सुसमाचार फैलाने का मेरा कर्तव्य अडिग है

16 जुलाई, 2024

मैं आठ भाई-बहनों के साथ एक गाँव में पली-बढ़ी। माँ की सेहत खराब थी और वो काम नहीं कर पाती थी, जबकि पिताजी न तो घर का ख्याल रखते और न ही पैसे कमाते थे। हम बस खेती-बारी करके ही अपनी आजीविका चलाते थे। माँ-बाप के पास कोई कौशल न होने के कारण सभी उन पर हँसते थे, हमारे रिश्तेदार भी हमें नीची नजर से देखते थे और उन्होंने हमसे सारे संबंध तोड़ दिए। समय के साथ, मुझे लगा कि इस परिवार की सदस्य होने के नाते मेरा सामाजिक दर्जा छोटा था और मैं निचले तबके की इंसान थी। आम तौर पर बाहर जाकर भी मैं किसी से बात करने की हिम्मत नहीं करती थी। शादी के बाद, मेरे पति भी एक साधारण मजदूर थे—उनके सभी साथी उनसे ज्यादा कामयाब थे, और वो हमें देखते ही मुँह फेर लेते थे; कभी-कभी वो हमारा मजाक उड़ाते या हमें फटकारते भी थे। यह सब मुझे बहुत बुरा लगता, मैं खुद को छोटा समझती थी। परमेश्वर में विश्वास करने और उसके वचन पढ़ने के बाद ही—मुझे अपने गलत दृष्टिकोण का एहसास हुआ और मेरे दिल को सुकून मिला।

2021 में, मैंने सुसमाचार फैलाना शुरू किया। बाद में, मैं कुछ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं से मिली जो या तो मालिक थे या काडर : उन सबके पास कोई-न-कोई रुतबा और हैसियत थी। मुझे बेबसी महसूस हुई, सोचा कि मेरे परिवार की स्थितियाँ खराब हैं, मेरे पास न तो कोई ज्ञान है न ही रुतबा, मैं तो इन ऊँचे रुतबे और हैसियत वाले लोगों से बात करने लायक भी नहीं थी। मगर मैंने देखा कि यह मेरा कर्तव्य है, जिससे मैं भाग नहीं सकती, तो मैंने समर्पण की भावना के साथ परमेश्वर से प्रार्थना की।

एक बार, मैं किसी मालकिन को सुसमाचार सुनाने की तैयारी कर रही थी। जब उसे पता चला कि मैं एक मजदूर हूँ, तो उसने सीधे इनकार कर दिया, कहा, “उसे यहाँ मत आने देना—मैं सिर्फ रुतबे और प्रतिष्ठा वाले लोगों से मिलती हूँ।” ये बातें सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा, मैंने सोचा, “मेरा रुतबा और हैसियत छोटी है; मैं किसी संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता से मिलने लायक भी नहीं हूँ। मैं सुसमाचार कैसे फैलाऊँगी? अगर मेरे पास थोड़ा रुतबा और हैसियत होती, और मेरे परिवार की पृष्ठभूमि बेहतर होती, तो शायद दूसरे मुझे इस तरह नीची नजरों से नहीं देखते।” मन में यह विचार आने पर, मैं उसे सुसमाचार नहीं सुनाना चाहती थी। मैं जहाँ रहती थी वहीं वापस चली जाना चाहती थी। वहाँ बहुत सारे लोग बाहरी मजदूर थे, और उनका रुतबा और हैसियत लगभग मेरे बराबर ही थी—वो मुझे नीची नजरों से नहीं देखते। मैंने अगुआ को बताया कि यहाँ सुसमाचार फैलाना मुश्किल है, यहाँ के लोगों के पास पैसा और प्रभाव था, जबकि मैं बस एक बाहरी मजदूर थी, मेरे लिए उनसे बातचीत करना मुश्किल था, और फिर महामारी गंभीर होने के कारण मेरे पास सहयोग का कोई तरीका भी नहीं था। अगुआ मुझसे सहमत थी। वापस आने के बाद, मैंने कोई आत्म-चिंतन नहीं किया, तो मसला सुलझ ही नहीं पाया।

2022 की गर्मियों में, जिस व्यक्ति को हटा दिया गया था, उसने मुझे किसी धार्मिक संप्रदाय के एक संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता से मिलाया। जब मैं उस व्यक्ति से मिली जिसे हटा दिया गया था, उसे मैं अपरिष्कृत लगी, मेरे सीधे-सादे कपड़े देखकर उसने मुझसे पूछा, “क्या तुम सुसमाचार फैला सकती हो? क्या तुम्हें बाइबल समझ आती है?” तब मैं उसकी बातों का मतलब नहीं समझ पाई थी, तो मैंने उसे सच-सच बता दिया, “मैंने धार्मिक लोगों के बीच सुसमाचार फैलाया है, और थोड़ा-बहुत बाइबल समझती हूँ।” उसने आगे कहा, “मैं तुम्हें छोटा नहीं समझती; संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता ऐसा सोचते हैं—उसका परिवार संपन्न है, उसका रुतबा और हैसियत भी ऊँची है!” तब यह बात मेरे दिल पर लगी, मैंने सोचा, “मैंने सही और अच्छे कपड़े पहने हैं; बस महँगे कपड़े नहीं पहने हैं, तो वो मुझे छोटा समझती