मनमाने ढंग से काम करने के नतीजे
2016 में मुझे एक कलीसिया-अगुआ के रूप में कर्तव्य करने के लिए चुना गया। वह काम सँभालने पर, शुरू-शुरू में, मैंने बहुत दबाव महसूस किया, चूँकि मुझे सत्य की समझ नहीं थी और मैं चीजों को गहराई से नहीं जानता था, इसलिए जब भाई-बहनों के सामने दिक्कतें आईं, तो मुझे समझ नहीं आ रहा था कि सत्य पर संगति करके उनका समाधान कैसे करूँ। लोगों को कुछ कर्तव्यों पर नियुक्त करते समय भी मैं नहीं जानता था कि सत्य सिद्धांतों पर कैसे विचार करूँ, इसलिए मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता, और इन सिद्धांतों की खोज करता। जब मैं कोई बात ठीक से न समझ पाता, तो अपने सहकर्मियों से सलाह भी लेता। समय के साथ, लोगों और हालात को परखने की मेरी काबिलियत थोड़ी बढ़ गई, और मैं भाई-बहनों को उनकी निजी खूबियों के आधार पर उचित कर्तव्य देने में सक्षम हो गया। एक बार, मेरे साथ काम करने वाले एक भाई ने मुझे टीम अगुआ बहन शा जिंग के बारे में बताने की कोशिश की जो जैसे-तैसे कर्तव्य निभा रही थी और बहुत ढीली थी, और कहा कि वह टीम के काम में रोड़े अटका रही थी। उसने उसे पद से हटा देने का सुझाव दिया। मैंने मन-ही-मन : “शा जिंग बहुत योग्य और अपने काम में दक्ष है, इसलिए भले ही वह भ्रष्ट स्वभाव दिखा रही हो, अगर उसे थोड़ी मदद मिल जाए, और वह खुद में कुछ बदलाव कर पाए, तो उसे अपने कर्तव्य निभाने में कोई समस्या नहीं होगी।” इसलिए मैंने शा जिंग की हालत को उजागर करके उसका विश्लेषण किया, और उसकी काँट-छाँट की। संगति के कुछ सत्रों के बाद, मैंने देखा कि अपने कर्तव्य को लेकर उसका रवैया थोड़ा बदल गया है। वह ज्यादा पहल कर रही थी और ज्यादा विवेकशील भी थी। थोड़े समय बाद उसे पदोन्नत कर और भी महत्वपूर्ण कर्तव्य दे दिया गया। इस पर मैंने अपनी पीठ थपथपाई, और सोचा, “मेरा सोचना आखिर सही था। अच्छा हुआ कि हमने उसे बर्खास्त न करके कलीसिया में एक प्रतिभाशाली इंसान को बढ़ावा दिया। लगता है, मुझे बुरे-भले की कुछ पहचान हो गई है।” इसके बाद, यह सोचकर कि मैं ज्यादा अनुभवी हूँ, इसलिए हर मसला खुद सँभाल सकता हूँ, मैंने उस भाई के साथ नियुक्तियों और बर्खास्तागियों के बारे में चर्चा करनी बंद कर दी। देखते-देखते दो साल गुजर गए, और मैं कलीसिया के काम के लिए व्यवस्थाएँ करने में और ज्यादा कुशल हो गया। यह सोचकर कि मैं चीजों को गहराई से समझ सकता हूँ और भले-बुरे लोगों को भाँप सकता हूँ, मैं दिनोदिन और ज्यादा घमंडी होता चला गया।
एक दिन एक अगुआ के पास से एक पत्र आया, जिसमें लिखा था कि हमारी कलीसिया की बहन झांग जियाई एक दूसरी कलीसिया में कर्तव्य से बर्खास्त होकर वापस लौट आई है। मुझे उनके लिए सभाओं में भाग लेने की व्यवस्था करनी थी। मैंने सोचा, “जियाई के साथ अपने पिछले आदान-प्रदान के दौरान मैंने देखा है कि वह घमंडी है, वह लोगों को अपने से नीचा मानकर उन्हें डाँटती-डपटती रहती है, और उसके साथ काम करना मुश्किल है। ऐसा लगता है।” कि वह बिलकुल नहीं बदली। फिर कुछ समय बाद, बहुत-से नए लोग हमारी कलीसिया में शामिल हुए थे, इसलिए हमें सिंचन-कार्य करने के लिए लोगों की जरूरत थी। मेरे साथ काम करने वाले भाई लियू झेंग ने कहा कि वह जियाई के साथ सभाएँ कर चुका है और उसने देखा है कि बर्खास्त होने के बाद उसने कुछ सच्चा आत्मज्ञान हासिल किया है और कुछ प्रायश्चित किया है, साथ ही उसने पहले भी नए सदस्यों का सिंचन किया था और बहुत असरदार रही थी। उसने सुझाया कि उसके आत्मचिंतन के इस दौर में, हमें उसे सिंचन का कुछ काम देना चाहिए ताकि हमारा काम पिछड़ न जाए। जैसे ही उसने जियाई का नाम सुझाया तो मैंने सोचा, “यह कैसे कारगर होगा? तुम उसे बिलकुल नहीं जानते, वह सत्य का अनुसरण करने वालों में से नहीं है। उसने बस थोड़ी समझ होने की बात की और तुम्हें लगा कि उसने प्रायश्चित कर लिया है। तुम्हारे अंदर लोगों और स्थितियों का आकलन करने की क्षमता नहीं है, और तुम्हें भले-बुरे की जरा भी पहचान नहीं है।” मैंने उससे दृढ़ता से कहा, “मैं जियाई को जानता हूँ। वह घमंडी स्वभाव की है और लोगों को नीचा दिखाना पसंद करती है। उसके साथ काम करना भी मुश्किल है। वह हमेशा से ऐसी ही है, और वह बिलकुल भी नहीं बदली है, वरना उसे बर्खास्त न किया जाता। मुझे नहीं लगता कि वह इस काम के लिए सही है। हम उसे यह कर्तव्य नहीं दे सकते।” लियू झेंग ने आगे कहा, “हम उससे बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं कर सकते। वह थोड़ी-सी घमंडी जरूर है, लेकिन वह बर्खास्तगी के अपने अनुभव के जरिये अपने बारे में सचमुच जान गई है, और वह अपनी करनी के लिए प्रायश्चित करने में सक्षम रही है। अब वह सँभलकर बोलती है और दूसरों के साथ ठीक से पेश आती है। उसके घमंडी स्वभाव में भी थोड़ा बदलाव आया है। हमें लोगों के साथ सही ढंग से पेश आना चाहिए।” उसकी बात सुनकर मुझे थोड़ा गुस्सा आया। मैंने सोचा, यह इस कर्तव्य में नया है, इसलिए इसे पता ही क्या है? इसे बस मेरी बात मान लेनी चाहिए। इसलिए मैंने और ज्यादा जोर देते हुए कहा, “मैं लोगों के बारे में यूँ ही अपनी राय नहीं बना लेता, मैं देख सकता हूँ कि वह उस कर्तव्य के लिए सही नहीं है, हमें उससे सिंचन का काम नहीं करवाना चाहिए।” मुझे अपनी राय पर अड़ा हुआ देखकर लियू झेंग ने और कुछ नहीं कहा।
थोड़ा समय बीत गया, और सिंचन करने वाले लोगों की कमी से कुछ नए सदस्यों में ढीलापन और नकारात्मक भावनाएँ आ गई थीं, क्योंकि उन्हें समय पर सिंचन नहीं मिला था, और वे सभाओं में शामिल नहीं हो रहे थे। जब एक अगुआ को पता चला कि क्या चल रहा है, तो वे लियू झेंग के साथ जियाई से बात करने गईं। जब वे लौटकर आए, तो लियू झेंग ने कहा, “हालांकि जियाई को बर्खास्त किया गया है, वह बस थोड़ी घमंडी है, उसने कोई बड़ी बुराई नहीं की है। अब उसके पास कुछ सच्चा आत्मज्ञान है, और वह प्रायश्चित करने और बदलने को तैयार है। उसे अभी भी विकसित किया जा सकता है। किसी के एक बार के काम को देखकर हम उसे सदा के लिए उसी सीमा में नहीं बाँध सकते। हमने इस बारे में चर्चा की है, और जियाई को सिंचन-कार्य सँभालना चाहिए।” उसे इस पदोन्नति के लिए एक बार फिर जियाई की सिफारिश करते देखकर, मैंने सोचा, “मैंने पिछली बार इस बारे में खुद को बिलकुल स्पष्ट कर दिया था, इतने थोड़े-से समय में वह कैसे बदल सकती है? मैं एक लंबे अरसे से अगुआ के रूप में काम कर रहा हूँ, और लोगों को परखना जानता हूँ, इसलिए तुम इस बारे में मेरी बात क्यों नहीं मानते? इस तरह तुम गलती करने से बच सकते हो!” मैंने अपनी राय एक बार फिर पूरा जोर देकर दोहराई। मुझे अपनी राय पर अड़ा देखकर अगुआ ने मुझसे सख्ती से कहा, “हमने जियाई को अच्छी तरह से समझ लिया है। हमनेउसकी संगति सुनी है, और उसके साथ अंतरंग बातचीत भी की है। हमने देखा है कि उसने आत्म-चिंतन करके कुछ आत्म-ज्ञान पाया है। हमें लोगों को प्रायश्चित करने का मौका देना चाहिए। हम लोगों को उनके पिछले बर्ताव के आधार पर सीमा में नहीं बाँध सकते। आप कहते हैं कि वह घमंडी है, लेकिन परमेश्वर के घर में घमंडी लोगों को कब से पोषितनहीं होने दिया गया है? जियाई सिंचन के काम के लिए बिलकुल सही है, और अभी इस काम के लिए लोगों की बहुत जरूरत भी है। आप अपनी राय पर अड़े हुए हैं, जबरदस्ती कर रहे हैं कि उसको काम न दिया जाए। क्या यह मनमानी और तानाशाही नहीं है? कलीसिया में लोगों की नियुक्ति आपके जरिये होती है। आपकी स्वीकृति के बिना वे अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते। आप बहुत घमंडी और आत्म-तुष्ट हैं। अपनी मनमानी करके क्या आप यह नहीं देख सकते कि आप कलीसिया के काम और उसके द्वारा प्रतिभाशाली लोगों के विकास में रुकावट पैदा कर रहे हैं?” अगुआ द्वारा मेरी इस तरह से काट-छाँट किए जाने की बात सुनकर मैं परेशान हो गया, लेकिन मेरा प्रतिरोध फिर भी बना रहा। मैंने सोचा, “मुझे लोगों की अच्छी समझ है, इसलिए मैं जियाई के बारे में गलत हो ही नहीं सकता।” लेकिन उस समय मैं अपनी असहमति पर अड़ा नहीं रह सकता था। इसलिए मैंने अनिच्छा से कहा, “आप दोनों ने उसमें थोड़ा बदलाव देखा है, तो चलिए, उसे सिंचन का एक मौका दे देते हैं। अगर ढंग से काम नहीं हुआ, तो हम उसे हटा देंगे।”
