जीवन प्रवेश का अनुसरण न करने के परिणाम

09 जुलाई, 2024

सितंबर 2023 में, मेरी साथी बहन को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। तब मैं कलीसिया अगुआ थी, जब मैंने देखा कि सभी भाई-बहन डरे हुए थे और उन्हें मदद और सहयोग की जरूरत थी, और इस घटना के बाद काम को जल्द-से-जल्द संभालना था, तो मैं बहुत बेचैन हो गई, मैंने खुद को किताबें दूसरी जगह भेजने, संगति करके भाई-बहनों की दशाएँ सुधारने, और नए विश्वासियों का सिंचन और सहयोग करने में झोंक दिया। तब, मैं रोज सुबह होने से पहले घर से निकल जाती, और देर रात तक जाग कर काम करती थी। कई बार बहुत थक जाती थी, मगर जब मैंने भाई-बहनों की दशाएँ बेहतर होती देखी और वो सामान्य तौर पर अपने कर्तव्य निभाने लगे, और किताबें सही-सलामत दूसरी जगह पहुँचा दी गईं, तो मुझे बड़ी खुशी हुई, मैंने सोचा, “इन खतरनाक परिस्थितियों में, मैं सब कुछ सही ढंग से संभाल पाई, और कलीसिया के कार्य को कोई नुकसान नहीं हुआ। अगर मैं इसी तरह काम करती रही, तो आखिर में मुझे परमेश्वर का उद्धार जरूर मिलेगा।” यह सोचकर, मैं अपना कर्तव्य अधिक उत्साह से करने लगी। हर दिन सुबह उठकर सीधी सभा में पहुँचती और काम में लग जाती, मगर मेरा काम सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, मैंने इस पर अधिक विचार नहीं किया। जब मैं परमेश्वर के वचन खाने-पीने के लिए कुछ समय निकालती, तब भी यही सोचती रहती कि परमेश्वर के वचनों के किस अंश से भाई-बहनों की दशाएँ ठीक हो पाएँगी, और मैं परमेश्वर के वचनों की तुलना अपनी दशा से कम ही करती थी। कभी-कभी मुझे लगता कि मैं बस काम पर ही जोर देती हूँ, बहुत कम ही सत्य खोजती और आत्म-चिंतन करती हूँ; पर जब मैंने काम में प्रगति देखी, तो लगा कि परमेश्वर के वचनों को कम खाने-पीने या सत्य न खोजने से कोई फर्क नहीं पड़ता; अगर मैं काम अच्छे से कर रही हूँ, तो यह काफी है। वैसे भी, कलीसिया में काफी काम बचा था जिसे पूरा करना जरूरी था, तो मैं उन्हीं कामों में व्यस्त रही।

बाद में, एक बहन को मेरे साथ काम करने के लिए चुना गया। क्योंकि कुछ काम उसके लिए नया था, तो काफी सारा काम मैं खुद ही करती थी। काम के बारे में चर्चा करने का समय आया, तो मैंने देखा कि वो बहन कभी पहल नहीं करती थी, तो उसके लिए मेरे मन में नकारात्मक राय बन गई, और मैं उससे कठोर लहजे में बात करती। मैंने देखा कि कैसे वो मेरे आगे बेबस महसूस करती थी, पर मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। मुझे लगा यह कोई गंभीर समस्या नहीं है, और इससे मेरे कर्तव्य निभाने में देरी नहीं होगी। मेरे पास अभी भी बहुत काम था; सत्य खोज कर अपनी दशा को ठीक करने का समय ही कहाँ था? अगर इस पर समय लगाने से काम में देरी हो गई तो क्या होगा? मेरे लिए अपना कर्तव्य पूरा करके परिणाम पाना ही सबसे अहम था। बाद में भी मैं काम में ही व्यस्त रही। एक दिन, मैं दो उपयाजकों के साथ काम के बारे में चर्चा कर रही थी। वे दोनों धीमे मिजाज के थे, और सक्रिय रूप से अपनी राय व्यक्त नहीं करते थे, तो मैं थोड़ी बेचैन हो गई : “काम पर चर्चा करते समय, अगर आप अपनी राय व्यक्त नहीं करेंगे, तो कैसे चलेगा?” तब मैंने उनकी निंदा करते हुए कहा, “भाइयो, अगर हर बार आप दोनों अपनी राय व्यक्त नहीं करेंगे, तो हम काम के बारे में चर्चा कैसे कर पाएँगे?” मेरी बात पूरी होने पर, उनमें से एक भाई ने शर्मिंदगी से अपना सिर झुका लिया। उस दौरान ऐसा कई बार हुआ। जब मैंने देखा कि वे भाई सक्रियता से अपनी राय व्यक्त नहीं कर पा रहे, तो मैं उन्हें नीची नजर से देखने लगी। एक भाई थोड़ा नकारात्मक महसूस कर रहा था, उसने कहा, “मैं बूढ़ा हूँ और धीरे काम करता हूँ—मैं तुम्हारी जैसी तेजी नहीं दिखा सकता, न ही यह कर्तव्य अच्छे से निभा पा रहा हूँ।” दरअसल, मैं जानती थी कि वो भाई इस कर्तव्य में नए थे, उनके लिए इसे न समझना या न कर पाना सामान्य बात थी। मुझे उन्हें प्रोत्साहित करके उनकी मदद करनी चाहिए थी। मगर मुझे नहीं लगा कि मैंने जो कहा उसमें कोई बड़ी समस्या थी : मेरी उनसे कोई अतिरिक्त माँग नहीं थी, मैं तो बस इतना चाहती थी कि वो अपने कर्तव्य में थोड़े और सक्रिय हों। तो मैंने इस समस्या को हल करने पर ध्यान नहीं दिया। मैंने सोचा, “किसी का भ्रष्ट स्वभाव एक पल में नहीं बदल सकता। मुझे समय निकालकर काम से जुड़ी समस्याओं को हल करना चाहिए। अगर मैंने