है। अगर संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता ऐसी है, तो वो जरूर मुझे नीची नजर से देखेगी। मेरा रुतबा और हैसियत उसकी बराबरी नहीं कर सकता, उसे सुसमाचार सुनाना मुश्किल होगा!” मैंने सोचा कि अगर मेरी पृष्ठभूमि अच्छी होती, मेरा रुतबा और हैसियत थोड़ी ऊँची होती, और मेरे पास भी पैसा और प्रभाव होता, तो सुसमाचार फैलाना इतना मुश्किल नहीं होता। मैं काफी निराश महसूस कर रही थी, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मेरा मार्गदर्शन करने को कहा ताकि मैं सबक सीख सकूँ। अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “सुसमाचार फैलाते समय व्यक्ति अक्सर ऐसे उपहास, ताने, तिरस्कार, और बदनामी का सामना करता है, या यहाँ तक कि कुछ लोग खुद को खतरनाक स्थितियों में भी पा सकते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ भाई-बहनों की दुष्ट लोगों द्वारा निंदा की जाती है या उनका अपहरण कर लिया जाता है, और कुछ के लिए पुलिस बुला ली जाती है जिन्हें सरकार को सौंप दिया जाता है। कुछ को गिरफ्तार कर जेल भेजा जा सकता है, जबकि अन्य को पीट-पीटकर मार भी डाला जा सकता है। ये सब चीजें होती हैं। लेकिन अब जबकि हम इन चीजों के बारे में जानते हैं, तो क्या हमें सुसमाचार फैलाने के कार्य के प्रति अपना रवैया बदल देना चाहिए? (नहीं।) सुसमाचार फैलाना हर किसी की जिम्मेदारी और दायित्व है। किसी भी समय, चाहे हम जो कुछ भी सुनें या जो कुछ भी देखें, या चाहे जिस भी प्रकार के व्यवहार का सामना करें, हमें सुसमाचार फैलाने का यह दायित्व हमेशा निभाना चाहिए। नकारात्मकता या दुर्बलता के कारण किसी भी परिस्थिति में हम इस कर्तव्य को तिलांजलि नहीं दे सकते। सुसमाचार फैलाने के कर्तव्य का निर्वहन सुचारु और आसान नहीं होता, अपितु खतरों से भरा होता है। जब तुम लोग सुसमाचार का प्रसार करोगे, तब तुम्हारा सामना देवदूतों या दूसरे ग्रहों के प्राणियों या रोबोटों से नहीं होगा। तुम लोगों का सामना केवल दुष्ट और भ्रष्ट मनुष्यों, जीवित दानवों, जानवरों से होगा—वे सब मनुष्य हैं जो इस बुरे स्थान पर, इस बुरे संसार में रहते हैं, जिन्हें शैतान ने गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है, और जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। इसलिए सुसमाचार के प्रसार की प्रक्रिया में निश्चित रूप से सभी प्रकार के खतरे हैं, क्षुद्र लांछनों, उपहासों और गलतफहमियों की तो बात छोड़ ही दें, जो सामान्य घटनाएँ हैं। यदि तुम सुसमाचार फैलाने को सचमुच अपनी जिम्मेदारी, उत्तरदायित्व और कर्तव्य मानते हो, तो तुम इन चीजों पर सही ढंग से ध्यान दे पाओगे और इन्हें सही ढंग से सँभाल भी पाओगे। तुम अपनी जिम्मेदारी और अपने दायित्व को तिलांजलि नहीं दोगे, और न ही इन चीजों के कारण तुम सुसमाचार फैलाने और परमेश्वर की गवाही देने के अपने मूल मंतव्य से भटकोगे, और तुम कभी इस जिम्मेदारी को अलग नहीं रखोगे, क्योंकि यह तुम्हारा कर्तव्य है। इस कर्तव्य को कैसे समझना चाहिए? यह मानव-जीवन का मूल्य और मुख्य दायित्व है। अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य का शुभ समाचार और परमेश्वर के कार्य का सुसमाचार फैलाना मानव-जीवन का मूल्य है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)परमेश्वर के वचन हमें बताते हैं कि सुसमाचार फैलाने की प्रक्रिया में, मजाक बनाया जाना, हँसी उड़ाया जाना, तिरस्कृत और अपमानित होना सामान्य बात है, क्योंकि सुसमाचार फैलाते समय हम जिनका सामना करते हैं वे सभी शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य हैं। मगर हमारे सामने चाहे जैसी भी परिस्थितियाँ या कठिनाइयाँ आएँ, हमें सुसमाचार फैलाने की अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। पहले, जब मुझे पता चला था कि संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता मुझसे मिलना नहीं चाहती थी, तो लगा था कि मैं रुतबे और हैसियत में उसके बराबर नहीं