्देशक को ढूंढ़ा और उन्हें अपनी गलती बता दी। उन्होंने कहा, “हमारी शूटिंग पूरी हो चुकी है और सबने पैक-अप कर लिया है। मुझे अब यह बताने का क्या फायदा? आपने मुझे उस वक्त क्यों नहीं बताया? अगर बताया होता, तो उसे दोबारा करने में ज्यादा वक्त नहीं लगता।” निर्देशक के निराश चेहरे को देखकर, मुझे और भी बुरा लगा, खुद को थप्पड़ मारने का मन हुआ। दूसरों के सामने अपनी गलती मान लेना मेरे लिए इतना मुश्किल क्यों था? बस सच्चा होने के लिए इतना प्रयास क्यों करना पड़ा? अपनी पीड़ा में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैंने अपना कर्तव्य निभाते हुए एक गलती की और सभी के सामने उसे स्वीकार करने का साहस नहीं जुटा पाया, इस डर से कि वे मेरी आलोचना करेंगे और मुझे नीची नजर से देखेंगे। अब मैं अपराधबोध से ग्रस्त हूँ। मुझे खुद को जानने का रास्ता दिखाओ।”
इसके बाद मैंने देखा कि परमेश्वर का वचन कहता है : “मान लो कि तुम्हें दो रास्तों में से एक चुनना है। पहला रास्ता है ईमानदार इंसान बनने, सच बोलने और अपने दिल की बात कहने का, दूसरों के साथ अपने दिल की बात साझा करने या अपनी गलतियों को स्वीकारने और तथ्यों को जस-का-तस सामने रखने, और दूसरों को अपनी भ्रष्ट कुरूपता दिखाकर खुद से घृणा करने का। दूसरा रास्ता है परमेश्वर के लिए शहादत में अपना जीवन त्याग देने और मरने पर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का। तुम किसे चुनोगे? कुछ लोग कह सकते हैं, ‘मैं परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्याग देने का विकल्प चुनता हूँ। मैं उसके लिए मरने को तैयार हूँ; मरने के बाद मुझे मेरा पुरस्कार मिल जाएगा और मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करूँगा।’ परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्यागना दृढ़ संकल्प वाले लोगों के लिए बस एक जोर का धक्का देने की बात हो सकती है। लेकिन क्या सत्य का अभ्यास करना और एक ईमानदार इंसान बनना इस तरह के धक्के से पूरा किया जा सकता है? यह दो धक्कों में भी पूरा नहीं किया जा सकता। अगर कोई काम करते समय तुम्हारे अंदर इच्छाशक्ति है, तो तुम इसे एक ही झटके में अच्छी तरह से कर सकते हो; लेकिन बिना किसी झूठ के सिर्फ एक बार सच कहने से तुम हमेशा के लिए ईमानदार व्यक्ति नहीं बन जाओगे। ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए अपना स्वभाव बदलना जरूरी है, और इसके लिए दस-बीस वर्षों का अनुभव लगता है। ईमानदार व्यक्ति बनने के बुनियादी मानक को पूरा करने के लिए सबसे पहले, तुम्हें अपने झूठ और कपटपूर्ण स्वभाव को त्याग देना चाहिए। क्या यह सबके लिए कठिन नहीं है? यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। परमेश्वर अब लोगों के एक समूह को पूर्ण बनाना और प्राप्त करना चाहता है, और सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोगों को न्याय और ताड़ना, परीक्षणों और शोधन को स्वीकारना चाहिए, जिसका उद्देश्य उनके कपटी स्वभावों का समाधान करना और उन्हें ऐसा ईमानदार व्यक्ति बनाना है जो परमेश्वर के प्रति समर्पित रहें। