क्या आपदा से पीड़ित होना बुरी बात है?
जुलाई 2023 में एक दिन, मैंने सुना कि हमारी कलीसिया का एक भाई, वांग हाओ दुर्घटनाग्रस्त होकर गंभीर रूप से घायल हो गया। उसे कोमा की हालत में अस्पताल भेजा गया। यह खबर सुनकर, एक पल के लिए मेरी धड़कन थम गई। इस भाई ने सब कुछ त्याग दिया था और कई सालों तक परमेश्वर का अनुसरण किया था। जब अपना कर्तव्य निभाते हुए वह गंभीर ल्यूकेमिया से पीड़ित हुआ, तो उसने परमेश्वर को दोष नहीं दिया, वह इलाज कराने के साथ-साथ पूरी निष्ठा से अपना कर्तव्य भी निभाता रहा। उसके साथ ऐसा कैसे हो गया? परमेश्वर ने उसकी रक्षा क्यों नहीं की? अगर इस दुर्घटना में उसकी जान चली गई, तो क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि उसे कोई अच्छा गंतव्य नहीं मिलेगा? इसके बाद, मैं हमेशा इसी में उलझी रहती थी। जब मैं अपना कर्तव्य निभा रही होती थी, तब भी यह बात अक्सर मेरे मन में आती थी। मुझे उम्मीद थी कि परमेश्वर इस भाई की रक्षा करेगा और उसे मृत्यु से बचने में सक्षम बनाएगा, तो फिर मैं देखूंगी कि परमेश्वर ने उन लोगों को विशेष अनुग्रह और आशीष दिया जिन्होंने सबकुछ त्यागकर उसका अनुसरण किया। कुछ दिनों बाद, मैंने सुना कि वांग हाओ की हालत अभी भी गंभीर है। वह कोमा में था और पागलों की तरह बड़बड़ाता रहता था। यह खबर सुनकर मेरा मन उदास हो गया। अगर यह भाई मर गया, तो क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि उसके लिए कोई अच्छा गंतव्य नहीं है? तो क्या इतने सालों तक उसका त्याग और खुद को खपाना बेकार नहीं हो जाएगा? ऐसा लगता है कि सब कुछ त्याग कर अपना कर्तव्य निभाना अच्छे गंतव्य की गारंटी नहीं है। यह सोचते हुए, मेरे दिल में एक अजीब सी बेचैनी उभरी। मैं अपने भविष्य के परिणाम और गंतव्य के बारे में चिंतित होकर सोचने लगी, “मैंने भी अपने परिवार को भी त्याग दिया है, अपना करियर छोड़ दिया है और कई सालों तक अपना कर्तव्य निभाया है। अगर भविष्य में मुझे कोई विपत्ति झेलनी पड़े और मैं मर जाऊँ, तो क्या मुझे कोई आशीष नहीं मिलेगा?” इतना सोचकर, मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मेरे दिल पर कोई भारी पत्थर रखा है। कई दिनों तक, मैं अपना काम तो कर रही थी, लेकिन मेरे अंदर कोई ऊर्जा नहीं थी। मैंने काम में अपनी कमियों को दूर करने के लिए प्रासंगिक सिद्धांतों का अध्ययन करने की योजना बनाई थी, लेकिन अब मैं ऐसा नहीं करना चाहती थी। मैंने सुसमाचार-प्रसारित करने वाले कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने का अपना काम भी एक तरफ रख दिया और उसमें उलझना नहीं चाहती थी। चूँकि मैंने कुछ विचलनों को तुरंत नहीं पलटा, इसलिए सुसमाचार का काम प्रभावित हुआ।
उन दिनों, मैं हमेशा आहें भरती रहती थी और बहुत निराश महसूस करती थी। मैंने परमेश्वर के प्रति धारणाएँ बना लीं, और सोचा कि भले ही मैं कड़ी मेहनत करूँ और खुद को खपा दूँ, जरूरी नहीं कि मुझे अच्छा परिणाम और गंतव्य मिले। हालाँकि यूँ तो मैं अपना काम कर ही रही थी, लेकिन मेरे हृदय में परमेश्वर और मेरे बीच एक दीवार बन गई थी। जब मैंने प्रार्थना की, तो मेरे मन में उससे कहने के लिए कुछ भी नहीं था। कुछ समय बाद, मैंने सुना कि वांग हाओ जल्दी ही ठीक हो गया और जल्द अपने काम पर लौट आएगा। यह समाचार पाकर, मैं बेहद खुश थी। मेरे दिल पर से एक भारी बोझ हट गया, और मेरी निराशा की भावना एक पल में गायब हो गई। यह देखकर कि परमेश्वर ने इस भाई की कैसे रक्षा की थी, मुझे एक बार फिर उस पर भरोसा हो गया। मैंने सोचा, “परमेश्वर अभी भी उन लोगों पर कृपा करता है और उन्हें आशीष देता है जो ईमानदारी से उसके लिए खुद को खपाते हैं। यह तथ्य वांग हाओ में देखा जा सकता है।” भविष्य में अच्छे गंतव्य की मेरी उम्मीद फिर से जाग गई, और मैं शांत और प्रसन्न हो गई और अपना कर्तव्य निभाते समय मुझमें ऊर्जा भर गई।
इसके बाद, मैंने खुद पर विचार किया, यह सोचते हुए कि इस दौरान मेरी स्थिति में इतना उतार-चढ़ाव क्यों आया है? मैंने परमेश्वर के कुछ वचनों के बारे में सोचा जो मैंने पहले पढ़े थे और मैंने उन्हें फिर से खोजकर पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “जब कुछ लोग किसी को कठिनाइयों का सामना करते देखते हैं तो वे तुरंत खुद को उस व्यक्ति के स्थान पर रखकर उसके बारे में सोचते हैं। जब भी वे किसी को किसी प्रकार की पीड़ा, बीमारी, क्लेश या विपत्ति का सामना करते देखते हैं तो वे तुरंत अपने बारे में सोचकर आशंकित होते हैं, ‘अगर मेरे साथ ऐसा होता तो मैं क्या करता? इससे पता चलता है कि विश्वासी अभी भी इन चीजों का सामना कर सकते हैं और ऐसी पीड़ा झेल सकते हैं। तो वास्तव में परमेश्वर कैसा परमेश्वर है? यदि परमेश्वर उस शख्स की भावनाओं के प्रति इतनी ही बेरुखी दिखाता है तो क्या वह मेरे साथ भी वैसा ही व्यवहार करेगा? इससे पता चलता है कि परमेश्वर विश्वसनीय नहीं है। किसी भी जगह और किसी भी समय वह लोगों के लिए एक अनपेक्षित माहौल बनाता है और उन्हें लगातार शर्मनाक स्थितियों में और किसी भी परिस्थिति में डाल सकता है।’ वे डरते हैं कि यदि वे विश्वास के मार्ग से हटे तो आशीष से वंचित रहेंगे, यदि विश्वास करना जारी रखते हैं तो आपदा का सामना करना पड़ेगा। इस वजह से परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करते हुए लोग बस यही कहते हैं, ‘परमेश्वर, मैं तुमसे आशीष देने की विनती करता हूँ’ और यह कहने की हिम्मत नहीं करते, ‘परमेश्वर, मेरी परीक्षा लो, मुझे अनुशासित करो और जैसा तुम चाहो वैसा करो, मैं इसे स्वीकार करने को तैयार हूँ’—वे इस तरह प्रार्थना करने का साहस नहीं करते। कुछ बाधाओं और विफलताओं का अनुभव करने के बाद लोगों का संकल्प और साहस कम हो जाता है, उनमें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव, उसकी ताड़ना और न्याय और उसकी संप्रभुता की अलग ‘समझ’ होती है और वे परमेश्वर को लेकर सावधान भी हो जाते हैं। इस तरह लोगों और परमेश्वर के बीच एक दीवार खड़ी हो जाती है, एक अलगाव बन जाता है। क्या लोगों में ये मनोदशाएँ होना सही है? (नहीं।) तो क्या ये मनोदशाएँ तुम लोगों के भीतर विकसित होती हैं? क्या तुम इन मनोदशाओं में रहते हो? (हाँ।) ऐसी समस्याओं को कैसे हल किया जाना चाहिए? क्या सत्य न खोजना ठीक है? यदि तुम सत्य नहीं समझते और विश्वास नहीं करते तो तुम्हारे लिए अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना कठिन होगा, और जब भी विपत्तियों और आपदाओं से तुम्हारा सामना होगा, चाहे वे प्राकृतिक हों या मानव निर्मित, तुम गिर जाओगे” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11))। “परमेश्वर में विश्वास रखने वाला हर व्यक्ति केवल परमेश्वर के अनुग्रह, आशीष और वादों को स्वीकारने के लिए तैयार है, और केवल उसकी दया और करुणा को स्वीकारना चाहता है। कोई भी परमेश्वर की ताड़ना और न्याय, उसके परीक्षण और शोधन या उसके द्वारा वंचित किए जाने को स्वीकारने की प्रतीक्षा या तैयारी नहीं करता है; एक भी व्यक्ति परमेश्वर के न्याय और ताड़ना, उसके द्वारा वंचित किए जाने या उसके शाप को स्वीकारने के लिए तैयारी नहीं करता है। लोगों और परमेश्वर के बीच यह रिश्ता सामान्य है या असामान्य? (असामान्य।) तुम इसे असामान्य क्यों कहते हो? इसमें कहाँ कमी रह जाती है? इसमें कमी यह है कि लोगों के पास सत्य नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के पास बहुत सारी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, वे लगातार परमेश्वर को गलत समझते हैं और सत्य खोजकर इन चीजों को ठीक नहीं करते हैं—इससे समस्याएँ उत्पन्न होने की संभावना सबसे अधिक होती है। विशेष रूप से, लोग केवल आशीष पाने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास करते हैं। वे परमेश्वर के साथ बस सौदा करना चाहते हैं, उससे चीजों की मांग करते हैं, पर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। यह बहुत ही खतरनाक है। जैसे ही उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो उनकी धारणाओं के विपरीत है तो उनमें तुरंत परमेश्वर को लेकर धारणाएं, शिकायतें और गलतफहमियां विकसित हो जाती हैं और वे उसे धोखा देने की हद तक भी जा सकते हैं। क्या इसके परिणाम गंभीर होते हैं? ज्यादातर लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हुए किस मार्ग पर चलते हैं? भले ही तुम लोगों ने बहुत सारे उपदेश सुने होंगे और महसूस किया होगा कि तुम बहुत-से सत्यों को समझ गए हो, पर सच तो यह है कि तुम लोग अभी भी केवल भरपेट रोटियाँ खाने के लिए परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चल रहे हो। यदि तुम्हारा मन पहले से ही न्याय और ताड़ना, परीक्षणों और शोधन को स्वीकारने के लिए तैयार है और तुमने मानसिक रूप से खुद को आपदा झेलने के लिए भी तैयार कर लिया है, और यदि तुमने परमेश्वर के लिए खुद को कितना ही खपाया हो और अपना कर्तव्य निभाने में कितने ही त्याग किए हो, तुम्हें वास्तव में अय्यूब जैसे परीक्षणों का सामना करना पड़ा हो, और परमेश्वर ने तुमसे तुम्हारी सारी संपत्ति छीन ली हो, यहाँ तक कि तुम्हारा जीवन खत्म होने के कगार पर हो, तब तुम क्या करोगे? तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं से कैसे निपटना चाहिए? तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? परमेश्वर ने तुम्हें जो भी काम सौंपा है, उससे तुम कैसे निपटोगे? क्या तुम्हारे पास सही समझ और सही दृष्टिकोण है? इन प्रश्नों का उत्तर देना आसान है या नहीं? यह तुम लोगों के सामने खड़ी की गई एक बड़ी बाधा है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11))। परमेश्वर के वचनों में मेरी वास्तविक स्थिति के बारे में बताया गया था। वांग हाओ ने कई वर्षों तक सब कुछ त्यागकर परमेश्वर के लिए खुद को खपा दिया था और उसे अपने कर्तव्य को लेकर एक जिम्मेदारी का भी एहसास था, लेकिन अब उसे इतनी बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़ा और वह मृत्यु के कगार पर था; यह देखकर, मैंने तुरंत अपने बारे में सोचा। मैंने भी वर्षों तक खुद को त्यागा और खपाया था, और अगर परमेश्वर में मेरी आस्था के कारण मेरा भी वांग हाओ जैसा हाल हुआ, आशीष पाने के बजाय