हूँ, वो मुझे छोटा समझेगी और शर्मिंदा करेगी, बेहतर होगा कि मैं उसके साथ सुसमाचार फैलाऊँ ही नहीं, इससे मैं अपमान से बच जाऊँगी। इस बार भी यही हुआ। मेरे कपड़े साधारण थे, कोई रुतबा या हैसियत नहीं थी; तो दूसरों ने मुझे नीची नजर से देखा, मुझे लगा अगर मैंने संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता को सुसमाचार सुनाया, तो वो मुझे नीची नजर से देखेगी और मेरा अपमान करेगी। तो मैं पीछे हटने लगी, मुझे डर था कि इससे मेरे नाम और गरिमा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा—मैंने इसका दोष अपनी खराब पृष्ठभूमि को दिया। मैं समझ नहीं पाई कि ये सब बकवास है, प्रतिष्ठा और रुतबा पाने की मेरी चाह ही समस्या की असली जड़ थी। मैंने उन भाई-बहनों के बारे में सोचा जिन्हें सुसमाचार फैलाने के कारण शैतानी सत्ता ने गिरफ्तार करके सताया था। उन्होंने बहुत कष्ट सहे, और कुछ तो मरते-मरते बचे, पर वे परमेश्वर पर भरोसा करके अपनी गवाही में अडिग रह पाए। जेल से छूटने के बाद भी उन्होंने सुसमाचार फैलाया और परमेश्वर के लिए गवाही दी। उनकी तुलना में, मेरी कठिनाइयाँ कुछ भी नहीं थीं। थोड़े से अपमान के बाद ही मैंने सुसमाचार फैलाने की इच्छा खो दी। मुझे समझ आया कि मैं ईमानदारी से अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी—मेरे पास कोई गवाही नहीं थी। परमेश्वर ने अंत के दिनों में अपने कार्य के दौरान लाखों वचन व्यक्त किए हैं, ताकि उन्हें बचाया जा सके जो ईमानदारी से उसमें विश्वास करते हैं और उसके प्रकटन को खोजते हैं। सृजित प्राणी होने के नाते, मुझे परमेश्वर के इरादे का ख्याल रखना चाहिए, सुसमाचार फैलाकर उसकी गवाही देनी चाहिए, परमेश्वर की वाणी सुनने और उसका प्रकटन देखने में लोगों की मदद करनी चाहिए। यही सबसे उचित है, यही मेरा मकसद और जिम्मेदारी भी है। भले ही इस दौरान हमें कुछ कठिनाइयाँ सहनी पड़े और शर्मिंदा होना पड़े, ये सब मूल्यवान और सार्थक है। परमेश्वर का इरादा समझने के बाद, अब मैं भागना या पीछे हटना नहीं चाहती थी। संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता चाहे मुझे कितना भी छोटा समझे या मुझे कितना भी शर्मिंदा करे, मुझे अपने नाम की परवाह न करके अपना कर्तव्य निभाना होगा। मुझे यह भी एहसास हुआ कि जब से शैतान ने मनुष्य को भ्रष्ट किया है, लोग बस दूसरों का बाहरी स्वरूप ही देखते हैं, कि क्या उनके पास रुतबा और हैसियत है : अगर है, तो लोग उन्हें बड़ा समझते हैं और उनका आदर करते हैं, अगर उनके पास रुतबा, हैसियत, पैसा और प्रभाव नहीं है, तो उन्हें नीची नजर से देखा जाता है। ये सब शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने का नतीजा है। जिसे हटाया गया था उसने और संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता ने मेरे रुतबे और हैसियत के कारण मुझे छोटा समझा—यह सामान्य बात थी। इसका एहसास होने पर मेरी दशा में कुछ बदलाव आया। बाद में मैंने उस महिला से दोबारा संपर्क किया जिसे हटा दिया गया था और वह सहयोग करने को तैयार थी। उससे बात करने पर मुझे पता चला कि उसकी समझ बहुत बेतुकी थी, वह बस अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से चिपकी रहती थी। हमने बात वहीँ छोड़ दी। मगर इन परिस्थितियों से मैंने अपने बारे में कुछ सीखा—यह परमेश्वर का प्रेम है।

फिर मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे अपनी दशा के बारे में थोड़ी जानकारी मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “तुम्हारी पहचान या हैसियत चाहे जो हो, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित है। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो भी परिवार या पारिवारिक पृष्ठभूमि पूर्व-निर्धारित की हो, उससे तुम्हें विरासत में जो पहचान मिलती है, वह न शर्मनाक है, न ही सम्माननीय। तुम अपनी पहचान से कैसे पेश आते हो, उसका सिद्धांत सम्मान और शर्मिंदगी के सिद्धांत पर आधारित नहीं होना चाहिए। परमेश्वर तुम्हें चाहे जैसे परिवार में डाल दे, वह तुम्हें चाहे जैसे भी परिवार से आने दे, परमेश्वर के समक्ष तुम्हारी बस एक ही पहचान है, और वह है एक सृजित प्राणी की। परमेश्वर के समक्ष तुम एक सृजित प्राणी हो, इसलिए परमेश्वर की नजरों में, तुम समाज में किसी भी उस व्यक्ति के बराबर हो, जिसकी पहचान और सामाजिक हैसियत तुमसे अलग है। तुम सभी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हो, और तुम सब वे लोग हो जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है। परमेश्वर के समक्ष, बेशक तुम सबके पास सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने, सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने का एक सामान अवसर है। इस स्तर पर, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दी गई सृजित प्राणी की पहचान के आधार पर, तुम्हें अपनी पहचान के बारे में बहुत ऊँची राय नहीं रखनी चाहिए, न ही उसे नीची नजर से देखना चाहिए। इसके बजाय, सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर से मिली अपनी पहचान के साथ तुम्हें सही ढंग से पेश आना चाहिए, सबके साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से बराबरी के स्तर पर और उन सिद्धांतों के अनुसार मिलने-जुलने में समर्थ होना चाहिए, जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है और जिनसे वह उन्हें झिड़कता है। दूसरों की सामाजिक हैसियत या पहचान चाहे जो हो, तुम्हारी सामाजिक हैसियत या पहचान चाहे जो हो, जो भी व्यक्ति परमेश्वर के घर में आकर उसके समक्ष आता है, उसकी बस एक ही पहचान होती है, और वह है एक सृजित प्राणी की पहचान। इसलिए, निचली सामाजिक हैसियत और पहचान वाले लोगों को हीन नहीं महसूस करना चाहिए। तुममें प्रतिभा हो या न हो, तुम्हारी योग्यता चाहे जितनी ऊँची हो, तुममें सामर्थ्य हो या न हो, तुम्हें अपनी सामाजिक हैसियत को जाने देना चाहिए। तुम्हें पारिवारिक पृष्ठभूमि या पारिवारिक इतिहास के आधार पर लोगों का विशिष्ट या दीन-हीन के रूप में श्रेणीकरण, क्रम-निर्धारण या वर्गीकरण करने के बारे में अपने विचारों और सोच को भी जाने देना चाहिए। तुम्हें अपनी निचली सामाजिक पहचान और हैसियत के कारण हीन नहीं महसूस करना चाहिए। तुम्हें खुश होना चाहिए कि हालाँकि तुम्हारी पारिवारिक पृष्ठभूमि उतनी शक्तिशाली और शानदार नहीं है, और तुम्हें विरासत में मिली हैसियत निचली है, फिर भी परमेश्वर ने तुम्हारा परित्याग नहीं किया है। परमेश्वर दीनों को गोबर और धूल के ढेर से उठाता है, और उन्हें दूसरे लोगों जैसी ही सृजित प्राणी की पहचान देता है। परमेश्वर के घर में और उसके समक्ष तुम्हारी पहचान और हैसियत परमेश्वर द्वारा चुने हुए शेष सभी लोगों के समकक्ष ही होती है। एक बार इसका एहसास होने पर, तुम्हें अपनी हीनभावना को जाने देना चाहिए, उससे चिपके नहीं रहना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (13))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे थोड़ी प्रेरणा मिली। पहले, मैं सोचती थी कि सामाजिक दर्जे और अच्छी पारिवारिक स्थिति वाले लोगों की हैसियत अच्छी होती है, वो उच्च श्रेणी के लोगों में से होते हैं, और जिनके पास कोई रुतबा और हैसियत नहीं है, वो छोटे और निचले दर्जे के होते हैं। यह दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप नहीं था। बचपन से ही, मेरे परिवार ने गरीबी देखी थी। मेरे पास न तो अच्छी शिक्षा थी, न ही कोई कौशल सीख पाई, और बचपन से लेकर जवानी तक दूसरों ने मुझे नीची नजर से देखा। शादी के बाद, क्योंकि मेरे पति भी गरीब थे और उनके पास कोई सामाजिक दर्जा नहीं था, मुझे मेरा रुतबा और हैसियत बहुत छोटी लगी, मैं बेहद छोटा महसूस करती थी। खास तौर पर मैं रुतबे और हैसियत वालों से ईर्ष्या करती और उन्हें बड़ा समझती थी। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, एक मजदूर होने के कारण संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता ने मुझे सुसमाचार फैलाने नहीं दिया, तो मैंने और भी बेबस महसूस किया। मेरा मानना था कि मैं गरीब हूँ, मेरा रुतबा छोटा है, और दूसरे बस मुझे शर्मिंदा ही करेंगे, और सुसमाचार फैलाना मुश्किल होगा, तो मैंने भागना और पीछे हटना चाहा। दरअसल, परमेश्वर की नजरों में सभी सृजित प्राणी हैं, सबका रुतबा और हैसियत बराबर है, और छोटे-बड़े में कोई भेदभाव नहीं है। पारिवारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक दर्जे के आधार पर मनुष्य खुद को अलग-अलग श्रेणियों में रखता है, पर परमेश्वर सभी से निष्पक्ष व्यवहार करता है। परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के लिए लोगों को सिर्फ सत्य स्वीकारना होगा। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, मुझे बस अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, रुतबे और हैसियत से बेबस नहीं होना चाहिए।

बाद में, एक भाई ने मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश दिखाया, जिसने मेरा दिल छू लिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “इस बात पर विचार करो कि तुम लोगों को किसी व्यक्ति के सामाजिक मूल्य, सामाजिक रुतबे या पारिवारिक मूल को किस तरह देखना चाहिए। कौन-सा रवैया रखना सबसे उपयुक्त है? सबसे पहले तो लोगों को परमेश्वर के वचनों को देखकर यह जानना चाहिए कि वह उन्हें कैसे देखता है। केवल इसी तरह से व्यक्ति सत्य की समझ प्राप्त कर सकता है, और केवल तभी व्यक्ति वे चीजें करने से बच सकता है, जो सत्य के विपरीत हैं। तो फिर, परमेश्वर किसी व्यक्ति के परिवार के मूल, सामाजिक रुतबे और शिक्षा के स्तर या उसके द्वारा प्राप्त किए गए धन को कैसे देखता है? अगर तुम सभी चीजों के आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों का उपयोग नहीं करते, और उससे कुछ भी ग्रहण करने के लिए उसके पक्ष में खड़े नहीं हो सकते, तो निश्चित रूप से इन मामलों पर तुम्हारे विचारों और परमेश्वर के इरादों के बीच अंतर होगा। अगर यह दूरी बड़ी नहीं है और भटकाव मामूली है, तो कोई समस्या नहीं होगी, लेकिन अगर वे परमेश्वर के इरादों के पूर्णतः विरुद्ध हैं, तो वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं। परमेश्वर के दृष्टिकोण से, वह किसी व्यक्ति को कितना कुछ देता है, इस पर अंतिम निर्णय उसी का होता है, और समाज में तुम्हारा स्थान उसी के द्वारा निर्धारित किया जाता है, लोगों द्वारा नहीं। अगर उसने किसी व्यक्ति को गरीब बनाया है, तो क्या इसका अर्थ यह है कि उस व्यक्ति के पास उद्धार की कोई आशा नहीं है? अगर उसका सामाजिक मूल्य या उसका सामाजिक रुतबा निम्न है, तो क्या परमेश्वर उसे नहीं बचाएगा? अगर उसकी सामाजिक रुतबा कम है, तो क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर उसे कम सम्मान देता हो? यह जरूरी नहीं है। तो वास्तव में क्या चीज मायने रखती है? मायने रखता है वह मार्ग जिस पर वह व्यक्ति चलता है, उसकी खोजें और सत्य और परमेश्वर के प्रति उसका दृष्टिकोण। अगर व्यक्ति बहुत निम्न सामाजिक दर्जे का है और गरीब और अशिक्षित है, लेकिन परमेश्वर पर अपनी आस्था में बहुत व्यावहारिक और जमीन से जुड़ा हुआ है, सत्य से प्रेम करता है, और सकारात्मक चीजें पसंद करता है, तो परमेश्वर की निगाह में ऐसे व्यक्ति का मूल्य निम्न है या उच्च? वह कुलीन है या नीच? वह अनमोल है। इस प्रकार, इस दृष्टिकोण से देखने पर, व्यक्ति का मूल्य या उसकी श्रेष्ठता क्या चीज निर्धारित करती है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है। अगर वह तुम्हें योग्य और कीमती समझता है, तो तुम श्रेष्ठ उपयोग के लिए सोने या चाँदी से बने बर्तन होगे। लेकिन अगर परमेश्वर तुम्हें अयोग्य और नीच मानता है, तो चाहे तुम्हारी शिक्षा का स्तर, सामाजिक रुतबा या जातीय प्रतिष्ठा कितनी भी ऊँची क्यों न हो, तुम्हारी हैसियत फिर भी ऊँची नहीं होगी। भले ही बहुत-से लोग तुम्हारा समर्थन, प्रशंसा और सराहना करें, फिर