अपने कर्तव्य में बैकअप योजनाओं के लिए साजिश मत रचो
मैंने चार साल तक कलीसिया के बहुत-से वीडियो के लिए संगीत तैयार किया। कलीसिया के काम की जरूरतों के कारण, कुछ भाई-बहनों का अक्सर तबादला कर दिया जाता था, कुछ को योग्यता की कमी के कारण दूसरे कर्तव्य सौंप दिए जाते थे। मुझे लगा यह अस्थायी काम था। मैं सोचती थी, "अगर किसी दिन मेरा तबादला कर दिया गया, तो पता नहीं मुझे कौन सा काम मिलेगा। अगर मैं उस काम में अच्छी न हुई तो मेरा फिर से तबादला कर दिया जाएगा। अगर मेरे लिए कोई सही कर्तव्य न हुआ, तो क्या इसका मतलब मुझे निकाल दिया जाएगा और बचाया नहीं जाएगा?" यह सोचते हुए, मैं नहीं चाहती थी मेरा तबादला हो, पर मुझे लगता था मैं खुशनसीब हूँ जो फिलहाल मेरा काम स्थायी है। बाद में, हमारी टीम का काम कम हो गया, और कुछ भाई-बहनों का तबादला कर दिया गया, तो मैं चिंतित होकर सोचने लगी, "मुझमें कोई बहुत बढ़िया हुनर नहीं हैं, मेरा तबादला हो सकता है। मुझमें दूसरे हुनर नहीं हैं, तो संगीत रचने के अलावा मैं क्या कर सकती हूँ? क्या कोई कर्तव्य न निभाना निकाल दिए जाने जैसा नहीं है?" मैं बहुत लंबे समय तक इसी चिंता और डर में जीती रही। मेरे आसपास चाहे किसी का भी तबादला हो, मुझे अपने भविष्य को लेकर चिंता सताने लगती।
पिछले साल जुलाई में मेरे अगुआ ने मुझे पार्ट टाइम काम करने के लिए कहा। मुझे काम समझाने के बाद अगुआ ने कहा, "यह काम चलता रहेगा, इसलिए इसमें जम जाओ और अच्छा करो।" यह सुनकर मेरा दिल खिल उठा, क्योंकि यह काम संगीत रचने से ज्यादा स्थायी लग रहा था। इस टीम में वही पुराने लोग शामिल लग रहे थे। कुछ लोग बिना तबादले के सालों से यह काम कर रहे थे। यह काम बेहतर लगा! मुझे इसका अभ्यास करके जल्दी से इसमें माहिर होना होगा। अगर किसी दिन मेरा तबादला हो गया तो मेरे पास एक बैकअप योजना तो होगी। अगर मैंने बिना गलतियों के इसे अच्छी तरह किया, तो मैं हमेशा यही काम करती रह सकती हूँ, और फिर कोई कर्तव्य न होने के कारण मुझे निकाला नहीं जाएगा। यह विचार हिम्मत बढ़ाने और खुश करने वाला था। मुझे लगा यह अवसर परमेश्वर का अनुग्रह था। फिर मैं इस काम पर खास ध्यान देने लगी। काम में जल्दी माहिर होने के लिए मैं भाई-बहनों की मदद लेने लगी।
पर अचानक संगीत रचने का काम काफी बढ़ गया, इसलिए मेरे पास पार्ट-टाइम काम के लिए ज्यादा वक्त नहीं रहा, फिर भी मैं इसी पर ध्यान देना चाहती थी, क्योंकि मुझे चिंता थी कि अगर मैंने अपने हिस्से का काम पूरा नहीं किया, तो मैं इस बैकअप योजना को खो बैठूँगी। जब तक हो सकता था मैं अपने संगीत के काम को टालती रही, यह सोचकर कि थोड़ी-सी देर से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि मैं जल्दबाज़ी में होती थी, मुझसे अक्सर कोई चूक हो जाती थी, और अपने पार्ट टाइम काम में मैं अक्सर लापरवाही बरतती थी, या एक ही गलती बार-बार करती थी। टीम अगुआ ने देखा कि मैं अपना सारा समय पार्ट-टाइम काम को दे रही हूँ, जिससे मेरे प्रमुख काम में देर हो रही है, तो उसने मुझे यह विचार करने को कहा कि क्या मैं दोनों काम कर सकती हूँ। हालांकि मैं जानती थी इससे मेरे संगीत के काम में देरी हो रही थी, पर मैं इसे स्वीकारना नहीं चाहती थी। मैं जानती थी कि अगर मैंने कहा कि मैं बेहद व्यस्त हूँ तो पार्ट-टाइम काम मेरे हाथ से निकल जाएगा, जिसका मतलब था मैं यह स्थायी काम खो बैठूँगी। मैंने झिझकते हुए कुछ बहाने बना दिए और टीम अगुआ से कहा कि दोनों जगह एक साथ जरूरी काम आ गए थे, पर ऐसी स्थिति कभी-कभार ही होती है। मैं अपने पार्ट-टाइम काम में अभी भी अनाड़ी हूँ, पर समय के साथ मैं बेहतर हो जाऊँगी, मुझे थोड़े और वक्त की जरूरत है। इसके अलावा, भले ही मैं बहुत व्यस्त हूँ, पर इससे कर्तव्य के दौरान मेरा खाली वक्त भर जाता है। टीम अगुआ ने इसके बाद और कुछ नहीं कहा।
