निपटान को ठुकराने पर चिंतन

05 फ़रवरी, 2023

साल 2021 में, मुझे ली शाओ के साथ नए सदस्यों के सिंचन का काम सौंपा गया। पहले, मुझे काम की जानकारी नहीं थी, ली शाओ धैर्य से मेरी मदद करती थी, कर्तव्य के सिद्धांतों और अपेक्षाओं के बारे में बताती थी। कुछ समय बाद, धीरे-धीरे मुझे चीजों की जानकारी होने लगी, तो जब वह कुछ मुद्दों की मुझे याद दिलाती थी, तो मुझे लगता था कि मुझे तो सब पता है, और मैं उसकी बात नहीं सुनती थी। इससे, बाद में मेरे काम में गलतियाँ निकलने लगीं। जब ली शाओ को पता चला, तो उसने सीधे-सीधे इनके बारे में बताकर मुझे मेहनती बनने को कहा। पहले तो मैंने मान लिया कि मैं सच में मेहनती नहीं थी, और उसकी डांट ने मेरे लिए अच्छी ताकीद का काम किया। मगर समय के साथ, मेरे काम में कुछ स्पष्ट समस्याएं दिखने लगीं : जो काम सौंपे जाते, मैं उन्हें नहीं कर पाती थी, इससे काम की प्रगति पर असर पड़ता था। जब उसने देखा कि ऐसी गलतियां बार-बार हो रही हैं, तो उसने सख्ती से आलोचना करना शुरू कर दिया और मुझे फटकार भी लगायी : “तुम्हें याद क्यों नहीं रहा? तुमने अपना काम क्यों नहीं किया?” मैं जानती थी कि वह सिर्फ यह चाहती थी कि मैं अपनी समस्याओं और गलतियों को सुधारकर अपने कर्तव्य में बेहतर नतीजे पा सकूं, लेकिन उसके सख्त लहजे को सुनकर मुझे थोड़ा बुरा लगा। मैंने सोचा : “वो दिखाना चाहती है कि मैं अपने काम में बहुत लापरवाह हूँ और इतने समय तक यहाँ रहने के बाद भी कुछ ठीक से नहीं कर सकती। दूसरे इस बारे में सुनेंगे तो क्या सोचेंगे? अगर समस्याएं हैं भी, तो क्या हम शांति से चर्चा नहीं कर सकते? ऐसा नहीं है कि मैं सुधार नहीं करना चाहती। चलो छोड़ो—अब से मैं उससे बचकर रहूँगी, तब वह भी मुझे नहीं डांटेगी।” उसके बाद, मैंने उससे बातचीत बंद कर दी, कई बार तो उसके प्रति अपना असंतोष जाहिर करने के लिए उसे तिरछी नजर से भी देखा। कभी-कभी, मुझे उसके साथ काम पर चर्चा करनी होती थी, पर मुझे लगता कि अगर मैंने उसकी मदद माँगी और उसे मेरे काम में कोई समस्या दिखी, तो वह मुझे डांटेगी और मेरा निपटान करेगी। क्या इससे मैं और ज्यादा बुरी नहीं दिखूंगी? फिर, जब मुझे उसके साथ कोई चर्चा करनी होती, तो मैं बोलने से पहले आखिरी पल तक इंतजार करती या उसे ही मुझसे पूछने देती। समय बीतने के साथ, ली शाओ मुझसे बेबस महसूस करने लगी। एक बार मैंने उसे कहते सुना, उसे दूसरों को सुझाव देने में कोई दिक्कत नहीं होती थी, पर मेरे सामने बेबस महसूस करती थी। कई बार, जब मेरे काम में उसे कुछ समस्याएं और गलतियां दिखती थीं, तो वह समझ नहीं पाती थी कि मुझसे क्या कहे। उसे लगता था कि कहीं उसका लहज़ा सख्त रहा, तो मैं नाराज़ न हो जाऊँ। यह सुनकर मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ। मगर फिर मैंने सोचा : “अगर तुम्हारा लहज़ा अच्छा होता, तो मैं ऐसे पेश नहीं आती। तुम बहुत अहंकारी हो।” यह सोचकर, मैंने आत्मचिंतन नहीं किया।

