अपनी राय न रख पाने के पीछे क्या वजह है
कुछ समय पहले, मैं अपने कर्तव्य में बहुत नाकारा थी। किसी भी वीडियो प्रोजेक्ट पर काम करते हुए, मैं बार-बार उसमें सुधार करती। इससे काम की कुल प्रगति पर काफी बुरा असर पड़ता था। पहले तो लगा कि यह मेरी अपनी राय की कमी के कारण है—जब भी भाई-बहन कोई सुझाव देते, तो मैं समझ नहीं पाती थी कि सिद्धांतों के अनुसार उनकी ज़रूरत है भी या नहीं और बिना सोचे-समझे सुझावों पर अमल कर बैठती। कुछ सुझाव तो एकदम बेकार होते थे जिनकी वजह से बार-बार काम करना पड़ता था। फिर काट-छाँट के बाद, और परमेश्वर के वचनों ने जो प्रकट किया, उसके अनुसार आत्म-चिंतन करने पर एहसास हुआ कि मेरी दृढ़ता की कमी के पीछे शैतानी स्वभाव और नीच इरादे हैं।
इस बात को कई महीने हो गए। लेकिन कुछ भाई-बहन अहंकारी और दंभी थे, अपने विचारों पर अड़े रहते थे और दूसरों के सुझाव स्वीकार में सक्षम नहीं थे। इससे काम की प्रगति पर बुरा असर पड़ता था। हमारे अगुआ ने कई बार उन्हें उजागर करने के लिए संगति की, लेकिन वे तब भी नहीं बदले, तो उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। उन्हें बर्खास्त होता देख, मैंने मन में खुद को चेताया, “आगे चलकर भाई-बहनों ने मुझे सलाह दी, तो मैं अपने विचारों पर अड़ी नहीं रह सकती।” उसके बाद, जब वीडियो में संशोधन के लिए सब लोग सलाह देने लगते, मैं उन्हें मान लेती, भले ही कुछ चीजें इतनी छोटी होतीं कि उनके लिए कुछ भी बदलने की जरूरत न होती। उनमें से कुछ बदलाव मुझे भी सिद्धांतों के अनुरूप नहीं लगते, और कुछ बहुत ही ज्यादा मामूली समस्याएँ होतीं, पर मैं सोचती, “अगर मैंने यह सुधार स्वीकार नहीं किया, तो मेरे सुपरवाइजर और भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मैं अहंकारी हूँ और लोगों की सलाह मानने में अक्षम हूँ? अगर मैं एक बुरी छाप छोड़ती हूँ कि मैं सत्य स्वीकार नहीं कर सकती, तो मेरी बर्खास्तगी पक्की है। और फिर, मैं अपनी राय को लेकर पूरी तरह सुनिश्चित नहीं थी। अगर मैं गलत हुई और जरूरी बदलाव नहीं किए, और वीडियो ऑनलाइन होने के बाद वह समस्या दिख गई, तो जिम्मेदारी मुझे लेनी पड़ेगी।” यह सब सोचकर, अपने बचाव के लिए, मैं सारे सुझाव मान लेती और नए संशोधन करती। कभी-कभी तो एक ही समस्या के लिए कई तरह के सुझाव मिलते, तो मैं बहुत से संस्करण बना लेती और अपने सुपरवाइजर से सबसे बेहतरीन संस्करण चुनने को कहती, या टीम के काम पर चर्चा के दौरान, मैं भाई-बहनों के साथ इस पर चर्चा करती और हम मिलकर निर्णय लेते। मैं सोचती, “यह निर्णय तो मेरे सुपरवाइजर और अधिकांश भाई-बहनों ने लिया है। यह बहुमत की राय है, तो कोई बड़ी दिक्कत नहीं होनी चाहिए। यही सबसे सुरक्षित तरीका है। अगर आगे चलकर कुछ गलत हुआ, तो इसकी जिम्मेदारी अकेले मेरी नहीं होगी।” कभी-कभी तो, इतने सुझाव मिलते कि समझ ही नहीं आता संशोधन कैसे करूँ, तो मैं सुपरवाइजर को खोजती और उनसे दिशा तय करने में मदद माँगती। कभी-कभी ढेरों सलाह सुनकर, अंत में यह तय नहीं कर पाती थी कि कौन-सा इफेक्ट इस्तेमाल करना है, जिस कारण कर्तव्य का निर्वहन बहुत खराब ढंग से हो रहा था। काम की चर्चाओं के दौरान, मैं भाई-बहनों से लगातार गुहार लगाती कि निर्णय लेने में मेरी मदद करें, इसमें उनका बहुत समय निकल जाता था जिससे काम की संपूर्ण प्रगति धीमी पड़ जाती थी।
एक बार, मैं एक वीडियो बैकग्राउंड इमेज बना रही थी। इसका मकसद पाप में जी रहे लोगों की पीड़ा की अवस्था को दिखाना था, तो मैंने इसमें बैकलाइटिंग के साथ अंधेरे की रंगत दी। कुछ भाई-बहनों को यह ज्यादा ही काला और भद्दा लगा, सुझाव आया कि मैं तस्वीर में थोड़ी रोशनी डालूँ, थोड़ा लाइट और शैडो का इफेक्ट दूँ। इन सुझावों को लेकर मेरे मन में थोड़ी झिझक थी। विषय को देखते हुए, इमेज में ज्यादा रोशनी अंधकार में जीने वाले लोगों के पूरे परिवेश के अनुरूप नहीं लग रही थी, चमक डालना इस तरह की तस्वीरों के दस्तूर के विरुद्ध था, तो यह सुझाव मुझे सही नहीं लगा। लेकिन फिर सोचा, चूंकि कई लोगों ने यह सुझाव दिया है, अगर मैंने इसे नहीं माना, और वीडियो के ऑनलाइन होने पर इसका असर पड़ेगा, तो जिम्मेदारी मुझ पर आएगी। मन में इसे लेकर उधेड़बुन चल ही रही थी कि मैंने देखा अगुआ भी उस संशोधन से सहमत है, इसलिए मैं समझौता करने लगी। यदि मैं अपनी बात पर कायम रहकर संशोधन को नकार देती हूँ, तो क्या सब यह नहीं सोचेंगे कि मैं अपनी बात पर अड़ रही हूँ? परेशानी से बचने के लिए इसे न बदलने का बहाना बना रही हूँ? तो मैंने संशोधन पर सहमति जता दी। अगर कोई समस्या हुई, तो यह अकेले मेरी