कुछ दिन बाद उसने मुझे फिर याद दिलाया कि मैं दो कामों के बारे में और विचार करूँ कि क्या यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। उसने कहा मैं अपना पार्ट-टाइम काम हाथ में रखने की कुछ ज्यादा ही इच्छुक हूँ, मुझे इस पर चिंतन करना चाहिए कि क्या मेरे विचार या इरादे गलत हैं। जब उसने यह कहा तो मैंने माना कि मैं अपना पार्ट-टाइम काम बचाये रखना चाहती हूँ, पर मुझे लगा मैं जरूरत के हिसाब से कामों को वरीयता दे रही थी। जो काम ज्यादा जल्दी पूरा करना होता था, मैं उसे ज्यादा समय देती थी। बाद में एहसास हुआ कि इस तरह याद दिलाने के पीछे परमेश्वर की इच्छा थी, और मुझे आत्मचिंतन करना चाहिए। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि टीम अगुआ के शब्दों में तुम्हारी इच्छा छिपी है, पर मैं आत्मचिंतन करना नहीं जानती। मैं बहुत उदास हूँ और तुम्हारा मार्गदर्शन चाहती हूँ।" प्रार्थना के बाद, मैं सोचने लगी कि टीम अगुआ ने मुझे अपने रवैये पर आत्मचिंतन की याद क्यों दिलाई थी। क्या अपने कर्तव्य निर्वाह में मेरे गलत इरादे थे? मुझे एहसास हुआ कि पार्ट-टाइम काम मिलने से पहले, मैं अपने संगीत के काम को संजोती थी। मैं इसे अपना इकलौता साधन मानती थी। जब मैंने पार्ट-टाइम काम शुरू किया और इसे अपने मुख्य काम से ज्यादा स्थायी और टिकाऊ समझने लगी, तो मैंने इसे हाथ में रखने पर पूरा जोर लगा दिया। मेरा ख्याल था कि एक स्थायी और टिकाऊ कर्तव्य होने पर ही मुझे बचाया जा सकेगा। तभी मुझे एहसास हुआ कि मेरा कर्तव्य मेरे खुद के इरादों में घुल-मिल गया था। जिन दूसरे लोगों का तबादला हुआ था उन्होंने इसे सही तरीके से लिया था। तो मेरे विचार इतने उलझे हुए क्यों थे? मेरे मन में ये डर क्यों थे? मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती रही और उसके वचनों के कुछ अंश पढ़ती रही।
मसीह-विरोधियों के स्वभाव के बारे में परमेश्वर के खुलासे का एक अंश खास तौर से मेरी हालत के अनुरूप था। परमेश्वर कहते हैं, "जब लोगों के कर्तव्य में कोई साधारण समायोजन किया जाता है, तो उन्हें आज्ञाकारिता भरे रवैये के साथ उत्तर देना चाहिए, जैसा परमेश्वर का घर उनसे कहे वैसा करना चाहिए, जो वे कर सकते हैं वह करना चाहिए, और वे चाहे जो भी करें, उसे जितना उनके सामर्थ्य में है, उतना अच्छा करना चाहिए और अपने पूरे दिल से और अपनी पूरी ताकत से करना चाहिए। परमेश्वर ने जो किया है, वह गलती से नहीं किया है। लोग इस तरह के सरल सत्य का अभ्यास थोड़े विवेक और चेतना के साथ कर सकते हैं, लेकिन यह मसीह-विरोधियों की क्षमताओं से परे है। ... मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि और हैसियत को अपनी आशीषों की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। इसलिए वे अपना आशीषों का सपना टूटने से बचाने के लिए परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से बचकर रहते हैं। वे अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत से चिपके रहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि आशीष प्राप्त करने की उनकी यही एकमात्र आशा है। मसीह-विरोधी आशीष पाने को स्वर्ग से भी अधिक धन्य, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो शायद ही उल्लेखनीय हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का रास्ता रखते हैं" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। कर्तव्य में तबादले को लेकर मसीह-विरोधियों के विचारों पर परमेश्वर का खुलासा पूरी तरह से मेरे विचारों से मेल खाता था। मैं अपना पार्ट-टाइम काम बचाए रखने के लिए मगजपच्ची करती रही क्योंकि मैं कलीसिया में बने रहने के लिए एक स्थायी और लंबे समय तक चलने वाला काम चाहती थी। यह सब मैं आशीषें पाने के लिए कर रही थी। यही मेरा असली मकसद था। दरअसल, कलीसिया में किसी व्यक्ति का चाहे किसी भी कर्तव्य में तबादला किया जाए, यह काम की जरूरत पर आधारित होता है, और यह सामान्य बात है। हालांकि मसीह-विरोधियों में दुष्ट स्वभाव होता है और वे उल्टा सोचते हैं। उन्हें लगता है कि कलीसिया में किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता, और कोई भी उनकी परवाह नहीं करता। उन्हें लगता है कि उनका तबादला होने पर अगर वे सावधानी नहीं बरतेंगे तो उन्हें निकाल दिया जाएगा, इसलिए