बाद में, मेरी सुपरवाइजर को पता चला तो उसने कई बार मेरे साथ संगति की, अपना ध्यान दूसरों पर लगाने से पहले मुझे आत्मचिंतन करने को कहा। बाहर से, मैं सुपरवाइजर के साथ आत्मचिंतन पर चर्चा कर लेती थी, पर अंदर से लगता था कि मेरे साथ गलत हुआ है, असल समस्या तो ली शाओ में है। फिर जब भी मैं अपनी हालत के बारे में बात करती, तो इस बात पर जोर देती कि कैसे ली शाओ मेरे साथ सख्त लहज़े में बात करती थी, ताकि सुपरवाइजर को पता चले कि मेरे भ्रष्टता दिखाने का कारण ली शाओ का अहंकार था। मुझे उम्मीद थी कि सुपरवाइजर उसके साथ संगति कर उसे अपना लहज़ा नरम रखने को कहेगी। तब, दूसरी सुपरवाइजर ने देखा कि मैंने अपनी समस्याओं को नहीं पहचाना था, तो उसने अपने अनुभव पर मेरे साथ संगति की। उसने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर सुनाया : “कलीसिया में ऐसे लोग होते हैं जिन्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह न निभाने के कारण काट-छांट और निपटारे का सामना करना पड़ता है। इस कारण उनसे जो कुछ कहा जाता है उसमें डांट-फटकार और कई बार भर्त्सना का पुट भी होता है। सुनने वाला इससे निश्चित ही खुश नहीं होता और इन कथनों का खंडन करना चाहता है। वे कहते हैं, ‘हो सकता है मेरा निपटारा करने वाले ये शब्द सही हों, पर कुछ शब्द बहुत कठोर हैं—वे अपमानित और विचलित करने वाले हैं। मैं इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहा हूँ, और भले ही मैंने बहुत बड़ा योगदान न दिया हो, पर मैंने काफी मेहनत की है। मेरे साथ ऐसा व्यवहार कैसे किया जा सकता है? किसी और का निपटारा क्यों नहीं किया जाता? मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। मेरे साथ यह नहीं चलेगा!’ क्या यह एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव है? (हाँ।) यह भ्रष्ट स्वभाव सिर्फ शिकायत, अवज्ञा और प्रतिरोध के रूप में झलकता है; यह अभी अपने शिखर या चरम पर नहीं पहुंचा है, पर संकेत दिखाई दे रहे हैं और संकट का बिंदु ज्यादा दूर नहीं है। इसके फौरन बाद उनका क्या रवैया रहता है? वे समर्पण करने में असमर्थ होंगे, और हताश और अवज्ञाकारी महसूस करते हुए अपने आक्रोश को अभिव्यक्त करने लगेंगे। वे इसे तर्कपूर्ण ठहराते हुए अपनी सफाई देने लगेंगे : ‘कोई जरूरी नहीं कि अगुआ और कार्यकर्ता किसी का निपटारा करते हुए हर बात में सही हों। बाकी सभी चाहे इसे स्वीकार कर लें, पर मैं नहीं करता। तुम लोग इसे सिर्फ इसलिए स्वीकार करते हो क्योंकि तुम मूर्ख और डरपोक हो। मैं इसे स्वीकार नहीं करूंगा! अगर तुम लोग मेरी बात पर विश्वास नहीं करते तो हम इस पर बहस कर लेते हैं और देखते हैं कौन सही है।’ दूसरे लोग उनके साथ संगति करते हुए कहते हैं, ‘कोई भी सही हो, पर पहले तुम्हें समर्पण करना होगा। क्या अपने कर्तव्य में तुम्हारा प्रदर्शन अशुद्धता से बिल्कुल मुक्त हो सकता है? क्या तुम सब कुछ सही करते हो? और अगर ऐसा है भी, तो भी निपटारे से तुम्हें लाभ ही होगा! हमने तुम्हारे साथ बहुत बार सिद्धांतों पर संगति की है, और तुमने कभी ध्यान नहीं दिया है; तुम आँख मूंदकर अपनी मनमानी करते रहे हो, और कलीसिया के काम में अड़चन डालकर भारी नुकसान करते रहे हो। तो तुम्हारा निपटारा और काट-छांट क्यों नहीं होना चाहिए था? तुम्हें जो कुछ कहा गया वह थोड़ा सख्त था, थोड़ा ज्यादा कठोर था—पर क्या यह सामान्य बात नहीं है? तुम भला क्या बहाना बना सकते हो? तुम कुछ बुरा करो तो दूसरों को अपना निपटारा नहीं करने दोगे?’ यह सब सुनकर भी क्या सुनने वाला इसे स्वीकार करता है? नहीं—वे बहानेबाजी और प्रतिरोध करते रहते हैं। तो फिर वे कौन-सा स्वभाव उजागर करते हैं? यह शैतानी और कुटिल स्वभाव है। और उनके कहने का आशय क्या होता है? ‘मुझे कोई बेवकूफ नहीं बना सकता, मेरे साथ छेड़खानी नहीं कर सकता। मैं तुम्हें समझा दूँगा कि मुझसे उलझना ठीक नहीं। आगे से कभी मेरा निपटारा करने के पहले तुम सौ बार सोचोगे, फिर यह मेरी जीत होगी, है न?’ उनका स्वभाव खुलकर सामने आ जाता है, नहीं क्या? यह एक कुटिल स्वभाव है। कुटिल स्वभाव वाले लोग बस सत्य से नहीं चिढ़ते, वे सत्य से घृणा करते हैं! काट-छांट और निपटारे से सामना होने पर वे या तो इसे झांसा देते हैं या नजरअंदाज करते हैं। सत्य के लिए उनकी घृणा बहुत गहरी होती है, तर्क-वितर्क के कुछ शब्दों से कहीं ज्यादा गहरी। वे सच में वैसा कुछ भी महसूस नहीं करते। वे धृष्ट और प्रतिरोधी होते हैं, और तुम्हें किसी चुड़ैल की तरह ललकारते हैं, जबकि मन में सोचते हैं, ‘तुम मेरी इज्जत उतार रहे हो, जानबूझकर मुझे मुश्किल स्थिति में डाल रहे हो, मैं जानता हूँ यहाँ क्या हो रहा है। मैं सीधे तुम्हारी बात नहीं काटूंगा, पर मौका मिलते ही बदला जरूर लूँगा! तुम मेरा निपटारा कर मुझ पर रौब झाड़ रहे हो न? मैं हरेक को अपनी तरफ करके तुम्हें अकेला और अलग-थलग कर दूँगा—तो तुम्हें पता चलेगा कि किसी को इस तरह अपना निशाना बनाना क्या होता है!’ उनके दिल में ये शब्द होते हैं, और उनका कुटिल स्वभाव आखिर खुद को उजागर कर देता है। अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए, अपने आक्रोश को अभिव्यक्त करने के लिए, वे अच्छे-से-अच्छे तर्क और बहाने गढ़ते हैं, और सभी को अपनी तरफ करने की कोशिश करते हैं। और फिर वे खुश होते हैं कि उनका संतुलन फिर से बन गया है। क्या यह द्वेष की भावना नहीं है? कुटिल स्वभाव का होना यही होता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी असली दशा को उजागर किया। मैं अपने कर्तव्य में असावधान और लापरवाह थी, ली शाओ ने मुझसे जो करने को कहा था उसे करने में कई बार नाकाम रही, जिससे काम में देरी हुई। वो मेरी गलती थी। उसका मेरी समस्या बताना बिल्कुल सही था। भले ही उसका लहज़ा थोड़ा सख्त था, पर यह मेरे और कलीसिया के कार्य की भलाई के लिए ही था। मगर मैंने बिल्कुल भी आत्मचिंतन नहीं किया, मैंने तो यहाँ तक सोचा कि वो मेरा सम्मान नहीं करती और मेरे लिए मुश्किलें खड़ी करती है। मैंने उसे चिढ़कर देखा क्योंकि मुझे लगा कि मेरी समस्याएं बताकर उसने मेरी छवि खराब कर दी। मैंने उसे बेबस महसूस कराया। मुझे एहसास हुआ, मैं अनुचित हो रही थी। काट-छाँट और निपटान होने पर, मैंने न सिर्फ आत्मचिंतन नहीं किया, बल्कि उसे ही अहंकारी बता दिया। खुद को जानने का बहाना लेकर मैंने उसकी शिकायत भी की, इस उम्मीद में कि सुपरवाइजर उसका निपटान करेगी। मेरा स्वभाव सच में बहुत दुष्ट था। इसका एहसास होने पर मुझे थोड़ी शर्मिंदगी हुई।

