झूठे अगुआ की शिकायत करना : एक निजी संघर्ष

24 जनवरी, 2022

गन क्षीयो, चीन

पिछले साल अगस्त में अपने कर्तव्य से बर्खास्त कर दिए जाने के बाद मुझे दूसरी कलीसिया में भेज दिया गया था। मैंने देखा कि वहाँ मेरी पहली ही सभा में भाई लियांग एक घंटे देर से पहुंचा। वहाँ कलीसिया अगुआ बहन तैन भी थी। मैंने सोचा, "मैंने भाई-बहनों को कहते सुना है कि भाई लियांग लापरवाह है और अपना कर्तव्य मनमाने ढंग से निभाता है, और सभा में हमेशा देर से आता है। आज की सभा में भी वह देर से आया है, इसलिए बहन तैन को इस समस्या पर उसके साथ संगति करनी चाहिए।" पर वह इसे हल्के में ले रही थी और कुछ नहीं बोल रही थी। सभा में एक दूसरे भाई ने पैसे की तंगी की बात की और वह काफी दुखी था। हम में से कुछ ने परमेश्वर के कुछ वचन ढूँढे और उन्हें अपनी समझ और अनुभव से जोड़ा, पर कलीसिया अगुआ बहन तैन ने संगति में कोई हिस्सा नहीं लिया। वह कोई जिम्मेदारी नहीं ले रही थी और किसी की कोई मदद किए बिना सिर्फ काम का दिखावा कर रही थी। मैं उससे इस बारे में बात करना चाहती थी। पर फिर मुझे लगा कि वहाँ यह मेरी पहली सभा ही थी, इसलिए शायद मुझे पूरी बात न पता हो, तो मुझे थोड़ा सब्र करना चाहिए। पर अगली कुछ सभाओं में भी यही सब देखकर मेरा दिमाग घूम गया। कभी-कभी हमने परमेश्वर के कुछ वचन ही पढ़े होते कि वह जल्दी से सभा खत्म कर देती, और संगति की कोई कोशिश न करती। मैं सोच रही थी कि एक अगुआ के कर्तव्य का प्रमुख हिस्सा परमेश्वर के वचनों पर भाई-बहनों में संगति की अगुवाई करना है, ताकि वे सत्य को समझकर परमेश्वर के वचनों की असलियत में प्रवेश कर सकें। पर बहन तैन संगति की अगुवाई नहीं कर रही थी, और लोगों की समस्याओं पर बात नहीं कर रही थी। क्या यह कर्तव्य से हाथ झाड़ना नहीं है? मैं कुछ कहना चाहती थी, पर मुझे डर था कि वह इसे मानेगी नहीं, कहेगी कि मैं अहंकारी हूँ और मुझे अपना कर्तव्य खो देने के बाद दूसरों के मामले में टांग अड़ाने की बजाय आत्म-चिंतन करना चाहिए। यह सोचकर मैंने इसे भूल जाने और खुद पर ध्यान देने का फैसला किया।

एक महीने बाद मुझे एडिटोरियल टीम में डाल दिया गया और दो अन्य समूहों की सभाओं से जोड़ दिया गया। मैं यह देखकर हैरान रह गई कि इन सभाओं के सदस्य परमेश्वर के वचनों पर संगति करने या अपने अनुभवों की बात करने पर ध्यान नहीं देते थे। कभ-कभी वे सिर्फ गपशप करते रहते। मुझे लगा कि कलीसिया जीवन की गुणवत्ता सीधे-सीधे इसके अगुआ से जुड़ी होती है, और अगर यही होता रहा तो भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश पर बुरा असर पड़ेगा, इसलिए मैंने बहन तैन से बात की। वह कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थी, बल्कि वह इस बात पर अड़ी रही कि कलीसिया जीवन की गुणवत्ता भाई-बहनों की समस्या है। मैं सोचने लगी कि वह आत्म-चिंतन करने की बजाय सारी जिम्मेदारी कलीसिया के दूसरे सदस्यों पर क्यों डाल रही है। कलीसिया अगुआ के तौर पर भी वह सच को स्वीकार करने या भाई-बहनों के सुझाव सुनने को तैयार न थी, और कलीसिया जीवन के लिए उसने कोई जिम्मेदारी भी नहीं उठाई थी। वह सत्य को समझने या सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में दूसरों की अगुवाई कैसे कर सकती थी? इससे तो भाई-बहनों को नुकसान ही हो सकता था। मुझे लगा कि उससे एक बार फिर बात करनी चाहिए। लेकिन जैसे ही मैं कुछ कहने लगी, मुझे चिंता होने लगी। पिछली बार उसने इसे मानने से इनकार करने के साथ ही तेवर भी दिखाए थे। इसे दोहराने से क्या होगा? वह कलीसिया अगुआ थी, और अगर मैंने फिर बात छेड़ी तो वह कहेगी कि मैं अपनी हद लांघ रही हूँ और वह मुझसे चिढ़ जाएगी। मुझे लगा अपना मुंह बंद रखना ही ठीक था। मुझे यह ठीक तो नहीं लग रहा था, पर आखिर में