अब मुझे पता है परमेश्वर के सामने गवाही कैसे देनी है

27 फ़रवरी, 2022

शू लू, चीन

अप्रैल 2021 में, मैंने बहन चेन झेंगशिन के साथ सुसमाचार फैलाने का काम शुरू किया। चूँकि मैं पहले ही अतीत में सुसमाचार फैला चुकी थी और मुझे काम का संबंधित अनुभव था, मुझे कुछ समय बाद बेहतर नतीजे मिलने लगे। मैं कई बार उसके सामने शेखी मारती कि मैं कैसे सुसमाचार फैलाती हूँ, और बहुत विस्तार से बताती कि कैसे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के सवालों के जवाब देती हूँ। झेंगशिन सचमुच हैरान रह जाती। एक बार, कुछ नए विश्वासी जो सभाओं में नहीं आते थे, मेरी सहभागिता के बाद सभा में आने लगे। मैं जानती थी परमेश्वर उन्हें राह दिखाकर उनका मन बदल रहा है, पर मैं खुद से खुश थी, ये सोचकर कि मैंने अपना काम कर दिया था। संगति से लौटकर, मैं झेंगशिन के सामने शेखी मारने से खुद को नहीं रोक पाई, कहा, “मैंने परमेश्वर पर भरोसा किया और कुछ बातों पर सहभागिता करने के बाद वे सभी सभा में आने को सहमत हो गए।” उसके प्रशंसा भरे अंदाज़ को देखकर मुझे और भी अच्छा लगा। एक और बार, वह निराशा में सिर झुकाए लौटी क्योंकि वह किसी ऐसे व्यक्ति के प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकी थी जिसे वह उपदेश दे रही थी। मैंने पूछा कि उसने उन लोगों से क्या कहा था, तो उसने मुझे सब बताया। मैंने मन में सोचा “तुममें अभी भी जरूरी अनुभव की कमी है। यह कोई मुश्किल सवाल नहीं था और मैं होती तो फौरन जवाब दे दिया होता। मुझे तुमसे चर्चा करनी पड़ेगी कि कैसे सुसमाचार साझा किया जाता है।” इसी के साथ, मैंने उसे अच्छी तरह सहभागिता करने का तरीका बताया। झेंगशिन ने मेरी बात पर सहमति जताई, उसने कहा कि उसमें बहुत कमी थी और उसने मुझसे मदद माँगी। वैसे तो मैंने कहा कि हमें परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, पर मैं खुद से बहुत खुश थी, और सोच रही थी कि सुसमाचार साझा करने में मैं कितनी बुद्मान थी।

एक सभा में, एक अगुआ ने पूछा, हाल के दिनों में सुसमाचार फैलाते हुए हमने क्या सीखा और क्या अनुभव किया। झेंगशिन ने कहा, “मैंने सुसमाचार फैलाते हुए जाना कि मुझमें अभी भी कई कमियां हैं। संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के ऐसे बहुत-से सवाल थे जिनके जवाब मुझे पता नहीं थे। लगता है कि शू लू सहभागिता के लिए परमेश्वर के वचन फौरन ढूंढ लेती हैं और उनके प्रश्नों के तुरंत समाधान कर पाती हैं।” अगुआ ने मुझे देखकर मुस्कुराते हुए सिर हिलाया। मैं अगुआ को दिखाना चाहती थी कि मैं कितना जानती थी, और किसी भी सवाल का आसानी से जवाब दे सकती थी, तो मैंने जानबूझकर झेंगशिन की ओर से कहा, “कुछ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के सवालों के जवाब देना सचमुच बहुत मुश्किल था।” अगुआ ने पूछा, “कौन से सवाल?” मैंने फौरन यह सोचकर कि मैं कोई मुश्किल सवाल चुनूंगी, कई सवाल याद किए, ताकि अगुआ को लगे मैं कितनी काबिल थी। तो जीवंत हाव-भाव और जोशीले अंदाज के साथ मैंने संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के प्रश्नों का जिक्र किया, कैसे मैंने उन्हें हल करने के लिए संगति की थी और कैसे आखिरकार मैंने उन्हें ईमानदारी से आश्वस्त किया था। मैंने बढ़ा-चढ़ाकर बातें की, चीज़ों को बहुत मुश्किल बताया, मानो मेरे सिवा कोई और इन समस्याओं को कभी नहीं सुलझा पाता। मैं अगुआ को दिखाना चाहती थी कि मुझमें सत्य वास्तविकता है, सुसमाचार साझा करने