फिर, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “अधिकांश लोगों से काट-छाँट कर उनसे निपटने का कारण उनका भ्रष्ट स्वभाव उजागर करना हो सकता है। अज्ञानता के कारण कुछ गलत कर परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात कर बैठना भी इसका कारण हो सकता है। एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि अपने काम को जैसे-तैसे निपटाने से परमेश्वर के घर के काम को नुकसान हो गया हो। सबसे बुरा कारण वह होता है जब लोग बिना किसी रोक-टोक के अपनी इच्छानुसार कार्य करते हैं, सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और परमेश्वर के घर के काम को अस्तव्यस्त और बाधित करते हैं। लोगों की काट-छाँट और उनसे निपटे जाने के ये प्राथमिक कारण हैं। जिन परिस्थितियों के कारण किसी के साथ निपटा जाता या उसकी काट-छाँट की जाती है, उनके प्रति सबसे महत्वपूर्ण रवैया क्या होना चाहिए? सबसे पहले तो तुम्हें उसे स्वीकार करना चाहिए, इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुमसे कौन निपट रहा है, इसका कारण क्या है, चाहे वह कठोर लगे, लहजा और शब्द कैसे भी हों, तुम्हें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। फिर तुम्हें यह पहचानना चाहिए कि तुमने क्या गलत किया है, तुमने कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है और क्या तुमने सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया है। जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है और तुमसे निपटा जाता है, तो सबसे पहले तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग आठ))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि हमारा निपटान होने की कोई न कोई वजह होती है : ज्यादातर मामलों में, हम अपने कर्तव्य में सिद्धांतों नहीं खोजते, अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार काम करते हैं। कलीसिया के काम को नुकसान पहुंचाने के कारण ही हमारा निपटान किया जाता है। ऐसा निपटान काम की जिम्मेदारी की भावना से, कलीसिया के हितों की रक्षा के लिये किया जाता है—यह सकारात्मक है। निपटान के बाद, हम चाहे अपनी समस्या को पहचानें या नहीं, हमें इसे स्वीकार कर आत्मचिंतन करना चाहिए और कार्य करने के सिद्धांत खोजने चाहिए। यह सत्य की स्वीकृति दिखाता है—निपटान होने पर यही रवैया रखना चाहिए। जब ली शाओ के साथ अपने समय के बारे में सोचती हूँ, तो याद आता है कि जब मुझे काम की जानकारी नहीं थी, तो उसने धैर्य से एक-एक कर मुझे सारी चीजें सिखाईं, मगर मैं जैसे-तैसे काम करती थी—सतर्क नहीं रहती थी, जो काम सौंपा जाता था उसे नहीं करती थी। नतीजतन, हमारी प्रगति नहीं हो पाती थी। तभी उसने मेरा निपटान किया और डांटा। वो चाहती थी कि मैं आत्मचिंतन कर अपने कर्मों में सुधार करूँ, वह सिद्धांत के बिना मुझ पर गुस्सा नहीं करती थी। मगर मैंने सत्य को नहीं स्वीकारा, उसके डांटने और सुझाव देने पर भी चिंतन नहीं