ये तमाम कष्ट आखिर किसलिए?

03 अगस्त, 2022

क्षी एन, इटली

विश्वासी बनने के बाद, मैंने देखा कि अनेक अगुआ बहुत-सी तकलीफें सह सकते थे। बारिश हो या आंधी, वे काम करते रहते, अपना कर्तव्य निभाते रहते, और भाई-बहन उन्हें आदर से देखते। मैं उनकी सराहना करती, और आशा करती कि मैं भी कभी उनकी तरह बन सकती जो तकलीफें सहे, कीमत चुका सके, और दूसरों की सराहना पा सके। इसलिए, मैं अपने अनुसरण में बहुत जोश दिखाने लगी। बाद में मुझे एक कलीसिया अगुआ चुना गया। मैं हर दिन अपने कर्तव्य में बहुत व्यस्त रहने लगी, इतनी छोटी होकर भी तकलीफें झेलने पर दूसरे मेरी तारीफ करते, कहते मैं ऐसी इंसान हूँ जो सत्य का अनुसरण करती हूँ। हर बार ऐसी कोई बात सुनकर मेरा मन बल्लियों उछलता, मुझे लगता सारी मेहनत सार्थक हो गई। बाद में, मेरी जिम्मेदारियों का दायरा बढ़ गया, मेरे काम का बोझ भी बढ़ता गया। मैंने देखा जिन बहनों के साथ मैं काम करती थी, उनमें से कुछ सच में कष्ट झेल कर कीमत चुका पा रही थीं। वे हमेशा बड़ी देर से सोती थीं, कभी-कभी समय न होने पर वे सभाओं में खाली पेट चली जाती थीं। उनके मेजबान जिम्मेदारी उठाने और कष्ट सहने को लेकर उनकी तारीफ करते थे। मुझे लगता अगर भाई-बहन ऐसे लोगों को पसंद करते हैं, तो यकीनन परमेश्वर भी करता होगा, इसलिए मैं देर रात तक अपना कर्तव्य निभाने लगी। कुछ समय बाद, मेरा शरीर अब और बर्दाश्त नहीं कर पाया, आधी रात के बाद ही मुझे नींद आने लगती। लेकिन वहाँ दूसरी बहनों को काम करते देख, मुझे सोने जाने में शर्मिंदगी महसूस होती, डर लगता कहीं वे यह न कहें कि मेरा ध्यान अपने देह-सुख पर है, मैं अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी नहीं उठाती। तो मैं खुद को काम करते रहने को मजबूर करती, मगर मैं नींद के निरंतर झोंकों से नहीं बच पाती, और ज्यादा काम नहीं करवा पाती। इसके बावजूद, मैं सोने के लिए नहीं जाती। मैं मन-ही-मन खुद को समझाती कि अपने देह-सुख पर ध्यान देकर मैं दूसरों की नीची नजर का सामना नहीं कर सकती। कभी-कभी देर रात तक जगने के बाद मुझे सभा के लिए सुबह जल्दी उठना पड़ता था, और बाइक पर जाते समय नींद आती, सभा में ऊंघने लगती। मैं दोपहर के वक्त झपकी लेना चाहती थी, मगर डरती थी कि दूसरे कहेंगे मैं अपने शरीर से लाड़ कर रही हूँ। हर दिन, मैं खुद को किसी तरह देर रात तक जगे रहने को मजबूर करती। एक दिन, सभा के लिए बाइक पर जाते हुए, मुझे बहुत नींद आने लगी, मैं पूरे रास्ते नींद से बोझिल-सी रही और आखिर एक गड्ढे में जा गिरी, जिससे मैं डरकर तुरंत जाग गई। सड़क किनारे अपनी बाइक घसीटते हुए सोचने लगी, ऐसा मेरे साथ क्यों हुआ। आत्मचिंतन से मुझे एहसास हुआ कि अगुआ चुने जाने के बाद से ही, लोगों के यह कहने के डर से कि मेरा ध्यान देह-सुख पर है और मैं आराम की लालची हूँ, मैं सिर्फ तकलीफें सहने की अपनी क्षमता के जरिए सराहना पाने के बारे में ही सोचती थी। यानी मेरे जीवन में कोई दिनचर्या नहीं थी, मैं सही ढंग से आराम भी नहीं करती थी।

एक दिन, मैंने फरीसियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े और उनसे अपनी तुलना की। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "क्या तुम लोग जानते हो कि फरीसी वास्तव में कौन हैं? क्या तुम लोगों के आसपास कोई फरीसी है? इन लोगों को 'फरीसी' क्यों कहा जाता है? फरीसियों का वर्णन कैसे किया जाता है? वे ऐसे लोग होते हैं जो पाखंडी हैं, जो पूरी तरह से नकली हैं और अपने हर कार्य में नाटक करते हैं। वे क्या नाटक करते हैं? वे अच्छे, दयालु और सकारात्मक होने का ढोंग करते हैं। क्या वे वास्तव में ऐसे होते हैं? बिलकुल नहीं। चूँकि वे पाखंडी होते हैं, इसलिए उनमें जो कुछ भी व्यक्त और प्रकट होता है, वह झूठ होता है; वह सब ढोंग होता है—यह उनका असली चेहरा नहीं। उनका असली चेहरा कहाँ छिपा होता है? वह उनके दिल की गहराई में छिपा होता है, दूसरे उसे कभी नहीं देख सकते। बाहर सब नाटक होता है, सब नकली होता है, लेकिन वे केवल लोगों को मूर्ख बना सकते हैं; वे परमेश्वर को मूर्ख नहीं बना सकते। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, अगर वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव नहीं करते, तो वे वास्तव में सत्य नहीं समझ सकते, इसलिए उनके शब्द कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे शब्द सत्य की वास्तविकता नहीं होते, बल्कि सिद्धांत के शब्द होते हैं। कुछ लोग केवल सिद्धांत के शब्द रटने पर ही ध्यान देते हैं, जो भी उच्चतम उपदेश देता है वे उसकी नकल करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में उनका सिद्धांत का पाठ निरंतर उच्च होता जाता है, और वे बहुत-से लोगों द्वारा सराहे और पूजे जाते हैं, जिसके बाद वे खुद को छद्मावरण द्वारा छिपाने लगते हैं, अपनी कथनी-करनी पर बहुत ध्यान देते हैं, और स्वयं को खास तौर पर पवित्र और आध्यात्मिक दिखाते हैं। वे इन तथाकथित आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रयोग खुद को छ्द्मावरण द्वारा छिपाने के लिए करते है। वे जहाँ भी जाते हैं, बस इन्हीं चीजों के बारे में बात करते हैं, ऊपर से आकर्षक लगने वाली चीजें, जो लोगों की धारणाओं के अनुकूल होती हैं, लेकिन जिनमें सत्य की कोई वास्तविकता नहीं होती। और इन चीजों का प्रचार करके—जो लोगों की धारणाओं और रुचियों के अनुरूप होती हैं—वे बहुत लोगों को धोखा देते हैं। दूसरों को ऐसे लोग बहुत ही धर्मपरायण और विनम्र लगते हैं, लेकिन वास्तव में यह नकली होता है; वे सहिष्णु, धैर्यवान और प्रेमपूर्ण लगते हैं परंतु यह सब वास्तव में ढोंग होता है, वे कहते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं है, लेकिन वास्तव में यह एक नाटक होता है। दूसरे लोग ऐसे लोगों को पवित्र समझते हैं, लेकिन असल में यह झूठ होता है। सच्चा पवित्र व्यक्ति कहाँ मिल सकता है? मनुष्य की सारी पवित्रता नकली होती है, वह सब एक नाटक, एक ढोंग होता है। बाहर से, वे परमेश्वर के प्रति वफादार प्रतीत होते हैं, लेकिन वे वास्तव में केवल दूसरों को दिखाने के लिए कर रहे होते हैं। जब कोई नहीं देख रहा होता है, तो वे ज़रा से भी वफ़ादार नहीं होते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह लापरवाही से किया गया होता है। सतही तौर पर, वे खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं और उन्होंने अपने परिवारों और अपनी आजीविकाओं को छोड़ दिया है। लेकिन वे गुप्त रूप से क्या कर रहे हैं? वे परमेश्वर के लिए काम करने के नाम पर कलीसिया से मुनाफा कमाते हुए और गुप्त रूप से चढ़ावे चुराते हुए कलीसिया में अपना उद्यम संचालित कर रहे हैं और अपना कारोबार चला रहे हैं। ... ये लोग आधुनिक पाखंडी फरीसी हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जीवन संवृद्धि के छह संकेतक')। परमेश्वर के वचनों में हुआ खुलासा दिल में चुभने वाला था, मेरे लिए तकलीफदेह था। मैं ठीक फरीसियों जैसी ही पेश आ रही थी। वे अपने सतही व्यवहार से दिखावा करना पसंद करते थे, जान-बूझकर गली के नुक्कड़ों पर प्रार्थना और परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते थे, ताकि लोग समझें कि वे बड़े धर्मनिष्ठ हैं और परमेश्वर