वाले लोगों में मैं सबसे अच्छी हूँ। अगुआ और दूसरे सभी भाई-बहनों ने इस पर हामी भरी, और मैं इसका आनंद लेती रही। सुसमाचार साझा करने के हमारे काम के बारे में पूछने के बाद, अगुआ ने हमारे हाल के मामलों को लेकर सिद्धांतों पर सहभागिता की। अगुआ ने कुछ बातें कही ही थीं कि मैं मन में सोचने लगी : “मेरे पास भी इससे जुड़ा थोड़ा अनुभव है जो मुझे अभी साझा करना चाहिए। अगर हम किसी दूसरे विषय पर चले गए तो मुझे बात करने का मौका ही नहीं मिलेगा।” तो मैंने यह कहकर बीच में ही टोक दिया, “और भी बहुत सी बातें हैं।” फिर मैंने व्यापक चर्चा शुरू की, अपने खुद के अनुभव से यह साफ करने के लिए कि कैसे मैंने सुसमाचार फैलाते हुए नतीजे हासिल किए। सभी को सहमति में सिर हिलाते देख मैं और ज्यादा जोश के साथ बोली। दूसरे भाइयों ने बीच में अपनी राय रखी, पर मैंने वास्तव में किसी को नहीं बोलने दिया। मुझे लगा जैसे उनके पास कोई असली समझ या अहम विचार हैं ही नहीं। दूसरों को बोलने का मौका दिए बिना मैं अपना नजरिया साझा करती रही। मैं अपना सारा अनुभव एक बार में बयाँ कर देना चाहती थी, ताकि अगुआ को लगे मुझमें क्षमता और खूबियाँ हैं, मैं अपने कर्तव्य में सिद्धांत खोज सकती हूँ, और मुझमें दुर्लभ प्रतिभा है। बात करते हुए, एकदम से लगा कि शायद मैं दिखावा कर रही हूँ, तो मैंने अपनी रफ़्तार कम की, अपनी भ्रष्टता और कमियों की भी बात की। पर मैं यह भी सोच रही थी कि सभी लोगों के फायदे के लिए इन व्यावहारिक तरीकों पर सहभागिता करनी चाहिए। यह सब मेरा सीधा अनुभव था और मैं दिखावे के डर से सहभागिता करने से खुद को नहीं रोक सकती। यह सोचकर, मैं बातें करती ही रही। जब मैंने बोलना बंद किया, अगुआ सहमति में सिर हिला रही थीं, और दूसरे प्रशंसा से मुझे देख रहे थे। गजब का अनुभव था। तो उस सभा में, हर कोई बस मेरी बात सुन रहा था। यही नहीं, सभाओं में भी मैं सुसमाचार साझा करते समय अपनी नकारात्मक स्थितियों या नाकामियों के बारे में बहुत कम बोलती थी। मुझे लगता था इससे मेरी छवि खराब होगी, तो मैं चुन-चुनकर अपनी कामयाबी बताती। कुछ सभाओं के बाद सभी को लगने लगा कि मुझे सुसमाचार साझा करने में महारथ थी, उस कर्तव्य में कुछ अन्य लोग भी मुझ पर भरोसा करने लगे। वे मुझे सीधे ऐसे लोगों से बात करने को कहते जो अपनी धारणाओं से चिपके हुए थे। इससे अपने बारे में मेरी और भी ऊँची राय बन गई, और मुझे आनंद आने लगा कि लोग मदद के लिए मेरी ओर ताकते हैं। ठीक जब मैं खुद पर इतरा रही थी, तभी मेरा सामना परमेश्वर की ताड़ना और अनुशासन से हुआ।

मेरे सामने बहुत सी रुकावटें आने लगीं, और सुसमाचार फैलाते हुए मुझे कोई कामयाबी नहीं मिल रही थी। मैंने मन में सोचा : “मैं भाई-बहनों के साथ सभाओं में तो हमेशा डींग मारती या दिखावा करती, और अब सुसमाचार फैलाने में मैं अप्रभावी हो गई थी। क्या परमेश्वर मुझसे चिढ़ गया है, और खुद को मुझसे छिपा रहा है?” मैंने अपनी हालत के बारे में झेंगशिन को बताया, तो उसने कहा, “जबसे तुम्हें जानती हूँ, मैंने देखा है कि तुम डींगें हांकती हो। जब अगुआ हमारी सभा में आई, तो पूरे समय तुम ही बात करती रहीं। उनकी बात खत्म होने से पहले ही उन्हें रोक दिया, मैं एक सवाल भी नहीं पूछ सकी। सुसमाचार साझा करने के तुम्हारे अनुभवों और लोगों की समस्याओं के समाधान में तुम कितनी कुशल हो, इसे सुनकर मैंने खुद को बहुत छोटा समझा।” यह बोलते हुए उसने रोना शुरू कर दिया और मुझे काफी बुरा लगा। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरे दिखावा करना उसे इतनी चोट पहुँचाएगा। क्या यह बुरा कर्म नहीं? मैंने परमेश्वर के सामने आकर आत्मचिंतन किया, और तब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वाला हर व्यक्ति अपनी बड़ाई करता है और अपने लिए गवाही देता है, खुद को बढ़ावा देता है और हर मोड़ पर अपना दिखावा करता है, और बिल्कुल भी परमेश्वर की परवाह नहीं करता है। मैं जिन चीजों के बारे में बता रहा हूँ, क्या तुमने इनका अनुभव किया है? कई लोग लगातार अपने लिए गवाही देते हैं, बताते फिरते हैं कि उन्होंने कैसे ये-वो कष्ट सहे, वे कैसे काम करते हैं, परमेश्वर कैसे उन्हें महत्व देता है और ऐसे कुछ काम सौंपता है, और वे किस किस्म के हैं, वे जानबूझकर खास स्वर में बोलते हैं, और कुछ खास शिष्टाचार दिखाते हैं, जब तक कि आखिरकार कुछ लोग यह न सोचने लगें कि शायद वे परमेश्वर हैं। जो लोग इस स्तर तक पहुँच चुके हैं, पवित्र आत्मा बहुत पहले ही उन्हें त्याग चुका है और हालाँकि उन्हें अभी तक भगाया या निष्कासित नहीं किया गया है, बल्कि उन्हें सेवा करने के लिए रख छोड़ा गया है, उनका भाग्य पहले ही सील-बंद हो चुका है और वे अपनी सजा का इंतजार भर कर रहे हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे आघात लगा और मैंने बहुत खराब महसूस किया। मुझे बहुत सी रुकावटों का सामना करने की वजह पता चल गई थी, और परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस न हो पाने की वजह यह थी कि डींगें हांककर मैंने परमेश्वर को चिढ़ा दिया था। परमेश्वर का स्वभाव बेहद धार्मिक और पवित्र है। मुझे थोड़ा डर भी लगा। मैं जानती थी अगर ऐसा ही चलता रहा, तो परमेश्वर मुझे छोड़ देगा और चिढ़कर त्याग देगा। इस समस्या को हल करने के लिए मुझे सत्य खोजना होगा।

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसमें उन्हें उजागर किया गया है जो खुद को ऊँचा उठाते हैं और दिखावा करते हैं। परमेश्वर कहता है : “स्वयं का उत्कर्ष करना और स्वयं की गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने की कोशिश करना—भ्रष्‍ट मनुष्‍यजाति इन चीज़ों में माहिर है। जब लोग अपनी शैता‍नी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्‍वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में है। लोग सामान्यतः कैसे स्वयं का उत्कर्ष करते और गवाही देते हैं? वे दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने के इस लक्ष्‍य को कैसे हासिल करते हैं? वे इस बात की गवाही देते हैं कि उन्‍होंने कितना कार्य किया है, कितना अधिक दुःख भोगा है, स्वयं को कितना अधिक खपाया है, और क्या कीमत चुकाई है। वे अपनी पूँजी के बारे में बातें करके अपना उत्कर्ष करते हैं, जो उन्‍हें लोगों के दिमाग़ में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उन्हें मान दें, सराहना करें, सम्मान करें, यहाँ तक कि श्रद्धा रखें, पूज्‍य मानें, और अनुसरण करें। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लोग कई ऐसे काम करते हैं, जो सतही तौर पर परमेश्वर की गवाही देते हैं, लेकिन वास्तव में वे उन लोगों का उत्कर्ष करते हैं और उनकी गवाही देते हैं। क्या इस तरह से कार्य करना उचित है? वे तार्किकता के दायरे से बाहर हैं। इन लोगों में कोई शर्म नहीं है : वे निर्लज्‍ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्‍होंने परमेश्वर के लिए