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे एक झटके में हासिल किया जा सकता है; इसके लिए सच्ची आस्था की आवश्यकता होती है, और इसे हासिल करने से पहले व्यक्ति को बहुत-से परीक्षणों और काफी शोधन से गुजरना पड़ता है। अगर परमेश्वर तुमसे अभी ईमानदार व्यक्ति बनने और सच बोलने के लिए कहे, कुछ ऐसा जिसमें तथ्य शामिल हों, और कुछ ऐसा जिससे तुम्हारा भविष्य और भाग्य जुड़ा हो, जिसके परिणाम शायद तुम्हारे लिए फायदेमंद न हों, और दूसरे अब तुम्हें सम्मान से न देखें, और तुम्हें ऐसा लगे कि तुम्हारी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई है—तो क्या ऐसी परिस्थिति में तुम बेबाक होकर सच बोल सकते हों? क्या तुम अभी भी ईमानदार रह सकते हो? यह करना सबसे कठिन काम है, अपना जीवन त्यागने से भी कहीं अधिक कठिन। तुम कह सकते हो, ‘मेरे सच बोलने से काम नहीं चलेगा। मैं सच बोलने के बजाय परमेश्वर के लिए मरना पसंद करूँगा। मैं ईमानदार व्यक्ति बिल्कुल भी नहीं बनना चाहता। हर कोई मुझे नीची निगाह से देखे और मुझे एक आम व्यक्ति समझे, इसके बजाय मैं मर जाना पसंद करूँगा।’ यह क्या दिखाता है कि लोग किस चीज को सबसे ज्यादा सँजोते हैं? लोग जिसे सबसे ज्यादा सँजोते हैं, वह उनका उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा है—ऐसी चीजें जो उनके शैतानी स्वभावों से नियंत्रित होती हैं। जीवन गौण होता है। हालात मजबूर करें वे अपनी जान देने की ताकत जुटा लेंगे, लेकिन हैसियत और प्रतिष्ठा त्यागना आसान नहीं है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनके लिए अपनी जान देना अत्यंत महत्वपूर्ण नहीं है; परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग सत्य को स्वीकार करें, और वास्तव में ऐसे ईमानदार लोग बनें जो अपने दिल की बात कहते, खुलकर बोलते और सबके सामने खुद को उजागर करते हैं। क्या ऐसा करना आसान है? (नहीं, यह आसान नहीं है।) वास्तव में, परमेश्वर तुमसे अपना जीवन त्यागने के लिए नहीं कहता। क्या तुम्हारा जीवन तुम्हें परमेश्वर ने ही नहीं दिया था? परमेश्वर के लिए तुम्हारे जीवन का क्या उपयोग होगा? परमेश्वर उसे नहीं चाहता। वह चाहता है कि तुम ईमानदारी से बोलो, दूसरों को यह बताओ कि तुम किस तरह के व्यक्ति हो और अपने दिल में क्या सोचते हो। क्या तुम ये बातें कह सकते हो? यहाँ, यह कार्य कठिन हो जाता है, और तुम कह सकते हो, ‘मुझे कड़ी मेहनत करने दो, मुझमें उसे करने की ताकत होगी। मुझे अपनी सारी संपत्ति का त्याग करने दो, और मैं ऐसा कर सकता हूँ। मैं आसानी से अपने माता-पिता, अपने बच्चे, अपनी शादी और आजीविका का त्याग कर दूँगा। लेकिन अपने दिल की बात कहना, ईमानदारी से बोलना—यही एक काम मैं नहीं कर सकता।’ क्या कारण है कि तुम ऐसा नहीं कर सकते? इसका कारण यह है कि तुम्हारे ऐसा करने के बाद, जो कोई भी तुम्हें जानता है या तुमसे परिचित है, वह तुम्हें अलग तरह से देखेगा। वह अब तुम्हारा सम्मान नहीं करेगा। तुम्हारी साख मिट जाएगी और तुम बुरी तरह से अपमानित होगे, तुम्हारी सत्यनिष्ठा और गरिमा खत्म हो जाएगी। दूसरों के दिलों में तुम्हारी ऊँची हैसियत और प्रतिष्ठा नहीं रहेगी। इसलिए, ऐसे हालात में, चाहे कुछ भी हो जाए, तुम सच नहीं कहोगे। जब लोगों के सामने यह स्थिति आती है, तो उनके दिलों में एक जंग होती है, और जब वह जंग खत्म होती है, तो कुछ लोग अंततः अपनी कठिनाइयों से निकल आते हैं, जबकि अन्य इससे निकल नहीं पाते, और अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभावों और अपनी हैसियत, प्रतिष्ठा और तथाकथित गरिमा से नियंत्रित होते रहते हैं। यह एक कठिनाई है, है न? केवल ईमानदारी से बोलना और सच बोलना कोई महान चीज नहीं है, फिर भी बहुत-से वीर नायक, बहुत-से ऐसे लोग जिन्होंने परमेश्वर के लिए अपना जीवन समर्पित करने और खुद को खपाने की शपथ ली है, और बहुत-से ऐसे लोग जिन्होंने परमेश्वर से बड़ी-बड़ी बातें कही हैं, ऐसा करना असंभव पाते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सच्ची