से प्रेम करते हैं। लेकिन अकेले में, वे परमेश्वर के वचनों पर बिल्कुल भी अमल नहीं करते थे। वे ये चीजें सिर्फ दिखावे और सराहना पाने के लिए करते थे, मैं भी वैसी ही थी। मैं सतही अच्छे व्यवहार पर खास तौर पर ध्यान देती थी, ताकि भाई-बहन मेरे बारे में अच्छा सोचें। कुछ दूसरे लोगों को अपने कर्तव्य में कष्ट सहने, कीमत चुकाने में समर्थ, और सबकी सराहना पाते देखकर मैं भी वैसी इंसान बनाने की कोशिश करती थी। जब मुझे अगुआ बनने के लिए चुना गया तो दूसरी बहनों को देर रात तक काम करते देख मैं देर रात तक जागने के लिए खुद को मजबूर करने लगी ताकि उनसे न पिछडूँ। चाहे जितनी भी नींद आए, मैं काम करती रहती। खुद को तकलीफ सहने लायक दिखाने के लिए मैं दोपहर की झपकी लेने की हिम्मत भी नहीं करती थी, मैं हर मोड़ पर खुद को छिपाती, अच्छा काम करने का दिखावा कर भाई-बहनों की सराहना पाने की कोशिश करती। इस तरह कष्ट सहना और खुद को खपाना, बिल्कुल नकली और छल-कपट था। मैं फरीसियों के रास्ते पर चल रही थी—इससे परमेश्वर को नफरत कैसे न होती? इसके बाद, मैंने अपने काम और आराम के समय में संतुलन लाने की कोशिश की, दिन का काम पूरा हो जाने पर मैं सामान्य ढंग से सोने चली जाती। ऐसा करके मुझे बहुत आराम महसूस हुआ।

एक साल बाद मैं विदेश गई। मैंने देखा मेरे साथ रहने वाली कुछ बहनें सच में अपने कर्तव्य में कष्ट झेलती थीं, हर रात देर तक काम करती थीं। कभी-कभी अपना काम पूरा हो जाने पर मैं जल्दी सोने जाना चाहती थी, लेकिन मुझे उनके यह सोचने का डर होता कि मेरा ध्यान आराम पर था। साथ ही, मैं एक अगुआ थी, तो अगर मैं दूसरों से पहले सोने चली गई, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? वे कह सकते हैं मैं कष्ट नहीं सह सकती, और अपने कर्तव्य का बोझ नहीं उठाती। ऐसा सोचकर, मैं फिर से नाटक किए बिना, और उनके साथ देर रात तक जागे बिना नहीं रह सकी। लेकिन रात 1 बजे के बाद, मुझे नींद आने लगती। वे मुझसे कहते मुझे जल्दी सो जाना चाहिए, लेकिन मैं खुद को जबरन जगाए रखती और कहती, "मैं ठीक हूँ। सब संभाल सकती हूँ। थोड़ी देर बाद सो जाऊंगी।" लेकिन फिर ऊंघे बिना नहीं रह पाती। कभी-कभी मैं अपनी नींद रोक नहीं पाती, तो सिर मेज पर रखकर थोड़ी देर झपकी ले लेती, मगर इससे मन अशांत हो जाता। मुझे फिक्र होती कि दूसरे मेरे बारे में क्या कहेंगे, तो मैं फिर से काम करने उठ जाती। यह दिखाने के लिए कि मैं जिम्मेदारी उठाती हूँ, मैं कभी-कभी देर रात जान-बूझकर कोई सामूहिक संदेश भेज देती, ताकि सब जान लें मैं कितनी देर तक जगी रही, कितनी रात तक कर्तव्य निभाती रही। सेहत की कुछ समस्याओं के कारण मैं कुछ पोषक गोलियाँ खरीदना चाहती थी, लेकिन सोचती थी कि दूसरे लोग क्या कहेंगे। क्या वे सोचेंगे मैं देह-सुख को बहुत संजोती हूँ। इसलिए, मैंने गोलियां नहीं खरीदीं। एक दिन सभा में, मुझे पता चला कि एक बहन की हालत ठीक नहीं थी, उसे थोड़ी संगति और सहारे की जरूरत थी। मगर वह एक अलग समय क्षेत्र वाले देश में रहती थी, और मेरे लिए तब आधी रात का समय था, तो शुरू में मैंने उसके साथ अगले दिन संगति करने की सोची। फिर मैंने सोचा, उसके साथ रात में संगति करने से लगेगा मैं भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश की जिम्मेदारी का बोझ उठाती हूँ। इसलिए मैंने उस बहन को फोन लगाया और करीब रात 2 बजे से पहले संगति खत्म नहीं की। उसने मुझसे कहा, "आपके लिए बहुत रात हो चुकी है, आपको सो जाना चाहिए। हमेशा देर रात तक जागना आपकी सेहत के लिए ठीक नहीं है।" उसकी यह बात सुनकर सचमुच मैं बहुत खुश हुई। यह शारीरिक