उन्हें बहुत सावधानी से एक बैकअप योजना तैयार रखने की जरूरत होती है। तभी उन्हें इसका नतीजा हासिल होगा। मसीह-विरोधियों के लिए आशीष पाना बचाए जाने से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। क्या मेरे विचार एक मसीह-विरोधी जैसे ही नहीं थे? मुझे तबादले से हमेशा डर लगता रहता था। अगर मेरा तबादला हो गया तो मैं क्या करूंगी? अगर उस काम में बेअसर होने के कारण मेरा फिर से तबादला कर दिया गया, तो क्या होगा? अगर मेरे पास कोई कर्तव्य नहीं होगा तो मैं निकाल नहीं दी जाऊँगी? मुझे इसके बारे में सोचकर चिंता होती। एक मसीह-विरोधी की तरह मेरा मन दुष्ट था और मुझे आगे कुछ न दिखने से डर लगता था, इसलिए मैं एक ऐसे काम से चिपके रहना चाहती थी जिसे मैं लंबे समय तक करती रहूँ, जैसे कोई अविश्वासी "रोजगार और सुरक्षा की गारंटी" ढूँढता है। मैं हमेशा एक सुरक्षित कर्तव्य निभाते रहना चाहती थी, ताकि परमेश्वर का काम पूरा होने पर मैं सही-सलामत स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकूँ। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए मैंने अपने पार्ट-टाइम काम में खूब मेहनत की, इस उम्मीद से कि मैं इसमें जल्दी से माहिर हो जाऊँगी, जो मेरी बैकअप योजना होगी। मैं दोनों कामों में तालमेल नहीं बिठा पा रही थी, पर इसे मानने को तैयार नहीं थी। मैंने अपने टीम अगुआ को भी धोखे में रखा, और अपने मुख्य काम में देर होने पर भी पार्ट-टाइम काम को हाथ में रखना चाहा, जिससे काम पर असर पड़ा। मैं अपने भविष्य और मंजिल की खातिर अपना कर्तव्य निभा रही थी। मैं अपने कर्तव्य को सौदेबाजी के साधन की तरह देख रही थी। मैं हर काम आशीषों के लिए कर रही थी। क्या यह परमेश्वर को धोखा देना नहीं था? पहले मैं परमेश्वर से हमेशा प्रार्थना करती थी, कि मैं उसके प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, पर उजागर किए जाने पर मैंने देखा कि यह झूठ और धोखा था!
मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े। "एक सृजित प्राणी के रूप में, जब तुम सृष्टिकर्ता के सामने आते हो, तो तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए। यही करना उचित है, और यह तुम्हारे कंधों पर जिम्मेदारी है। इस आधार पर कि सृजित प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के बीच और भी बड़ा कार्य किया है। उसने मानवजाति पर कार्य का अगला कदम निष्पादित किया है। और वह कौन-सा कार्य है? वह मानवजाति को सत्य प्रदान करता है, जिससे उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए परमेश्वर से सत्य हासिल करने, और इस प्रकार अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने और शुद्ध होने का अवसर मिलता है। इस प्रकार, वे परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर पाते हैं और जीवन में सही मार्ग अपना पाते हैं, और अंततः, वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने, पूर्ण उद्धार प्राप्त करने, और शैतान के दुखों के अधीन न रहने में सक्षम हो जाते हैं। यही वह प्रभाव है जो परमेश्वर चाहता है कि अपने कर्तव्य का पालन करके मानवजाति अंततः प्राप्त करे। इसलिए, अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर तुम्हें केवल एक चीज स्पष्ट रूप से देखने और थोड़ा-सा सत्य ही समझने नहीं देता, न ही वह तुम्हें केवल एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से मिलने वाले अनुग्रह और आशीषों का आनंद लेने में सक्षम बनाता है। इसके बजाय, वह तुम्हें शुद्ध होने और बचने, और अंततः, सृष्टिकर्ता के मुखमंडल के प्रकाश में रहने का अवसर देता है। इस 'सृष्टिकर्ता के मुखमंडल के प्रकाश' में बड़ी मात्रा में विस्तारित अर्थ और विषयवस्तु शामिल है—आज हम इस पर चर्चा नहीं करेंगे। निस्संदेह, परमेश्वर निश्चित रूप से ऐसे लोगों को वादे और आशीष देगा, और उनके बारे में अलग वक्तव्य देगा—यह आगे का मामला है। वर्तमान की बात करें तो, हर वह इंसान जो परमेश्वर के सामने आता और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाता है, परमेश्वर से क्या पाता है? वह, जो इंसानों के बीच सबसे मूल्यवान और सुंदर है। मानवजाति का कोई भी सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के हाथों मात्र संयोग से ऐसे आशीष प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसी खूबसूरत और बड़ी चीज को मसीह-विरोधियों का किस्म एक लेन-देन के रूप में विकृत कर देता है, जिसमें वह सृष्टिकर्ता से मुकुटों और पुरस्कारों की माँग करता है। इस प्रकार का लेन-देन सबसे सुंदर और धार्मिक चीज को सबसे बदसूरत और दुष्ट चीज में बदल देता है। क्या मसीह-विरोधी ऐसा ही नहीं करते? इससे आकलन करते हुए, क्या मसीह-विरोधी दुष्ट हैं? वे वास्तव में काफी दुष्ट हैं! यह केवल उनकी बुराई के एक पहलू का प्रकटीकरण है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को झकझोर दिया। मैं कृतज्ञ थी। परमेश्वर कहता है कि अपना कर्तव्य निभा पाना मनुष्य में सबसे खूबसूरत चीज है, यह सबसे अर्थपूर्ण चीज है और हर सृजित प्राणी इस आशीष को नहीं पा सकता। बिल्कुल ठीक। परमेश्वर ने मुझे अंत के दिनों में पैदा किया। मैं उसके अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करके धन्य हो गई हूँ, और मुझे परमेश्वर के कार्य को अनुभव करने का अवसर मिला है। हर किसी को यह आशीष नहीं मिलती। यह परमेश्वर का विशेष अनुग्रह और प्रेम है। कलीसिया में कर्तव्य निभाना, वे चाहे जो भी हों, दुनिया में कुछ भी करने से ज्यादा मूल्यवान है, इसलिए मुझे इसे अच्छे से संजोना चाहिए। साथ ही, परमेश्वर लोगों को सत्य प्रदान करता है, उन्हें अपने कर्तव्य निभाते हुए सत्य प्राप्त करने और जीवन में आगे बढ़ने देता है। इस समूची प्रक्रिया में, परमेश्वर मनुष्य से कोई मांग नहीं करता, परमेश्वर सिर्फ यह चाहता है कि लोग उसके आदेश को ईमानदारी से मानें, सत्य को प्राप्त करें और अंत में परमेश्वर द्वारा बचाए जाएँ। पर मेरे मामले में क्या हुआ? मैंने एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निर्वाह को एक सौदेबाजी बना लिया, और इसे आशीषों के बदले में करने लगी। मैं परमेश्वर को कपटी और घिनौनी लग रही थी।
इसके बाद, मैं अक्सर अपनी हालत को लेकर परमेश्वर से प्रार्थना करने लगी, मुझे राह दिखाने और अपनी समस्याओं को समझने में मेरी मदद करने की विनती करने लगी। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "परमेश्वर के प्रति, और अपने कर्तव्य के प्रति, लोगों को एक ईमानदार दिल रखना चाहिए। अगर वे ऐसा करते हैं, तो वे परमेश्वर का भय मानने वाले लोग होंगे। ईमानदार दिल वाले लोगों का परमेश्वर के प्रति कैसा रवैया होता है? कम-से-कम उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है, ऐसा दिल जो सब मामलों में परमेश्वर का आज्ञापालन करता है, वे आशीषों या दुर्भाग्यों को लेकर कोई पूछताछ नहीं करते, परिस्थितियों की बात नहीं करते, और खुद को परमेश्वर की दया पर छोड़ देते हैं—ऐसे लोग ईमानदार दिल वाले होते हैं। वे लोग जो परमेश्वर को लेकर हमेशा शंकालु रहते हैं, हमेशा उसकी जाँच-पड़ताल करते रहते हैं, उसके साथ सौदेबाजी करने की कोशिश करते हैं—क्या वे ईमानदार दिल वाले लोग हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों के दिलों में क्या बसता है? चालबाजी और दुष्टता; वे हमेशा पड़ताल में लगे रहते हैं। वे किस चीज की जाँच-पड़ताल करते हैं? (लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये की।) वे हमेशा लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये की जाँच-पड़ताल करते रहते हैं। यह कैसी समस्या है? वे ऐसा क्यों करते हैं? इसलिए क्योंकि इनसे उनके अहम हित जुड़े होते हैं। वे अपने दिलों में सोचते हैं, 'परमेश्वर ने मेरे लिए ये हालात पैदा किए हैं, उसके कारण मेरे साथ ऐसा हुआ। उसने ऐसा क्यों किया? दूसरे लोगों के साथ तो ऐसा नहीं हुआ—तो यह मेरे साथ ही क्यों हुआ? और बाद में इसके परिणाम क्या होंगे?' वे इन चीजों की पड़ताल करते हैं, अपने लाभ-हानि की, आशीषों और दुर्भाग्य की पड़ताल करते हैं। और यह पड़ताल करते हुए क्या वे सत्य