हालत बयान कर दी। मैंने अपनी इज्जत और रुतबे को बहुत अधिक महत्व दिया था। सभी के सामने बुरा दिखने के डर से मैंने अपनी गलती नहीं मानी, एक शब्द भी नहीं बोल पाया। मुझे डर था कि सब कहेंगे कि मुझसे इतनी आसान गलती हुई है यानी मैं अपना काम कर ही नहीं रहा था। कितना शर्मनाक होगा ये। अपनी छवि और रुतबे को बचाने की चाह में, मैंने यह सोचकर अपनी गलती पर परदा डाला, कि अगर मैं नहीं बताऊँगा तो किसी को पता नहीं चलेगा और वे इसके लिए मेरी आलोचना नहीं करेंगे। मेरा गर्व और छवि बनी रहेगी। भले ही मैं दोषी और असहज महसूस कर रहा था, फिर भी मुझे खुद को सुकून देने का बहाना मिल गया : “यह सिर्फ एक टेक है, वे शायद इसका इस्तेमाल भी न करें।” क्या मैं खुद से और दूसरों से झूठ नहीं बोल रहा था? यह खयाल आते ही मुझे सिर्फ अपनी छवि और रुतबा बचाने के लिए, अपने भाई-बहनों के साथ धोखा करने पर बहुत खेद और पछतावा होने लगा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैंने अपनी गलती नहीं मानी क्योंकि मैं अपनी छवि और रुतबा बनाए रखना चाहता था। मैं जानता हूँ, यह तेरी इच्छा के अनुरूप नहीं है, मगर मानो मैं शैतान के बहकावे में था, और भ्रष्ट स्वभाव से नहीं बच सका। हे परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं बाधाओं, बंधनों और अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त हो सकूँ।”
फिर मैंने परमेश्वर के वचन के कुछ अंश पढ़े, जिनसे मुझे अभ्यास के लिए कुछ मार्ग मिले। परमेश्वर कहता है : “केवल ईमानदार लोग ही स्वर्ग के राज्य में साझीदार हो सकते हैं। यदि तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करोगे, सत्य का अनुसरण करने की दिशा में अनुभव प्राप्त नहीं करोगे और अभ्यास नहीं करोगे, यदि अपना भद्दापन उजागर नहीं करोगे और यदि खुद को खोल कर पेश नहीं करोगे, तो तुम कभी भी पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर पाओगे। चाहे तुम कुछ भी करो, या कोई भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हारा रवैया ईमानदार होना चाहिए। ईमानदार रवैये के बिना तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा सकते। अगर तुम अपना कर्तव्य हमेशा लापरवाह होकर सतही ढंग से निभाते हो, और तुम कोई काम अच्छी तरह नहीं कर पाते, तो तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को समझना चाहिए, और अपना विश्लेषण करने के लिए खुल जाना चाहिए। फिर तुम्हें सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए, और अगली बार लापरवाह और सतही होने के बजाय बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिए। अगर तुम कोशिश नहीं करते, और ईमानदार हृदय से परमेश्वर को संतुष्ट नहीं करते और हमेशा अपनी देह या स्वाभिमान को संतुष्ट करने पर ध्यान देते हो, तो क्या तुम कोई अच्छा काम कर पाओगे? क्या तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाओगे? यकीनन नहीं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। “यदि कोई गलती करने के बाद तुम उसे सही तरह से ले सको, और अन्य सभी को उसके बारे में बात करने दे सको, उस पर टिप्पणी और विचार करने दे सको, और उसके बारे में खुलकर बात कर सको और उसका विश्लेषण कर सको, तो तुम्हारे बारे में सभी की राय क्या होगी? वे कहेंगे कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो, क्योंकि तुम्हारा दिल परमेश्वर के प्रति खुला है। तुम्हारे कार्यों और व्यवहार के माध्यम से वे तुम्हारे दिल को देख पाएँगे। लेकिन अगर तुम