रूप से असुविधाजनक था, मगर बेकार नहीं गया क्योंकि इससे उसने सोचा मुझे जिम्मेदारी का एहसास था और मैं कर्तव्य का बोझ उठाती थी। इसके बाद मुझे सेहत की ढेरों छोटी-छोटी समस्याएँ होने लगीं, एक डॉक्टर ने मुझे बताया कि ये लंबे समय से नींद की कमी के कारण थीं। मैंने इसकी अनदेखी की और वैसे ही काम करती रही। एक उच्च अगुआ मुझे हमेशा याद दिलाती थीं, कि मुझे ज्यादा देर तक नहीं जागना चाहिए, और अगर मैं जल्दी सोकर जल्दी उठूँ तो काम रुक नहीं जाएगा। मैंने मन-ही-मन सोचा कि अगर मैं जल्दी सो गई, तो दूसरे सोचेंगे कि एक अगुआ के रूप में मैं दूसरों के बराबर मुश्किलें नहीं झेल सकती हूँ, फिर क्या वे मुझे आदर से देखेंगे? मैंने अगुआ की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। जब एक बहन ने देखा मेरी तबीयत ठीक नहीं थी तो बोली, "आपके मन में बहुत-सी बातें चल रही हैं। सुलझाने के लिए इतनी समस्याएँ और इतना तनाव आपकी सेहत पर बुरा असर डाल रहा है। अगुआ के रूप में आपकी बहुत-सी चिंताएं होती हैं।" उसकी यह बात सुनकर मैं बहुत खुश हो गई। मुझे लगा दूसरों की स्वीकृति के लिए, मेरी चुकाई हुई कीमत, मेरा झेला हुआ कष्ट सार्थक है। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे उस गलत राह की थोड़ी समझ मिली जिस पर मैं चल रही थी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "मसीह-विरोधी कभी भी सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करते, वे कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते—जो कि एक मसीह-विरोधी की सबसे मुखर अभिव्यक्ति है। हैसियत और प्रतिष्ठा के अलावा, आशीष और पुरस्कार पाने के अलावा, वे केवल दैहिक-सुख और हैसियत से जुड़ी चीजों का सुख भोगने के पीछे भागते हैं; और ऐसी स्थिति में वे स्वाभाविक रूप से गड़बड़ी पैदा करते हैं। इन तथ्यों से पता चलता है कि वे जिन चीजों के पीछे भागते हैं, जैसा उनका व्यवहार है और जो कुछ उनमें उजागर होता है, वे सारी चीजें परमेश्वर को नापसंद हैं। और ये सब सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों का तौर-तरीका और व्यवहार तो बिल्कुल नहीं होता। उदाहरण के लिए, कुछ मसीह-विरोधी जो पौलुस की तरह होते हैं, वे कार्य करते समय, कष्ट उठाने का संकल्प लेते हैं, पूरी-पूरी रात जागते हैं, बिना खाए-पिए काम करते रहते हैं, अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को काबू में रख सकते हैं, बीमारी और परेशानी को वश में रख सकते हैं। यह सब करने का उनका उद्देश्य क्या होता है? इसके जरिए वे लोगों को यह दिखाना चाहते हैं कि जब परमेश्वर के आदेश की बात आती है तो वे खुद को दरकिनार कर आत्म-त्याग कर सकते हैं; उनके लिए कर्तव्य ही सबकुछ है। वे यह सब दिखावा लोगों के सामने करते हैं, वे इसका पूरा प्रदर्शन करते हैं, जब आराम करना चाहिए तब आराम नहीं करते, बल्कि जानबूझकर देर तक काम करते हैं, जल्दी उठते हैं और देर से सोने जाते हैं। लेकिन सुबह से शाम तक इस तरह खुद को थकाकर भी मसीह-विरोधियों की कार्यकुशलता और काम की प्रभावशीलता का क्या हाल होता है? ये बातें तो उनकी सोच के दायरे से ही बाहर होती हैं। उनका एक ही मकसद होता है कि वे यह सब लोगों के सामने करें, लोग उनका कष्ट देखें और यह देखें कि वे अपने बारे में सोचे बिना किस तरह खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं। वे यह तो सोचते ही नहीं कि वे जो कर्तव्य निभा रहे हैं और जो काम कर रहे हैं, वह सत्य के सिद्धांतों के अनुसार हो भी रहा है या नहीं, वे इसके बारे में थोड़ा भी नहीं सोचते। वे केवल यही