ये तमाम कष्ट आखिर किसलिए?
विश्वासी बनने के बाद, मैंने देखा कि अनेक अगुआ और कार्यकर्ता बहुत-सी तकलीफें सह सकते थे। बारिश हो या आंधी, वे काम करते रहते, अपना कर्तव्य निभाते रहते, और सभी भाई-बहन उन्हें पसंद करते और उनकी सराहना करते। मुझे उनसे काफी ईर्ष्या होती और आशा करती कि मैं भी कभी उनकी तरह बन सकती : ऐसी इंसान जो तकलीफें सहे, कीमत चुका सके, और दूसरों की सराहना पा सके। इसलिए, मैं अपने अनुसरण में बहुत जोश दिखाने लगी। और फिर मुझे एक कलीसिया अगुआ चुना गया। मैं हर दिन अपने कर्तव्य में बहुत व्यस्त रहने लगी, तकलीफें झेलने में सक्षम होने पर दूसरे मेरी तारीफ करते, और कहते, मैं ऐसी इंसान हूँ जो सत्य का अनुसरण करती हूँ। हर बार ऐसी कोई बात सुनकर मेरा मन बल्लियों उछलता, मुझे लगता सारी तकलीफ सार्थक हो गई। बाद में, मेरी जिम्मेदारियों का दायरा बढ़ता गया, और मेरे काम का बोझ भी बढ़ता रहा। मैंने देखा जिन बहनों के साथ मैं काम करती थी, उनमें से कुछ सच में कष्ट झेल कर कीमत चुका पा रही थीं। वे हमेशा बड़ी देर से सोती थीं और दिन में कभी-कभी समय न होने पर वे सभाओं में खाली पेट चली जाती थीं। मैंने भाई-बहनों को यह कहते सुना कि वे अपने कर्तव्य में बोझ उठा रही थीं और कष्ट सहने में सक्षम थीं। मुझे लगता अगर भाई-बहन ऐसे लोगों को पसंद करते हैं, तो यकीनन परमेश्वर भी जरूर करता होगा। इसलिए मैं देर रात तक अपना कर्तव्य निभाने लगी। कुछ समय बाद, मेरा शरीर अब और बर्दाश्त नहीं कर पाया, आधी रात के बाद ही मुझे नींद आने लगती। लेकिन हर बार जब मैं दूसरी बहनों को देर तक काम करते देखती, तो मुझे सोने जाने में शर्मिंदगी महसूस होती, डर लगता कहीं वे यह न कहें कि मैं देह-सुख पर ध्यान देती हूँ, और यह कि मैं अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी नहीं उठाती। इसलिए मैं वहीं रुकी रहती, मगर मैं नींद के झोंकों से नहीं बच पाती, और ज्यादा काम नहीं करवा पाती। इसके बावजूद, मैं सोने के लिए नहीं जाती। मैं मन-ही-मन खुद को समझाती कि अपने देह-सुख पर ध्यान नहीं दे सकती और दूसरों की नीची नजर का सामना नहीं कर सकती। कभी-कभी देर रात तक जगे रहने के कारण, जब मुझे सभा के लिए सुबह जल्दी उठना पड़ता था, तो ई-बाइक पर जाते समय नींद आती, सभा में भी ऊंघने लगती। मैं दोपहर के वक्त झपकी लेना चाहती थी, मगर डरती थी कि दूसरे कहेंगे मुझे दैहिक सुख की लालसा है। हर दिन, मैं खुद को किसी तरह देर रात तक जगे रहने को मजबूर करती। एक दिन, सभा के लिए ई-बाइक पर जाते हुए, बहुत नींद आने के कारण, मैं पूरे रास्ते बोझिल-सी रही और आखिर एक गड्ढे में जा गिरी, जिससे मैं डरकर तुरंत जाग गई। सड़क किनारे अपनी ई-बाइक घसीटते हुए सोचती रही कि कैसे यह काम करने का सही तरीका नहीं था। आत्मचिंतन से मुझे एहसास हुआ कि अगुआ चुने जाने के बाद से ही, मैंने सिर्फ यही सोचा था कि हर दिन साफ तौर पर तकलीफ और मेहनत से भरा होता था, हमेशा डर लगा रहता था कहीं लोग यह न कहें कि मेरा ध्यान देह-सुख पर है और मुझे आराम की लालसा है। यानी मेरे जीवन में कोई दिनचर्या नहीं थी, और मैं सामान्य रूप से आराम भी नहीं करती थी।
एक दिन, मैंने फरीसियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े और इन वचनों को खुद पर लागू करके देखा। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “क्या तुम लोग जानते हो कि कोई फरीसी सचमुच कैसा होता है? क्या तुम लोगों के आसपास कोई फरीसी है? इन लोगों को ‘फरीसी’ क्यों कहा जाता है? फरीसियों का वर्णन कैसे किया जाता है? वे ऐसे लोग होते हैं जो पाखंडी हैं, जो पूरी तरह से नकली हैं और अपने हर कार्य में नाटक करते हैं। वे क्या नाटक करते हैं? वे अच्छे, दयालु और सकारात्मक होने का ढोंग करते हैं। क्या वे वास्तव में ऐसे होते हैं? बिलकुल नहीं। चूँकि वे पाखंडी होते हैं, इसलिए उनमें जो कुछ भी व्यक्त और प्रकट होता है, वह झूठ होता है; वह सब ढोंग होता है—यह उनका असली चेहरा नहीं होता। उनका असली चेहरा कहाँ छिपा होता है? वह उनके दिल की गहराई में छिपा होता है, दूसरे उसे कभी नहीं देख सकते। बाहर सब नाटक होता है, सब नकली होता है, लेकिन वे केवल लोगों को मूर्ख बना सकते हैं; वे परमेश्वर को मूर्ख नहीं बना सकते। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, अगर वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव नहीं करते, तो वे वास्तव में सत्य नहीं समझ सकते, इसलिए उनके शब्द कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे शब्द सत्य वास्तविकता नहीं होते, बल्कि शब्द और धर्म-सिद्धांत होते हैं। कुछ लोग केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को रटने पर ही ध्यान देते हैं, जो भी उच्चतम उपदेश देता है वे उसकी नकल करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में उनका शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का पाठ निरंतर उन्नत होता जाता है, और वे बहुत-से लोगों द्वारा सराहे और पूजे जाते हैं, जिसके बाद वे खुद को छद्मावरण द्वारा छिपाने लगते हैं, अपनी कथनी-करनी पर बहुत ध्यान देते हैं, और स्वयं को खास तौर पर पवित्र और आध्यात्मिक दिखाते हैं। वे इन तथाकथित आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रयोग खुद को छद्मावरण से छिपाने के लिए करते हैं। वे जहाँ कहीं जाते हैं, बस इन्हीं चीजों के बारे में बात करते हैं, ऊपर से आकर्षक लगने वाली चीजें जो लोगों की धारणाओं के अनुकूल तो होती हैं, लेकिन जिनमें कोई सत्य वास्तविकता नहीं होती। और इन चीजों का प्रचार करके—जो लोगों की धारणाओं और रुचियों के अनुरूप होती हैं—वे बहुत लोगों को धोखा देते हैं। दूसरों को ऐसे लोग बहुत ही धर्मपरायण और विनम्र लगते हैं, लेकिन वास्तव में यह नकली होता है; वे सहिष्णु, धैर्यवान और प्रेमपूर्ण लगते हैं परंतु यह सब वास्तव में ढोंग होता है; वे कहते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, लेकिन वास्तव में यह एक नाटक होता है। दूसरे लोग ऐसे लोगों को पवित्र समझते हैं, लेकिन असल में यह झूठ होता है। सच्चा पवित्र व्यक्ति कहाँ मिल सकता है? मनुष्य की सारी पवित्रता नकली होती है, वह सब एक नाटक, एक ढोंग होता है। बाहर से वे परमेश्वर के प्रति वफादार प्रतीत होते हैं, लेकिन वे वास्तव में केवल दूसरों को दिखाने के लिए ऐसा कर रहे होते हैं। जब कोई नहीं देख रहा होता है, तो वे जरा से भी वफादार नहीं होते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह लापरवाही से किया गया होता है। सतह पर वे खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं और उन्होंने अपने परिवारों और अपनी आजीविकाओं को छोड़ दिया है। लेकिन वे गुप्त रूप से क्या कर रहे हैं? वे परमेश्वर के लिए काम करने के नाम पर कलीसिया का फायदा उठाते हुए और चुपके से चढ़ावे चुराते हुए कलीसिया में अपना उद्यम और अपना कार्य व्यापार चला रहे हैं...। ये लोग आधुनिक पाखंडी फरीसी हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर के वचनों में हुआ खुलासा सच में मेरे दिल को चीरने वाला वाला और मेरे लिए मुश्किल भरा था। मैं ठीक फरीसियों जैसी ही पेश आ रही थी। वे अपने सतही व्यवहार से दिखावा करना पसंद करते थे, जान-बूझकर गली के नुक्कड़ों पर प्रार्थना करते और परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते, ताकि लोग समझें कि वे बड़े धर्मनिष्ठ हैं और परमेश्वर से बेहद प्रेम करते हैं। लेकिन निजी तौर पर, वे परमेश्वर के वचनों पर बिल्कुल भी अमल नहीं करते थे। वे ये सभी चीजें सिर्फ दिखावा करने, लोगों