मैंने कुछ न कहने का फैसला किया। कुछ दिन बाद, बहन तैन ने मुझसे कहा कि वह एक सभा में भाई-बहनों का निपटारा करेगी, और फिर सच में विस्तार से बताया कि वह उनका कैसे निपटारा करेगी। मैं यह सुनकर दंग रह गई—उसमें आत्म-बोध की इतनी कमी कैसे हो सकती थी? कलीसिया जीवन अनुशासनहीन था क्योंकि एक कलीसिया अगुआ के तौर पर वह गैर-जिम्मेदार और लापरवाह थी। वह इसके लिए दूसरों को दोष कैसे दे सकती थी? सत्य पर संगति किए बिना लोगों की सिर्फ काट-छांट या निपटारा करने से कुछ भी हल नहीं हो सकता। मैं फिर से उसकी बात छेड़ना चाहती थी, पर उसकी त्यौरियां चढ़ी देखकर मुझे लगा कि वह इसे अच्छे से नहीं लेगी। मुझे अभी-अभी मेरे कर्तव्य से बर्खास्त किया गया था, तो मुझे उसके मामलों में बोलने का क्या हक था? साथ ही, हम अक्सर एक-दूसरे से टकराते रहते थे, अगर वह नाराज हो जाती तो मेरे लिए कलीसिया में रहना मुश्किल हो जाता। अगर वह मुझे कोई काम सौंपने से मना कर देती, तो मैं उद्धार का अवसर खो बैठती। मैंने कुछ न कहने, संयम बरतने, चुपचाप कलीसिया का जीवन जीने और अपना कर्तव्य निभाने का फैसला किया।

बाद में मैं सुसमाचार टीम की सभा में गई तो वे सब कह रहे थे कि जब बहन तैन सुसमाचार के काम की इंचार्ज थी तो वह बहुत दिनों तक उनके साथ सभा ही नहीं करती थी। उन्होंने यह भी कहा कि वे नए विश्वासियों की समस्याएँ नहीं सुलझा पा रहे थे, जिस वजह से उन लोगों ने सभाओं में आना ही छोड़ दिया था। मैं सोचने लगी, "सुसमाचार का काम कितना महत्वपूर्ण है, पर बहन तैन न उनकी समस्याओं की बात कर रही है और न उन्हें हल करने के लिए कुछ कर रही है। कितनी गैर-जिम्मेदारी की बात है! नए विश्वासियों के मुंह फेरने में बहन तैन का सीधा हाथ है, क्योंकि उन्हें सिंचन या पोषण नहीं मिल रहा है!" मुझे लगता था कि यह बड़ी गंभीर समस्या थी और मुझे उससे आमने-सामने बात करनी ही होगी। फिर मैंने दो दिन बाद बहन तैन से मिलकर सुसमाचार टीम का मुद्दा उठाया, पर उसने इसे पूरी तरह भाई-बहनों के सिर मढ़ दिया। वह किसी भी तरह की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी। मैंने यह भी कहा कि व्यावहारिक समस्याओं को हल करने के लिए कुछ न करके वह कलीसिया अगुआ के तौर पर अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी, इससे परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुंचेगा, जो भाई-बहनों के हित में नहीं होगा। पर उसने बुरा-सा मुंह बनाया और एक शब्द भी नहीं कहा। वह व्यावहारिक काम नहीं कर रही थी, वह अपने कर्तव्य का बोझ नहीं उठा रही थी, और वह कभी भी सत्य को नहीं स्वीकारती थी। मैं जानती थी इसका मतलब झूठा अगुआ होना है और मुझे एक बड़े अगुआ से शिकायत करके उसे जल्द-से-जल्द उसके ओहदे से हटवाना चाहिए। पर मैं हिचकिचा रही थी। अगर मैंने मामले को उठाया और उसे पता चल गया, तो क्या वह कहेगी मैं जानबूझकर उसके पीछे पड़ी हूँ? अगर उसे बर्खास्त कर दिया गया तब तो ठीक है, पर अगर नहीं किया गया तो वह भड़क नहीं जाएगी? तो मेरे लिए इस कलीसिया में रहना बहुत मुश्किल हो जाएगा। अगर उसने मुझे घर वापस भेज दिया और मैं कर्तव्य नहीं निभा पाई तो मैं उद्धार का अवसर खो बैठूँगी। तो क्या आस्था के मेरे तमाम वर्ष बेकार नहीं चले जाएंगे? इसलिए मैंने उसकी समस्याओं की शिकायत करने की बात छोड़ देने की सोची और बस उस समय का कर्तव्य निभाती रही। पर इस फैसले के बाद मैं बेचैन-सी महसूस करने लगी। मुझे पता था बहन तैन झूठी अगुआ थी, पर मैं चुप रही थी। यह परमेश्वर के घर की मर्यादा के खिलाफ था। मैं अजीब उलझन में थी, इसलिए मैंने परमेश्वर के सम्मुख प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैंने बहन तैन की परेशानियाँ देखी हैं और मैं परमेश्वर के घर के काम को