जिम्मेदारी नहीं होगी, क्योंकि मैंने सभी के सुझावों के आधार पर बदलाव किया है। साफ जाहिर था कि यह बदलाव सही नहीं है, लेकिन फिर भी पूरी इमेज को सुधारने में काफी समय चला गया। मैं तब चौंकी जब इमेज का काम पूरा होने पर, सुपरवाइजर ने संशोधन के बाद संबद्ध सिद्धांतों और इसके असल प्रभाव के आधार पर इसका मूल्यांकन करते हुए कहा कि यह वस्तुनिष्ठ तथ्यों के अनुसार नहीं है, और मुझे इसे फिर से बदलाव करना पड़ेगा। उन्होंने मुझ पर हाल के दिनों में काम में निष्क्रिय होने का भी आरोप लगाया, बोलीं कि दूसरों के सुझावों पर मेरी अपनी कोई राय नहीं है और मैं काम की प्रगति में रुकावट डाल रही हूँ और मुझे आत्म-चिंतन करना चाहिए। मैं काफी समय तक अशांत रही और बहुत उदास और दोषी महसूस करती रही। इमेज को सुधारने में इतना समय लगाया और अब इसे फिर बदलना पड़ेगा, जिससे काम की प्रगति में देरी होगी। मैंने महसूस किया कि इस दौरान जब मेरे पास अलग-अलग सुझाव आए, तो मेरे अपने विचार भी थे, लेकिन मैंने अपनी राय इसलिए नहीं बताई ताकि लोग मुझे अहंकारी न कहें। अपनी राय होने पर भी मैंने जाहिर नहीं की। किसी समस्या पर अनिश्चितता की स्थिति में, मैंने सत्य सिद्धांत नहीं खोजे, बस दूसरों के आखिरी फैसला लेने का इंतज़ार किया, हमेशा बाकी लोगों के आदेश के अनुसार काम किया। ऐसे कर्तव्य निभाना निष्क्रियता ही तो थी, इससे कलीसिया के काम में भी देरी हुई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके मुझे राह दिखाने को कहा, ताकि आत्म-चिंतन कर खुद को जान सकूँ।
खोजते और विचार करते हुए, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “परमेश्वर के घर में कर्तव्य करने वाले लोग ऐसे होने चाहिए जो कलीसिया के काम को अपना दायित्व समझें, जो जिम्मेदारी लें, सत्य सिद्धांत कायम रखें, और जो कष्ट सहकर कीमत चुकाएँ। अगर कोई इन क्षेत्रों में कम होता है, तो वह कर्तव्य करने के अयोग्य होता है, और कर्तव्य करने की शर्तों को पूरा नहीं करता है। कई लोग ऐसे होते हैं, जो कर्तव्य पालन की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। उनका डर मुख्यतः तीन तरीकों से प्रकट होता है। पहला यह है कि वे ऐसे कर्तव्य चुनते हैं, जिनमें जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता नहीं होती। अगर कलीसिया का अगुआ उनके लिए किसी कर्तव्य पालन की व्यवस्था करता है, तो पहले वे यह पूछते हैं कि क्या उन्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी : अगर ऐसा होता है, तो वे उसे स्वीकार नहीं करते। अगर उन्हें उसकी जिम्मेदारी लेने और उसके लिए जिम्मेदार होने की आवश्यकता नहीं होती, तो वे उसे अनिच्छा से स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन फिर भी वे यह देख लेते हैं कि काम थका देने वाला या परेशान करने वाला तो नहीं, और कर्तव्य को अनिच्छा से स्वीकार कर लेने के बावजूद, वे उसे अच्छी तरह से करने के लिए प्रेरित नहीं होते, उस स्थिति में भी वे लापरवाह और असावधान रहना पसंद करते हैं। आराम, कोई मेहनत नहीं, और कोई शारीरिक कठिनाई नहीं—यह उनका सिद्धांत होता है। दूसरा तरीका यह है कि जब उन पर कोई कठिनाई आती है या किसी समस्या से उनका सामना होता है, तो उनकी टालमटोल का पहला तरीका यह होता है कि उसकी रिपोर्ट किसी अगुआ को कर दी जाए और अगुआ को ही उसे सँभालने और हल करने दिया जाए, और आशा की जाए कि उनके आराम में कोई खलल नहीं पड़ेगा। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि अगुआ उस मुद्दे को कैसे सँभालता है, वे खुद उस पर कोई ध्यान नहीं देते—अगर उनकी जिम्मेदारी नहीं है, तो उनके लिए सब ठीक है। क्या ऐसा कर्तव्य-पालन परमेश्वर के प्रति निष्ठा है? इसे अपनी जिम्मेदारी दूसरे के सिर मढ़ना, कर्तव्य की उपेक्षा करना, चालाकियाँ करना कहा जाता है। यह केवल बातें बनाना है; वे कुछ भी वास्तविक नहीं कर रहे हैं। वे मन में कहते हैं, ‘अगर यह चीज मुझे ही सुलझानी है, तो अगर मैं गलती कर बैठा तो होगा? जब वे देखेंगे कि किसे दोष देना है, तो क्या वे मुझे नहीं पकड़ेंगे? क्या इसकी जिम्मेदारी सबसे पहले मुझ पर नहीं आएगी?’ उन्हें इसी बात की चिंता रहती है। लेकिन क्या तुम मानते हो कि परमेश्वर सबकी जाँच करता है? गलतियाँ सबसे होती हैं। अगर किसी नेक इरादे वाले व्यक्ति के पास अनुभव की कमी है और उसने पहले कोई मामला नहीं सँभाला है, लेकिन उसने पूरी मेहनत की है, तो यह परमेश्वर को दिखता है। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सभी चीजों और मनुष्य के हृदय की जाँच करता है। अगर कोई इस पर भी विश्वास नहीं करता, तो क्या वह गैर-विश्वासी नहीं है? फिर ऐसे व्यक्ति के कर्तव्य निभाने के मायने ही क्या हैं? इससे वाकई कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे यह कर्तव्य निभाते हैं या नहीं, है न? वे जिम्मेदारी लेने से डरते हैं और जिम्मेदारी से भागते हैं। जब कुछ होता है, तो पहला काम जो वे करते हैं, वह यह नहीं होता कि समस्या से निपटने का तरीका सोचने की कोशिश करें, बल्कि पहला काम वे यह करते हैं कि अगुआ को कॉल करके इसकी सूचना देते हैं। निस्संदेह, कुछ लोग अगुआ को सूचित करते हुए खुद समस्या से निपटने का प्रयास करते हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं करते, और पहला काम वे अगुआ को कॉल करने का करते हैं, और कॉल करने के बाद वे बस निष्क्रिय रहकर निर्देशों की प्रतीक्षा करते हैं। जब अगुआ उन्हें कोई कदम उठाने का निर्देश देता है, तो वे वह कदम उठाते हैं; अगर अगुआ कुछ करने के लिए कहता है, तो वे वैसा करते हैं। अगर अगुआ कुछ नहीं कहता या कोई निर्देश नहीं देता, तो वे कुछ नहीं करते और बस टालते रहते हैं। बिना किसी के प्रेरित किए या बिना निगरानी के वे कोई काम नहीं करते। बताओ, क्या ऐसा व्यक्ति कर्तव्य निभा रहा है? अगर वह कर्तव्य निभा भी रहा हो, तो भी उसमें निष्ठा नहीं होती! एक और तरीका है, जिससे किसी व्यक्ति का कर्तव्य-प्रदर्शन में जिम्मेदारी लेने का डर प्रकट होता है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो उनमें से कुछ लोग बस थोड़ा-सा सतही, सरल कार्य करते हैं, ऐसा कार्य जिसमें जिम्मेदारी लेना शामिल नहीं होता। जिस कार्य में कठिनाइयाँ और जिम्मेदारी लेना शामिल होता है, उसे वे दूसरों पर डाल देते हैं, और अगर कुछ गलत हो जाता है, तो दोष उन लोगों पर मढ़ देते हैं और अपना दामन साफ रखते हैं। जब कलीसिया के अगुआ देखते हैं कि वे गैर-जिम्मेदार हैं, तो वे धैर्यपूर्वक मदद की पेशकश करते हैं, या उनकी काट-छाँट करते हैं, ताकि वे जिम्मेदारी लेने में सक्षम हो सकें। लेकिन फिर भी, वे ऐसा नहीं करना चाहते, और सोचते हैं, ‘यह कर्तव्य निभाना कठिन है। चीजें गलत होने पर मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, और हो सकता है कि मुझे निकालकर बाहर भी कर दिया जाए, और यह मेरे लिए अंत होगा।’ ये कैसा रवैया है? अगर उन्हें अपना कर्तव्य निभाने में जिम्मेदारी का एहसास नहीं है, तो वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकते हैं? जो लोग वास्तव में खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपाते, वे कोई कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा सकते, और जो लोग जिम्मेदारी लेने से डरते हैं, वे अपने कर्तव्य निभाने पर सिर्फ देरी ही करेंगे। ऐसे लोग विश्वसनीय या भरोसेमंद नहीं होते; वे सिर्फ पेट भरने के लिए अपना कर्तव्य निभाते हैं। क्या ऐसे ‘भिखारियों’ को बाहर निकाल देना चाहिए? बेशक निकाल देना चाहिए। परमेश्वर के घर को ऐसे लोगों की जरूरत नहीं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी स्थिति उजागर कर दी। मैंने उस अवधि में अपने काम के प्रदर्शन पर विचार किया। जब मुझे बहुत-सी सलाह मिली, तो मुझे समझ आ गया था कि उनमें से कुछ सही नहीं हैं। कुछ संशोधन सिद्धांतों के विरुद्ध थे और कुछ अनावश्यक थे। लेकिन मुझे डर था कि अगर मैंने सबकी सलाह नहीं सुनी, और कुछ गलत हुआ, तो अकेले मुझे ही दोषी माना जाएगा। मुझे यह भी चिंता थी कि अगर मैं अपनी बात पर अड़ी रही तो लोगों को लगेगा कि मैं अहंकारी और दंभी हूँ, इसलिए मैंने सभी की राय का सम्मान किया, जो भी बदलाव सुझाए गए उन्हें माना, बार-बार संशोधन कर कई संस्करण बनाए, सुपरवाइजर और भाई-बहनों के फैसला लेने का इंतजार किया। मैंने कभी सत्य सिद्धांत नहीं खोजे या दोषी करार दिए जाने के डर से खुद निर्णय नहीं लिए। मुझे इस तरह काम करना ज्यादा सुरक्षित लगा, क्योंकि जब समूह निर्णय लेता है, तो समस्याएं होने की संभावना कम रहती है, और अगर कोई समस्या हुई भी, तो अकेले मेरी जिम्मेदारी नहीं होगी। वैसे तो मैं हमेशा अपने काम में व्यस्त नजर आती थी, पर सच यह है कि हर चीज में मैंने अपना ही हित साध रही थी और खुद को बचाने और जिम्मेदारी से बचने के तरीका सोच रही थी। क्या यह मेरी चालबाजी नहीं थी? इस तरह से कर्तव्य निभाना सिर्फ मेहनत करना और जो कहा जाये वही करना था। मैं कभी भी परिश्रमी नहीं थी, न अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी लेती थी। मुझे कलीसिया के कार्यों की थोड़ी भी परवाह नहीं थी और मुझमें इंसानियत नाम की कोई चीज नहीं थी। अपने काम में ईमानदार लोग, हर चीज में कलीसिया के हितों का ख्याल रखते हैं, कोई बात समझ न आए, तो वे परमेश्वर की इच्छा और सत्य सिद्धांत खोजते हैं, और अपने कर्तव्यों में परमेश्वर के साथ एकमत होते हैं। और मैं? मैं अपने कर्तव्य में पूरी तरह से निष्ठाहीन और नासमझ थी। मैं एक ऐसी सेविका थी, जो कुछ करने के लिए हुक्म का इंतजार करती थी। मैं सत्य द्वारा समस्याएँ दूर करने की कोशिश कभी नहीं करती थी। इस तरह कर्तव्य निभाते हुए, मेरा परमेश्वर या सत्य से कोई लेना-देना नहीं था। मैं यूँ ही ऊपर-ऊपर से लापरवाही से काम कर रही थी जो सेवाकर्मी के बराबर भी नहीं था।
मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश याद आया : “वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों को अच्छे या बुरे के रूप में आंका जाता है? वह यह है कि वह अपने विचारों, भावात्मक अभिव्यक्तियों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य वास्तविकता को जीने की गवाही रखता है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को कैसे देखता है? परमेश्वर के लिए, तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हराते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और उस अपमान से निशानों से भरे हुए हैं जो तुमने परमेश्वर का किया है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुमपरमेश्वर के लिये खुद को खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि अपने फायदे के लिए काम कर रहे हो। ‘अपने फायदे के लिए,’ इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है, शैतान के फायदे के लिए काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, ‘हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।’ परमेश्वर की नजर में तुम्हारे कार्यों को अच्छे कर्मों के रूप में नहीं देखा जाएगा, बल्कि उन्हें बुरे कर्म माना जाएगा। उन्हें न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि उनकी निंदा भी की परमेश्वर में ऐसे विश्वास से कोई क्या हासिल करने की आशा कर सकता है? क्या इस तरह का विश्वास अंततः व्यर्थ नहीं हो जाएगा?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि उसकी नजर सबके दिलों पर होती है। वह यह नहीं देखता कि हम कितना काम करते हैं या कितना कष्ट सहते हैं। बल्कि यह देखता है कि अपने कर्तव्य-पालन में लोगों के इरादे परमेश्वर के लिए हैं या अपने लिए, और क्या वे अपने काम में सत्य के अभ्यास की गवाही देते हैं। अगर काम बस स्वयं को संतुष्ट करने के लिए किया जाए, तो यह परमेश्वर की नज़रों में दुष्टता है और परमेश्वर को इससे घृणा है। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि कर्तव्य निभाते समय मैं केवल अपने बारे में ही सोचती थी। जिम्मेदारी लेने से बचने के लिए मैं बेमतलब की चीजों को भी सुधारती, फिर उनमें चाहे कितना भी समय लगे, काम की प्रगति में हो रही देरी की परवाह न करते हुए मैं बार-बार संशोधन करती रही। स्पष्ट रूप से जानते हुए भी अपनी इच्छा के विरुद्ध जाकर मैंने उन सुझावों के आधार पर संशोधन किए जो गलत थे, जिसके परिणामस्वरूप वीडियो की क्वालिटी बिगड़ती चली गई। मैंने काम में देरी की, पर कभी चिंता नहीं की और न ही शीघ्र काम करने का भाव आया, न ही मैंने सत्य सिद्धांत खोजकर कार्यक्षमता बढ़ाने की कोशिश की। अपने कर्तव्य-निर्वहन में मैं बस प्रणाली के अनुसार जैसे-तैसे काम करती रही, मुझे यही लगता कि संशोधन करो, सबकी स्वीकृति लो और बस अपना काम हो गया। मेरा गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार कर्तव्य-निर्वहन नहीं था, और यह भले कर्म इकट्ठा करना नहीं था। यह दुष्टता थी। अपने हितों की रक्षा के लिए, मैंने बार-बार कलीसिया के काम में बाधा डाली। मैं तो शैतान की सेविका बनकर कलीसिया के कार्य को बाधित कर रही थी! इस पर सोचकर, मैं डर गई। मैंने फौरन परमेश्वर से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना की, ताकि अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया बदले।
उसके बाद, अपने कर्तव्य के दौरान जब तमाम प्रकार के सुझाव आते, तो मैं सबसे पहले परमेश्वर से प्रार्थना करती और खोजती, विश्लेषण करती कि कौन से सुझाव ज़रूरी हैं, कौन से नहीं, और अपनी काबिलियत में सुधार के तरीकों पर विचार करती जिससे बेहतर परिणाम मिलें। जो सुझाव ज़रूरी न होते, उन पर मैं सिद्धांतों की अपनी समझ के अनुसार राय देती, औरों से चर्चा और संगति करती, और आम सहमति पर पहुँचती। इस तरह के अभ्यास ने मुझे अपने कर्तव्य निर्वहन में थोड़ा और कुशल बना दिया। मुझे लगा इस पहलू में मुझमें कुछ बदलाव आया है और प्रवेश मिला है, लेकिन जब जिम्मेदारी लेने से जुड़ी चीजों से सामना हुआ, तो मैं फिर से पुराने ढर्रे पर लौट आई।