सोचते हैं कि सभी लोग उनके अच्छे व्यवहार को देख रहे हैं या नहीं, सबको इसकी जानकारी हो रही है या नहीं, क्या उन्होंने सब पर अपनी छाप छोड़ दी है और क्या यह छाप उनमें प्रशंसा और स्वीकार्यता का भाव पैदा करेगी, क्या ये लोग जाने के बाद उन्हें शाबाशी देंगे और उनकी प्रशंसा करते हुए कहेंगे, 'ये लोग वास्तव में कष्ट सह सकते हैं, इनकी सहनशक्ति और असाधारण दृढ़ता की भावना हममें से किसी के बस की बात नहीं। ये लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, कष्ट सहकर भारी बोझ उठा सकते हैं, ये लोग परमेश्वर के घर के स्तंभ हैं।' यह सुनकर मसीह-विरोधी सन्तुष्ट हो जाते हैं। मन में सोचते हैं, 'मैं कितना चतुर हूँ जो ऐसा दिखावा किया, ऐसा करके मैंने कितनी चालाकी की! मुझे पता था कि लोग सिर्फ बाहर की चीजें देखते हैं, लोगों को यही पसंद है। मुझे पता था कि अगर मैं इस तरह से पेश आऊँगा, तो इससे लोगों की स्वीकृति मिलेगी, इससे मुझे शाबाशी मिलेगी, वे लोग तहेदिल से मेरी प्रशंसा करेंगे, मुझे प्रशंसा भरी नजरों से देखेंगे, और फिर कभी कोई मुझे हिकारत से नहीं देखेगा। और अगर कभी उच्च को पता चल भी गया कि मैं असली काम नहीं कर रहा और मुझे हटा दिया गया, तो निस्संदेह बहुत से लोग मेरे समर्थन में खड़े हो जाएँगे, जो मेरे लिए रोएँगे, मुझसे रुकने का आग्रह करेंगे और मेरे पक्ष में बोलेंगे।' वे गुप्त रूप से अपने नकली व्यवहार पर गर्व करते हैं—और क्या यह अभिमान भी एक मसीह-विरोधी के स्वभाव और सार को प्रकट नहीं करता? और यह क्या सार है? (दुष्टता।) सही है—यह दुष्टता का सार ही है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दस)')। परमेश्वर के वचन मसीह-विरोधी के सार को भयानक बुराई के रूप में उजागर करते हैं। वे दिखावा करने के लिए कैसी भी चाल चल सकते हैं, झूठा दिखावा कर सकते हैं, ताकि वे दूसरों को काबू में करने और सराहना पाने के अपने भयावह लक्ष्य को हासिल कर सकें। मिसाल के तौर पर, वे अपना कर्तव्य जान-बूझकर टालते रहते हैं, देर रात तक जागते हैं, सुबह जल्दी उठते हैं, ताकि ऐसा लगे कि वे परमेश्वर को समर्पित हैं। वे लगातार काम करते रहते हैं, खाना-सोना भूल जाते हैं, अपने कर्तव्य में शारीरिक जरूरतों की अनदेखी करते हैं, ताकि लोग उनकी सराहना करें, उनसे प्रेम करें। आखिर में वे लोगों को खुद के करीब लाते हैं। परमेश्वर ऐसे व्यवहार से घृणा करता है, उसकी निंदा करता है। परमेश्वर के वचनों के सामने खुद को खड़ी करके मेरा दिल दहल गया, मुझे बड़ी बेचैनी हुई। मैं एक मसीह-विरोधी जैसी ही पेश आ रही थी। मैं चाहती थी कि दूसरे देखें मैं कितनी मुश्किलें सह सकती थी। मैं खुद से लाड़ नहीं करती थी, अपने काम का बोझ उठाती थी, चाहती थी कि एक अच्छी अगुआ होने को लेकर वे मेरी सराहना करें, तो मैं काम, आराम और भोजन के समय में दिखावा करने की भरसक कोशिश करती। आराम के समय मैं आराम नहीं करती, मेरे काम के लिए जरूरी न होने पर भी मैं जान-बूझकर देर रात तक जागी रहती। सेहत की कुछ समस्याएँ आने पर भी मैं ऐसा ही करती रही। मुझे डर था कहीं लोग यह न कहें कि मैं देह-सुख की बहुत परवाह करती हूँ, इससे उनके मन में मेरी बुरी छाप पड़ेगी, तो मैंने अपनी सामान्य शारीरिक जरूरतों की परवाह नहीं की, या जरूरत की पोषक गोलियां तक नहीं खरीदीं। मैं अच्छी होने का दिखावा कर, कष्ट सहकर और कीमत चुकाकर खुद को चोरी-छिपे स्थापित कर रही थी, ताकि दूसरे सोचें कि मैं सत्य का अनुसरण करती हूँ, अपना कर्तव्य मेहनत और लगन से निभाती हूँ, और एक अच्छी अगुआ हूँ, फिर वे मेरा ज्यादा सम्मान करेंगे। मेरे सारे प्रयासों के पीछे नकलीपन और छल-कपट था। मैं दूसरों को एक झूठी छवि से गुमराह करके खुद को अच्छा दिखा रही थी। मैं एक मसीह-विरोधी की राह पर थी। मैं इस तरह काम नहीं करते रहना चाहती थी, तो मैंने प्रायश्चित कर बदलने को तैयार होकर, परमेश्वर से प्रार्थना की।