की मंजूरी और सराहना पाने के लिए करते थे। मैं भी वैसी ही थी। मैं सतही अच्छे व्यवहार पर खास तौर पर ध्यान देती थी, ताकि भाई-बहन मेरे बारे में अच्छा सोचें। कुछ दूसरे लोगों को अपने कर्तव्य में कष्ट सहने, कीमत चुकाने में समर्थ, और सबकी मंजूरी और सराहना पाते देखकर, मैं भी वैसी इंसान बनाने की कोशिश करती थी। जब मुझे अगुआ बनने के लिए चुना गया, तो अपने साथ काम करने वाली बहनों को देर रात तक काम करते देख मैं भी देर रात तक जागने के लिए खुद को मजबूर करने लगी ताकि उनसे न पिछड़ जाऊं। चाहे जितनी भी नींद आए, मैं काम करती रहती। खुद को तकलीफ सहने लायक दिखाने के लिए मैं दोपहर की सामान्य झपकी भी नहीं लेती थी। मैं हर मोड़ पर खुद को छिपाती, साफ तौर पर अच्छे काम करके भाई-बहनों की सराहना पाने की कोशिश करती। इस तरह कष्ट सहना और खुद को खपाना, पूरी तरह से नकली और छल-कपट था। मैं फरीसियों के रास्ते पर चल रही थी—और इससे परमेश्वर को नफरत कैसे न होती? इसके बाद, जब भी मैं खुद को छिपाना चाहती, मैं सचेत होकर खुद की इच्छाओं का त्याग करती, दूसरों के सामने दिखावा नहीं करती; मैंने अपने काम और आराम के समय में भी संतुलन लाने की कोशिश की, दिन का काम पूरा हो जाने पर मैं सोने चली जाती। इस तरह से अभ्यास करके मुझे बहुत सुकून महसूस हुआ।
एक साल बाद मैं विदेश गई। जिन भाई-बहनों के साथ मैंने काम किया था वे सच में अपने कर्तव्य में कष्ट झेल सकते थे और हर रात देर तक काम करते थे। कभी-कभी, अपना काम पूरा हो जाने पर मैं जल्दी सोने जाना चाहती थी, लेकिन मुझे उनके यह सोचने का डर होता कि मेरा ध्यान दैहिक आराम पर था। साथ ही, मैं एक अगुआ थी, तो अगर मैं दूसरे भाई-बहनों से पहले सोने चली गई, तो सब लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे यह नहीं कहेंगे कि मैं कष्ट नहीं सह सकती, और अपने कर्तव्य का बोझ नहीं उठाती? जब मैंने इस तरह से सोचा, तो मैं फिर से नाटक किए बिना, और उनके साथ देर रात तक जागे बिना नहीं रह सकी। लेकिन रात 1 बजे के बाद, मुझे नींद आने लगती और मैं ऊंघने लगती। वे मुझसे जल्दी सो जाने को कहते, लेकिन मैं खुद को जबरन जगाए रखती और कहती, “मैं ठीक हूँ। सब संभाल सकती हूँ। थोड़ी देर बाद सो जाऊंगी।” लेकिन फिर ऊंघे बिना नहीं रह पाती। कभी-कभी मैं अपनी नींद रोक नहीं पाती, तो सिर मेज पर रखकर थोड़ी देर झपकी ले लेती, मगर ऐसा करके मन अशांत हो जाता। मुझे फिक्र होती कि दूसरे मेरे बारे में क्या कहेंगे, तो मैं फिर से खुद को काम में व्यस्त कर लेती। यह दिखाने के लिए कि मैं जिम्मेदारी उठाती हूँ, मैं कभी-कभी देर रात जान-बूझकर कोई सामूहिक संदेश भेज देती, ताकि दूसरे यह जान लें मैं कितनी देर तक जगी रही, कितनी रात तक कर्तव्य निभाती रही। सेहत की कुछ समस्याओं के कारण मैं कुछ पोषक गोलियाँ खरीदना चाहती थी, लेकिन सोचती थी कि दूसरे लोग क्या कहेंगे। क्या वे सोचेंगे मैं देह-सुख को संजोती हूँ। इसलिए, मैंने गोलियां नहीं खरीदीं। एक बार सभा में, मुझे पता चला कि एक बहन की हालत ठीक नहीं थी, उसे थोड़ी संगति और सहारे की जरूरत थी। मगर वह एक अलग समय क्षेत्र वाले दूसरे देश में रहती थी, और मेरे लिए तब आधी रात का समय था, तो शुरू में मैंने उसके साथ अगले दिन संगति करने की सोची। फिर मैंने सोचा, उसके साथ रात में संगति करने से लगेगा मैं भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश की जिम्मेदारी का बोझ उठाती हूँ। इसलिए मैंने उस बहन से संपर्क किया और करीब रात 2 बजे से पहले संगति खत्म नहीं की। उसने मुझसे कहा, “आप जहां हैं उसके हिसाब से बहुत रात हो चुकी है, आपको सो जाना चाहिए। इस तरह हमेशा देर रात तक जागना आपकी सेहत के लिए ठीक नहीं है।” यह बात सुनकर सचमुच मुझे बहुत संतुष्टि हुई। हालांकि यह शारीरिक