खुद को छिपाने और हर किसी को धोखा देने की कोशिश करते हो, तो लोग तुम्हें तुच्छ समझेंगे और कहेंगे कि तुम मूर्ख और नासमझ व्यक्ति हो। यदि तुम ढोंग करने या खुद को सही ठहराने की कोशिश न करो, यदि तुम अपनी गलतियाँ स्वीकार सको, तो सभी लोग कहेंगे कि तुम ईमानदार और बुद्धिमान हो। और तुम्हें बुद्धिमान क्या चीज बनाती है? सब लोग गलतियाँ करते हैं। सबमें दोष और कमजोरियाँ होती हैं। और वास्तव में, सभी में वही भ्रष्ट स्वभाव होता है। अपने आप को दूसरों से अधिक महान, परिपूर्ण और दयालु मत समझो; यह एकदम अनुचित है। जब तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और सार, और उनकी भ्रष्टता के असली चेहरे को पहचान जाते हो, तब तुम अपनी गलतियाँ छिपाने की कोशिश नहीं करते, न ही तुम दूसरों की गलतियों के करण उनके बारे में गलत धारणा बनाते हो—तुम दोनों का सही ढंग से सामना करते हो। तभी तुम समझदार बनोगे और मूर्खतापूर्ण काम नहीं करोगे, और यह बात तुम्हें बुद्धिमान बना देगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन से मैंने जाना कि हर कोई अपने कर्तव्य के दौरान गलतियाँ करता है। यह सामान्य है। हमें इन्हें छिपाना नहीं चाहिए, हमें साफ-साफ बोलना चाहिए, अपनी गलतियां स्वीकार करने के लिए कदम उठाना चाहिए और दूसरों के सामने अपनी भ्रष्टता और कमियों को खुलकर बताना चाहिए। हमें अपनी छवि और रुतबे को बचाने की चिंता नहीं करनी चाहिए, इसके बजाय परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार ईमानदार होना चाहिए। चरित्र और गरिमा वाला जीवन जीने और परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष पाने का यही एकमात्र तरीका है। लेकिन मुझे हमेशा अपना रुतबा और छवि बनाए रखने की चाह थी, मुझे अपने कर्तव्य के दौरान इसकी बहुत ज्यादा परवाह थी कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं। इस वजह से, मैं हमेशा अपनी गलतियां छिपाना चाहता था और दूसरों को उनका पता लगने देने से डरता था। दोषी महसूस करने के बाद भी मुझमें सच का सामना करने की हिम्मत नहीं थी। मैंने यह बिल्कुल नहीं सोचा कि इससे कलीसिया के कार्य को कितना नुकसान हो सकता है। मैं अपना कर्तव्य करते हुए कलीसिया के हितों की रक्षा नहीं कर रहा था, और जरा भी ईमानदार नहीं था। अगर ऐसे ही चलता रहा तो मैं अपना कर्तव्य ठीक से कैसे निभाऊँगा? ये एहसास पर मैंने खुद को बहुत दोषी माना और मैं वह स्थिति ठीक करना चाहता था जिसमें मैं अपने कर्तव्यों का पालन करता था।
इसके बाद जब कभी मैं फिल्मांकन में गलती करता और उसे स्वीकारने को लेकर इस दुविधा में रहता कि कुछ कहूँ या नहीं, तो मुझे पता होता था कि मैं फिर दूसरों की नजरों में बस अपनी रुतबा और छवि बनाए रखने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता, उससे सत्य का अभ्यास करने और ईमानदार व्यक्ति बनने का रास्ता दिखाने की विनती करता, ताकि सबके सामने मैं अपनी गलती मान सकूँ। जब मैं ऐसा करता था, तो भाई-बहन मुझे दोष नहीं देते थे और मेरी गलती को ठीक से संभाल लेते थे। मैं बहुत विनम्र महसूस करने लगा और सत्य का अभ्यास करने से मुझे सुकून और आनंद महसूस होने लगा।
