खुलकर बताने के डर के पीछे का राज़
मार्च 2020 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा, और मुझे निभाने के लिए कर्तव्य मिला। जल्द ही मुझे सुसमाचार-उपयाजिका चुन लिया गया। मैं बड़ी रोमांचित थी, मैंने सोचा, "मुझसे ज्यादा लंबे समय से काम कर रहे भाई-बहनों के बजाय मुझे चुना गया। शायद मेरे भाई-बहनों को लगता है मैं काबिल हूँ, सत्य का अनुसरण करती हूँ। मुझे काम ठीक से करना होगा ताकि वे देख सकें कि उनका चुनाव गलत नहीं है।" फिर, मैं अपने भाई-बहनों के काम का सक्रियता से निरीक्षण करने लगी। जब देखती कि उनका हाल ठीक नहीं है, तो उनके साथ संगति करने के लिए फौरन परमेश्वर के वचन खोजती, और सुसमाचार का कोई अच्छा अनुभव होता तो मैं शीघ्र उनसे साझा करती। थोड़े समय बाद, कुछ भाई-बहन जो अपने काम में थोड़े ढीले थे, ज्यादा सक्रिय हो गए, फिर मुझे लगा जैसे मैं सचमुच यह काम करने के काबिल थी। अगर मेरे अगुआओं को पता चला, तो यकीनन वे कहेंगे कि मैं इस काम में अच्छी हूँ और मुझे बढ़ावा देंगे। यह सोचकर, अपने काम में मैंने ज्यादा उत्साह और जोश दिखाया। सुसमाचार कार्य प्रभावी होता, तो इस उम्मीद से मैं समूह में ये खबर भेजती कि सभी भाई-बहन मेरे काम के अच्छे नतीजे देख सकेंगे। मैं समय-समय पर भाई-बहनों के बीच दिखावा भी करती। उनके काम का निरीक्षण करते वक्त, पहले पूछती कि क्या उन्हें कोई समस्या या दिक्कत है, फिर जानबूझकर कहती, "आपकी दिक्कतें दूर करने के अलावा, मुझे दूसरे बहुत-से भाई-बहनों के काम का निरीक्षण करना है। हर दिन व्यस्त होता है, सोते-सोते देर हो जाती है।" मुझे यह कहते सुन, कुछ भाई-बहनों ने कहा, "पिछले कई दिनों से हमें दिक्कत नहीं हुई। बहन, आपकी कड़ी मेहनत के लिए धन्यवाद।" उनकी यह बात सुनकर मैं खुश हो गई। लगा कि उनकी नज़रों में मैं जिम्मेदारियों का बोझ उठाती हूँ, कीमत चुकाने को तैयार हूँ, और मैं एक जिम्मेदार इंसान हूँ।
एक दिन, एक भाई अपनी हालत के बारे में खुलकर बोलने और संगति करने आया। उसने कहा, "मैं हमेशा यही कोशिश करता हूँ कि काम में लोग मुझे आदर से देखें। जब मैं दूसरों के कामकाज का निरीक्षण करता हूँ, तो हमेशा एक समूह-अगुआ की हैसियत से बोलता हूँ और दिखावा करता हूँ। ..." यह सुनकर मेरे दिल में हलचल मच गई। मैं भी तो ऐसी ही थी न? जब मैं अपने भाई-बहनों के कामकाज का निरीक्षण करती थी, तो हमेशा दूसरों को दिखाना चाहती कि मैं अब आम विश्वासी नहीं बल्कि एक उपयाजिका थी। कभी-कभी, मैं जानबूझकर जिक्र करती कि मुझे बहुत-से काम का निरीक्षण करना है, व्यस्तता के कारण देर से सो पाती थी। मैं चाहती थी दूसरे देखें कि मैं बोझ उठाती हूँ और मुझे जिम्मेदारी का एहसास था। इस तरह मैं दिखावा कर रही थी ताकि लोग मुझे आदर से देखें। मैं खुलकर भाई के साथ संगति करना चाहती थी, ताकि हम हल निकाल सकें, फिर मैंने सोचा, "मैं अब एक सुसमाचार-उपयाजिका हूँ। अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बोली तो, क्या इस भाई को लगेगा कि मैं बहुत भ्रष्ट हूँ, और रुतबे को अहमियत देती हूँ? क्या वह मेरे बारे में बुरी राय बना लेगा? फिर मेरी बनाई हुई अच्छी छवि बिगड़ जाएगी।" यह सोचकर मैंने न बताने का फैसला किया, और उसे सुकून देते हुए कहा, "कोई बात नहीं, मुझमें भी भ्रष्टता है।" फिर मैंने संगति के कुछ शब्द कहकर बात खत्म कर दी।