रूप से असुविधाजनक था, मगर बेकार नहीं गया, क्योंकि इससे उसने सोचा मुझे जिम्मेदारी का एहसास था और मैं कर्तव्य का बोझ उठाती थी। इसके बाद मुझे सेहत की ढेरों छोटी-छोटी समस्याएँ होने लगीं, डॉक्टर ने मुझे बताया कि ये लंबे समय से नींद की कमी के कारण थीं। मैंने इसकी अनदेखी की और वैसे ही काम करती रही। इस दौरान एक उच्च अगुआ मुझे हमेशा याद दिलाती थीं, कि मुझे ज्यादा देर तक नहीं जागना चाहिए, और अगर मैं जल्दी सोकर जल्दी उठूँ तो काम रुक नहीं जाएगा। मैंने मन-ही-मन सोचा कि अगर मैं जल्दी सो गई, तो दूसरे सोचेंगे कि एक अगुआ के रूप में मैं दूसरों के बराबर मुश्किलें नहीं झेल सकती हूँ, ऐसे में क्या वे अभी भी मुझे आदर से देखेंगे? मैंने अगुआ की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। जब एक बहन ने देखा मेरी तबीयत ठीक नहीं थी तो बोली, “आपके मन में बहुत-सी बातें चल रही हैं। सुलझाने के लिए हमेशा इतनी समस्याएँ होना और इतना तनाव झेलना आपकी सेहत पर बुरा असर डाल रहा है। अगुआ के रूप में आपकी बहुत-सी चिंताएं होती हैं।” उसकी यह बात सुनकर मैं बहुत खुश हो गई। मुझे लगा दूसरों की स्वीकृति के लिए, मेरी चुकाई हुई कीमत, मेरा झेला हुआ कष्ट सार्थक है। फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे उस गलत राह की थोड़ी समझ मिली जिस पर मैं चल रही थी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मसीह-विरोधी सत्य से ऊब चुके हैं, वे सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते—जो स्पष्ट रूप से एक तथ्य की ओर संकेत करता है : मसीह-विरोधी कभी सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करते, वे कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते—जो कि एक मसीह-विरोधी की सबसे मुखर अभिव्यक्ति है। हैसियत और प्रतिष्ठा के अलावा, आशीष और पुरस्कार पाने के अलावा, वे केवल दैहिक-सुख और हैसियत से जुड़ी चीजों का सुख भोगने के पीछे भागते हैं; और ऐसी स्थिति में वे स्वाभाविक रूप से विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं। इन तथ्यों से पता चलता है कि वे जिन चीजों के पीछे भागते हैं, जैसा उनका व्यवहार है और जो कुछ उनमें उजागर होता है, वे सारी चीजें परमेश्वर को नापसंद हैं। और ये सब सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों का तौर-तरीका और व्यवहार तो बिल्कुल नहीं होता। उदाहरण के लिए, कुछ मसीह-विरोधी जो पौलुस की तरह होते हैं, वे कर्तव्य निभाते समय कष्ट उठाने का संकल्प लेते हैं, पूरी-पूरी रात जागते हैं, बिना खाए-पिए काम करते रहते हैं, अपने शरीर वश में रख सकते हैं, बीमारी और परेशानी को वश में रख सकते हैं। यह सब करने का उनका उद्देश्य क्या होता है? इसके जरिए वे लोगों को यह दिखाना चाहते हैं कि जब परमेश्वर के आदेश की बात आती है तो वे खुद को दरकिनार कर आत्म-त्याग कर सकते हैं; उनके लिए कर्तव्य ही सबकुछ है। वे यह सब दिखावा लोगों के सामने करते हैं, वे इसका पूरा प्रदर्शन करते हैं, जब आराम करना चाहिए तब आराम नहीं करते, बल्कि जानबूझकर देर तक काम करते हैं, जल्दी उठते हैं और देर से सोने जाते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी जब सुबह से शाम तक खुद को इस तरह थकाते हैं तो कर्तव्य निभाने में उनकी कार्यकुशलता और प्रभावशीलता के बारे में क्या कहेंगे? ये बातें तो उनकी सोच के दायरे से ही बाहर होती हैं। वे यह सब सिर्फ लोगों के सामने करने की कोशिश करते हैं, ताकि लोग उनका कष्ट देख सकें, और यह देख सकें कि वे अपने बारे में सोचे बिना किस तरह खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं। वे यह तो सोचते ही नहीं कि वे जो कर्तव्य निभा रहे हैं और जो काम कर रहे हैं, वह सत्य सिद्धांतों के अनुसार हो भी रहा