घर पहुँचकर मैंने अगुआ द्वारा अपनी काट-छाँट के बारे में सोचा और बहुत बेचैनी महसूस करता रहा। उसने जो कहा, उसे देखते हुए, क्या मैं बुराई नहीं कर रहा था, परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहा था? यह अपने सार में बड़ी गंभीर बात थी। लेकिन फिर मैंने सोचा, जियाई को उस पद पर नियुक्त न करने का फैसला मैंने बहुत सोच-समझकर लिया था, तो फिर उन्होंने मेरे बारे में ऐसी बातें क्यों कीं? मैंने ऐसी कौन-सी गलती कर दी थी? मैंने यह जानने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, इस बहन द्वारा अपनी काट-छाँट को स्वीकार करने में मुझे बड़ी मुश्किल हो रही है। मैं नहीं जानता, इस मामले में खुद को कैसे समझूँ या सत्य के किस पहलू में प्रवेश करूँ। मुझे रास्ता दिखाओ।” अपनी प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढे : “‘स्वेच्छाचारी और उतावला’ होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है, जब तुम्हारा किसी समस्या से सामना हो, तो किसी सोच-विचार या खोज की प्रक्रिया के बगै़र उस तरह का आचरण करना जो तुम्हारे हिसाब से ठीक बैठता हो। किसी और का कहा हुआ कुछ भी तुम्हारे दिल को नहीं छू सकता, न ही तुम्हारे मन को बदल सकता है। यहाँ तक कि सत्य की संगति किए जाने पर भी तुम उसे स्वीकार नहीं कर सकते, तुम अपनी ही राय पर अड़े रहते हो, जब दूसरे लोग कुछ भी सही कहते हैं, तब तुम नहीं सुनते, खुद को ही सही मानते हो और अपने ही विचारों से चिपके रहते हो। भले ही तुम्हारी सोच सही हो, तुम्हें दूसरे लोगों की राय पर भी ध्यान देना चाहिए। और अगर तुम ऐसा बिल्कुल नहीं करते, तो क्या यह अत्यधिक आत्मतुष्ट होना नहीं है? जो लोग अत्यधिक आत्मतुष्ट और मनमाने होते हैं, उनके लिए सत्य को स्वीकारना आसान नहीं होता। अगर तुम कुछ गलत करते हो और दूसरे यह कहते हुए तुम्हारी आलोचना करते हैं, ‘तुम इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहे हो!’ तो तुम जवाब देते हो, ‘भले ही मैं इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहा, फिर भी मैं इसे इसी तरह से करने वाला हूँ,’ और फिर तुम कोई ऐसा कारण ढूँढ़ लेते हो जिससे यह उन्हें सही लगने लगे। अगर वे यह कहते हुए तुम्हें फटकार लगाते हैं, ‘तुम्हारा इस तरह से काम करना व्यवधान है और यह कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाएगा,’ तो न केवल तुम नहीं सुनते, बल्कि बहाने भी बनाते रहते हो : ‘मुझे लगता है कि यही सही तरीका है, इसलिए मैं इसे इसी तरह करने वाला हूँ।’ यह कौन-सा स्वभाव है? (अहंकार।) यह अहंकार है। अहंकारी स्वभाव तुम्हें जिद्दी बनाता है। अगर तुम्हारी प्रकृति अहंकारी है, तो तुम दूसरों की बात न सुनकर स्वेच्छाचारी और उतावले ढंग से व्यवहार करोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “तुम्हें दूसरों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए, यह परमेश्वर के वचनों में साफ तौर पर दिखाया या इंगित किया गया है। परमेश्वर मनुष्यों के साथ जिस रवैये से व्यवहार करता है, वही रवैया लोगों को एक-दूसरे के साथ अपने व्यवहार में अपनाना चाहिए। परमेश्वर हर एक व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है? कुछ लोग अपरिपक्व कद वाले होते हैं; या कम उम्र के होते हैं; या उन्होंने सिर्फ कुछ समय के लिए परमेश्वर में विश्वास किया होता है; या वे प्रकृति-सार से बुरे नहीं होते, दुर्भावनापूर्ण नहीं होते, बस थोड़े अज्ञानी होते हैं या उनमें क्षमता की कमी होती है। या वे बहुत अधिक बाधाओं के अधीन हैं, और उन्हें अभी सत्य को समझना बाकी है, जीवन प्रवेश करना बाकी है, इसलिए उनके लिए मूर्खतापूर्ण चीजें करने या नादान हरकतें करने से खुद को रोक पाना मुश्किल है। लेकिन परमेश्वर लोगों के मूर्खता करने पर ध्यान नहीं देता; वह सिर्फ उनके दिलों को देखता है। अगर वे सत्य का अनुसरण करने के लिए कृतसंकल्प हैं, तो वे सही हैं, और अगर यही उनका उद्देश्य है, तो फिर परमेश्वर उन्हें देख रहा है, उनकी प्रतीक्षा कर रहा है, परमेश्वर उन्हें वह समय और अवसर दे रहा है जो उन्हें प्रवेश करने की अनुमति देता है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर उन्हें एक अपराध के लिए भी खारिज कर देगा। ऐसा तो अक्सर लोग करते हैं; परमेश्वर कभी भी लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता। जब परमेश्वर लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता, तो लोग दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? क्या यह उनके भ्रष्ट स्वभाव को नहीं दर्शाता है? यह निश्चित तौर पर उनका भ्रष्ट स्वभाव है। तुम्हें यह देखना होगा कि परमेश्वर अज्ञानी और मूर्ख लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, वह अपरिपक्व अवस्था वाले लोगों के साथ कैसे पेश आता है, वह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के सामान्य प्रकटीकरण से कैसे पेश आता है और दुर्भावनापूर्ण लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है। परमेश्वर