दूसरी बार, मेरी देखरेख में जो समूह था, उसने एक समूह अगुआ चुना, तो मुझे लगा, "काम की देखभाल के लिए एक समूह अगुआ है, तो मुझे निरीक्षण करने की जरूरत नहीं।" इसलिए कार्य संबंधी चर्चाओं में मैंने ध्यान देना बंद कर दिया। उनकी बैठकों में भी, मैं बेमन से काम करती। देखते-देखते एक महीना गुजर गया, और उस समूह के काम की प्रभाविता कम हो गई। एक बैठक में, सारे भाई-बहनों ने परमेश्वर के वचनों के आधार पर काम के प्रति अपने रवैए के बारे में चिंतन किया, और अपनी भ्रष्टता का खुलासा किया। मुझे पता था कि मैं गैरजिम्मेदार थी, मैंने बेमन से काम का निरीक्षण किया, जिससे उनका काम कम प्रभावशाली हो गया, मगर इस बारे में संगति करने की मुझमें हिम्मत नहीं थी। उनके दिलों में मेरी छवि मेहनती और जिम्मेदार इंसान की थी, और मेरे बारे में सब अच्छी राय रखते थे। मुझे फिक्र थी कि खुलकर बताने से मेरे बारे में उनकी राय बुरी हो जाएगी। वे सोचेंगे मैं अपना काम यूँ ही निपटाती थी, गैर-जिम्मेदार थी। जब मेरे अगुआओं को पता चलेगा, तो वे मेरा बुरा आकलन करेंगे, शायद मुझे बर्खास्त भी कर दें। इससे बहुत ज्यादा शर्मिंदगी होगी। तभी अगुआ ने पूछा कि क्या मैं संगति करना चाहूँगी, तो मैं दुविधा में पड़ गई। मैं संगति करना चाहती थी, मगर डरती थी कि बोलने से मेरे रुतबे और छवि को नुकसान पहुँचेगा, और अगर नहीं बोली, तो यह खुद को छिपाना और चालें चलना होगा। फिर क्या करूँ? मैं बहुत बेचैन थी। आखिरकार, मैंने सोचा, "छोड़ो, इस बार संगति नहीं करूँगी। फिलहाल तो बच जाऊंगी।" बैठक के बाद, मैंने बहुत दुखी और दोषी महसूस किया, मानो मुझ पर कोई भाई बोझ लदा हो। इसलिए मैंने खोजने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की। अपनी भ्रष्टता पर खुलकर बोलने से मैं क्यों डरती थी? हमेशा मुखौटा क्यों लगाती थी, अपने रुतबे और छवि को आगे क्यों रखती थी?
मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े और अपने बारे में थोड़ी समझ हासिल की। परमेश्वर के वचन कहते है, "जब लोग हमेशा मुखौटा लगाए रहते हैं, हमेशा खुद को अच्छा दिखाते हैं, हमेशा ऐसा ढोंग करते हैं जिससे दूसरे उनके बारे में अच्छी राय रखें, और अपने दोष या कमियाँ नहीं देख पाते, जब वे लोगों के सामने हमेशा अपना सर्वोत्तम पक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं, तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकार है, कपट है, पाखंड है, यह शैतान का स्वभाव है, यह एक दुष्ट स्वभाव है। शैतानी शासन के सदस्यों को लें : वे पर्दे के पीछे कितना भी लड़ें-झगड़ें या हत्या करें, किसी को भी इसकी शिकायत करने या इसे उजागर करने की अनुमति नहीं होती। इतना ही नहीं, वे इसे छिपाने का हर संभव प्रयास करते हैं। सार्वजनिक रूप से वे यह कहते हुए खुद को पाक-साफ दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं कि वे लोगों से कितना प्यार करते हैं, वे कितने महान, गौरवशाली और सही हैं। यह शैतान का स्वभाव है। शैतान की प्रकृति के इस पहलू की मुख्य विशेषता धोखाधड़ी और छल है। और इस धोखाधड़ी और छल का उद्देश्य क्या होता है? लोगों की आँखों में धूल झोंकना, लोगों को अपना सार और असली रंग न देखने देना, और इस तरह अपने शासन को मजबूत करने का उद्देश्य हासिल करना। साधारण लोगों में ऐसी शक्ति और हैसियत की कमी हो सकती है, लेकिन वे भी चाहते हैं कि उनके बारे में लोगों की राय अच्छी बने और लोग उन्हें खूब सम्मान की दृष्टि से देखें और अपने दिल में उन्हें ऊँचा स्थान दें। यही होता है भ्रष्ट स्वभाव" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। "एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए तुम्हें अपना दिल खोलना चाहिए, ताकि हर कोई उसके अंदर देख सके, तुम्हारे विचारों को समझ सके, और तुम्हारा असली चेहरा देख सके; अच्छा दिखने के लिए तुम्हें तुम खुद भेष धारण करने या खुद को आकर्षक बनाने का प्रयास न करो। लोग तभी तुम पर विश्वास करेंगे और तुमको ईमानदार मानेंगे। यह ईमानदार होने का सबसे मूल अभ्यास और ईमानदार व्यक्ति होने की शर्त है। तू हमेशा पवित्रता, सदाचार, महानता का दिखावा करता है, नाटक करता है, और उच्च नैतिक गुणों के होने का नाटक करता है। तू लोगों को अपनी भ्रष्टता और विफलताओं को नहीं देखने देता है। तू लोगों के सामने एक झूठी छवि पेश करता है, ताकि वे मानें कि तू सच्चा, महान, आत्म-त्यागी, निष्पक्ष और निस्वार्थी है। क्या यह धोखा और झूठ नहीं है? भेष धारण मत कर और खुद को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत मत कर; इसके बजाय, अपने आप को स्पष्ट कर और दूसरों के देखने के लिए खुद को और अपने हृदय को पूरी तरह उजागर कर दे। यदि तू दूसरों के देखने के लिए अपने हृदय को उजागर कर सकता है और अपने विचारों और योजनाओं को—चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक—स्पष्ट कर सकता है तो क्या तू ईमानदार नहीं बन रहा है? यदि तू दूसरों के समक्ष अपने आप को उजागर कर सकता है, तो परमेश्वर भी तुझे देखेगा और कहेगा: 'तूने दूसरों के देखने के लिए स्वयं को खोल दिया है, और इसलिए मेरे सामने भी तू निश्चित रूप से ईमानदार है।' यदि तू दूसरे लोगों की नज़र से दूर केवल परमेश्वर के सामने अपने आप को उजागर करता है, और उनके साथ रहते हुए हमेशा महान और गुणी या न्यायी और निःस्वार्थ होने का दिखावा करता है, तो परमेश्वर क्या सोचेगा और परमेश्वर क्या कहेगा? वह कहेगा: 'तू वास्तव में धोखेबाज़ है; तू विशुद्ध रूप से पाखंडी और क्षुद्र है; और तू ईमानदार व्यक्ति नहीं है।' परमेश्वर इस प्रकार से तेरी निंदा करेगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मेरे दिल में चुभन-सी हुई। परमेश्वर के वचन ने मेरी ही हालत का खुलासा किया था। सुसमाचार-उपयाजिका चुने जाने के बाद से लगता था कि मेरी काबिलियत और रुतबा आम भाई-बहनों से अधिक था, इसलिए मैं हमेशा चाहती कि लोग मेरा अच्छा रूप ही देखें। मैं अपनी भ्रष्टता और कमियों को छुपाती, ताकि दूसरों को इसका पता न चले। जब भी मैं अपने काम में थोड़ा प्रभावी होती, तो मैं दिखावा करना चाहती। समूह को खबर भेजने का इंतजार नहीं कर पाती थी, क्योंकि मैं चाहती कि भाई-बहन, अगुआ और बाकी सहकर्मी इसे देखें। यही नहीं, मैं जानबूझकर दूसरों को बताती कि मैं काम के निरीक्षण की प्रभारी हूँ, बहुत व्यस्त हूँ, ताकि वे जान लें कि मैं अपना काम जिम्मेदारी से पूरा करती हूँ। एक सकारात्मक, जिम्मेदार और सत्य का अनुसरण करने वाली छवि बनाने के लिए, मैं लीपापोती करके मुखौटा पहन लेती थी। मेरा मकसद था कि भाई-बहन मुझे आदर से देखें। लेकिन दरअसल मैं वैसी थी ही नहीं। मैं भी भ्रष्ट थी—अपने काम में दिखावा करती थी, किसी तरह काम निपटा देती, व्यावहारिक काम नहीं करती थी। लेकिन अपनी भ्रष्टता के बारे में कभी खुल कर नहीं बताती, क्योंकि मुझे डर था कि भाई-बहन जान जाएँगे कि मैं रुतबे की लालची और गैरजिम्मेदार थी, इससे उनके दिलों में मेरी अच्छी छवि बरबाद हो जाएगी। इस बारे में आत्मचिंतन करते हुए मुझे घृणा हई। मैं ढोंग करके, मुखौटे पहनकर लोगों के साथ मिल-जुलकर रहती, ताकि वे मुझे आदर से देखें। यह एक ऐसा अहंकारी और कपटी शैतानी स्वभाव था