बचाने के लिए उसकी शिकायत करना चाहती हूँ। पर मैं थोड़ी चिंतित हूँ। मुझे डर है वह भड़क जाएगी और मुझसे बदला लेगी। कृपा करके मुझे रास्ता दिखाओ, ताकि मैं अंधेरी ताकतों से उबरकर सत्य का अभ्यास कर सकूँ।" इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "एक अगुआ या कार्यकर्ता के साथ व्यवहार करने के तरीके के बारे में लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? अगर अगुआ या कार्यकर्ता जो करता है वह सही है, तो तुम उसका पालन कर सकते हो; अगर वह जो करता है वह गलत है, तो तुम उसे उजागर कर सकते हो, यहाँ तक कि उसका विरोध कर सकते हो और एक अलग राय भी ज़ाहिर कर सकते हो। अगर वह व्यावहारिक कार्य करने में असमर्थ है, और खुद को एक झूठे अगुआ, झूठे कार्यकर्ता या मसीह विरोधी के रूप में प्रकट करता है, तो तुम उसकी अगुआई को स्वीकार करने से इनकार कर सकते हो, तुम उसके ख़िलाफ़ शिकायत करके उसे उजागर भी कर सकते हो। हालाँकि, परमेश्वर के कुछ चुने हुए लोग सत्य को नहीं समझते और विशेष रूप से कायर हैं, इसलिए वे कुछ करने की हिम्मत नहीं करते। वे कहते हैं, 'अगर अगुआ ने मुझे निकाल दिया, तो मैं बर्बाद हो जाऊँगा; अगर उसने सबको मुझे उजागर करने और मेरा त्याग करने पर मजबूर कर दिया, तो मैं परमेश्वर पर विश्वास नहीं कर पाऊँगा। अगर मैंने कलीसिया को छोड़ दिया, तो परमेश्वर मुझे नहीं चाहेगा और मुझे नहीं बचाएगा। कलीसिया परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है!' क्या सोचने के ऐसे तरीके उन चीजों के प्रति ऐसे व्यक्ति के रवैये को प्रभावित नहीं करते हैं? क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है कि अगर अगुआ ने तुमको निकाल दिया, तो तुमको बचाया नहीं जायेगा? क्या तुम्हारे उद्धार का प्रश्न तुम्हारे प्रति अगुआ के रवैये पर निर्भर है? इतने सारे लोगों में इतना डर क्यों है? अगर कोई झूठा अगुआ या कोई मसीह विरोधी व्यक्ति तुम्हें धमकी देता है, और तुम इसके ख़िलाफ़ ऊँचे स्तर पर जाकर आवाज़ नहीं उठाते और यहाँ तक कि यह गारंटी भी देते हो कि इसके बाद से तुम अगुआ की बातों से सहमत होगे, तो क्या तुम बर्बाद नहीं हो गये? क्या इस तरह का व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है? तुम न केवल ऐसे दुष्ट व्यवहार को उजागर करने की हिम्मत नहीं करते जो शैतानी मसीह विरोधियों द्वारा किया जा सकता है, बल्कि इसके विपरीत, तुम उनका आज्ञापालन करते हो और यहाँ तक कि उनके शब्दों को सत्य मान लेते हो, जिनके प्रति तुम समर्पित होते हो। क्या यह मूर्खता का प्रतीक नहीं है? फिर, जब तुम्हें क्षति पहुँचती है, तो क्या तुम इसी के योग्य नहीं हो? क्या तुम्हें परमेश्वर के कारण क्षति पहुँची है? तुमने स्वयं ही अपने लिए ऐसा चाहा था। तुमने एक मसीह-विरोधी को अपना अगुआ बनाया, और उसके साथ ऐसा व्यवहार किया मानो वह कोई भाई या बहन हो—और यह तुम्हारी गलती है। किसी मसीह-विरोधी के साथ कैसा रवैया अपनाया जाना चाहिए? उसे बेनकाब करना चाहिए और उसके विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए। यदि तुम इसे अकेले नहीं कर सकते, तो कई लोगों को एक साथ आना होगा और उसके बारे में बताना होगा। यह पता लगने पर कि उच्च पदों पर आसीन कुछ अगुआ और कार्यकर्ता मसीह-विरोधी मार्ग पर चल रहे थे, भाइयों और बहनों को कष्ट दे रहे थे, वास्तविक कार्य नहीं कर रहे, और पद के लाभ का लालच कर रहे थे, तो कुछ लोगों ने उन मसीह-विरोधियों को हटाने के लिए एक याचिका पर हस्ताक्षर किए। इन लोगों ने कितना अद्भुत काम किया! यह दिखाता है कि कुछ लोग सत्य को समझते हैं, उनमें थोड़ी महानता बची है, और वे शैतान द्वारा न तो नियंत्रित हैं और न ही धोखा खाए हुए हैं। यह इस बात को भी साबित करता है कि मसीह-विरोधियों और झूठे