जिम्मेदारी न लेने की असली वजह

23 अप्रैल, 2022

मुँह ज़ाई, दक्षिण कोरिया

कुछ समय पहले, मैं अपने काम में बहुत नाकारा थी। किसी भी वीडियो प्रोजेक्ट पर काम करते हुए, मैं बार-बार उसमें सुधार करती, इससे काम की कुल प्रगति पर काफी बुरा असर पड़ता था। पहले तो लगा कि यह मेरी अपनी राय की कमी के कारण है, क्योंकि जब भी भाई-बहन कोई सुझाव देते, तो मैं समझ नहीं पाती थी कि सिद्धांतों के अनुसार उनकी ज़रूरत है भी या नहीं और बिना सोचे-समझे सुझावों पर अमल कर बैठती। कुछ सुझाव तो एकदम बेकार होते थे जिनकी वजह से बार-बार काम करना पड़ता था। फिर काट-छाँट और निपटारे के बाद, जब परमेश्वर के वचनों पर अमल और आत्म-चिंतन किया, तो एहसास हुआ कि मेरी दृढ़ता की कमी के पीछे शैतानी स्वभाव और नीच इरादे हैं।

इस बात को कई महीने हो गए। लेकिन कुछ भाई-बहन ऐसे भी थे जो अहंकारी बनकर अपने विचारों पर कायम रहते थे और दूसरों के सुझाव स्वीकार नहीं कर पाते थे। इससे काम की प्रगति पर बुरा असर पड़ता था। हमारे अगुआ ने कई बार उन्हें उजागर करने के लिए संगति की, लेकिन वे नहीं बदले, तो उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। मैंने सोचा, "अगर आगे चलकर लोग मुझे सलाह देंगे, तो मैं अपने विचारों पर कायम नहीं रह पाऊँगी।" फिर जब भी मैं कोई वीडियो प्रोजेक्ट पूरा करती, सब लोग सलाह देने लगते और मैं उनके सुझाव मान लेती, कुछ मामले तो ऐसे होते जिनमें कुछ भी बदलने की जरूरत न होती। कुछ बदलाव मुझे भी सिद्धांतों के अनुरूप नहीं लगते, और कुछ एकदम मामूली बदलाव होते, मुझे लगता अगर मैंने स्वीकार नहीं किए, तो मेरे सुपरवाइजर और भाई-बहन मेरे बारे में गलत राय बनाएँगे। क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि मैं अहंकारवश लोगों की सलाह नहीं मानती? अगर यह गलत धारणा बन गई कि मैं सत्य स्वीकार नहीं कर सकती, तो क्या निश्चित ही बर्खास्त नहीं कर दी जाऊँगी? और फिर, मैं अपनी राय को लेकर सौ फीसदी पक्की भी नहीं थी। अगर मैं गलत हुई और जरूरी बदलाव नहीं किया, और वीडियो ऑनलाइन होने के बाद कोई समस्या पाई गई, तो जिम्मेदारी मेरी होगी। यह सब सोचकर, अपने बचाव के लिए, मैं सारे सुझाव मान लेती। कभी-कभी तो कई तरह के सुझाव मिलते और मैं उन्हें लेकर अपने सुपरवाइजर से बेहतरीन सुझाव चुनने को कहती, या काम के दौरान, भाई-बहनों के साथ इस पर चर्चा करती और हम मिलकर निर्णय लेते। मैं सोचती, "यह निर्णय तो मेरे सुपरवाइजर और अधिकांश भाई-बहनों ने लिया है। यह बहुमत की राय है, तो कोई बड़ी दिक्कत नहीं होनी चाहिए। यही सबसे सुरक्षित तरीका है। अगर आगे चलकर कुछ गलत हुआ, तो इसकी जिम्मेदारी अकेले मेरी नहीं होगी।" कभी-कभी तो, इतने सुझाव मिलते कि समझ ही नहीं आता कैसे संशोधन करूँ, तो मैं सुपरवाइजर को बुलाकर उनकी मदद लेती कि क्या करना है। कभी-कभी ढेरों सलाह सुनकर यह तय करना कठिन हो जाता कि अब क्या करूँ, जिसका मतलब था मैं नाकाबिल हूँ। काम की चर्चाओं के दौरान, मैं भाई-बहनों से लगातार गुहार लगाती कि विभिन्न सुझावों में से सही सुझाव तय करने में मेरी मदद करें, इसमें उनका बहुत समय निकल जाता था जिससे काम की प्रगति धीमी पड़ जाती थी।

एक बार, मैंने एक वीडियो बैकग्राउंड इमेज बनाया। इसका मकसद पाप में जी रहे लोगों की पीड़ा दिखाना था, तो मैंने इसमें बैकलाइटिंग के साथ अंधेरे की रंगत दी। कुछ भाई-बहनों को यह ज्यादा ही काला और भद्दा लगा, सुझाव आया कि मैं तस्वीर में थोड़ी रोशनी डालूँ, थोड़ा लाइट और शैडो का इफेक्ट दूँ। इन सुझावों को लेकर मेरे मन में थोड़ी झिझक थी। विषय को देखते हुए, इमेज में ज्यादा रोशनी अंधकार में जीने वाले लोगों के परिवेश के अनुरूप नहीं लग रही थी, चमक डालना इस तरह की तस्वीरों के दस्तूर के विरुद्ध था, तो यह सुझाव मुझे सही नहीं लगा। लेकिन फिर सोचा चूंकि कई लोगों ने यह सुझाव दिया है, अगर मैंने इसे नहीं माना, और वीडियो के ऑनलाइन होने पर कोई बुरा असर पड़ा, तो जिम्मेदारी मुझ पर आएगी। मन में यह उधेड़बुन चल ही रही थी कि मैंने देखा अगुआ भी उस संशोधन से सहमत है, इसलिए मैं समझौता करने लगी। यदि मैं अपनी बात पर कायम रहकर संशोधन को नकार देती हूँ, तो क्या सब यह नहीं सोचेंगे कि मैं अपनी बात पर अड़ रही हूँ? परेशानी से बचने के लिए इसे न बदलने का बहाना बना रही हूँ? तो मैंने संशोधन पर सहमति जता दी। अगर कोई समस्या हुई, तो यह अकेले मेरी जिम्मेदारी नहीं होगी, क्योंकि मैंने सभी के सुझावों के आधार पर बदलाव किया