अपने तानाशाही तरीकों का त्याग
2020 में, मुझे नवागतों के सिंचन का काम सौंपा गया। पहले, मैं अकेले दो कलीसियाओं का प्रबंधन देख रही थी। फिर, किसी कारण से, अगुआ ने मुझे और बहन लिलियन को सिर्फ एक ही कलीसिया का प्रभार सौंपा। यह व्यवस्था देखकर मुझे थोड़ा बुरा लगा। “पहले मैं अकेले ही दो कलीसियाओं का प्रबंधन देखती थी, अब तो बस एक ही कलीसिया का प्रबंधन कर रही हूँ, फिर भी मुझे एक पार्टनर दे दिया। क्या यह वाकई जरूरी है? कोई भी उपलब्धि निश्चित रूप से हम दोनों की समझी जाएगी, और मैं सुर्खियों में नहीं रहूँगी, कोई मेरा सम्मान नहीं करेगा। अगर मैं इसे अकेले सँभालती, तो अकेले इतनी जिम्मेदारी उठाने के लिए भाई-बहन मुझे काबिल समझते। वे निश्चय ही मुझे उस काम के लायक समझते, उन्हें लगता कि मैं उस कर्तव्य का ऐसा आधार हूँ जिसके बिना काम नहीं चलेगा। यह कितना प्रशंसनीय होता। इसके अलावा, पार्टनर होगी तो मेरा निर्णय अंतिम नहीं हो सकता, तो क्या मेरी ताकत आधी नहीं हो जाएगी? मुझे हर बात पर अपनी पार्टनर की राय लेनी होगी, और मैं अयोग्य दिखूँगी।” यह सोचकर मैं वास्तव में इस व्यवस्था की प्रतिरोधी हो गई और मैंने सोचा, अगुआ ने कोई गलती तो नहीं कर दी, या वो मुझे कम तो नहीं समझती। मैं जानती थी कि अन्य सभी कलीसियाओं में दो प्रभारी थे, लेकिन मुझे लगा कि मैं विशेष रूप से सक्षम हूँ, तो मेरे साथ अलग ढंग से पेश आना चाहिए। मैं लिलियन को नजरअंदाज करने लगी, मैं जो करती, उसमें से बहुत कुछ उसे नहीं बताती।
एक बार, दो समूहों को मिलाकर एक बनाना था क्योंकि दोनों में ही कम सदस्य थे। मुझे लगा, इतनी आसान चीज मैं खुद ही कर सकती हूँ। मैं पहले भी वह सब अकेले सँभाल चुकी थी, इसलिए लिलियन के साथ चर्चा करने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने आगे बढ़कर उन्हें मिला दिया। जब लिलियन ने पूछा तो मैंने विश्वास के साथ कहा कि मैंने काम कर दिया है। एक और बार, अगुआ ने हमसे उन नवगतों का पता लगाने को कहा जो सुसमाचार साझा करने के लिए सही रहेंगे, तो मैंने खुद ही अच्छे उम्मीदवारों का एक समूह बना दिया। जब वे उस सुसमाचार साझा करने के सिद्धांत सीख रहे थे, तो मैंने देखा कि उनमें से एक अपने काम में व्यस्त रहती है। तो मैंने इसके बारे में बिना किसी और के साथ चर्चा किए उसे समूह से बाहर कर दिया और उसे सुसमाचार साझा करने में भाग नहीं लेने दिया। जब सुसमाचार-कार्य के प्रभारी भाई को इसका पता चला, तो उन्होंने यह कहते हुए मेरी काट-छाँट की कि मैं तानाशाह और स्वेच्छाचारी हूँ, अपने पार्टनर को शामिल किए बिना निर्णय लेती हूँ। उस समय मैंने सिर्फ इतना कहा कि आप सही हैं, लेकिन मुझे दिल से विश्वास था कि मेरी भ्रष्टता इतनी गंभीर नहीं है।
इस तरह की चीजें कई बार होने पर एक दिन लिलियन ने मुझे खोजा और कहा, “हम पार्टनर हैं। भले ही आप अपने दम पर काम कर सकती हों, फिर भी आपको मुझे बताना चाहिए, ताकि मुझे भी पता रहे कि हमारा काम कैसा चल रहा है। जब भी रीस के साथ कोई बात होती है, वो हमेशा अपने पार्टनर के साथ चर्चा करने का प्रयास करती हैं। वे मिलकर हर चीज पर बात करते हैं।” मैंने सोचा, “अगर मैं आपको बताऊँगी तो आप मेरी सलाह मान ही लेंगी, क्या यह औपचारिकता करने की वाकई कोई जरूरत है? रीस हमेशा इसलिए पूछती हैं, क्योंकि उन्हें नहीं पता कि कोई चीज कैसे करनी है। जब मैं ठीक से प्रबंधन कर सकती हूँ, तो क्यों पूछूँ? पार्टनर का होना बड़ी परेशानी है, हर चीज पर आपसे बात करूँ। ऐसा लगेगा, जैसे मैं अफसर को रिपोर्ट करने वाली मातहत हूँ, इससे मैं अयोग्य दिखूँगी।” बाद में, उन्होंने मुझे इस बारे में और भी कई बार कहा, पर मैं पहले की तरह काम करती रही। कभी-कभी वे मुझसे कर्तव्य को लेकर कुछ खास