मैं अपनी आस्था में सच्ची नहीं थी
मेरा परिवार हमेशा से बहुत गरीब था, मैं एक बैंक अधिकारी बनने और समाज में रुतबा रखने के सपने देखा करती थी, ताकि हमें पैसों की किल्लत न रहे। पढ़ाई पूरी करने के बाद काम की तलाश में, मैंने कई जगह अपना रेज्यूमे भेजा, मगर बड़ी मुश्किलों का सामना करने पर भी मुझे अपनी पसंद की नौकरी नहीं मिली। बस साधारण-सी और कम वेतन वाली नौकरी ही मिलती थी।
2019 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा, और कुछ समय बाद कलीसिया में सिंचन का कार्य करने लगी। मैं सोचती थी, अगर मैंने परमेश्वर के लिए अच्छा काम किया, तो वह मुझे ज़रूर आशीष देगा और अच्छी नौकरी ढूंढने में मेरी मदद करेगा। इसलिए, अपना कर्तव्य निभाते हुए कई जगह रेज्यूमे भी भेजती रही। फिर, जून 2021 में मुझे एक कंपनी के प्रतिनिधि का कॉल आया, उसने मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया था। मैंने ऑनलाइन जाकर उस संगठन के बारे में पढ़ा, तो पाया कि यह एक मल्टीनेशनल कंपनी है, और इसके सीईओ दुनिया भर में निवेश कर रहे हैं। उनका एक बहुत बड़ा बैंक था जिसके लिए काम करने की मेरी तमन्ना थी, मगर उनके साथ इंटरव्यू की बात कभी बनी नहीं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि कंपनी मुझे इंटरव्यू के लिए खुद बुलाएगी। यह एक सुखद आश्चर्य था। लगा जैसे परमेश्वर मुझे यह मौका दे रहा है, उस मल्टीनेशनल कंपनी में काम करना, मेरे लिए परमेश्वर की आशीष होगी। मैंने मन-ही-मन कहा कि इस बार मैं ज़रूर कामयाब रहूँगी और मैनेजर की सैलरी पाऊँगी क्योंकि परमेश्वर मेरी मदद करेगा। मैं रोमांचित थी कि आखिर मुझे मेरे सपनों की नौकरी पाने का मौका मिल रहा था, इससे मेरी मास्टर्स की डिग्री भी सार्थक हो जाएगी, जिसके लिए मैंने काफी मेहनत की थी। मैं सोचने करने लगी कि आने वाले समय में मेरी जिंदगी कितनी बदल जाएगी, मेरे पास बहुत-से पैसे होंगे, अपना घर होगा, अपनी पसंद की कोई भी चीज खरीद पाऊँगी। मैं दुनिया भर में घूम पाऊँगी, अपने परिवार और खासकर अपने माता-पिता की देखभाल कर पाऊँगी। मुझे लगा यहां काम पर लग गई, तो सब कुछ बेहतर हो जाएगा। इंटरव्यू में, मैंने देखा कि वहां तीन उम्मीदवार थे, मुझे डर लगने लगा कि शायद मेरा चयन नहीं होगा, मगर मैंने खुद को समझाया, "नहीं, यह नौकरी मुझे ही मिलेगी। मैं परमेश्वर की संतान हूँ, वह मुझे आशीष ज़रूर देगा। चाहे जो भी हो, परमेश्वर मेरे लिए इस जगह को सुरक्षित रखेगा।" मुझे अपनी काबिलियत पर भी थोड़ा भरोसा था। इंटरव्यू में, मैंने सभी सवालों के जवाब दिये, इंटरव्यू लेने वाले ने मुझसे कहा कि अगर मैं कामयाब रही तो वे मुझे पाँच दिनों में कॉल करेंगे। मुझे विश्वास था कि मेरा चयन हो जाएगा। पाँच दिनों के बाद, मैं बेसब्री से उस कॉल का इंतज़ार करने लगी, दिन बीत गया पर कोई कॉल नहीं आई। एक हफ्ता गुज़र गया, फिर भी उनकी कॉल नहीं आई। मैं समझ गई कि मैं इंटरव्यू में कामयाब नहीं हो पाई। मेरा दिल टूट गया और मैं खुद से सवाल करने लगी, मुझमें क्या कमी थी, मैं कामयाब क्यों नहीं हुई। मैंने परमेश्वर पर भरोसा करके उससे प्रार्थना की थी, फिर मुझे कामयाबी क्यों नहीं मिली? मैं बहुत निराश और कमज़ोर महसूस कर रही थी, फिर मैं परमेश्वर को दोष देने लगी। मैं दो सालों से विश्वासी हूँ, इस दौरान अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया है। मैं कभी परमेश्वर से दूर नहीं गई, कभी अपने कर्तव्य से मुँह नहीं मोड़ा। फिर उसने मुझे अनुग्रह और आशीष क्यों नहीं दिए? मैं इतनी उदास और दुखी हो गई, कि पूरे हफ़्ते सभाओं में नहीं गई और परमेश्वर के वचन पढ़ना भी बंद कर दिया। जब भाई-बहन मुझसे संपर्क करते, तो मैं बहुत नाराज़ हो जाती, जवाब देने या उनसे बात करने का मन नहीं होता। मैं कुछ करना या घर से निकलना नहीं चाहती थी। मैंने सुसमाचार के प्रचार का काम और भाई-बहनों के साथ परमेश्वर के वचन साझा करना भी बंद कर दिया। दिन भर अपने कमरे में बंद रहती, कोई प्रेरणा नहीं, कोई लक्ष्य नहीं, भूख-प्यास भी खत्म हो गई थी। कुछ ही दिनों में मेरा वजन भी कम हो गया।