ईर्ष्या का समाधान

17 अक्टूबर, 2020

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मनुष्य की देह शैतान की है, यह विद्रोही स्वभावों से परिपूर्ण है, यह दुखद रूप से गंदी है, और यह कुछ ऐसी है जो अस्वच्छ है। लोग देह के आनंद के लिए बहुत अधिक ललचाते हैं और देह की कई सारी अभिव्यंजनाएँ हैं; यही कारण है कि परमेश्वर मनुष्य की देह से एक निश्चित सीमा तक घृणा करता है। जब लोग शैतान की गंदी, भ्रष्ट चीज़ों को निकाल फेंकते हैं, तब वे परमेश्वर से उद्धार प्राप्त करते हैं। परंतु यदि वे गंदगी और भ्रष्टता से स्वयं को अब भी नहीं छुड़ाते हैं, तो वे अभी भी शैतान के अधिकार क्षेत्र के अधीन रह रहे हैं। लोगों की धूर्तता, छल-कपट, और कुटिलता सब शैतान की चीज़ें हैं। परमेश्वर द्वारा तुम्हारा उद्धार तुम्हें शैतान की इन चीज़ों से छुड़ाने के लिए है। परमेश्वर का कार्य ग़लत नहीं हो सकता है; यह सब लोगों को अंधकार से बचाने के लिए किया जाता है। जब तुमने एक निश्चित बिंदु तक विश्वास कर लिया है और देह की भ्रष्टता से अपने को छुड़ा सकते हो, और इस भ्रष्टता की बेड़ियों में अब और जकड़े नहीं हो, तो क्या तुम बचाए गए नहीं होगे? जब तुम शैतान के अधिकार क्षेत्र के अधीन रहते हो, तब तुम परमेश्वर को प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त करने में असमर्थ होते हो, तुम कोई गंदी चीज़ होते हो, और परमेश्वर की विरासत प्राप्त नहीं कर सकते हो। एक बार जब तुम्हें स्वच्छ कर दिया और पूर्ण बना दिया गया, तो तुम पवित्र हो जाओगे, तुम सामान्य व्यक्ति हो जाओगे, और तुम परमेश्वर द्वारा धन्य किए जाओगे और परमेश्वर के प्रति आनंद से परिपूरित होओगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (2))। परमेश्वर के वचनों के ज़रिए मैं समझ पाई कि हमारे बीच ईर्ष्यालु टकराव और आपसी विवाद इसलिए होते हैं क्योंकि हमें शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, हम अपने कपटी और दुष्ट शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हैं और बहुत स्वार्थी हैं। एक समय था जब मैं भी ईर्ष्या की स्थिति में रहती थी, लगातार लोगों के खिलाफ़ साज़िश रचा करती थी, शोहरत और नाम के पीछे भागा करती थी। जीने का यह एक दर्दनाक तरीक़ा था लेकिन मैं ख़ुद को आज़ाद नहीं कर पा रही थी। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना की वजह से ही मैं थोड़ा-बहुत बदल पाई और इस दर्द को दूर कर पाई।

जून 2017 की बात है जब मैं कलीसिया में एक समूह अगुआ बनी और मुझे कुछ सभाओं में कलीसियाई जीवन की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। मुझे इस काम से बहुत ख़ुशी हुई और महसूस हुआ कि परमेश्वर मेरा उत्थान कर रहा है और उसके प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए मुझे अच्छा काम करना होगा। उसके बाद, सभाओं में सहभागिता करते समय मैं काफ़ी सक्रिय थी, जब भी मुझे दिखाई देता कि कोई भाई-बहन परेशानियों का सामना कर रहे हैं या खराब हालात में हैं, तो मैं सहभागिता के लिए परमेश्वर के वचनों की तलाश करती और उनकी परेशानियों को हल करती थी। कुछ समय बाद, दूसरे लोग मुझे सकारात्मक नज़रिए से देखने लगे और कहने लगे कि मैं सभाओं में सहभागिता के ज़रिए व्यावहारिक मसले हल कर सकती हूँ, मैं अपने कर्तव्य को ज़िम्मेदारी से निभाती हूँ और भाई-बहनों के साथ प्यार से पेश आती हूं। यह सुनकर मुझे वाकई अपने आप पर गर्व महसूस हुआ।

कुछ समय बाद, मैंने सुना कि कलीसिया के अगुआ के लिए चुनाव होने वाला है और मैं सोचने लगी, "हर कोई मेरे बारे में अच्छा सोचता है, तो मुमकिन है कि मैं भी अगुआ बन जाऊँ। अगर मैं चुनी जाती हूँ, तो भाई-बहन बेशक़ मेरा और ज़्यादा सम्मान करने लगेंगे।" मतदान के बाद, बहन यांग और मैं, दोनों नामांकित हुए। जब मैंने देखा कि उन्हें मुझसे थोड़े ज़्यादा वोट मिले, तो मुझे थोड़ा डर लगने लगा। मैं सोचने लगी, "मैं अपना कर्तव्य ज़िम्मेदारी के साथ निभाती हूँ और व्यावहारिक काम भी कर सकती हूँ। तो इन्हें मुझसे ज़्यादा वोट क्यों मिले?" लेकिन फिर मैंने सोचा, "अभी तो सिर्फ़ नामांकन हुआ है, आख़िरी मतदान नहीं हुआ है। मैं अभी भी जीत सकती हूँ। अब मुझे ख़ुद को सत्य के साथ तैयार करना होगा