किया। इसके बजाय, मेरा ध्यान उस पर और उसके कर्मों पर रहता था। मैंने सोचा कि मेरे साथ थोड़ा सख्त लहज़ा अपनाकर वह मेरी गलतियां निकाल रही थी, मुझे शर्मिंदा कर मेरे लिए मुश्किलें खड़ी कर रही थी। मैं प्रतिरोधी थी, इसे स्वीकार नहीं पाई। नतीजतन, मैंने सबक सीखने के कई मौके गँवा दिये, मेरे जीवन-प्रवेश का नुकसान हुआ और कलीसिया के कार्य में देरी हुई। मैं बहुत अनुचित थी! फिर मैंने इसकी वजह पर चिंतन किया, इस तथ्य के बावजूद कि उसकी आलोचना साफ तौर पर मेरे लिए मददगार थी, कलीसिया के कार्य के लिए फायदेमंद थी, मैंने इसे सही तरीके से नहीं लिया और उसके खिलाफ पक्षपाती हो गई। सत्य खोजते हुए, मुझे परमेश्वर के यह वचन मिले : “जब मसीह-विरोधियों के निपटारे और काट-छांट का मसला आता है तो वे इसे स्वीकार नहीं कर पाते। और इसे स्वीकार न कर पाने के अपने कारण हैं। मुख्य कारण यह है कि जब उनका निपटारा और काट-छांट की जाती है तो उन्हें लगता है कि उनकी इज्जत कम हो गई है, उनका रुतबा और उनकी गरिमा छिन गई है, और अब वे समूह में अपना सिर नहीं उठा सकेंगे। इन बातों का उनके दिल पर असर पड़ता है : वे काट-छांट और निपटारे को स्वीकारने से घृणा करते हैं, और उन्हें लगता है कि जो भी उनकी काट-छांट और निपटारा करता है वह उनसे द्वेष रखता है और उनका शत्रु है। काट-छांट और निपटारे के वक्त मसीह-विरोधियों का यही रवैया होता है। यह बिल्कुल पक्की बात है। दरअसल, काट-छांट और निपटारे के वक्त ही यह बात खुलकर उजागर होती है कि कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार कर सकता है कि नहीं, और कोई व्यक्ति सचमुच आज्ञाकारी है या नहीं। मसीह-विरोधियों का काट-छांट और निपटारे से इतना कतरना यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि उन्हें सत्य से चिढ़ होती है और वे इसे रत्ती भर भी स्वीकार नहीं करते। तो सारी समस्या की जड़ यही है। उनका गर्व इस मसले की जड़ नहीं है; सत्य को स्वीकार न करना ही इस समस्या का सार है। जब उनकी काट-छांट और निपटारा किया जाता है, तो मसीह-विरोधी चाहते हैं कि यह सब मीठे स्वर और नर्म रवैये के साथ किया जाए। अगर ऐसा करने वाले का स्वर गंभीर है और रवैया सख्त है, तो मसीह-विरोधी इसका प्रतिरोध करेगा, और अवज्ञा और क्रोध का प्रदर्शन करेगा। वे इस बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते कि उनमें जो उजागर हुआ है क्या वह सही है या क्या वह एक तथ्य है, न ही वे अपनी गलती या सत्य को स्वीकारने के प्रश्न पर चिंतन करते हैं। वे सिर्फ यह सोचते हैं कि क्या उनके दंभ और गर्व पर वार हुआ है। मसीह-विरोधी यह एहसास करने में पूरी तरह अक्षम होते हैं कि काट-छांट और निपटारा लोगों के लिए मददगार होते हैं, लोगों को प्रेम और सुरक्षा देने वाले और उन्हें लाभ पहुंचाने वाले होते हैं। वे इतना भी नहीं समझ पाते। क्या उनमें भले-बुरे की पहचान और तर्कसंगतता का अभाव नहीं है? तो काट-छांट और निपटारे का सामना करते हुए मसीह-विरोधियों कैसा स्वभाव प्रकट करते हैं? निस्संदेह, यह स्वभाव सत्य से चिढ़ने और साथ ही अहंकार और अड़ियलपन वाला