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना : "इम्तहान में परमेश्वर को इंसान का सच्चा दिल चाहिए।" "जब परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेता है, तो परमेश्वर किस प्रकार की वास्तविकता की रचना करना चाहता है? परमेश्वर लगातार चाहता है कि लोग उसे अपना हृदय दें। जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता है, तब वह देखता है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर के साथ है, शरीर के साथ है, या शैतान के साथ है। जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता है, तब परमेश्वर देखता है कि तुम परमेश्वर के विरोध में खड़े हो या तुम ऐसी स्थिति में खड़े हो जो परमेश्वर के अनुरूप है, और वह यह देखता है कि तुम्हारा हृदय उसकी तरफ है या नहीं। जब तुम अपरिपक्व होते हो और परीक्षणों का सामना कर रहे होते हो, तब तुम्हारा आत्मविश्वास बहुत ही कम होता है, और तुम्हें ठीक से पता नहीं होता कि वह क्या है जिससे तुम परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर सकते हो, क्योंकि तुम्हें सत्य की एक सीमित समझ है। लेकिन अगर तुम ईमानदारी और सच्चाई से परमेश्वर से प्रार्थना करो, परमेश्वर को अपना हृदय देने के लिए तैयार हो जाओ, परमेश्वर को अपना अधिपति बना सको, और वे चीज़ें अर्पित करने के लिए तैयार हो जाओ जिन्हें तुम अत्यंत बहुमूल्य मानते हो, तो तुम पहले ही उसे अपना दिल दे चुके हो। जब तुम अधिक धर्मोपदेश सुनोगे, और अधिक सत्य समझोगे, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद भी धीरे-धीरे परिपक्व होता जाएगा। इस समय तुमसे परमेश्वर की वे अपेक्षाएँ नहीं होंगी जो तब थीं जब तुम अपरिपक्व थे; उसे तुमसे अधिक ऊँचे स्तर की अपेक्षा होगी। जैसे-जैसे लोग परमेश्वर को अपना हृदय देते हैं, वह परमेश्वर के निकटतर आते हैं; जब लोग सचमुच परमेश्वर के निकट आ जाते हैं, तो उनका हृदय परमेश्वर के प्रति और भी अधिक श्रद्धा रखने लगता है। परमेश्वर को ऐसा ही हृदय चाहिए" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। मैं समझ गई कि जब परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेता है, तो वह उनके दिलों को परखता है कि उन्हें किस बात की फ़िक्र है, वे परमेश्वर द्वारा बनाये गए माहौल में उसके प्रति समर्पित होते हैं या नहीं। अपना दिल उसे सौंपने के बजाय, मैं अपनी इच्छापूर्ति के लिए उसका इस्तेमाल करने की सोच रही थी। जब मुझे अपनी पसंद की नौकरी, पैसा और सांसारिक सुख नहीं मिला, तो मैं कमज़ोर हो गई, सभाओं में शामिल होना या अपना कर्तव्य निभाना भी नहीं चाहती थी। यह परमेश्वर से विश्वासघात है, मैं उन हालत में परमेश्वर के लिए गवाही देने का मौका खो रही थी। इसलिए मैंने प्रार्थना की, "सर्वशक्तिमान परमेश्वर, तुमने दिखाया कि तुम्हारे प्रति मेरी निष्ठा सच्ची नहीं। मैंने तुम्हारे लिए गवाही नहीं दी या तुम्हारे प्रति समर्पित नहीं हुई। परमेश्वर, मुझ पर दया करो। मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ।"