जिससे परमेश्वर घृणा करता है। सुसमाचार-उपयाजिका बनने से पहले, मैं भाई-बहनों को अक्सर कहते सुनती थी, "सभी के पास भ्रष्ट शैतानी स्वभाव है, सब रुतबे की चाह रखते हैं। हम सभी रुतबा हासिल कर उसे बनाए रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।" तब, मैं सोचती थी, "मेरा पास रुतबा होगा, तो यकीनन उसे बनाए रखने के लिए कुछ नहीं करूँगी।" लेकिन सच्चाई और परमेश्वर के वचन ने मेरी पोल खोल दी। अपनी छवि और रुतबा बनाए रखने के लिए, मैं हमेशा मुखौटे लगाती और लीपापोती करती, मैं ख़ास तौर पर अहंकारी और कपटी थी। तब समझ आया कि रुतबे के पीछे न भागने का मेरा विश्वास इसलिए था क्योंकि मैं उजागर नहीं हुई थी। मैं ऐसी इंसान भी थी जिसे शैतान ने भ्रष्ट किया था, मैं शैतानी स्वभाव से भरी थी। फिर याद आया कि परमेश्वर सच्चे लोगों को पसंद करता है, जो सत्य पर अमल कर खुद को उजागर कर सकें। लेकिन मैं मुखौटा पहने हुए थी, सत्य पर अमल नहीं करती थी, हमेशा बेचैनी महसूस करती थी। मैंने ठान ली कि ईमानदार इंसान बनूँगी, सबके सामने अपनी भ्रष्टता के बारे में खुल कर बोलूँगी।
कुछ दिन बाद, सहकर्मियों की बैठक में, मैंने दूसरों के सामने खुलकर बताना चाहा कि मैंने कैसे खुद को छिपाकर छल किया, व्यावहारिक कार्य नहीं किया, और अब एक ईमानदार, खुले दिलवाली इंसान बनना चाहती हूँ। लेकिन संगति शुरू करने से ठीक पहले, मैं फिर झिझक गई और सोचा, "अगर मैं विश्लेषण करके खुद को उजागर कर दूंगी, तो भाई-बहन क्या सोचेंगे? कड़ी मेहनत से बनाई छवि मिट्टी में नहीं मिल जाएगी? अगर इस वजह से भाई-बहन मुझे नीची नजर से देखने लगे, तो बड़ी शर्मिंदगी होगी। बेहतर होगा कि दूसरे भाई-बहनों को पहले संगति कर लेने दूँ।" लेकिन जब ऐसा सोचा, तो मुझे सुकून नहीं मिला। मैं खुलकर नहीं बोलना चाहती थी, तो क्या यह नाटक करने और रुतबा बनाए रखने की चाह नहीं थी? मेरे मन में युद्ध छिड़ गया। बोली, तो दूसरे मुझे नीची नजर से देखेंगे। नहीं बोली, तो मुझे अपराध-बोध होगा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य का अभ्यास करने की राह दिखाने की विनती की। तभी मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा। "क्या तुम लोग जानते हो कि फरीसी वास्तव में कौन हैं? क्या तुम लोगों के आसपास कोई फरीसी है? इन लोगों को 'फरीसी' क्यों कहा जाता है? फरीसी की क्या परिभाषा होती है? 'फरीसी' की व्याख्या कैसे की जाती है? वे ऐसे लोग होते हैं जो पाखंडी हैं, जो पूरी तरह से नकली हैं और अपने हर कार्य में नाटक करते हैं। वे क्या नाटक करते हैं? वे अच्छे, दयालु और सकारात्मक होने का ढोंग करते हैं। क्या वे वास्तव में ऐसे होते हैं? बिलकुल नहीं। चूँकि वे पाखंडी होते हैं, इसलिए उनमें जो कुछ भी व्यक्त और प्रकट होता है, वह झूठ होता है; वह सब ढोंग होता है—यह उनका असली चेहरा नहीं। उनका असली चेहरा कहाँ छिपा होता है? वह उनके दिल की गहराई में छिपा होता है, दूसरे उसे कभी नहीं देख सकते। बाहर सब नाटक होता है, सब नकली होता है। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वे वास्तव में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव नहीं कर सकते, और सही अर्थों में सत्य नहीं समझ सकते। कुछ लोग केवल सिद्धांत समझने और उसे रटने पर ध्यान देते हैं, जो भी उच्चतम उपदेश देता है वे उसकी नकल करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में वे सिद्धांत के निरंतर उच्च होते जाते कई शब्द बोल पाते हैं, और बहुत-से लोग उन्हें पूजते और उनका आदर करते हैं, जिसके बाद वे खुद को छद्मावरण द्वारा छिपाने लगते हैं, अपनी कथनी-करनी पर बहुत ध्यान देते हैं, और स्वयं को खास तौर पर पवित्र और आध्यात्मिक दिखाते हैं। लोग इन तथाकथित आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रयोग खुद को छ्द्मावरण द्वारा छिपाने के लिए करते है। वे जहाँ कहीं भी जाते हैं, जिन चीज़ों के बारे में बात करते हैं, वे जो कहते हैं, और उनका बाहरी व्यवहार, सब कुछ दूसरों को सही और अच्छा लगता है; वे सभी मानवीय धारणाओं और रुचि के अनुरूप हैं। लोगों को ऐसा इंसान बहुत धर्मपरायण और विनम्र प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में वह नकली होता है; वह सहिष्णु, धैर्यवान और प्रेमपूर्ण लगता है परंतु यह सब वास्तव में ढोंग होता है, वह कहता है कि वह परमेश्वर से प्रेम करता है, लेकिन वास्तव में यह एक नाटक होता है। लोगों को लगता है कि यह व्यक्ति पवित्र है, लेकिन असल में वह नकली होता है। सच्चा पवित्र व्यक्ति कहाँ मिल सकता है? मनुष्य की सारी पवित्रता नकली होती है, वह सब एक नाटक, एक ढोंग होता है। बाहर से, वे परमेश्वर के प्रति वफादार प्रतीत होते हैं, लेकिन वे वास्तव में केवल दूसरों को दिखाने के लिए कर रहे होते हैं। जब कोई नहीं देख रहा होता है, तो वे ज़रा से भी वफ़ादार नहीं होते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह लापरवाही से किया गया होता है। सतही तौर पर, वे खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं और उन्होंने अपने परिवारों और अपनी आजीविकाओं को छोड़ दिया है। लेकिन वे गुप्त रूप से क्या कर रहे हैं? वे कलीसिया से मुनाफा कमाते हुए और गुप्त रूप से चढ़ावे चुराते हुए अपना कारोबार चला रहे हैं। जो कुछ भी वे बाहर प्रकट करते हैं—उनका सारा व्यवहार—नकली है। एक पाखंडी फरीसी होने का यही अर्थ है। 'फरीसी'—ये लोग कहाँ से आते हैं? क्या वे अविश्वासियों के बीच से आते हैं? नहीं, ये सभी विश्वासियों के बीच से आते हैं। ये विश्वासी इस तरह क्यों बदल जाते हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर के वचनों ने उन्हें ऐसा बना दिया है? जाहिर है, ऐसा नहीं है। कारण क्या है? इसका कारण उनके द्वारा चुना गया रास्ता है। वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग केवल प्रचार करने और कलीसिया से लाभ प्राप्त करने के एक साधन के रूप में करते हैं। वे अपने दिमाग और मुँह परमेश्वर के वचनों से लैस कर लेते हैं, पवित्र होने का दिखावा करते हैं, और फिर कलीसिया से लाभ लेने का उद्देश्य हासिल करने के लिए इसका पूँजी की तरह इस्तेमाल करते हैं। वे मात्र सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, मगर उन्होंने कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया है। वे किस तरह के लोग हैं जो परमेश्वर के मार्ग का कभी भी अनुसरण नहीं करने के बावज़ूद वचनों और सिद्धान्तों का उपदेश देना जारी रखते हैं? ये पाखण्डी फरीसी हैं। वह थोड़ा-सा कथित अच्छा व्यवहार और खुद को व्यक्त करने के अच्छे तरीके, और जो थोड़ा उन्होंने त्यागा और व्यय किया है, वह पूरी तरह से मजबूरी में किया गया है; यह सब उनके द्वारा किया गया नाटक है। वे पूरी तरह से नकली हैं; वे सारे काम ढोंग हैं। इन लोगों के हृदयों में, परमेश्वर के प्रति जरा-सी भी श्रद्धा नहीं है, न ही वे परमेश्वर में कोई सच्ची आस्था रखते हैं। इससे भी अधिक, वे गैर-विश्वासियों में से हैं। यदि लोग सत्य की खोज नहीं करते हैं, तो