है। साफ जाहिर था कि यह बदलाव सही नहीं है, लेकिन फिर भी इमेज को सुधारने में काफी समय चला गया। मैं तब चौंकी जब इमेज का काम पूरा होने पर, सुपरवाइजर ने संबद्ध सिद्धांतों और प्रभाव के आधार पर इसका मूल्यांकन करते हुए कहा कि इमेज वास्तविक नहीं है, इसमें फिर से बदलाव करना पड़ेगा। उन्होंने मुझ पर हाल के दिनों में काम में निष्क्रिय होने का भी आरोप लगाया, बोलीं कि दूसरों के सुझावों पर मेरी अपनी कोई राय नहीं है और मैं काम की प्रगति में रुकावट डाल रही हूँ और मुझे आत्म-चिंतन करना चाहिए। उसके बाद, मैं काफी समय तक अशांत रही और खुद को दोषी मानती रही। इमेज को सुधारने में इतना समय लगाया और अब इसे फिर बदलना पड़ेगा, जिससे काम की प्रगति में देरी होगी। मैंने महसूस किया कि इस दौरान जब मेरे पास अलग-अलग सुझाव आए, तो मेरे अपने विचार भी थे, लेकिन मैंने अपनी राय इसलिए नहीं बताई ताकि लोग मुझे अहंकारी न कहें। अनिश्चितता की स्थिति में, मैंने सत्य के सिद्धांत नहीं खोजे, निर्णय दूसरों पर छोड़कर मैंने बाकी लोगों के आदेश के अनुसार काम किया। ऐसे काम करना निष्क्रियता ही तो थी, इससे परमेश्वर के घर के काम में देरी हुई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके मुझे राह दिखाने को कहा, ताकि आत्म-चिंतन कर सकूँ।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक वीडियो देखा। "परमेश्वर के घर में कार्य करने वाले लोग ऐसे होने चाहिए जो कलीसिया के काम को अपना दायित्व समझें, जो जिम्मेदारी लें, सत्य के सिद्धांत कायम रखें और कष्ट सहकर कीमत चुकाएँ। इन क्षेत्रों में कमी होना कार्य करने के अयोग्य होना और कार्य करने की शर्तों को पूरा न करना है। कई लोग ऐसे होते हैं, जो कार्य-निष्पादन में जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। उनका डर मुख्यत: तीन तरीकों से प्रकट होता है। पहला यह है कि वे ऐसे कार्यों का चयन करते हैं, जिनमें जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता नहीं होती। अगर कलीसिया का अगुआ उनके लिए किसी कार्य की व्यवस्था करता है, तो पहले वे यह पूछते हैं कि क्या उन्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी : अगर ऐसा होता है, तो वे उसे स्वीकार नहीं करते; अगर उन्हें उसके लिए जिम्मेदार होने की आवश्यकता नहीं होती, तो वे उसे अनिच्छा से स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन फिर भी वे यह देख लेते हैं कि काम थका देने वाला या परेशान करने वाला तो नहीं, और कार्य को अनिच्छा से स्वीकार कर लेने के बावजूद, वे उसे अच्छी तरह से करने के लिए प्रेरित नहीं होते, उस स्थिति में भी वे लापरवाह और असावधान रहना पसंद करते हैं। बस आराम करो, कोई मेहनत और शारीरिक कठिनाई नहीं होनी चाहिए—यह उनका सिद्धांत होता है। दूसरा तरीका यह है कि जब उन पर कोई कठिनाई आती है या किसी समस्या से उनका सामना होता है, तो उनकी टालमटोल का पहला तरीका यह होता है कि उसे सँभालने और हल करने के लिए किसी अगुआ को उसकी रिपोर्ट कर दी जाए और आशा की जाए कि उनके आराम में कोई खलल नहीं पड़ेगा। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि अगुआ उस मुद्दे को कैसे सँभालता है, वे खुद उस पर कोई ध्यान नहीं देते—अगर उनकी जिम्मेदारी नहीं है, तो उनके लिए सब ठीक है। क्या ऐसा कार्य-निष्पादन परमेश्वर के प्रति निष्ठा है? इसे अपनी जिम्मेदारी दूसरे के सिर मढ़ना, कर्तव्य की उपेक्षा करना, काम से जी चुराना कहा जाता है। यह केवल परिश्रम होता है, इसके पीछे कोई समर्पण नहीं होता। वे कहते हैं, 'अगर यह काम मुझे ही करना है, तो अगर मैं गलती भी कर बैठूँ तो क्या फर्क पड़ता है? तब क्या मुझसे नहीं निपटा जाएगा? क्या इसकी जिम्मेदारी सबसे पहले मुझ पर नहीं आएगी?' उन्हें इसी बात की चिंता रहती है। लेकिन क्या तुम मानते हो कि परमेश्वर इन चीजों पर गौर कर सकता है? गलतियाँ सबसे होती हैं। अगर किसी नेक इरादे वाले व्यक्ति के पास अनुभव की कमी है और उसने पहले कोई मामला नहीं सँभाला है, लेकिन उसने पूरी मेहनत की है, तो यह परमेश्वर को दिखता है। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सभी चीजों और मनुष्य के हृदय की जाँच करता है। अगर कोई इस पर भी विश्वास नहीं करता, तो क्या वह गैर-विश्वासी नहीं है? फिर ऐसे व्यक्ति के कार्य करने के मायने ही क्या हैं? एक तरीका और है, जिससे व्यक्ति का जिम्मेदारी लेने का डर प्रकट होता है : वह बस थोड़ा-सा सतही, सरल काम करता है, ऐसा काम जिसमें जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता नहीं होती। जिस काम में मुश्किलें आती हैं और जिम्मेदारी लेनी पड़ती है, उसे वे दूसरों के गले मढ़ देते हैं, और अगर कुछ गलत हो जाता है, तो वे दोष उन लोगों पर डाल देते हैं और खुद समस्या से बचे रहते हैं। ... और अगर उसके बावजूद अगुआ और कार्यकर्ता उनसे कोई कार्य करने के लिए कहते हैं, तो परिणाम क्या होगा? वे कलीसिया का काम बरबाद कर देंगे। ऐसे लोग विश्वसनीय या भरोसेमंद नहीं होते; वे केवल पेट भरने के लिए काम करते हैं। क्या ऐसे भिखारियों को बाहर कर देना चाहिए? बेशक। परमेश्वर का घर ऐसे लोगों को कभी नहीं चाहेगा" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी स्थिति उजागर कर दी। मैंने उस अवधि में अपने काम के प्रदर्शन पर विचार किया। मुझे जो भी सलाह मिली, उसमें से कुछ सही नहीं थी। कुछ संशोधन सिद्धांतों के विरुद्ध थे और कुछ अनावश्यक थे। लेकिन मुझे डर लगा, अगर सबकी सलाह नहीं सुनी, और कुछ गलत हुआ, तो अकेले मुझे ही दोषी माना जाएगा। मुझे यह भी चिंता थी कि अगर मैं अपनी बात पर अड़ी रही तो लोगों को लगेगा कि मैं अहंकारी हूँ और सत्य नहीं स्वीकार पाती, इसलिए मैंने सभी की राय का सम्मान किया, जो भी बदलाव सुझाए गए उन्हें माना, बार-बार संशोधन कर कई संस्करण बनाए, फिर इसका निर्णय सुपरवाइजर और भाई-बहनों पर छोड़ दिया। मैंने कभी सत्य के सिद्धांत नहीं खोजे या दोषी करार दिए जाने के डर से खुद निर्णय नहीं लिए। मुझे इस तरह काम करना ज्यादा सुरक्षित लगा, क्योंकि जब समूह निर्णय लेता है, तो समस्याएं होने की संभावना कम रहती है, और अगर कोई समस्या हुई भी, तो अकेले मेरी जिम्मेदारी नहीं होगी। वैसे तो मैं हमेशा अपने काम में व्यस्त नजर आती थी, परमेश्वर के घर के काम की रक्षा करती थी, पर सच यह है कि हर चीज में मैंने अपना ही हित साधा। यही सोचती कि खुद को कैसे बचाऊँ और जिम्मेदारी से कैसे किनारा करूँ। क्या यह मेरी चालबाजी नहीं थी? इस तरह से काम करना सिर्फ दिखावे के लिए मेहनत करना और जो कहा जाये वही करना था। मुझे न तो कभी काम की कोई चिंता थी और न कोई सरोकार था। मैं अपने काम में गैर-जिम्मेदार और परमेश्वर के घर के हितों के प्रति लापरवाह थी। मुझमें इंसानियत नाम की कोई चीज नहीं थी। अपने काम में ईमानदार लोग, हर चीज में परमेश्वर के घर के हितों का ख्याल रखते हैं, कोई समस्या समझ न आए, तो वे परमेश्वर की इच्छा और सत्य के सिद्धांत खोजते हैं, और अपने कर्तव्यों में परमेश्वर के साथ एकमत होते हैं। और मैं? मैं अपने कर्तव्य में पूरी तरह से निष्ठाहीन और नासमझ थी। मैं एक ऐसी सेविका थी, जो कुछ करने के लिए हुक्म का इंतजार करती थी। मैं समस्याएँ दूर करने के लिए सत्य के सिद्धांतों नहीं खोजती थी। इस तरह काम करते हुए, मेरा परमेश्वर या सत्य से कोई लेना-देना नहीं था। मैं यूँ ही लापरवाही से काम कर रही थी जो सेवाकर्मी की श्रेणी में भी नहीं आता।

मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश याद आया, "वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों का न्याय अच्छे या बुरे के रूप में किया जाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में तुममें सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य की वास्तविकता को जीने की गवाही है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो इसमें कोई शक नहीं कि तुम कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को किस नज़र से देखता है? तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हरा पाते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और ऐसे निशानों से भरे पड़े हैं जिनसे परमेश्वर शर्मिंदा होता है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुम परमेश्वर के लिये अपने आपको खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि तुम अपने फ़ायदे के लिये काम कर रहे हो। 'अपने फ़ायदे के लिए' से क्या अभिप्राय है? शैतान के लिये काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, 'हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।' परमेश्वर की नज़र में तुमने अच्छे कर्म नहीं किये हैं, बल्कि तुम्हारा व्यवहार दुष्टों वाला हो गया है। परमेश्वर की स्वीकृति पाने के बजाय, तुम तिरस्कृत किए जाओगे। परमेश्वर में ऐसी आस्था रखने वाला इंसान क्या हासिल करने का प्रयास करता है? क्या इस तरह की आस्था अंतत: व्यर्थ नहीं हो जाएगी?