प्रार्थना के बाद मुझे बहुत शांति मिली, फिर मैंने दूसरों के संदेशों का जवाब भी दिया। एक बहन ने मेरी हालत के बारे में पूछा, तो मैंने उसे अपनी आपबीती के बारे में सब बताया। उसने मुझे परमेश्वर के वचन भेजे : "ऐसा कोई इंसान नहीं होता जिसका पूरा जीवन दुखों से मुक्त हो। किसी को पारिवारिक परेशानी, किसी को काम-धंधे की, किसी को शादी-विवाह की और किसी को शारीरिक–व्याधि की परेशानी। हर कोई कष्ट झेलता है। कुछ लोग कहते हैं, 'लोगों को कष्ट क्यों उठाना पड़ता है? अगर हमारा पूरा जीवन सुख-शांति से बीतता, तो कितना अच्छा होता। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दुख ही न आएँ?' नहीं—सभी को दुख भोगने होंगे। दुख इंसान को जीवन की असंख्य संवेदनाओं का अनुभव कराते हैं, फिर चाहे ये संवेदनाएं सकारात्मक हों, नकारात्मक हों, सक्रिय हों या निष्क्रिय हों; दुख तुम्हारे अंदर तरह-तरह के एहसास और समझ पैदा करता है, जो तुम्हारे पूरे जीवन का अनुभव होते हैं। यदि तुम सत्य की खोज करके इनसे परमेश्वर की इच्छा का पता लगा सको, तो तुम उस मानक के करीब पहुँच जाओगे, जिसकी परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है। यह एक पहलू है और यह लोगों को अधिक अनुभवी बनाने के लिए भी है। दूसरा पहलू वह जिम्मेदारी है जो परमेश्वर मनुष्य को देता है। कौन-सी जिम्मेदारी? तुम्हें इस पीड़ा से गुजरना होगा, इस पीड़ा को सहना होगा, और यदि तुम इसे सह पाओ, तो यह गवाही है, कोई शर्मनाक चीज नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपनी धारणाओं का समाधान करके ही कोई परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश कर सकता है (1)')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि हर कोई जीवन में संघर्ष करता है, चाहे वह विश्वासी हो या न हो, तकलीफ जीवन का एक हिस्सा है। ऐसा नहीं है कि तकलीफ का कोई मोल नहीं। यह मेरा अनुभव बढ़ा सकता है, मुझे परमेश्वर के करीब ला सकता है। मैं सत्य की खोज करने और परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए उसके पास आ सकती हूँ। शैतान द्वारा गहराई तक भ्रष्ट होकर, हम सब लालची हो गए हैं, वैभव की चाह रखते हैं, रुतबे और अच्छे भविष्य के पीछे भागते हैं, सत्य से प्रेम नहीं करते। अगर हम ऐशो-आराम की जिंदगी जीते रहे, तो परमेश्वर से दूर हो जाएंगे, अधिक से अधिक ऐयाश होते जाएंगे। मैंने जाना कि परमेश्वर ने मेरे साथ यह सब इसलिए होने दिया क्योंकि वह प्रार्थना में मुझे अपने पास लाना चाहता था, ताकि मैं सत्य खोजूँ, परमेश्वर में सच्ची आस्था हासिल करूं, उसके और करीब आ सकूँ। परमेश्वर के नेक इरादों को समझकर मैं उन हालात से लड़ना नहीं चाहती थी, बल्कि आगे चाहे जो भी हो, मैं परमेश्वर के प्रति पूरी तरह समर्पित होकर सच्ची निष्ठा रखना चाहती थी।
मैंने वचनों का एक और अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "लोगों के जीवन अनुभवों में, वे प्रायः मन ही मन सोचते हैं, मैंने परमेश्वर के लिए अपने परिवार और जीविका का त्याग कर दिया है, और उसने मुझे क्या दिया है? मुझे इसमें अवश्य जोड़ना, और इसकी पुष्टि करनी चाहिए—क्या मैंने हाल ही में कोई आशीष प्राप्त किया है? मैंने इस दौरान बहुत कुछ दिया है, मैं बहुत दौड़ा-भागा हूँ, मैंने बहुत अधिक सहा है—क्या परमेश्वर ने बदले में मुझे कोई प्रतिज्ञाएँ दी हैं? क्या उसने मेरे अच्छे कर्म याद रखे हैं? मेरा अंत क्या होगा? क्या मैं परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? ... प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से माँगें करते हैं जिनमें उनके कारण, महत्वाकांक्षाएँ, तथा लेन-देन की मानसिकता होती है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है, परमेश्वर के बारे में लगातार मनसूबे बनाता रहता है, और स्वयं अपने व्यक्तिगत मनोरथ के पक्ष में परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करता रहता है, और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान बर्ताव नहीं करता है। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और यहाँ तक कि एक इंच देने के बाद एक मील लेने की कोशिश करते हुए, हर क़दम पर उस पर दबाव भी डाला है। परमेश्वर के साथ सौदबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं निश्चित स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमज़ोर, निष्क्रिय और अपने कार्य में सुस्त पड़ जाते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और कर्तव्य है, जबकि परमेश्वर का दायित्व मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है 'परमेश्वर में विश्वास' की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ। मनुष्य की प्रकृति और सार से लेकर उसके व्यक्तिपरक अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से संबंधित हो। परमेश्वर में विश्वास करने में मनुष्य के लक्ष्य का परमेश्वर की आराधना के साथ कोई लेना-देना संभवतः नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह, मनुष्य ने न कभी यह विचार किया और न समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए परमेश्वर का भय मानने और आराधना करने की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थितियों के आलोक में, मनुष्य का सार स्पष्ट है। यह सार क्या है? यह सार यह है कि मनुष्य का हृदय द्वेषपूर्ण है, छल और कपट रखता है, निष्पक्षता और धार्मिकता और उससे जो सकारात्मक है प्रेम नहीं करता है, और यह तिरस्करणीय और लोभी है। मनुष्य का हृदय परमेश्वर के लिए और अधिक बंद नहीं हो सकता है; उसने इसे परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं दिया है। परमेश्वर ने मनुष्य का सच्चा हृदय कभी नहीं देखा है, न ही उसकी मनुष्य द्वारा कभी आराधना की गई है। परमेश्वर चाहे जितनी बड़ी कीमत चुकाए, या वह चाहे जितना अधिक कार्य करे, या वह मनुष्य का चाहे जितना भरण-पोषण करे, मनुष्य इस सबके प्रति अंधा, और सर्वथा उदासीन ही बना रहता है। मनुष्य ने कभी परमेश्वर को अपना हृदय नहीं दिया है, वह केवल स्वयं ही अपने हृदय का ध्यान रखना, स्वयं अपने निर्णय लेना चाहता है—जिसका निहितार्थ यह है कि मनुष्य परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करना, या परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन करना नहीं चाहता है, न ही वह परमेश्वर के रूप में परमेश्वर की आराधना करना चाहता है। ऐसी है आज मनुष्य की दशा" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी असल हालत का खुलासा करके मुझे बहुत शर्मिंदा महसूस कराया। मेरी आस्था सिर्फ आशीष पाने के लिए थी, भले ही मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपा रही थी, आखिर में यह सब पूरी तरह परमेश्वर से इनाम पाने के लिए ही था। मैंने पूरे उत्साह से उसकी सेवा की, काफी समय और ऊर्जा लगाकर काम किया, इस उम्मीद में कि परमेश्वर मुझे आशीष और अपना अनुग्रह देगा, जिससे अच्छे वेतन की नौकरी मिलेगी, वह भी उस क्षेत्र में जिसकी मैंने पढ़ाई की है। फिर मेरा जीवन खुशहाल होगा और किसी चीज़ की कमी नहीं रहेगी, मुझे और मेरे परिवार को आगे तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी। यही मेरी सोच और मेरा लक्ष्य था। मगर दो सालों की आस्था के बाद, जिन आशीषों की चाह थी वे मुझे नहीं मिलीं। जब मुझे अपनी उम्मीद के अनुसार नौकरी नहीं मिली, तो परमेश्वर का अनुसरण और सेवा करने का मेरा जोश खत्म हो गया। तथ्यों से पता चला कि मैं परमेश्वर को धोखा दे रही थी, उसके साथ सौदेबाजी की कोशिश कर रही थी। देखने में लगता था कि मैं परमेश्वर के लिए कड़ी मेहनत करती हूँ, सभाओं में जाती हूँ और कर्तव्य निभाती हूँ, मगर असल में, मेरी गुप्त मंशाएं थीं—मैं परमेश्वर से अधिक अनुग्रह और आशीष चाहती थी। परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन से मुझे अपने स्वार्थ का पता चला, मैं सिर्फ खुद के और अपने परिवार के बारे में सोच रही थी, अपनी मांगें परमेश्वर पर थोप रही थी, अनावश्यक मांगें कर रही थी। मैं ऐसे पेश नहीं आ रही थी जैसे वो परमेश्वर हो, अपनी आस्था में उसकी आराधना नहीं कर रही थी। मैं उससे ऐसे आशीष माँग रही थी, मानो वह मेरा कर्जदार हो, मुझे उससे खास सहयोग की उम्मीद थी, अपनी इच्छापूर्ति के लिए मैं उसका इस्तेमाल कर रही थी। परमेश्वर ने हमें जीवन दिया है, उसने बिना शर्त हमें बहुत से सत्य दिये। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हम इंसानों को बचाने के लिए उसने देहधारण किया और कष्ट सहा। यह सब इसलिए कि हम सत्य पा सकें, भ्रष्टता त्याग सकें और परमेश्वर द्वारा पूरी तरह बचाये जा सकें। हमारे लिए परमेश्वर का प्रेम अगाध है, उसने हमें बहुत सारा अनुग्रह दिया है। मगर मुझे परमेश्वर का प्रेम नहीं दिखा और मैंने कभी उसकी इच्छा की परवाह नहीं की। मैं सिर्फ मांगना जानती थी। मेरे पास विवेक या समझ नहीं थी! परमेश्वर के वचन हमेशा मेरी सही स्थिति का खुलासा करते हैं। अगर मैं अपने त्याग के बदले परमेश्वर से आशीष मांगूँ, अपने कर्तव्य को लेनदेन का हिस्सा समझूँ, तो यह आस्था और सेवा वैसी ही है जैसी मैं अपने बॉस के लिए करती हूँ। यह सिर्फ बदले में कुछ पाने के लिए है, इसमें कोई ईमानदारी नहीं है।
फिर मैंने कुछ और वचन पढ़े, जो "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास" का आखिरी अंश है। "जिनके हृदय में परमेश्वर है, उनकी चाहे किसी भी प्रकार से परीक्षा क्यों न ली जाए, उनकी निष्ठा अपरिवर्तित रहती है; किंतु जिनके हृदय में परमेश्वर नहीं है, वे अपने देह के लिए परमेश्वर का कार्य लाभदायक न रहने पर परमेश्वर के बारे में अपना दृष्टिकोण बदल लेते हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर को छोड़कर चले जाते हैं। इस प्रकार के लोग ऐसे होते हैं जो अंत में डटे नहीं रहेंगे, जो केवल परमेश्वर के आशीष खोजते हैं और उनमें परमेश्वर के लिए अपने आपको व्यय करने और उसके प्रति समर्पित होने की कोई इच्छा नहीं होती। ऐसे सभी अधम लोगों को परमेश्वर का कार्य समाप्ति पर आने पर बहिष्कृत कर दिया जाएगा, और वे किसी भी प्रकार की सहानुभूति के योग्य नहीं हैं। जो लोग मानवता से रहित हैं, वे सच में परमेश्वर से प्रेम करने में अक्षम हैं। जब परिवेश सही-सलामत और सुरक्षित होता है, या जब लाभ कमाया जा सकता है, तब वे परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी रहते हैं, किंतु जब जो वे चाहते हैं, उसमें कमी-बेशी की जाती है या अंतत: उसके लिए मना कर दिया जाता है, तो वे तुरंत बगावत कर देते हैं। यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे अपने कल के उपकारियों के साथ अचानक बिना किसी तुक या तर्क के अपने घातक शत्रु के समान व्यवहार करते हुए, एक मुसकराते, 'उदार-हृदय' व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं। यदि इन पिशाचों को निकाला नहीं जाता, तो ये पिशाच बिना पलक झपकाए हत्या कर देंगे, तो क्या वे एक छिपा हुआ ख़तरा नहीं बन जाएँगे?" (वचन देह में प्रकट होता है)। परमेश्वर के वचन हमें बताते हैं कि जिन लोगों के दिलों में परमेश्वर के लिए जगह है सिर्फ वे ही उसके परीक्षणों से गुजरकर सच्ची गवाही दे सकते हैं, मगर जिनके दिलों में परमेश्वर के लिए जगह नहीं है वे सिर्फ अपने फायदे की सोचते हैं। जब लोगों को कुछ दैहिक सुख हासिल होता है, तब वे आज्ञापालन को तैयार होते हैं, मगर जब उनकी दिली चाहत पूरी नहीं होती है, तो वे परमेश्वर को शत्रु समझते हैं, उसे दोष देते और विश्वासघात करते हैं। ऐसे लोगों से परमेश्वर को नफ़रत है, वह उन्हें हटा देगा—वे राक्षसों जैसे हैं। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ, मैं भी तो ऐसी ही हूँ? मेरी आस्था आशीष पाने के लिए थी। जब मेरे परिवार के लोग स्वस्थ थे और मेरे पास अच्छी नौकरी थी, मैं परमेश्वर के लिए कड़ी मेहनत करने को तैयार थी। मगर जब चीजें मेरी उम्मीद के मुताबिक नहीं हुईं, तो मैंने विद्रोह कर दिया और परमेश्वर से शिकायतें करने लगी। मेरे मन में परमेश्वर के प्रति कोई निष्ठा या समर्पण नहीं था। मैंने देखा कि परमेश्वर में मेरी आस्था सच्ची नहीं थी, मैं परमेश्वर को धोखा देकर उससे सौदा कर रही थी, वह ऐसी आस्था कभी नहीं स्वीकारेगा। परमेश्वर अंत के दिनों में विजेताओं का एक समूह बना रहा है। वे अपने दिलों को पूरी तरह परमेश्वर की तरफ मोड़ सकते हैं, सिर्फ उसे संतुष्ट करने के लिए जीते हैं। उनमें परमेश्वर के लिए कष्ट सहने का दृढ़ संकल्प होता है, वे अय्यूब की तरह मुश्किलों में भी अडिग रहकर गवाही दे सकते हैं। उन लोगों को परमेश्वर अंत में पूर्ण बनाएगा, सिर्फ वे ही परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष पाने के काबिल होंगे। अय्यूब ने अपने परीक्षणों के दौरान काफी कष्ट सहा, मगर उसने अपने कष्टों के लिए कभी परमेश्वर को दोष नहीं दिया। दरअसल, परमेश्वर में उसकी आस्था कभी कमज़ोर नहीं हुई, अपने बच्चे, धन-दौलत गँवा देने पर भी, उसने परमेश्वर का गुणगान किया, उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पित रहा। उसने परमेश्वर के लिए ज़बरदस्त गवाही दी। मगर मैंने क्या किया, मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत दूर थी।
एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े जो "तुम किसके प्रति वफादार हो?" का आखिरी अंश है। "अगर मैं तुम लोगों के सामने कुछ पैसे रखूँ और तुम्हें चुनने की आजादी दूँ—और अगर मैं तुम्हारी पसंद के लिए तुम्हारी निंदा न करूँ—तो तुममें से ज्यादातर लोग पैसे का चुनाव करेंगे और सत्य को छोड़ देंगे। तुममें से जो बेहतर होंगे, वे पैसे को छोड़ देंगे और अनिच्छा से सत्य को चुन लेंगे, जबकि इन दोनों के बीच वाले एक हाथ से पैसे को पकड़ लेंगे और दूसरे हाथ से सत्य को। इस तरह तुम्हारा असली रंग क्या स्वत: प्रकट नहीं हो जाता? सत्य और किसी ऐसी अन्य चीज के बीच, जिसके प्रति तुम वफादार हो, चुनाव करते समय तुम सभी ऐसा ही निर्णय लोगे, और तुम्हारा रवैया ऐसा ही रहेगा। क्या ऐसा नहीं है? क्या तुम लोगों में बहुतेरे ऐसे नहीं हैं, जो सही और ग़लत के बीच में झूलते रहे हैं? सकारात्मक और नकारात्मक, काले और सफेद के बीच प्रतियोगिता में, तुम लोग निश्चित तौर पर अपने उन चुनावों से परिचित हो, जो तुमने परिवार और परमेश्वर, संतान और परमेश्वर, शांति और विघटन, अमीरी और ग़रीबी, हैसियत और मामूलीपन, समर्थन दिए जाने और दरकिनार किए जाने इत्यादि के बीच किए हैं। शांतिपूर्ण परिवार और टूटे हुए परिवार के बीच, तुमने पहले को चुना, और ऐसा तुमने बिना किसी संकोच के किया; धन-संपत्ति और कर्तव्य के बीच, तुमने फिर से पहले को चुना, यहाँ तक कि तुममें किनारे पर वापस लौटने की इच्छा[क] भी नहीं रही; विलासिता और निर्धनता के बीच, तुमने पहले को चुना; अपने बेटों, बेटियों, पत्नियों और पतियों तथा मेरे बीच, तुमने पहले को चुना; और धारणा और सत्य के बीच, तुमने एक बार फिर पहले को चुना। तुम लोगों के दुष्कर्मों को देखते हुए मेरा विश्वास ही तुम पर से उठ गया है। मुझे बहुत आश्चर्य होता है कि तुम्हारा हृदय कोमल बनने का इतना प्रतिरोध करता है। सालों की लगन और प्रयास से मुझे स्पष्टत: केवल तुम्हारे परित्याग और निराशा से अधिक कुछ नहीं मिला, लेकिन तुम लोगों के प्रति मेरी आशाएँ हर गुजरते दिन के साथ बढ़ती ही जाती हैं, क्योंकि मेरा दिन सबके सामने पूरी तरह से खुला पड़ा रहा है। फिर भी तुम लोग लगातार अँधेरी और बुरी चीजों की तलाश में रहते हो, और उन पर अपनी पकड़ ढीली करने से इनकार करते हो। तो फिर तुम्हारा परिणाम क्या होगा? क्या तुम लोगों ने कभी इस पर सावधानी से विचार किया है? अगर तुम लोगों को फिर से चुनाव करने को कहा जाए, तो