काम नहीं किया, तो परिणाम कैसे हासिल करूँगी?” क्योंकि मैं बस काम में लगी रहती थी, मैंने कभी परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य खोजने, या आने वाली परेशानियों से सबक सीखने पर कभी ध्यान नहीं दिया, लगा मैं अंदर से खोखली थी। एक बार, मैंने परमेश्वर के वचन की किताबों की सुरक्षा का काम ऐसे परिवार को दे दिया जो खतरे में था, और जब बड़ी अगुआ को इसका पता लगा तो उन्होंने सिद्धांतों के अनुसार काम न करने को लेकर मेरी काट-छाँट की। लगा मेरे साथ गलत हुआ है, मैं कुतर्क और विरोध करती रही। मुझे अपनी गलती न मानते देख अगुआ ने कहा, “तुम काम तो बहुत करती हो, पर सिद्धांतों के अनुसार नहीं करती, तुम हमेशा अपनी मर्जी और अनुभव के हिसाब से चलती हो—इससे परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान होगा। और फिर, काट-छाँट के बाद, तुम्हारा रवैया समर्पण करके सत्य खोजने वाला नहीं है, तुम आत्म-चिंतन भी नहीं करती हो। क्या इस तरह तुम प्रगति कर पाओगी?” बाद में, मैंने अपने प्रदर्शन पर विचार किया, तो एहसास हुआ कि मैं हमेशा जल्दी काम खत्म करने पर जोर देती थी—मेरे पास कहने को कोई जीवन प्रवेश था ही नहीं। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मेरा मार्गदर्शन करने को कहा जिससे मैं खुद को जानूँ और अपनी समस्याएँ हल कर सकूँ।

खोज के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अंत के दिनों के दौरान परमेश्वर ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया है जो उसके वचनों से न जुड़ा हो, मनुष्य का मार्गदर्शन करने के लिए वह शुरू से आज तक हर जगह बोला है, उसने शुरू से आज तक वचनों का उपयोग किया है। बेशक, बोलते समय, परमेश्वर ने उन लोगों के साथ अपना रिश्ता बनाए रखने के लिए भी वचनों का उपयोग किया है जो उसका अनुसरण करते हैं, उसने उनका मार्गदर्शन करने के लिए वचनों का उपयोग किया है, और ये वचन उन लोगों के लिए बेहद अहम हैं जो बचाए जाना चाहते हैं या जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है, परमेश्वर मानवजाति के उद्धार का तथ्य पूरा करने के लिए इन वचनों का उपयोग करेगा। प्रत्यक्षतः, चाहे उनकी विषयवस्तु के संदर्भ में देखा जाए या संख्या के, चाहे वे जिस भी तरह के वचन हों, और चाहे वे परमेश्वर के वचनों का कोई-सा भी हिस्सा हों, वे उन लोगों में से प्रत्येक के लिए बेहद अहम हैं, जो बचाए जाना चाहते हैं। परमेश्वर अपनी छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना का अंतिम प्रभाव प्राप्त करने के लिए इन वचनों का उपयोग कर रहा है। मानवजाति के लिए—चाहे आज की मानवजाति हो या भविष्य की—ये बेहद अहम हैं। ऐसा रवैया है परमेश्वर का, ऐसा उद्देश्य और महत्व है उसके वचनों का। तो मानवजाति को क्या करना चाहिए? मानवजाति को परमेश्वर के वचनों और कार्यों में सहयोग करना चाहिए, उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। लेकिन परमेश्वर में कुछ लोगों की आस्था का तरीका ऐसा नहीं है : परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, ऐसा लगता है मानो उसके वचनों का उनसे कोई लेना-देना न हो। वे अभी भी उसी का अनुसरण करते हैं जिसका वे करना चाहते हैं, वही करते हैं जो वे करना चाहते हैं, और परमेश्वर के वचनों के आधार पर सत्य नहीं खोजते। यह परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना नहीं है। कुछ अन्य लोग हैं जो, परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, उस पर ध्यान नहीं देते, जिनके दिल में सिर्फ एक ही दृढ़ निश्चय होता है : ‘मैं वही करूँगा जो परमेश्वर कहेगा, अगर परमेश्वर मुझसे पश्चिम की ओर जाने के लिए कहेगा तो मैं पश्चिम की ओर चला जाऊँगा, अगर वह मुझसे पूर्व की ओर जाने के लिए कहेगा तो मैं पूर्व की ओर चला जाऊँगा, अगर वह मुझसे मरने के लिए कहेगा, तो वह मुझे मरता हुआ देखेगा।’ लेकिन बस एक ही चीज है : वे परमेश्वर के वचनों को ग्रहण नहीं करते। वे मन में सोचते हैं, ‘परमेश्वर के बहुत सारे वचन हैं, उन्हें थोड़ा और सरल होना चाहिए, और उन्हें मुझे बताना चाहिए कि ठीक-ठीक क्या करना है। मैं अपने हृदय में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हूँ।’ परमेश्वर चाहे कितने भी वचन बोले, ऐसे लोग अंततः सत्य समझने में असमर्थ रहते हैं, न ही वे अपने अनुभवों और ज्ञान के बारे में बात कर सकते हैं। वे एक साधारण व्यक्ति की तरह होते हैं जिसमें आध्यात्मिक समझ नहीं होती है। क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोग परमेश्वर के प्रिय हैं? क्या परमेश्वर ऐसे लोगों के प्रति दयालु होना चाहता है? (नहीं।) वह निश्चित रूप से नहीं होना चाहता। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता। परमेश्वर कहता है, ‘मैंने हजारों अनकहे वचन कहे हैं। ऐसा कैसे है कि किसी अंधे-बहरे की तरह तुमने उन्हें न तो देखा है और न ही सुना है? आखिर तुम अपने दिल में क्या सोच रहे हो? मैं तुम्हें ऐसे व्यक्ति के अलावा कुछ नहीं समझता, जिसे आशीष और सुंदर गंतव्य के पीछे दौड़ने का जुनून है—तुम पौलुस जैसे लक्ष्यों के पीछे दौड़ रहे हो। अगर तुम मेरे वचन नहीं सुनना चाहते, अगर तुम मेरे मार्ग पर नहीं चलना चाहते, तो तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? तुम उद्धार के पीछे नहीं, बल्कि सुंदर गंतव्य और आशीषों की इच्छा के पीछे दौड़ रहे हो। और चूँकि तुम यही साजिश रच रहे हो, इसलिए तुम्हारे लिए सबसे उपयुक्त चीज सेवाकर्ता बनना है।’ वास्तव में वफादार सेवाकर्ता होना भी परमेश्वर के प्रति समर्पण की एक अभिव्यक्ति है, लेकिन यह न्यूनतम मानक है। एक वफादार सेवाकर्ता बने रहना किसी अविश्वासी की तरह तबाही और विनाश में डूबने से कहीं बेहतर है। विशेष रूप से, परमेश्वर के घर को सेवाकर्ताओं की जरूरत है, और परमेश्वर की सेवा करने में सक्षम होना भी आशीष ही माना जाता है। यह शैतान राजाओं के अनुचर होने से कहीं बेहतर—बहुत बेहतर—है। लेकिन परमेश्वर की सेवा करना परमेश्वर के हिसाब से पूरी तरह से संतोषजनक नहीं है, क्योंकि परमेश्वर का न्याय का कार्य लोगों को बचाने, शुद्ध और पूर्ण करने के लिए है। अगर लोग परमेश्वर की सेवा करने से ही संतुष्ट रहते हैं, तो यह वह उद्देश्य नहीं है जिसे परमेश्वर लोगों में कार्य करके हासिल करना चाहता है, न ही यह वह परिणाम है जिसे परमेश्वर देखना चाहता है। लेकिन लोग इच्छा की आग में जलते रहते हैं, वे मूर्ख और अंधे हैं : वे थोड़े-से लाभ से मोहित हो जाते हैं, भस्म हो जाते हैं, और परमेश्वर द्वारा कहे गए जीवन के अनमोल वचनों को नकार देते हैं। वे उन्हें गंभीरता से भी नहीं ले पाते, उन्हें प्रिय मानना तो दूर की बात है। परमेश्वर के वचन न पढ़ना या सत्य न सँजोना : यह चतुराई है या मूर्खता? क्या लोग इस तरह से उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? लोगों को यह सब समझना चाहिए। उनके उद्धार की आशा तभी होगी, जब वे अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ एक तरफ रख दें और सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करें(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर यह उजागर करता है कि लोग केवल सतही कार्यों पर जोर देते हैं। परमेश्वर चाहे कैसी भी संगति करे, वो उसके वचनों के प्रति उदासीन रवैया बनाए रखते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने या उनमें सत्य खोजने पर जोर नहीं देते हैं। इस तरह से परमेश्वर में विश्वास करना उसके कार्य का अनुभव करना बिलकुल नहीं है। अपने व्यवहार की तुलना परमेश्वर के वचनों से करके, मैंने देखा कि मैं बिलकुल ऐसी ही थी। मैंने सोचा था कि मैं वो सब करूँगी जो कलीसिया मुझसे करने को कहेगी, और अगर मैंने अच्छी तरह काम किया, तो परमेश्वर को संतुष्ट करके उसकी स्वीकृति पाऊँगी। इस वजह से, कर्तव्य निभाते समय, मैंने सिर्फ काम करने पर जोर दिया। मैंने परमेश्वर के वचनों को पूरी तरह नजरंदाज किया, मुझे यह तक लगता था कि परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने से मेरे कर्तव्य में देरी होगी। मैं जानती थी कि परमेश्वर ने अंत के दिनों में अपने कार्य के दौरान बहुत सारे वचन व्यक्त किए हैं, ताकि लोग सत्य का अनुसरण करें और स्वभाव में बदलाव ला सकें, जिससे आखिर में उन्हें सत्य की प्राप्ति हो और वो परमेश्वर का उद्धार पा सकें। मगर क्योंकि मैं सत्य से प्रेम नहीं करती थी, मैं अभी भी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार अनुसरण कर रही थी, यह सोचकर कि काम पूरा करना ही काफी होगा। इसलिए, जब दूसरों के साथ साझेदारी में मेरी भ्रष्टता सामने आई, मैंने उसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजा। परमेश्वर सत्य व्यक्त करके मनुष्यों में हर तरह की भ्रष्टता को उजागर करता