मनमाने ढंग से काम करने के नतीजे

24 जनवरी, 2022

झाओ यांग, चीन

2016 में मुझे एक कलीसिया-अगुआ के रूप में कार्य करने के लिए चुना गया। वह काम सँभालने पर, शुरू-शुरू में, मैंने बहुत दबाव महसूस किया, चूँकि मुझे सत्य की समझ नहीं थी और मैं चीजों को गहराई से नहीं जानता था, इसलिए जब भाई-बहनों के सामने दिक्कतें आईं, तो मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अपनी संगति से उनकी मदद कैसे करूँ। लोगों को कुछ कामों पर नियुक्त करते समय भी मैं नहीं जानता था कि सिद्धांतों पर कैसे विचार करूँ, इसलिए मैं हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करता, और सिद्धांतों की समझ हासिल करने के लिए सत्य की खोज करता। जब मैं कोई बात ठीक से न समझ पाता, तो अपने सहकर्मियों से सलाह भी लेता। समय के साथ, लोगों और हालात को परखने की मेरी काबिलियत बढ़ गई, और मैं भाई-बहनों को उनकी निजी खूबियों के आधार पर नियुक्त करने में सक्षम हो गया। एक बार, मेरे साथ काम करने वाले एक भाई ने मुझसे सुसमाचार-दल की मुखिया बहन शा के बारे में बताने की कोशिश की कि वह जैसे-तैसे काम निपटा रही है और बहुत ढीली है, और कहा कि वह काम में रोड़े अटका रही है। उसने उसे दल-अगुआ के पद से हटा देने का सुझाव दिया। मैंने मन-ही-मन सोचा कि वह बहुत योग्य और अपने काम में वाकई दक्ष है, इसलिए भले ही वह थोड़ी भ्रष्टता दिखा रही हो, अगर उसे थोड़ी मदद मिल जाए, और वह कुछ बदलाव कर पाए, तो उसे उस पद पर कोई समस्या नहीं होगी। इसलिए मैंने बहन शा की हालत को उजागर करके उसका विश्लेषण किया, और उसकी काँट-छाँट की और उससे निपटा। संगति के कुछ सत्रों के बाद, मैंने देखा कि अपने कर्तव्य को लेकर उसका रवैया थोड़ा बदल गया है। वह ज्यादा पहल कर रही थी और विवेकशील भी थी। थोड़े समय बाद उसे पदोन्नत कर और भी महत्वपूर्ण काम दे दिया गया। इस पर मैंने अपनी पीठ थपथपाई, और सोचा, "मेरा सोचना आखिर सही था। अच्छा हुआ कि हमने उसे बर्खास्त न करके परमेश्वर के घर में एक प्रतिभाशाली इंसान को बढ़ावा दिया। लगता है, मुझे बुरे-भले की अच्छी पहचान हो गई है।" इसके बाद, यह सोचकर कि मैं ज्यादा अनुभवी हूँ, इसलिए हर मसला खुद सँभाल सकता हूँ, मैंने उस भाई के साथ नियुक्तियों और बर्खास्तागियों के बारे में चर्चा करनी बंद कर दी। देखते-देखते दो साल गुजर गए, और मैं कलीसिया के काम के लिए व्यवस्थाएँ करने में और ज्यादा कुशल हो गया। यह सोचकर कि मैं चीजों को गहराई से समझ सकता हूँ, मैं दिनोंदिन ज्यादा से ज्यादा घमंडी होता चला गया।

उस वक्त मुझे यह एहसास नहीं हुआ कि मेरी हालत अच्छी नहीं है। फिर एक दिन एक अगुआ के पास से एक पत्र आया, जिसमें लिखा था कि हमारी कलीसिया की बहन झांग एक दूसरी कलीसिया के काम से बर्खास्त होकर वापस लौट आई है। मुझे उनके लिए सभाओं में भाग लेने की व्यवस्था करनी थी। मैं सोचने लगा कि बहन झांग के साथ अपनी बातचीत के दौरान मैंने देखा था कि वह घमंडी है, लोगों को अपने से नीचा मानकर उन्हें डाँटती-डपटती रहती है, और उसके साथ काम करना मुश्किल है। मुझे लगता था कि वह बिलकुल नहीं बदली। फिर कुछ समय बाद, बहुत-से नए लोग हमारी कलीसिया में शामिल होने वाले थे, जिनके सिंचन के लिए हमें लोगों की जरूरत थी। मेरे साथ काम करने वाले भाई लियू ने कहा कि वह बहन झांग के साथ सभाएँ कर चुका है और बर्खास्त होने के बाद उसने कुछ सच्चा आत्मज्ञान हासिल किया है और प्रायश्चित किया है, साथ ही उसने पहले भी नए सदस्यों का सिंचन किया था और बहुत असरदार रही थी। उसने सुझाया कि उसके आत्मचिंतन के इस दौर में, हमें उसे सिंचन का कुछ काम देना चाहिए ताकि हमारा काम पिछड़ न जाए। जैसे ही उसने बहन झांग का नाम सुझाया, मैं सोचने लगा कि यह तो बहुत खतरनाक खयाल है, यह शख्स उसे बिलकुल नहीं जानता, और बहन झांग सत्य का अनुसरण करने वालों में से नहीं है। उसने बस थोड़ी समझ होने की बात की और इस भाई को लगा कि उसने प्रायश्चित कर लिया है। मुझे यही लगा कि इस भाई में अंतर्दृष्टि नहीं है, और इसे भले-बुरे की जरा भी पहचान नहीं है। मैंने उससे दृढ़ता से कहा, "मैं बहन झांग को जानता हूँ। वह घमंडी है और लोगों को बहुत नीचा दिखाती है। उसके साथ काम करना भी मुश्किल है। इसके अलावा, उसने खुद को सच में नहीं समझा है, न ही वह बदली है, वरना उसे बर्खास्त न किया जाता। मुझे नहीं लगता कि वह इस काम के लिए सही है। हम उसे यह काम नहीं दे सकते।" भाई लियू ने आगे कहा, "हम उससे बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं कर सकते। वह थोड़ी-सी घमंडी जरूर है, लेकिन वह बर्खास्तगी के अपने अनुभव के जरिये अपने बारे में सचमुच जान गई है, और वह अपनी