आपदा का सामना करना पड़ा, तो फिर मैं क्या करूँगी? अपने हृदय में, मैंने परमेश्वर के खिलाफ शिकायत की, यह सोचते हुए कि, “परमेश्वर उन लोगों को पुरस्कृत क्यों नहीं करता जो स्वयं को त्यागते और खपाते हैं, ऐसा न करके, वह उन पर निर्दयतापूर्वक आपदा क्यों लाता है?” जिस जुनून के साथ मैंने पहले परमेश्वर के लिए खुद को खपाया था, वह एक पल में गायब हो गया। मैं अपने काम में अपने विचलन और कमियों को दूर करने के लिए सत्य की खोज नहीं करना चाहती थी, और मैंने लोगों को शिक्षित करने के अपने काम की परवाह नहीं की। मैंने अपने हृदय में परमेश्वर का विरोध किया और उसे नाराज किया। जब वांग हाओ पर विपत्ति आई तो मैंने परमेश्वर को दोष दिया क्योंकि जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया, तब से मैं आशीष और अनुग्रह पाने के लिए ही ऐसा कर रही थी। अब, जब मैंने देखा कि वांग हाओ ने खुद को त्यागने और खपाने के बाद भी इन चीजों को प्राप्त करने के बजाय विपत्ति का सामना किया, तो तुरंत ही मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी। मैंने परमेश्वर से दूरी बना ली और उसके खिलाफ हो गई, उसका विरोध किया और उसे नाराज किया। मेरा परमेश्वर में विश्वास वैसा ही था जैसा धर्म में लोगों का होता है; मेरा विश्वास रोटी तलाशने और भूख मिटाने तक सीमित था, न कि सत्य की खोज करने, एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने, या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए। मुझमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था या समर्पण भी नहीं था, और मैं स्वेच्छा से अपना सब कुछ परमेश्वर के हाथों में नहीं सौंप सकी और न ही उसे आयोजन और व्यवस्था करने दी। वांग हाओ ने इन परिस्थितियों का सामना करते हुए आशीष पाने के मेरे इरादों और मेरी खोज में गलत विचारों को उजागर कर दिया। अगर मैंने इन समस्याओं का समाधान नहीं किया, अगर मुझे किसी दिन कोई विपत्ति झेलनी पड़ी और मुझे मौत का सामना करना पड़ा, तो मैं शिकायत करूँगी और परमेश्वर का विरोध और अपमान करने वाले काम करूँगी। अगर मैंने यह अक्षम्य हद तक किया, तो मुझे सज़ा मिलनी चाहिए। यह सोचकर, मैं थोड़ी डर गई। मैं जल्दी से जल्दी सत्य खोजकर अपनी समस्याओं का समाधान करना चाहती थी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “तुम्हें लगता है कि तुम अलग हो, परमेश्वर तुम पर विशेष अनुग्रह करता है और अगर परमेश्वर किसी को निकालेगा या त्यागेगा, तो वह तुम नहीं होगे। क्या ये विचार सही हैं? (नहीं।) ये सही क्यों नहीं हैं? (इस तरह से सोचना सामान्य नहीं है।) क्या ये शब्द परमेश्वर के बारे में वास्तविक ज्ञान दर्शाते हैं? या फिर क्या यह बहुत अधिक व्यक्तिपरक और काल्पनिक होना है? क्या ऐसे विचार रखने वाले लोग सत्य का अनुसरण करने वालों में से हैं? (नहीं।) तो क्या वे सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं? (नहीं।) क्या वे परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन और यहाँ तक कि उसके शाप स्वीकारने के लिए तैयार हैं? (नहीं।) जब उन लोगों को परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन का सामना करना होगा तो वे क्या करेंगे? क्या उनके मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ या शिकायतें विकसित होंगी? क्या वे इन चीजों को परमेश्वर से स्वीकार कर सच्चा समर्पण कर सकते हैं? (नहीं।) कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि इसे हासिल करना मुश्किल होगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे केवल अनुग्रह पाने या भरपेट रोटियाँ खाने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर में क्रोध और प्रताप भी है और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज नहीं किया जा सकता। परमेश्वर सभी के साथ उचित व्यवहार करता है, और जब किसी सृजित प्राणी की बात आती है, तो परमेश्वर के स्वभाव में करुणा और प्रेम के साथ-साथ प्रताप और क्रोध भी होता है। हरेक व्यक्ति के साथ परमेश्वर के व्यवहार में उसके धार्मिक स्वभाव की करुणा, प्रेम, प्रताप और क्रोध बदलता नहीं है। परमेश्वर कभी भी केवल गिने-चुने लोगों पर दया और प्रेम और केवल दूसरों पर प्रताप और क्रोध नहीं दिखाएगा। परमेश्वर ऐसा कभी नहीं करेगा क्योंकि वह धार्मिक परमेश्वर है और सबके साथ निष्पक्ष रहता है। परमेश्वर की करुणा, प्रेम, प्रताप और क्रोध सभी के लिए है। परमेश्वर लोगों को अनुग्रह और आशीष दे सकता है और उनकी सुरक्षा कर सकता है। साथ ही साथ, परमेश्वर लोगों का न्याय करके और उन्हें ताड़ना और शाप देकर उनसे वो सब कुछ छीन भी सकता है जो उसने उन्हें दिया है। परमेश्वर लोगों को बहुत कुछ देता है, पर वह उनसे सब कुछ छीन भी सकता है। यह परमेश्वर का स्वभाव है और उसे सबके साथ यही करना चाहिए। इसलिए यदि तुम सोचते हो, ‘मैं परमेश्वर की नजरों में खास हूँ, उसकी आँखों का तारा हूँ। वह मेरा न्याय करके मुझे ताड़ना बिल्कुल नहीं दे सकता और किसी हाल में मुझसे वह सब नहीं छीनेगा जो उसने मुझे दिया है, ऐसा हुआ तो मैं परेशान और