है, और वह हमारे अनुभव के लिए वास्तविक परिस्थितियाँ भी बनाता है, ताकि हम सत्य समझ सकें और अपनी भ्रष्टता को दूर करके स्वच्छ हो सकें। यह परमेश्वर का प्रेम है! अगर वह लोगों से सिर्फ मजदूरी और श्रम कराना चाहता, तो उसे अब तक चरणबद्ध तरीके से काम नहीं करना पड़ता, और न ही उसे देहधारण करना, सत्य व्यक्त करना, और इतना कष्ट सहना पड़ता। मैंने परमेश्वर के इतने वचन पढ़े फिर भी लोगों को बचाने का परमेश्वर का इरादा नहीं समझ पाई, मेरा भ्रष्ट स्वभाव बिलकुल नहीं बदला था। मैं बिलकुल वैसी ही आम इंसान थी जिसके बारे में परमेश्वर के वचनों में बताया गया है। इस तरह, अगर मैं और अधिक काम करती, तब भी अंत में बचाई नहीं जाती। यह एहसास होने पर, मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, तुम्हारे वचनों के खुलासे से, आखिर मुझे परमेश्वर में अपनी आस्था में अनुसरण के प्रति गलत दृष्टिकोण का एहसास हो गया। मैं पश्चात्ताप करके बदलने को तैयार हूँ। कृपया मेरी अगुआई करो कि मैं अपने गलत दृष्टिकोणों से बाहर निकलूँ, तुम्हारे वचनों पर मेहनत करूँ, सत्य का अनुसरण करूँ, और जीवन प्रवेश पर ध्यान दूँ।”

फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “इन दिनों, अधिकांश लोग इस तरह की स्थिति में हैं : आशीष प्राप्त करने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाना होगा और परमेश्वर के लिए कीमत चुकानी होगी। आशीष पाने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग देना चाहिए; मुझे उसके द्वारा सौंपा गया काम पूरा करना चाहिए, और मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से अवश्य निभाना चाहिए। इस दशा पर आशीष प्राप्त करने का इरादा हावी है, जो पूरी तरह से परमेश्वर से पुरस्कार पाने और मुकुट हासिल करने के उद्देश्य से अपने आपको उसके लिए खपाने का उदाहरण है। ऐसे लोगों के दिल में सत्य नहीं होता, और यह निश्चित है कि उनकी समझ केवल सिद्धांत के कुछ शब्दों से युक्त है, जिसका वे जहाँ भी जाते हैं, वहीं दिखावा करते हैं। उनका रास्ता पौलुस का रास्ता है। ऐसे लोगों का विश्वास निरंतर कठिन परिश्रम का कार्य है, और गहराई में उन्हें लगता है कि वे जितना अधिक करेंगे, परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा उतनी ही अधिक सिद्ध होगी; वे जितना अधिक करेंगे, वह उनसे उतना ही अधिक संतुष्ट होगा; और जितना अधिक वे करेंगे, वे परमेश्वर के सामने मुकुट पाने के लिए उतने ही अधिक योग्य साबित होंगे, और उन्हें मिलने वाले आशीष उतने ही बड़े होंगे। वे सोचते हैं कि यदि वे पीड़ा सह सकें, उपदेश दे सकें और मसीह के लिए मर सकें, यदि वे अपने जीवन का त्याग कर सकें, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सभी कर्तव्य पूरे कर सकें, तो वे वो होंगे जिन्हें सबसे बड़े आशीष मिलते हैं, और उन्हें मुकुट प्राप्त होने निश्चित हैं। पौलुस ने भी यही कल्पना की थी और यही चाहा था। यही वह मार्ग है जिस पर वह चला था, और ऐसे ही विचार लेकर उसने परमेश्वर की सेवा करने का काम किया था। क्या इन विचारों और इरादों की उत्पत्ति शैतानी प्रकृति से नहीं होती? यह सांसारिक मनुष्यों की तरह है, जो मानते हैं कि पृथ्वी पर रहते हुए उन्हें ज्ञान की खोज करनी चाहिए, और उसे प्राप्त करने के बाद वे भीड़ से अलग दिखाई दे सकते हैं, पदाधिकारी बनकर हैसियत प्राप्त कर सकते हैं। वे सोचते हैं कि जब उनके पास हैसियत हो जाएगी, तो वे अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी कर सकते हैं और अपने व्यवसाय और पारिवारिक पेशे को समृद्धि के एक निश्चित स्तर पर ले जा सकते हैं। क्या सभी अविश्वासी इसी मार्ग पर नहीं चलते? जिन लोगों पर इस शैतानी प्रकृति का वर्चस्व है, वे अपने विश्वास में केवल पौलुस की तरह हो सकते हैं। वे सोचते हैं : ‘मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर सब-कुछ छोड़ देना चाहिए। मुझे परमेश्वर के समक्ष वफ़ादार होना चाहिए, और अंततः मुझे बड़े पुरस्कार और शानदार मुकुट मिलेंगे।’ यह वही रवैया है, जो उन सांसारिक लोगों का होता है, जो सांसारिक चीजें पाने की कोशिश करते हैं। वे बिलकुल भी अलग नहीं हैं, और वे उसी प्रकृति के अधीन हैं। जब लोगों की शैतानी प्रकृति इस प्रकार की होगी, तो दुनिया में वे ज्ञान, शिक्षा, हैसियत प्राप्त करने और भीड़ से अलग दिखने की कोशिश करेंगे। यदि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे बड़े मुकुट और बड़े आशीष प्राप्त करने की कोशिश करेंगे। यदि परमेश्वर में विश्वास करते हुए लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो उनका इस मार्ग पर चलना निश्चित है। यह एक अडिग तथ्य है, यह एक प्राकृतिक नियम है। सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग जो मार्ग अपनाते हैं, वह पतरस के मार्ग से एकदम विपरीत होता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर उजागर करता है कि लोग परमेश्वर में अपने विश्वास और कर्तव्य निर्वहन में त्याग करके खुद को खपाते इसलिए हैं ताकि उन्हें आशीष और अच्छा परिणाम और मंजिल मिल सके—वे आशीष पाने की प्रेरणा से काम करते हैं। विचार करने पर, मैंने पाया कि अनुसरण को लेकर मेरे भी यही विचार थे। मुझे लगा कि ज्यादा काम करने और कर्तव्य निभाने, अगुआओं द्वारा सौंपे गए सभी काम को पूरा करके परिणाम पाने से—मुझे परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी, और मेरे पास अच्छा परिणाम और मंजिल होगी। इस वजह से, मैंने पूरी तरह से खुद को काम पूरा करने में झोंक दिया, मैं रोज काम में व्यस्त रहती थी। मैंने पौलुस को याद किया, जो सिर्फ उपदेश देने और काम करने पर जोर देता था। उसने बहुत यात्राएँ की और काफी कीमत चुकाई, पर उसने परमेश्वर के वचनों पर अमल नहीं किया, और उसका भ्रष्ट स्वभाव बिलकुल नहीं बदला। यह सब करते हुए वह मुकुट और इनाम पाने की आशा में परमेश्वर के साथ सिर्फ सौदा कर रहा था। आखिर में, उसने अपने लिए गवाही भी दी, कहा, “क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है” (फिलिप्पियों 1:21)। उसने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया, तो परमेश्वर ने उसे निकाल दिया और दंडित किया। अब लगता है कि मैं पौलुस के रास्ते पर चल रही थी : मैं अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर निर्भर रहती थी, यह मानती थी कि अगर मैं ज्यादा काम करूँगी और सौंपे गए कर्तव्य पूरे करके परिणाम प्राप्त करूँगी, तो परमेश्वर निश्चित ही आखिर में मुझे अच्छी मंजिल देगा। इस तरह, मैंने सिर्फ काम पूरा करने पर जोर दिया, और यह मान बैठी कि परमेश्वर के वचन खाने-पीने से मैं पीछे रह जाऊँगी। मैंने अहंकारी स्वभाव दिखाया, दूसरों को बेबस किया, पर समाधान पर जोर नहीं दिया। मैं सिर्फ अपने सतही त्याग, खुद को खपाने और कार्य के परिणामों के बदले परमेश्वर से आशीष पाना चाहती थी। इससे मुझे परमेश्वर की स्वीकृति कैसे मिलती? बाहर से तो मैं रोज बिना रुके काम करती और अपने कर्तव्य के प्रति काफी वफादार दिखती थी, पर वास्तव में, यह सब परमेश्वर को संतुष्ट करने या कलीसिया के कार्य की खातिर बिल्कुल नहीं कर रही थी; बल्कि मैं तो अपने परिणाम और मंजिल पाने की योजना बना रही थी, मैं परमेश्वर का फायदा उठाकर उससे सौदे करने की कोशिश कर रही थी—परमेश्वर इन चीजों से नफरत करता है। अगर मैं अब भी स्वार्थी मन और मिलावटी इरादों के साथ अनुसरण करती रही, और मेरा भ्रष्ट स्वभाव बिलकुल नहीं बदला, तो परमेश्वर निश्चित ही आखिर में मुझे निकाल देगा।

फिर मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े : “पतरस के जीवन की ऐसी कोई भी चीज जो परमेश्वर के इरादों को पूरा नहीं करती थी उसे असहज महसूस करवाती थी। यदि परमेश्वर के इरादे पूरे नहीं होते थे तो वह ग्लानि से भरा महसूस करता, और ऐसे उपयुक्त रास्ते की तलाश करता जिसके द्वारा वह परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए पूरा ज़ोर लगा पाता। अपने जीवन के छोटे से छोटे और महत्वहीन पहलुओं में भी वह परमेश्वर के इरादे पूरे करने की स्वयं से अपेक्षा करता था। जब उसके पुराने स्वभाव की बात आती तब भी वह स्वयं से ज़रा भी कम अपेक्षा नहीं करता था, सत्य में अधिक गहराई तक आगे बढ़ने के लिए स्वयं से अपनी अपेक्षाओं में सदैव अत्यधिक कठोर होता था। ... परमेश्वर में अपने विश्वास में, पतरस ने प्रत्येक चीज में परमेश्वर को संतुष्ट करने की चेष्टा की थी, और उस सबके प्रति समर्पण करने की चेष्टा की थी जो परमेश्वर से आया था। रत्ती भर शिकायत के बिना, वह ताड़ना और न्याय, साथ ही शुद्धिकरण, घोर पीड़ा और अपने जीवन की वंचनाओं को स्वीकार कर पाता था, जिनमें से कुछ भी उसके परमेश्वर-प्रेमी हृदय को बदल नहीं सका था। क्या यह परमेश्वर के प्रति सर्वोत्तम प्रेम नहीं