स्वभाव है। इससे पता चलता है कि मसीह-विरोधियों की प्रकृति और सार सत्य से चिढ़ना और घृणा करना है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग आठ))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मसीह-विरोधियों की प्रकृति सत्य से घृणा करने और रुतबे की चाह रखने वाली होती है। काट-छाँट और निपटान होने पर, वे जानते हैं कि आलोचना सही है, पर इससे उनकी छवि बिगड़ती है और असली प्रकृति उजागर होती है, इसीलिए वह इसे स्वीकारना नहीं चाहते। निपटान करने वाले व्यक्ति को दुश्मन मानकर ठुकरा देते हैं। मेरा स्वभाव भी मसीह-विरोधी जैसा था। जब ली शाओ ने मेरी समस्याएं बताईं, तो मैं जानती थी कि उसकी बातें सही थीं, पर मैंने सत्य नहीं खोजा, आत्मचिंतन नहीं किया। मैंने उसकी बातें नहीं मानीं, क्योंकि उसने सीधे-सीधे मेरी कमियों को उजागर कर मेरी छवि खराब की थी। मैंने सोचा वह मेरे लिए मुश्किलें खड़ी करना चाहती थी। अपनी छवि बनाये रखने के लिए, न सिर्फ मैंने उसे चिढ़कर देखा, बल्कि उसे बेबस कर दिया, मैंने अपने सुपरवाइजर से भी उसकी शिकायत की, ताकि वह उसका निपटान कर उसे मेरे पीछे पड़ने से रोक दे। मुझे एहसास हुआ, मसीह-विरोधियों की तरह ही मेरी प्रकृति भी सत्य से घृणा करने वाली थी। सत्य को स्वीकारने वाला कोई भी इंसान ऐसे साथी को मददगार मानेगा जो उसकी कमियां बता सके—इस तरह, वह अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कर्तव्य निभाने और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाने से बच जाएगा। इससे उसे और कलीसिया, दोनों को फायदा होगा। इस तरह, दूसरों के उनकी काट-छाँट और आलोचना करने पर, वे उसे स्वीकार पाते हैं। मगर मैं साफ तौर पर भ्रष्टता और खामियों से भरी थी, मेरे काम में समस्याएं भी थीं, पर मैं नहीं चाहती थी कि कोई मेरी खामियां बताये। जब लोग मेरी समस्या बताते, तो मैं चाहती कि इस तरह बताया जाये ताकि मेरी छवि खराब न हो। जब उनकी किसी बात से मेरे रुतबे और शोहरत पर खतरा मंडराता, तो मैं उन्हें दुश्मन मानती थी और उन्हें बाहर करने के तरीके ढूँढती थी, कलीसिया के कार्य या उनकी भावनाओं की परवाह नहीं करती थी, परमेश्वर के लिए मेरे मन में कोई श्रद्धा नहीं थी। मैं एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी, अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा, मुझे त्याग देगा।

फिर, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “रचनात्मक वक्तव्य किसे कहा जाता है? वह मुख्य रूप से प्रोत्साहित करने वाला, उन्मुख करने वाला, राह दिखाने वाला, प्रोत्साहित करने वाला, समझने वाला और दिलासा देने वाला होता है। साथ ही, कभी-कभी, सीधे तौर पर दूसरों के दोषों, कमियों और गलतियों को बताना और उनकी आलोचना करना आवश्यक होता है। यह लोगों के लिए बहुत ही हितकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न? उदाहरण के लिए, मान लो, तुम बेहद उद्दंड और अहंकारी हो। तुम्हें इसका कभी पता नहीं चला, लेकिन कोई व्यक्ति जो तुम्हें अच्छी तरह से जानता है, स्पष्टवादिता से काम लेते हुए तुम्हें तुम्हारी समस्या बता देता है। तुम मन ही मन सोचते हो, ‘क्या मैं उद्दंड हूँ? क्या मैं अहंकारी हूँ? किसी और ने मुझे बताने की हिम्मत नहीं की, लेकिन वह मुझे समझता है। उसने ऐसा कहा है तो यह वास्तव में सच हो सकता है। मुझे इस पर चिंतन करने पर कुछ समय लगाना चाहिए।’ इसके बाद तुम उस व्यक्ति से कहते हो, ‘दूसरे लोग मुझसे केवल अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं, वे मेरा प्रशंसा-गान करते हैं, कोई मुझे खुलकर नहीं बताता, किसी ने कभी मेरी इन कमियों और समस्याओं को नहीं उठाया। केवल तुम ही मुझे बता पाए हो, तुम ही मेरे साथ खुल पाए हो। यह बहुत अच्छा रहा, इससे मेरी बहुत बड़ी मदद हुई।’ यह दिल से बात करना था, है न? धीरे-धीरे, दूसरे व्यक्ति ने अपने मन की बात बताई, तुम्हारे बारे में अपने विचार और इस मामले में अपनी धारणाएँ, कल्पनाएँ, नकारात्मकता और कमजोरी के बारे में अपने अनुभव बताए, और सत्य की खोज करके इससे बचने में सक्षम रहे। यह दिल से बात करना है, यह आत्माओं का मिलन है(वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (3))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि लोगों को प्रोत्साहन और सुकून देने वाली बातों के अलावा, उनकी समस्याएं सामने लाने वाली और उनकी कमियाँ बताने वाली बातें भी असल में मददगार होती हैं। कभी-कभी हम पर भ्रष्ट स्वभाव हावी होता है और हम अपनी समस्याएं नहीं देख पाते, ऐसे में निपटान कर हमारी समस्याएं उजागर करने वाली बातें अधिक फायदेमंद होती हैं। कुछ पल के लिए शायद हमारी छवि थोड़ी खराब हो, पर इस आलोचना और सहयोग से हम परमेश्वर के समक्ष आते हैं, सत्य खोजकर आत्मचिंतन करते हैं। यह सच में हमारे जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद है। मैंने जीवन प्रवेश को महत्व नहीं दिया और सक्रियता से आत्मचिंतन नहीं किया। ली शाओ लगातार मेरे संपर्क में थी, तो उसे मेरे काम की समस्याओं की बहुत स्पष्ट समझ थी। उसमें धार्मिकता की भावना थी, वो जिम्मेदारी से काम करती थी, मेरी समस्याएं और गलतियां सीधे-सीधे मुझे बता सकती थी। मुमकिन है उसने बनावटीपन न दिखा कर थोड़ा सख्त रवैया अपनाया, पर वह सच में मेरी मदद करना चाहती थी। यहाँ तक कि मेरे भ्रष्ट स्वभाव से बेबस महसूस करने पर भी, वह मेरे खिलाफ नहीं हुई और मेरे साथ वैसे ही सहयोग करती रही। जब ली शाओ ने निपटान कर मुझे उजागर किया, तब मैं परेशान हो गई और मैंने जाना कि अपनी समस्या पर चिंतन के लिये मुझे परमेश्वर के समक्ष आना होगा। धीरे-धीरे, मैं कर्तव्य में अपना रवैया सुधारने लगी। यह सुधार ली शाओ की फटकार और निपटान का ही नतीजा था। मगर मैं नहीं जानती थी कि मेरे लिए अच्छा क्या है, मुझे लगा कि जब उसने सख्त लहज़ा अपनाया, तो उसका इरादा चुन-चुनकर मेरी गलतियां निकालने का था। इसलिए मैं उससे बचने, उसका विरोध करने और उसे ठुकराने लगी, मैंने आत्मचिंतन पर ध्यान नहीं दिया। अंत में, मैं बिल्कुल नहीं बदली और सत्य हासिल करने के अवसर गँवा बैठी। मैं कितनी बड़ी मूर्ख थी! अगर किसी खुशामदी इंसान के साथ मुझे काम करने दिया जाता, जो