व्यथित हो जाऊँगा’ तो क्या यह सोच गलत नहीं है? क्या यह परमेश्वर के बारे में धारणा नहीं है? (बिल्कुल है।) तो इन सत्यों को समझने से पहले, क्या तुम केवल परमेश्वर के अनुग्रह, करुणा और प्रेम का आनंद उठाने के बारे में नहीं सोचते रहते? इस वजह से तुम बार-बार यह भूल जाते हो कि परमेश्वर प्रतापी और क्रोधी भी है। भले ही तुम्हारे होठ कहते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है और जब वह तुम पर करुणा और प्रेम दिखाता है तो तुम उसका धन्यवाद और उसकी स्तुति करने में सक्षम हो, और जब परमेश्वर तुम्हारा न्याय करने और ताड़ना देने में तुम पर प्रताप और क्रोध दिखाता है तो तुम बहुत परेशान हो जाते हो। तुम सोचते हो, ‘काश ऐसा परमेश्वर होता ही नहीं। काश परमेश्वर ने मेरे साथ ये सब न किया होता, काश परमेश्वर मुझे निशाना न बनाता, काश परमेश्वर का इरादा ऐसा नहीं होता, काश ये सब दूसरों के साथ होता। क्योंकि मैं एक दयालु व्यक्ति हूँ, मैंने कुछ भी बुरा नहीं किया है और मैंने कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने की भारी कीमत चुकाई है इसलिए परमेश्वर को इतना निर्दयी नहीं होना चाहिए। मुझे परमेश्वर की करुणा और प्रेम के साथ-साथ उसके प्रचुर अनुग्रह और आशीष का आनंद लेने का हकदार और योग्य होना चाहिए। परमेश्वर मेरा न्याय नहीं करेगा या मुझे ताड़ना नहीं देगा, न ही उसके पास ऐसा करने वाला दिल है।’ क्या यह महज मनमानी और गलत सोच है? (हाँ।) यह किस तरह से गलत है? यहाँ गलत बात यह है कि तुम खुद को एक सृजित प्राणी, सृजित मानवता का सदस्य नहीं मानते। तुम गलती से खुद को सृजित मानवता से अलग करके एक विशेष समूह या अलग प्रकार का सृजित प्राणी मानते हो, खुद को एक विशेष दर्जा दे देते हो। क्या यह अहंकारी और दंभी होना नहीं है? क्या यह विवेकहीन होना नहीं है? क्या यह वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति है? (नहीं।) बिल्कुल नहीं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11))। मैंने आत्मचिंतन किया। मेरी धारणा थी कि परमेश्वर को उन लोगों पर दया और प्रेम दिखाना चाहिए जो वास्तव में उस पर विश्वास करते हैं और खुद को त्यागने और खपाने के लिए तैयार हैं, उसे ऐसे लोगों को अनुग्रह और आशीष से पुरस्कृत करना चाहिए। जहाँ तक दुष्ट लोगों, मसीह विरोधियों, छद्म-विश्वासियों और शैतानों की बात है, जिन्होंने उसका विरोध किया और उसके खिलाफ ईशनिंदा की, तो परमेश्वर को उनके साथ कठोर न्याय करना चाहिए, उन्हें शाप और कड़ी सजा देनी चाहिए। इसलिए, जब मैंने सुना कि वांग हाओ को किसी विपत्ति का सामना करना पड़ा है और उसका बचना अनिश्चित है, तो मेरे हृदय में धारणाएँ बन गईं और मैंने मान लिया कि परमेश्वर अधर्मी है और सोचा, “वांग हाओ ने कई वर्षों तक परमेश्वर के लिए खुद को त्यागा और खपाया है, उसने कलीसिया में हमेशा महत्वपूर्ण काम किए हैं और उसे अपनी जिम्मेदारी का एहसास है; परमेश्वर को ऐसे व्यक्ति को विपत्ति में नहीं डालना चाहिए।” मैं अकारण ही बहुत घमंडी थी! मैंने अय्यूब के बारे में सोचा, जो परमेश्वर की दृष्टि में पूर्ण था। परमेश्वर ने शैतान को अय्यूब को पीड़ित करने की अनुमति दी, और उसने सब कुछ खो दिया, उसका पूरा शरीर घावों से भर गया। लेकिन इस आपदा और दर्द के बावजूद, अय्यूब ने परमेश्वर में अपनी आस्था और समर्पण बनाए रखा। वह अपनी आस्था में दृढ़ था कि मनुष्य से संबंधित हर चीज परमेश्वर से आती है। परमेश्वर मनुष्य को पुरस्कृत कर सकता है और उसे वंचित भी कर सकता है; परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। भले ही अय्यूब के साथ जो हुआ वह मनुष्य की नजर में एक विपत्ति थी, लेकिन परमेश्वर ने इस आपदा के जरिए अय्यूब की आस्था और समर्पण को पूर्ण बनाकर अपनी धार्मिकता और बुद्धि का परिचय दिया। वांग हाओ का विपत्ति में पड़ना भी उसके और उसके परिवार के लिए एक परीक्षा थी। जब वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा था, तो उसके माता-पिता को भरोसा था कि यह आपदा परमेश्वर की इच्छा से ही आई है, उन्होंने बिना किसी शिकायत के उसकी संप्रभुता और व्यवस्था के आगे समर्पण कर दिया। लेकिन चोट लगने के 20 दिन से अधिक समय तक बेहोश रहने के बाद भी, तो वह चमत्कारिक ढंग से जाग उठा। मैंने देखा कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव वैसा नहीं है जैसा मैंने सोचा था, जो लोग उस पर ईमानदारी से विश्वास करते हैं, उनकी वह निरंतर रक्षा करता है और उन्हें कोई आपदा या पीड़ा नहीं होने देता है। परमेश्वर आपदाओं और परीक्षणों का उपयोग अपने प्रति लोगों की आस्था और समर्पण को पूर्ण बनाने के लिए करता है। वह इन चीजों का उपयोग लोगों को उसके अधिकार और संप्रभुता का अनुभव कराने और समझाने के लिए भी करता है। यह एक विशेष अनुग्रह और आशीष है जो परमेश्वर लोगों को देता है। लेकिन मैं अंधी थी और परमेश्वर के कार्य को नहीं समझती थी। मैंने तो यहाँ तक माँग की थी कि परमेश्वर वांग हाओ को विपत्ति में न डाले, वरना मैं शिकायत करूँगी कि वह अधर्मी है। वास्तव में मैं बहुत घमंडी और अज्ञानी थी। इस तरह की समझ के आधार पर, अगर मैं किसी आपदा से पीड़ित होती, तो मैं परमेश्वर के खिलाफ शिकायत करती, उसकी आलोचना करती, उसका विरोध करती, और उसके स्वभाव को नाराज करती। मुझे एहसास हुआ कि मेरी समस्या काफी गंभीर थी, और इसे हल करने के लिए मुझे सत्य की खोज करने की सख्त जरूरत थी।