का अभ्यास कर पाते हैं? क्या वे परमेश्वर का आज्ञापालन कर पाते हैं? वे ऐसा नहीं कर पाते। और उनकी इस दिमागी कसरत से क्या पैदा होता है? यह सिर्फ उनकी खुद की खातिर होता है, वे सिर्फ खुद के हितों के बारे में सोचते हैं। ... और जो हमेशा सिर्फ अपने खुद के हितों के बारे में सोचते हैं, उन लोगों की पड़ताल का अंतिम परिणाम क्या होता है? वे सिर्फ परमेश्वर की अवज्ञा और उसका विद्रोह करते हैं। वे जब अपने कर्तव्य का निर्वाह करने का आग्रह करते हैं, तो इसे भी लापरवाह और अनमने होकर, और नकारात्मक मनोस्थिति के साथ करते हैं; वे अपने दिल में यह सोचते रहते हैं कि लाभ कैसे उठाएँ, हारने वालों में कैसे न हों। अपना कर्तव्य निभाते हुए उनके यही इरादे होते हैं, और वे इसमें परमेश्वर के साथ सौदेबाजी का प्रयास कर रहे होते हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह चालबाजी है, यह एक दुष्ट स्वभाव है। यह कोई मामूली भ्रष्ट स्वभाव भी नहीं है, यह दुष्टता तक जा पहुँचा है। और जब दिलों में इस तरह का भ्रष्ट स्वभाव होता है, तो यह परमेश्वर के खिलाफ संघर्ष है! तुम्हें इस समस्या के बारे में स्पष्ट होना चाहिए। अगर लोग हमेशा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करते रहते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते हुए सौदेबाजी करने की कोशिश करते हैं, तो क्या वे इसे ठीक-से निभा सकते हैं? बिल्कुल भी नहीं। वे सच्चे मन से और ईमानदारी से परमेश्वर की आराधना नहीं करते। उनके पास ईमानदार दिल नहीं होता। अपने कर्तव्य निभाते हुए वे देखते और प्रतीक्षा करते रहते हैं, पूरे समर्पण भाव से काम नहीं करते—और इसका क्या नतीजा निकलता है? परमेश्वर उनमें कार्य नहीं करता, और वे उलझ जाते और भ्रमित हो जाते हैं। वे सत्य के सिद्धांतों को नहीं समझते, और अपनी मनोरूचि के अनुसार चलते हैं, और हमेशा गड़बड़ा जाते हैं। और वे गड़बड़ा क्यों जाते हैं? उनके दिलों में स्पष्टता का बहुत अभाव होने के कारण, कुछ घटित होने के बाद वे आत्मचिंतन नहीं कर पाते, न ही किसी समाधान तक पहुँचने के लिए सत्य की खोज कर पाते हैं, वे मनमाने ढंग से और अपनी पसंद के हिसाब से काम करने पर तुले रहते हैं—परिणाम यह होता है कि अपना कर्तव्य निभाते हुए वे हमेशा गड़बड़ा जाते हैं। वे कभी भी कलीसिया के काम के बारे में, या परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, बल्कि सिर्फ अपनी खातिर तिकड़में भिड़ाते रहते हैं, और सिर्फ अपने हितों, गर्व और रुतबे के लिए योजनाएँ बनाते रहते हैं, वे न सिर्फ अपना काम अच्छे से नहीं करते हैं, बल्कि कलीसिया के काम में भी देर करवाते और उसे प्रभावित करते हैं। क्या यह रास्ते से भटक जाना और अपने कर्तव्यों की अवहेलना करना नहीं है? अगर कोई अपना कर्तव्य निभाते हुए हमेशा अपने खुद के हितों और बेहतर संभावनाओं के लिए योजना बनाता रहता है, और कलीसिया के काम या परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान नहीं रखता, तो यह कर्तव्य निभाना नहीं है, क्योंकि उसके कृत्यों का सार और प्रकृति बदल गई है। यह एक समस्या है। अगर इससे थोड़ा ही नुकसान होता है, तो उस व्यक्ति के बचने की फिर भी आशा है। उसके पास अब भी कर्तव्य निभाने का मौका होता है और उसे बाहर निकालने की जरूरत नहीं होती। लेकिन अगर इससे कोई बड़ा नुकसान होता है, जिससे परमेश्वर के चुने लोगों में घृणा पैदा होती है, तो उस व्यक्ति को उजागर करके बाहर कर दिया जाएगा, और उसके पास कर्तव्य निभाने का मौका नहीं रह जाएगा। कुछ लोग इसी तरह बदले और निकाले गए हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के सिद्धांतों की खोज करके ही व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एक झटका-सा लगा। पहले मैं सिर्फ यह समझती थी कि हमेशा एक बैकअप योजना बनाने की सोचते रहना छल-कपट और धूर्तता थी। पर परमेश्वर के वचनों से खुलासा हुआ कि यह बात धूर्तता और छल-कपट से कहीं बढ़कर थी, यह दुष्टता थी, क्योंकि मैं किसी मनुष्य के साथ चालें चलने के बजाय परमेश्वर से जोड़-तोड़ कर