करनी के लिए प्रायश्चित करने में सक्षम रही है। अब वह सँभलकर बोलती है और दूसरों के साथ ठीक से पेश आती है। उसके घमंड में भी थोड़ा बदलाव आया है। हमें लोगों के साथ सही ढंग से पेश आना चाहिए।" उसकी बात सुनकर मुझे थोड़ा गुस्सा आया। मैंने सोचा, यह इस काम में नया है, इसलिए इसे नहीं मालूम कि यह क्या बोल रहा है, इसे बस मेरी बात मान लेनी चाहिए। मैंने और ज्यादा जोर देते हुए कहा, "क्या बहन झांग की हालत बिलकुल स्पष्ट नहीं है? मैं लोगों के बारे में यूँ ही अपनी राय नहीं बना लेता, मैं देख सकता हूँ कि वह उस काम के लिए सही नहीं है, हमें उससे सिंचन का काम नहीं करवाना चाहिए।" मुझे अपनी राय पर अड़ा हुआ देखकर भाई लियू ने और कुछ नहीं कहा।

थोड़ा समय बीत गया, और सिंचन करने वाले लोगों की कमी से कुछ नए सदस्यों ने सभाओं में आना बंद कर दिया, क्योंकि उन्हें समय पर पर्याप्त सहायता नहीं मिली। जब एक अगुआ हमारे काम का जायजा लेने आईं, तो वे भाई लियू के साथ बहन झांग से बात करने गईं, और जब वे लौटकर आए, तो भाई लियू ने कहा, "परमेश्वर के घर को सिंचन करने वाले लोगों की सख्त जरूरत है। हमने देखा है कि बहन झांग को कुछ सच्चा आत्मज्ञान है, और वह प्रायश्चित करने और बदलने को तैयार है। उसे बर्खास्त जरूर किया गया था, लेकिन उसने कभी कोई बहुत बुरा काम नहीं किया था। वह बस थोड़ी घमंडी है, अगर वह सत्य को स्वीकार करके बदल जाए, तो उसे अभी भी विकसित किया जा सकता है। किसी के एक बार के काम को देखकर हम उसे सदा के लिए उसी सीमा में नहीं बाँध सकते। हमने इस बारे में चर्चा की है, और बहन झांग को सिंचन का काम सँभालना चाहिए।" उसे इस पद के लिए बहन झांग की सिफारिश करते देख, मैंने सोचा, "मैं पिछली बार इस बारे में बिलकुल स्पष्ट था, इतने थोड़े-से समय में वह कैसे बदल सकती है? मैं एक लंबे अरसे से अगुआ के रूप में काम कर रहा हूँ, और लोगों को परखना जानता हूँ, इसलिए तुम इस बारे में मेरी बात क्यों नहीं मानते? इस तरह तुम गलती करने से बच सकते हो!" मैंने अपनी राय एक बार फिर काफी जोर देकर दोहराई, मुझे अपनी राय पर अड़ा देख अगुआ ने मुझसे सख्ती से कहा, "हमने बहन झांग को अच्छी तरह से समझ लिया है। हमने उससे बात की है और उसकी संगति सुनी है, उसने आत्म-चिंतन करके कुछ आत्म-ज्ञान पाया है। वह प्रायश्चित करके बदलने को तैयार है। हमें उसे कोई काम करने देना चाहिए—उसे प्रायश्चित करने का मौका मिलना चाहिए। हम लोगों को उनके पिछले बर्ताव के आधार पर सीमा में नहीं बाँध सकते। आप कहते हैं कि वह घमंडी है, लेकिन परमेश्वर के घर में घमंडी लोगों को कब से विकसित नहीं होने दिया गया है? बहन झांग सिंचन के काम के लिए बिलकुल सही है, और अभी इस काम के लिए लोगों की बहुत जरूरत भी है। आप अपनी राय पर अड़े हुए हैं, जबरदस्ती कर रहे हैं कि उसको काम न दिया जाए। क्या यह मनमानी और तानाशाही नहीं है? कलीसिया में लोगों की नियुक्ति आपके जरिये होती है। आपकी स्वीकृति के बिना वे अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते। आप बहुत घमंडी और अक्खड़ हैं। अपनी मनमानी करके क्या आप यह नहीं देख सकते कि आप परमेश्वर के घर के काम और उसके द्वारा प्रतिभाशाली लोगों के विकास में रुकावट पैदा कर रहे हैं?" अगुआ द्वारा मुझसे इस तरह निपटे जाने से मैं परेशान हो गया, लेकिन मेरा विरोध बना रहा। मुझे अब भी लगता था कि मुझे बहुत अनुभव है और मैंने हमेशा लोगों को अच्छी तरह परखा है, इसलिए मैं बहन झांग के बारे में गलत हो ही नहीं सकता। लेकिन, चूँकि सभी मुझसे असहमत थे, इसलिए मैं अपनी बात पर अड़ा नहीं रह सका। इसलिए मैंने अनिच्छा से कहा, "आप दोनों ने उसमें थोड़ा बदलाव देखा है, तो चलिए, उसे सिंचन का एक मौका दे देते हैं। अगर ढंग से काम नहीं हुआ, तो हम उसे हटा देंगे।"

घर पहुँचकर मैंने अगुआ द्वारा मुझे फटकारे जाने के बारे में सोचा और बहुत बेचैनी महसूस की। उसने जो कहा, उसे देखते हुए, क्या मैं बुराई नहीं कर रहा था, परमेश्वर के विरुद्ध काम नहीं कर रहा था? यह सच में बड़ी गंभीर बात है। लेकिन फिर मैंने सोचा, बहन झांग को उस पद पर नियुक्त न करने का फैसला मैंने बहुत सोच-समझकर लिया था, तो फिर उन्होंने मेरे बारे में ऐसी बातें क्यों कीं? मैंने ऐसी कौन-सी गलती कर दी थी? मैंने यह जानने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, इस बहन द्वारा अपनी आलोचना स्वीकार करने में मुझे बड़ी मुश्किल हो रही है। मैं नहीं जानता, इस मामले में खुद को कैसे समझूँ या सत्य के किस पहलू में प्रवेश करूँ। मुझे रास्ता दिखाओ।" प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "'स्‍वेच्‍छाचारी और उतावला' होने का क्‍या अर्थ है? इसका मतलब है कि जब तुम्‍हारा किसी समस्‍या से सामना हो, तो किसी विचार-प्रक्रिया के बगै़र, और दूसरे क्‍या कहते हैं इसकी परवाह किए बिना, उस तरह का आचरण करना जो तुम्हारे हिसाब से ठीक बैठता हो। न तो तुम तक कोई पहुँच सकता है, और न कोई तुम्‍हारा मन बदल सकता है, नतीजतन तुम्‍हें ज़रा भी प्रभावित नहीं किया जा सकता; तुम अपनी अपनी बात पर अड़े रहते हो, और, अगर दूसरे लोग जो कुछ कहते हैं वह मायने भी रखता है, तब भी तुम उसे सुनते नहीं हो, और अपने तरीक़े को ही सही मानते रहते हो। अगर ऐसा हो भी, तब भी क्‍या तुम्‍हें दूसरों के सुझावों पर ध्‍यान नहीं देना चाहिए? फिर भी तुम ध्‍यान नहीं देते। दूसरे लोग तुम्‍हें अड़ियल कहते हैं। कैसे अड़ियल? इस क़दर अड़ियल कि दस बैल भी मिल कर तुम्‍हें डिगा नहीं सकते—पूरी तरह से अड़ियल, अहंकारी और हद दर्जे़ के दुराग्रही, ऐसा अड़ियल जो सत्य को तब तक नहीं देखता, जब तक कि वह तुम्हें घूरने न लगे। क्‍या इस तरह का अड़ि‍यलपन उच्‍छृंखलता के स्‍तर तक नहीं पहुँच जाता? तुम वह करते हो जो करना चाहते हो, जो करने का सोचते हो, और तुम किसी की नहीं सुनते। अगर तुमसे कोई कहे कि जो कुछ तुम कर रहे हो वह सत्‍य के अनुरूप नहीं है, तो तुम कहोगे, 'मैं तो यही करूँगा, वह चाहे सत्‍य के अनुरूप हो या न हो। अगर वह सत्‍य के अनुरूप नहीं है, तो मैं तुम्‍हें अमुक तर्क, या अमुक औचित्‍य प्रदान करूँगा। मैं तुम्‍हें बाध्‍य करूँगा कि तुम मेरी बात सुनो। मैंने यह तय कर लिया है।' दूसरे लोग कह सकते हैं कि तुम जो कर रहे हो वह नुकसान पहुँचाने वाला है, इसके गम्‍भीर नतीजे होंगे, यह परमेश्‍वर के घर के हितों को क्षति पहुँचाएगा—लेकिन तुम उनकी बात पर ध्‍यान देने के बजाय और अधिक तर्क देने लगते हो : 'मैं तो यही कर रहा हूँ, चाहे तुम्‍हें पसंद हो या न हो। मैं इसे इसी तरीके से करना चाहता हूँ। तुम पूरी तरह गलत हो, मैं पूरी तरह सही हूँ।' हो सकता है तुम सचमुच ही सही हो और तुम जो कर रहे हो उसके गंभीर नतीजे न हों—लेकिन यह किस तरह का स्‍वभाव है जिसे तुम उजागर कर रहे हो? (अहंकार।) अहंकारी प्रकृति तुम्‍हें दुराग्रही बनाती है। जब लोगों का ऐसा दुराग्रही स्‍वभाव होता है, तो क्‍या वे स्‍वेच्‍छाचारी और अविवेकी होने की ओर उन्‍मुख नहीं होते?" (परमेश्‍वर की संगति)। "परमेश्वर हर एक व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है? कुछ लोग अपरिपक्व अवस्था वाले या कम उम्र के होते हैं, या उन्होंने सिर्फ़ कुछ समय के लिए परमेश्वर में विश्वास किया होता है। परमेश्वर उन्हें इस ढंग से देख सकता है कि उनका प्रकृति और सार न तो बुरा है और न ही दुर्भावनापूर्ण है; बात बस इतनी है कि वे लोग कुछ हद तक अज्ञानी होते हैं या उनमें क्षमता की कमी होती है, या वे बहुत अधिक बाधाओं के अधीन हैं, और उन्हें अभी सत्य को समझना बाकी है, जीवन में प्रवेश करना बाकी है, और इसलिए उनके लिए कुछ मूर्खतापूर्ण चीजें करने या कुछ नादान हरकतें करने से खुद को रोक पाना मुश्किल है। लेकिन परमेश्वर लोगों के मूर्खता करने पर ध्यान नहीं देता; वह सिर्फ़ उनके दिलों को देखता है। अगर वे सत्य का अनुसरण करने के लिए कृतसंकल्प हैं, तो वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, और अगर यही उनका उद्देश्य है, तो फिर परमेश्वर उन्हें देख रहा है, उनकी प्रतीक्षा कर रहा है, परमेश्वर उन्हें वह समय और अवसर दे रहा है जो उन्हें प्रवेश करने की अनुमति देता है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर उन्हें एक ही झटके में मार गिराता है, न ही ऐसा है कि किसी समय उन्होंने जो अपराध किया था, वह उसे पकड़ कर बैठ जाता है और उसे छोड़ता नहीं है; परमेश्वर ने कभी भी लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया है। इसे देखते हुए, अगर लोग एक दूसरे के साथ इस तरह का व्यवहार करते हैं, तो क्या यह उनके भ्रष्ट स्वभाव को नहीं दर्शाता है? यह निश्चित तौर पर उनका भ्रष्ट स्वभाव है। तुम्हें यह देखना होगा कि परमेश्वर अज्ञानी और मूर्ख लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, वह अपरिपक्व अवस्था वाले लोगों के साथ कैसे पेश आता है, वह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के सामान्य प्रकटीकरण से कैसे पेश आता है, और वह दुर्भावनापूर्ण लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है। परमेश्वर अलग-अलग तरह के लोगों के साथ अलग-अलग ढंग से पेश आता है, और उसके पास विभिन्न लोगों की बहुत सी परिस्थितियों को प्रबंधित करने के भी कई तरीके हैं। तुम्हें इन सत्यों को समझना होगा। एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तब तुम उन्हें अनुभव करने का तरीका जान जाओगे, और लोगों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने लगोगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अपने आसपास के लोगों, विषयों और चीज़ों से सीखना ही चाहिए')। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के आधार पर मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया। मुझे लगा, लोगों की नियुक्ति करने का मुझे पूरा अनुभव है, और सिद्धांतों पर भी मेरी अच्छी पकड़ है। खास तौर से जब मेरा चुना हुआ कोई व्यक्ति अपने काम में सफल होता था, तो मुझे सचमुच ऐसा लगता कि मुझे भले-बुरे की पहचान और परख है। मैं इसका लाभ उठाना चाहता था, और आत्म-प्रशंसा का शिकार होकर किसी दूसरे के सुझाव नहीं सुनता था। जब भाई लियू को बहन झांग के हालात की सही समझ आई, और उसने कहा कि बर्खास्त होने के बाद उसने कुछ आत्म-ज्ञान हासिल किया है, वह प्रायश्चित करके बदलना चाहती है, और मुझे लोगों के साथ न्यायपूर्ण ढंग से पेश आने को कहा, तो मैंने उसकी बात सुनने से इनकार कर दिया। मैंने बहन झांग को जैसा पहले देखा था, उसी के आधार पर उसे वर्गीकृत कर दिया था, यह सोचते हुए कि वह घमंडी है, सत्य का अनुसरण नहीं करती, और वह बदली नहीं है, इसलिए वह सिंचन का काम नहीं कर सकती। लेकिन असल में परमेश्वर ने कभी ऐसा नहीं कहा। परमेश्वर के घर ने चीजों को इस तरह व्यवस्थित नहीं किया है। अगर कोई व्यक्ति सत्य के दर्शन समझ सकता है, और सिंचन के काम में नतीजे हासिल कर सकता है, तो उसे विकसित और प्रशिक्षित किया जा सकता है। परमेश्वर के घर ने गंभीर अपराध करने वाले लोगों को भी कभी एकदम खारिज नहीं किया है। अगर वे सत्य को स्वीकार करके आत्म-चिंतन कर सकते हैं, अपनी गलतियों के लिए प्रायश्चित कर सकते हैं, और बदलने को तैयार हैं, तो परमेश्वर का घर उनका विकास और उपयोग करता रह सकता है। कोई कैसा भी भ्रष्ट स्वभाव दिखाए, या उसने परमेश्वर के घर के कार्य में जो भी बाधा डाली हो, अगर वह दुष्ट या मसीह-विरोधी नहीं है, तो परमेश्वर उसे कोई कर्तव्य निभाने और यथासंभव सीखने का मौका देता है, यही है परमेश्वर का प्रेम और उद्धार। मैंने परमेश्वर का स्वभाव या परमेश्वर के घर में लोगों के साथ पेश आने के सिद्धांत नहीं समझे थे। मैं बहन झांग की खूबियाँ नहीं देख रहा था, और उसने पहले जो भ्रष्टता दिखाई थी, उसे नहीं भूल पा रहा था, और उसके बारे में मनमानी राय बनाते हुए उसे सिंचन का काम देने से इनकार कर रहा था। इससे नए विश्वासियों का समय रहते सिंचन नहीं हो पाया था, और यह परमेश्वर के घर के काम में बाधक था। क्या यह दुष्टता नहीं थी? मैंने पछतावे से भरकर परमेश्वर के सामने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं बहुत घमंडी और अड़ियल हूँ। मैं अब अपने कर्तव्य में मनमानी नहीं करना चाहता। मैं प्रायश्चित करके बदलने को तैयार हूँ।"

फिर अगली बार जब मैं बहन झांग के साथ एक सभा में था, और मैंने उसे अपने आत्म-चिंतन और आत्म-ज्ञान की चर्चा करते हुए सुना, तो मैंने देखा कि उसने बहुत व्यावहारिक ढंग से प्रायश्चित किया था। तब मुझे और भी ज्यादा शर्मिंदगी और अपराध-बोध महसूस हुआ। बहन झांग ने सिंचन का काम हाथ में लेने के बाद गंभीरता से उसकी जिम्मेदारी सँभाली, और उसका सिंचन पाए हुए भाई-बहनों ने प्रगति की। बाद में उसे पदोन्नत करके अनेक कलीसियाओं के सिंचन-कार्य के प्रबंधन का काम सौंपा गया। उसे इतना अच्छा काम करते देखकर मुझे और भी ज्यादा शर्मिंदगी महसूस हुई। अपने इतना अधिक घमंडी होने, मनमाने ढंग से उसे सीमा में बाँधने, उसे काम देने से इनकार करने और परमेश्वर के घर के कार्य में रुकावट पैदा करने पर मुझे खुद से घृणा हुई। मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास सत्य नहीं है, मुझमें चीजों की गहरी समझ नहीं है। मैंने अपने अनुभव से कुछ तरीके और नियम सीखे थे, लेकिन कलीसिया का कार्य सिर्फ उन्हीं के सहारे अच्छे ढंग से नहीं किया जा सकता। उस घटना के बाद, मैं कामों में लोगों की नियुक्ति ज्यादा सावधानी से करने लगा, जब भी मेरी मनमानी सिर उठाती, और मैं अपनी ही बात मनवाना चाहता, तो मैं प्रार्थना करना और अपना अहं छोड़ना न भूलता,, और सत्य का अभ्यास करता, और सभी की बातों पर ध्यान देता।