बाद में, अपनी आध्यात्मिक भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों को स्वीकारने और समर्पण करने के रवैये से नहीं लेते हैं, तो जाहिर है कि वे परमेश्वर के वचनों में निहित इस अपेक्षा को सत्य स्वीकारने के रवैये से नहीं ले सकते कि मानवजाति सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य निभाए। ... तो फिर वे अपना कर्तव्य क्यों निभाते हैं? हर व्यक्ति के दिल में इसका लेखा-जोखा होना चाहिए, और इस लेखे-जोखे के अंदर कुछ विशेष कहानियाँ होनी चाहिए। तो, एक मसीह-विरोधी के दिल में यह रिकॉर्ड कैसा दिखता है? वे बहुत बढ़िया, स्पष्ट, सटीक और लगन से हिसाब लगाते हैं, इसलिए यह कोई भ्रमित लेखा-जोखा नहीं है। जब वे अपना कर्तव्य निभाने का फैसला करते हैं, तो पहले हिसाब लगाते हैं : ‘अगर मैं अभी अपना कर्तव्य निभाने जाऊँ, तो मुझे परिवार के साथ रहने के सुख को त्यागना होगा, और मुझे अपना करियर और अपनी सांसारिक संभावनाओं को छोड़ना होगा। अगर मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए इन चीजों को छोड़ दूँ तो मुझे क्या लाभ हो सकता है? परमेश्वर के वचन कहते हैं कि इस अंतिम युग में, जो लोग परमेश्वर से मिल सकते हैं, जो परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा सकते हैं, और जो अंत तक टिके रह सकते हैं, वे ही महान आशीष प्राप्त कर सकते हैं। अब जबकि परमेश्वर के वचन ऐसा कहते हैं तो मुझे लगता है कि परमेश्वर ऐसा कर सकता और इन वचनों के अनुसार इसे पूरा कर सकता है। इसके अलावा, जो लोग परमेश्वर के लिए अपना कर्तव्य निभा सकते हैं और खुद को खपा सकते हैं, परमेश्वर इन लोगों से बहुत सारे वादे करता है!’ मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करके, अपना कर्तव्य करने वाले लोगों से अंतिम युग में परमेश्वर द्वारा किए गए कई वादों की व्याख्या करते हैं, और उनकी व्यक्तिगत कल्पनाओं और इन वचनों के उनके अपने विश्लेषण और जाँच-पड़ताल से उपजी सभी धारणाओं के अतिरिक्त, उनकी यह व्याख्या उनमें अपना कर्तव्य करने के प्रति गहरी रुचि और आवेग पैदा करती है। फिर वे परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करने जाते हैं, जहाँ वे गंभीर प्रतिज्ञाएँ करते हैं और शपथ लेते हैं, परमेश्वर के लिए सब कुछ त्यागने और खुद को खपाने, इस जीवन को उसके लिए समर्पित करने और सभी दैहिक सुखों और संभावनाओं को त्यागने की अपनी इच्छा जाहिर करते हैं। भले ही वे इस तरह से प्रार्थना करते हैं और उनके सभी शब्द सही लगते हैं, मगर वे अपने अंतरतम में जो सोचते हैं वह केवल उन्हें और परमेश्वर को ही पता है। उनकी प्रार्थनाएँ और उनका संकल्प शुद्ध प्रतीत होता है, मानो वे केवल परमेश्वर के आदेश को पूरा करने, अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए ऐसा कर रहे हों, मगर अपने दिलों की गहराई में वे यही हिसाब लगाते हैं कि अपना कर्तव्य निभाकर आशीष और वाँछित चीजें कैसे पा सकते हैं, और वे ऐसा क्या कर सकते हैं जिससे कि परमेश्वर को वह सब दिखाई दे जो उन्होंने चुकाया है, और साथ ही जो कुछ उन्होंने चुकाया है और जो भी किया है उससे परमेश्वर बेहद प्रभावित हो, ताकि वह उनके द्वारा किए गए कामों को याद रखे और आखिरकार उन्हें वे संभावनाएँ और आशीष दे जो वे चाहते हैं। ... अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मसीह-विरोधियों का इरादा क्या है? यह सौदा और लेन-देन करने का इरादा है। यह कहा जा सकता है कि यही वे शर्तें हैं जो वे कर्तव्य करने के लिए निर्धारित करते हैं : ‘अगर मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तो मुझे आशीष मिलने चाहिए और एक अच्छी मंजिल मिलनी चाहिए। मुझे वे सभी आशीष और लाभ मिलने चाहिए जो परमेश्वर ने कहा है कि वे मानवजाति के लिए बनाए गए हैं। अगर मैं उन्हें नहीं पा सकता, तो मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा।’ वे ऐसे इरादों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। ऐसा लगता है कि उनमें थोड़ी ईमानदारी है, और बेशक जो नए विश्वासी हैं और अभी अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर रहे हैं, उनके लिए इसे उत्साह भी कहा जा सकता है। मगर इसमें कोई सच्ची आस्था या निष्ठा नहीं है; केवल उस स्तर का उत्साह है। इसे ईमानदारी नहीं कहा जा सकता। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मसीह-विरोधियों के इस रवैये को देखें तो यह पूरी तरह से लेन-देन वाला है और आशीष पाने, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, मुकुट पाने और इनाम पाने जैसे लाभों की उनकी इच्छाओं से भरा हुआ है।” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर ने उजागर किया कि चाहे मसीह-विरोधी कुछ भी करें, वे हमेशा इसे आशीष पाने और अपनी संभावनाओं और भाग्य से जोड़ते हैं। मेरी भी यही स्थिति थी। परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद, मैं खुद को थोड़ा सा त्यागने और खपाने में सक्षम थी क्योंकि मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि अंत के दिनों में, परमेश्वर लोगों को बचाएगा और उन्हें एक अच्छे गंतव्य पर ले जाएगा। मैंने सोचा कि मैं ऐसा अच्छा अवसर नहीं छोड़ सकती, और इसलिए मैंने सक्रिय रूप से अपना कर्तव्य निभाया, भविष्य के आशीष पाने के लिए अच्छे कर्मों की तैयारी की। बाद में, मेरे पति ने मुझे सताया और परमेश्वर में मेरे विश्वास के रास्ते में खड़ा हो गया। परमेश्वर और मेरी शादी और परिवार के बीच चुनते समय, मैंने सोचा, “अगर मैं परिवार चुनती हूँ, तो भले ही मैं एक आरामदायक जीवन का आनंद ले पाऊँगी, लेकिन भौतिक सुख अस्थायी हैं। जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं, वे उससे और भी अधिक आशीष पा सकते हैं। ये आशीष चिरस्थायी हैं, और अगर मैं यह मौका चूक गई, तो मैं उन्हें प्राप्त नहीं कर पाऊँगी।” इस पर विचार करने के बाद, अंत में, मैंने दृढ़ता से परमेश्वर का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने का फैसला किया। विशेष रूप से पिछले कुछ वर्षों में कोरोना वायरस के प्रकोप के दौरान, विपत्ति के बीच बड़ी संख्या में लोग मारे गए। जो लोग परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते थे और उसका विरोध करते थे, वे कभी भी भयानक विपत्ति से नष्ट हो सकते थे। इस बीच, मैं हर दिन अपने कर्तव्य को पूरा करने में व्यस्त थी, और कोरोना वायरस के व्यापक रूप से फैलने के बावजूद, मैं संक्रमित नहीं हुई। यह देखकर कि परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा था, मैं अपना कर्तव्य निभाते समय अधिक ऊर्जावान हो गई, और चाहे मैं कितनी ही थकी हुई क्यों न रही हूँ, मैं डटी रही। मैंने सोचा कि इतना करने का मतलब है कि मैं परमेश्वर के प्रति वफादार हूँ, और मुझे भविष्य में निश्चित रूप से उसका आशीष मिलेगा। लेकिन वांग हाओ की दुर्घटना मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं थी, और इसने मेरे इरादों को उजागर कर दिया। मेरा मानना था कि चूँकि वांग हाओ ने परमेश्वर के लिए खुद को त्यागा और खपाया, इसलिए परमेश्वर को उसे विपत्तियों में नहीं डालना चाहिए। अगर उसने डाला भी, तो परमेश्वर को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह सुरक्षित और स्वस्थ रहे, ताकि लोग देखें कि वह उन लोगों की रक्षा करेगा और आशीष देगा जो ईमानदारी से उसके लिए खुद को खपाते हैं। इस तरह, अगर मैं कई सालों तक खुद को त्यागूं और खपाऊँ, तो मुझे आशीष मिलने की गारंटी होगी। लेकिन कई दिन बीत गए, और मैंने सुना कि वांग हाओ अभी भी कोमा में है, मैं परमेश्वर से निराश होने लगी। परमेश्वर को दोष देने के अलावा, मैंने अपने हृदय में यह शिकायत भी की थी कि यह वांग हाओ के साथ ठीक नहीं हुआ। मुझे खुद को त्यागने और खपाने का पछतावा भी हुआ, और मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी। खुद को त्यागने और खपाने में, मैं एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी और दायित्व को पूरा नहीं कर रही थी, बल्कि अनुग्रह और आशीष पाने के लिए परमेश्वर के साथ मोल-भाव कर रही थी। मैंने सोचा कि कैसे पौलुस का खुद को त्यागना और खपाना पुरस्कार और मुकुट पाने के लिए था। इसीलिए, उसने अंततः स्वाभाविक रूप से कहा, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। मैंने देखा कि परमेश्वर में विश्वास करते समय मेरे विचार पौलुस के समान ही थे। मैं सत्य का अनुसरण करने, अपने कर्तव्य को पूरा करने या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए विश्वास नहीं कर रही थी। बल्कि, मैं परमेश्वर से आशीष की माँग करने के लिए खुद को त्यागने और खपाने का इस्तेमाल कर रही थी। यह स्वार्थ और मोल-भाव था। खुद को खपाने के इस तरीके में परमेश्वर के प्रति ईमानदारी और निष्ठा नहीं थी, बल्कि यह धोखा देने और उसका इस्तेमाल करने का एक तरीका था। मैं बहुत धोखेबाज और दुष्ट थी! अब, विपत्ति और भी बड़ी होती जा रही थी। अगर मैंने सत्य का सही तरीके से अनुसरण नहीं किया, अपनी गलत खोजों की दिशा नहीं बदली और अपने भ्रष्ट स्वभाव को नहीं सुधारा, तो भविष्य में जब मेरे सामने ऐसी चीजें आएंगी जो मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं होंगी, तो मैं परमेश्वर का विरोध करूँगी और उसके साथ विश्वासघात करूँगी, और अंततः, मैं केवल भयंकर विपत्ति के बीच खो जाऊँगी और सजा पाऊँगी।