अगुओं का कलीसिया में कोई प्रमुख स्थान नहीं है, और वे जो कुछ कहते या करते हैं उसमें अपने असली चेहरे को स्पष्ट दिखाने की उनमें हिम्मत नहीं होती। यदि वे अपना चेहरा दिखाते हैं, तो उनकी निगरानी करने, उनको पहचानने, और उन्हें अस्वीकार करने के लिए लोग मौजूद हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं')। इसे सुनकर मेरा दिल रोशन हो गया। जब हम कलीसिया में कोई झूठा अगुआ देखते हैं तो हम आँख मूंदकर उनकी हर बात नहीं मान सकते, हमें हिम्मत से उन्हें उजागर करना होगा और बड़े अगुआओं से उनकी शिकायत करनी होगी। परमेश्वर की यही इच्छा है। मुझे पता था बहन तैन व्यावहारिक काम नहीं करती और वह झूठी अगुआ है, पर मुझमें उसकी समस्या के बारे में कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं थी क्योंकि मैं इसे नकारात्मक नजरिए से देख रही थी। मुझे लगता था कि मुझे कोई कर्तव्य देना या न देना उसके हाथ में था, अगर वह नाराज हो गई तो मैं अपना कर्तव्य और बचाए जाने का अवसर खो दूँगी। पर सच्चाई यह है कि परमेश्वर के घर में सिर्फ सत्य और खुद परमेश्वर का राज है। मुझे कोई कर्तव्य मिलेगा या नहीं, मुझे बचाया जाएगा या नहीं, सब परमेश्वर के हाथ में है, यह किसी अगुआ के हाथ में नहीं है। अगर कोई झूठा अगुआ कलीसिया को अपनी मुट्ठी में कर ले और मुझे दबाया जाए तो भी ऐसा ज्यादा देर नहीं चलेगा। परमेश्वर सब देखता है और पवित्र आत्मा सबको उजागर कर देता है, इसलिए झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी देर-सवेर बेनकाब हो जाएंगे और हटा दिए जाएंगे। मुझे एहसास हुआ कि मैंने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं समझा था, मैं परमेश्वर के बजाय लोगों को नाराज करने से डर रही थी। मेरे दिल में परमेश्वर की कोई जगह नहीं थी। मैं कैसी विश्वासी थी? मुझे लगा मैं कितनी मूर्ख थी। मैं यह सोच रही थी कि खुद अगुआ न होने के कारण मैं उसकी बुराई नहीं कर सकती थी, वरना लोग मुझे अपने काम से मतलब रखने के लिए कहेंगे। यह इसे देखने का सही तरीका नहीं था। परमेश्वर के घर की सदस्य होने के नाते, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझे बर्खास्त करके धार्मिक कार्य या आत्म-चिंतन करने के लिए कहा जाए या कोई कर्तव्य सौंपा जाए—अगर मैं परमेश्वर के घर में कोई झूठा अगुआ देखती हूँ, तो उसकी शिकायत करना मेरी जिम्मेदारी और दायित्व है। यह परमेश्वर के घर के काम की मर्यादा रखना और एक सकारात्मक चीज़ है। यह भाई-बहनों के जीवन के लिए जिम्मेदारी लेना भी है, ऐसा करना अपनी सीमा लांघना या दखल देना नहीं है, यह अहंकारी होना या खुद को बहुत महान समझना तो बिल्कुल भी नहीं है। मैं देख रही थी कि इसे लेकर पहले मेरा नजरिया कितना बेतुका था।

इस एहसास से मैं यह आत्म-चिंतन करने लगी कि मैं एक झूठे अगुआ को बेनकाब करने से इतना डर क्यों रही थी। इस समस्या के मूल में क्या था? अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "विवेक और सूझ-बूझ दोनों ही व्यक्ति की मानवता के घटक होने चाहिए। ये दोनों सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें विवेक नहीं है और सामान्य मानवता की सूझ-बूझ नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वह ऐसा व्यक्ति है जिसमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। आओ, इसका बारीकी से विश्लेषण करें। ऐसा व्यक्ति किस लुप्त मानवता का प्रदर्शन करता है कि लोग कहते हैं कि इसमें इंसानियत है ही नहीं? ऐसे लोगों में कैसे लक्षण होते हैं? वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं? ऐसे लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं, और अपने को उन चीज़ों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं करते हैं। वे परमेश्वर की गवाही देने या अपने कर्तव्य को करने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते हैं और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। ... यहाँ तक कि कुछ अन्य लोग भी हैं जो अपने कर्तव्य निर्वहन में किसी समस्या को देख कर चुप रहते हैं। वे देखते हैं कि दूसरे बाधा और परेशानी उत्पन्न कर रहे हैं, फिर भी वे इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर जरा सा भी विचार नहीं करते हैं, और न ही वे अपने कर्तव्य या उत्तरदायित्व का ज़रा-सा भी विचार करते हैं। वे केवल अपने दंभ, प्रतिष्ठा, पद, हितों और मान-सम्मान के लिए ही बोलते हैं, कार्य करते हैं, अलग से दिखाई देते हैं, प्रयास करते हैं और ऊर्जा व्यय करते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का कोई संकल्प और इच्छा नहीं होती है; सत्य उनका जीवन बन गया है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे दुष्ट या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान उठाना पड़ता है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? इनमें से तो कोई नहीं; बात यह है कि तुम कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित किये जा रहे हो। इन सभी स्वभावों में से एक है, कुटिलता। तुम यह मानते हुए सबसे पहले अपने बारे में सोचते हो, 'अगर मैंने अपनी बात बोली, तो इससे मुझे क्या फ़ायदा होगा? अगर मैंने अपनी बात बोल कर किसी को नाराज कर दिया, तो हम भविष्य में एक साथ कैसे काम कर सकेंगे?' यह एक कुटिल मानसिकता है, है न? क्या यह एक कुटिल स्वभाव का परिणाम नहीं है? एक अन्‍य स्‍वार्थी और कृपण स्‍वभाव होता है। तुम सोचते हो, 'परमेश्‍वर के घर के हित का नुकसान होता है तो मुझे इससे क्‍या लेना-देना है? मैं क्‍यों परवाह करूँ? इससे मेरा कोई ताल्‍लुक नहीं है। अगर मैं इसे होते देखता और सुनता भी हूँ, तो भी मुझे कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। यह मेरी ज़ि‍म्‍मेदारी नहीं है—मैं कोई अगुआ नहीं हूँ।' इस तरह की चीज़ें तुम्‍हारे अंदर हैं, जैसे वे तुम्‍हारे अवचेतन मस्तिष्‍क से अचानक बाहर निकल आयी हों, जैसे उन्‍होंने तुम्‍हारे हृदय में स्‍थायी जगहें बना रखी हों—ये मनुष्‍य के भ्रष्‍ट, शैतानी स्‍वभाव हैं। ... तुम्हारा शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें नियंत्रित कर रहा है; तुम तो अपने मुँह के मालिक भी नहीं हो। भले ही तुम ईमानदारी भरे शब्दों को कहना चाहते हो, लेकिन इसके बावजूद तुम ऐसा करने में असमर्थ होने के साथ-साथ डरते भी हो। तुम्हें जो करना चाहिए, जो बातें तुमको कहनी चाहिए, जो ज़िम्मेदारियाँ तुम्हें निभानी चाहिए, उनका दस हज़ारवाँ हिस्सा भी तुम नहीं कर पा रहे; तुम्हारे हाथ-पैर, तुम्हारे शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव से बंधे हुए हैं। इन पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है। तुम्हारा शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें यह बताता है कि बात कैसे करनी है, और तुम उसी तरीके से बात करते हो; यह तुम्हें बताता है कि क्या करना चाहिए और फ़िर तुम वही करते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। "तुम कभी सत्य की खोज नहीं करते, सत्य का अभ्यास तो तुम और भी कम करते हो। तुम बस प्रार्थना करते रहते हो, अपना निश्चय दृढ़ करते हो, संकल्प करते हो और शपथ लेते हो। यह सब करके तुम्हें क्या मिला है? तुम अब भी हर बात का समर्थन करने वाले व्यक्ति ही हो; तुम किसी को नहीं उकसाते और न ही किसी को नाराज करते हो। अगर कोई बात तुम्हारे मतलब की नहीं है, तो तुम उससे दूर ही रहते हो: 'मैं उन चीजों के बारे में कुछ नहीं कहूँगा