और दूसरों के जीवन प्रवेश में आने वाली मुश्किलों को हल करने के लिए उनकी ज़्यादा मदद करनी होगी, ताकि सभी लोग देख सकें कि वो मुझसे बेहतर नहीं हैं, और फिर मैं ज़रूर चुनी जाऊँगी!" मुझे एक ऐसा मुद्दा याद आया जो बहन वांग ने पिछली सभा में उठाया था और अभी तक हल नहीं हुआ था। तो मैंने जल्दी-जल्दी परमेश्वर के कुछ प्रासंगिक वचनों को ढूंढकर तैयारी की, ताकि अगली बार मैं उनके साथ सहभागिता कर सकूँ। सभा के दिन मैं हमारी बैठक की जगह पर पहुँच गई, लेकिन जैसे ही मैं वहाँ पहुँची, मैंने देखा कि बहन यांग बहन वांग के साथ सहभागिता कर रही थीं। मुझे ये बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। मैंने सोचा, "मैं आज यहाँ यह सोचकर आई थी कि मैं बहन वांग के साथ सहभागित करके उनके मसले को हल करूँगी और तुमने यह मौका लपक लिया! अगर तुम पहले ही इसे हल कर दोगी, तो मैं यह कैसे दिखा पाऊँगी कि मैं क्या कर सकती हूँ?" ज़ाहिर है, बहन यांग की सहभागिता के बाद, बहन वांग के चेहरे पर एक मुस्कुराहट नज़र आई और दूसरे भाई-बहनों ने हामी भरते हुए सिर हिलाया। मुझे यह देखकर ख़ुशी नहीं हुई। मुझे बहन यांग से जलन होने लगी, मुझे लग रहा था कि उन्होंने मुझे मिलने वाली वाहवाही छीन ली है। मैं सोचने लगी, "तुम्हारे इस सभा में शामिल होने से पहले, हर कोई मेरी सहभागिता सुनना चाहता था। लेकिन अब हर कोई तुम्हारी इज़्ज़त करता है और किसी को मेरी परवाह नहीं है।" उस समय हर कोई ख़ुशी-ख़ुशी सहभागिता कर रहा था, लेकिन मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था और मैं बस वहाँ से निकल जाना चाहती थी।

घर पहुँचकर मैं निराश अपने बिस्तर पर बैठ गई। जितना मैं इसके बारे में सोचती, मेरी उदासी बढ़ती जाती। मैं सोचने लगी, "अगर ऐसा ही चलता रहा, तो अगुआ बनने की मेरी संभावना बहुत ही कम है। ऐसा नहीं हो सकता, मुझे अपनी सहभागिता में ज़्यादा सक्रिय होना पड़ेगा। मैं अब उससे हार नहीं सकती।" बाद में, मैंने देखा कि बहन शियांग चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सख्त उत्पीड़न की वजह से परेशान थीं और अपने काम में लाचार महसूस कर रही थीं। मैंने जल्दी से परमेश्वर के कुछ वचनों को ढूंढ निकाला, ताकि सभा से पहले उनके साथ सहभागिता कर सकूँ। अगले दिन मैं सभा के लिए जल्दी पहुँच गई, लेकिन मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि बहन यांग मुझसे भी पहले वहाँ पहुँच चुकी थीं और बहन शियांग के साथ सहभागिता कर रही थीं। मेरा दिल डूब गया और मैं सोचने लगी, "तुम ऐसा दोबारा कैसे कर सकती हो? मुझे देखना होगा कि तुम्हारी सहभागिता में किस तरह की रोशनी है। मैं मान ही नहीं सकती कि तुमने हर चीज़ पर बात की होगी।" अविश्वास के साथ, मैं उनके बगल में जाकर बैठ गई और सुनने लगी कि वो क्या कह रही हैं। सुनते-सुनते मुझे समझ आया कि बहन यांग ने परमेश्वर के वचनों के मुताबिक अभ्यास करने के कुछ मार्गों पर सहभागिता की, लेकिन उन्होंने बहन शियांग की कमज़ोरी और नकारात्मकता की जड़ के बारे में कुछ नहीं कहा। मैं सोचने लगी, "मुझे इस मौक़े का फ़ायदा उठाना चाहिए और अपनी समझ को बता कर बहन यांग को उनकी जगह दिखा देनी चाहिए।" ये सोचकर मैंने फ़ौरन अपनी सहभागिता साझा करते हुए कहा, "बहन, एक नकारात्मक स्थिति को दूर करने के लिए अभ्यास के मार्ग का होना ही काफ़ी नहीं है। हमें इस सच को भी समझना होगा कि परमेश्वर कैसे अपने चुने हुए लोगों को पूर्ण करने के लिए बड़े लाल अजगर को एक विषमता की तरह इस्तेमाल करता है। परमेश्वर के कार्य, उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता को समझकर ही हम अपनी नकारात्मक स्थिति से बाहर आ सकते हैं। चलिए, हम परमेश्वर के कुछ वचनों को साथ पढ़ते हैं।" जब बहन शियांग ने हामी भरते हुए अपना सिर हिलाया, तो मैंने तिरछी नज़रों से बहन यांग की तरफ़ देखा। वो हमारे बगल में अजीब तरीक़े से बैठी हुई थीं। मुझे लगा कि मैंने लड़ाई जीत ली है, और सोचने लगी, "तुलना करने पर हर कोई देख सकता है कि किसकी सहभागिता ज़्यादा असरदार है। अब मैं दोबारा अपना सिर ऊँचा रख सकती हूँ, क्योंकि ये साबित करता है कि मैं इतनी भी खराब नहीं।" इसके बाद, मैं अपने काम में ज़्यादा सक्रिय हो गई। जैसे