अलग-अलग तरह के लोगों के साथ अलग-अलग ढंग से पेश आता है, उसके पास विभिन्न लोगों की बहुत-सी परिस्थितियों को प्रबंधित करने के भी कई तरीके हैं। तुम्हें इन सत्यों को समझना होगा। एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तब तुम मामलों को अनुभव करने का तरीका जान जाओगे और लोगों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने लगोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के आधार पर मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया। मुझे लगा, लोगों का चयन और नियुक्ति करने का मुझे काफी अनुभव है, और कुछ सिद्धांतों पर भी मेरी अच्छी पकड़ है। खास तौर से जब मेरा चुना हुआ कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य में सफल होता था, तो मुझे सचमुच ऐसा लगता कि मुझे भले-बुरे की पहचान है और मैं लोगों और स्थितियों का आकलन कर सकता हूँ। मैं इसे अपनी निजी पूंजी मानता था, और आत्म-प्रशंसा का शिकार होकर किसी दूसरे के सुझाव नहीं सुनता था। जब लियू झेंग ने मुझे जियाई के साथ न्यायपूर्ण ढंग से पेश आने को कहा, तो मैंने उसकी बात सुनने से इनकार कर दिया। मैंने उसे जैसा पहले देखा था, उसी के आधार पर उसे एक खाने में रख दिया था, यह सोचते हुए कि वह घमंडी है, और शायद वह बदल नहीं सकती, इसलिए वह सिंचन-कार्य नहीं कर सकती। लेकिन सच्चाई यह है कि परमेश्वर के घर की अपेक्षाएँ बिलकुल स्पष्ट हैं। अगर कोई व्यक्ति दर्शन के सत्यों को समझ सकता है, और अपने कर्तव्य में ज़िम्मेदारी दिखाता है, तो उसे विकसित और प्रशिक्षित किया जा सकता है यहाँ तक कि गंभीर अपराध करने वाले भी अगर सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, प्रायश्चित कर सकते हैं, और बदल सकते हैं, तो उन्हें अपना कर्तव्य निभाते रहने का अवसर दिया जाएगा सकता है। परमेश्वर के घर ने लोगों के साथ हमेशा ही न्यायपूर्ण व्यवहार किया है और उनका निष्पक्ष उपयोग किया है। कोई कैसा भी भ्रष्ट स्वभाव दिखाए, या उसने कलीसिया के कार्य में जो भी बाधा डाली हो, अगर वह दुष्ट या मसीह-विरोधी नहीं है, तो परमेश्वर उसे अपनी तरफ से ज्यादा से ज्यादा बचाता है, कलीसिया उसे कर्तव्य निभाने का मौका देते हुए अभ्यास करने देती है। यही है परमेश्वर का प्रेम और उद्धार। मैं परमेश्वर का स्वभाव या मनुष्य को बचाने के उसके इरादे को नहीं समझता था, न ही मैं परमेश्वर के घर में लोगों के साथ पेश आने के सिद्धांत समझ पाया था। मैं जियाई की खूबियाँ नहीं देख रहा था, और उसने पहले जो भ्रष्टता दिखाई थी, उसे नहीं भूल पा रहा था, और उसके बारे में मनमानी राय बनाते हुए उसे नवागतों का सिंचन नहीं करने दे रहा था। इससे नए विश्वासियों का समय रहते सिंचन नहीं हो पाया था, और यह कलीसिया के काम में बाधक था। क्या यह दुष्टता नहीं थी? मैंने पछतावे से भरकर परमेश्वर के सामने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं बहुत घमंडी और आत्म-तुष्टहूँ। मैं अब अपने कर्तव्य में मनमानी नहीं करना चाहता। मैं प्रायश्चित करके बदलने को तैयार हूँ।”
फिर अगली बार जब मैं जियाई के साथ एक सभा में था, और मैंने उसकी संगति सुनी तो मैंने देखा कि उसमें सचमुच ही कुछ आत्म-ज्ञान और पश्चाताप झलक रहा था, और मैं और भी ज्यादा शर्मिंदगी और अपराध-बोध महसूस करने लगा। जियाई ने सिंचन-कार्य हाथ में लेने के बाद गंभीरता से उसकी जिम्मेदारी सँभाली, और उसका सिंचन पाए हुए भाई-बहनों ने कुछ प्रगति की। बाद में उसे पदोन्नत करके अनेक कलीसियाओं के सिंचन-कार्य के प्रबंधन का काम सौंपा गया। उसे इतना अच्छे से कर्तव्य करते देखकर मुझे और भी ज्यादा शर्मिंदगी महसूस हुई। अपने इतना अधिक घमंडी होने, मनमाने ढंग से उसे सीमा में बाँधने, उसे कर्तव्य देने से इनकार करने और कलीसिया के कार्य में रुकावट पैदा करने पर मुझे खुद से घृणा हुई। मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास सत्य नहीं है, और मैं लोगों और स्थितियों का आकलन नहीं कर सकता। मैंने अपने समूचे अनुभव से बस कुछ धर्म-सिद्धांत और नियम सीख लिए थे, लेकिन कलीसिया का कार्य सिर्फ उन्हीं के सहारे अच्छे ढंग से नहीं किया जा सकता। उस घटना के बाद, मैं लोगों का चुनाव ज्यादा सावधानी से करने लगा, और जब भी मेरी मनमानी प्रकृति अपना सिर उठाती, और मैं अपनी ही बात मनवाना चाहता, तो मैं प्रार्थना करना और अपना अहं छोड़ना न भूलता, और सभी की बातों पर ध्यान देता। मुझे लगता था कि मुझमें थोड़ा बदलाव आ गया है, लेकिन अचरज की बात थी कि बाद में कुछ ऐसा घटित हुआ, जिसने मुझे फिर से उजागर कर दिया।