था? क्या यह सृजित प्राणी के कर्तव्य की पूर्ति नहीं थी? चाहे ताड़ना में हो, न्याय में हो, या घोर पीड़ा में हो, तुम मृत्युपर्यंत समर्पण प्राप्त करने में सदैव सक्षम होते हो, और यह वह है जो सृजित प्राणी को प्राप्त करना चाहिए, यह परमेश्वर के प्रति प्रेम की शुद्धता है। यदि मनुष्य इतना अधिक प्राप्त कर सकता है, तो वह गुणसंपन्न सृजित प्राणी है, और सृष्टिकर्ता के इरादों को पूरा करने के लिए इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता है। कल्पना करो कि तुम परमेश्वर के लिए कार्य कर पाते हो, किंतु तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते हो और परमेश्वर से सच्चे अर्थ में प्रेम करने में असमर्थ हो। इस तरह, तुमने न केवल सृजित प्राणी के अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं किया होगा, बल्कि तुम्हें परमेश्वर द्वारा निंदित भी किया जाएगा, क्योंकि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से युक्त नहीं है, जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ है, और जो परमेश्वर से विद्रोह करता है। तुम केवल परमेश्वर के लिए कार्य करने की परवाह करते हो, और सत्य को अभ्यास में लाने, या स्वयं को जानने की परवाह नहीं करते हो। तुम सृष्टिकर्ता को समझते या जानते नहीं हो, और सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण या उससे प्रेम नहीं करते हो। तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के प्रति स्वाभाविक रूप से विद्रोही है, और इसलिए ऐसे लोग सृष्टिकर्ता के प्रिय नहीं हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचन कहते हैं कि पतरस ने जीवन में चाहे जिन छोटी-मोटी कठिनाइयों का सामना किया हो, वह सत्य खोजने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम था। वह जो भ्रष्ट स्वभाव दिखाता, उन पर तुरंत चिंतन-मनन करने में भी सक्षम था, और उसने काम करते हुए खुद के प्रवेश पर ध्यान दिया। उसने परमेश्वर के आदेश और अपने जीवन प्रवेश के लिए बोझ उठाया—वो जिस मार्ग पर चला वह सफलता का मार्ग था। मगर मैंने बस जल्दी-जल्दी काम करने पर ध्यान दिया, सत्य खोजने पर नहीं। जब मैंने भ्रष्टता दिखाई, तब भी कुछ नहीं सोचा, मैंने आत्म-चिंतन करके खुद को नहीं जाना, और आज तक मैं बिलकुल नहीं बदली—मैं जिस मार्ग पर चली वह विफलता का मार्ग है। वास्तव में, लोगों को कीमत चुकाते हुए परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहिए : यह उनका कर्तव्य है, यह वैसा नहीं है जैसा मैं सोचती थी, कि सिर्फ अपना काम पूरा करना ही काफी है। समस्याएँ आने पर सत्य खोजने में सक्षम होना, कर्तव्य निभाते समय अपनी भ्रष्टता और कमियों को जानने पर जोर देना, अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए सत्य खोजना, और सत्य को कसौटी मानकर काम और आचरण करना—सिर्फ इससे ही जीवन में प्रगति होगी। भले ही मेरा भ्रष्ट स्वभाव पल भर में दूर नहीं किया जा सकता, मुझे इसे जानने और बदलने पर ध्यान देना चाहिए, परमेश्वर के वचनों के आधार पर आत्म-चिंतन करना चाहिए, वो सिद्धांत खोजना चाहिए जिनका मुझे पालन करना है, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अपने कर्तव्यों में चाहे जितने व्यस्त रहें, फिर भी वे खुद पर पड़ने वाली समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोज सकते हैं, और उन चीजों के बारे में संगति की माँग कर सकते हैं जो उनके द्वारा सुने गए प्रवचनों में उन्हें स्पष्ट नहीं होतीं, और रोज शांतचित्त होकर यह चिंतन कर सकते हैं कि उन्होंने कैसा प्रदर्शन किया, फिर परमेश्वर के वचनों पर विचार कर अनुभवात्मक गवाही के वीडियो देख सकते हैं। इससे उन्हें लाभ होता है। अपने कर्तव्यों में वे चाहे जितने व्यस्त रहें, इससे उनके जीवन-प्रवेश में कोई बाधा नहीं आती, न ही उसमें देरी होती है। सत्य से प्रेम करने वाले लोगों के लिए इस तरह अभ्यास करना स्वाभाविक है। सत्य से प्रेम न करने वाले लोग अपने कर्तव्य में चाहे व्यस्त हों या न हों और उन पर चाहे जो समस्या आन पड़े, वे सत्य नहीं खोजते और आत्मचिंतन करने और खुद को जानने के लिए परमेश्वर के सामने खुद को शांत करने के लिए तैयार नहीं होते। इसलिए, वे चाहे अपने कर्तव्य में व्यस्त हों या फुरसत में हों, वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। तथ्य यह है कि अगर व्यक्ति के पास सत्य की खोज करने वाला दिल है, और वह सत्य की लालसा रखता है और जीवन-प्रवेश और स्वभावगत बदलाव का दायित्व उठाता है, तो वह दिल से परमेश्वर के करीब आएगा और उससे प्रार्थना करेगा, फिर चाहे वह अपने कर्तव्य में कितना भी व्यस्त क्यों न हो। वह निश्चित रूप से पवित्र आत्मा की कुछ प्रबुद्धता और प्रतिभा प्राप्त करेगा, और उसका जीवन लगातार बढ़ेगा। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता और जीवन-प्रवेश या स्वभावगत बदलाव का कोई दायित्व नहीं उठाता, या अगर उसे इन चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं है, तो वह कुछ भी हासिल नहीं कर सकता। व्यक्ति में भ्रष्टता के जो उद्गार हैं, उन पर चिंतन करना कहीं भी, किसी भी समय किया जाने वाला काम है। उदाहरण के लिए, अगर किसी ने अपना कर्तव्य निभाते समय भ्रष्टता दिखाई है, तो अपने दिल में उसे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और आत्मचिंतन कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना चाहिए, और उसे हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। यह दिल का मामला है; इसका मौजूदा कार्य से कोई संबंध नहीं है। क्या यह करना आसान है? यह इस पर निर्भर करता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या नहीं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, उन्हें जीवन में विकास के मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं होती। वे ऐसी चीजों पर विचार नहीं करते। केवल सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ही जीवन में विकास के लिए कठिन परिश्रम करने के इच्छुक होते हैं; केवल वे ही अक्सर उन समस्याओं पर विचार करते हैं जो वास्तव में मौजूद होती हैं, और इस पर भी कि उन समस्याएँ को हल करने के लिए सत्य कैसे खोजें। असल में, समस्याएँ हल करने की प्रक्रिया और सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया एक ही चीज है। अगर व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाते समय समस्याएँ हल करने के लिए सत्य की खोज पर लगातार ध्यान केंद्रित करता है, और इस तरह कई वर्षों के अभ्यास में उसने काफी समस्याओं का समाधान किया है, तो उसके कर्तव्य का प्रदर्शन निश्चित रूप से मानक के अनुरूप है। ऐसे लोगों में भ्रष्टता का उद्गार बहुत कम होता है, और उन्हें अपने कर्तव्य निभाने में बहुत सच्चा अनुभव प्राप्त होता है। इस तरह वे परमेश्वर के लिए गवाही देने के योग्य होते हैं। ... कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, इसका संबंध इस बात से नहीं है कि वह अपने कर्तव्य में कितना व्यस्त है या उसके पास कितना समय है; यह इस पर निर्भर करता है कि वह हृदय से सत्य से प्रेम करता है या नहीं। सच तो यह है कि सभी के पास समय की प्रचुरता समान होती है; अलग बात यह है कि हर व्यक्ति उसे खर्च कहाँ करता है। यह संभव है कि जो व्यक्ति कहता है कि उसके पास सत्य का अनुसरण करने के लिए समय नहीं है, वह अपना समय दैहिक सुखों पर खर्च कर रहा हो, या वह किसी बाहरी उद्यम में व्यस्त हो। वह उस समय को समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजने में खर्च नहीं करता। अपने अनुसरण में लापरवाही बरतने वाले लोग ऐसे ही होते हैं। इससे उनके जीवन-प्रवेश के बड़े मामले में देरी होती है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। परमेश्वर के वचनों में मुझे अभ्यास का मार्ग मिला : रोज परमेश्वर के वचन खाने-पीने, और उन पर चिंतन-मनन करने में समय देना, आत्म-चिंतन करना, यह जानना कि आज मैंने कौन सी भ्रष्टता दिखाई, कौन सी चीजें सिद्धांतों के अनुरूप नहीं की—अगर मुझे फायदा होता है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं यह सब लंबे समय तक करती हूँ या नहीं। कर्तव्य निभाने में व्यस्त न रहने पर, मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए कुछ वक्त निकाल सकती हूँ, और व्यस्त रहने पर अपना कर्तव्य निभाने पर ध्यान दे सकती हूँ, परमेश्वर के वचनों का असली जीवन में अभ्यास और अनुभव कर सकती हूँ। पहले, आध्यात्मिक भक्ति करने या अपनी दशा ठीक करने के लिए परमेश्वर के वचन खोजने की बात आने पर, मेरा तर्क होता था कि मेरे पास समय नहीं है। दरअसल, मैं अपना कर्तव्य निभाने में इतनी भी व्यस्त नहीं थी कि परमेश्वर के वचन पढ़ने का समय ही न हो; वास्तव