ही मुझे पता चलता कि कोई खराब स्थिति में है या परेशानियों का सामना कर रहा है, तो मैं फ़ौरन परमेश्वर के वचनों को ढूँढ निकालती, नोट लिख लेती, और फिर उनके साथ सहभागिता करती। जब मैं देखती कि कोई हामी भरते हुए सिर हिला रहा है, तो मुझे बहुत ख़ुशी होती। लेकिन जब उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती थी, तो मैं बहुत ज़्यादा व्याकुल हो जाती थी। मैं जितनी ज़्यादा परेशान होती, उतनी ही कम दूसरों की स्थिति समझ पाती और उनकी परेशानियों को हल कर पाती। इसके अलावा, मेरी थकान भी बढ़ती जा रही थी, और मैं सोचने लगी, "अगर ऐसा ही चलता रहा, तो भाई-बहनों को लगेगा कि मुझमें सत्य की वास्तविकता की कमी है और वो मुझे अपनी अगुआ नहीं चुनेंगे।" खास कर मैं जब देखती थी कि बहन यांग सत्य पर व्यावहारिक सहभागिता कर रही हैं और भाई-बहन उनसे सहमत हैं, तो मैं और भी परेशान हो जाती थी। मेरी ईर्ष्या और उसे स्वीकार करने की मेरी नाकामी सामने आ गई। मैं उनसे नाराज़ रहने लगी और उनसे बात भी नहीं करना चाहती थी। मैं शोहरत और नाम के पीछे भागने की स्थिति में जी रही थी। ये मेरे लिए बहुत दर्दनाक था। मुझे परमेश्वर के वचनों से कोई प्रबुद्धता नहीं मिल रही थी, और मैं बस नाम के लिए प्रार्थना कर रही थी। मुझे लगा कि मैं परमेश्वर से दूर होती जा रही हूँ।

फिर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे प्रबुद्धता मांगी, ताकि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझ सकूँ और इस खराब स्थिति से निकल सकूं। परमेश्वर के वचनों की मदद से ही मैं अपनी भ्रष्ट स्थिति की कुछ समझ हासिल कर पाई। उनके वचन कहते हैं : "कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनकी प्रसिद्धि को चुरा लेंगे और उनसे आगे निकल जाएंगे, अपनी पहचान बना लेंगे जबकि उनको अनदेखा कर दिया जाएगा। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है! सिर्फ़ खुद के बारे में सोचना, सिर्फ़ अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करना, दूसरों के कर्तव्यों पर कोई ध्यान नहीं देना, और सिर्फ़ अपने हितों के बारे में सोचना और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचना—इस तरह के लोग बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर के पास उनके लिये कोई प्रेम नहीं है। अगर तुम वाकई परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार कर पाने में सक्षम होगे। अगर तुम किसी व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो, और वह व्यक्ति एक प्रतिभाशाली इंसान बन जाता है, जिससे परमेश्वर के घर में एक और प्रतिभाशाली व्यक्ति का प्रवेश होता है, तो क्या ऐसा नहीं है कि तुमने अपना काम अच्छी तरह पूरा किया है? तब क्या तुम अपने कर्तव्य के निर्वहन में वफ़ादार नहीं रहे हो? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है, यह एक तरह का विवेक और सूझ-बूझ है जो इंसानों में होनी चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे बहुत शर्म महसूस हुई मुझे अपनी ईर्ष्या और नाम और शोहरत की लालसा से उपजी हरकतें याद आने लगीं। जब से मैंने सुना कि कलीसिया एक अगुआ की तलाश में है, तब से मैं इसके तड़प रही थी, जब मैंने देखा कि नामांकन के दौरान बहन यांग को मुझसे ज़्यादा वोट मिले, तो मैं उन्हें एक प्रतिद्वंद्वी की तरह देखने लगी, चुपचाप उनसे लड़ने लगी और होड़ करने लगी। उन्हें सत्य पर सहभागिता की मदद से भाई-बहनों की समस्याओं को हल करते हुए देखकर मुझे ईर्ष्या होने लगी। मुझे लगता था कि उन्होंने मेरी शोहरत मुझसे छीन ली है और वो मेरे अगुआ बनने के मौक़े के लिए एक ख़तरा हैं। मैंने अंदर ही अंदर ख़ुद को उनके खिलाफ़ खड़ा कर दिया, उनकी सहभागिता में मामूली गलतियाँ निकालने लगी। मैं छिपकर उन्हें नीचा और ख़ुद को बेहतर दिखाने की कोशिश कर रही थी और उनके काम में उनकी सकारात्मकता को घटाने की कोशिश कर रही थी। जब मैंने देखा कि मैं जीत नहीं सकती, तो मैं उनसे चिढ़ने लगी और उन्हें स्वीकार भी नहीं करना चाहती थी। मैं शोहरत और नाम के पीछे भाग रही थी और अपने काम को ईर्ष्या के साथ पूरा कर रही थी। मैं उनसे नाराज़ रहने लगी और उन्हें अस्वीकार कर दिया। मैंने बस अपने शैतानी