बातें पूछतीं, पर मैं अनदेखा कर देती, सोचती कि वो उन चीजों के बारे में पूछ रही हैं जिन पर हमने अभी-अभी चर्चा की है। काम की चर्चा के दौरान, मैं लिलियन को बार-बार ठंडी सांसें लेते देखती, और सोचती कि क्या वे मेरे कारण बेबस महसूस करती हैं। मुझे थोड़ा पछतावा होता था। पर फिर मुझे लगता कि मैंने उनके साथ कुछ नहीं किया, इसलिए मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं कलीसिया का प्रबंधन अकेले कर सकती हूँ। उस समय मैं नहीं समझ पाई कि उन्होंने मुझसे यह क्यों पूछा, मुझे लगा शायद उनका तबादला होने वाला है। अगर ऐसा हुआ तो बहुत अच्छा होगा, मुझे उन्हें रिपोर्ट नहीं करनी होगी, और मैं प्रभारी बन सकूँगी। तो मैंने जवाब में कह दिया कि मैं कर सकती हूँ। यह सुनकर लिलियन कुछ भी नहीं बोलीं। बाद में पता चला कि वे सच में मेरे कारण बेबस महसूस करती थीं, मानो वे कुछ न कर सकती हों, और वे इस्तीफा देना चाहती थीं। उस समय, मैंने बस इतना माना कि मेरा रवैया उनके प्रति अच्छा नहीं था, लेकिन मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया।
अगुआ ने लिलियन को दूसरे प्रोजेक्ट पर ध्यान लगाने को कहा, इसलिए कलीसिया के अधिकतर कामों के लिए मैं जिम्मेदार थी। मैं अंदर-ही-अंदर खुश थी, सोचने लगी कि आखिरकार अब मैं अपने हुनर दिखाकर अपना हुक्म चला सकती हूँ। लेकिन जैसा मैंने सोचा था वैसा नहीं हुआ। मेरा काम स्पष्ट रूप से बहुत कठिन हो गया, और जब भाई-बहनों को अपने कर्तव्यों में कोई समस्या आती, तो मैं सार न समझ पाने की वजह से उसे जड़ से हल न कर पाती। कुछ समय बाद, अधिकाधिक नवागतों ने नियमित रूप से सभा में आना बंद कर दिया, अगुआ ने मुझसे कहा कि मेरा काम का प्रदर्शन सबसे खराब है। लिलियन ने भी कई बार मेरी समस्याओं को बताते हुए कहा कि मैं अकेली काम करती हूँ, दूसरों से सलाह नहीं लेती, चीजों में सत्य की खोज नहीं करती। मैं उस समय बहुत जिद्दी थी, और मैंने इसे अनसुना करके आत्म-चिंतन नहीं किया। मेरी हालत बद से बदतर होती गई, मैं हमेशा उलझन में रहने लगी। एक दिन अगुआ ने कहा कि वे मेरे साथ बात करना चाहती हैं, उन्होंने दूसरी बहन के साथ एक बैठक की व्यवस्था की। मैंने सुना था कि उस बहन का व्यवहार खराब है, मुझे लगा इसका मतलब यह है कि अगुआ मैं उसके जैसी लगती हूँ। यह सोचकर मैं थोड़ी डर गई थी। क्या मेरी समस्या वाकई इतनी गंभीर है? क्या मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा? जब मैं दो कलीसियाओं का प्रबंधन कर रही थी, तब सब ठीक चल रहा था, पर अब सिर्फ एक कलीसिया में, जाना-पहचाना काम करते हुए, जो मैंने पहले किया था, मेरा काम अच्छा क्यों नहीं था? मेरे अंदर जरूर कोई समस्या है। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, और उससे मार्गदर्शन करने की विनती की कि मैं अपनी समस्या पर चिंतन कर उसे समझ पाऊँ।
फिर एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “जब दो लोग किसी काम के लिए जिम्मेदार होते हैं, और उनमें से एक में मसीह-विरोधी सार होता है, तो उस व्यक्ति में क्या प्रदर्शित होता है? चाहे कोई भी काम हो, वह और सिर्फ वह है जो उसकी शुरुआत करता है, जो सवाल पूछता है, जो चीजें सुलझाता है, और जो समाधान सुझाता है। और ज्यादातर समय वह अपने साथी को पूरी तरह से अँधेरे में रखता है। उसकी नजर में उसका साथी क्या होता है? उसका सहायक नहीं, बल्कि सिर्फ सजावट का सामान। मसीह-विरोधी की नजर में साथी, साथी होते ही नहीं। जब भी कोई समस्या आती है, तो मसीह-विरोधी उस पर विचार करता है, और जब वह तय कर लेता कि कार्य कैसे करना है, तो बाकी सभी को सूचित कर देता है कि उसे कैसे करना है, और किसी को उस पर सवाल नहीं उठाने दिया जाता। दूसरों के