जिनका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है, इनमें कोई अपवाद नहीं है। अगर कोई चीज़ मेरे हितों, मेरे रुतबे या मेरे आत्म-सम्मान के लिए हानिकारक है, मैं उस पर कोई ध्यान नहीं दूँगा, इन सब चीज़ों पर सावधानी बरतूंगा; मुझे बिना सोचे-समझे काम नहीं करना चाहिए। जो कील बाहर निकली होती है, सबसे पहली चोट उसी पर की जाती है और मैं इतना बेवकूफ नहीं हूँ!' तुम पूरी तरह से दुष्टता, कपट, कठोरता और सत्य से नफ़रत करने वाले अपने भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में हो। वे तुम्हें ज़मीन पर गिरा रहे हैं, ये तुम्हारे लिये इतने कठोर हो गये हैं कि तुम सुनहरे छल्ले वाले सुरक्षा कवच को पहनकर भी इसे बरदाश्त नहीं कर सकते। भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण में रहना हद से ज़्यादा थकाऊ और कष्टदायी है!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचनों से मेरी समझ में आया कि किसी झूठे अगुआ को बेनकाब करने से डरना इन शैतानी फलसफों के कारण है, जैसे कि "चीजों को प्रवाहित होने दें यदि वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न करती हों," "ज्ञानी लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं," और "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।" ये शैतानी जहर मेरी प्रकृति का हिस्सा बन गए थे, इसलिए मैं परमेश्वर के घर के बजाय लगातार खुद के हितों के बारे में सोच रही थी। मैं बहुत नीच, स्वार्थी और कुटिल होती जा रही थी। मैं साफ देख रही थी कि बहन तैन व्यावहारिक काम नहीं करती और सच्चाई को स्वीकार नहीं करती है, वह एक झूठी अगुआ थी। उसका व्यवहार पहले ही कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को गंभीर नुकसान पहुंचा चुका था, इसलिए मुझे इसे सामने लाना होगा। पर मुझे उसकी नाराजगी और बदले से डर लगता था, अपना कर्तव्य निभाने का अवसर खो देने से, मुझमें उसकी शिकायत करने की हिम्मत नहीं थी। मैं अपनी प्रतिष्ठा और भविष्य की मंज़िल को बचाना चाहती थी। इसलिए मैं कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को नुकसान होते देखती रही, और एक झूठे अगुआ से आँखें मूंदकर सुरक्षित रवैया अपनाए रही। मैं शैतान के साथ खड़ी थी, एक झूठे अगुआ को बचाते हुए, जो कलीसिया के काम में लगातार रुकावट डाल रही थी। मैं शैतानी जहरों के साथ जीते हुए सिर्फ अपनी भलाई सोच रही थी, मुझमें न परमेश्वर के लिए समर्पण था, न ही अंतरात्मा और विवेक। मैं शैतान की अनुचर थी और इंसान जैसा जीवन नहीं जी रही थी। मेरी प्रकृति कितनी स्वार्थी, कुटिल और दुष्ट थी। जब मुझे यह सब साफ पता चल गया, तो मैं परमेश्वर की ऋणी महसूस करने लगी, मुझे अपने स्वार्थ और विवेकहीनता से नफरत होने लगी। मैं फौरन ही बहन तैन की शिकायत करना चाहती थी और परमेश्वर के दिल को दुखी नहीं करना चाहती थी। इसलिए मैंने ऊपर के अगुआ को बहन तैन की समस्या के बारे में सब कुछ बता दिया, लेकिन कुछ दिन बीत जाने पर भी मैंने कुछ नहीं सुना कि उसके साथ क्या हुआ। मुझे चिंता होने लगी। अगर इस झूठी अगुआ को फौरन बर्खास्त न किया गया तो परमेश्वर के घर का काम ठप्प हो सकता था, इसलिए मैं हालात का पता लगाने के लिए दोबारा लिखने को सोचने लगी। पर फिर मैंने सोचा, अगर मैंने यह बात दोबारा छेड़ी तो वह अगुआ यह न सोचे कि मैं बहुत ज्यादा दखल दे रही हूँ। मैं अपनी बात कह चुकी थी और मैंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी थी, तो फिर कैसी चिंता? पर मेरी बेचैनी कम नहीं हुई, और मैं उस रात सो भी नहीं पाई।