स्वभाव को सामने रखा था। मैं स्वार्थी, घिनौनी, और दुष्ट थी! शैतानी स्वभाव मेरी ज़िंदगी की बुनियाद बन गए थे। मैं दूसरों को भी तकलीफ़ पहुँचा रही थी, और ख़ुद भी अप्रसन्नता और दर्द में जी रही थी। इसने मुझे "रोमांस ऑफ़ द थ्री किंग्डम" के झोउ यू की याद दिला दी। वो कितना नीच था, और उसे जुघ लियांग से हमेशा जलन होती थी। अपनी मौत से ठीक पहले उसने कहा था, "यु के पैदा होने के बाद, लियांग की क्या ज़रूरत रह गयी?" गुस्से की हालत में रहते हुए ही उसकी मौत हुई। क्या ये जलन के भयानक परिणाम नहीं हैं? मुझे अहसास हुआ कि मैं भी ऐसी ही हूँ। हैसियत की तलाश में मैं भी ईर्ष्या महसूस करती हूँ। अपने जीवन प्रवेश में रुकावट पैदा करने के साथ ही मैं दूसरों को भी नुकसान पहुँचा रही हूँ। मुझमें बिल्कुल भी इंसानियत नहीं है। परमेश्वर को इससे घृणा और नफ़रत होती है। सच तो ये है कि परमेश्वर ने मेरे लिए इंतज़ाम किया कि मैं ज़्यादा काबिलियत वाले इंसान के साथ रहूँ, ताकि अपनी कमज़ोरियों में सुधार लाने के लिए मैं उनकी खूबियों से सीख सकूँ। लेकिन मैं उनसे लड़ती और तुलना करती रही। आखिर में, मुझे कुछ नहीं मिला और बहुत तकलीफ़ भी हुई। मैं कितनी बेवकूफ़ थी। इसके अलावा, परमेश्वर के घर में, सत्य का राज होता है, और अगुआओं के चयन के लिए सिद्धांत होते हैं। कम से कम वो अच्छी इंसानियत वाले लोग होते हैं, जो सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकते हैं, लेकिन मुझे ईर्ष्या हो रही थी, मैं नाम और शोहरत के पीछे भाग रही थी, और इंसानियत के साथ नहीं जी रही थी। ये चीज़ साबित करती है कि मैं अगुआ बनने के लायक नहीं थी। मुझे मालूम था कि मुझे अपना संघर्ष ख़त्म करना चाहिए। मुझे सत्य के अभ्यास पर ध्यान देना चाहिए और परमेश्वर के वचनों के मुताबिक जीना चाहिए। सिर्फ़ यही एक सही रास्ता था। यह समझने के बाद, मैंने राहत की सांस ली।

चुनाव के दिन मैंने ये प्रार्थना की: "हे परमेश्वर! नतीजा चाहे कुछ भी रहे, मैं आपकी आज्ञा मानने के लिए तैयार हूँ, और मैं निष्पक्ष ढंग से वोट करूँगी।" लेकिन जब वोट करने का समय आया, तो मैं डगमगाने लगी। मैं सोचने लगी, "अगर मैं बहन यांग को वोट देती हूँ और उन्हें चुन लिया जाता है, तो दूसरे लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? वो ज़रूर यही कहेंगे कि मैं उनके बराबर नहीं हूँ।" तभी, परमेश्वर के ये वचन मेरे मन में आए : "तुम्हें इन चीज़ों को छोड़ देने और अलग कर देने का तरीका सीखना चाहिये। तुम्हें दूसरों की अनुशंसा करना, और उन्हें दूसरों से विशिष्ट बनने देना सीखना चाहिए। संघर्ष मत करो या जैसे ही दूसरों से अलग बनने या कीर्ति हासिल करने का अवसर मिले, तुम ज़ल्दबाजी में उसका फ़ायदा उठाने के लिये मत दौड़ पड़ो। तुम्हें पीछे रहने का कौशल सीखना चाहिये, लेकिन तुम्हें अपने कर्तव्य के निर्वहन में देरी नहीं करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति बनो जो शांत गुमनामी में काम करता है, और जो वफ़ादारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए दूसरों के सामने दिखावा नहीं करता है। तुम जितना अधिक अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को छोड़ते हो, और जितना अधिक अपने हितों को अलग रखते हो, तुम उतने ही शांतचित्त बनोगे, तुम्हारे हृदय में उतनी ही ज़्यादा जगह खुलेगी और तुम्हारी अवस्था में उतना ही अधिक सुधार होगा" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। ये वचन पढ़कर मैंने सोचा, "मुझे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना होगा। मैं अपनी इज़्ज़त और हैसियत के लिए जीना जारी नहीं रख सकती।" मैं सोचने लगी कि बहन यांग काफ़ी काबिल हैं और उनकी सहभागिता व्यावहारिक होती है। इसलिए अगुआ के रूप में कलीसिया को और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में काफ़ी फ़ायदा होगा। मुझे सत्य का अभ्यास करना होगा और कलीसिया के हितों का ध्यान रखना होगा। इसलिए, मैंने उनके लिए वोट किया। उन्हें अगुआ चुन लिया गया और मैं इस फ़ैसले को लेकर शांति और इत्मेनान महसूस कर रही थी। मुझे लगा कि आखिरकार मैं सत्य का अभ्यास कर पा रही हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!