छह महीने बाद, कलीसिया को सामान्य मामले सँभालने के लिए दो लोगों की सख्त जरूरत पड़ी। मैंने इस मामले पर गौर किया, और कुछ ऐसी बहनों को ढूँढ़ा, जो जिम्मेदार थीं और विभिन्न स्थितियों को सँभाल सकती थीं, मगर उनके साथ सुरक्षा के कुछ खतरे थे। लेकिन मैंने सोचा, चूँकि उन्हें अपने स्थानीय इलाके में कोई कर्तव्य नहीं करना, इसलिए उनके ये कर्तव्य सँभालने में कोई दिक्कत नहीं होगी। इस कर्तव्य के लिए किसी की तुरंत जरूरत थी, और मुझे उस समय उनसे बेहतर उम्मीदवार नहीं मिल पा रहे थे, इसलिए मैंने फिलहाल उन्हीं को नियुक्त करने और उनसे बेहतर व्यक्ति मिल जाने पर उन्हें बदल देने का फैसला किया। मैंने लियू झेंग को बताया कि मैं कलीसिया के सामान्य मामलों का काम बहन झाओ आइझेन को देना चाहता हूँ। उसका जवाब था, “लोगों को चुनते समय हमें सिद्धांतों का पूरी तरह से पालन करना होगा। अगर सुरक्षा का खतरा है, तो वे कलीसिया के लिए काम नहीं कर सकतीं। आइझेन एक सुरक्षा खतरा हैं और इस काम के लिए ठीक नहीं रहेंगी। हमें सिद्धांतों पर चलना होगा।” यह देखकर कि वह उस समूह में शामिल नहीं है, मैंने अहसमति जताई और कहा, “हमें इस बात पर बहुत ज्यादा जोर देने की जरूरत नहीं है। क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तुम कुछ ज्यादा ही डर रहे हो? यह सच है कि वे अपने शहर में एक विश्वासी के रूप में जानी जाती हैं, लेकिन पुलिस द्वारा उसकी जाँच-पड़ताल हुए बरसों बीत गए हैं। यही नहीं, उसमें हिम्मत और बुद्धि है। मैं उसके बारे में यह जानता हूँ। मुझे नहीं लगता, हमारे पास उससे बेहतर कोई उम्मीदवार है। सामान्य मामलों का काम सँभालने के लिए हमें कोई व्यक्ति चाहिए। हम आँख मूँदकर नियमों का पालन नहीं कर सकते।” उसने मेरी बात सुनी, और फिर जोर देकर बोला, “खतरे वाले किसी व्यक्ति को इस काम के लिए नियुक्त करना सिद्धांतों का उल्लंघन है। हमें पहले सुरक्षा को ध्यान में रखना होगा।” मैंने उसकी बात पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया, और आइझेन को लेने पर अड़ा रहा। इसके बाद मैंने सामान्य मामलों के काम के लिए एक अन्य बहन को भी ले लिया। उसके साथ भी सुरक्षा का खतरा जुड़ा हुआ था। जल्दी ही, आइझेन, जो परमेश्वर की विश्वासी के रूप में चर्चित थीं, सीसीपी पुलिश के शक और निगरानी के घेरे में आ गईं। क्योंकि वे अक्सर कुछ भाई-बहनों के घरों में जाती रहती थीं, इसलिए उन्हें भी निगरानी में ले लिया गया। नतीजा यह हुआ कि वे सामान्य रूप से अपने कर्तव्य नहीं निभा सके। कलीसिया के काम में भारी अड़चनें पैदा हो गई।
जब अगुआ ने इस बारे में सुना, और उन्हें पता चला कि मैं सुरक्षा के खतरे वाले व्यक्तियों को नियुक्त करने पर अड़ा रहा था, तो वे मुझसे बड़ी सख्ती से मेरी काट-छाँट की : “आप बेहद घमंडी और अपनी मनमानी करने रहे हैं। आप अपने कर्तव्य में हमेशा अपनी चलाते हैं, और सिद्धांतों के खिलाफ जाते हैं। इस बार इससे कलीसिया के कार्य को गंभीर नुकसान पहुँचा है। क्या यह शैतान के नौकर की तरह काम करना और कलीसिया के काम में बाधा डालना नहीं है? आपके लगातार ऐसा बर्ताव करने के आधार पर हमने आपको बर्खास्त करने का फैसला किया है।” यह सुनकर मुझे लगा, जैसे मेरे चेहरे पर जोर का थप्पड़ पड़ा हो, मैं बिलकुल सन्न रह गया। मुझे लगा, “सब खत्म हो गया। मैंने बहुत बुरा काम किया है। जो भाई-बहन फँस गए हैं, अगर वे गिरफ़्तार हो गए तो क्या होगा? अगर ऐसा हुआ, तो मैंने सच में बहुत भयंकर काम किया है।” इस बारे में मैंने जितना सोचा, मुझे उतना ही डर लगा। मैं अपराध-बोध से भर गया। मुझे लगा जैसे मेरे दिल पर छुरी चल गई है, मुझमें कुछ भी करने का जोश नहीं रहा। मैं रात-दिन इसी दुख में जी रहा था, परमेश्वर से प्रार्थना कर रहा था, और बार-बार अपने बुरे कामों को स्वीकार कर रहा था : “हे परमेश्वर, मैं बहुत घमंडी, बहुत दंभी हूँ। मेरी मनमानी ने कलीसिया के कार्य को बहुत ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। तुम जो भी दंड मुझे देना चाहो, मैं उसे स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ, बस उन भाई-बहनों को गिरफ्तारी से बचा लो।” बाद में मुझे पता चला कि समय रहते कलीसिया के उन सदस्यों का तबादला कर दिया गया था और वे गिरफ्तारी से बच गए थे। आखिरकार मैंने राहत की साँस ली।