है या नहीं, वे इसके बारे में थोड़ा भी नहीं सोचते। वे केवल यही सोचते हैं कि सभी लोग उनके अच्छे व्यवहार को देख रहे हैं या नहीं, सबको इसकी जानकारी हो रही है या नहीं, क्या उन्होंने सब पर अपनी छाप छोड़ दी है और क्या यह छाप उनमें प्रशंसा और स्वीकार्यता का भाव पैदा करेगी, क्या ये लोग जाने के बाद उन्हें शाबाशी देंगे और उनकी प्रशंसा करते हुए कहेंगे, ‘ये लोग वास्तव में कष्ट सह सकते हैं, इनकी सहनशक्ति और असाधारण दृढ़ता की भावना हममें से किसी के बस की बात नहीं। ये लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, कष्ट सहकर भारी बोझ उठा सकते हैं, ये लोग कलीसिया के स्तंभ हैं।’ यह सुनकर मसीह-विरोधी सन्तुष्ट हो जाते हैं। मन में सोचते हैं, ‘मैं कितना चतुर हूँ जो ऐसा दिखावा किया, ऐसा करके मैंने कितनी चालाकी की! मुझे पता था कि लोग सिर्फ बाहर की चीजें देखते हैं, और उन्हें ये अच्छे व्यवहार पसंद है। मुझे पता था कि अगर मैं इस तरह से पेश आऊँगा, तो इससे लोगों की स्वीकृति मिलेगी, इससे मुझे शाबाशी मिलेगी, वे लोग तहेदिल से मेरी प्रशंसा करेंगे, मुझे प्रशंसा भरी नजरों से देखेंगे, और फिर कभी कोई मुझे हिकारत से नहीं देखेगा। और अगर कभी उच्च को पता चल भी गया कि मैं असली काम नहीं कर रहा और मुझे हटा दिया गया, तो निस्संदेह बहुत से लोग मेरे समर्थन में खड़े हो जाएँगे, जो मेरे लिए रोएँगे, मुझसे रुकने का आग्रह करेंगे और मेरे पक्ष में बोलेंगे।’ वे गुप्त रूप से अपने नकली व्यवहार पर गर्व करते हैं—और क्या यह अभिमान भी एक मसीह-विरोधी के प्रकृति सार को प्रकट नहीं करता? और यह क्या सार है? (दुष्टता।) सही है—यह दुष्टता का सार ही है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दस))। परमेश्वर एक मसीह-विरोधी की प्रकृति को भयानक बुराई के रूप में उजागर करता है। वे लोगों के सामने दिखावा करने के लिए कैसी भी चाल चल सकते हैं, ताकि वे दूसरों को काबू में करने और सराहना पाने के अपने लक्ष्य को हासिल कर सकें। मिसाल के तौर पर, वे अपने काम के घंटे जान-बूझकर बढ़ा लेते हैं, देर रात तक जागते हैं, सुबह जल्दी उठते हैं, ताकि ऐसा लगे कि वे परमेश्वर को समर्पित हैं। वे सुबह से लेकर रात तक अपने कर्तव्यों में कड़ी मेहनत करते रहते हैं, खाना-सोना भूल जाते हैं, और शारीरिक जरूरतों की अनदेखी करते हैं, ताकि लोग उनकी सराहना करें, उनसे प्रेम करें। आखिर में वे लोगों को खुद के करीब लाते हैं। परमेश्वर ऐसे व्यवहार से घृणा करता है, उसकी निंदा करता है। परमेश्वर के वचनों के सामने खुद को खड़ी करके मेरा दिल दहल गया, मुझे बड़ी बेचैनी हुई। मैं एक मसीह-विरोधी जैसी ही पेश आ रही थी। दूसरे यह देखें मैं कितनी मुश्किलें सह सकती थी, देह-सुख पर ध्यान नहीं देती थी, अपने काम का बोझ उठाती थी, और एक अच्छी अगुआ होने को लेकर वे मेरी सराहना करें, इसके लिए मैं अपने काम और आराम के समय के साथ-साथ खाने-पीने की चीजों में दिखावा करने की भरसक कोशिश करती। आराम के समय मैं आराम नहीं करती, मेरे कर्तव्य के लिए जरूरी न होने पर भी मैं जान-बूझकर देर रात तक जागी रहती। सेहत की कुछ समस्याएँ आने पर भी मैं ऐसा ही करती रही। मुझे डर था कहीं लोग यह न कहें कि मैं देह-सुख की बहुत परवाह करती हूँ, इससे उनके मन में मेरी बुरी छाप पड़ेगी, इसी डर से मैंने जरूरत की पोषक गोलियां तक नहीं खरीदीं। मैं अच्छी होने का दिखावा कर, कष्ट सहकर और कीमत चुकाकर खुद को चोरी-छिपे स्थापित कर रही थी, ताकि दूसरे सोचें कि मैं सत्य का अनुसरण करती हूँ, अपना कर्तव्य मेहनत और लगन से निभाती हूँ, और एक अच्छी अगुआ हूँ, जिससे वे मेरा सम्मान करेंगे। मेरे सारे प्रयासों और खुद को खपाने के पीछे पूरी तरह से नकलीपन और छल-कपट था। यह सब दूसरों को एक झूठी छवि से गुमराह करके खुद को अच्छा दिखाने के लिए था। मैं एक मसीह-विरोधी की राह पर थी। मैं इस तरह काम नहीं करते रहना चाहती थी, तो मैंने प्रायश्चित करने और अपनी गलत दशा बदलने को तैयार होकर, परमेश्वर से प्रार्थना की।