बाद में, अप्रैल 2018 में, मुझे कलीसिया की अगुआ के काम के लिए चुना गया, जहाँ मुझे कलीसिया के काम के लिए ज़िम्मेदार कुछ और भाई-बहनों के साथ मिलकर काम करना था। पहले तो हम कलीसिया के काम पर पूरी चर्चा और बिना किसी बाधा के सहयोग करते थे। लेकिन कुछ समय के बाद, मैंने देखा कि हमारे लिखने के काम के लिए ज़िम्मेदार, बहन ली, काफ़ी काबिल हैं और चीज़ों को बहुत जल्दी सीख लेती हैं। उनकी सहभागिता दूसरों के लिए काफ़ी प्रबोधक और ज्ञानवर्धक है। मैं सच में उनकी प्रशंसा करती थी, लेकिन मुझे थोड़ी-बहुत जलन भी महूसस हो रही थी। मैं कोशिश करने लगी कि मैं उनके आस-पास काम करूँ, ज़्यादा कौशल और सिद्धांत सीख सकूँ, ताकि मैं पीछे न रह जाऊँ। एक दिन मेरे पास हमारी अगुआ की चिट्ठी आई, जिसमें लिखा था कि उन्हें एक ऐसे इंसान की तलाश है जो किसी दूसरी जगह कलीसिया के लिए काम कर सके, और क्या मुझे लगता है कि बहन ली इसके लिए ठीक रहेंगी। उन्होंने मुझसे उनके बारे में आकलन इकट्ठा करने के लिए कहा। मेरी ईर्ष्या भड़क उठी, मैं सोचने लगी, "वे बहन ली को आगे बढ़ाना चाहते हैं। वो काबिल हैं और चीज़ों को बहुत जल्दी सीख लेती हैं, लेकिन वो कुछ ही समय पहले विश्वासी बनी हैं और उनका जीवन प्रवेश काफ़ी उथला है। मैं उनसे किस तरह कम हूँ? वो क्यों नहीं चाहते कि मैं जाऊँ? अगर बहन ली को यह काम सौंप दिया गया, तो लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? वे ज़रूर यही सोचेंगे कि वो मुझसे बेहतर हैं।" इन सब विचारों ने मुझे और भी ज़्यादा परेशान कर दिया, इसके बाद, मैं जब भी बहन ली से मिलती, तो नज़रअंदाज़ कर देती। मेरा ऐसा बर्ताव देखकर वो भी पीछे हट गईं और पहले की तरह मेरे साथ चीज़ों पर चर्चा करना बंद कर दिया। कुछ दिनों बाद, मैंने बहन ली के बारे में भाई-बहनों का आकलन इकट्ठा कर लिया, ये देखकर कि हर किसी का आकलन सकारात्मक था, बल्कि मुझसे भी ज़्यादा अच्छा था, मुझे जलन होने लगी। मैं एक अगुआ थी, लेकिन मैं अपनी सहकर्मी के बराबर भी नहीं थी। ये मेरे लिए कितनी शर्मिंदगी की बात थी! मैंने जितना इस बारे में सोचा, उतनी ही मेरी परेशानी बढ़ती गई। मैंने एक बहन से यह तक कह डाला, "आपका आकलन कैसा है? आप सही और गलत में फ़र्क नहीं कर सकती हैं। बहन ली ने प्रगति की है, लेकिन उनका जीवन प्रवेश उथला है। आपने तो उनकी बहुत तारीफ़ की, लेकिन अगर वो दूसरी कलीसिया में जाकर उनके काम में इसलिए देरी कर दें क्योंकि वे व्यावहारिक काम नहीं कर सकतीं, तो यह आपके द्वारा की गयी दुष्टता होगी!" मेरी यह बात सुनकर वो बहन थोड़ा डर गईं। वो कहने लगीं कि उन्होंने ये असली हालात की बुनियाद पर लिखा था, लेकिन पूरी तस्वीर को ध्यान में नहीं रखा था, और वो इस बारे में फिर से सोचेंगी। हालांकि मुझे जो करना था मैंने कर दिया था, मुझे कोई ख़ुशी महसूस नहीं हो रही थी। ख़ास तौर पर जब मैं बहन ली को देखती थी, तो मेरी अंतरात्मा मुझे कचोटती थी और मैं कसूरवार महसूस करती थी। मैंने एक बुरी और शर्मनाक हरकत की थी, मैं उनसे नज़रें नहीं मिला पा रही थी। मेरे बर्ताव में बदलाव देखकर वो मेरे पास आईं और चिंता से कहने लगीं, "क्या कोई परेशानी है?" ये सुनकर मुझे ज़्यादा दोषी महसूस होने लगा, मैंने लड़खड़ाती हुई ज़बान से बस "ह-हाँ" कहा और तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गई, फिर मैं परमेश्वर के सामने झुककर प्रार्थना करने लगी। मैंने कहा, "हे परमेश्वर, मैं कितनी नासमझ हूँ। बहन ली के बारे में बाकी लोगों के आकलन देखकर मुझे जलन होने लगी और उनके पीठ पीछे मैंने उनकी बुराई भी की। परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि आपको ऐसी चीज़ों से नफ़रत है, लेकिन मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव से बंधी हुई हूँ। मैं ख़ुद को रोक नहीं पा रही हूँ। परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध कीजिये, ताकि मैं सच में ख़ुद को जान सकूँ और अपने भ्रष्ट स्वभाव के मुताबिक जीना बंद कर सकूँ।" प्रार्थना के बाद मुझे थोड़ी शांति मिली, मैंने अपना कंप्यूटर खोला और परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े।