क्‍या-क्‍या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्‍यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, विशेष कौशलों पर, अपने आचरण की चतुर तकनीकों पर, लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीक़ों पर इतराते तक हैं। स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीक़ा स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे पाखण्‍ड और छद्मों का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ़ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्‍मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्‍य निभाने के दौरान उन्‍होंने कलीसिया के कार्य को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़ि‍क्र तक नहीं करते। जब उन्‍होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्‍य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्‍या यह स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का ही तरीक़ा नहीं है?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। क्या मैंने भी दिखावा और खुद की बड़ाई नहीं की थी जैसा परमेश्वर ने बताया है? अपने कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर की गवाही देने और उसकी बड़ाई करने के बजाय मैं दिखावा कर रही थी, ताकि लोग मेरी प्रशंसा करें। मैं सुसमाचार के अनुभव को निजी पूँजी की तरह इस्तेमाल कर रही थी, खुद को चालाक और वाकपटु मान बैठी थी। मैंने हर मौके पर खुद को आगे बढ़ाया और दिखावा किया। सुसमाचार को साझा करने में थोड़ी कामयाबी मिलने पर, मैंने झेंगशिन के सामने सहभागिता के सत्य और समस्या सुलझाने की अपनी काबिलियत का बखान किया, मैंने उसे अपने अनुभव बताए। उसकी मदद करने के बहाने असल में मैं खुद का दिखावा कर रही थी और अपनी योग्यता का प्रदर्शन कर रही थी। मैं चाहती थी कि वो मुझे खुद से बेहतर समझे, आखिर में वह खुद को कमतर समझने लगी और निराशा में डूब गई। जब अगुआ हमारी सभा में आई, तो मैं पूरे समय खुद की नुमाइश और दिखावा करती रही, अपनी काबिलियत जाहिर करने के लिए मैंने किन मुश्किल समस्याओं को हल किया इसका लंबा-चौड़ा बखान करती रही। मैंने लोगों को भी बाधित किया और सभा को अपने निजी व्याख्यान सत्र में बदल दिया, अपनी उपलब्धियां बताने और दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए मैं बोलती गई कि मैंने सुसमाचार साझा करने में कैसे परिणाम प्राप्त किए। मैं सच में बहुत नीच और बेशर्म थी! चूँकि मैं सभाओं में हमेशा टोकती और दिखावा करती थी, मैंने भाई-बहनों को खोजने और सहभागिता का मौका नहीं देती थी। नतीजा यह कि उनकी समस्याएं और मुश्किलें तुरंत हल नहीं हो पाते थे। मैंने सभा को पूरी तरह बाधित किया था। और तो और, चूँकि मैं सिर्फ दिखावे में यकीन रखती थी, मैंने परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देने या दूसरे लोगों के अनुभवों और ज्ञान को सुनने का प्रयास ही नहीं किया। नतीजे में, मुझे सभा से कुछ नहीं मिल रहा था। मैं जानती थी कि मुझमें बहुत सी कमियां थीं, पर दूसरों के मन में बनी अपनी छवि खराब होने से डरती थी, इसलिए मैं कमजोरियों और कमियों पर परदा डालकर सिर्फ अपनी कामयाबियों की बात करती। नतीजा यह हुआ कि कुछ भाई-बहन मेरी प्रशंसा करने और मुझ पर भरोसा करने लगे। मैं उन्हें अपने सामने ला रही थी, न केवल मुझे इसमें डर नहीं था, बल्कि मैं इसका आनंद ले रही थी। अपने बर्ताव पर सोचते हुए, मुझे लगा कि मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया था और परमेश्वर को संतुष्ट नहीं किया था, बल्कि केवल लोगों को धोखा दे रही थी और फँसा रही थी।