मेरी समस्याएं नहीं बताता, तो देखने में यही लगता कि मेरी छवि खराब नहीं हुई, पर असल में, इससे मुझे कोई मदद नहीं मिलती और मेरे जीवन प्रवेश या कलीसिया के कार्य में कोई फायदा नहीं होता। इन बातों को समझकर, मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। मैं जानती थी कि आगे से काट-छाँट और निपटान हुआ, तो मुझे सिर्फ अपने अनुकूल और मन को खुश करने वाली टिप्पणियां सुनना या सिर्फ अपनी शोहरत और रुतबे की परवाह नहीं करनी चाहिए। मुझे निपटान को स्वीकारना होगा, लोगों की आलोचना के संबंध में सत्य खोजकर आत्मचिंतन करना होगा, और तुरंत पश्चात्ताप करके अपने कर्म सुधारने होंगे। इस तरह दूसरों के साथ काम करके ही मैं अपना कर्तव्य और जिम्मेदारी अच्छे से निभा सकती हूँ।

बाद में, मैंने ली शाओ के साथ संगति में वह सब खुलकर बताया जो मैंने सीखा था। इसके बाद, हम दोनों ने काफी आजाद महसूस किया और मैं फिर से उसके साथ मिलकर अच्छे से काम करने लगी। एक बार, एक नए सदस्य को कुछ समस्याएं आ रही थीं, तो मैंने अपनी समझ पर उसके साथ संगति की, जब ली शाओ ने मेरी बातें सुनीं, तो उसने बेझिझक कहा कि मेरी संगति से नए सदस्य को बस थोड़ा सा प्रोत्साहन मिला, इससे उसकी समस्या हल नहीं होगी। उसकी बात सुनकर मुझे थोड़ी शर्मिंदगी हुई। बाहर से तो मैंने दिखाया कि मुझे उसकी आलोचना स्वीकार थी, पर अंदर से मैं थोड़ी नाखुश थी। लेकिन तभी एहसास हुआ कि मेरी स्थिति ठीक नहीं थी, तो फौरन परमेश्वर से प्रार्थना कर खुद की इच्छाओं का त्याग किया। तब, मुझे परमेश्वर के वचन याद आये : “वर्तमान में अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम होने के लिए, तुम लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण समर्पण करना सीखना है, सत्य के आगे समर्पण करना और जो कुछ भी परमेश्वर से आता है उसके आगे समर्पण करना सीखना। इस तरीके से तुम लोग परमेश्वर के अनुसरण का एक सबक सीख सकते हो, और धीरे-धीरे सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, मामलों और चीज़ों से सीखना चाहिए)। वाकई, समस्याओं से सामना होने पर, हमें सत्य के अनुरूप और हमारे कर्तव्य के लिये फायदेमंद बातों को स्वीकारना सीखना चाहिए। यही परमेश्वर की अपेक्षा है, और हमें भी यही करना चाहिए। बहन ली शाओ ने मेरी समस्या बताई थी, तो मुझे उसकी आलोचना स्वीकार कर सत्य खोजना और चिंतन करना चाहिए। प्रार्थना और चिंतन-मनन से पता चला कि मैंने सच में नए सदस्य की समस्या को नहीं समझा था और मामले की तह तक जाकर संगति नहीं की थी। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे अपनी गलतियों और कमियों की थोड़ी पहचान हुई, मुझे सत्य के इस पहलू के बारे में थोड़ी अंतर्दृष्टि हासिल हुई। मैंने सच में देखा कि ऐसी साथी का साथ होना मेरे जीवन प्रवेश और कर्तव्य निर्वहन, दोनों के लिए कितना फायदेमंद था। मुझे दूसरों की आलोचना स्वीकारने के फायदों का भी पता चला। अब से, मैं अपने भाई-बहनों की आलोचना स्वीकार कर अपना कर्तव्य अच्छे से करूंगी।

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