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझ दी। उसकी नजर सबके दिलों पर होती है। वह यह नहीं देखता कि हम कितना काम करते हैं या कितना कष्ट सहते हैं। बल्कि यह देखता है कि अपने कर्तव्य-पालन में लोगों के इरादे परमेश्वर के लिए हैं या अपने लिए, और क्या वे अपने काम में सत्य के अभ्यास की गवाही देते हैं। अपने काम में हर समय आत्म-संतुष्टि का प्रयास करना, परमेश्वर की नज़रों में दुष्टता है और परमेश्वर को इससे घृणा है। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि काम करते समय मैं केवल अपने बारे में ही सोचती थी। जिम्मेदारी लेने से बचने के लिए, उन बेकार की समस्याओं को ठीक करने में चाहे कितना भी समय लगे, मैं इमेज को बार-बार संशोधित करती रही। गलत संशोधन करने के लिए अपनी इच्छा के विरुद्ध चली जाती थी, जिससे वीडियो बिगड़ते चले जाते थे। मैंने परमेश्वर के घर के काम में देरी की, पर कभी चिंता नहीं की और न ही शीघ्र काम करने का भाव आया, मैंने सत्य के सिद्धांत खोजकर कुशल बनने की कोशिश भी नहीं की। बस लापरवाही से अपना कर्तव्य-निर्वहन करती रही, मुझे यही लगता कि संशोधन करो, सबकी स्वीकृति लो और बस अपना काम हो गया। मेरा गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार कर्तव्य-निर्वहन नहीं था, इससे किसी का भला नहीं हो रहा था, यह दुष्टता थी। अब परमेश्वर के घर के लिए सुसमाचार फैलाने का महत्वपूर्ण समय है, प्रचार के लिए इन वीडियो को तत्काल ऑनलाइन डाला जाना ज़रूरी है, ताकि परमेश्वर के प्रकटन के लिए तरसते लोग इन्हें देखकर प्रबुद्ध हो सकें, और अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को जानें। लेकिन अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण, मैंने बार-बार काम किया और अपलोड में देरी की। अपने हितों की रक्षा के लिए, मैंने बार-बार परमेश्वर के घर के काम में बाधा डाली, मैं तो शैतान की सेविका बनकर परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित कर रही थी! इस बात का एहसास होने पर, मैं डर गई। मैंने फौरन परमेश्वर से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना की, ताकि अपने काम के प्रति मेरा रवैया बदले और मेरा भ्रष्ट स्वभाव दूर हो।

उसके बाद, काम के दौरान जब अलग-अलग सुझाव आते, तो मैं सबसे पहले परमेश्वर से प्रार्थना करती और खोजती, विश्लेषण करती कि कौन से सुझाव ज़रूरी हैं, कौन से नहीं, और अपनी काबिलियत में सुधार के तरीकों पर विचार करती जिससे बेहतर परिणाम मिलें। जो सुझाव ज़रूरी न होते, उन पर मैं सिद्धांतों की अपनी समझ के अनुसार राय देती, औरों से चर्चा और संगति करती, मेरी कुछ राय भी स्वीकार कर ली जाती। इस तरह के अभ्यास ने मुझे अपने काम में थोड़ा और कुशल बना दिया। लगा मुझमें कुछ बदलाव आया है, लेकिन जब जिम्मेदारी लेने का समय आया, तो मैं फिर से निष्क्रिय होने लगी।

एक बार, मैंने एक वीडियो इमेज बनाई इमेज की कुछ डिटेल को लेकर सबकी अलग-अलग राय थी। चर्चा के बाद भी हम तय नहीं कर पाए कि इसे कैसे संशोधित करें, हम काफी देर तक इस पर अटके रहे। दरअसल, मुझे पता था कि अगर कोई इमेज अच्छी दिख रही है, किरदारों और इमेज के अनुपात से वास्तविकता नहींनहीं बदल रही है, तो उसकी डिटेल पर अटकने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन इतने सारे अलग-अलग सुझाव सुनकर, मुझे समझ नहीं आया क्या करूँ। अगर मैंने अपने विचारों के आधार पर चीजें बदल दीं, और वीडियो अपलोड होने के बाद कोई समस्या हुई तो क्या होगा? तब यह मेरी जिम्मेदारी होगी। मुझे गलती की जिम्मेदारी उठाने से डर लगता था, तो मैंने सभी के सुझावों के आधार पर कई संस्करण बनाने शुरू कर दिए और इंतजार करने लगी कि सभी अपना अंतिम निर्णय दें, लेकिन अंत में किसी ने भी मुझे स्पष्ट जवाब नहीं दिया। समय निकलता गया और मेरी बेचैनी बढ़ती गई। क्या मेरी वजह से वीडियो की प्रगति में देरी नहीं हो रही थी? मैं बहुत परेशान थी, तो मैंने खुद से पूछा, "निर्णय लेना इतना कठिन क्यों है? ऐसा क्यों लगता है कि मेरे हाथ बंधे हुए हैं और मैं उन्हें खोल नहीं पा रही?" मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके राह दिखाने को कहा ताकि आत्म-चिंतन करके खुद को जान सकूँ।