एक बार, मैंने एक वीडियो इमेज बनाई इमेज की कुछ डिटेल को लेकर सबकी अलग-अलग राय थी। चर्चा के बाद भी हम तय नहीं कर पाए कि इसे कैसे संशोधित करें, हम काफी देर तक इस पर अटके रहे। दरअसल, मुझे पता था कि अगर कोई इमेज अच्छी दिख रही है, इमेज की विषयवस्तु वस्तुनिष्ठ वास्तविकता का उल्लंघन नहीं करती, तो उसकी डिटेल पर अटकने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन इतने सारे अलग-अलग सुझाव सुनकर, मुझे समझ नहीं आया क्या करूँ, “अगर मैंने अपने विचारों के आधार पर चीजें बदलीं, और वीडियो अपलोड होने के बाद कोई समस्या हुई तो क्या होगा? तब यह मेरी जिम्मेदारी होगी।” मुझे गलती की जिम्मेदारी उठाने से डर लगता था, इसलिए =मैंने फिर से सभी के सुझावों के आधार पर कई संस्करण बना दिए और इंतजार करने लगी कि सभी अपना अंतिम निर्णय दें। लेकिन अंत में, किसी ने भी मुझे स्पष्ट जवाब नहीं दिया। समय निकलता गया और मेरी बेचैनी बढ़ती गई। क्या मेरी वजह से वीडियो की प्रगति में देरी नहीं हो रही थी? मैंने खुद से पूछा, “निर्णय लेना इतना कठिन क्यों है? ऐसा क्यों लगता है कि मेरे हाथ बंधे हुए हैं और मैं उन्हें खोल नहीं पा रही?” इसलिए, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके राह दिखाने को कहा ताकि आत्म-चिंतन करके खुद को जान सकूँ।
फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, समस्याओं से सामना होने पर तुममें जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए, और समस्याएँ हल करने के लिए तुम्हें सत्य तलाशने के तरीके खोजने चाहिए। विश्वासघाती व्यक्ति मत बनो। अगर तुम जिम्मेदारी से बचते हो और समस्याएँ आने पर उससे पल्ला झाड़ लेते हो, तो अविश्वासी भी तुम्हारी निंदा करेंगे, परमेश्वर का घर तो करेगा ही। परमेश्वर इसकी निंदा करता है और इसे शाप देता है। परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसे व्यवहार को तिरस्कृत और अस्वीकृत करते हैं। परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है, लेकिन धोखेबाज और धूर्त लोगों से घृणा करता है। अगर तुम एक विश्वासघाती व्यक्ति हो और चालाकी करने का प्रयास करते हो, तो क्या परमेश्वर तुमसे घृणा नहीं करेगा? क्या परमेश्वर का घर तुम्हें सजा दिए बिना ही छोड़ देगा? देर-सवेर तुम्हें जवाबदेह ठहराया जाएगा। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और विश्वासघाती लोगों को नापसंद करता है। सभी को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए, और भ्रमित होकर मूर्खतापूर्ण कार्य करना बंद कर देना चाहिए। क्षणिक अज्ञान समझ में आता है, लेकिन सत्य स्वीकारने से एकदम इनकार कर देना हठ है। ईमानदार लोग जिम्मेदारी ले सकते हैं। वे अपनी लाभ-हानि पर विचार नहीं करते, वे बस परमेश्वर के घर के काम और हितों की रक्षा करते हैं। उनके दिल दयालु और ईमानदार होते हैं, साफ पानी के उस कटोरे की तरह, जिसका तल एक नजर में देखा जा सकता है। उनके कार्यों में पारदर्शिता भी होती है। धोखेबाज व्यक्ति हमेशा चालाकी करता है, हमेशा चीजें छिपाता है, लीपापोती करता है, और खुद को ऐसा कसकर लपेटता है कि कोई भी उसकी असलियत नहीं देख सकता। लोग तुम्हारे आंतरिक विचार नहीं देख सकते, लेकिन परमेश्वर तुम्हारे दिल में मौजूद गहनतम चीजें देख सकता है। अगर परमेश्वर देखता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, कि तुम धूर्त हो, कि तुम कभी सत्य नहीं स्वीकारते, कि तुम हमेशा उसे धोखा देने की कोशिश करते हो, और तुम अपना दिल उसके हवाले नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें पसंद नहीं करेगा, वह तुमसे नफरत करेगा और तुम्हें त्याग देगा। जो लोग अविश्वासियों के बीच फलते-फूलते हैं—जो वाक्पटु और हाजिरजवाब होते हैं—वे किस तरह के लोग होते हैं? क्या यह तुम लोगों को स्पष्ट है? उनका सार कैसा होता है? कहा जा सकता है कि वे सभी असाधारण रूप से शातिर होते हैं, वे सब अत्यंत धोखेबाज और विश्वासघाती होते हैं, वे असली दुष्ट शैतान होते हैं। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को बचा सकता है? परमेश्वर शैतानों से ज्यादा किसी से नफरत नहीं करता—वे लोग जो धोखेबाज और विश्वासघाती होते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को कभी नहीं बचाएगा, इसलिए तुम लोग कुछ भी करो, पर इस तरह के व्यक्ति मत बनो। जो हाजिर-जवाब होते हैं और बोलते हुए सभी पहलुओं पर विचार करते हैं, जो मधुरभाषी और चालाक होते हैं और मामलों से निपटते हुए यह देख लेते हैं कि हवा किस तरफ बह रही है—मैं कहता हूँ, परमेश्वर इन लोगों से सबसे ज्यादा नफरत करता है, ऐसे लोग बचाए नहीं जा सकते। जब लोग धोखेबाज और विश्वासघाती होते हैं, तो चाहे उनके बोल कितने भी अच्छे क्यों न लगें, वे फिर भी भ्रामक झूठ ही होते हैं। उनके बोल जितने ज्यादा अच्छे लगते हैं, वे उतने ही ज्यादा दुष्ट शैतान होते हैं। वे बिलकुल उस किस्म के लोग होते हैं, जिनसे परमेश्वर सबसे ज्यादा घृणा करता है। तुम लोग क्या कहते हो : जो लोग धोखेबाज होते हैं, झूठ बोलने में माहिर होते हैं, मीठा-मीठा बोलते हैं—क्या वे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे पवित्र आत्मा की रोशनी और प्रबुद्धता प्राप्त कर सकते हैं? बिलकुल नहीं। धोखेबाज और विश्वासघाती लोगों के प्रति परमेश्वर का क्या रवैया होता है? वह उनसे घृणा करता है और उन्हें नकार देता है। वह उन्हें दरकिनार कर देता है और उनकी तरफ ध्यान नहीं देता। वह उन्हें पशुओं की श्रेणी का ही मानता है। परमेश्वर की नजरों में ऐसे लोग सिर्फ मनुष्य की खाल पहने होते हैं, अपने सार में वे दुष्ट शैतान की श्रेणी के ही होते हैं, वे चलती-फिरती लाशें हैं, और परमेश्वर उन्हें कभी नहीं बचाएगा” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी स्थिति उजागर कर दी। अलग-अलग सुझावों को लेकर मैं हमेशा अनिर्णय की स्थिति में रहती, गलतियों की जिम्मेदारी लेने से डरकर, हमेशा खुद को बचाने की कोशिश करती, क्योंकि मैं इन शैतानी विषों के काबू में थी, जैसे कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “ज्ञानी लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं वे बस गलतियाँ करने से बचते हैंज्ञानी लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं,” और “जब हर कोई अपराधी हो तो कानून लागू नहीं किया जा सकता।” दूसरों के सुझावों के साथ-साथ, मेरी अपनी राय भी होती थी, लेकिन मैं सही समय पर उन्हें लोगों के सामने नहीं रखती थी। कभी-कभी जब दूसरों के सुझाव गलत लगते तो भी हठपूर्वक उन्हें मानने पर जोर देती ताकि खुद को बचा सकूँ। इस तरह अगर समस्याएँ हुईं तो वे मेरी ज़िम्मेदारी नहीं होंगी और मेरे साथ काट-छाँट नहीं की जाएगी। मैं ऐसा दिखाती जैसे मुझे दूसरों की सलाह पसंद है और मैं सुझाव स्वीकार कर उन पर अमल कर सकती हूँ, जिससे यह भ्रम पैदा हुआ कि मैं अहंकारी नहीं हूँ और सत्य स्वीकार सकती हूँ। दरअसल, इसके पीछे मेरे घिनौने इरादे थे। मैंने अपने व्यवहार पर विचार किया, मैं जब किसी चीज के लिए जिम्मेदार होती, तो अपने बारे में ही सोचती। जब कभी दूसरों को समस्या होती और वो मुझसे सलाह माँगते, तो पहले मैं उनके विचार और राय का विश्लेषण करती, अगर उनकी राय मुझसे मिलती, तो मैं उसी को आधार बनाकर अपनी बात रखती, लेकिन अगर उनकी राय अलग होती, तो मैं अपनी राय साझा नहीं करती, क्योंकि मुझे डर होता कि अगर मैं गलत हुई और कोई समस्या पैदा हुई, तो मुझे जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी, तो मैं कुछ अस्पष्ट और कामचलाऊ राय दे देती। इन शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हुए, मैं बहुत धूर्त और कपटी बन चुकी थी, मैं कभी अपना दृष्टिकोण स्पष्टता से सामने नहीं रख पाई, मेरे न तो कोई सिद्धांत थे और न कोई हैसियत, मैं ऐसे अंदाज में बात करती और पेश आती कि लोग उलझ जाते, मेरे विचारों को समझ ही न पाते। मैं सोचती कि ऐसा करना चतुराई है, इससे मुझे कोई नतीजे भुगतने नहीं पड़ेंगे, मेरी काट-छाँट नहीं की जाएगी या मुझे बर्खास्त नहीं किया जाएगा। मुझे अंदाजा भी नहीं था कि मैं परमेश्वर और भाई-बहनों के साथ चालें चल और षड्यंत्र रच रही हूँ, मैं परमेश्वर को मुझसे घृणा और नफरत करने को मजबूर कर रही थी। परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। मैं अपने भाई-बहनों को धोखा दे सकती हूँ, लेकिन परमेश्वर मेरा हृदय देखता है। अगर मैं इसी तरह परमेश्वर को धोखा देती रही, अपने कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार बनी रही, लापरवाही से काम करती रही, और सत्य सिद्धांतों को खोजने पर ध्यान नहीं दिया, तो मैं कभी कोई सत्य को नहीं पा सकूँगी और हटा दी जाऊँगी। मैंने देखा मैं कुछ ज्यादा ही होशियार थी। मैं सचमुच कितनी अज्ञानी थी! जब इस बात का एहसास हुआ तो मैं डर गई। मैं परमेश्वर से पश्चात्ताप करना चाहती थी। ऐसा हमेशा नहीं चल सकता था।