साथ उनके सहयोग का सार क्या होता है? मूल रूप से यह अपनी बात मनवाना, समस्याओं पर किसी और के साथ चर्चा न करना, काम की अकेले जिम्मेदारी लेना और अपने सहयोगियों को सजावटी सामान में बदलना है। वे हमेशा अकेले ही काम करते हैं और कभी किसी के साथ सहयोग नहीं करते। वे अपने काम के बारे में कभी किसी और के साथ चर्चा या संवाद नहीं करते, वे अक्सर अकेले निर्णय लेते हैं और अकेले ही मुद्दों से निपटते हैं, और कई चीजों में, दुसरे लोगों को काम पूरा होने के बाद ही पता चलता है कि चीजें कैसे पूरी हुईं या सँभाली गईं। दूसरे लोग उनसे कहते हैं, ‘सभी समस्याओं पर हमारे साथ चर्चा होनी चाहिए। तुम उस व्यक्ति के साथ कब निपटे? तुमने उसे कैसे सँभाला? हमें इसके बारे में कैसे पता नहीं चला?’ वे न तो कोई स्पष्टीकरण देते हैं और न ही इस पर कोई ध्यान देते हैं; उनके लिए उनके साथियों का कोई उपयोग नहीं है, और वे सिर्फ सजावट की वस्तुएँ हैं। जब कुछ घटित होता है, तो वे उस पर विचार करते हैं, अपना मन बनाते हैं, और जैसा उचित समझते हैं वैसा करते हैं। उनके आसपास चाहे जितने भी लोग हों, ऐसा लगता है मानो वे लोग वहाँ हों ही नहीं। मसीह-विरोधी के लिए वे लोग हवा की तरह अदृश्य होते हैं। इसे देखते हुए, क्या दूसरों के साथ उसकी साझेदारी का कोई असली पहलू भी है? बिल्कुल नहीं, वह बस बेमन से काम करता है और एक भूमिका निभाता है। दूसरे उससे कहते हैं, ‘जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आती है, तो तुम बाकी सबके साथ सहभागिता क्यों नहीं करते?’ वह उत्तर देता है, ‘वे क्या जानते हैं? मैं टीम-अगुआ हूँ, निर्णय मुझे लेना है।’ दूसरे कहते हैं, ‘और तुमने अपने साथी के साथ संगति क्यों नहीं की?’ वह जवाब देता है, ‘मैंने उनसे कहा था, उनकी कोई राय नहीं थी।’ वह दूसरे लोगों की कोई राय न होने या उनके खुद सोचने में सक्षम न होने का उपयोग इस तथ्य को ढकने के बहाने के रूप में करता है कि वह खुद को ऐसे दिखा रहा है मानो वह अपने आप में एक कानून हो। और इसके बाद थोड़ा-सा भी आत्मनिरीक्षण नहीं किया जाता। ऐसे व्यक्ति के लिए सत्य स्वीकारना असंभव होगा। मसीह-विरोधी की प्रकृति के साथ यह एक समस्या है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन मेरी दशा बिल्कुल सटीक ढंग से बयां करते थे। ऐसा लगा जैसे परमेश्वर हर वचन से मुझे उजागर कर रहा था। अंततः मैंने देखा कि हर चीज में हमेशा अपनी चलाने की चाहत रखना, लिलियन से ऐसे पेश आना जैसे उसका कोई वजूद ही न हो, इस बहाने से उसकी सलाह न लेना कि मैं अकेले ही काम कर सकती हूँ, तानाशाह होना और मसीह-विरोधी का मार्ग अपनाना था। बीती बातों को याद करके लगा कि मैं अपना कर्तव्य हमेशा इसी तरह करती आई थी। जब दो समूहों को मिलाने का समय आया, तो मैंने लिलियन से चर्चा किए बिना ही काम कर लिया, यहाँ तक कि उन्हें बताया भी नहीं। जब मैंने देखा कि एक नवागत अपने काम में व्यस्त है, तो मैंने उसके प्रति कार्रवाई के सर्वोत्तम तरीके पर चर्चा नहीं की, बल्कि उसे समूह से बाहर कर दिया और उसका कर्तव्य छीन लिया। जब लिलियन ने कुछ प्रोजेक्टों की प्रगति और नए विश्वासियों के बारे में पूछा, तो धैर्य से जवाब देने के बजाय मैं नाराज होकर प्रतिरोधी बन गई, मुझे लगा यह अधिकारी को रिपोर्ट करने जैसा है, मानो मैं उससे नीचे के पद पर हूँ, इसलिए मैं उसकी उपेक्षा करती रही। मैंने हमेशा अपनी बात मनवानी चाही, अधिकार रखना चाहा। मैं अपने कर्तव्य में निरंकुश और स्वेच्छाचारी थी, किसी के साथ काम नहीं करना चाहती थी, मैंने लिलियन बेबस कर दिया। यह अपना कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? यह कलीसिया के कार्य को बाधित करना और शैतान के गुलाम जैसा बर्ताव करना था!