भी तुम एक नीच व्यक्ति होगे। तो फिर ऐसा क्यों है कि उच्च सामाजिक रुतबे वाला ‘श्रेष्’ व्यक्ति—जिसकी बहुत लोग प्रशंसा और सम्मान करते हैं, और जो बहुत प्रतिष्ठित है—ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर द्वारा नीच क्यों माना जाता है? क्या परमेश्वर सीधे-सीधे मानवता से उलट चलता है? बिलकुल नहीं। परमेश्वर के मूल्यांकन के अपने मापदंड हैं, और मूल्यांकन के उसके मापदंड सत्य हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि लोग जिन जगहों और परिवारों में पैदा होते हैं सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित होता है, इसमें मनुष्य कुछ नहीं कर सकता, इसलिए लोगों को परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। परमेश्वर लोगों का सामाजिक दर्जा या पढ़ाई और ऊँच-नीच नहीं देखता; वह देखता है कि लोग उसके वचनों का अभ्यास और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य निभा सकते हैं या नहीं। अगर किसी का सामाजिक दर्जा ऊँचा और उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि अच्छी है, पर वह सत्य का अनुसरण नहीं करता या उसे स्वीकारता नहीं है, तो परमेश्वर उसे नहीं बचाएगा। अगर किसी के पास कोई ज्ञान या रुतबा नहीं है, पर उसे सकारात्मक चीजों से प्रेम है, सत्य स्वीकार कर परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार कर सकता है, तो परमेश्वर उसे अहमियत देगा। परमेश्वर लोगों के दिल और सत्य के प्रति उनका रवैया देखता है। किसी का सामाजिक दर्जा चाहे कितना भी ऊँचा हो, अगर वह परमेश्वर के सामने आकर उसके वचन पढ़ सकता है, उसे जानना चाहता है, और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सकता है, तो परमेश्वर की नजरों में वह अच्छा इंसान है। जो परमेश्वर के सामने नहीं आते वे सभी नीच और बेकार हैं। क्योंकि मैं सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाते हुए, परमेश्वर द्वारा उत्थान और उसका अनुग्रह पा सकती थी, तो मुझे अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए परमेश्वर के दिए इस अवसर को संजोना चाहिए।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “चाहे तुम्हारे परिवार से तुम्हें गौरव मिलता हो या शर्मिंदगी, या अपने परिवार से तुम्हें विरासत में मिली पहचान और सामाजिक दर्जा कुलीन हो या साधारण, जहाँ तक तुम्हारा सवाल है, यह परिवार तुम्हारे लिए इन सबसे अधिक और कुछ नहीं है। इससे यह तय नहीं होता कि तुम सत्य समझ सकते हो या नहीं, क्या तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो, या क्या तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकते हो। इसलिए, लोगों को इसे बेहद महत्वपूर्ण मामला नहीं समझना चाहिए, क्योंकि यह न तो व्यक्ति की किस्मत तय करता है और न ही उसका भविष्य, और यह व्यक्ति के जीवन का मार्ग तो बिल्कुल भी तय नहीं करता। अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान सिर्फ दूसरों के बीच तुम्हारी स्वयं की भावनाओं और धारणाओं को तय कर सकता है। अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान से चाहे तुम नफरत करते हो या उसके बारे में डींगें हाँकते हो, इससे यह तय नहीं हो सकता कि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पाओगे या नहीं। इसलिए जब सत्य के अनुसरण की बात आती है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें अपने परिवार से कैसी पहचान या कैसा सामाजिक दर्जा विरासत में मिला है। भले ही अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान तुम्हें श्रेष्ठ और सम्मानित महसूस कराती हो, इसका जिक्र करने का कोई मतलब नहीं है। अगर यह तुम्हें शर्मिंदगी और निम्नता का एहसास दिलाती है और तुम्हारा आत्मविश्वास कम करती है, इसका तुम्हारे सत्य के अनुसरण पर कोई असर नहीं पड़ेगा। ऐसा ही है न? (हाँ।) इससे तुम्हारे सत्य के अनुसरण पर थोड़ा भी असर नहीं पड़ेगा, और न ही इसका परमेश्वर के समक्ष