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े : “परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हें उसका सिद्धांत समझना चाहिए और सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए। इसी को सिद्धांतनिष्ठ होना कहते हैं। अगर तुम्हें कोई चीज स्पष्ट नहीं है, अगर तुम सुनिश्चित नहीं हो कि क्या करना उचित है, तो सर्वसम्मति पाने के लिए संगति करो। जब यह निश्चित हो जाए कि कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के लिए सर्वाधिक लाभकारी क्या है, तो उसे करो। नियमों से बँधे मत रहो, देर मत करो, प्रतीक्षा मत करो, मूकदर्शक मत बनो। यदि तुम हमेशा मूकदर्शक बने रहकर कभी भी अपनी राय नहीं रखते, यदि कुछ भी करने से पहले तुम प्रतीक्षा करते हो कि कोई और निर्णय ले, और जब कोई निर्णय नहीं लेता, तो तुम धीरे-धीरे काम करते हो और प्रतीक्षा करते हो, तो इसका क्या परिणाम होता है? हर काम बिगड़ जाता है और कुछ भी पूरा नहीं हो पाता। तुम्हें सत्य खोजना सीखना चाहिए या कम-से-कम अपने अंतःकरण और विवेक से काम लेने में सक्षम होना चाहिए। जब तक तुम्हें कोई काम करने का उचित तरीका समझ में न आ जाए और ज्यादातर लोग इस तरीके को कारगर न मान लें, तुम्हें इसी तरह अभ्यास करना चाहिए। उस काम की जिम्मेदारी लेने या दूसरों की नाराजगी मोल लेने या परिणाम भुगतने से मत डरो। अगर कोई कुछ वास्तविक कार्य नहीं करता, हमेशा तोलमोल करते हुए जिम्मेदारी लेने से डरता है, और जो कार्य करता है उनमें सिद्धांतों का पालन करने का साहस नहीं कर पाता, तो यह दिखाता है कि वह व्यक्ति निहायत ही चालाक और धूर्त है और उसके मन में बहुत सी दुष्ट योजनाएँ हैं। परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष का आनंद लेने की इच्छा रखना लेकिन कुछ भी वास्तविक न करना कितना अधर्म है। परमेश्वर ऐसे धूर्त और चालाक लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है। तुम चाहे जो भी सोच रहे हो, तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे, तुममें वफादारी नहीं है, और तुम्हारे व्यक्तिगत विचार हमेशा शामिल रहते हैं, हमेशा तुम्हारे विचार और मत होते हैं। परमेश्वर इन चीजों को देखता है, परमेश्वर जानता है—क्या तुमने सोचा कि परमेश्वर नहीं जानता? यह सोचना मूर्खता है! और यदि तुम तुरंत पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम परमेश्वर का कार्य खो दोगे” (परमेश्वर की संगति)। “एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ क्या हैं? सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के बारे में कोई संदेह नहीं होना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाओं में से एक है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यंजना है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? तुम कहते हो, ‘भले ही मेरी क्षमता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिये बहाने बनाते हो या फिर सुझाते कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति समर्पित होना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है। एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिये जाल न बिछाना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को चाहता है। भले ही हम अज्ञानी हों और कम काबिलियत रखते हों। मुख्य है सही और ईमानदार हृदय का होना, खुद को न छिपाना, अपने विचार खुलकर सामने रखना, जो समझ न आए उसे खोजना और लोगों के साथ संगति करना, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना, और कलीसिया के कार्य को लाभ पहुंचाना और अपने कर्तव्य में निष्ठावान बनना। ऐसा करने से परमेश्वर संतुष्ट होगा। परमेश्वर लोगों के हृदय को देखता है। अगर हम पूरी कोशिश करेंगे, फिर हम भले ही कम काबिलियत होने या सत्य न समझने के कारण गलतियाँ करें, उसके बावजूद सीखने को बहुत कुछ है। अगर हम सत्य को स्वीकारें, सत्य खोजें और समय रहते समस्याएँ सुलझा लें, तो समय के साथ हमारा भटकाव कम होता जाएगा, धीरे-धीरे सिद्धांतों में महारत हासिल करें और अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह से पालन करें। कलीसिया किसी एक गलती के लिए लोगों की निंदा कर उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराता। इसे समझकर, मुझे बहुत राहत मिली।