मुझे लगता था कि इस अभ्यास में मैंने थोड़ा प्रवेश पा लिया है, लेकिन अचरज की बात थी कि बाद में ऐसा कुछ घटित हुआ, जिसने मुझे फिर से उजागर कर दिया। छह महीने बाद, कलीसिया के सामान्य मामले सँभालने वाले कुछ सदस्य अपने परिवारों द्वारा अड़चन पैदा करने के कारण अपने काम पर नहीं आ सके। हमें उनकी जगह सँभालने के लिए लोगों की तुरंत जरूरत पड़ी। मैंने इस मामले पर गौर किया, और कुछ ऐसी बहनों को ढूँढ़ा, जो जिम्मेदार थीं और विभिन्न स्थितियों को सँभाल सकती थीं, मगर उनके साथ सुरक्षा के कुछ खतरे थे। लेकिन मैंने सोचा, चूँकि उन्हें अपने स्थानीय इलाके में कोई काम नहीं करना, इसलिए उनके ये काम सँभालने में कोई दिक्कत नहीं होगी। हमें वाकई ज्यादा लोगों की जरूरत थी, और मुझे उनसे बेहतर उम्मीदवार नहीं मिल पाए थे, इसलिए मैंने फिलहाल उन्हीं को नियुक्त करने और उनसे बेहतर व्यक्ति मिल जाने पर उन्हें बदल देने का फैसला किया। जब मैंने भाई लियू को बताया कि मैं कलीसिया के सामान्य मामलों का काम बहन झाओ को देना चाहता हूँ, तो उसका जवाब था, "लोगों को चुनते समय हमें सिद्धांतों का पूरी तरह से पालन करना होगा। अगर सुरक्षा का खतरा है, तो वे कलीसिया के लिए काम नहीं कर सकतीं। मुझे नहीं लगता, इस काम के लिए बहन झाओ सही रहेंगी। हमें सिद्धांतों पर चलना होगा।" यह देखकर कि वह उस समूह में शामिल नहीं है, मैंने अहसमति जताई और कहा, "क्या हमें तुरंत जरूरत नहीं है? क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तुम कुछ ज्यादा ही डर रहे हो? यह सच है कि वे अपने शहर में एक विश्वासी के रूप में जानी जाती हैं, लेकिन पुलिस द्वारा उसकी जाँच-पड़ताल हुए बरसों बीत गए हैं। यही नहीं, उसमें हिम्मत और बुद्धि है। मैं उसके बारे में यह जानता हूँ। मुझे नहीं लगता, हमारे पास उससे बेहतर कोई उम्मीदवार है। 10 दिन से ज्यादा हो गए हैं, और यह काम सँभालने के लिए मुझे कोई नहीं मिल पाया है। हम अपने काम में आँख मूँदकर नियमों का पालन नहीं कर सकते।" उसने मेरी बात सुनी, और फिर जोर देकर बोला, "खतरे वाले किसी व्यक्ति को नियुक्त करना सिद्धांतों का उल्लंघन है। हमें पहले सुरक्षा को ध्यान में रखना होगा।" मैंने उसकी बात पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया, और बहन झाओ को लेने पर अड़ा रहा। इसके बाद मैंने पत्र पहुँचाने के काम के लिए बहन लियू को लिया, जिसके साथ भी सुरक्षा का खतरा था। जल्दी ही कम्युनिस्ट पार्टी ने आवासीय पंजीकरण की जाँच करने की आड़ में विश्वासियों की जाँच-पड़ताल शुरू कर दी। बहन झाओ परमेश्वर की विश्वासी के रूप में विख्यात थीं, इसलिए वे शक और निगरानी के दायरे में आ गईं, क्योंकि वे अपने किराये के घर से आ-जा रही थीं और अपना पहचान-पत्र नहीं दिखा पाई थीं। फिर वे कलीसिया के मामले सँभालने वाले जिस दूसरे व्यक्ति के संपर्क में थीं, उसे भी फँसाकर निगरानी में डाल दिया गया, नतीजा यह हुआ कि कई विभिन्न कलीसियाओं से हमारे संपर्क पर असर पड़ गया। 20 से भी ज्यादा दिन तक सबका संपर्क टूट गया, जिससे कुछ फौरन किए जाने वाले काम अटक गए। यहाँ तक कि इन घटनाओं के असर से निपटने के कुछ काम भी पूरे नहीं हो सके।

जब अगुआ ने इस बारे में सुना, और उन्हें पता चला कि मैंने सुरक्षा के खतरे वाले व्यक्तियों को नियुक्त करने पर जोर दिया था, तो वे मुझसे बड़ी सख्ती से निपटीं : "आप फिर से घमंड में पड़कर मनमानी कर रहे हैं। आप अपने कर्तव्य में हमेशा मनमानी करते हैं, और सिद्धांतों के खिलाफ जाते हैं। इस बार इससे परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीर नुकसान पहुँचा है। आपने वह किया है जो बड़ा लाल अजगर करना चाहता है, पर अपने-आप नहीं कर पाता। क्या यह शैतान के नौकर की तरह काम करना नहीं है, परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालकर उसे नुकसान पहुँचाना नहीं है? आपके लगातार ऐसा बर्ताव करने के आधार पर हमने आपको आपके काम से हटाने का फैसला किया है।" यह सुनकर मुझे लगा, जैसे मेरे चेहरे पर जोर का थप्पड़ पड़ा हो, मैं बिलकुल सन्न रह गया। मुझे लगा, "सब खत्म हो गया। मैंने बहुत बुरा काम किया है। जो भाई-बहन फँस गए हैं, अगर वे गिरफ़्तार हो गए तो क्या होगा? अगर ऐसा हुआ, तो मैंने सच में बहुत भयंकर काम किया है।" इस बारे में मैंने जितना सोचा, मुझे उतना ही डर लगा। मैं अपराध-बोध से भर गया। मुझे लगा जैसे मेरे दिल पर छुरी चल गई है, मुझमें कुछ भी करने का जोश नहीं रहा। मैं रात-दिन इसी दुख में जी रहा था, परमेश्वर से प्रार्थना कर रहा था, और बार-बार अपने बुरे कामों को स्वीकार कर रहा था : "हे परमेश्वर, मैं बहुत घमंडी, बहुत दंभी हूँ। मेरी मनमानी ने परमेश्वर के घर के कार्य को बहुत ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। तुम जो भी दंड मुझे देना चाहो, मैं उसे स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ, बस उन भाई-बहनों को गिरफ्तारी से बचा लो।" बाद में मुझे पता चला कि समय रहते कलीसिया के उन सदस्यों का तबादला कर दिया गया था और वे गिरफ्तारी से बच गए थे। आखिरकार मैंने राहत की साँस ली।