बाद में, मैं अक्सर सोचती थी, मुझे कैसे अभ्यास करना चाहिए ताकि मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभा सकूँ? एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा जिसने मुझे प्रोत्साहन दिया। परमेश्वर कहते हैं : “इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई व्यक्ति क्या कर्तव्य निभाता है, यह सबसे उचित काम है जो वह कर सकता है, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर और सबसे न्यायपूर्ण काम है। सृजित प्राणियों के रूप में, लोगों को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और केवल तभी वे सृष्टिकर्ता की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में जीते हैं और वे वह सब, जो परमेश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है और हर वह चीज जो परमेश्वर से आती है, स्वीकार करते हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायोचित है, और यह परमेश्वर का आदेश है। इससे यह देखा जा सकता है कि लोगों के लिए सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना धरती पर रहते हुए किए गए किसी भी अन्य काम से कहीं अधिक उचित, सुंदर और भद्र होता है; मानवजाति के बीच कुछ भी इससे अधिक सार्थक या योग्य नहीं होता, और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की तुलना में अन्य कुछ भी किसी सृजित व्यक्ति के जीवन के लिए अधिक अर्थपूर्ण और मूल्यवान नहीं है। पृथ्वी पर, सच्चाई और ईमानदारी से सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने वाले लोगों का समूह ही सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करने वाला होता है। यह समूह सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण नहीं करता; वे परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन के प्रति समर्पण करते हैं, केवल सृष्टिकर्ता के वचन सुनते हैं, सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए सत्य स्वीकारते हैं, और सृष्टिकर्ता के वचनों के अनुसार जीते हैं। यह सबसे सच्ची, सबसे शानदार गवाही है, और यह परमेश्वर में विश्वास की सबसे अच्छी गवाही है। सृजित प्राणी के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने में सक्षम होना, सृष्टिकर्ता को संतुष्ट करने में सक्षम होना, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर चीज होती है, और यह कुछ ऐसा है जिसे एक कहानी के रूप में फैलाया जाना चाहिए ताकि सभी लोग इसकी प्रशंसा करें। सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता जो कुछ भी सौंपता है उसे बिना शर्त स्वीकार लेना चाहिए; मानवजाति के लिए यह खुशी और सौभाग्य दोनों की बात है, और उन सबके लिए, जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करते हैं, कुछ भी इससे अधिक सुंदर या स्मरणीय नहीं होता—यह एक सकारात्मक चीज़ है। ... एक सृजित प्राणी के रूप में, जब व्यक्ति सृष्टिकर्ता के सामने आता है, तो उसे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए। यही करना सबसे उचित है, और उसे यह जिम्मेदारी पूरी करनी ही चाहिए। इस आधार पर कि सृजित प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के बीच और भी बड़ा कार्य किया है, और उसने लोगों पर कार्य का एक और चरण पूरा किया है। और वह कौन-सा कार्य है? वह मानवजाति को सत्य प्रदान करता है, जिससे उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए परमेश्वर से सत्य हासिल करने, और इस प्रकार अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने और शुद्ध होने का अवसर मिलता है। इस प्रकार, वे परमेश्वर के इरादों को पूरा कर पाते हैं और जीवन में सही मार्ग अपना पाते हैं, और अंततः, वे परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने, पूर्ण उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं, और अब शैतान के दुखों के अधीन नहीं रहते हैं। यही वह प्रभाव है जो परमेश्वर चाहता है कि अपने कर्तव्य का निर्वहन करके मानवजाति अंततः प्राप्त करे” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करते हुए, मुझे एक सृजित प्राणी के कर्तव्य और जिम्मेदारी के बारे में थोड़ी समझ मिली। ऐसे युग में जब पूरी मानवता सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागते हुए सुख तलाश कर रही है, मुझे परमेश्वर की वाणी सुनने, उसके वचनों के सिंचन और प्रावधान को स्वीकारने, और कई सत्यों को समझने का मौका मिला है जो मैं पहले नहीं समझ पाई थी, यह मुझ पर परमेश्वर का अनुग्रह और विशेष कृपा है। सृष्टिकर्ता के सामने अपना कर्तव्य निभाना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है, ठीक वैसे ही जैसे एक बच्चे के लिए अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाना होता है। मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं अनुसार अपनी जिम्मेदारी निभा सकती हूँ जिसे परमेश्वर स्वीकार करता है और यह बहुत ही सार्थक बात है। जैसे नूह ने परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार जहाज बनाया, जो कि परमेश्वर के इरादे के प्रति विचारशील होना और उसका आदेश पूरा करना था और यह सुनिश्चित करना था कि उसका कार्य सुचारू रूप से चल सके। लेकिन मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी। मैंने आशीष पाने की अपनी इच्छा को अपने सिर पर हावी होने दिया, मैं चाहती थी कि एक बार जब मैं त्याग करूँ और खुद को थोड़ा सा खपाऊँ, तो परमेश्वर से सौदेबाजी करूँ, और जो मैंने किया है उसके बदले में स्वर्ग से एक अच्छा गंतव्य और पुरस्कार