परमेश्वर कहते हैं, "अगर कुछ लोग किसी व्यक्ति को अपने से बेहतर पाते हैं, तो वे उस व्यक्ति को दबाते हैं, उसके बारे में अफ़वाह फैलाना शुरू कर देते हैं, या किसी तरह के अनैतिक साधनों का प्रयोग करते हैं जिससे कि दूसरे व्यक्ति उसे अधिक महत्व न दे सकें, और यह कि कोई भी किसी दूसरे व्यक्ति से बेहतर नहीं है, तो यह अभिमान और दंभ के साथ-साथ धूर्तता, धोखेबाज़ी और कपट का भ्रष्ट स्वभाव है, और इस तरह के लोग अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। वे इसी तरह का जीवन जीते हैं और फिर भी यह सोचते हैं कि वे महान हैं और वे नेक हैं। लेकिन, क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? सबसे पहले, इन बातों की प्रकृति के परिप्रेक्ष्य से बोला जाये, तो क्या इस तरीके से काम करने वाले लोग बस अपनी मनमर्ज़ी से काम नहीं कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के परिवार के हितों पर विचार करते हैं? वे परमेश्वर के परिवार के कार्य को होने वाले नुकसान की परवाह किये बिना, सिर्फ़ अपनी खुद की भावनाओं के बारे में सोचते हैं और वे सिर्फ़ अपने लक्ष्यों को हासिल करने की बात सोचते हैं। इस तरह के लोग न केवल अभिमानी और आत्मतुष्ट हैं, बल्कि वे स्वार्थी और घिनौने भी हैं; वे परमेश्वर के इरादों की बिलकुल भी परवाह नहीं करते, और निस्संदेह, इस तरह के लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। यही कारण है कि वे वही करते हैं जो करना चाहते हैं और बेतुके ढंग से आचरण करते हैं, उनमें दोष का कोई बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती, और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते। यही वे अकसर करते हैं, और इसी तरह उन्‍होंने हमेशा आचरण किया होता है। इस तरह के लोग कैसे परिणाम भुगतते हैं? वे मुसीबत में पड़ जाएँगे, ठीक है? हल्‍के-फुल्‍के ढंग से कहें, तो इस तरह के लोग बहुत अधिक ईर्ष्‍यालु होते हैं और उनमें निजी प्रसिद्धि और हैसियत की बहुत प्रबल आकांक्षा होती है; वे बहुत धोखेबाज और धूर्त होते हैं। और अधिक कठोर ढंग से कहें, तो मूल समस्‍या यह है कि इस तरह के लोगों के दिलों में परमेश्‍वर का तनिक भी डर नहीं होता। वे परमेश्वर का भय नहीं मानते, वे अपने आपको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, और वे अपने हर पहलु को परमेश्वर से ऊंचा और सत्य से बड़ा मानते हैं। उनके दिलों में, परमेश्वर जिक्र करने के योग्य नहीं है और बिलकुल महत्वहीन है, उनके दिलों में परमेश्वर का बिलकुल भी कोई महत्व नहीं होता। क्‍या उन लोगों ने सत्‍य में प्रवेश पा लिया है जिनके हृदयों में परमेश्‍वर के लिए कोई जगह नहीं है, और जो परमेश्‍वर में श्रद्धा नहीं रखते? (नहीं।) इसलिए, जब वे सामान्‍यत: मुदित मन से और ढेर सारी ऊर्जा खर्च करते हुए खुद को व्‍यस्‍त बनाये रखते हैं, तब वे क्‍या कर रहे होते हैं? ऐसे लोग यह तक दावा करते हैं कि उन्‍होंने परमेश्‍वर के लिए खपाने की ख़ातिर सब कुछ त्‍याग दिया है और बहुत अधिक दुख झेला है, लेकिन वास्‍तव में उनके सारे कृत्‍यों के पीछे निहित प्रयोजन, सिद्धान्‍त और लक्ष्‍य, सभी खुद को लाभान्वित करने के लिए हैं; वे केवल अपने सारे निजी हितों की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। तुम लोग ऐसे व्यक्ति को बहुत ही बेकार कहोगे या नहीं कहोगे? जो व्‍यक्ति परमेश्‍वर में श्रद्धा नहीं रखता वह किस तरह का व्‍यक्ति है? क्‍या वह अहंकारी नहीं है? क्‍या ऐसा व्‍यक्ति शैतान नहीं है? वे किस तरह के प्राणी होते हैं जो परमेश्‍वर में श्रद्धा नहीं रखते? पशुओं की बात छोड़ दें, तो परमेश्‍वर में श्रद्धा न रखने वाले प्राणियों में, दैत्‍य, शैतान, प्रधान स्वर्गदूत, और परमेश्‍वर के साथ विवाद करने वाले, सभी शामिल हैं" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। "मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव शैतान के द्वारा उसे जहर दिये जाने और रौंदे जाने के कारण उपजा है, उस प्रबल नुकसान से उपजा है जिसे शैतान ने उसकी सोच, नैतिकता, अंतर्दृष्टि, और समझ को पहुँचाया है। क्योंकि मनुष्य की मौलिक चीजें शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दी गईं हैं, और पूरी तरह से उसके विपरीत हैं जैसा परमेश्वर ने मूल रूप से इंसान को बनाया था, इसी कारण ही मनुष्य परमेश्वर का विरोध करता है और सत्य को नहीं समझता" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)

परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैं बहुत उदास और निराश महसूस कर रही थी। क्या उसने मेरे हालात का बिल्कुल सही खुलासा नहीं किया था? जब हमारी अगुआ बहन ली को चुनना चाहती थीं, तो मुझे ईर्ष्या होने लगी और मैं पक्षपाती हो गई। मैंने घिनौने तरीके से उन्हें नीचा दिखाने और उनकी आलोचना करने की भी कोशिश की। मैंने वो हर तरीका सोचा जिससे मैं उन्हें ये काम मिलने से रोक दूँ। मैंने कलीसिया के हितों के बारे में कुछ भी नहीं सोचा। मुझे जो चाहिए था, उसे पाने के लिए मैंने जो जी चाहा वो किया। मैं अहंकारी, स्वेछाचारी थी और मेरे मन में परमेश्वर के लिए कोई श्रद्धा नहीं थी। परमेश्वर उम्मीद करता है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग उसकी इच्छा पर विचार करें और अपने कर्तव्य पूरे कर सकें। मैं अच्छी तरह जानती थी कि बहन ली काबिल हैं और सत्य की खोज पर ध्यान देती हैं, इसलिए प्रशिक्षण के ज़्यादा मौके मिलने पर, उनका जीवन प्रवेश और कौशल बेहतर होगा, इससे कलीसिया के काम को भी फ़ायदा मिलेगा। लेकिन अपनी इज़्ज़त और हैसियत को बचाने के लिए मैंने उन्हें पीछे खींचना चाहा। वो काम उन्हें न सौंपा जाए, उसके लिए मैंने कपटी तरीकों का भी इस्तेमाल किया। मुझे पता भी नहीं चला कि मैं कब शैतान की चेली बन गई और कलीसिया के काम में रुकावट पैदा करने लगी। मैंने ख़ुद को बहुत फटकारा। मैं जानती थी कि ईर्ष्या परमेश्वर की इच्छा के खिलाफ़ है, लेकिन मैंने कभी ये नहीं सोचा कि ईर्ष्या की वजह से मैं इतनी निर्दयी हो जाऊँगी, कि मैं कलीसिया के काम में रुकावट पैदा कर दूँगी, बुराई करूँगी, और परमेश्वर का विरोध करूँगी। मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : "मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव शैतान के द्वारा उसे जहर दिये जाने और रौंदे जाने के कारण उपजा है," मैं सोचने लगी कि मुझमें कितनी ईर्ष्या भरी थी और कैसे मुझे ये बर्दाश्त नहीं था कि कोई मुझसे बेहतर हो क्योंकि मेरी सोच और मेरे नज़रिए को शैतान के ज़हर ने तोड़-मरोड़ दिया था, जैसे कि, "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ," और "केवल एक ही अल्फा पुरुष हो सकता है।" ऐसे ज़हर के साथ, मैं समूह में सबसे आगे पहुँचना चाहती थी, ये सोचते हुए कि मुझे सबसे ऊपर होना चाहिए। अगर कोई मुझसे ज़्यादा काबिल होता, तो मैं उसके साथ निष्पक्षता से पेश नहीं आती थी। मुझे उनसे ईर्ष्या होती, मैं भेदभाव करती, उन्हें अपने बगल में चुभने वाला एक कांटा मानती थी। मेरे आस-पास जो कोई भी सत्य की खोज करता था, मैं उनसे जलती, उन्हें नज़रअंदाज़ करती, और उनसे रूखा बर्ताव करती थी, यहाँ तक कि पीठ पीछे उन्हें नीचा भी दिखाती थी। मुझ में बिल्कुल भी इंसानियत नहीं थी! मैं हमेशा ख़ुद को बेहतर और दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश करती थी। मैं लड़ना और जीतना चाहती थी, किसी से भी हार मानने के लिए तैयार नहीं थी। मुझे बस दिखावा करना था। क्या मैं जीती जागती शैतान नहीं थी? तब जाकर मुझे नज़र आया कि जिंदगी जीने के ये शैतानी ज़हर और नियम मेरी प्रकृति बन चुके हैं। मेरी ज़िंदगी इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है, मेरा स्वार्थ, अहंकार और द्वेष बढ़ता जा रहा है। अगर मैं परमेश्वर के सामने पश्चाताप करने से इनकार करती रही, तो वो मुझसे नफ़रत करेगा और मुझे हटा देगा। जब मुझे इन चीज़ों का अहसास हुआ, तो मुझे सच में डर लगने लगा। मैं फ़ौरन परमेश्वर के पास प्रार्थना करने पहुँच गई, उनसे कहा कि मुझे पश्चाताप करना है, अब से मैं सत्य का अभ्यास करने की कोशिश करूँगी और ऐसे शैतानी ज़हरों के अनुसार जीना बंद कर दूँगी।

कुछ दिनों के बाद, मुझे हमारी अगुआ की एक चिट्ठी मिली, जिसमें लिखा था कि कुल मिलाकर बहन ली दूसरी कलीसिया के काम के लिए सही लग रही हैं। यह पढ़कर, मेरे अंदर फिर से उथल-पुथल होने लगी, लेकिन मैं फ़ौरन पहचान गई कि मेरी ईर्ष्या मेरे साथ चालबाज़ी कर रही है। मैंने फ़ौरन परमेश्वर से प्रार्थना की और अपने आप को त्यागने के लिए तैयार हो गई। प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों से दो अंश पढ़े। परमेश्वर कहते हैं, "जब तुम ख़ुद को स्वार्थी और अधम होने के रूप में प्रकट करते हो, और इस बारे में जान जाते हो, तो तुम्हें सत्य की तलाश करनी चाहिए : परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए? मुझे कैसे बर्ताव करना चाहिए ताकि सबको लाभ पहुंचे? अर्थात, तुम्हें अपने हितों को भूलने से शुरुआत करनी चाहिए, अपने कद के अनुसार धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा करके उनका त्याग करना चाहिए। कुछ बार इसका अनुभव करने के बाद, तुम पूरी तरह अपने हितों को भूल चुके होगे, और ऐसा करते-करते तुम्हारी स्थिरता बढ़ती जाएगी। तुम जितना ज़्यादा अपने हितों को भुलाते जाओगे, उतना ही तुम्हें लगेगा कि इंसान के रूप में तुम में विवेक और तर्क होना चाहिए। तुम्हें महसूस होगा कि स्वार्थी उद्देश्यों के बिना, तुम स्पष्ट, ईमानदार व्यक्ति बन रहे हो, और तुम पूरी तरह परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए काम कर रहे हो। तुम्हें महसूस होगा कि इस तरह का व्यवहार तुम्हें 'मानव' कहलाने के योग्य बनाता है, और इस तरह से पृथ्वी पर जीने के द्वारा, तुम एक स्पष्ट और ईमानदार व्यक्ति बनकर जी रहे हो, तुम एक सच्चे व्यक्ति की तरह बर्ताव कर रहे हो, तुम्हारी अंतरात्मा साफ़ है, और तुम उन सभी चीज़ों के योग्य हो जो परमेश्वर ने तुम पर न्यौछावर की हैं। तुम जितना इस तरह जीवन व्यतीत करोगे, उतना ही स्थिर और उजला महसूस करोगे। इस तरह, क्या तुमने सही रास्ते पर चलना नहीं शुरू कर दिया होगा?" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "अगर तुम वाकई परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार कर पाने में सक्षम होगे। अगर तुम किसी व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो, और वह व्यक्ति एक प्रतिभाशाली इंसान बन जाता है, जिससे परमेश्वर के घर में एक और प्रतिभाशाली व्यक्ति का प्रवेश होता है, तो क्या ऐसा नहीं है कि तुमने अपना काम अच्छी तरह पूरा किया है? तब क्या तुम अपने कर्तव्य के निर्वहन में वफ़ादार नहीं रहे हो? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है, यह एक तरह का विवेक और सूझ-बूझ है जो इंसानों में होनी चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने साफ़ तौर पर मुझे अभ्यास का रास्ता दिखाया। मुझे अपने हितों को छोड़कर परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए। अगर कोई इंसान किसी भी चीज़ में मुझसे बेहतर है, तो मुझे उसकी सिफ़ारिश करनी चाहिए, ताकि हर प्रतिभाशाली इंसान की खूबियाँ परमेश्वर के घर के काम आ सकें और वह राज्य के सुसमाचार का प्रचार करने में अपनी भूमिका निभा सकें। सिर्फ़ इस तरह के व्यक्ति में इंसानियत होती है, सिर्फ़ उसे ही परमेश्वर की इच्छा की फ़िक्र होती है और वही परमेश्वर के हितों का ध्यान रख सकता है। वे परमेश्वर की मंज़ूरी हासिल करते हैं और यह एक अच्छी चीज़ है। उसी शाम मैं बहन ली से मिलने गई और उनसे पूछा कि क्या वो जाकर दूसरी कलीसिया का काम संभालना चाहेंगी। उन्होंने कहा कि वो तैयार हैं, लेकिन उन्हें फ़िक्र है कि वो एक नई विश्वासी हैं और उनका आध्यात्मिक कद छोटा है। उनकी चिंता सुनने के बाद, मैंने उनके साथ परमेश्वर की इच्छा पर सहभागिता की, उन्हें प्रोत्साहित किया कि वो परमेश्वर का सहारा लें और उससे मदद मांगें और अपने काम में सत्य के सिद्धांतों की तलाश करने पर ध्यान दें। कुछ दिन बाद, वो अपने नए काम की ज़िम्मेदारी लेने के लिए चली गईं। मैं बहुत ख़ुश थी, मुझे अहसास हुआ कि सत्य का अभ्यास करना और अपनी इज़्ज़त और हैसियत के लिए जीना छोड़ देना ही ईमानदारी और गरिमा के साथ जीना है। मेरा मन बिल्कुल शांत था।

अब जब मैं उस वक़्त के बारे में सोचती हूँ जब मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जी रही थी, हमेशा दूसरों से जलती थी, नाम और हैसियत के लिए संघर्ष करती थी, शैतान ने मुझे भ्रष्ट कर दिया था और मेरे साथ खिलवाड़ कर रहा था, तो मुझे समझ आता है कि जीने का वो तरीका बहुत ही दर्दनाक था। परमेश्वर ने मुझे उजागर करने और बचाने के लिए अलग-अलग तरह के लोगों, चीज़ों, घटनाओं और माहौल को सामने रखा। उसने अपने वचनों की मदद से मुझे उजागर किया, मेरा न्याय किया, मुझे सिंचित किया, मुझे तब तक संभाला, जब तक मुझे मेरी शैतानी प्रकृति का कुछ ज्ञान नहीं हो गया, और मैंने ईर्ष्या रखने और नाम और शोहरत के लिए लड़ने के नतीजों को नहीं देख लिया। तब जाकर मैं सत्य का कुछ हद तक अभ्यास कर पाई और थोड़ा-बहुत मेरा ज़मीर जाग पाया और कुछ विवेक पा सकी। परमेश्वर का धन्यवाद!

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