इस सच्चाई के बाद, मैंने आत्म-चिंतन किया। मैं हमेशा अपने कर्तव्य में इतनी मनमानी क्यों करता हूँ? यह चीज मुझमें कैसे पैदा हुई? मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। मैं परमेश्वर के वचनों से समझ पाया कि बार-बार अपने कर्तव्य में मनमाने ढंग से व्यवहार करने की मेरी आदत घमंडी और दंभी प्रकृति के काबू में होने का नतीजा थी। मैं खुद को बहुत बड़ा समझता था, और मुझे लगता था कि मैं बाकी सबसे बेहतर हूँ, मैं हर किसी से ज्यादा सही हूँ, इसलिए कलीसिया के मामलों में मेरा फैसला ही चलना चाहिए। किसी मामले में मन बना लेने के बाद मैं उसे किसी और तरीके से देखने से इनकार कर देता था, और किसी की नहीं सुनता था। मैं यह तक चाहता था कि लोग मेरे विचारों का इस तरह पालन करें, मानो वे सत्य सिद्धांत हों। मैं जानता था कि वे दो बहनें सुरक्षा के लिए खतरा हैं और वे सामान्य मामलों के काम के लिए उपयुक्त नहीं थीं। इसे लेकर मेरे मन में भी खटका था, लेकिन फिर भी मैं खुद को एक तरफ रखकर परमेश्वर की इच्छा का पता नहीं लगा सका। मैंने पवित्र आत्मा की फटकार और मार्गदर्शन की अनदेखी की, और मैंने लियू झेंग की असहमति पर ध्यान नहीं दिया। मैंने बस अपनी चालानी थी और आखिर में मैंने कलीसिया के कार्य को सचमुच ही गंभीर नुकसान पहुंचाया। गंभीर नुकसान पहुँचाया। अगर मुझमें सत्य को खोजने और समर्पण करने की जरा भी इच्छा होती, अगर मैंने लियू झेंग के सुझाव सुने होते, तो ऐसे भयानक नतीजे न हुए होते। इन सब बातों का एहसास होने पर मुझे बहुत ज्यादा पछतावा और अपराध-बोध हुआ, मुझे अपने घमंड और मनमानी से घृणा हो गई। कम्युनिस्ट पार्टी कभी भी परमेश्वर के कार्य को कमजोर करने का काम बंद नहीं करती, और उसके चुने हुए लोगों का दमन करने और उन्हें गिरफ्तार करने के लिए हर तरह की चाल चलती है। मैंने मनमाने तरीके से असुरक्षित लोगों को कर्तव्यों पर नियुक्त करने का फैसला करके सिद्धांतों का उल्लंघन किया था, जिससे दूसरे भाई-बहन भी निगरानी में रख दिए गए थे। क्या यह शैतान का साथ देना नहीं था? अगर उन भाई-बहनों को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया होता तो यह कितनी भयंकर बात होती! इस विचार ने मुझे बहुत ज्यादा डरा दिया। मुझे एहसास हुआ कि मनमाने ढंग से काम करने के परिणाम कितने व्यापक हो सकते हैं। मैंने थोड़ा काम किया था और खुद को इतना महान समझने लगा था कि मैं। दूसरों को कुछ खास नहीं समझता था, और मेरे दिल में परमेश्वर तो था ही नहीं। यहाँ तक कि मैं सत्य सिद्धांतों को भी गंभीरता से नहीं ले रहा था, और अपने किए हुए काम को ही अपनी पूंजी समझता था। मैं वही करता था जो मैं चाहता था। मैं इस हद तक घमंडी था कि मैंने अपनी पूरी समझ गँवा दी। मैंने उन सभी मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा, जिन्हें कलीसिया से निकाल दिया गया था। वे बहुत ज्यादा घमंडी थे, वे तानाशाह थे, और अपने कर्तव्य में मनमानी करते थे, कलीसिया के कार्य में गंभीर रुकावट डालते थे। आखिरकार, उन लोगों ने इतने बुरे काम किए कि उन्हें कलीसिया से निकाल दिया गया। मैं जानता था कि अगर मेरा घमंडी स्वभाव ठीक नहीं हुआ, तो मैं बुराई करने और परमेश्वर का प्रतिरोध करने से नहीं बच पाऊँगा और आखिर में परमेश्वर मुझे बाहर कर देगा। मैंने अपने दिल में महसूस किया कि घमंडी स्वभाव के साथ जीना कितना भयानक था। इतना बुरा काम करने के बावजूद कलीसिया ने मुझे अभी तक बाहर नहीं निकाला था, सिर्फ मुझे बर्खास्त किया था, और परमेश्वर ने मुझे अपने वचनों से प्रबुद्ध करके रास्ता भी दिखाया था, मुझे सोच-विचारकर खुद को जानने, प्रायश्चित करने और खुद को बदलने का मौका दिया था। मैं सच में परमेश्वर के प्रेम का अनुभव कर पा रहा था, और मुझे बहुत पछतावा हुआ। मैं प्रायश्चित करने और बदलने को तैयार था।