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "अपना कर्तव्य निभाते समय जब तुम लोगों के सामने समस्याएँ आती हैं, तो तुम्हारे द्वारा उन्हें अनदेखा किए जाने की संभावना होती है, यहाँ तक कि तुम जिम्मेदारी से बचने के लिए विभिन्न कारण और बहाने भी खोज लेते हो; कुछ समस्याएँ होती हैं, जिन्हें हल करने में तुम सक्षम होते हो लेकिन करते नहीं, और जिन समस्याओं को हल करने में तुम अक्षम होते हो, उनकी सूचना भी तुम वरिष्ठों को नहीं देते—मानो उनका तुमसे कुछ लेना-देना न हो। क्या यह अपने कर्तव्य की अवहेलना नहीं है? कलीसिया के कार्य के साथ इस तरह पेश आना बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य है या मूर्खतापूर्ण? (मूर्खतापूर्ण।) क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता विश्वासघाती नहीं होते, क्या वे जिम्मेदारी की भावना से रहित नहीं होते? जो अपने सामने आने वाली समस्या को नजरअंदाज करता है : क्या ऐसा व्यक्ति हृदयहीन और धूर्त नहीं होता? जो लोग धूर्त होते हैं, वे सबसे मूर्ख होते हैं। तुम्हें ईमानदार होना चाहिए, और तुममें अपने सामने आने वाली समस्याओं के प्रति जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए; लेकिन अगर तुम धूर्त हो, तो समस्याएँ आने पर तुम उन्हें नजरअंदाज कर दोगे, और जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करोगे। अगर तुम अविश्वासियों के बीच धूर्त हो और तुम्हें कुछ हो जाता है, तो तुम दृढ़ नहीं रह पाओगे; अगर तुम परमेश्वर के घर में धूर्त हो, तो परमेश्वर तुम्हारा तिरस्कार क्यों नहीं करेगा? क्या परमेश्वर का घर इसे चलने दे सकता है? परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है; उसे धूर्त लोग पसंद नहीं हैं। थोड़ा-सा अज्ञानी होने में डरने की कोई बात नहीं है, लेकिन उसे ईमानदार जरूर होना चाहिए। ईमानदार लोग जिम्मेदारी लेते हैं; वे अपने बारे में नहीं सोचते; उनके विचार शुद्ध होते हैं; उनके दिलों में ईमानदारी और भलाई होती है, जैसे साफ पानी का कटोरा, जिसकी तली तुरंत दिखाई दे जाती है। हालाँकि तुम हमेशा दिखावा करते हो, छिपाते हो और लीपापोती करते हो, खुद पर इतना मजबूत आवरण चढ़ा लेते हो कि तुम्हारे दिल में जो होता है, दूसरे उसे देख नहीं सकते, लेकिन परमेश्वर फिर भी उन चीजों की जाँच कर सकता है, जो तुम्हारे दिल में सबसे गहरी होती हैं। क्या परमेश्वर को यह देखना चाहिए कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, बल्कि धूर्त हो, कभी अपना दिल उसे नहीं देते, हमेशा उसके साथ छल-कपट करने की कोशिश करते हो, वह तुम्हें पसंद नहीं करेगा और तुम्हें नहीं चाहेगा। जो लोग अविश्वासियों के बीच लोकप्रिय होते हैं—जो वाक्पटु और हाजिरजवाब होते हैं—वे किस तरह के लोग होते हैं? क्या यह तुम लोगों को स्पष्ट है? उनका सार कैसा होता है? कहा जा सकता है कि वे सभी बेहद अस्थिर बुद्धि के और चालाक व्यक्ति होते हैं, वे सभी बेहद शातिर होते हैं, वे धूर्त होते हैं, वे असली दुष्ट शैतान होते हैं। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद कर सकता है? (नहीं।) परमेश्वर दुष्टात्माओं से सबसे ज्यादा नफरत करता है—तुम कुछ भी करो, पर तुम्हें इस तरह का व्यक्ति नहीं होना चाहिए। जो हमेशा सतर्क रहते हैं और बहुत सोच-समझकर बोलते हैं, जो देखते हैं कि हवा किस तरफ बह रही है और अपने मामले कपट से सँभालते हैं—मैं कहता हूँ, परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे ज्यादा नफरत करता है। तो, क्या परमेश्वर अब भी ऐसे व्यक्ति पर कृपा करेगा या उसे प्रबुद्ध करेगा? नहीं—वह नहीं करेगा। परमेश्वर ऐसे लोगों को जानवरों के समान समझता है। उनकी त्वचा मानव की होती है, लेकिन सार दुष्टात्मा शैतान का होता है। वे चलती-फिरती लाशें हैं, जिन्हें परमेश्वर बिलकुल नहीं बचाएगा। तुम लोग इस प्रकार के व्यक्ति को चतुर कहोगे या मूर्ख? वह सबसे मूर्ख होता है। वह धूर्त होता है। परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को पसंद नहीं करता। वह उसकी निंदा करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए परमेश्वर में विश्वास करने में क्या आशा है? उसका विश्वास महत्वहीन है, ऐसे व्यक्ति को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। अगर परमेश्वर में अपनी आस्था के दौरान लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कितने वर्षों से विश्वासी रहे हैं; अंत में, उन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा" (नकली अगुआओं की पहचान करना (8))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी स्थिति उजागर कर दी। अलग-अलग सुझावों को लेकर मैं हमेशा अनिर्णय की स्थिति