एक दिन हम एक और एकल वीडियो पर काम कर रहे थे। शूटिंग शुरू करने से पहले निर्देशक ने पूछा कि लाइट्स तैयार हैं या नहीं? मैंने सोचा, मैं उन्हें पहले ही देख चुका हूँ, इसलिए मैंने पूरे विश्वास से कहा, “सब ठीक है, हम शुरू कर सकते हैं!” लेकिन एक शॉट के बाद, मुझे अचानक ध्यान आया कि मैं कुछ लाइट्स ऑन करना भूल गया था। मैं बुरी तरह घबरा गया। मैं कुछ बोलना चाहता था, मगर यह सोचकर झिझक गया, “मैंने पूरे विश्वास के साथ सबको भरोसा दिलाया था कि सब-कुछ तैयार है, तो अगर मैं अभी अपनी गलती स्वीकारता हूँ, तो वे सब मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या मुझ पर से उनका भरोसा उठ नहीं जाएगा? लाइट्स ऑन करना भूलना नौसिखिये वाली गलती थी। अगर मैंने गलती मानी, तो दोबारा मुँह कैसे दिखाऊँगा? क्या भाई-बहन यह सोचेंगे कि मैं बिल्कुल बेकार हूँ, जो इतना आसान काम बिगाड़ दिया?” परस्पर विरोधी भावनाएँ मेरे भीतर उमड़ रही थीं, और मुझे लग रहा था कि मानो मैं कीलों के बिस्तर पर लेटा हूँ। मैं अपनी गलती स्वीकारना चाहता था पर हम कई शॉट पूरे कर चुके थे। अगर अब मैं कहता कि लाइटिंग की समस्या थी, तो क्या सभी लोग मेरे बताने के बजाय अब तक इंतज़ार करने के लिए मेरी आलोचना करेंगे? बहुत सोचने के बाद मैंने एक समाधान खोज निकाला : मैं शूटिंग खत्म होने का इंतजार करूँगा और फिर वीडियो संपादक से अकेले में जाकर बात करूँगा और लाइटिंग ठीक करने को कहूँगा। इस तरह मुझे सभी लोगों के सामने अपनी गलती नहीं माननी पड़ेगी। इससे वीडियो क्वालिटी पर भी असर नहीं पड़ेगा, और साथ ही मेरी इज्जत और रुतबा भी बना रहेगा। इसलिए फिल्मांकन खत्म करने के बाद, मैं वीडियो संपादन कर रहे भाई के पास गया और अपनी गलती को छोटा दिखाते हुए कहा : “पहले शॉट में लाइटिंग की कुछ समस्या हो गई थी, पर मैंने दूसरे शॉट्स से उनकी तुलना की तो ज़्यादा फर्क नहीं है। बस, ब्राइटनेस में थोड़ा-सा फर्क है। अगर आप इसे थोड़ा ठीक कर लेंगे, तो बहुत बढ़िया होगा।” उसने मेरी बात मान ली और कहा कि वह उसे ठीक करने में मदद कर देगा। ये बातें बोलते ही मुझे बहुत ग्लानि हुई, क्योंकि लाइटिंग के होने न होने से बड़ा फर्क पड़ता था। मगर मैंने कहा था, अंतर मामूली था। क्या मैं अपने भाई से सफेद झूठ नहीं बोल रहा था? उस शॉट की लाइटिंग ठीक करने में उसे तीन घंटे से भी ज्यादा लग गए। अगली सुबह सबसे पहले निर्देशक ने मुझे मैसेज पर पूछा कि “क्या आपने गौर नहीं किया कि कल लाइटिंग में काफी समस्या थी?” मुझे पता नहीं था कि निर्देशक को इतनी जल्दी पता चल जाएगा, और एक क्षण मुझे समझ नहीं आया कि क्या बोलूँ, तो सफाई देने के लिए बहाने ढूँढ़ने लगा। उन्होंने कहा, “ऐसा पहले भी हुआ है, आपको गलती पहले ही पता चल गई थी पर आपने कुछ नहीं बताया। इससे हमारे काम में रुकावट आ रही है। आपको वास्तव में अपने कार्यों पर आत्मचिंतन करने की जरूरत है।” उनकी यह बात सुनकर मुझे बहुत अपराधबोध महसूस हुआ। मुझे घृणा हुई कि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव से नियंत्रित और बंधा हुआ था और एक बार फिर सत्य का अभ्यास नहीं कर पाया था। मैंने घुटने टेककर प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं अपनी छवि और रुतबे की बहुत परवाह करता हूँ। इस बार, मैंने न सिर्फ अपनी गलती के बारे में कुछ नहीं कहा, बल्कि मैंने उसे छिपाने की पूरी कोशिश भी की। मैं कितना धूर्त हूँ। हे परमेश्वर, मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो, मुझे बचा लो।”