इसके बाद, मैं सचेत होकर यह खोज करने लगा कि घमंडी स्वभाव और अपने कर्तव्य में सिर्फ अपनी चलाने और मनमानी करने की समस्या को कैसे हल करूँ। मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “तब तुम अपनी स्वेच्छाचारिता और उतावलेपन का समाधान कैसे करते हो? उदाहरण के तौर पर, मान लो, तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है और तुम्हारे अपने विचार और योजनाएँ हैं। ऐसे में, यह तय करने से पहले कि क्या करना है, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और तुम्हें कम से कम इस मामले के बारे में तुम क्या सोचते और क्या मानते हो, इसके संबंध में सभी के साथ संगति करनी चाहिए, और सभी से कहना चाहिए कि वे तुम्हें बताएँ कि तुम्हारे विचार सही और सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, और अपने लिए जाँच-पड़ताल करने को कहना चाहिए। मनमानी और उतावलेपन का समाधान करने का यह सबसे अच्छा तरीका है। सबसे पहले, तुम अपने दृष्टिकोणों पर रोशनी डाल सकते हो और सत्य को जानने की कोशिश कर सकते हो; मनमानी और उतावलेपन का समाधान करने के अभ्यास का यह पहला कदम है। दूसरा कदम तब होता है जब दूसरे लोग अपनी असहमतियों को व्यक्त करते हैं—ऐसे में, स्वेच्छाचारी और उतावलेपन से बचने के लिए तुम किस तरह का अभ्यास कर सकते हो? पहले तुम्हारा रवैया विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे किनारे रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम अपने तरीके को सही मानो, तुम्हें उस पर जोर नहीं देते रहना चाहिए। यह एक तरह की प्रगति है; यह सत्य की खोज करने, स्वयं को नकारने और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। जैसे ही तुम्हारे भीतर यह प्रवृत्ति पैदा होती है और साथ ही तुम अपनी राय से चिपके नहीं रहते, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से सत्य जानना चाहिए, और फिर परमेश्वर के वचनों में आधार ढूँढ़ना चाहिए—परमेश्वर के वचनों के आधार पर काम करने का तरीका ढूंढो। यही सबसे उपयुक्त और सटीक अभ्यास है। जब तुम सत्य की तलाश करते हो और कोई ऐसी समस्या रखते हो जिस पर सभी लोग संगति करें और सत्य खोजें, तभी पवित्र आत्मा प्रबुद्धता प्रदान करता है। परमेश्वर लोगों को सिद्धांतों के अनुसार प्रबुद्ध करता है। वह लोगों के रवैये का जायजा लेता है। अगर तुम हठपूर्वक अपनी बात पर अड़े रहते हो, फिर चाहे तुम्हारा दृष्टिकोण सही हो या गलत, तो परमेश्वर तुमसे अपना मुँह छिपा लेगा और तुम्हारी उपेक्षा करेगा; वह तुम्हें दीवार से टकराने देगा, तुम्हें उजागर करेगा और तुम्हारी बुरी दशा को जाहिर करेगा। दूसरी ओर, यदि तुम्हारा रवैया सही है, अपने तरीके पर अड़े रहने वाला नहीं है, न ही वह आत्मतुष्ट, मनमाना और उतावला रवैया है, बल्कि सत्य की खोज करने और उसे स्वीकारने का रवैया है, अगर तुम सभी के साथ संगति करते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे बीच कार्य आरंभ करेगा और संभवतः वह तुम्हें किसी की बातों के माध्यम से समझ की ओर ले जाएगा। कभी-कभी जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है, तो वह सिर्फ कुछ शब्दों या वाक्यांशों में ही, या तुम्हें कोई विचार देकर, मामले की तह तक ले जाता है। तुम एक ही क्षण में समझ जाते हो कि जिस धारणा से तुम चिपके रहे हो वह गलत है, और उसी क्षण तुम यह भी समझ जाते हो कि इस काम को सबसे अच्छे तरीके से कैसे किया जा सकता है। इस स्तर तक पहुँचने के बाद, क्या तुम बुराई करने और गलती के परिणाम भुगतने से सफलतापूर्वक बच नहीं जाते हो? क्या यह परमेश्वर की सुरक्षा नहीं है? (बिल्कुल।) इस तरह की चीज को कैसे हासिल किया जाता है? वह तभी प्राप्त होती है, जब तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, और जब तुम आज्ञाकारी हृदय से सत्य की खोज करते हो। जब तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन प्राप्त कर लेते हो और अभ्यास के सिद्धांत निर्धारित कर लेते हो, तो तुम्हारा अभ्यास सत्य के अनुरूप होगा, और तुम परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में सक्षम हो जाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। इसे पढ़ने के बाद, मैंने समझ लिया कि घमंड और मनमानी छोड़ने के लिए सबसे जरूरी है परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना और सत्य को खोजने वाला रवैया रखना। मसले सामने आने पर मैं अपने नजरिये पर अड़ा नहीं रह सकता, बल्कि मुझे अपने भाई-बहनों के साथ चर्चा करनी चाहिए। अगर हम मिलजुलकर समरसता के साथ काम करेंगे तो हमें परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त होता रहेगा। अगर किसी के पास कोई अलग राय हो, तो मुझे पहले उसे मान लेना चाहिए, फिर परमेश्वर से प्रार्थना करके और सत्य को खोजकर सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए। अगर मैं जिद पकड़कर अपनी ही सोच से चिपका रहूँगा, तो