पाऊँ। खुद को खपाने का यह तरीका स्वार्थ और लेन-देन से भरा था, और परमेश्वर के लिए यह घृणित और निंदनीय है। अगर मैं अंत तक इसी तरह विश्वास करती रही, तो मेरे लिए परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष पाने का कोई तरीका नहीं है। इस बात का एहसास होने पर, मुझे पछतावा हुआ और मैंने खुद को फटकारा। मुझे इस तरह की खोज करने के लिए खुद से नफरत और घृणा भी हुई। मैं केवल एक सृजित प्राणी थी, और मुझे खुद को खपाना चाहिए था; यह मेरी जिम्मेदारी थी। मैं किस तरह से परमेश्वर से आशीष और पुरस्कार मांगने के योग्य थी? तब से, मैं सत्य का उचित तरीके से अनुसरण करने के लिए तैयार थी, और अपने कर्तव्य के निष्पादन में स्वभावगत परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए भी। चाहे मुझे आशीष मिले या दुर्भाग्य का सामना करना पड़े, मैं सब कुछ परमेश्वर के हाथों में सौंप दूँगी, उसके आयोजन और व्यवस्थाओं पर भरोसा करूँगी, और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य पूरा करूँगी। यही जीवन जीने का आधार और मूल्य है। यह समझने के बाद, मैं अपने भविष्य के परिणाम और गंतव्य के बारे में अब और चिंतित या आशंकित नहीं थी। मेरा हृदय बहुत हल्का और बहुत अधिक मुक्त महसूस कर रहा था।
पहले, मैं हमेशा किसी विपत्ति और परीक्षण और क्लेश से डरती थी। मुझे लगता था कि यह एक बुरी बात है। अब, मैं समझ गई कि अगर कोई व्यक्ति आपदा से पीड़ित होने पर परमेश्वर में सच्चा विश्वास और समर्पण रख सकता है और परमेश्वर के सामने अपनी वफादारी और गवाही को मजबूती से बनाए रख सकता है, तो यह उसे पूर्ण करेगा और आपदा के माध्यम से उसे आशीष देगा। यह ठीक वैसा ही है जैसे अय्यूब ने परीक्षणों और आपदाओं के बीच, परमेश्वर में अपने विश्वास और समर्पण को बनाए रखा, जिससे उसे परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष प्राप्त हुआ। न केवल सभी भौतिक चीजें दोगुनी हो गईं, परमेश्वर ने खुद को अय्यूब के सामने प्रकट किया, जिससे अय्यूब को परमेश्वर को देखने का सौभाग्य मिला। यूँ देखने में ऐसा लगता है कि मानो अय्यूब ने उस समय एक आपदा, एक भयंकर अभाव झेला, लेकिन वास्तव में, यह परमेश्वर का आशीष था। लेकिन अय्यूब की पत्नी अलग थी। जब अय्यूब ने विपत्ति और परीक्षणों का सामना किया, तो उसने उसे परमेश्वर को अस्वीकारने और नकारने के लिए कहा, और वह अपमान का प्रतीक बन गई। इससे, यह देखा जा सकता है कि जब आपदा का सामना करना पड़ता है, तो जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, वे पूर्ण हो जाते हैं, जबकि जो लोग सत्य का अनुसरण न करके, केवल आशीष प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें उजागर कर उनकी निंदा की जाती है और निकाल दिया जाता है। कुछ लोगों का इरादा केवल आशीष पाना होता है; दिखाने के लिए तो वे थोड़ा सा त्यागकर खुद को खपा सकते हैं और परमेश्वर के घर में कोई महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं, लेकिन जब उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा गिरफ्तार किया जाता और सताया जाता है और उनके जीवन और हितों को खतरा पैदा होता है, तो वे परमेश्वर को अस्वीकारते और धोखा देते हैं और यहूदा बन जाते हैं, और अपने बचने का मौका पूरी तरह से गँवा देते हैं। इस बीच, अन्य भाई-बहन भी कम्युनिस्ट पार्टी की गिरफ्तारियों और यातनाओं को झेलते हैं, और फिर भी परमेश्वर में अपनी आस्था और समर्पण बनाए रखते हैं। वे यहूदा बनने और उसे धोखा देने से पहले अपनी जान देने की प्रतिज्ञा करते हैं। ऐसे लोगों के पास गवाही होती है और उन्हें आपदा के जरिए आशीष प्राप्त होता है। यह समझने के बाद, जब भी मेरे कर्तव्य का प्रदर्शन मेरी संभावनाओं और गंतव्य से संबंधित होता है, मैं सजग रहकर आशीष पाने के अपने इरादे का त्याग कर देती हूँ और केवल एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करना चाहती हूँ और परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहती हूँ। वांग हाओ ने जो कष्ट झेला था, उसने मुझे उजागर कर दिया, लेकिन यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार और सुरक्षा भी थी। इसने मुझे सत्य के इस पहलू से पहले से ही युक्त होने का मौका दिया ताकि परीक्षणों का सामना करने पर मैं असफल न होऊँ और गिर न जाऊँ। मैंने देखा कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का उद्धार कितना व्यावहारिक है। अब, मुझे इन वर्षों के दौरान अपने कर्तव्य को निभाने में अपने इरादों और अशुद्धियों की कुछ समझ है। मैं यह भी समझती हूँ कि सत्य का अनुसरण करना और उसे प्राप्त करना किसी भी अनुग्रह से अधिक मूल्यवान है। फिलहाल, मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मैं सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करूँ और अपने कर्तव्य के निर्वहन में अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदलूँ। जहाँ तक इस बात का सवाल है कि क्या मैं अंत में आशीष पा सकती हूँ, तो यह परमेश्वर को तय करना है।
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