में रहती, गलतियों की जिम्मेदारी लेने से डरकर, हमेशा खुद को बचाने की कोशिश करती, क्योंकि मैं इन शैतानी विषों के काबू में थी, जैसे कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "खुद को बचाओ, केवल आरोप से बचने का रास्ता सोचो," और "जब हर कोई अपराधी हो तो कानून लागू नहीं किया जा सकता।" अलग-अलग सुझावों के साथ-साथ, मेरी अपनी राय भी होती थी, लेकिन मैं सही समय पर उन्हें लोगों के सामने नहीं रखती थी और हठपूर्वक दूसरों की सलाह मानने पर जोर देती ताकि समस्याएँ मेरे सिर न आएँ और मुझसे न निपटा जाए। मैं ऐसा दिखाती जैसे मुझे दूसरों की सलाह पसंद है और मैं सुझाव स्वीकार कर उन पर अमल कर सकती हूँ, जिससे यह भ्रम पैदा हुआ कि मैं सत्य स्वीकार सकती हूँ। दरअसल, इसके पीछे मेरे नापाक, कपटपूर्ण और घिनौने इरादे थे। मैंने अपने व्यवहार पर विचार किया, मैं जब किसी चीज के लिए जिम्मेदार होती, तो अपने बारे में ही सोचती। जब कभी दूसरों को समस्या होती और वो मुझसे सलाह माँगते, तो पहले मैं दूसरों के विचार और राय जानना चाहती, अगर उनकी राय मुझसे मिलती, तो मैं उसी को आधार बनाकर अपनी बात रखती, लेकिन अगर उनकी राय अलग होती, तो मैं अपनी राय साझा नहीं करती, क्योंकि मुझे डर होता कि अगर मैं गलत हुई और कोई समस्या पैदा हुई, तो मुझे जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी, तो मैं कुछ अस्पष्ट और बेतुकी-सी राय दे देती। इन शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हुए, मैं बहुत धूर्त और कपटी बन चुकी थी, मैं कभी अपनी बात साफ तौर पर नहीं रख पाई, मेरे न तो कोई सिद्धांत थे और न कोई हैसियत, मैं ऐसे अंदाज में बात करती और पेश आती कि लोग उलझ जाते, मेरे विचारों को समझ ही न पाते। मैं सोचती कि अपनी इस चतुराई के कारण मुझे कोई नतीजे भुगतने नहीं पड़ेंगे, मेरे साथ न तो निपटा जाएगा और न ही मुझे बर्खास्त किया जाएगा। मुझे अंदाजा भी नहीं था कि मैं परमेश्वर और भाई-बहनों के साथ चालें चल रही हूँ, मैं बेहद कपटी इंसान हूँ। मैं परमेश्वर की घृणा और नफरत की पात्र बन रही थी, परमेश्वर मेरे जैसे लोगों को नहीं बचाता। भले ही मैं भाई-बहनों को धोखा दे दूँ, लेकिन परमेश्वर तो मेरे हृदय को देखता है। अगर मैं इसी तरह परमेश्वर को धोखा देती रही, अपने काम में गैर-जिम्मेदार बनी रही, लापरवाही से काम करती रही, और सत्य के सिद्धांतों को खोजने से बचती रही, तो मैं कभी सत्य को नहीं पा सकूँगी और यकीनन दंडित करके हटा दी जाऊँगी। मैंने देखा मैं अपने भले के लिए बहुत होशियार थी। मैं कितनी अज्ञानी थी! जब इस बात का एहसास हुआ तो मैं डर गई। मैं परमेश्वर से पश्चाताप करना चाहती थी। ऐसा हमेशा नहीं चल सकता था।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, "परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हें उसका सिद्धांत समझना चाहिए। सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होने का अर्थ है सिद्धांत के अनुसार कार्य करना। अगर तुम्हें कोई चीज स्पष्ट नहीं है, अगर तुम सुनिश्चित नहीं हो कि क्या करना उचित है, तो सर्वसम्मति प्राप्त करने के लिए संगति करो। जब यह निश्चित हो जाए कि कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के लिए सर्वाधिक लाभकारी क्या है, तो उसे करो। नियमों से बँधे मत रहो, देर मत करो, प्रतीक्षा मत करो, निष्क्रिय दर्शक मत बनो। यदि तुम हमेशा दर्शक बने रहते हो, और कभी भी अपनी राय नहीं रखते, यदि कुछ भी करने से पहले तुम प्रतीक्षा करते हो कि कोई और निर्णय ले, और जब कोई निर्णय नहीं लेता, तो तुम धीरे-धीरे काम करते हो और प्रतीक्षा करते हो, तो इसका क्या परिणाम होता है? तुम हर काम में गड़बड़ कर देते हो, कुछ भी हासिल नहीं करते। यदि तुम किसी बात को स्पष्टता से समझते हो, और सभी कहते हैं कि यह ठीक है, और उसे उसी तरह करने के लिए सहमत हो जाते हैं, और कहते हैं कि यह काम किया जाना चाहिए, और इसमें कोई संदेह नहीं कि यह परमेश्वर द्वारा निर्देशित है, तो तुम्हें उसे इसी तरह करना चाहिए। उसकी जिम्मेदारी लेने से, या दूसरों को नाराज करने से, या उसके परिणामों से मत डरो। यदि लोग कुछ भी वास्तविक नहीं करते, हमेशा हिसाब-किताब करते रहते हैं, जिम्मेदारी लेने से डरते हैं, और वास्तविक कार्य नहीं करते, तो यह दर्शाता है कि उनके मन में बहुत-सी दुष्ट योजनाएँ हैं। परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष का आनंद लेने की इच्छा रखना लेकिन कुछ भी वास्तविक