वे इस तरह के रास्ते पर चलेंगे, और वे फरीसी बन जाएँगे। क्या यह डरावना नहीं है? फरीसी किस स्थान पर एकत्र होते हैं? वह एक बाजार है। परमेश्वर की दृष्टि में वह धर्म है; वह परमेश्वर की कलीसिया नहीं है, न ही वह कोई ऐसा स्थान है जिसमें उसकी आराधना की जाती है। इस प्रकार, यदि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो फिर वे चाहे परमेश्वर के कथनों से संबंधित जितने भी शाब्दिक वचनों और सतही सिद्धांतों को आत्मसात कर लें, वह किसी काम का नहीं होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जीवन संवृद्धि के छह संकेतक')। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे बहुत डर लगा, अंदर से सिहर उठी। दूसरे मेरे बारे में ऊँचा सोचें, इसके लिए मैंने हमेशा मुखौटा पहना, ताकि सब लोग मेरा अच्छा रूप ही देखें। मैंने कभी भी अपनी कमियाँ नहीं बताईं या उनके बारे में खुलकर नहीं बोली। हमेशा झूठी बातें बताकर भाई-बहनों को छला। क्या मैं फरीसियों जैसी नहीं थी? फरीसी मंदिरों में हर दिन लोगों के लिए धर्मशास्त्रों की व्याख्या करते, अक्सर चौराहों पर खड़े होकर प्रार्थना करते। सब सोचते कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, पवित्र हैं, और वे उन्हें आदर से देखते, उन्हें पूजते। लेकिन उन्हें परमेश्वर का डर नहीं था, न वे उसे सर्वोपरि मानकर उसके आदेशों का पालन करते थे। खास तौर से जब प्रभु यीशु ने प्रकट होकर कार्य किया, तो उन्हें मालूम था प्रभु यीशु के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, लेकिन अपना रुतबा, अपनी आजीविका बनाए रखने के लिए, उन्होंने परमेश्वर के कार्य का अंधाधुंध तिरस्कार और प्रतिरोध किया, उसकी निंदा की। बाहर से नेक दिखने वाले उनके काम नकली थे, जिनसे वे खुद को छिपाते थे, दिखने में धर्मी होने के बावजूद उनका सार कपटी था, वे सत्य से घृणा करते थे। मुझे याद आया कि प्रभु यीशु ने फरीसियों को कैसे श्राप दिया था, "हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम चूना फिरी हुई कब्रों के समान हो जो ऊपर से तो सुन्दर दिखाई देती हैं, परन्तु भीतर मुर्दों की हड्डियों और सब प्रकार की मलिनता से भरी हैं। इसी रीति से तुम भी ऊपर से मनुष्यों को धर्मी दिखाई देते हो, परन्तु भीतर कपट और अधर्म से भरे हुए हो" (मत्ती 23:27-28)। फिर मैंने अपने बारे में सोचा। क्या मैं भी वही नहीं थी? सुसमाचार-उपयाजिका बनने के बाद से, बाहर से तो मैं सुबह जल्दी उठती, देर रात तक जागती रहती, जोश के साथ काम करती, लेकिन ये सब भ्रम थे, दूसरों के देखने के लिए नाटक। मैं अपना काम सक्रिय होकर करती, ताकि दूसरों को लगे कि उन्होंने गलत इंसान को नहीं चुना। जब भी मैं अपने काम में प्रभावी होती, और भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझा देती, तो तुरंत समूह को संदेश भेज देती या भाई-बहनों को बता देती, क्योंकि मैं चाहती थी कि मेरे अगुआ और दूसरे देख लें कि मैं अपने काम में काबिल और जिम्मेदार हूँ। मैं अपने मंसूबे और मकसद लिए काम करती थी। यही चाहती थी कि दूसरे मुझे ऊंची नजर से देखें। मुझे साफ तौर पर पता था कि मैंने कोई ठोस काम नहीं किया, लेकिन अक्सर दिखावा करती, रुतबे के पीछे भागती, अपनी भ्रष्टता के बारे में कभी जिक्र न करती, न ही बोलती। परमेश्वर ने मुझे खुलकर बोलने के कई मौके दिए, लेकिन हर बार मैंने सत्य पर अमल नहीं किया, अपना रास्ता निकालने के लिए कपट, मुखौटों और छिपाव का ही इस्तेमाल किया, जिससे भाई-बहन मेरी प्रशंसा करने लगे, मुझे सत्य का अनुसरण करने और जिम्मेदारी से काम करने वाली समझने लगे। मैं समझ गई कि पाखंडी फरीसियों की ही तरह, मैं लोगों को अपने सामने लाती थी। यह उनके साथ छल करके उन्हें जीतना था, मैं परमेश्वर के प्रतिरोध की राह पर चल रही थी। परमेश्वर ने फरीसियों को श्राप दिया था। मैंने प्रायश्चित नहीं किया तो मेरा अंत भी फरीसियों जैसा ही होगा।