फिर मैंने आत्मचिंतन किया—कि मैं तकलीफें झेल सकने वाली दिखने पर इतना ध्यान क्यों दे रही थी। मुझे एहसास हुआ कि मैंने एक गलत नजरिया अपना रखा था। मैं हमेशा सोचती थी कि कष्ट सहने, कीमत चुकाने और साफ तौर पर अच्छे काम करने का अर्थ, सत्य पर अमल कर परमेश्वर को संतुष्ट करना है, और परमेश्वर इसे स्वीकृति देगा। लेकिन परमेश्वर के वचनों के खुलासे से मैंने देखा कि इस तरह की सोच का कोई आधार ही नहीं है। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “इंसान के दिखावटी काम क्या दर्शाते हैं? वे देह की इच्छाओं को दर्शाते हैं, यहाँ तक कि दिखावे के सर्वोत्तम अभ्यास भी जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करते, वे केवल तुम्हारी अपनी व्यक्तिगत मनोदशा को दर्शा सकते हैं। मनुष्य के बाहरी अभ्यास परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं कर सकते। ... यदि तुम्हारे काम सदैव दिखावे के लिए ही हैं, तो इसका अर्थ है कि तुम एकदम नाकारा हो। ऐसे लोग किस तरह के होते हैं जो दिखावे के लिए तो अच्छे काम करते हैं लेकिन वास्तविकता से रहित होते हैं? ऐसे लोग सिर्फ पाखंडी फरीसी और धार्मिक शख्सियत होते हैं। यदि तुम लोग अपने बाहरी अभ्यासों को नहीं छोड़ते और परिवर्तन नहीं कर सकते, तो तुम लोग और भी ज्यादा पाखंडी बन जाओगे। जितने ज्यादा पाखंडी बनोगे, उतना ही ज्यादा परमेश्वर का विरोध करोगे। और अंत में, इस तरह के लोग निश्चित रूप से हटा दिए जाएँगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इंसान को अपनी आस्था में, वास्तविकता पर ध्यान देना चाहिए—धार्मिक रीति-रिवाजों में लिप्त रहना आस्था नहीं है)। “आज कुछ लोग ऐसे हैं जो अपना कर्तव्य निभाते हुए, सुबह से शाम तक काम करते हैं, और खाना या सोना तक भूल जाते हैं, वे शरीर को अपने वश में कर सकते हैं, शारीरिक कठिनाइयों की अनदेखी कर सकते हैं, यहाँ तक कि बीमार होने पर भी काम कर सकते हैं। भले ही उनमें ये सुधारात्मक गुण होते हैं और वे अच्छे और सही लोग होते हैं, फिर भी उनके दिलों में ऐसी चीजें होती हैं जिन्हें वे दरकिनार नहीं कर पाते : प्रतिष्ठा, लाभ, रुतबा और अभिमान। यदि वे इन चीजों को कभी दरकिनार न कर पाएँ, तो क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं? उत्तर स्वतः-स्पष्ट है। परमेश्वर में विश्वास रखने का सबसे कठिन भाग स्वभाव में परिवर्तन लाना होता है। संभवतः तुम जीवन भर अविवाहित रह सकते हो, या शायद तुम कभी अच्छा भोजन न कर पाओ या अच्छे कपड़े नहीं पहन पाओ; फिर भी कुछ लोग कह सकते हैं, ‘कोई फर्क नहीं पड़ता अगर मुझे जीवन भर कष्ट उठाना पड़े या मुझे आजीवन अकेला रहना पड़े, मैं इसे सहन कर सकता हूँ—परमेश्वर मेरे साथ है, तो ये चीजें बेमतलब हैं।’ इस तरह की दैहिक-पीड़ा और कठिनाइयों पर काबू पाकर उनका समाधान करना आसान होता है। किस चीज पर काबू पाना आसान नहीं होता? मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव पर। आत्म-संयम मात्र से भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं हो सकता। अपना कर्तव्य ठीक से निभाने, परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने और भविष्य में परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिए लोग दैहिक-पीड़ा सह लेते हैं—लेकिन क्या कष्ट उठाने और कीमत चुका पाने का मतलब यह है कि उनके स्वभाव में बदलाव आ गया? नहीं आया। जब यह जानना हो कि क्या किसी के स्वभाव में कोई परिवर्तन आया है, तो यह मत देखो कि वह कितना कष्ट सह रहा है और बाहर से उसका व्यवहार