फिर मैंने आत्मचिंतन किया—मैं तकलीफें झेल सकने वाली दिखने पर इतना ध्यान क्यों दे रही थी? आत्मचिंतन से मुझे एहसास हुआ कि मैंने एक गलत नजरिया अपना रखा था। मैं हमेशा सोचती थी कि कष्ट सहने, कीमत चुकाने और अच्छे काम करती दिखने का अर्थ, सत्य पर अमल कर परमेश्वर को संतुष्ट करना है, और परमेश्वर इसे स्वीकृति देगा। लेकिन परमेश्वर के वचनों के विश्लेषण से मैंने देखा कि इस नजरिए का कोई आधार नहीं है। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "इंसान के दिखावटी काम क्या दर्शाते हैं? वे देह की इच्छाओं को दर्शाते हैं, यहाँ तक कि दिखावे के सर्वोत्तम अभ्यास भी जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करते, वे केवल तुम्हारी अपनी व्यक्तिगत मनोदशा को दर्शा सकते हैं। मनुष्य के बाहरी अभ्यास परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं कर सकते। ... यदि तुम्हारे काम सदैव दिखावे के लिए ही हैं, तो इसका अर्थ है कि तुम एकदम नाकारा हो। ऐसे लोग किस तरह के होते हैं जो दिखावे के लिए तो अच्छे काम करते हैं लेकिन वास्तविकता से रहित होते हैं? ऐसे लोग सिर्फ पाखंडी फरीसी और धार्मिक शख्सियत होते हैं। यदि तुम लोग अपने बाहरी अभ्यासों को नहीं छोड़ते और परिवर्तन नहीं कर सकते, तो तुम लोग और भी ज्यादा पाखंडी बन जाओगे। जितने ज्यादा पाखंडी बनोगे, उतना ही ज्यादा परमेश्वर का विरोध करोगे। और अंत में, इस तरह के लोग निश्चित रूप से हटा दिए जाएँगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इंसान को अपनी आस्था में, वास्तविकता पर ध्यान देना चाहिए—धार्मिक रीति-रिवाजों में लिप्त रहना आस्था नहीं है)। "आज कुछ लोग ऐसे हैं, जो अपना कर्तव्य निभाते हुए, सुबह से शाम तक काम करते हैं या पूरी रात जागते हैं और खाना तक नहीं खाते। वे शरीर को अपने वश में कर सकते हैं, शारीरिक कठिनाइयों की अनदेखी कर सकते हैं—यहाँ तक कि बीमार होने पर भी काम कर सकते हैं। हालाँकि जिनमें ये गुण होते हैं, वे अच्छे लोग होते हैं, सही लोग होते हैं, फिर भी कुछ चीजें हैं जो उनके मन में होती हैं जिन्हें वे दरकिनार नहीं कर पाते : हैसियत, प्रतिष्ठा और अभिमान। यदि वे इन बातों को दरकिनार न कर पाएँ, तो क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं? उत्तर स्वतः-स्पष्ट है। जब तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो तो स्वभाव में परिवर्तन लाने से अधिक कठिन कुछ नहीं होता। लोग जीवन भर अविवाहित रह सकते हैं, हो सकता है वे कभी अच्छा भोजन न करें या अच्छे कपड़े न पहनें, वे यह तक कह सकते हैं, 'कोई फर्क नहीं पड़ता अगर मुझे जीवन भर कष्ट उठाना पड़े या मुझे आजीवन अकेला रहना पड़े, तो मैं सह लूँगा—परमेश्वर साथ हो तो ये चीजें बेमतलब हैं।' उनके लिए दैहिक-पीड़ा और कठिनाइयों को वश में कर उनका समाधान करना आसान होता है। उनके लिए किस चीज पर काबू पाना आसान नहीं होता? अपने भ्रष्ट स्वभाव पर काबू पाने मात्र से भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं होता। अपना कर्तव्य ठीक से निभाने, परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने और राज्य में प्रवेश करने के लिए, लोग दैहिक-पीड़ा सह लेते हैं—लेकिन क्या कष्ट उठाने और कीमत चुका पाने का मतलब यह है कि उनके स्वभाव