फिर मैंने परमेश्वर के वचन का यह अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधियों की मानवता बेईमान होती है, जिसका अर्थ है कि वे जरा भी सच्चे नहीं होते। वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, वह मिलावटी होता है और उसमें उनके इरादे और मकसद शामिल रहते हैं, और इस सबमें छिपी होती हैं उनकी अनकही और अकथनीय चालें और साजिशें। इसलिए मसीह-विरोधियों के शब्द और कार्य अत्यधिक दूषित और झूठ से भरे होते हैं। चाहे वे कितना भी बोलें, यह जानना असंभव होता है कि उनकी कौन-सी बात सच्ची है और कौन-सी झूठी, कौन-सी सही है और कौन-सी गलत। चूँकि वे बेईमान होते हैं, इसलिए उनके दिमाग बेहद जटिल होते हैं, कपटी साजिशों से भरे और चालों से ओतप्रोत होते हैं। वे एक भी सीधी बात नहीं कहते। वे एक को एक, दो को दो, हाँ को हाँ और ना को ना नहीं कहते। इसके बजाय, सभी मामलों में वे गोलमोल बातें करते हैं और चीजों के बारे में अपने दिमाग में कई बार सोचते हैं, परिणामों के बारे में सोच-विचार करते हैं, हर कोण से गुण और कमियाँ तोलते हैं। फिर, वे अपनी भाषा से चीजों में इस तरह हेरफेर करते हैं कि वे जो कुछ भी कहते हैं, वह काफी बोझिल लगता है। ईमानदार लोग उनकी बातें कभी समझ नहीं पाते और वे उनसे आसानी से धोखा खा जाते हैं और ठगे जाते हैं, और जो भी ऐसे लोगों से बोलता और बात करता है, उसका यह अनुभव थका देने वाला और दुष्कर होता है। वे कभी एक को एक और दो को दो नहीं कहते, वे कभी नहीं बताते कि वे क्या सोच रहे हैं, और वे चीजों का वैसा वर्णन नहीं करते जैसी वे होती हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह अथाह होता है, और उनके कार्यों के लक्ष्य और इरादे बहुत जटिल होते हैं। अगर उनकी कलई खुल जाती है—अगर दूसरे लोग उनकी असलियत जान जाते हैं और उन्हें समझ लेते हैं—तो वे इससे निपटने के लिए तुरंत एक और झूठ गढ़ लेते हैं। ऐसे व्यक्ति अक्सर झूठ बोलते हैं और झूठ बोलने के बाद उन्हें झूठ कायम रखने के लिए और ज्यादा झूठ बोलने पड़ते हैं। वे अपने इरादे छिपाने के लिए दूसरों को धोखा देते हैं, और अपने झूठ की मदद के लिए तमाम तरह के हीले-हवाले और बहाने गढ़ते हैं, ताकि लोगों के लिए यह बताना बहुत मुश्किल हो जाए कि क्या सच है और क्या नहीं, और लोगों को पता ही नहीं चलता कि वे कब सच्चे होते हैं, और इसका तो बिल्कुल भी पता नहीं चलता कि वे कब झूठ बोल रहे होते हैं। जब वे झूठ बोलते हैं, तो शरमाते या हिचकते नहीं, मानो सच बोल रहे हों। क्या इसका मतलब यह नहीं कि झूठ बोलना उनकी प्रकृति बन गया है? उदाहरण के लिए, कभी-कभी मसीह-विरोधी सतही तौर पर दूसरों के प्रति अच्छे, ख्याल रखने वाले और बोलचाल में गर्मजोशी से भरे हुए प्रतीत होते हैं, जो सुनने में सुखद और प्रेरक होता है। लेकिन जब वे इस तरह बोलते हैं, तब भी कोई नहीं बता सकता कि वे ईमानदार हैं या नहीं, और वे ईमानदार थे या नहीं, इस बात के प्रकट होने के लिए हमेशा कुछ दिनों बाद होने वाली घटनाओं की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता होती है। मसीह-विरोधी हमेशा कुछ निश्चित इरादों के साथ बोलते हैं, और कोई यह पता नहीं लगा सकता कि वास्तव में वे क्या चाहते हैं। ऐसे लोग आदतन झूठे होते हैं, जो अपने किसी भी झूठ के परिणाम के बारे में जरा भी नहीं सोचते। अगर उनका झूठ उन्हें लाभ पहुँचाता है और दूसरों को धोखा देने में सक्षम है, अगर वह उनके लक्ष्य प्राप्त कर सकता है, तो वे उसके परिणामों की परवाह नहीं करते। जैसे ही वे उजागर होते हैं, वे बात छिपाना, झूठ बोलना, छल करना जारी रखते हैं। जिस सिद्धांत और तरीके से ये लोग दूसरों से बातचीत करते हैं, वह लोगों को झूठ बोलकर बरगलाना है। वे दोमुँहे होते हैं और अपने श्रोताओं के अनुरूप बोलते हैं; स्थिति जिस भी भूमिका की माँग करती है, वे उसे निभाते हैं। वे मधुरभाषी और चालाक होते हैं, उनके मुँह झूठ से भरे होते हैं, और वे भरोसे के लायक नहीं होते। जो भी कुछ समय के लिए