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “हालाँकि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथी होते हैं, और कर्तव्य निभाने वाले प्रत्येक व्यक्ति का एक साथी होता है, मसीह-विरोधी मानते हैं कि उनमें अच्छी क्षमता है और वे आम लोगों से बेहतर हैं, इसलिए आम लोग उनके साथी बनने लायक नहीं हैं, वे उनसे कमतर हैं। इसीलिए मसीह-विरोधी अधिकार अपने हाथों में रखते हैं, किसी और से चर्चा करना पसंद नहीं करते। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से वे मूर्ख और नाकाबिल नजर आएँगे। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? यह कैसा स्वभाव है? क्या यह अहंकारी स्वभाव है? उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ सहयोग और चर्चा करना, उनसे सवाल पूछना और जवाब माँगना, उनकी गरिमा को कम करता है, अपमानजनक है, उनके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाता है। तो अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें पारदर्शिता नहीं आने देते, न ही वे इस बारे में किसी को बताते हैं, उनसे उस पर चर्चा करना तो दूर की बात है। उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ चर्चा करना खुद को अक्षम दिखाना है; हमेशा लोगों की राय माँगने का मतलब है कि वे मूर्ख हैं और अपने आप सोचने में असमर्थ हैं; उन्हें लगता है कि किसी कार्य को पूरा करने में या किसी समस्या को सुलझाने में दूसरों के साथ काम करने से वे नाकारा दिखने लगेंगे। क्या यह उनकी अहंकारी और बेतुकी मानसिकता नहीं है? क्या यह उनका भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? उनके भीतर का अहंकार और आत्माभिमान बहुत स्पष्ट होता है; वे सामान्य मानवीय विवेक पूरी तरह गँवा चुके होते हैं और उनका दिमाग भी ठिकाने पर नहीं होता। वे हमेशा सोचते हैं कि उनके पास काबिलियत है, वे स्वयं चीजों को समाप्त कर सकते हैं, और उन्हें दूसरों के साथ समन्वय करने की कोई आवश्यकता नहीं है। चूंकि उनके स्वभाव इतने भ्रष्ट हैं, इसलिए वे सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर पाने में असमर्थ होते हैं। वे मानते हैं कि दूसरों के साथ काम करना अपनी ताकत को कम और खंडित करना है, जब काम दूसरों के साथ साझा किया जाता है, तो उनकी अपनी शक्ति घट जाती है और वे सब कुछ स्वयं तय नहीं कर सकते यानी उनकी असली ताकत भी कम हो जाती है, जो उनके लिए एक जबरदस्त नुकसान होता है। और इसलिए, चाहे वे उनके साथ कुछ भी हो, अगर उन्हें भरोसा है कि उन्हें पता है और वे जानते हैं कि इससे कैसे निपटें, तो वे किसी और के साथ इस पर चर्चा नहीं करते, वे उस पर नियंत्रण करना चाहेंगे। वे दूसरों को जानने देने के बजाय गलतियाँ करना पसंद करेंगे, किसी और के साथ सत्ता साझा करने के बजाय वे गलत साबित होना पसंद करेंगे, अपने काम में दूसरों का हस्तक्षेप बर्दाश्त करने के बजाय, वे बर्खास्त होना पसंद करेंगे। ऐसा होता है मसीह-विरोधी। वे किसी और के साथ अपनी सत्ता साझा नहीं करते, फिर भले ही परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचे, भले ही परमेश्वर के घर के हित दांव पर लग जाएँ। उन्हें लगता है कि जब वे कोई काम कर रहे होते हैं या किसी मामले को संभाल रहे होते हैं, तो यह किसी कर्तव्य का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि खुद को प्रदर्शित करने और दूसरों से अलग दिखने का मौका होता है, और शक्ति का प्रयोग करने का मौका होता है। इसलिए, हालाँकि वे कहते हैं कि वे दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग करेंगे और जब कोई मामला आएगा तो वे दूसरों के साथ मिलकर उस पर चर्चा करेंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि, अपने दिल की गहराई में, वे अपनी शक्ति या हैसियत छोड़ने को तैयार नहीं होते। उन्हें लगता है कि अगर उन्हें सिद्धांतों की समझ है और वे स्वयं उस काम को करने में सक्षम हैं, तो उन्हें किसी और के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता नहीं है; वे सोचते हैं कि उन्हें उस काम को अकेले ही पूरा करना चाहिए, तभी वे काबिल कहलाएँगे। क्या यह नजरिया सही है? उन्हें पता नहीं होता कि अगर वे सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, तो वे अपने कर्तव्य नहीं कर रहे, वे परमेश्वर के आदेश का कार्यांवयन नहीं कर पाते और मात्र सेवा कर रहे होते हैं। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए सत्य सिद्धांतों की खोज करने के बजाय, वे अपने विचारों और इरादों के अनुसार सत्ता का उपयोग करते हैं, दिखावा और आडंबर करते हैं। उनका साथी कोई भी हो या वे कुछ भी कर रहे हों, वे कभी चीजों पर चर्चा नहीं करना चाहते, हमेशा मनमर्जी करना और अपनी बात ही मनवाना चाहते हैं। जाहिर है वे सत्ता से खेल रहे होते हैं और हर काम को करने के लिए सत्ता का उपयोग करते हैं। सभी मसीह-विरोधी सत्ता से प्यार करते हैं और जब उनके पास रुतबा होता है, तो वे और भी अधिक सत्ता चाहते हैं। जब मसीह-विरोधियों के पास सत्ता होती है, तब उनके अपनी हैसियत का उपयोग अपना दिखावा करने और आडंबर करने, दूसरों से अपना आदर करवाने और भीड़ से अलग दिखने का अपना लक्ष्य हासिल करने की संभावना होती है। इस तरह, मसीह-विरोधी सत्ता और हैसियत से चिपके रहते हैं, और उन्हें कभी नहीं छोड़ते” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। जब मैंने इसे पढ़ा, तो मैंने सोचा कि मेरे इतने दबंग होने और दूसरों के साथ काम करना न चाहने का कारण मेरी यह चिंता थी कि अगर कलीसिया के काम में ज्यादा लोग शामिल होंगे, तो मेरी ताकत तितर-बितर हो जाएगी, मैं अकेली प्रभारी नहीं रह पाऊँगी, हुक्म नहीं चला पाऊँगी, न ही दूसरों की प्रशंसा पाऊँगी। मैं पहले भी कलीसिया के काम की जिम्मेदारी संभाल चुकी थी, और मुझे लगा मैं अनुभवी हूँ, इसे अच्छे से समझती हूँ, और सक्षम हूँ। मैंने इसका फायदा उठाया और अहंकारी हो गई, मुझे लगा मैं खास हूँ और दूसरों से श्रेष्ठ हूँ। लिलियन चाहती थीं कि मैं कुछ भी करने से पहले उनसे चीजों पर चर्चा करूँ, लेकिन मुझे लगा ऐसा करने से मैं अक्षम दिखूँगी, इसलिए मैं चीजों को खुद ही कर देती थी। कभी-कभी मैं सोचती कि क्या मुझे उनकी सलाह लेनी चाहिए, लेकिन दिखावा करने और दूसरों की प्रशंसा हासिल करने के लिए मैंने एक दलील दी, मैंने सोचा कि उनकी अपनी कोई राय नहीं होगी, अगर उनसे चर्चा की भी थी तो वो मुझसे सहमत ही होंगी। मैंने लिलियन के साथ काम न करने के लिए ऐसे बहाने बनाए। कलीसिया ने व्यवस्था की थी कि हम दोनों मिलकर कलीसिया का काम करें। उन्हें हर प्रोजेक्ट में हिस्सा लेने, उसका विवरण और उसकी प्रगति जानने का हक था, लेकिन मैंने अकेले काम करने के लिए उन्हें किनारे कर दिया, बोलने और चीजों को जानने का अधिकार छीन लिया, उन्हें बस एक पुतला बना दिया। मैंने सारा काम अपने हाथ में रखा, उन्हें भाग नहीं लेने दिया। क्या मैंने जो किया उसका सार वही नहीं था जैसा साम्राज्य स्थापित करने वाले मसीह-विरोधी का होता है? मैंने बड़े लाल अजगर की तानाशाही और उसके चरम नियंत्रण के बारे में सोचा, जिसकी बात लोगों को बिना सवाल किए सुननी होती है। जहां तक मेरी बात थी, मैं चाहती थी हर काम का नियंत्रण मेरे हाथ में हो, मैं दबंग थी, दूसरों के साथ चर्चा नहीं करना चाहती थी। मैं कलीसिया में तानाशाह की तरह थी और उस पर अंतिम नियंत्रण रखती थी। मैं बड़े लाल अजगर से कैसे अलग थी? जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही मुझे समझ आया कि दूसरों के साथ सहयोग करने से इनकार करने की समस्या कितनी गंभीर है, और मैं थोड़ी डर गई। कलीसिया में सत्ता मसीह और सत्य के पास है। चाहे कुछ भी हो जाए, हमें सत्य की तलाश कर सिद्धांत के अनुसार काम करना चाहिए। लेकिन मैं चाहती थी कि जिस कलीसिया का मैं प्रबंधन करूँ, उसमें मेरा निर्णय अंतिम हो। क्या मैं पहाड़ी का राजा नहीं बनना चाहती थी? सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए और कलीसिया के हितों की रक्षा कैसे की जाए, यह सोचने के बजाय मैं सोच रही थी कि मेरी अपनी इच्छाएँ पूरी होंगी या नहीं। अंत में मेरे कारण कलीसिया का कार्य पूरी तरह से बिगड़ गया, मैं तो बस बाधा डाल रही थी और रास्ता रोके खड़ी थी। यह परमेश्वर का अनुग्रह था कि मैं वह कार्य कर सकती थी। परमेश्वर की इच्छा थी कि मैं सत्य का अनुसरण करूँ, भाई-बहनों के साथ अच्छी तरह काम करूँ, नए विश्वासियों का उचित ढंग से सिंचन करूँ, ताकि वे जल्दी से सच्चे मार्ग पर पैर जमा सकें। लेकिन मैंने इसे दिखावा करने, अपनी शक्ति का प्रयोग करने और दूसरों से सम्मान पाने का अवसर समझा। मैं हमेशा घमंडी रही, अपने कौशलों का दिखावा करती रही। इससे न केवल कलीसिया के काम में रुकावट आई, बल्कि भाई-बहनों को भी चोट पहुँची और मेरे जीवन को भी नुकसान हुआ।