बाद में, परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ने से मुझे अपनी प्रकृति और सार को समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जाकर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है कि लोग उन्हें सुनें, उनकी आराधना करें और उनके चारों ओर घूमें। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के दिलों में उनकी एक जगह हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें। उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिलों में एक जगह रखना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। इससे मुझे एहसास हुआ कि लगातार डींगें हांकना, अहंकारी प्रकृति के काबू में होने का परिणाम है। मुझे बचपन से ही प्रशंसा और समर्थन पाना पसंद था—प्रतिष्ठा और आनंद की ऐसी भावना थी—तो यह कुछ ऐसा था जिसकी मुझे जीवन में हमेशा चाह रही थी। आस्था रखने के बाद भी मैं यही करती रही, जब भी मौका मिलता, डींगें हांकती, दिखावा करती। कोई प्रशंसा भरी नज़रों से देखता तो मुझे बहुत खुशी होती और आनंद आता। सुसमाचार फैलाना मेरी ज़िम्मेदारी थी, मेरा कर्तव्य था, और कोई भी कामयाबी परमेश्वर के मार्गदर्शन से ही मिल रही थी। पर मैं अपनी अहंकारी प्रकृति के वश में थी, खूबियों, अनुभव और सुसमाचार फैलाने के दौरान मिले कुछ नतीजों को निजी पूँजी की तरह इस्तेमाल कर रही थी। लगा कि जैसे मैं ऐसी प्रतिभा हूँ जिसके बिना काम न चले, मैं किसी की नहीं सुनती थी। अपने भाई-बहनों के सामने डींगें हांकने का कोई भी मौका नहीं छोड़ती थी कि सुसमाचार साझा करने में मुझे कितनी कामयाबी मिली थी, पर कमियों या विफलताओं की बात कभी नहीं करती थी। नतीजा यह कि मेरे भाई-बहनों ने परमेश्वर की ओर देखने या भरोसा करने के बजाय मुझ पर भरोसा करना शुरू कर दिया। लोगों के दिलों में परमेश्वर का एक पवित्र स्थान होना चाहिए, पर मैं लोगों को अपने सामने ला रही थी, जहां उनके दिलों में सिर्फ मेरे लिए जगह थी। क्या मैं परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रही थी? मैंने अनुग्रह के युग में पौलुस के बारे में सोचा, जो बहुत अहंकारी था। उसने अपने संदेश-पत्रों में कभी प्रभु यीशु मसीह का उत्कर्ष नहीं किया और न गवाही दी, उसने मानवजाति के लिए किए प्रभु यीशु के कार्यों की भी गवाही नहीं दी। वह सिर्फ अपनी खूबियों और क्षमताओं के बारे में बखान करता रहा, दूसरों को फँसाता रहा ताकि वे उसकी प्रशंसा और अनुसरण करें। उसने गवाही दी कि वह किसी और प्रेरित से छोटा नहीं है, आखिर में कहा कि वह मसीह के रूप में जिया, जिससे परमेश्वर के स्वभाव का बहुत अपमान हुआ। पौलुस के लगातार खुद का उत्कर्ष करने से लोग इस हद तक उसकी चापलूसी करने लगे कि 2,000 सालों तक विश्वासियों ने उसके शब्दों को परमेश्वर के वचन, आस्था का आधार और अमल में लाए जाने वाले सिद्धांत माना। उनके लिए पौलुस के वचन परमेश्वर के वचनों से बड़े थे, परमेश्वर तो बस नाम के लिए था। आखिर में पौलुस मुख्य मसीह-विरोधी बना और परमेश्वर ने उसे दंड दिया। क्या मैं भी पौलुस जैसी नहीं थी? अपने कर्तव्य में परमेश्वर का उत्कर्ष न करके और गवाही न देकर, मैं बस दिखावा कर रही थी, लोगों के दिलों पर काबू कर रही थी। मैं अपना कर्तव्य कैसे निभा रही थी? मैं तो बस अपना उद्यम चला रही थी। इस बात पर मुझे अपने कर्मों से डर लगा, मैंने जाना कि लगातार ऐसा करना यह खतरनाक होगा। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं तुम्हारे ख़िलाफ़, अपने भ्रष्ट स्वभाव में नहीं जीना चाहती। अगर मैं फिर से दिखावा करूं तो कृपया मुझे अनुशासित करना और ताड़ना देना। परमेश्वर, मुझे राह दिखाओ ताकि मैं खुद को अच्छे से समझ सकूँ।” बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिसमें वह न्याय करता है और मानवजाति को उजागर करता है : “यह मत सोचो कि तुम सब-कुछ समझते हो। मैं तुम्हें बता दूँ कि तुमने जो कुछ भी देखा और अनुभव किया है, वह मेरी प्रबन्धन योजना के हजारवें हिस्से को समझने के लिए भी अपर्याप्त है। तो फिर तुम इतने अहंकार से पेश क्यों आते हो? तुम्हारी जरा-सी प्रतिभा और अल्पतम ज्ञान यीशु के कार्य में एक पल के लिए भी उपयोग किए जाने के लिए पर्याप्त नहीं है! तुम्हें वास्तव में कितना अनुभव है? तुमने अपने जीवन में जो कुछ देखा और सुना है और जिसकी तुमने कल्पना की है, वह मेरे एक क्षण के कार्य से भी कम है! तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि तुम आलोचक बनकर दोष मत ढूँढो। चाहे तुम कितने भी अभिमानी हो जाओ, फिर भी तुम्हारी औकात चींटी जितनी भी नहीं है! तुम्हारे पेट में उतना भी नहीं है जितना एक चींटी के पेट में होता है! यह मत सोचो चूँकि तुमने बहुत अनुभव कर लिया है और वरिष्ठ हो गए हो, इसलिए तुम बेलगाम ढंग से हाथ नचाते हुए बड़ी-बड़ी बातें कर सकते हो। क्या तुम्हारे अनुभव और तुम्हारी वरिष्ठता उन वचनों के परिणामस्वरूप नहीं है जो मैंने कहे हैं? क्या तुम यह मानते हो कि वे तुम्हारे परिश्रम और कड़ी मेहनत द्वारा अर्जित किए गए हैं? आज, तुम देखते हो कि मैंने देहधारण किया है, और परिणामस्वरूप तुम्हारे अंदर ऐसी प्रचुर अवधारणाएँ हैं, और उनसे निकली अवधारणाओं का कोई अंत नहीं है। यदि मेरा देहधारण न होता, तो तुम्हारे अंदर कितनी भी असाधारण प्रतिभाएँ होतीं, तब भी तुम्हारे अंदर इतनी अवधारणाएँ नहीं होतीं; और क्या तुम्हारी अवधारणाएँ इन्हीं से नहीं उभरतीं?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दो देहधारण पूरा करते हैं देहधारण के मायने)। मुझमें सत्य वास्तविकता नहीं थी, और मैं बस शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की बात कर पाती थी। कुछ अनुभव हासिल करके और थोड़ा काम करके मैं हरेक का अपमान कर देती थी, यहां तक कि परमेश्वर का भी। मैं परमेश्वर की महिमा चुरा रही थी, बेवजह अहंकारी थी, और मुझमें लेशमात्र भी तर्क-शक्ति नहीं थी! सुसमाचार साझा करते समय, मैं अच्छी तरह जानती थी कि परमेश्वर अपना कार्य खुद कायम रखे है। कभी-कभी जब कोई ऐसा सवाल कर देता जिसका जवाब मुझे नहीं पता होता था, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती और उसके सहारे रहती। फिर मुझे उत्तर मिलता और मुझे पता होता था कि पवित्र आत्मा के प्रबोधन से उसे कैसे हल किया जाए। कभी-कभी मैं इतना ज़्यादा कुछ नहीं कहती, बस परमेश्वर के कुछ वचन, लेकिन लोग द्रवित हो जाते, परमेश्वर की वाणी पहचान लेते और उसके अंत के दिनों के कार्य की खोज और उसे स्वीकार करने को तैयार हो जाते। यह सब परमेश्वर के वचनों से हासिल हुआ; वही लोगों के मन को प्रेरित कर रहा था। एक बार, मैंने कलीसिया की एक बहन के भाई को सुसमाचार सुनाया। इससे पहले भी कई लोगों से उसे सुसमाचार सुनाया था, पर वह अपनी धारणाओं में बँधा था, और तलाशने और जांचने के लिए तैयार नहीं था। मुझे खुद पर विश्वास नहीं था, पर