मेरे लिए पवित्र आत्मा का कार्य हासिल करने का कोई उपाय नहीं होगा। मैं किसी भी चीज को गहराई से नहीं समझ पाऊँगा और अपने कर्तव्य में रुकावटें पैदा करूँगा। मैं बार-बार सोचता रहा कि किस तरह अपनी घमंडी प्रकृति के कारण, और परमेश्वर को अपने दिल में जगह न देने के कारण मैं इतना बुरा काम कर बैठा था। ऐसा हर चीज का आका और मालिक होने की चाह रखने और दूसरों के साथ ढंग से काम न करने के कारण हुआ था। यह एहसास करके मैंने मन-ही-मन ठान लिया कि मसले सामने आने पर मैं इतना अड़ियल नहीं बनूँगा, बल्कि सत्य सिद्धांतों को खोजकर दूसरों के साथ ज्यादा बातचीत करूँगा। जिस किसी का भी विचार सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगा, मैं उसे सुनूँगा।
इसके बाद मैं एक टीम अगुआ चुना गया और सिंचन-कार्य का प्रभारी बना। मैं वाकई आभारी था और मैंने उस कर्तव्य को बड़े चाव से लिया। मैं खुद को लगातार चेताता रहा कि मुझे अपनी विफलता से सबक सीखना है, और अब मैं अपनी घमंडी प्रकृति के चलते मनमानी नहीं कर सकता। समस्याएँ खड़ी होने पर मैं भाई-बहनों को खोजकर उनसे इस बारे में चर्चा करने की पहल करता था। एक बार मुझे एक अगुआ से एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि हमें सिंचन-कार्य करने के लिए कुछ लोग ढूँढ़ने हैं। इस पर गौर करके मुझे लगा कि बहन सू शिंग इसके लिए सही रहेंगी, लेकिन दूसरों के पहले के आकलन के अनुसार, वे घमंडी प्रकृति की थीं और भाई-बहनों के सुझाव और मदद स्वीकार नहीं करती थीं। इससे मुझे लगा कि वे सत्य को स्वीकार नहीं करेंगी, इसलिए वे ऐसी नहीं हैं, जिन्हें बढ़ावा दिया जाए। यह सब सोचते हुए मुझे यह एहसास हुआ कि मैं फिर से किसी के बारे में मनमानी राय बना रहा हूँ, और मैंने परमेश्वर का एक वचन याद किया : “यदि कोई व्यक्ति अपने निर्णय पर नहीं पहुँचता है, तो यह इस बात का संकेत है कि वह आत्मतुष्ट नहीं है; यदि वह अपने विचारों पर जोर नहीं देता है, तो यह संकेत है कि उसमें समझ है। यदि वह समर्पण भी कर पाता है, तो इसका अर्थ है कि उसने सत्य का अभ्यास कर लिया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पण सत्य प्राप्त करने में बुनियादी सबक है)। मैं जानता था कि मैं दोबारा अपनी बात माने जाने पर जोर नहीं दे सकता, बल्कि मुझे अपने साथ काम कर रहे भाई से बात करके देखना होगा कि उसके क्या सुझाव हैं। जब मैंने उसे अपनी राय बताई, तो उसने जवाब दिया, “इन आकलनों के आधार पर, ऐसा जरूर लगता है कि सू शिंग वाकई घमंडी हैं, लेकिन यह सब उनकी पहले की भ्रष्टता पर आधारित है। हमें नहीं पता कि उन्होंने कोई आत्म-ज्ञान हासिल किया है या नहीं। हमें किसी प्रतिभाशाली इंसान को दबाना नहीं चाहिए, इसलिए चलो उनसे कहें कि वे अपना आत्म-चिंतन लिख कर दे, फिर उनसे निकट संपर्क रखने वाले भाई-बहनों की राय लेंगे। हम इस सब पर गौर करके समझ सकेंगे कि वे इस कर्तव्य के लिए सही उम्मीदवार हैं या नहीं। यह तरीका बेहतर होगा।” मुझे लगा कि उसका सुझाव सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर मैं सिर्फ थोड़े-से भाई-बहनों की पुरानी राय के आधार पर उन्हें आगे बढ़ाने के लिए सही न मानूँ, तो यह मनमानी होगी। हमें गौर करना होगा कि उनमें किस प्रकार का घमंड है। अगर उनमें अकारण, अंधाधुंध घमंड है, और वे सत्य को स्वीकार करना ही नहीं चाहतीं, तो उन्हें पदोन्नति नहीं दी जानी चाहिए। अगर वे घमंडी हैं, लेकिन उनकी मानवता अच्छी है और वे सत्य स्वीकार सकती हैं और अगर काट-छाँट के बाद वे खुद के बारे में जानकर बदल सकती हों, तो यह भ्रष्टता का सामान्य खुलासा होगा। हम दो अलग चीजों को एक ही तरह से नहीं देख सकते। जब हमें सू शिंग का आत्म-चिंतन और दूसरे भाई-बहनों का आकलन मिल गया, तो हमने देखा कि उन्होंने कुछ बदलाव और प्रवेश हासिल किया है, और वे सत्य को स्वीकार कर सकती हैं। हमने सिंचन-कार्य के लिए उनकी सिफारिश कर दी। तभी से, मैं पहले की तरह इतने घमंड और मनमानी से अपने कर्तव्य नहीं निभाता और सिर्फ खुद फैसले नहीं लेता, बल्कि मैं सचेत होकर दूसरों के सुझाव सुनता हूँ। मैं प्रार्थना और सत्य सिद्धांतों की खोज भी करता हूँ। इस प्रकार के अभ्यास से मुझे सुकून मिलता है और कोई पछतावा भी नहीं होता। मुझमें यह बदलाव पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों को पढ़ने से आया है।
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