फिर, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश याद आया, "कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। सत्य में प्रवेश करने के लिए खुलकर बोलना सीखना सबसे पहला कदम है, और यह पहली बाधा है, जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक: दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना, परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग भी यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिलकुल भी नहीं थकोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे। यह पहला कदम है। इसके बाद, तुम्हें अपने विचारों और कार्यों का विश्लेषण करना सीखने की आवश्यकता है, ताकि यह देख सको कि उनमें से कौन-से गलत हैं और किन्हें परमेश्वर पसंद नहीं करता, और तुम्हें उन्हें तुरंत उलटने और सुधारने की आवश्यकता है। इन्हें सुधारने का मकसद क्या है? इसका मकसद यह है कि तुम अपने भीतर उन चीजों को अस्वीकार करो जो शैतान से संबंधित हैं और उनकी जगह सत्य को लाते हुए, सत्य को स्वीकार करो और उसका पालन भी करो। पहले, तुम हर काम अपनी भ्रष्ट प्रकृति के अनुसार करते थे, जो कि कपटी और धोखेबाज है; तुम्हें लगता था कि तुम झूठ बोले बिना कुछ नहीं कर सकते। अब जब तुम सत्य समझने लगे हो, और शैतान के काम करने के ढंग से घृणा करते हो, तो तुमने उस तरह काम करना बंद कर दिया है, अब तुम ईमानदारी, पवित्रता और आज्ञाकारिता की मानसिकता के साथ कार्य करते हो। यदि तुम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते हो, दिखावा नहीं करते हो, ढोंग नहीं करते हो, मुखौटा नहीं लगाते हो, यदि तुम भाई-बहनों के सामने अपने आपको खोल देते हो, अपने अंतरतम विचारों और चिंतन को छिपाते नहीं हो, बल्कि दूसरों को अपना ईमानदार रवैया दिखा देते हो, तो फिर धीरे-धीरे सत्य तुम्हारे अंदर जड़ें जमाने लगेगा, यह खिल उठेगा और फलदायी होगा, धीरे-धीरे तुम्हें इसके परिणाम दिखाई देने लगेंगे। यदि तुम्हारा दिल ईमानदार होता जाएगा, परमेश्वर की ओर उन्मुख होता जाएगा और यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना जानते हो, और इन हितों की रक्षा न कर पाने पर जब तुम्हारी अंतरात्मा परेशान हो जाए, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम पर सत्य का प्रभाव पड़ा है और वह तुम्हारा जीवन बन गया है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचन से मैं समझ सकी कि ईमानदार इंसान बनाने के लिए, जरूरी है कि मुखौटे न पहनूँ, झूठा रूप न दिखाऊँ, अपनी भ्रष्टता और कमियों का खुलासा करने लायक बनूँ, अपना बिल्कुल सही रूप दिखाऊँ, और भाई-बहनों को अपना भीतरी दिल दिखा सकूं। मैंने याद किया कि किस तरह हमेशा मुखौटे पहनकर खुद को छिपाया करती, ताकि दूसरे मेरे बारे में ऊँचा सोचें, और बैठकों में कैसे अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर नहीं बोलती थी। मैं एक कपटी इंसान थी, जिससे परमेश्वर को घृणा और चिढ़ थी, इस तरह जीना थकाऊ और कष्टदायक था। यह समझने के बाद, मैंने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! मैं