रही थी। ऊपरी तौर पर मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी, पर मैं ईमानदार नहीं थी, मैं हिसाब-किताब लगा रही थी, और अपने हित साध रही थी। संगीत रचने की बात करें तो मुझे लगता था कि जीवन बचाए जाने का यही एक तरीका था, पर मुझे डर था किसी दिन मेरा तबादला ऐसे काम में न कर दिया गया जो मेरे लिए ठीक न हो, और मुझे आशीष न मिले, इसलिए मैं अपना कर्तव्य खो देने को लेकर चिंतित थी। बाद में, जब मुझे पार्ट-टाइम काम मिला, तो मुझे लगा इसमें आशीषें पाने का बेहतर मौका है, इसलिए मैं मजबूती से इससे चिपकी रही। ऊपर से देखने पर, मैं बहुत सक्रिय लग रही थी, पर मैं इसमें जल्दी से माहिर होना चाहती थी, ताकि मुझे हटाया न जा सके। मैं यह प्रतीक्षा कर रही थी कि क्या मुख्य काम से मेरा तबादला किया जाता है। अगर नहीं, तो मैं दोनों काम करती रहूँगी, ताकि मुझे बचाए जाने की अतिरिक्त गारंटी मिल जाए। अगर मेरा तबादला हो गया तो मुझे निकाले जाने की चिंता नहीं होगी, क्योंकि मेरे पास पार्ट-टाइम काम होगा। मैंने देखा कि अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया परमेश्वर से जिम्मेदारी स्वीकारने का नहीं था, न ही मैं इन कर्तव्यों को एक ईमानदार दिल से परमेश्वर की इच्छा मानती थी। मेरी धूर्त मंशाएं थीं, मैं अपने फायदों और आशीषें पाने का हिसाब लगा रही थी। मैं कितनी चालबाज थी! ऊपर से मैं बहुत-सा काम कर रही थी, और सारा दिन व्यस्त रहती थी, मानो मुझे अपने कर्तव्य की बड़ी परवाह हो, पर असल में, मुझे सिर्फ अपने भविष्य की परवाह थी। जब टीम अगुआ ने पूछा कि क्या मैं दो काम संभाल लूँगी, तो मुझे अपनी योजना के चौपट होने का डर लगा और मैंने बहाने बना दिए, यह कहकर कि "मैं अपने खाली समय को भरना चाहती हूँ।" यह गुमराह करने वाली बात थी! अपने शर्मनाक और घृणित इरादों को छिपाने के लिए मैंने टीम अगुआ को धोखा दिया था। मेरा स्वभाव बहुत ज्यादा दुष्ट था! मैं अपने हिसाब लगाने वाले विचारों और धूर्त मंशाओं के बारे में सोचने लगी। मैं अपने कर्तव्य नहीं निभा रही थी! मैं बिना किसी ईमानदारी के, परमेश्वर को इस्तेमाल करते हुए उसे छल रही थी। मैं बहुत अवसरवादी और धूर्त थी, स्वार्थी और घिनौनी थी, और सिर्फ अपना लाभ चाहती थी। अपने फायदे के लिए मैं अलग-अलग साधन इस्तेमाल करना चाहती थी। परमेश्वर कहता है कि जो लोग अपने कर्तव्यों में परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान नहीं रखते, कभी भी अच्छे नतीजे नहीं ला सकते। अपने पार्ट-टाइम काम में, मैं ज्यादा अभ्यास चाहती थी, पर मेरा इरादा एक बैकअप योजना तैयार रखने का था। इस तरीके से काम करके मैं सिद्धांतों के अनुसार चलने की नहीं सोच रही थी, न ही अच्छे नतीजे हासिल करने की। इसके बजाय मैंने जल्दी से सफल होने और दिखावा करने की कोशिश की। अपने काम निपटाने के लिए मैंने तेजी से काम किया, जिसके कारण मैं कोई चूक कर जाती और सिद्धांतों को ठीक-से न समझ पाती। मेरे काम में हमेशा गलतियों की भरमार होती। अपने मुख्य कर्तव्य में, मैंने कोई चिंता किए बिना हमारी प्रगति में देर करवा दी थी। मैं सोचने लगी कि कैसे मैंने अपने हर कर्तव्य में गड़बड़ी की थी। अगर यह जारी रहता तो कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचता, और मुझे निकाल दिया जाता। यह एहसास होने पर मुझे थोड़ा डर लगा, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मैंने कहा कि मैं प्रायश्चित करके अपने रवैये को बदलना चाहती हूँ।
बाद में, प्रार्थना और खोज से मुझे एहसास हुआ कि मेरा नजरिया हमेशा बेतुका होता था, जो यह था कि अगर परमेश्वर के घर में मेरा कर्तव्य पक्का है, और मेरा तबादला नहीं होता, तो परमेश्वर का काम पूरा होने पर मुझे बचाया जाएगा और मैं बच जाऊंगी। मैंने यह कभी नहीं सोचा कि मेरा नजरिया सत्य के अनुरूप है या नहीं, या परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं। इसलिए मैंने अपनी हालत पर आधारित परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश ढूँढे। परमेश्वर कहते हैं, "मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। "अंतत:, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर है कि वे सत्य को समझ और हासिल कर सकते हैं या नहीं, और अंत में, वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं, खुद को उसकी व्यवस्था की दया पर छोड़ सकते हैं या नहीं, अपने भविष्य और नियति पर कोई ध्यान न देकर एक योग्य सृजित प्राणी बन सकते हैं या नहीं। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, और यही वह मानक है, जिसे वह पूरी मानवजाति को मापने के लिए इस्तेमाल करता है। यह मानक अपरिवर्तनीय है, और तुम्हें इसे याद रखना चाहिए। इस मानक को अपने मन में अंकित कर लो, और किसी अवास्तविक चीज का अनुसरण करने के लिए कोई दूसरा मार्ग ढूँढ़ने की मत सोचो। उद्धार पाने की इच्छा रखने वाले सभी लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक हमेशा के लिए अपरिवर्तनीय हैं। वे वैसे ही रहते हैं, फिर चाहे तुम कोई भी क्यों न हो" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट हैं। लोग कौनसे कर्तव्य निभाते हैं और क्या वे स्थायी हैं, इस बात का उन्हें आशीष या शाप मिलने से कोई संबंध नहीं है। सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें आशीष मिले या शाप, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। यह मनुष्यों का कर्तव्य और दायित्व है। परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि अगर तुम अपना कर्तव्य निभाओगे और तुम्हारा तबादला नहीं होगा, तो तुम बचाए जाओगे और तुम्हें अच्छी मंजिल मिलेगी। परमेश्वर ने हमेशा कहा है कि सिर्फ सत्य का अनुसरण करने और सच्ची आज्ञाकारिता से ही लोगों को बचाया जा सकता है। परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक कभी नहीं बदले, और परमेश्वर अपनी अपेक्षाओं को दोहराता रहा है। ऐसा नहीं कि मुझे इन वचनों का पता नहीं था, पर मैं एक गैर-विश्वासी की तरह थी। मैंने इन वचनों को कभी नहीं माना या कभी स्वीकार नहीं किया, न ही परमेश्वर के अच्छे इरादों या उसके धार्मिक स्वभाव को समझा। मैं अपनी धारणाओं पर भरोसा करती थी और अपने विचारों से चिपकी हुई थी, और अपने सामने एक अस्पष्ट लक्ष्य रखे हुए थी। मुझे लगता था अगर मैं तबादले के बिना कोई कर्तव्य निभाती रही, तो मैं बच जाऊँगी। अब इस बारे में सोचते हुए यह सब कितना बेतुका लगता है! मैंने सिर्फ कर्तव्य निभाने को अपना लक्ष्य बना लिया था॰ और सत्य के अनुसरण पर कभी ध्यान नहीं दिया, न ही मैंने अपनी भ्रष्टता पर आत्मचिंतन करके उसे हल किया। तब मुझे अपने इरादों और भ्रष्ट स्वभाव का बोध नहीं था, और मैं सत्य की खोज नहीं करती थी। अगर मेरा कर्तव्य लंबे समय के लिए होता, तब भी क्या यह हमेशा चलता रहता? मेरे आसपास के कुछ लोग बरसों से अपना कर्तव्य निभा रहे थे, पर क्योंकि उन्होंने अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक नहीं किया था, वे अपने काम को जैसे-तैसे निपटाते रहे थे। नतीजा यह हुआ कि उन्हें निकाल दिया गया। दूसरे लोग अपने काम को अनुभव या प्रतिभा से करते थे, वे अहंकार के शिकार होकर मनमर्जी करने लगे, जिससे कलीसिया के काम में बाधा आई और उन्हें निकाल दिया गया। पर कुछ भाई-बहन सीधे-सादे हैं, वे कोई भी कर्तव्य स्वीकार लेते हैं, सत्य के अनुसरण पर ध्यान देते हैं और अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करते हैं, अगर उन्हें जानकारी नहीं होती तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करके सत्य खोजते हैं या दूसरों से संगति लेते हैं। वे अपने काम में ज्यादा असरदार हो जाते हैं, और परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं। इस तरह की घटनाएँ मेरे आसपास हो रही थीं, पर मैंने इन पर ध्यान क्यों नहीं दिया? फिर, जब परमेश्वर के घर के लोगों का तबादला, हमेशा कलीसिया के काम की जरूरतों के हिसाब से किया जाता है। अगर किसी की परमेश्वर में सच्ची आस्था होती है, तो कलीसिया उसके लिए उपयुक्त कर्तव्य चुनती है, और यह एक कर्तव्य से दूसरे कर्तव्य में बदलाव भर होता है, इससे