में मुझे सत्य से प्रेम नहीं था और मैं सिर्फ काम पूरा करने पर जोर देती थी। अपने कर्तव्य में व्यस्त न होने पर भी मैंने अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ने या सत्य खोजने पर ध्यान नहीं दिया। अब मैं समझ गई हूँ कि वास्तव में अपना कर्तव्य निभाने और जीवन प्रवेश में कोई अंतर नहीं है। अपना कर्तव्य निभाते हुए, हम समस्याएँ हल करने और भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने के लिए सत्य खोजते हैं—यह सब जीवन प्रवेश से जुड़ा है। हमें वो काम तो करना होगा जो हमें करना चाहिए, पर हम जीवन प्रवेश को नजरंदाज नहीं कर सकते। इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचन पर चिंतन-मनन करने, सत्य खोजने, और आत्म-चिंतन करने पर ध्यान दिया। मैंने अपने खाली वक्त का लाभ उठाया। आम तौर पर खाते-पीते, टहलते या कपड़े धोते हुए, मैंने अपनी दशा और परमेश्वर के वचनों पर भी चिंतन-मनन किया—अगर मैं अनुसरण करना और सत्य खोजना चाहती, तो समय अपने आप निकल जाता था। मैंने आत्म-चिंतन भी किया। मैं हमेशा अपने साथियों की निंदा करती, और अक्सर गुस्से में रहती थी—यह कैसी समस्या थी? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मुझे अपनी दशा के बारे में खाने-पीने के लिए परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश मिले। मैं जानती थी कि मेरे गुस्से की वजह मेरी अहंकारी प्रकृति थी, और मैं दूसरों से बहुत ज्यादा अपेक्षाएँ रखती थी। जिस भाई को मेरा साथी बनाया गया वो बूढ़े थे, उन्होंने पहले कभी यह कर्तव्य नहीं निभाया था। उनका थोड़ा धीमा होना सामान्य बात थी। मैं हमेशा अपने मानकों के हिसाब से उनसे काम चाहती थी, मैंने बड़े खराब लहजे से उनसे बात की। मैंने चीजों को उनके परिप्रेक्ष्य से नहीं देखा, और न ही मामलों को हर व्यक्ति की अलग-अलग परिस्थितियों के हिसाब से देखा। इस तरह, दूसरों से बात करते हुए मैं हमेशा उन्हें नुकसान पहुँचाती और बेबस महसूस कराती थी। मैं वाकई बहुत विवेकहीन थी। इसका एहसास होने पर, आखिर मैं इस समस्या को और गंभीरता से लेने लगी। काम के बारे में हमारी अगली चर्चाओं में, जब मैंने भाइयों को धीमी प्रतिक्रिया देते देखा, तो मैं सही से पेश आ सकी और उन्हें चिंतन के लिए थोड़ा समय दिया। मैंने समस्या से जुड़े सिद्धांतों पर अधिक विस्तार से और जितना हो सके उतने अच्छे से संगति की, और जब उन्होंने मुझसे कुछ सवाल पूछे, तो मैं धैर्यपूर्वक उनके साथ संगति करके सत्य खोज पाई और एक साथ प्रवेश कर पाई। बाद में, चीजें सामने आने पर मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव की जाँच करने पर जोर देने लगी। मन में गलत विचार या ख्याल आने पर या भ्रष्ट स्वभाव दिखाने पर, मैंने उन चीजों से अपने भ्रष्ट स्वभाव के हिसाब से पेश आने के बजाय इसे ठीक करने के लिए सचेत होकर परमेश्वर से प्रार्थना की और संबंधित सत्यों को खोजा।

बाद में, एक बार फिर मैं अपने कर्तव्य में व्यस्त हो गई। कुछ भाई-बहन अपने क्रियाकलापों में सिद्धांतों के विरुद्ध चले गए और इसे हल करने के लिए उनके साथ संगति करना जरूरी था। फिर, सुसमाचार ग्रहण करने वाले कुछ ऐसे भी लोग थे जिनके साथ सुसमाचार फैलाना जरूरी था। जब मैंने देखा कि इतना सारा काम करना है, तो पहले सभी काम फौरन पूरे करने का ही ख्याल आया। तभी अचानक याद आया कि पहले कैसे मैं हमेशा काम पूरा करने पर ध्यान देती थी, जहाँ जाना होता वहाँ जाती, और जो करना होता वो करती थी, पर इससे मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ। मैं अपनी गलती नहीं दोहरा सकती थी, मुझे सिद्धांत खोजने थे। तो मैंने शांत होकर परमेश्वर के कुछ वचनों को खोजते हुए, भाई-बहनों की अभिव्यक्तियों पर चिंतन किया और सोचा कि परिणाम पाने के लिए संगति कैसे की जाए और उन्हें समस्या का सार कैसे बताया जाए। जहाँ तक सुसमाचार ग्रहण करने वालों की बात थी, मुझे उनकी मुख्य समस्या का भी पता चल गया और पहले से तैयारी करने के लिए मैंने संबंधित सत्यों को खोजा। इस खोज से, मैंने कुछ सत्य सिद्धांत समझे जिन्हें मैं पहले नहीं समझ पाई थी, मुझे थोड़ा लाभ मिला और मैंने अपने कर्तव्य में कुछ परिणाम हासिल किए। इस अनुभव से, मैंने कर्तव्य निभाने के दौरान जीवन प्रवेश पर ध्यान देने और सत्य सिद्धांतों को खोजने का महत्व समझा।

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