कितना शिष्ट है। किसी व्यक्ति के स्वभाव में कोई परिवर्तन आया है या नहीं, इसे सटीक रूप से जानने का एकमात्र तरीका यह देखना है कि उसके क्रियाकलापों के पीछे के उद्देश्य, मंशाएँ, और इरादे क्या हैं, अपने आचरण और मामलों को संभालने के लिए उसके सिद्धांत क्या हैं, और सत्य के प्रति उसका रवैया कैसा है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अच्छे व्यवहार का यह मतलब नहीं कि व्यक्ति का स्वभाव बदल गया है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि कष्ट उठाने और कीमत चुकाने में सक्षम होना परमेश्वर की स्वीकृति मिलने के बराबर नहीं है। अनुग्रह के युग में, पौलुस साफ तौर पर मुश्किलें झेल सकता था। उसने सुसमाचार को फैलाया और जेल में डाले जाने के बाद भी उसने प्रभु से धोखा नहीं किया। उसका व्यवहार प्रशंसनीय लगा था। लेकिन उसके सारे कष्ट और उसका खुद को खपाना सब परमेश्वर से सौदा करने के लिए थे। वह अपने कष्टों का सौदा कर बदले में एक ताज और परमेश्वर के राज्य की आशीष पाना चाहता था। उसके नेक कर्मों का अर्थ यह नहीं था कि उसका स्वभाव पूरी तरह बदल गया था, बल्कि साफ तौर पर दिखने वाले इन अच्छे कर्मों की वजह से वह हमेशा दिखावा करता और खुद की गवाही देता था, वजह ज्यादा से ज्यादा घमंडी हो गया था। उसने तो यह भी गवाही दी थी कि उसका जीवन ही मसीह है, अंत में परमेश्वर ने उसकी निंदा की, उसे दंडित किया। आत्मचिंतन करने पर पता चला कि मैं सिर्फ अच्छा व्यवहार करती हुई दिखना चाहती थी, ताकि मैं खुद को छिपा सकूं और लोग मेरा आदर करें, लेकिन मैं सत्य पर अमल करने या अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने पर ध्यान नहीं दे रही थी। नतीजतन, मैं और ज्यादा पाखंडी हो गई, और मैंने अपना जीवन स्वभाव जरा भी नहीं बदला। अगर मैंने इस तरह अनुसरण जारी रखा, तो मैं यकीनन सत्य को बिल्कुल भी हासिल नहीं कर पाऊँगी। मैं पौलुस की तरह अंत में त्याग दी जाऊँगी! इस बारे में सोचने पर, मैं अनुसरण को लेकर अपनी गलत सोच को फौरन बदल देना चाहती थी।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “परमेश्वर ने मनुष्य को यह शरीर दिया है और एक निश्चित दायरे में इसकी आंतरिक क्षमताएँ स्वस्थ रहेंगी; लेकिन इन दायरों से परे जाने या निश्चित नियमों का उल्लंघन करने पर चीजें बिगड़ने लगती हैं—लोग बीमार पड़ जाते हैं। परमेश्वर ने मनुष्य के लिए जो नियम निर्धारित किए हैं उनका उल्लंघन मत करो। यदि तुम ऐसा करते हो, तो इसका मतलब है कि तुम परमेश्वर का सम्मान नहीं करते, तुम मूर्ख और अज्ञानी हो। यदि तुम इन नियमों का उल्लंघन करते हो—यदि तुम ‘भटक’ जाते हो—तो परमेश्वर तुम्हारी रक्षा नहीं करेगा, परमेश्वर तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं लेगा; परमेश्वर ऐसे व्यवहार से घृणा करता है। ... अपना कर्तव्य निभाते समय काम और आराम में संतुलन साधना ही सबसे अच्छा रहता है। कर्तव्य में व्यस्त रहने के दौरान तुम्हारे शरीर को थोड़ा-सा कष्ट सहना चाहिए, तुम्हें अपनी शारीरिक जरूरतों को परे रख देना चाहिए, लेकिन ऐसा बहुत लंबे समय तक नहीं होना चाहिए; यदि ऐसा होता है, तो तुम थक जाओगे और हो सकता है कि तुम उतने कारगर ढंग से अपना कर्तव्य न निभा सको। ऐसे समय तुम्हें तुरंत विश्राम करना चाहिए। विश्राम का उद्देश्य क्या होता है? इसका उद्देश्य होता है अपने शरीर का ख्याल रखना ताकि तुम अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से निभा सको। लेकिन अगर तुम शारीरिक रूप से थके हुए नहीं हो, और अपने कर्तव्य में व्यस्त रहो या न रहो, हमेशा आराम करने का मौका तलाशते रहते हो, तो तुममें भक्तिभाव नहीं है। भक्तिभाव होने और परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए काम को अच्छे से करने के