उनके संपर्क में आता है, वह धोखा खा जाता है या बाधित हो जाता है और उसे पोषण, सहायता या सीख नहीं मिल पाती। ऐसे लोगों के मुँह से निकले शब्द गंदे हों या अच्छे, तर्कसंगत हों या बेतुके, मानवता के अनुकूल हों या प्रतिकूल, अशिष्ट हों या सभ्य, वे सब अनिवार्य रूप से मिथ्या, असत्य और झूठ होते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव के सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर के वचन मसीह-विरोधियों की कपट और चालाक प्रकृति को उजागर करते हैं। वे अपनी कथनी और करनी दोनों में बेईमान होते हैं। आप उनसे सत्य का एक भी शब्द नहीं सुनेंगे। खुद को उजागर होने से बचाने के लिए, वे बेशर्मी से झूठ बोलते और अपने घिनौने मंसूबे छिपाते हैं। मसीह-विरोधी अविश्वसनीय रूप से दुष्ट होते हैं। मुझे लगा जैसे परमेश्वर के वचनों ने मेरी गलतियाँ उजागर कर दी हैं। मुझसे गलती हुई थी क्योंकि फिल्मांकन के दौरान मैंने ध्यान नहीं दिया था और इसे स्वीकारा नहीं था क्योंकि मुझे डर था कि मेरे भाई और बहन मुझे नीची नजर से देखेंगे। इसे छिपाने का सही तरीका ढूँढ़ने के लिए मैंने बहुत दिमाग लगाया। मैंने संपादक भाई से समस्या ठीक करवाने के लिए चुपचाप बात की, जानबूझकर झूठ बोला कि यह कोई बड़ी समस्या नहीं थी, ताकि उसे लगे कि बड़ी बात नहीं थी। मैं बहुत ज्यादा कपटी था। क्या मेरा स्वभाव मसीह-विरोधियों की तरह दुष्ट नहीं था? परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है, लेकिन मैं बहुत दुष्ट हूँ। क्यों परमेश्वर इससे घृणा और नफरत नहीं करेगा? मुझे प्रभु यीशु का यह वचन याद आया : “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है” (मत्ती 5:37)। “तुम अपने पिता शैतान से हो और अपने पिता की लालसाओं को पूरा करना चाहते हो। वह तो आरम्भ से हत्यारा है और सत्य पर स्थिर न रहा, क्योंकि सत्य उसमें है ही नहीं। जब वह झूठ बोलता, तो अपने स्वभाव ही से बोलता है; क्योंकि वह झूठा है वरन् झूठ का पिता है” (यूहन्ना 8:44)। परमेश्वर कहता है कि झूठ, दुष्ट से, शैतान से आते हैं, और जो हमेशा झूठ बोलते हैं, वे दानव हैं। मैं लगातार झूठ बोलता और पहले झूठ को छिपाने के लिए और झूठ बोलता था, क्या मैं बिल्कुल शैतान जैसा नहीं था? मैं जो कह रहा था, उसमें दानवी तत्व था, वह कपटपूर्ण था, यह कलीसिया के कार्य को बाधित करने वाला था। फिल्मांकन में मैंने जो गलती की, उसे ईमानदारी से स्वीकार करके सुलझाया जा सकता था, और बहुत सारी अनावश्यक समस्या से बचा जा सकता था। लेकिन, अपनी छवि और रुतबा बचाए रखने के लिए, मन में इस पर बार-बार सोचकर भी मैं एक भी सच्चा शब्द नहीं बोल सका। मैंने इसे छिपाने के लिए एक के बाद एक झूठ बोला, अपने भाई-बहनों को धोखा दिया, और संपादक भाई को मेरी गलतियां सुधारने में तीन घंटे से भी ज्यादा लगाने पड़े। मैंने दूसरे लोगों के काम के बारे में या अंतिम वीडियो में खराब शॉट्स इस्तेमाल होने के परिणामों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचा। मैं बहुत स्वार्थपूर्ण और घृणित था। मैंने देखा कि मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव को खुली छूट दे दी थी और मैंने जो कुछ भी किया वह मुझे और दूसरों को चोट पहुँचा रहा था। इसने लोगों को नाराज किया और परमेश्वर के लिए यह घिनौना था। मैं पछतावे और आत्म-निंदा से भर गया। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मैं अपनी छवि और रुतबे की चिंता बंद करके एक सरल और खुले दिल का ईमानदार इंसान बनना चाहता था।