सत्य की खोज के उनके अधिकार खत्म नहीं हो जाते, न ही उन्हें बचाया जाना रुक जाता है। यह पूरी तरह से सही है। मैं कर्तव्य में बदलाव को एक नकारात्मक चीज क्यों समझ रही थी? अब मुझे एहसास हुआ कि यह सोचना एक बेतुकी और हास्यास्पद बात थी कि स्थायी कर्तव्य से अच्छी मंजिल की गारंटी मिल जाएगी और मुझे निकाला नहीं जाएगा। यह मेरी धारणा थी, और यह खतरनाक थी! यह बोध होते ही मेरा दिल रोशन हो गया और मैंने राहत की सांस ली। मेरी मानसिक हालत अब काफी बेहतर थी। अब मुझे ऐसा नहीं लगता था कि एक कर्तव्य दूसरे से बेहतर है। दोनों ही परमेश्वर के आदेश थे, और अमूल्य थे। मैं उन्हें अच्छी तरह से करना चाहती थी। मैंने यह परमेश्वर पर छोड़ दिया कि मैं पार्ट-टाइम काम जारी रखूंगी या नहीं, मैं उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो गई।
नवंबर के आखिर में, मुझसे कहा गया कि पार्ट-टाइम काम कोई और करेगा। यह खबर सुनकर, मुझे जो महसूस हुआ, उसे मैं बता नहीं सकती। मैं उदास हो गई। मुझे एहसास हुआ कि मेरी हालत ठीक नहीं थी, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए, "परमेश्वर के प्रति, और अपने कर्तव्य के प्रति, लोगों को एक ईमानदार दिल रखना चाहिए। अगर वे ऐसा करते हैं, तो वे परमेश्वर का भय मानने वाले लोग होंगे। ईमानदार दिल वाले लोगों का परमेश्वर के प्रति कैसा रवैया होता है? कम-से-कम उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है, ऐसा दिल जो सब मामलों में परमेश्वर का आज्ञापालन करता है, वे आशीषों या दुर्भाग्यों को लेकर कोई पूछताछ नहीं करते, परिस्थितियों की बात नहीं करते, और खुद को परमेश्वर की दया पर छोड़ देते हैं—ऐसे लोग ईमानदार दिल वाले होते हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के सिद्धांतों की खोज करके ही व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, समझ आया परमेश्वर चाहता है मैं ईमानदार दिल से अपने कर्तव्य निभाऊँ, उसका आज्ञापालन करूँ, योजनाएँ बनाने के बजाय उसके आगे समर्पण करूँ। परमेश्वर के घर में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसने साजिश रचकर अपनी जगह बचाए रखी हो। सिर्फ पवित्र, ईमानदार, जमीन से जुड़े लोग, और जो सत्य का अनुसरण करते हैं, वे ही मजबूती से टिके रह पाते हैं। कि यह परिस्थिति मेरे लिए एक परीक्षा थी। मैं अपने कर्तव्य में चुनाव नहीं कर सकती थी। मुझे परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन करके अपने वर्तमान कर्तव्य को संजोना था। कर्तव्य चाहे कितनी ही अवधि के लिए हो, मेरे लिए चाहे किसी भी दूसरे कर्तव्यों की व्यवस्था की जाए, मुझे इसे निर्मल हृदय से स्वीकारना चाहिए, और कर्तव्य निभाने में अपना भरसक प्रयास करना चाहिए। इस परिवेश के अनुभव द्वारा मेरा गलत रवैया और आशीष पाने का इरादा उजागर होता है। इसके बिना, मैं अपनी आस्था में मिलावट से अनजान ही रहती, न ही यह जान पाती कि कर्तव्य के प्रति कौनसा रवैया परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। यह अनमोल खजाना था। साथ ही, कर्तव्य में अचानक बदलाव से मैंने एक तथ्य को समझा : परमेश्वर हर चीज को नियंत्रित करता है, और हर व्यक्ति के लिए कर्तव्य भी वही चुनता है। यह एक ऐसी चीज है जिसे लोग नहीं बदल सकते। एक गैर-विश्वासी की तरह मैं परमेश्वर की प्रभुसत्ता को नहीं जानती थी, और अपने खुद के प्रयासों से अपने कर्तव्य बचाना चाहती थी। मैं मूर्ख और अज्ञानी थी! मैं किसी मनचाहे कर्तव्य को बचाए रखने की उम्मीद कैसे कर सकती थी? परमेश्वर का आज्ञापालन करके ही मैं सुख-चैन से जी सकती थी। बाद में, कलीसिया ने मेरे लिए एक अन्य पार्ट-टाइम काम की व्यवस्था कर दी, पर अब मैं नहीं सोचती थी कि यह कितने समय तक चलेगा। मैं सिर्फ अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहती थी, अपने कर्तव्य में सत्य का अभ्यास और अनुसरण करना, अपनी भ्रष्टता को खत्म करना, सच्चे इंसान की तरह जीना और परमेश्वर के प्रति सच्ची निष्ठा रखना चाहती थी।
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