एक सुबह मैंने परमेश्वर के ये वचन पढे : "यदि कलीसिया में ऐसा कोई भी नहीं है जो सत्य का अभ्यास करने का इच्छुक हो, और परमेश्वर की गवाही दे सकता हो, तो उस कलीसिया को पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया जाना चाहिए और अन्य कलीसियाओं के साथ उसके संबंध समाप्त कर दिये जाने चाहिए। इसे 'मृत्यु दफ़्न करना' कहते हैं; इसी का अर्थ है शैतान को बहिष्कृत करना। यदि किसी कलीसिया में कई स्थानीय गुण्डे हैं, और कुछ छोटी-मोटी 'मक्खियों' द्वारा उनका अनुसरण किया जाता है जिनमें विवेक का पूर्णतः अभाव है, और यदि समागम के सदस्य, सच्चाई जान लेने के बाद भी, इन गुण्डों की जकड़न और तिकड़म को नकार नहीं पाते, तो उन सभी मूर्खों का अंत में सफाया कर दिया जायेगा। भले ही इन छोटी-छोटी मक्खियों ने कुछ खौफ़नाक न किया हो, लेकिन ये और भी धूर्त, ज़्यादा मक्कार और कपटी होती हैं, इस तरह के सभी लोगों को हटा दिया जाएगा। एक भी नहीं बचेगा! जो शैतान से जुड़े हैं, उन्हें शैतान के पास भेज दिया जाएगा, जबकि जो परमेश्वर से संबंधित हैं, वे निश्चित रूप से सत्य की खोज में चले जाएँगे; यह उनकी प्रकृति के अनुसार तय होता है। उन सभी को नष्ट हो जाने दो जो शैतान का अनुसरण करते हैं! इन लोगों के प्रति कोई दया-भाव नहीं दिखाया जायेगा। जो सत्य के खोजी हैं उनका भरण-पोषण होने दो और वे अपने हृदय के तृप्त होने तक परमेश्वर के वचनों में आनंद प्राप्त करें। परमेश्वर धार्मिक है; वह किसी से पक्षपात नहीं करता। यदि तुम शैतान हो, तो तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते; और यदि तुम सत्य की खोज करने वाले हो, तो यह निश्चित है कि तुम शैतान के बंदी नहीं बनोगे—इसमें कोई संदेह नहीं है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि उसका स्वभाव पवित्र और धार्मिक है और वह किसी अपमान को सहन नहीं करता। वह झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को कलीसिया का काम बिगाड़ने और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में रुकावट डालने नहीं देता। जब झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी प्रकट होते हैं, तो परमेश्वर सत्य का अभ्यास न करने या कलीसिया के हितों की रक्षा न करने वालों से घृणा करता है। ऐसे लोग सत्य को समझकर भी इसका अभ्यास नहीं करते, सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचते हैं। वे बड़े चालाक लोग होते हैं, और अगर वे प्रायश्चित नहीं करते तो हटा दिए जाएंगे। मुझे पता था कि बहन तैन झूठी अगुआ थी, और अब जब उससे ऊपर वाला अगुआ जल्दी से कुछ कर नहीं रहा था, तो मुझे यह मामला उठाते रहकर इसे अंत तक पहुंचाना था। पर मैं सिर्फ खुद को बचाना चाहती थी और खुद मुझ पर असर न करने वाले मामलों को नजरअंदाज कर रही थी। एक झूठे अगुआ की शिकायत करने के बजाय, मैं उसे कलीसिया में मनमानी करने और इसका काम बिगाड़ने दे रही थी। यह शैतान की तरफ खड़े होना और एक झूठे अगुआ की दुष्टता में हिस्सेदारी करना था। ऐसा नहीं लगता था कि मैंने कुछ बहुत बुरा कर दिया है, पर अगर समस्याओं के मद्देनज़र मैं सत्य का अभ्यास नहीं करती या परमेश्वर के घर के काम को नहीं बचाती, तो अंत में मुझे हटा दिया जाएगा। जब मुझे यह एहसास हुआ, तो मुझे बहन तैन की जल्दी शिकायत न करने का पछतावा होने लगा, मेरी समझ में आया कि मुझे अपने हितों को ऊपर रखना छोड़ना होगा, और एक झूठे अगुआ को कलीसिया के काम को नुकसान पहुंचाने देने से रोकना होगा। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "अपने हर कार्य में तुम्हें यह जाँचना चाहिए कि क्या तुम्हारे इरादे सही हैं। यदि तुम परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य कर सकते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है। यह न्यूनतम मापदंड है। अपने इरादों पर ग़ौर करो, और अगर तुम यह पाओ कि गलत इरादे पैदा हो गए हैं, तो उनसे मुँह मोड़ लो और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करो; इस तरह तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर के समक्ष सही है, जो बदले में दर्शाएगा कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है, और तुम जो कुछ करते हो वह परमेश्वर के लिए है, न कि तुम्हारे अपने लिए। तुम जो कुछ भी करते या कहते हो, उसमें अपने हृदय को सही बनाने और अपने कार्यों में नेक होने में सक्षम बनो, और अपनी भावनाओं से संचालित मत होओ, न अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करो। ये वे सिद्धांत हैं, जिनके अनुसार परमेश्वर के विश्वासियों को आचरण करना चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आगे का रास्ता दिखाया। विश्वासियों के रूप में, हमें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार बोलना और कर्म करना चाहिए और उसकी जांच-पड़ताल को स्वीकार करना चाहिए। जब हमें पता चले कि हमारी निजी मंशाएं सही नहीं हैं, तो हमें खुद की इच्छाओं को भूलकर सत्य का अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर की यही इच्छा है। बड़े अगुआ ने बहन तैन के मामले में देर कर दी, हालांकि मुझे इसके पीछे का कारण नहीं पता था, पर यह मेरा इम्तिहान था यह देखने का कि क्या मैं अपने खुद के हितों को एक तरफ रखकर सत्य सिद्धांतों की रक्षा कर सकती हूँ। मुझे इसे सामने लाते रहना होगा और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए बहन तैन की शिकायत करनी होगी। इसलिए मैंने ऊंचे दर्जे के अगुआ से फिर से इसका जिक्र किया और एक झूठे अगुआ को बर्खास्त न करने के खतरनाक परिणामों की बात की। उसने जवाब में कहा कि पिछले कुछ दिनों से वह कुछ जरूरी मामलों में उलझी रही थी, पर वह सिद्धांत को देखते हुए बहन तैन को फौरन बर्खास्त कर देगी। उसके मुंह से यह सुनकर मुझे बहुत बड़ी राहत मिली और मैंने यह सीखा कि शांति पाने का इकलौता तरीका सत्य पर अमल करना है।

जल्दी ही बहन तैन को उसके कर्तव्य से हटा दिया गया और कलीसिया के काम के लिए कोई दूसरा अगुआ चुना गया। कुछ समय बाद कलीसिया जीवन ठीक ढंग से चलने लगा, और हम सबके काम में जैसे जान आ गई। हालात को ऐसा मोड़ लेते देखकर मैं सचमुच बहुत खुश थी, पर मुझे थोड़ा अपराध-बोध और पछतावा भी था। एक झूठे अगुआ का पता चलने पर मैंने सत्य पर अमल करके उसकी फौरन शिकायत नहीं की थी, बल्कि मैं अपने निजी हितों के बारे में सोचती रही थी। मैंने स्वार्थी, कुटिल और शैतानी स्वभाव दिखाया था और इससे परमेश्वर के घर के काम पर बुरा असर पड़ा था। मैंने देखा कि भ्रष्ट शैतानी स्वभावों के साथ जीना और सत्य का अभ्यास न करना असल में दुष्टता करना था, परमेश्वर इसकी निंदा और इससे घृणा करता है। मैंने यह भी देखा कि परमेश्वर का काम कितना बुद्धिमानी भरा है, कलीसिया में इस झूठी अगुआ को देखकर मैंने भले-बुरे की पहचान करना सीखा। मैंने यह भी अनुभव किया कि एक झूठा अगुआ परमेश्वर के चुने हुए लोगों का कितना बड़ा नुकसान कर सकता है, और उसे बर्खास्त करना परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का प्रदर्शन है। इससे भी बढ़कर, यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा और उद्धार है। मैंने देखा कि परमेश्वर के घर में मसीह और सत्य का बोलबाला है, और कोई भी व्यक्ति अपनी मनमानी नहीं चला सकता। किसी का ओहदा कितना ही ऊंचा क्यों न हो, अगर वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं चलते तो वे कभी भी परमेश्वर के घर में मजबूती से कदम नहीं जमा पाएंगे, और अंत में हटा दिए जाएंगे। सिर्फ परमेश्वर के वचनों पर अमल करना और सिद्धांत के अनुसार काम करना ही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है।

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