इस सच्चाई के बाद, मैंने आत्म-चिंतन किया। मैं हमेशा अपने काम में इतनी मनमानी क्यों करता हूँ? यह चीज मुझमें कैसे पैदा हुई? मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े, "केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है।" "अगर तुम्हारे भीतर वाकई सत्य है, तो जिस मार्ग पर तुम चलते हो वह स्वाभाविक रूप से सही मार्ग होगा। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारे भीतर अहंकार और दंभ मौजूद हुआ, तो तुम परमेश्वर की अवहेलना करने से खुद को रोकना असंभव पाओगे; तुम्हें महसूस होगा कि तुम उसकी अवहेलना करने के लिए मज़बूर किये गये हो। तुम ऐसा जानबूझ कर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे और अंततः परमेश्वर के स्थान पर बैठाएंगे और स्वयं के लिए गवाही दिलवाएंगे। तुम आराधना किए जाने हेतु सत्य में अपने स्वयं के विचार, अपनी सोच, और अपनी स्वयं की धारणाएँ बदल लोगे। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। मैं परमेश्वर के वचनों से समझ पाया कि बार-बार अपने काम में मनमानी करने की आदत मेरे घमंडी होने और आत्म-मुग्ध प्रकृति के काबू में होने का नतीजा थी। अपनी ऐसी प्रकृति के कारण मैं बुरे काम और परमेश्वर का प्रतिरोध किए बिना नहीं रह पाता था। मैं उसी के नियंत्रण में था, इसलिए खुद को बहुत बड़ा समझता था, मुझे लगता था कि मैं बाकी सबसे बेहतर हूँ, मैं हर किसी से ज्यादा सही हूँ, इसलिए कलीसिया के मामलों में मेरा फैसला ही चलना चाहिए। किसी मामले में मन बना लेने के बाद मैं उसे किसी और तरीके से देखने से इनकार कर देता था, और किसी की नहीं सुनता था। मैं यह तक चाहता था कि लोग मेरे विचारों का इस तरह पालन करें, मानो वे सत्य-सिद्धांत हों। मैं जानता था कि वे दो बहनें सुरक्षा के लिए खतरा हैं और उन्हें वे काम नहीं करने चाहिए, और इसे लेकर मेरे मन में भी खटका था, लेकिन फिर भी मैं खुद को एक तरफ रखकर परमेश्वर की इच्छा का पता नहीं लगा सका। मैंने अन्य किसी की चेतावनी नहीं सुनी, और पवित्र आत्मा की फटकार और मार्गदर्शन की भी अनदेखी की। मैंने बेवकूफी से उन दो महिलाओं को काम पर लगाया जो सुरक्षित नहीं थीं, और परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीर नुकसान पहुँचाया। अगर मुझमें सत्य को खोजने की जरा भी इच्छा होती, अगर मैंने भाई लियू के सुझाव सुने होते, तो ऐसे भयानक नतीजे न हुए होते। इन सब बातों का एहसास होने पर मुझे बहुत ज्यादा पछतावा और अपराध-बोध हुआ, मुझे अपने घमंड और मनमानी से घृणा हो गई। कम्युनिस्ट पार्टी कभी भी परमेश्वर के कार्य को कमजोर करने का काम बंद नहीं करती, और उसके चुने हुए लोगों का दमन करने और उन्हें गिरफ्तार करने के लिए हर तरह की चाल चलती है। मैंने मनमाने तरीके से असुरक्षित लोगों को काम पर नियुक्त करने का फैसला करके सिद्धांतों का उल्लंघन किया था, जिससे कलीसिया के दूसरे सदस्य भी निगरानी में रख दिए गए थे। क्या यह परोक्ष रूप से शैतान की तरफ से काम करना नहीं था, परमेश्वर के कार्य को नष्ट करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के सहायक के रूप में काम करना नहीं था? अगर परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा नहीं मिली होती, तो उन भाई-बहनों को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया होता। तब मैंने सच में बहुत बड़ा बुरा काम किया होता। इस विचार ने मुझे बहुत ज्यादा डरा दिया। कलीसिया ने मुझे एक अगुआ के रूप में काम करने का मौका दिया था, और इसमें परमेश्वर की इच्छा यह थी कि मैं सत्य का अभ्यास करके सिद्धांतों के अनुसार काम करूँ, भाई-बहनों को उनके उपयुक्त पद देने की व्यवस्था करूँ। इस तरह वे अपनी खूबियों का प्रयोग करके अच्छे कर्म कर सकेंगे। लेकिन मैंने सोचा, एक अगुआ के रूप में थोड़ा अनुभव पाकर मैं कोई खास इंसान बन गया हूँ। मैंने दूसरों को कुछ खास नहीं समझा, और मेरे दिल में परमेश्वर तो था ही नहीं। यहाँ तक कि मैं परमेश्वर के घर के सत्य-सिद्धांतों को भी गंभीरता से नहीं ले रहा था, बल्कि मैंने वही किया जो मैं चाहता था। मैं इस हद तक घमंडी था कि मैंने अपनी पूरी समझ गँवा दी। मैंने उन सभी मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा, जिन्हें कलीसिया से निकाल दिया गया था। वे बहुत ज्यादा घमंडी थे, परमेश्वर की अवमानना करते थे और परमेश्वर के घर के सत्य-सिद्धांतों की अवहेलना करते थे। वे तानाशाह थे, और अपने काम में मनमानी करते थे, परमेश्वर के घर के कार्य में गंभीर रुकावट डालते थे। आखिरकार, उन लोगों ने इतने बुरे काम किए कि उन्हें कलीसिया से निकाल दिया गया। मैं