परमेश्वर के वचनों का एक वीडियो-पाठ देखकर मेरे गलत विचार बदल गए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “सामंजस्यपूर्ण सहयोग में कई चीजें शामिल होती हैं। कम से कम, इन कई चीजों में से एक है दूसरों को बोलने देना और विभिन्न सुझाव देने देना। अगर तुम वास्तव में विवेकशील हो, तो चाहे तुम जिस भी तरह का काम करते हो, तुम्हें पहले सत्य सिद्धांतों की खोज करना सीखना चाहिए, और तुम्हें दूसरों की राय लेने की पहल भी करनी चाहिए। अगर तुम हर सुझाव गंभीरता से लेते हो, और फिर समस्याएँ हल करने के लिए मिलकर काम करते हो, तो तुम अनिवार्य रूप से सामंजस्यपूर्ण सहयोग प्राप्त करोगे। इस तरह, तुम्हें अपने कर्तव्य में बहुत कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। चाहे जो भी समस्याएँ आएँ, उन्हें हल करना और उनसे निपटना आसान होगा। सामंजस्यपूर्ण सहयोग का यह परिणाम होता है। कभी-कभी छोटी-छोटी बातों पर विवाद हो जाते हैं, लेकिन अगर काम पर उनका असर नहीं पड़ता, तो कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन, महत्वपूर्ण मामलों और कलीसिया के काम से जुड़े प्रमुख मामलों में तुम्हें आम सहमति पर पहुँचना चाहिए और उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। एक अगुआ या एक कार्यकर्ता के तौर पर, अगर तुम हर समय अपने तुम्हें दूसरों से ऊपर समझोगे और अपने कर्तव्य में एक सरकारी अधिकारी की तरह पेश आओगे, अपने पद के नशे में रहोगे, हमेशा योजनाएँ बनाते रहोगे, अपनी प्रसिद्धि और रुतबे के चिंतन और आनंद में डूबे रहोगे, हमेशा अपना ही कार्य करते रहोगे, और हमेशा ऊँचा रुतबा पाने की इच्छा रखोगे, अधिकाधिक लोगों का प्रबंधन और उन पर नियंत्रण करना चाहोगे और अपनी सत्ता का दायरा बढ़ाने की इच्छा रखोगे, यह मुसीबत वाली बात है। एक महत्वपूर्ण कर्तव्य को, एक सरकारी अधिकारी की तरह अपने पद का आनंद लेने का मौका मानना खतरनाक है। यदि तुम हमेशा इस तरह का व्यवहार करते हो, दूसरों के साथ काम करने की इच्छा नहीं रखते, अपनी सत्ता को कम नहीं करना चाहते और इसे किसी और के साथ साझा नहीं करना चाहते, और यह नहीं चाहते कि किसी और की चले, चाहते हो कि सबका ध्यान तुम पर रहे, यदि तुम अकेले सत्ता का आनंद लेना चाहते हो, तो तुम एक मसीह-विरोधी हो। लेकिन अगर तुम अक्सर सत्य की तलाश करते हो, देह को दरकिनार करते हो, अपनी प्रेरणाओं और योजनाओं को त्याग देते हो, और स्वेच्छा से दूसरों के साथ काम करने में सक्षम हो, दूसरों के साथ परामर्श करने और तलाश करने के लिए अपना दिल खोलते हो, दूसरों के विचारों और सुझावों को ध्यान से सुनते हो और चाहे सलाह किसी ने भी दी हो, अगर वह सही है और सत्य के अनुरूप है, तो उसे स्वीकार करते हो, तो तुम बुद्धिमानी से और सही तरीके से अभ्यास कर रहे हो और तुम गलत मार्ग अपनाने से बच जाते हो, जो कि तुम्हारे लिए सुरक्षा है। तुम्हें अगुआई की उपाधियाँ छोड़नी होंगी, हैसियत की गंदी अकड़ छोड़नी होगी, खुद को एक साधारण व्यक्ति समझना होगा, दूसरों के समान स्तर पर खड़े होना होगा, और अपने कर्तव्य के प्रति एक जिम्मेदार रवैया रखना होगा। अगर तुम हमेशा अपने कर्तव्य को एक आधिकारिक पदवी और हैसियत, या एक तरह की प्रतिष्ठा समझते हो, और कल्पना करते हो कि दूसरे लोग तुम्हारे पद की सेवा के लिए हैं, तो यह तकलीफदेह है, और परमेश्वर इसके लिए तुमसे घृणा करेगा और तुमसे नाराज होगा। अगर तुम मानते हो कि तुम दूसरों के बराबर हो, तो तुम्हारे पास परमेश्वर की ओर से थोड़ा ज्यादा आदेश और जिम्मेदारी है, अगर तुम खुद को उनके साथ समान स्तर पर रखना सीख सको, यहाँ तक कि झुककर पूछ सको कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं, और अगर तुम ईमानदारी, बारीकी और ध्यान से उनकी बात सुन सको, तो तुम दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्वक काम करोगे। इस सामंजस्यपूर्ण सहयोग का क्या परिणाम होगा? परिणाम बहुत बड़ा है। तुम वे चीजें प्राप्त करोगे जो तुम्हारे पास पहले कभी नहीं थीं, जो सत्य की रोशनी और जीवन की वास्तविकताएँ हैं; तुम्हें दूसरों के गुण पता लगेंगे और तुम उनकी खूबियों से सीखोगे। कुछ और भी है : तुम दूसरे लोगों को मूर्ख, मंदबुद्धि, नासमझ, अपने से कमतर समझते हो, लेकिन जब तुम उनकी राय सुनोगे, या दूसरे लोग तुमसे खुलकर बात करेंगे, तो अनजाने ही तुम्हें पता चलेगा कि कोई भी उतना साधारण नहीं है जितना तुम समझते हो, कि हर व्यक्ति भिन्न विचार और मत पेश कर सकता है, और सबकी अपनी खूबियाँ होती हैं। अगर तुम सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करना सीखते हो, तो दूसरों की खूबियों से सीखने में मदद करने के अलावा, यह तुम्हारे अहंकार और आत्म-तुष्टि को प्रकट कर सकता है, और तुम्हें यह कल्पना करने से रोक सकता है कि तुम चतुर हो। जब तुम खुद को बाकी सबसे ज्यादा होशियार और बेहतर नहीं मानते, तो तुम इस आत्म-मुग्धता और आत्म-प्रशंसा की अवस्था में रहना बंद कर दोगे। और यह तुम्हारी रक्षा करेगा, है न? दूसरों के साथ सहयोग करने से तुम्हें ऐसा सबक सीखना और यह लाभ प्राप्त करना चाहिए” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। जब मैंने यह देखा, तो मुझे एहसास हुआ कि लिलियन के साथ सहयोग नहीं करने—और अपनी ताकत बांटने से डरने का कारण—था कि मैंने परमेश्वर द्वारा दिए गए कर्तव्य को अपनी जिम्मेदारी नहीं समझा। बल्कि, मैंने इसे अपना आधिकारिक पद समझा, मानो वह मेरी प्रतिष्ठा और ताज हो। मैंने दूसरों के साथ सहयोग करने से इनकार किया, हमेशा दंभी बनी रही, मैंने अपने दम पर अलग दिखना चाहा। यह गलत रास्ता था। दरअसल, उस समय ने यह प्रकट किया कि मेरे पास सत्य और समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण की उथली समझ थी। मैं अपने काम पर समग्र रूप से विचार भी नहीं कर रही थी, मैंने शायद ही कोई व्यावहारिक काम किया था। भाई-बहनों की जीवन-प्रवेश संबंधी समस्याओं में मदद करना एक संघर्ष था, और बहुत सारा काम था जो मैं अकेले नहीं कर सकती थी। मुझे साथ काम करने, चीजों पर चर्चा करने और फीडबैक के लिए किसी और की जरूरत थी, ताकि मैं अपनी कमजोरियाँ दूर करने के लिए उसकी खूबियों से सीख सकूँ। मैंने देहधारी परमेश्वर के बारे में सोचा, जिसने इंसान के उद्धार के लिए अनेक सत्य व्यक्त किए हैं, लेकिन वो थोड़ा भी अहंकार नहीं दिखाता। वह बहुत-सी चीजों में लोगों के सुझाव सुनता है और कभी दिखावा नहीं करता। वह इंसान के सिंचन और पोषण के लिए हमेशा चुपचाप सत्य व्यक्त करता रहता है। परमेश्वर का सार कितना दयामय और प्यारा है। लेकिन मैं शैतान द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी हूँ, मैं शैतानी स्वभावों से भरी हुई थी, और सत्य नहीं समझती थी। बहुत-कुछ था जो मैं नहीं समझती थी। लेकिन फिर भी मैं दंभी बनी हुई थी, सोचती थी कि मैं कोई खास हूँ, मैं बिना पार्टनर के अपने दम पर ढेर सारा काम कर सकती हूँ, मेरे मन में किसी और के लिए कोई सम्मान नहीं था। मैं बहुत अभिमानी और अविवेकी थी। वास्तव में, चीजों पर चर्चा करना और अपने कर्तव्य में अधिक संगति करना उचित और बुद्धिमानी है, अक्षमता का प्रदर्शन नहीं। यह दूसरों से ऐसी चीजें हासिल करना है, जिन्हें हम देख या समझ नहीं सकते, और अपने दंभ के कारण गलत रास्ता अपनाने से बचना है। अच्छे से कर्तव्य करने और परमेश्वर की सुरक्षा पाने का यही तरीका है। अब मैं परमेश्वर की इच्छा समझ गई। चीजों पर चर्चा करना, सहयोग करना और एक-दूसरे की कमजोरी में सहारा देना ही अच्छे से कर्तव्य करने और परमेश्वर को प्रसन्न करने का एकमात्र तरीका है।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मुझे अनुसरण का पथ मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब तुम लोग अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करते हो, तो क्या तुम अलग-अलग राय स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हो? क्या तुम दूसरों को बोलने देते हो? (हाँ, पहले मैं अक्सर भाई-बहनों के सुझाव नहीं सुनता था और इसी बात पर जोर देता था कि काम मेरे ही तरीके से किए जाएँ। लेकिन फिर जब तथ्यों से साबित हुआ कि मैं गलत हूँ, तब मुझे एहसास हुआ कि उनके अधिकाँश सुझाव सही थे, कि यह वह प्रस्ताव था जिस पर सब लोगों ने चर्चा की थी और जो दरअसल उपयुक्त था, और यह कि अपने विचारों पर भरोसा करने के कारण मैं चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहा था और यह मुझमें कमी थी। इस अनुभव के बाद, मुझे एहसास हुआ कि सामंजस्यपूर्ण सहयोग कितना अहम होता है।) तो इससे तुम्हें क्या सीख मिलती है? इसका अनुभव करने पर, क्या तुम्हें कोई लाभ हुआ और क्या सत्य समझ में आया? क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए, यह तथ्य है, और यह वह दृष्टिकोण है जो उन्हें अपनी योग्यताओं और क्षमताओं या दोषों के प्रति रखना चाहिए; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमज़ोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू को समझ गए हो और सत्य वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, उनकी खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। यह सच है। आप कितने भी महान और सक्षम हों, आप पूर्ण इंसान नहीं हैं। हर किसी की अपनी खूबियाँ और कमजोरियाँ होती हैं, उन्हें ठीक से समझा जाना चाहिए। हमें दूसरों के सुझाव सुनना और एक-दूसरे को सहारा देना सीखना है। ऐसी सही समझ रखकर ही हम दूसरों के साथ अच्छी तरह सहयोग कर सकते हैं। पहले, मैं बस नए विश्वासियों के सिंचन पर ध्यान दे रही थी, जबकि लिलियन ने सुसमाचार के काम की जिम्मेदारी ली थी। अगर मैं उस सारे काम की जिम्मेदारी ले लेती, तो उसे संभाल या उसे अच्छी तरह से कर नहीं