में बदलाव आ गया? नहीं। जब यह जानना हो कि क्या किसी के स्वभाव में कोई परिवर्तन आया है, तो यह मत देखो कि वह कितना कष्ट सह रहा है और बाहर से उसका व्यवहार कितना शिष्ट है; बल्कि यह देखो कि उसके क्रियाकलापों के पीछे का प्रारंभिक बिंदु, उद्देश्य और इरादे क्या हैं, उसके आचरण के पीछे क्या सिद्धांत हैं और सत्य के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या है। इन पहलुओं के अनुसार ही मापना सही होता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य का अभ्यास करके ही कोई सामान्य मानवता से युक्त हो सकता है')। परमेश्वर के वचन पूरी तरह स्पष्ट हैं। कोई कितना भी बढ़िया व्यवहार करता हुआ क्यों न दिखे, इसका मतलब यह नहीं होता कि वह सत्य पर अमल करता है, और इसका यह अर्थ तो कतई नहीं होता कि उसके स्वभाव में बदलाव आया है और उसे परमेश्वर की स्वीकृति मिली है। अनुग्रह के युग में, पौलुस मुश्किलें झेल सकता था। वह जेल गया और सुसमाचार फैलाने के अपने प्रयासों में उसने प्रभु से धोखा नहीं किया। उसका व्यवहार सच में प्रशंसनीय लगा था। लेकिन उसके सारे कष्ट और उसकी चुकाई हुई कीमतें सब परमेश्वर से सौदा करने के लिए थीं। वह अपने कष्टों का सौदा कर बदले में एक ताज और परमेश्वर के राज्य की आशीष पाना चाहता था। उसके नेक कर्मों का अर्थ यह नहीं था कि उसका स्वभाव बदल गया था, बल्कि वह और ज्यादा घमंडी हो गया था, हमेशा दिखावा करता और खुद की गवाही देता था। उसने यह भी गवाही दी थी कि वही जीवित मसीह है, अंत में परमेश्वर ने उसकी निंदा की, उसे दंडित किया। अपने बारे में सोचूँ, तो मैं सिर्फ अच्छा व्यवहार करती हुई दिखना चाहती थी, ताकि लोग मेरा आदर करें, लेकिन मैं परमेश्वर के वचनों पर अमल करने या अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने की कोशिश नहीं कर रही थी। नतीजतन, मैं और ज्यादा पाखंडी हो गई, और मैंने अपना जीवन स्वभाव जरा भी नहीं बदला। अगर मैंने इस तरह अनुसरण जारी रखा होता, तो मैं यकीनन सत्य को बिल्कुल हासिल नहीं कर पाई होती। मैं पौलुस की तरह अंत में त्याग दी गई होती! इस पर आत्मचिंतन करके मैं तुरंत अपने गलत अनुसरणों और नजरियों को फौरन बदल देना चाहती थी।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। "परमेश्वर ने मनुष्य को यह शरीर दिया है और एक निश्चित दायरे में इसकी आंतरिक क्षमताएं स्वस्थ रहेंगी; लेकिन इन दायरों से परे जाने या निश्चित नियमों का उल्लंघन करने पर चीजें बिगड़ने लगती हैं—लोग बीमार पड़ जाते हैं। परमेश्वर ने मनुष्य के लिए जो नियम निर्धारित किए हैं उनका उल्लंघन मत करो। यदि तुम ऐसा करते हो, तो इसका मतलब है कि तुम परमेश्वर का सम्मान नहीं करते, तुम मूर्ख और अज्ञानी हो। यदि तुम इन नियमों का उल्लंघन करते हो—यदि तुम 'भटक' जाते हो—तो परमेश्वर तुम्हारी रक्षा नहीं करेगा, परमेश्वर तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं लेगा; परमेश्वर ऐसे व्यवहार से घृणा करता है। ... अपना कर्तव्य निभाते समय, सामान्य नियमों का पालन करना ही सबसे अच्छा रहता है। काम में व्यस्त रहने के दौरान, तुम्हारे शरीर को थोड़ा कष्ट सहना चाहिए, तुम्हें अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को अलग रख देना चाहिए, लेकिन ऐसा बहुत लंबे समय तक नहीं होना चाहिए; यदि ऐसा होता है, तो तुम थक जाओगे और तुम्हारा कार्य अप्रभावी हो जाएगा। ऐसे में तुम्हें तुरंत विश्राम करना चाहिए। विश्राम का उद्देश्य क्या होता है? इसका उद्देश्य होता है अपने शरीर की देखभाल करना ताकि तुम अपना काम बेहतर ढंग से कर