न करना कितना अधर्म है। परमेश्वर ऐसे धूर्त और धोखेबाज लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है। तुम चाहे जो भी सोच रहे हो, तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे, तुममें वफादारी नहीं है, और तुम्हारे व्यक्तिगत विचार हमेशा शामिल रहते हैं, हमेशा तुम्हारे विचार और मत होते हैं। परमेश्वर देख रहा है, परमेश्वर जानता है, और यदि तुम तुरंत पश्चात्ताप नहीं करते, तो वह तुम्हें छोड़ देगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण भाग सत्य को व्यवहार में लाना है')। "ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? पहली तो यह कि परमेश्वर के वचनों पर कोई संदेह न करना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्तियों में से एक है। इसके अलावा, ईमानदार व्यक्ति की सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है सभी मामलों में सत्य की तलाश और उसका अभ्यास करना; यह सबसे महत्वपूर्ण है। अगर तुम यह कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम परमेश्वर के उपदेशों को हमेशा अपने दिमाग़ के कोने में रखते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो, तो क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? तुम कहते हो, 'मेरी क्षमता कम है, लेकिन दिल से ईमानदार हूँ।' लेकिन, जब तुम्हें कोई कर्तव्य पूरा करने के लिए दिया जाता है, तो तुम पीड़ा सहने से या इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से पूरा नहीं किया तो तुम्हें इसकी ज़िम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम इससे बचने के लिये बहाने बनाते हो और उसे पूरा करवाने के लिए दूसरों के नाम सुझाते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? बिलकुल भी ऐसा नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिये? उन्हें अपने कर्तव्यों को स्वीकार करना चाहिये और उसका पालन करना चाहिये, और फिर अपनी सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार उसे पूरा करने में पूरी तरह से समर्पित होना चाहिये, परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने का प्रयास करना चाहिये। यह कई तरीकों से व्यक्त क्या जाता है। एक तरीका यह है कि तुम्हें अपने कर्तव्य को ईमानदारी से स्वीकार करना चाहिये, तुम्हें अपने दैहिक हितों के बारे में नहीं सोचना चाहिये, और अधूरे मन से इसके लिए तैयार नहीं होना चाहिये। अपने खुद लाभ के लिये जाल न बिछाओ। यह ईमानदारी की अभिव्यक्ति है। दूसरा तरीका है अपना कर्तव्य पूरे दिल और पूरे सामर्थ्य के साथ निभाना, चीजों को ठीक से करना, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए पूरे समर्पण और प्रेम से अपना कर्तव्य निभाना। जब ईमानदार लोग अपना कर्तव्य निभाएँ, तो यही व्यक्त होना चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल ईमानदार बनकर ही लोग वास्तव में खुश हो सकते हैं')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को चाहता है। भले ही आप अज्ञानी हों और कम काबिलियत रखते हों। सही और ईमानदार हृदय होना जरूरी है, चीजों को अपने तक ही सीमित न रखो, अपने विचार खुलकर सामने रखो, जो समझ न आए उसे खोजो और लोगों के साथ संगति करो, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करो, वही करो जिससे परमेश्वर के घर के कार्य को लाभ हो और अपने कर्तव्य में निष्ठावान बनो। ऐसा करोगे तो परमेश्वर संतुष्ट होगा। परमेश्वर लोगों के हृदय को देखता है। अगर हम पूरी कोशिश करेंगे, फिर हम भले ही कम काबिलियत होने या सत्य न समझने के कारण गलतियाँ करें, उसके बावजूद सीखने को बहुत कुछ है। अगर हम सत्य को स्वीकारें, सत्य खोजें और समय रहते समस्याएँ सुलझा लें, तो समय के साथ हमारा भटकाव कम होता जाएगा, धीरे-धीरे सिद्धांतों में महारत हासिल करें और अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह से पालन करें। परमेश्वर का घर किसी एक गलती के लिए लोगों की निंदा कर उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराता। इसे समझकर, मुझे बहुत राहत मिली।