तुम्हारे सृजित प्राणी की पहचान पर कुछ असर होगा। इसके विपरीत, तुम्हें अपने परिवार से चाहे कैसी भी पहचान या सामाजिक दर्जा विरासत में मिला हो, परमेश्वर के नजरिये से सबके पास बचाए जाने, अपना कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने का एक जैसा अवसर होता है और सभी का दर्जा और पहचान समान होती है। अपने परिवार से तुम्हें विरासत में मिली पहचान, चाहे सम्मानित हो या शर्मनाक, तुम्हारी मानवता निर्धारित नहीं करती है, और न ही यह तुम्हारा मार्ग निर्धारित करती है। हालाँकि, अगर तुम इसे बेहद महत्वपूर्ण मानते हो, अपने जीवन और अस्तित्व का अटूट हिस्सा मानते हो, तो तुम इसे कसकर पकड़े रहोगे, कभी इसे छूटने नहीं दोगे, और इस पर गर्व करोगे। अगर तुम्हें अपने परिवार से मिली पहचान कुलीन है, तो तुम उसे एक तरह की पूँजी मानोगे, जबकि अगर यह पहचान निम्न स्तर की है, तो तुम उसे शर्मनाक मानोगे। तुम्हें अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान चाहे कुलीन हो, शानदार हो या शर्मनाक हो, यह सिर्फ तुम्हारी अपनी समझ है, और यह मामले को अपनी भ्रष्ट मानवता के परिप्रेक्ष्य से देखने का नतीजा है। यह सिर्फ तुम्हारी अपनी भावना, धारणा और समझ है, जो सत्य के अनुरूप नहीं है और इसका सत्य से कोई सरोकार नहीं है। यह तुम्हारे सत्य के अनुसरण के लिए पूँजी नहीं है, और बेशक, यह तुम्हारे सत्य के अनुसरण में बाधक भी नहीं है। अगर तुम्हारा सामाजिक दर्जा कुलीन और ऊँचा है, तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम इसे अपने उद्धार के लिए पूँजी मान बैठो। अगर तुम्हारा सामाजिक दर्जा निम्न स्तर का है और साधारण है, तो भी यह तुम्हारे सत्य के अनुसरण में बाधक नहीं है, तुम्हारे उद्धार की कोशिश में बाधक होना तो दूर की बात है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर में विश्वास करने, सत्य का अनुसरण करने, और उद्धार पाने वालों का पारिवारिक और सामाजिक दर्जे से कोई लेना-देना नहीं है। इसी तरह, सुसमाचार फैलाने का भी किसी के रुतबे और हैसियत से भी कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन यह मायने रखता है कि अपने कर्तव्य के प्रति उनका रवैया कैसा है, और क्या वे सुसमाचार फैलाते हुए स्पष्टता से संगति करके परमेश्वर के कार्य की गवाही दे सकते हैं, और क्या संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, क्योंकि ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करने वाले ही परमेश्वर की भेड़ हैं, और वे ही परमेश्वर की वाणी सुन और समझ सकते हैं। मैंने एक सुसमाचार फिल्म के एक भाई के बारे में सोचा जो काफी ऊँचे रुतबे और हैसियत वाला एक कैथोलिक पादरी था। जब भाई-बहनों ने उसे सुसमाचार सुनाया, तो उसने उनके रुतबे और हैसियत पर ध्यान देने के बजाय, परमेश्वर के वचन सुने और इनकी खोज और छानबीन करना चाहा। उसने इन्हें परमेश्वर की वाणी मानकर स्वीकार लिया। मैंने जाना कि ये ईमानदार विश्वासी बस परमेश्वर के वचन और सत्य सुनना चाहते हैं। मैं अक्सर अपने छोटे रुतबे और हैसियत से बेबस इसलिए महसूस करती थी क्योंकि मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी, और मैंने चीजों को उसके वचनों के आधार पर नहीं देखा। अब मुझे समझ आ गया कि मैं सृजित प्राणी हूँ, और सुसमाचार फैलाना मेरी जिम्मेदारी और दायित्व है। किसी संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता का रुतबा और हैसियत चाहे ऊँची हो या नीची, वे सभी भ्रष्ट लोग हैं जिन्हें परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता है। परमेश्वर के वचन और कार्यों की गवाही देना मेरी जिम्मेदारी थी; वे इसे स्वीकार सकते हैं या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि क्या वे परमेश्वर की भेड़ हैं। अगर हैं, तो स्वाभाविक रूप से परमेश्वर की वाणी सुन और समझ सकेंगे।