सको। लेकिन अगर तुम शारीरिक रूप से थके हुए नहीं हो, और तुम काम में व्यस्त रहो या न रहो, आराम करने का मौका तलाशते रहते हो, तो तुममें भक्ति भाव नहीं है। भक्तिभाव होने और परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए काम को अच्छे से करने के साथ-साथ, तुम्हें अपने शरीर को बुरी तरह थकाना नहीं चाहिए। तुम्हें इस सिद्धांत को समझना होगा। जब तुम काम में बहुत व्यस्त न हो, तो निर्धारित समय पर विश्राम करो। जब तुम सुबह उठते हो, तो सामान्य रूप से आध्यात्मिक भक्ति का अभ्यास करो, प्रार्थना करो, परमेश्वर के वचन पढ़ो और परमेश्वर के वचनों के सत्य पर एक साथ संगति करो या सामान्य रूप से भजन याद करो; जब व्यस्त हो जाओ, तो अपने काम पर ध्यान दो, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करो और परमेश्वर के वचनों को अपने वास्तविक जीवन में शामिल करो; इससे तुम्हारे लिए सत्य के सिद्धांतों के अनुसार काम करना आसान हो जाएगा। इस प्रकार तुम वास्तव में परमेश्वर के कार्य का अनुभव करोगे। तुम्हें इस प्रकार के समायोजन करने चाहिए" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे बहुत रोशनी मिली। परमेश्वर हमें सही ढंग से काम और आराम करने, और इसी बुनियाद पर कर्तव्य निभाने के अपने पहले से निर्धारित नियमों के दायरे में जीने देता है। जब हमारे काम में थोड़े कष्ट उठाने की जरूरत हो, तो हमें अपना देह-सुख त्याग कर, इसे पूरा करने का भरसक प्रयास करना चाहिए। जब हमें देर रात तक जागने की जरूरत न हो, तो सही समय पर सोना और काम करना चाहिए, एक सामान्य हालत बनाए रखनी चाहिए। तभी हम अपने कर्तव्य में प्रभावी हो सकते हैं। मैंने बाइबल के इस अंश पर विचार किया : "तू परमेश्‍वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है" (मत्ती 22:37-38)। परमेश्वर उम्मीद करता है कि हम अपने कर्तव्य में, उसकी इच्छा का ख्याल रखेंगे, जिम्मेदारी का बोझ उठाएंगे, और पूरी लगन से अपना कर्तव्य निभाएंगे। इससे ही परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है। यह सोचकर कि परमेश्वर ने हमें ये मार्ग दिए हैं, मैं समझ सकी मैं कितनी बेवकूफ थी। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं, लेकिन मैंने इन पर कभी अमल नहीं किया। मैं अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर पेश आ रही थी, बहुत-से बेमानी कष्ट झेल रही थी। फिर मुझे एहसास हुआ कि अच्छे बर्ताव करने पर ध्यान देते रहने के बजाय मुझे परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारनी चाहिए, लोग क्या सोचेंगे यह सोचे बिना परमेश्वर के सामने सब-कुछ करना चाहिए। मुझे अपने कर्तव्य में भरसक बढ़िया करना चाहिए—मुझे बस यही करना चाहिए था।

इसके बाद, सभाओं में मैं विश्लेषण करने लगी कि मैं कैसे रास्ता भटक गई थी, मेरी सोच की समस्याएँ क्या थीं, ताकि भाई-बहनों को कुछ पहचान मिल सके। आम तौर पर मैं परमेश्वर के वचनों पर अमल करने पर ध्यान देने लगी, और अब नाटक करना छोड़ दिया। समय के साथ, मैंने यह फिक्र करना छोड़ दिया कि दूसरे लोग मुझे किस नजर से देखते हैं, मैंने दिखावा करने के बारे में सोचना भी छोड़ दिया। तब मुझे बड़ी राहत महसूस हुई। अनुभव करके मैं जान सकी हूँ कि सिर्फ परमेश्वर के वचन ही जीवन में कर्म करने की दिशा और सिद्धांत हैं, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार चलने से बड़ी राहत मिलती है। हमेशा दिखावा करने और ऐसे थकाऊ और दर्दनाक तरीके से जीने की कोई जरूरत नहीं। परमेश्वर का धन्यवाद!

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