इसी दौरान मैंने एक बहन के साथ अपनी स्थिति के बारे में खुलकर बात करते हुए संगति की, उसने बड़ी तसल्ली से मेरी मदद की। मिलकर सत्य खोजने और संगति करने से, मेरी गलत सोच में बदलाव आया। पहले मुझे फिक्र रहती थी कि अगर मैंने दूसरों की सलाह नहीं मानी, अलग विचार और राय रखी, तो लोग मुझे अभिमानी और सत्य को न स्वीकारने वाली कहेंगे। दरअसल, मुझे अहंकार और सिद्धांतों को कायम रखने का फर्क ही नहीं पता था। सिद्धांतों को कायम रखने का अर्थ है सत्य खोजना, सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास करना, कलीसिया के हितों की रक्षा करना और लगातार उन्हें कायम रखते हुए समझौता न करना, भले ही लोग आपत्ति करें या सवाल उठाएँ। हालांकि यह थोड़ा-बहुत अहंकार करने जैसा दिखता है, लेकिन यह सत्य को कायम रखना और एक सकारात्मक चीज़ है, जबकि अहंकार हमेशा खुद को दूसरों से श्रेष्ठ मानना, अपनी राय और विचारों को ही सही मानना है; जब दूसरे अपना अलग नजरिया रखते हैं, तो खोज या चिंतन किए बिना, लोग अपने विचारों को लेकर हठ करते हैं, इंसान अपनी गलत बात को भी सही ठहराने की कोशिश करता है। ये तमाम विचार इंसान के अपने अंदर से ही आते हैं, इनका कोई सैद्धांतिक आधार नहीं होता। फिर भी, इंसान जिद करता है कि दूसरे उसकी बात मानें और उसी के अनुसार चलें। यह एक शैतानी स्वभाव है, अहंकार की अभिव्यक्ति है। मुझे उन भाई-बहनों की याद आई जिन्हें बर्खास्त कर दिया गया था। उनमें से कुछ ने अपने तरीके से काम करने पर जोर दिया, भाई-बहनों के सुझावों को गंभीरता से नहीं लिया या उन पर विचार नहीं किया, अपने पक्ष में तर्क दिया, संशोधन और सुधार के लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने जिन बातों पर जोर दिया वे सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थीं, सिर्फ उनके निजी विचार और प्राथमिकताएं थीं। यही अहंकार की अभिव्यक्ति है। जब अलग-अलग राय मेरे सामने आई, तो मुझे लगा कुछ सुझाव अनुचित हैं, लेकिन अगर मैं सिद्धांतों के अनुसार उनका मूल्यांकन कर अपने विचार रख पाती, तो यह अहंकार नहीं होता, बल्कि सत्य के सिद्धांतों को कायम रखना होता। कभी-कभी, जब मैं समस्याओं या चीजों को पूरी तरह नहीं समझ पाती थी, अगर मैं अपनी राय व्यक्त करती, सत्य खोजती और लोगों के साथ संगति करती, तो यह अहंकारपूर्वक अपने तरीके पर जोर देना नहीं होता, यह कार्य करने से पहले सिद्धांतों का पता लगाकर, अपने कर्तव्य में गंभीर और जिम्मेदार होना कहलाता। इन सत्यों को समझने पर, मुझे बड़ी राहत मिली।

जब मुझे अपने काम में बहुत ज्यादा सुझाव मिले, तो मैंने परमेश्वर से सुकून के लिए प्रार्थना की और सत्य के प्रासंगिक सिद्धांत खोजे, मूल्यांकन किया कि क्या सिद्धांतों के आधार पर संशोधन ज़रूरी हैं। मैंने सबके साथ संवाद और चर्चा में अपने विचारों को रखने की भी पहल की। वीडियो बैकग्राउंड इमेज का काम पूरा कर लेने पर, अगुआ ने कहा कि रंग का इस्तेमाल सही नहीं है और उसे बदलने के लिए कहा। मैंने सोचा, "अगर मैं ये बदलाव करती हूँ, तो काम बहुत बढ़ जाएगा, वीडियो अपलोड करने में पक्का देरी हो जाएगी। यह सिद्धांत का मामला नहीं है, यह सिर्फ एक निजी पसंद है, इसलिए इसे बदलने की कोई ज़रूरत नहीं है। लेकिन अगर मैंने नहीं बदला, तो कहीं मेरे अगुआ को ऐसा तो नहीं लगेगा कि मैं अहंकारी हूँ और दूसरों के सुझाव नहीं मानती?" फिर से झिझक हुई, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए मार्गदर्शन मांगा, ताकि सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर सकूँ। प्रार्थना के बाद, मुझे कुछ संदर्भ सामग्री मिली, फिर प्रासंगिक सिद्धांतों की खोज के लिए मैंने अगुआ और सुपरवाइजर के साथ काम किया। मैंने अपनी समझ और विचार भी बताए। अगुआ और सुपरवाइजर मेरी बात से सहमत हो गए, वीडियो जल्द ही ऑनलाइन हो गया। मैंने खुशी और सुरक्षा महसूस की।

इस दौरान हुए अनुभव पर विचार करते हुए, मुझे एहसास हुआ कि खुद को बचाने और जिम्मेदारी से बचने के लिए, मैंने काम को लेकर हर तरह की चिंताओं से अपने हाथ बाँध लिए थे। उस तरह से जीना थका देने वाला था और मैं बहुत प्रभावी नहीं थी। लेकिन जब मैंने परमेश्वर की इच्छा को समझा और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास किया, तो समस्याएँ दूर करना आसान हो गया, काम करना भी सरल और सुकून भरा लगा। इस अनुभव के बाद, मुझे महसूस हुआ कि शैतानी फलसफे के अनुसार जीना इंसान को अधिक कपटी और धोखेबाज बनाता है, इससे लोगों का भरोसा टूटता है और परमेश्वर भी नाराज होता है। सत्य का अभ्यास करने और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने से ही आपको आशीष मिलेगी। ऐसा करके ही आप निश्चितता और सुरक्षा पाते हैं, सच्ची शांति और खुशी का अनुभव करते हैं।

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