साथ-साथ, तुम्हें अपने शरीर को बुरी तरह थकाना नहीं चाहिए। तुम्हें इस सिद्धांत को समझना होगा। जब तुम अपने कर्तव्य में बहुत व्यस्त न रहते, तो निर्धारित समय पर विश्राम करो। जब तुम सुबह उठते हो, तो सामान्य रूप से आध्यात्मिक भक्ति का अभ्यास करो, प्रार्थना करो, परमेश्वर के वचन पढ़ो और परमेश्वर के वचनों के सत्य पर एक साथ संगति करो या सामान्य रूप से भजन याद करो; जब व्यस्त हो जाओ, तो अपने कर्तव्य पालन पर ध्यान दो, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करो और इन वचनों को अपने वास्तविक जीवन में शामिल करो; इससे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य निभाना आसान हो जाएगा। सिर्फ इसी तरह तुम सचमुच परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर पाओगे। तुम्हें इस प्रकार के तालमेल करने चाहिए” (परमेश्वर की संगति)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे बहुत रोशनी मिली। परमेश्वर हमें सही ढंग से जीने और आराम करने, और इसी बुनियाद पर अपना कर्तव्य निभाने के अपने पहले से निर्धारित नियमों के अनुसार जीने देता है। जब हमारे काम में थोड़े कष्ट उठाने और कीमत चुकाने की जरूरत हो, तो हमें अपना देह-सुख त्याग कर, इसे पूरा करने का भरसक प्रयास करना चाहिए। जब हमारे काम में देर रात तक जागने की जरूरत न हो, तो सही समय पर सोना और काम करना चाहिए, एक अच्छी मानसिक स्थिति बनाए रखनी चाहिए। इस तरीके से, हम अपने कर्तव्य में प्रभावी हो सकते हैं। मैंने बाइबल के इस अंश पर विचार किया : “तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है” (मत्ती 22:37-38)। परमेश्वर उम्मीद करता है कि हम अपने कर्तव्य में, उसकी इच्छा का ध्यान रखेंगे, जिम्मेदारी का बोझ उठाएंगे, और पूरी लगन से अपना कर्तव्य निभाएंगे। इससे परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है। परमेश्वर ने हमें जो मार्ग दिखाया है उसके बारे में विचार कर, मैं समझ सकी मैं कितनी बड़ी बेवकूफ थी। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं, लेकिन मैंने इन पर कभी अमल नहीं किया। मैं हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर काम कर रही थी, बहुत-से बेमानी कष्ट झेल रही थी। मुझे एहसास हुआ कि मैं साफ तौर पर अच्छे कर्म करने पर ध्यान देती नहीं रह सकती, मुझे परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारनी चाहिए, लोग क्या सोचेंगे यह सोचे बिना परमेश्वर के सामने सब-कुछ करना चाहिए। मुझे निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभाना चाहिए—मुझे बस यही करना चाहिए।
इसके बाद, सभाओं में मैं विश्लेषण करने लगी कि मैं कैसे रास्ता भटक गई थी और मेरी गलत सोच क्या थी, ताकि भाई-बहनों को कुछ पहचान मिल सके। मैं सामान्य तौर पर परमेश्वर के वचनों पर अमल करने पर ध्यान देने लगी, और यह जानने में दिल लगाने लगी कि अपने काम की जिम्मेदारी कैसे उठाऊं और सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य कैसे निभाऊं। अब मैं दूसरों की सराहना पाने के लिए हमेशा साफ तौर पर कष्ट सहने पर ध्यान नहीं देती थी। समय के साथ, मैंने यह फिक्र करना छोड़ दिया कि दूसरे लोग मुझे किस नजर से देखते हैं, मैंने दूसरों के सामने दिखावा करने के बारे में सोचना भी छोड़ दिया। तब मुझे बड़ी राहत महसूस हुई। अनुभव करके मैं जान सकी हूँ कि सिर्फ परमेश्वर के वचन ही व्यवहार और कर्म करने की दिशा और मानक हैं, परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने से काफी राहत मिलती है और आजादी महसूस होती है। हमेशा बहाने बनाने की कोई जरूरत नहीं। इस तरह जीवन जीना ज्यादा थकाऊ और पीड़ादायक नहीं होता है। परमेश्वर का धन्यवाद!
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