इसी दौरान मैंने एक बहन के साथ अपनी स्थिति के बारे में खुलकर बात करते हुए संगति की, उसने बड़ी तसल्ली से मेरी मदद की। मिलकर संगति करने और सत्य खोजने से, मेरी गलत सोच में बदलाव आया। पहले मुझे फिक्र रहती थी कि अगर मैंने दूसरों की सलाह नहीं मानी, अलग विचार और राय रखी, तो वे मुझे अभिमानी और सत्य को न स्वीकारने वाली कहेंगे। दरअसल, इसका कारण यह था कि मुझे अहंकार और सिद्धांतों को कायम रखने के बीच का फर्क ही नहीं पता था। सिद्धांतों को कायम रखने का अर्थ है सत्य खोजने के द्वारा सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास करना, कलीसिया के हितों की रक्षा करना और लगातार उन्हें कायम रखते हुए समझौता न करना, भले ही लोग आपत्ति करें या सवाल उठाएँ। हालांकि यह थोड़ा-बहुत अहंकार करने जैसा दिखता है, लेकिन यह सत्य को कायम रखना और एक सकारात्मक चीज़ है। अहंकार हमेशा खुद को दूसरों से श्रेष्ठ मानना, अपनी राय और विचारों को ही सही मानना है; जब दूसरे अपना अलग नजरिया रखते हैं, तो खोज या चिंतन किए बिना, लोग अपने विचारों को लेकर हठ करते हैं; बस अपनी मर्ज़ी से काम करते हैं और गलत बात को भी सही ठहराने पर अड़े रहते हैं। ये तमाम विचार इंसान के अपने अंदर से ही आते हैं, इनका कोई सैद्धांतिक आधार नहीं होता। फिर भी, इंसान जिद करता है कि दूसरे उसकी बात मानें और उसी के अनुसार चलें। यह एक शैतानी स्वभाव है, अहंकार की अभिव्यक्ति है। मुझे उन भाई-बहनों की याद आई जिन्हें बर्खास्त कर दिया गया था। उनमें से कुछ अपने दृष्टिकोण पर अड़े रहते थे, भाई-बहनों के सुझावों को गंभीरता से नहीं लिया, खोजा या विचार नहीं किया, अपने पक्ष में तर्क दिया, संशोधन और सुधार के लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने जिन बातों पर जोर दिया वे सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थीं, सिर्फ उनके निजी विचार और प्राथमिकताएं थीं। यही अहंकार की अभिव्यक्ति है। अगर कोई सिद्धांतों के अनुसार मूल्यांकन कर यह तय कर पाता है कि दूसरे के सुझाव गलत हैं और अपने विचार रखता है, तो यह अहंकार नहीं होता, यह चीजों को गंभीरता से लेना और ईमानदारी से अपने काम की ज़िम्मेदारी लेना है। जब कोई समस्या पूरी तरह नहीं समझ आती, तो दूसरों के साथ खोजते और संगति करते हुए अपने दृष्टिकोण सामने रखना, अहंकारपूर्वक अपने तरीके पर जोर देना नहीं होता, बल्कि कार्य करने से पहले सिद्धांत खोजना होता है। सत्य के इन पहलुओं को समझने पर, मुझे बड़ी राहत मिली।
बाद में, जब मुझे अपने कर्तव्य में ज्यादा सुझाव मिले, तो मैंने परमेश्वर से सुकून के लिए प्रार्थना की और प्रासंगिक सत्य सिद्धांत खोजे, मूल्यांकन किया कि क्या सिद्धांतों के आधार पर संशोधन ज़रूरी हैं। मैंने सबके साथ अपने विचारों पर संवाद और चर्चा करने की भी पहल की। एक बार, जब मैंने वीडियो बैकग्राउंड इमेज का काम पूरा कर लिया, तो अगुआ ने कहा कि रंग का इस्तेमाल सही नहीं है और उसे बदलने के लिए कहा। मैंने सोचा, “अगर मैंने इस सुझाव के अनुसार बदलाव किए, तो बहुत सारे गंभीर संशोधन करने होंगे, वीडियो अपलोड करने में पक्का देरी हो जाएगी। यह सिद्धांत का मामला नहीं है, यह सिर्फ एक निजी पसंद है, इसलिए इसे बदलने की कोई ज़रूरत नहीं है। लेकिन अगर मैंने नहीं बदला, तो कहीं मेरे अगुआ को ऐसा तो नहीं लगेगा कि मैं अहंकारी और दंभी हूँ और दूसरों के सुझाव नहीं मानती?” फिर से झिझक हुई, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए मार्गदर्शन मांगा, ताकि सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर सकूँ। प्रार्थना के बाद, मुझे कुछ संदर्भ सामग्री मिली, फिर प्रासंगिक सिद्धांतों की खोज के लिए मैंने अगुआ और सुपरवाइजर के साथ काम किया। मैंने अपनी समझ और विचार भी बताए। अगुआ और सुपरवाइजर मेरी बात से सहमत हो गए, वीडियो जल्द ही ऑनलाइन हो गया। मैंने खुशी और सुरक्षा महसूस की।
इस दौरान हुए अनुभव पर विचार करते हुए, मुझे एहसास हुआ कि खुद को बचाने और जिम्मेदारी से बचने के लिए, मैंने कर्तव्य को लेकर हर तरह की चिंताओं से अपने हाथ बाँध लिए थे। उस तरह से जीना थका देने वाला था और मैं बहुत प्रभावी नहीं थी। लेकिन जब मैंने परमेश्वर की इच्छा को समझा और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास किया, तो समस्याएँ दूर करना आसान हो गया, कर्तव्य निभाना भी सरल और सुकून भरा लगा। मुझे सचमुच अनुभव हुआ कि जीवन के शैतानी फलसफे के अनुसार जीने से मैं बस अधिक कपटी और धोखेबाज ही बनूँगी, इससे लोगों का भरोसा टूटता है और परमेश्वर भी नाराज होता है। सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने से ही परमेश्वर की आशीष मिल सकती है। ऐसा करके ही मजबूती और निष्कपटता का एहसास होता है, और दिल में आनंद और शांति का अनुभव होता है।
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