हमेशा मुखौटे पहनती हूँ, ताकि लोग मुझे आदर से देखें, मेरी प्रशंसा करें। मुझे मालूम है इससे आपको चिढ़ है। अब, मैं खुद से घृणा करती हूँ। हे परमेश्वर, मैं सत्य पर अमल करना और ईमानदार इंसान बनना चाहती हूँ। मुझे रास्ता दिखाओ!" प्रार्थना के बाद, मैंने संगति में बताया कि किस तरह मैंने वास्तविक काम नहीं किया, उजागर किया कि मैंने कैसे मुखौटों और कपट का इस्तेमाल किया। संगति के बाद, मेरे दिल का बोझ उतर गया, मुझे बड़ी राहत महसूस हुई। मेरे भाई-बहनों ने मुझे नीची नजर से नहीं देखा। अगुआओं ने मेरा निपटान नहीं किया; बल्कि उन्होंने सब्र के साथ संगति करके मुझे सिखाया कि व्यावहारिक काम कैसे करें। मैं समझ गई कि सत्य पर अमल करके, ईमानदार इंसान बनकर मुझे सुकून मिलेगा। हालांकि मेरी समस्याएँ और कमियाँ उजागर हो गईं, पर संगति और भाई-बहनों की मदद के जरिए, मैं समय रहते अपने तौर-तरीके बदलकर अपना काम बेहतर ढंग से कर पाई, जो मेरे लिए फायदेमंद था।
इसके बाद, मैंने सचेतन होकर भाई-बहनों के साथ खुलकर संगति की, अपने भ्रष्ट स्वभाव को उजागर किया और मुखौटे पहनना छोड़ दिया। एक बार, एक भाई ने संदेश भेजकर कहा, "आप एक सुसमाचार-उपयाजिका हैं। जब हम सुसमाचार का प्रचार करने जाएंगे तब आप भी सुसमाचार लक्ष्यों के साथ संगति क्यों नहीं करतीं? मेरे विचार से आपको करनी ही चाहिए।" संदेश देखकर मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने सोचा, "एक समूह अगुआ होकर मुझे आदेश देने का तुम्हें क्या हक है? लगता है मानो तुम मेरी पूछताछ कर रहे हो। इतना भी नहीं पूछा कि क्या मैं व्यस्त हूँ या क्या मेरे पास समय है।" इसलिए मैंने जवाब दिया, "सुसमाचार कार्य सिर्फ मेरे भरोसे नहीं हो सकता। इसमें सबको सहयोग करना होता है।" फिर, मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ, क्योंकि मुझे लगा मैंने अहंकार दिखाया था। भाई हमारे काम के बारे में सोचकर सच्चाई बता रहा था। मुझे मान लेना चाहिए था। मैंने न सिर्फ उसे ठुकराया, बल्कि उसे गुस्से से जवाब भी दिया। क्या यह अनुचित नहीं था? मेरी हरकत से उसका दिल दुखेगा, वह लाचार महसूस करेगा। मैं उसके पास जाकर अपनी समस्या मानना चाहती थी, मगर अपनी छवि नहीं छोड़ पाई। पहले इस भाई के मन में मेरे बारे में अच्छी छवि थी। उसके सामने खुलकर बोली, तो क्या वह मुझे नीची नजर से देखेगा? ऐसा सोचते ही समझ गई कि अपना रुतबे और छवि के लिए मैं फिर से मुखौटा पहनना चाहती थी। मैंने परमेश्वर से सत्य पर अमल करने और देह-सुख छोड़ने की राह दिखाने की विनती की। फिर, मैंने भाई से अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बात की। उसने कहा कि उसका स्वभाव अहंकारी है, बोलते समय उसने मेरी भावनाओं के बारे में नहीं सोचा, और वह बदलना चाहता है। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से, हमने आत्मचिंतन किया, एक ईमानदार इंसान बनने के अभ्यास ने मुझे खास तौर पर सुकून दिया।
अपने अनुभव के जरिए, मैं समझ सकी कि परमेश्वर के वचन सचमुच लोगों को शुद्ध करके बचा सकते हैं। उसके वचन के न्याय और ताड़ना के बिना मैं हमेशा खुद को छिपाती रहती, अपनी भ्रष्टता और कमियों को समझ पाना सचमुच नामुमकिन होता, मैं बदल नहीं पाती। मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन और उद्धार की आभारी हूँ कि उसने मुझे सत्य पर अमल करने और ईमानदार बनने के सुकून और राहत का स्वाद चखाया।
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