जानता था कि अगर मेरा घमंडी स्वभाव ठीक नहीं हुआ, तो देर-सवेर मैं एक मसीह-विरोधी के रास्ते पर चल पड़ूँगा, और परमेश्वर मुझे हटा देगा। उस वक्त, मैं अपनी घमंडी प्रकृति के साथ जीने के खयाल से बहुत डर गया था। इतना बुरा काम करने के बावजूद परमेश्वर के घर ने मुझे अभी तक बाहर नहीं निकाला था, सिर्फ मुझे मेरे काम से हटाया था, और परमेश्वर ने मुझे अपने वचनों से प्रबुद्ध करके रास्ता भी दिखाया था, मुझे सोच-विचारकर खुद को जानने, प्रायश्चित करने और खुद को बदलने का मौका दिया था। मैं सच में परमेश्वर के प्रेम का अनुभव कर पा रहा था, और मुझे बहुत पछतावा हुआ। मैं प्रायश्चित करने और बदलने को तैयार था। इसके बाद, मैंने सचेत होकर अभ्यास और उसमें प्रवेश करने का तरीका खोजने की कोशिश की, ताकि मैं खुद को बदल सकूँ।

मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "तब तुम अपने स्वेच्‍छाचार और अविवेक का समाधान कैसे करते हो? जब तुम्‍हारे मन में कोई विचार होता है, तुम उसे दूसरों को बताओ और कहो कि तुम इस मसले पर क्‍या सोचते हो और क्‍या विश्‍वास करते हो, और फिर, तुम हर किसी से इसके बारे में बात करो। सबसे पहले, तुम अपने दृष्टिकोण पर रोशनी डाल सकते हो और सत्‍य को जानने की कोशिश कर सकते हो; स्‍वेच्‍छाचारी और अविवेकी होने के स्‍वभाव पर विजय पाने के लिए यह पहला क़दम है जिसे तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए। दूसरा क़दम तब होता है जब दूसरे लोग अपनी असहमतियों को व्‍यक्‍त करते हैं—ऐसे में स्‍वेच्‍छाचारी और अविवेकी होने से बचने के लिए तुम किस तरह का अभ्यास कर सकते हो? पहले तुम्हारा रवैया विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे बगल में रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम अपने तरीके को सही मानो, तुम्‍हें उस पर ज़ोर नहीं देते रहना चाहिए। यह, सर्वप्रथम, एक तरह की प्रगति है; यह सत्‍य की खोज करने, स्‍वयं को नकारने और परमेश्‍वर की इच्‍छा पूरी करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। जैसे ही तुम्‍हारे भीतर यह प्रवृत्ति पैदा होती है, उस समय तुम अपनी धारणा से चिपके नहीं रहते, तुम प्रार्थना करते हो। चूँकि तुम सही और गलत का भेद नहीं जानते, इसलिए तुम परमेश्वर को अवसर देते हो कि वह तुम्‍हें उजागर करे और बताए कि करने लायक सबसे श्रेष्‍ठ और सबसे उचित कर्म क्‍या है। जैसे-जैसे संगति में हर कोई शामिल होता है, पवित्र आत्‍मा तुम सभी को प्रबुद्धता प्रदान करता है। परमेश्वर लोगों को एक प्रक्रिया के अनुसार प्रबुद्ध करता है, जो कभी-कभी मात्र तुम्हारे रवैये की परख करती है। यदि तुम्हारा रवैया कठोर स्वाग्रह का रवैया है, तो परमेश्वर तुमसे अपना मुँह छिपा लेगा और तुम पर अपना दरवाजा बंद कर देगा; वह तुम्हें उजागर करेगा और तुम्हारा दीवार से टकराना सुनिश्चित करेगा। दूसरी ओर, यदि तुम्हारा रवैया सही है, अपने तरीके पर अड़े रहने वाला नहीं है, न ही वह दंभी, मनमाना और अंधाधुंध रवैया है, बल्कि सत्य की खोज और उसे स्वीकार करने का रवैया है, तो समूह के साथ संगति करने पर और पवित्र आत्मा द्वारा तुम्हारे बीच कार्य आरंभ करने पर संभवतः वह तुम्हें किसी के वचनों के माध्यम से समझ की ओर ले जाएगा। कभी-कभी जब पवित्र आत्मा किसी व्यक्ति को प्रबुद्ध करता है, तो वह सिर्फ कुछ शब्दों या वाक्यांशों में ही तुम्हें मामले की तह तक ले जाता है। तुम एक ही क्षण में समझ जाते हो कि जिस बात से तुम चिपके रहे हो वह गलत है, और उसी क्षण तुम यह भी समझ जाते हो कि इस काम को सबसे अच्छे तरीके से कैसे किया जा सकता है। इस स्तर तक पहुँचने के बाद, क्या व्यक्ति कुछ बुरा करने, गलत रास्ते पर चलने, और कोई गलती का परिणाम भुगतने से सफलतापूर्वक बच गया है? इस तरह की चीज को कैसे हासिल किया जाता है? इसे एक ऐसे हृदय से हासिल किया जाता है जो आज्ञापालन और खोज करता है। एक बार जब तुम इसे हासिल कर लेते हो तो इसके बाद तुम सही तरीके से कार्य करोगे और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर सकोगे" (परमेश्‍वर की संगति)। इसे पढ़ने के बाद, मैंने समझ लिया कि घमंड और मनमानी छोड़ने के लिए सबसे जरूरी है परमेश्वर के प्रति एक श्रद्धा-भरा दिल और सत्य को खोजने वाला रवैया रखना। मसले सामने आने पर मैं अपने नजरिये पर अड़ा नहीं रह सकता, बल्कि मुझे दूसरों के साथ चर्चा करनी चाहिए, और अगर किसी के पास कोई अलग राय हो, तो मुझे पहले उसे मान लेना चाहिए, फिर परमेश्वर से प्रार्थना करके और सत्य को खोजकर सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए। मुझे भाई-बहनों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग करना चाहिए। परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने का यही तरीका है। अगर मैं जिद पकड़कर अपनी ही सोच से चिपका रहूँगा, तो मेरे लिए पवित्र आत्मा का कार्य हासिल करने का कोई उपाय नहीं होगा। मैं किसी भी चीज को गहराई से नहीं समझ पाऊँगा और अपने काम में रुकावटें पैदा करूँगा। मैंने सोचा, किस तरह मैंने अपनी घमंडी प्रकृति के कारण, और परमेश्वर को अपने दिल में जगह न देकर इतना बुरा काम किया था। ऐसा हर चीज का आका और मालिक होने की चाह रखने और दूसरों के साथ ढंग से काम न करने के कारण हुआ था। यह एहसास करके मैंने मन-ही-मन ठान लिया कि मसले सामने आने पर मैं इतना अड़ियल नहीं बनूँगा, बल्कि दूसरों को खोजकर उनसे ज्यादा बातचीत करूँगा। जिस किसी का भी विचार सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप होगा, मैं उसे सुनूँगा।

इसके बाद कलीसिया ने मुझे एक सिंचन-दल के अगुआ का काम सौंपा। मैं वाकई आभारी था और मैंने उस काम को बड़े चाव से लिया। मैं खुद को लगातार चेताता रहा कि मुझे अपनी विफलता से सबक सीखना है, और अब मैं अपनी घमंडी प्रकृति के चलते मनमानी नहीं कर सकता। समस्याएँ खड़ी होने पर मैं भाई-बहनों को खोजकर उनसे इस बारे में चर्चा करता। एक बार मुझे एक अगुआ से एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि हमें सिंचन का काम करने के लिए कुछ लोग ढूँढ़ने हैं। इस पर गौर करके मुझे लगा कि बहन सू इसके लिए सही रहेंगी, लेकिन दूसरों के आकलन के अनुसार, वे घमंडी प्रकृति की थीं और भाई-बहनों के सुझाव और मदद स्वीकार नहीं करती थीं। इससे मुझे लगा कि वे सत्य को स्वीकार नहीं करेंगी, इसलिए वे ऐसी नहीं हैं, जिन्हें बढ़ावा दिया जाए। फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से किसी के बारे में मनमानी राय बना रहा हूँ, और मैंने परमेश्वर का एक वचन याद किया : "किसी निर्णय पर न पहुँचना उन लोगों की अभिव्यक्ति है जो दंभी नहीं होते और अड़ियल न होना तर्क-युक्त लोगों की अभिव्यक्ति है; इसके अलावा, यदि तुम आज्ञापालन कर पाते हो, तो तुम सत्य को अभ्यास में लाने में सफल हो पाओगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्‍वर की आज्ञा मानना सत्‍य को प्राप्‍त करने का बुनियादी सबक है')। मैं जानता था कि मैं दोबारा अपनी बात माने जाने पर जोर नहीं दे सकता, बल्कि मुझे अपने साथ काम कर रहे भाई से बात करके देखना होगा कि उसका क्या कहना है। जब मैंने उसे अपनी राय बताई, तो उसने जवाब दिया, "इन आकलनों के आधार पर, ऐसा जरूर लगता है कि बहन सू वाकई घमंडी हैं, लेकिन मैंने देखा है कि यह सब उनकी पहले की भ्रष्टता पर आधारित है। हमें नहीं पता कि उन्होंने कोई आत्म-ज्ञान हासिल किया है या नहीं। हमें किसी प्रतिभाशाली इंसान को दबाना नहीं चाहिए, इसलिए चलो उनसे कहें कि वे अपना आत्म-चिंतन लिख कर दे, फिर उनसे निकट संपर्क रखने वाले भाई-बहनों की राय लेंगे। हम इस सब पर गौर करके समझ सकेंगे कि वे इस काम के लिए सही उम्मीदवार हैं या नहीं। यह तरीका बेहतर होगा।" मुझे लगा कि उसका सुझाव सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर मैं सिर्फ थोड़े-से भाई-बहनों की राय के आधार पर उन्हें आगे बढ़ाने के लिए सही न मानूँ, तो यह जल्दबाजी होगी। हमें गौर करना होगा कि उनमें किस प्रकार का घमंड है। अगर उनमें अकारण, अंधाधुंध घमंड है, और वे सत्य को स्वीकार करना ही नहीं चाहतीं, तो उन्हें वह काम नहीं सौंपना चाहिए। अगर उनमें कुछ काबिलियत है, मगर वे घमंडी हैं, और अगर काँट-छाँट और निपटान के बाद वे खुद के बारे में जानकर बदल सकती हों, तो यह सामान्य भ्रष्टता होगी। इसके अलावा, उनके बारे में ये सब बताने वाले लोग पहले उनके साथ काम कर चुके हैं, इसलिए हमें देखना होगा कि उनके साथ संपर्क में रहे लोग अब क्या कहते हैं। एक व्यापक नजरिया अपनाना ज्यादा सही होगा। जब हमें बहन सू का आत्म-चिंतन और दूसरे भाई-बहनों का आकलन मिल गया, तो हमने देखा कि उन्होंने कुछ अभ्यास और प्रवेश हासिल किया है, और वे सत्य का अनुसरण करती हैं। हमने सिंचन के काम के लिए उनकी सिफारिश कर दी। तब से, जब मुझे किसी निश्चित काम के लिए किसी को चुनने की जरूरत होती है, तो मैं घमंड के साथ अपनी मनमानी करके खुद फैसला नहीं करता, बल्कि दूसरों के सुझाव लेने और उन पर ध्यान देने का रवैया अपनाता हूँ। मैं प्रार्थना और सत्य-सिद्धांतों की खोज भी करता हूँ। इस प्रकार के अभ्यास से मुझे सुकून मिलता है और कोई पछतावा भी नहीं होता। मुझमें यह बदलाव पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना के कारण आया है।

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