मैंने देखा कि परमेश्वर का वचन कहता है : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना किसी बंधन या पीड़ा के जिओगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों में, सत्य का अभ्यास करने के लिए मुझे कुछ मार्ग मिले : मुझे खुलकर बोलना सीखना है, और अपनी छवि बचाने के लिए परमेश्वर के सामने कपटी या चालाक और धोखेबाज नहीं बल्कि अपना दिल खोलना सीखना है। मुझे अपने गुप्त मंसूबों, भ्रष्टता, कमियों और गलतियों के बारे में अपने भाई-बहनों को खुलकर बताना चाहिए। सत्य में प्रवेश करने का यह सबसे अहम कदम है। इसे हासिल करना ही धीरे-धीरे भ्रष्ट स्वभाव के बंधन और नियंत्रण से मुक्त होने और सच्ची इंसानियत के साथ जीवन जीने का एकमात्र मार्ग है। मैं अपनी छवि और रुतबे को बचाने की खातिर काम करते नहीं रह सकता, बल्कि मुझे परमेश्वर की जाँच और भाई-बहनों के निरीक्षण को स्वीकारना होगा। इसलिए मैंने इस प्रक्रिया के दौरान प्रकट हुई अपनी गलतियों और भ्रष्टता के बारे में हर किसी को खुलकर बताया। मैंने खुद को दंड देने के लिए भी कुछ काम किए, ताकि मैं उन्हें भूलूं नहीं। इस अनुभव ने मुझे मेरे धूर्त स्वभाव के बारे में जागरूक किया और मैंने शपथ ली कि मैं खुद को बदलूंगा।
फिल्मांकन के दौरान एक दिन, मैं एक क्षण के लिए दूसरे कैमरे के स्क्रीन पर विवरण देखने में लगा था कि एक गायक लाइटिंग वाले हिस्से से बाहर चला गया। मुझे इसका एहसास हो, इससे पहले ही वह कई पंक्तियाँ गा चुका था। लाइटिंग की समस्या के कारण हमारी करीब 10 सेकंड की फुटेज बेकार हो गयी। मैंने सोचा, “वही गलती मैंने फिर से कैसे कर डाली? इन दिनों मैं बहुत गड़बड़ी कर रहा हूँ। अगर मैंने गलती मान ली, तो लोग क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैं अपने कर्तव्य को गंभीरता से नहीं ले रहा हूँ?” जब मैं कुछ कहने को लेकर पसोपेश में था तभी मुझे अचानक लगा कि मैं फिर अपनी छवि और रुतबा बचाने की कोशिश कर रहा था। मुझे याद आया कि पहले मैंने कलीसिया के कार्य को कितना नुकसान पहुँचाया था क्योंकि मैं खुद को बचाना चाहता था और सच नहीं बताता था। मैंने इस बारे में भी सोचा कि अपनी गलती छिपाने की मेरी कोशिशें कितनी शर्मनाक रही थीं, और झूठ बोलने से मैंने कैसी पीड़ा और परेशानी महसूस की थी। मुझे एहसास था कि मैं छल नहीं कर सकता था और दूसरों से चाल नहीं चल सकता था, कि इस बार मुझे खुद का त्याग कर सत्य का अभ्यास करना था। इसलिए मैंने ढुलमुल रवैया छोड़ा और निर्देशक को बता दिया कि क्या हुआ था।
इसके बाद, मैं सचेत होकर अपने कर्तव्य के दौरान ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करने लगा, अपनी छवि और रुतबे के बारे में सोचना छोड़कर सक्रिय होकर अपनी गलतियाँ मानने लगा। मैं जमीर के साथ कलीसिया के कार्य की रक्षा करने में सक्षम था। हालाँकि गलतियां स्वीकार करने के बाद मुझे कभी-कभी अपने भाइयों और बहनों द्वारा फटकार और नसीहत सुननी पड़ती थी, इसके साथ-साथ सम्मान गंवाना पड़ता था, पर सत्य का अभ्यास करने से मेरी गलतियाँ कलीसिया के कार्य को नुकसान नहीं पहुंचा सकीं। इससे मैं खासकर विनम्र हो गया और शांति महसूस हुई। मैंने सही मायनों में अनुभव किया कि अपने रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए झूठ बोलना और धोखा देना कितना दुखदाई होता है। सत्य का अभ्यास करना और एक ईमानदार इंसान होना ही चरित्रवान मनुष्य होने और प्रतिष्ठा और खुलकर प्रकाश में जीवन जीने का एकमात्र मार्ग है। परमेश्वर का धन्यवाद!
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