पाती। अपने कर्तव्य में बहुत-सी चीजों में मेरा दृष्टिकोण सीमित था। मैं अविवेकी थी। जब भी हमारी अगुआ मेरे काम के बारे में पूछतीं, तो उसमें बहुत सारी गलतियों और ठीक से नहीं की गई चीजों के बारे में बतातीं। मुझे एहसास हुआ कि एक पार्टनर के बिना मैं वाकई अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा सकती। मैंने इसे पहले कभी नहीं समझा था, मैं खुद को नहीं जानती थी। मैं घमंडी थी, हमेशा प्रभारी बनना चाहती थी, और दूसरों के साथ काम नहीं कर सकती थी। इससे कलीसिया का काम रुक गया। इसका एहसास होने पर, मैंने बहुत दोषी महसूस किया, इसलिए मन में परमेश्वर से प्रार्थना की, कहा कि मैं अब भ्रष्टाचार में नहीं रहना चाहती, लिलियन के साथ अच्छी तरह कर्तव्य करने के लिए तैयार हूँ।
उसके बाद मिलकर काम करते हुए मैंने देखा कि लिलियन में बहुत-सी खूबियाँ थीं। वे मुझसे ज्यादा विचारशील थीं और कोई भी समस्या हो तो सत्य सिद्धांत खोजती थीं। वे सत्य पर विस्तार से संगति करती थीं। मुझे अगुआ बने ज्यादा समय नहीं हुआ था, इसलिए कलीसिया के कार्य के प्रबंधन के बारे में मेरे विचार अस्पष्ट थे। काम कैसे करना है और समस्या सुलझाने के लिए सत्य पर कैसे संगति करनी है, इसके बारे में मुझे बहुत विस्तार से जानकारी नहीं थी। उन तरीकों में मेरी उनसे कोई बराबरी नहीं थी। वो मुझसे अधिक प्रेममयी थीं; नए विश्वासियों का सिंचन करते हुए, वो बार-बार संगति करती थीं। जब मुझे लगता था कि वे पहले ही अच्छा काम कर चुकी हैं, तब वे कहतीं कि उन्हें और बेहतर करना है। मैंने सोचा कि कैसे मैंने उनके साथ सहयोग नहीं किया, उन्हें फालतू समझा। वे कभी-कभी नकारात्मक हो जातीं, लेकिन जल्दी से अपनी स्थिति बदल लेतीं और सक्रियता से अपना कर्तव्य करती रहतीं। हालाँकि मैंने उनकी उपेक्षा की, फिर भी वे बार-बार मुझसे पूछती रहीं। वे प्रेममयी और धैर्यवान थीं, उन्होंने अपने कर्तव्य के लिए वास्तविक जिम्मेदारी ली थी। यह सारे वे गुण थे, जिनकी मुझमें कमी थी। इसका एहसास हुआ, तो मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने देखा कि मेरे भ्रष्ट स्वभाव से लिलियन और कलीसिया के काम को बहुत चोट पहुंची है। अगर मैं शुरू से ही उनके साथ सहयोग करने के लिए उत्सुक रहती, उनके साथ हर चीज पर चर्चा करती, तो चीजें इस तरह से न होतीं। मैं अफसोस से भर गई और परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं अपनी भ्रष्टता और खामियाँ देख सकती हूँ, और अब मैं तेरी इच्छा समझती हूँ। मैं अब से लिलियन के साथ सहयोग करूँगी और एक इंसान की तरह जिऊँगी।”
उसके बाद लिलियन के साथ काम करते हुए मैं उनसे ऐसी बातें जरूर पूछती, “क्या यह आपको ठीक लग रहा है? क्या आपके पास कोई और सुझाव हैं?” एक बार काम के बारे में चर्चा करते हुए, उन्होंने मुझसे पूछा कि नवागतों का सिंचन कैसा चल रहा है। मैंने मन में सोचा, “अभी कुछ दिन पहले ही इसके बारे में बात की थी, फिर से बात करने की क्या जरूरत है? अगर कोई समस्या हुई तो मैं सँभाल सकती हूँ।” मैं फिर से उनकी उपेक्षा करना चाहती थी। तभी एहसास हुआ कि सब अपने काबू में रखने की मेरी पुरानी समस्या फिर से सिर उठा रही है। मैंने जल्दी से प्रार्थना की, परमेश्वर से मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहा, ताकि मैं भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कार्य न करूँ। प्रार्थना के बाद मैंने अब तक की अपनी तमाम विफलताओं के बारे में सोचा, कि मैं कैसे तानाशाह और दबंग थी, हमेशा चीजों को अपने तरीके से करना और दिखावा करना चाहती थी। यह पूरी तरह से शैतान की अभिव्यक्ति थी। मुझे खुद को त्यागकर परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना था, और बहन के साथ सहयोग करना था। इसलिए मैंने ईमानदारी से अपने काम के बारे में वो सारी बातें साझा कीं, जो मुझे पता थीं, मेरी बात सुनकर लिलियन ने भी अपने विचार साझा किए। मैंने उनकी संगति से कुछ चीजें सीखीं और महसूस किया कि यह कर्तव्य करने का शानदार तरीका था।
उसके बाद, अपने कर्तव्य में किसी समस्या को सामने पाकर, मैं चर्चा करने के लिए उन्हें खोजती, और हम मिलकर इन मुद्दों पर सत्य की खोज और संगति करते। इसके कुछ समय बाद मेरी हालत सुधर गई और मेरे कर्तव्य के प्रदर्शन में सुधार हो गया। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ। और मैंने देखा है कि केवल अपने कर्तव्य में खुद की इच्छाओं को त्यागने, दूसरों के साथ अच्छी तरह काम करने और एक-दूसरे की कमियों की भरपाई करके ही हमें परमेश्वर का मार्गदर्शन मिल सकता है!
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