तुम्हारा क्या रुख रहेगा? क्या अब भी तुम लोग पहले को ही चुनोगे? क्या अब भी तुम मुझे निराशा और भयंकर कष्ट ही पहुँचाओगे? क्या अब भी तुम्हारे हृदयों में थोड़ा-सा भी सौहार्द होगा? क्या तुम अब भी इस बात से अनभिज्ञ रहोगे कि मेरे हृदय को सुकून पहुँचाने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? इस क्षण तुम्हारा चुनाव क्या है? क्या तुम मेरे वचनों के प्रति सर्मपण करोगे या उनसे उकताए रहोगे? मेरा दिन तुम लोगों की आँखों के सामने रख दिया गया है, और एक नया जीवन और एक नया प्रस्थान-बिंदु तुम लोगों के सामने है। लेकिन मुझे तुम्हें बताना होगा कि यह प्रस्थान-बिंदु पिछले नए कार्य का प्रारंभ नहीं है, बल्कि पुराने का अंत है। अर्थात् यह अंतिम कार्य है। मेरा ख्याल है कि तुम लोग समझ सकते हो कि इस प्रस्थान-बिंदु के बारे में असामान्य क्या है। लेकिन जल्दी ही किसी दिन तुम इस लोग प्रस्थान-बिंदु का सही अर्थ समझ जाओगे, अतः आओ, हम एक-साथ इससे आगे बढ़ें और आने वाले समापन का स्वागत करें!" (वचन देह में प्रकट होता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे बहुत प्रेरणा मिली, मैंने जाना कि लोगों की प्रकृति सचमुच परमेश्वर को धोखा देने की है। हम सिर्फ सांसारिक धन-दौलत, रुतबे और शोहरत से प्रेम करते हैं, सत्य से नहीं। भले ही हमारी प्रकृति से परमेश्वर को नफ़रत है, मगर वह हमारे विद्रोह और भ्रष्टता को अनदेखा कर देता है, वो सिर्फ देखता है कि हम सत्य खोज रहे हैं या नहीं, हमने पश्चाताप करके खुद को बदला या नहीं। परमेश्वर हमें शैतान के प्रभाव से पूरी तरह बचाकर, हमें अपने राज्य में लाना चाहता है। मैंने परमेश्वर के अनुग्रह को नहीं सँजोया, सत्य नहीं खोजा। बस मोटी कमाई वाली अच्छी नौकरी पाने पर ध्यान दिया, धन-दौलत और दैहिक सुख की कामना की। मैं कितनी मूर्ख थी! सिर्फ सत्य ही लोगों को बचा सकता है, हमारी भ्रष्टता को स्वच्छ कर सकता है, हमें अच्छाई-बुराई में फ़र्क करने और शैतान के धोखे और नुकसान से बचने में मदद कर सकता है। सत्य समझकर हमें परमेश्वर को जानने, जीने का तरीका सीखने और एक इंसान से रूप में सार्थकता ढूंढने में मदद मिल सकती है। पैसे और सांसारिक सुख के पीछे भागना हमें सिर्फ परमेश्वर से दूर ले जाएगा, मुझे अधिक भ्रष्ट, लालची और आसक्त बनाएगा, जिससे मैं उद्धार का मौका गँवा दूँगी। जैसा कि प्रभु यीशु ने कहा, "तुमसे फिर कहता हूँ कि परमेश्वर के राज्य में धनवान के प्रवेश करने से ऊँट का सूई के नाके में से निकल जाना सहज है" (मत्ती 19:24)। बहुत अमीर होना, बहुत आरामदायक जिंदगी जीना कोई अच्छी बात नहीं है। जैसी कि कहावत है, "और निश्चिन्त रहने के कारण मूढ़ लोग नष्ट होंगे" (नीतिवचन 1:32)। प्रभु यीशु ने हमें सचेत किया है, "इसलिये तुम चिन्ता करके यह न कहना कि हम क्या खाएँगे, या क्या पीएँगे, या क्या पहिनेंगे। क्योंकि अन्यजातीय इन सब वस्तुओं की खोज में रहते हैं, पर तुम्हारा स्वर्गीय पिता जानता है कि तुम्हें इन सब वस्तुओं की आवश्यकता है। इसलिये पहले तुम परमेश्वर के राज्य और उसके धर्म की खोज करो तो ये सब वस्तुएँ भी तुम्हें मिल जाएँगी" (मत्ती 6:31-33)। आपदाएं निरंतर बढ़ती जा रही हैं। सबसे ज़रूरी है कि हम खुद को सत्य से परिपूर्ण करें, अपने कर्तव्यों में कड़ी मेहनत करें। अपने कर्तव्यों में, हमें भ्रष्टता का त्याग करके परमेश्वर के प्रति समर्पित होने की कोशिश करनी होगी, ताकि उसकी नज़रों में एक सृजित प्राणी कहलाने लायक बन सकूँ। इसके अलावा किसी और चीज की कोई अहमियत नहीं है। मैंने यह भी जाना कि मुझे अच्छी नौकरी मिलना, न मिलना, पूरी तरह परमेश्वर के हाथ में है। अब मैं उसके आयोजनों के प्रति समर्पित होने और खुद को उसके हाथों में सौंपने को तैयार थी।