अगस्त 2023 में, एक बहन ने मुझे किसी संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता को सुसमाचार सुनाने को कहा। जब मुझे पता चला कि इस सुसमाचार प्राप्तकर्ता का परिवार धनी और प्रभावशाली है, और उसके परिवार का एक सदस्य सैन्य अधिकारी है, तो मुझे पहला ख्याल यही आया कि मेरा रुतबा और हैसियत छोटी है, हमारे बीच इतनी बड़ी दूरी है कि मैं सहयोग नहीं कर पाऊँगी। अगर उसने मुझे नीची नजरों से देखा और मेरी गवाही नहीं सुननी चाही तो क्या होगा? मैंने उस अनुभूति के बारे में सोचा जब मेरा मजाक उड़ाया और नीचा दिखाया गया था, इसलिए मैं असल में ऊँचे रुतबे वाले लोगों से मिलना-जुलना ही नहीं चाहती थी। फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “तो फिर, परमेश्वर किसी व्यक्ति के परिवार के मूल, सामाजिक रुतबे और शिक्षा के स्तर या उसके द्वारा प्राप्त किए गए धन को कैसे देखता है? अगर तुम सभी चीजों के आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों का उपयोग नहीं करते, और उससे कुछ भी ग्रहण करने के लिए उसके पक्ष में खड़े नहीं हो सकते, तो निश्चित रूप से इन मामलों पर तुम्हारे विचारों और परमेश्वर के इरादों के बीच अंतर होगा(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक))। मुझे एहसास हुआ कि मैं अब भी रुतबे और हैसियत के सामने बेबस थी, और मुझे परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीजों को देखना चाहिए। संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता का रुतबा और हैसियत चाहे कितनी भी ऊँची हो, परमेश्वर की नजरों में हम सभी सृजित प्राणी हैं, हम सबका भ्रष्ट स्वभाव एक जैसा है, और हम सबको परमेश्वर के उद्धार की जरूरत है। मुझे बस परमेश्वर पर भरोसा रखकर अपनी पूरी कोशिश करनी है। संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता सुसमाचार को स्वीकार पाता है या नहीं, यह परमेश्वर के हाथों में है। यह सोचकर अब मैंने बेबस महसूस नहीं किया। बाद में, जब मैं इस संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता को सुसमाचार सुनाने गई, तो मुझे बहुत शांति मिली, मैं बस उसे जीतने के बारे में सोच रही थी। किसने सोचा था कि वो इतनी अच्छी तरह हमारी मेजबानी करेगी। मैंने उसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाए, अंत के दिनों में उसके कार्य के बारे में संगति की और गवाही दी। उसने ध्यान से सुना और सब समझ पाई। जब मैंने चौथी बार संगति की, तो उसने कहा, “बहन, मुझे तुम्हारे उपदेश सुनने में आनंद आता है; तुम चाहो तो रोज मेरे घर आ सकती हो। अगर तुम सभा के लिए लोगों को लाना चाहती हो तो पाँचवी मंजिल पर मेरे घर आना। आओ मेरे साथ, तुम्हें दिखाती हूँ।” जब मैंने देखा कि उसने न सिर्फ मुझे नजरअंदाज नहीं किया, बल्कि वह परमेश्वर के कार्य की छानबीन करने को भी तैयार थी, तो मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने देखा कि जो ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं वे उसके वचन और सत्य सुन पाते हैं, और परिणाम पाने के लिए हमें बस स्पष्टता से संगति करनी होगी और परमेश्वर के कार्य की गवाही देनी होगी। अगर वे परमेश्वर की भेड़ें हैं, तो परमेश्वर की आवाज सुन और समझ सकती हैं, और परमेश्वर के समक्ष आ सकती हैं। समाज में उनके सामाजिक दर्जे और हैसियत से कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके बाद, सुसमाचार फैलाते हुए जब भी मेरा सामना ऊँचे रुतबे और हैसियत वाले संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं से होता, तो परमेश्वर के वचनों और सिद्धांतों के आधार पर, मैं पहले यह आकलन करती कि इन्हें सुसमाचार सुनाया जा सकता है या नहीं। अगर वे ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करने वाले होते, तो मैं तहेदिल से सहयोग करती, और संगति करते हुए परमेश्वर के कार्य की गवाही देती। अब मैं रुतबे और हैसियत के सामने बेबस महसूस नहीं करती, और मेरे दिल को शांति मिल गई। परमेश्वर का धन्यवाद!

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