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। इस अंश से मैंने सीखा कि परमेश्वर हमें धन-दौलत दे या आपदा, हमें अपना कर्तव्य निभाना होगा और परमेश्वर की आज्ञा पूरी करनी होगी। यह बिना शर्त हमारी जिम्मेदारी है। मैंने सोचा, स्थायी और सम्मानित नौकरी पाने की चाह में कुछ विफलता झेलने के बाद, मैं बहुत उदास और निराश हो गई थी, अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी। अपने कर्तव्य के प्रति मेरा सही रवैया नहीं था। परमेश्वर कहता है कि सृजित प्राणियों के नाते, अपनी भूमिका निभाना हमारी जिम्मेदारी है। परमेश्वर हमारे लिए जो भी हालात बनाए, भले ही हम कमज़ोरी महसूस करें, परमेश्वर की इच्छा को न समझें, पर हमें अपना कर्तव्य निभाते रहना होगा। हम सृजित प्राणी हैं जिन्हें बिना शर्त परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए। हमें उससे माँगने या उसके साथ सौदे करने का कोई अधिकार नहीं है। सृजित प्राणियों के नाते, अपनी भूमिका निभाना हमारा दायित्व है, कोई भी लेनदेन उसे कमज़ोर नहीं कर सकता! यही सही और उचित है, यही स्वाभाविक है, जिस तरह अपने माता-पिता के प्रति बच्चों की जिम्मेदारी होती है।
उसके बाद, मैं अपने कर्तव्य के प्रति अधिक गंभीर हो गई और खुद को सुसमाचार साझा करने में झोंक दिया। इस तरह जीवन जीकर मुझे बहुत शांति मिली। एक दिन, एक स्कूल ने मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया। वह बहुत ही बड़ा स्कूल था, मैं जानती थी कि अगर नौकरी मिल गई, तो मुझे अच्छा-खासा वेतन मिलेगा। मगर इंटरव्यू के दौरान, मैंने मन में परमेश्वर से कहा, "परमेश्वर, सब कुछ तुम्हारी व्यवस्था है। मैं इस इंटरव्यू में अच्छा करूं या न करूं, मैं तुमसे नौकरी दिलाने की मांग नहीं करती। मैं बस तुम्हारे आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहती हूँ। अगर मुझे यह नौकरी नहीं मिली, तब भी मैं तुम्हारा गुणगान करूंगी, अपना कर्तव्य निभाती रहूँगी।" लिखित परीक्षा के नतीजे जारी कर दिये गए और मैं श्रेष्ठ पाँच उम्मीदवारों में थी। मैं बहुत खुश थी। कुछ दिनों बाद, जब मौखिक इंटरव्यू हुआ तो पता चला कि मुझे नहीं चुना गया है। एक दोस्त ने बताया कि उसे चुन लिया गया है, भले ही मैं उसके लिए खुश थी, मगर मुझे थोड़ी निराशा हुई। मैंने परमेश्वर से आंतरिक शांति देने और मेरे दिल पर नज़र रखने की विनती की, ताकि मैं उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पित हो सकूँ। प्रार्थना के बाद मुझे काफी सुकून मिला, उस दिन दोपहर में मैं हमेशा की तरह कर्तव्य में लग गई। मैं जानती थी कि अगर परमेश्वर मुझे उस स्कूल में काम करने देना चाहता, तो मुझे वह नौकरी मिल गई होती, नहीं तो, कितनी भी कड़ी मेहनत करूँ, मुझे वह नौकरी नहीं मिलेगी। मुझे यकीन हो गया कि सब परमेश्वर के हाथ में है, कोई भी उसकी इच्छा नहीं बदल सकता। जब मैंने ऐसे सोचा, तो मुझे आंतरिक प्रेरणा महसूस हुई, अब चाहे जो भी हो, मैं अपनी जिम्मेदारियां पूरी करना, अपना कर्तव्य करना चाहती थी।
इससे मुझे सीख मिली कि वे मुश्किल हालात दरअसल परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष ही थे। उसने मेरी आस्था की परीक्षा लेने के लिए उन हालात से गुजरने दिया, ताकि पता चले कि कठिन समय में मेरी आस्था सच्ची है या नहीं। सच्चाई का सामना होने पर मुझे पता चला कि मेरी आस्था कितनी मिलावटी थी, मैं परमेश्वर को धोखा दे सकती थी। उसके वचनों के मार्गदर्शन से मैं खुद को समझ सकी और अपनी गलत सोच को बदल पाई। आराम की जिंदगी बिताते हुए यह सब हासिल कर पाना मुमकिन नहीं था। मैं परमेश्वर के प्रेम की बहुत आभारी हूँ!
फुटनोट :
क. किनारे पर वापस लौटने की इच्छा : एक चीनी कहावत, जिसका मतलब है "अपने बुरे कामों से विमुख होना; अपने बुरे काम छोड़ना।"
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