मैंने अपने पिछले अनुभव के आधार पर थोड़ी तैयारी की। जब मैंने पहले से तैयार की गई बातों के बारे में चर्चा की, तो न सिर्फ उसने कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी, बल्कि उसने अपनी और धारणाएं भी बताईं। मैं नहीं जानती थी सहभागिता कैसे करूं, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए, उससे मुझे प्रेरित और प्रबुद्ध करने की विनती की। मैंने बस उसे एक गवाही वाला वीडियो दिखाया, और उससे ज्यादा सहभागिता नहीं की पर वह वीडियो में सहभागिता से बहुत प्रभावित हुआ, और परमेश्वर के नये कार्य का पता लगाना चाहता था। मैं बहुत हैरान थी : 30 मिनट में ही वह पूरी तरह बदल गया था। मैं जानती थी, यह मेरी अच्छी सहभागिता के कारण नहीं, बल्कि परमेश्वर की प्रेरणा से हुआ था। अपने कर्तव्य में जब मेरी मंशाएं गलत थीं, तो चाहे कितनी अच्छी तरह मैंने बात की हो, कोई भी सुसमाचार को स्वीकारना नहीं चाहता था। मैंने अपने अनुभव से जान कि मेरे कर्तव्यों, परमेश्वर के वचनों और पवित्र आत्मा के कार्य ने अहम भूमिका निभाई थी, मेरी प्रतिभा और क्षमता निर्णायक कारण नहीं थे। परमेश्वर की भेड़ उसकी वाणी सुनती है। जिन्हें परमेश्वर ने पहले से चुना है वे वचनों में उसकी वाणी पहचानते हैं, और सच्चे मार्ग की छानबीन करना चाहते हैं। अगर किसी को परमेश्वर ने नहीं चुना है, तो कितनी भी सहभागिता करने से फर्क नहीं पड़ेगा। यहां तक कि किसी खूबी या अच्छी क्षमता के बिना भी, अगर किसी का दिल सही जगह पर है, वो परमेश्वर की ओर देखता है और उस पर भरोसा करता है, तो उसका मार्गदर्शन पा सकता है, वह भी अपने कर्तव्यों में उतना ही कामयाब होगा। फिर भी मैं इस तथ्य से लापरवाह थी, मुझे पवित्र आत्मा के कार्य की जरा सी भी पहचान नहीं थी, और मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं था। मैंने ज़रा सी उपलब्धि का सारा श्रेय खुद को दिया था, इसके बहाने मैं डींगें भी हांक रही थी। मैं सचमुच बेशर्म थी। दिखावा करने के उन तरीकों के बारे में सोचकर, मुझे बहुत नीचता और बेशर्मी का एहसास हुआ। मैं एक बेवकूफ थी, अंधाधुंध दिखावा कर रही थी और अनजाने ही अपनी निंदनीय हालत को उजागर कर रही थी। अगर सुसमाचार फैलाते हुए मैंने बाधाओं का सामना न किया होता, और अगर मेरी बहन ने मेरी काट-छाँट न की होती, तो किसी आत्मज्ञान के बिना मैं सुन्न ही बनी रहती। यह एहसास होने पर, मैंने पश्चाताप के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, ताकि मैं खुद का उत्कर्ष और दिखावा न करूं।

बाद में मैंने अपने विवेक से सोचा, कि परमेश्वर का उत्कर्ष और उसकी गवाही देने के लिए मैं कैसे अभ्यास करूं। मैंने परमेश्वर के वचनों का अंश पढ़ा जिसमें कहा गया है : “जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और कैसे लोगों को ताड़ना देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुम लोगों को इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुम्हारे अनुभव में कितनी भ्रष्टता उजागर हुई, तुमने कितना कष्ट सहा, परमेश्वर का विरोध करने के लिए तुमने कितनी चीजें कीं, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुम लोगों को जीता; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और कैसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। तुम्हें इन बातों को सरलता से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा में सत्व डालना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार चीजों का अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश मत करो, दिखावा करने के लिए खोखले सिद्धांतों की बात मत करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने वास्तविक अनुभव की असली, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज्यादा बोलना चाहिए; यह दूसरों के लिए सबसे अधिक लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से पता चला कि परमेश्वर का उत्कर्ष और उसकी गवाही देने का तरीका उसके कार्य, और उसके स्वभाव की गवाही देना है, अपने भ्रष्ट और विद्रोही स्वभाव की बात करना है, यह बताना है कि कैसे उसके वचनों के न्याय और ताड़ना से हमने खुद को जाना। तब दूसरे लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और हमारे लिए उसके प्रेम और उद्धार को जानेंगे। मैं तो बस सुसमाचार साझा करने में मिली कामयाबी की बात करती थी, अपनी भ्रष्टता या मेरे द्वारा हुए परमेश्वर के विरोध और विद्रोह की बात कभी नहीं करती थी। नतीजा यह कि लोगों ने मेरी प्रशंसा करना और मुझ पर भरोसा करना शुरू कर दिया। मुझे खुद का असली चेहरा दिखाना था, प्रकट करना था कि कैसे मैं खुद की बड़ाई और दिखावा करती आ रही थी, और कैसे परमेश्वर ने खुद को जानने के लिए मेरी ताड़ना और अनुशासन के जरिए मार्गदर्शन किया था। मुझे साफ बताना चाहिए था कि सुसमाचार का प्रचार करने में मैंने किन मुश्किलों और खामियों का सामना किया, और साझा करना था कि पवित्रात्मा ने मुझे कैसे राह दिखाई। मुझे इन सारी बातों पर सहभागिता करनी थी, ताकि दूसरे मुझे पहचान सकें, और परमेश्वर के कार्य का तरीका जान सकें। फिर अपने कर्तव्य में परमेश्वर पर भरोसा करने, और उसी ओर देखने और उसका मार्गदर्शन पाने की आस्था होगी। इस तरह से बात करने पर, सभी को एहसास हुआ कि उनके दिलों में परमेश्वर की जगह नहीं थी। वे खुद को बदलकर, अपने कर्तव्य में परमेश्वर पर भरोसा करना चाहते थे।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और उसकी पहचान और हैसियत सर्वोच्च है। परमेश्वर में अधिकार, बुद्धि और शक्ति है, और उसका अपना स्वभाव और अपनी संपत्तियाँ और अस्तित्व है। क्या कोई जानता है कि परमेश्वर मानवजाति और समस्त सृष्टि के बीच कितने वर्षों से कार्य कर रहा है? जितने वर्षों से परमेश्वर कार्य करते हुए समस्त मानवजाति का प्रबंधन कर रहा है, उनकी विशिष्ट संख्या अज्ञात है; कोई भी सटीक आँकड़ा नहीं दे सकता, और परमेश्वर इन मामलों की जानकारी मानवजाति को नहीं देता। लेकिन, अगर शैतान ऐसा कुछ करता, तो क्या वह इसकी जानकारी देता? वह निश्चित रूप से देता। वह ज्यादा लोगों को धोखा देने और ज्यादा लोगों को अपने योगदान से अवगत कराने के लिए दिखावा करना चाहता है। परमेश्वर इन मामलों की जानकारी क्यों नहीं देता? परमेश्वर के सार का एक विनम्र और छिपा रहने वाला पहलू है। विनम्र और छिपे होने का उलटा क्या है? वह है अहंकारी होना और अपना प्रदर्शन करना। ... परमेश्वर चाहता है कि लोग उसकी गवाही दें, पर क्या उसने अपनी गवाही खुद दी है? (नहीं।) दूसरी ओर शैतान को डर लगा रहता है कि लोग उसके किसी धेले-भर के काम के बारे में भी नहीं जान पाएँगे। मसीह-विरोधी इससे अलग नहीं हैं : वे स्वयं द्वारा किए गए हर छोटे-मोटे काम के बारे में सबके सामने शेखी बघारते हैं। उनकी बात सुनकर लगता है कि वे परमेश्वर की गवाही दे रहे हैं—लेकिन अगर तुम ध्यान से सुनो तो तुम्हें पता चलेगा कि वे परमेश्वर की गवाही नहीं दे रहे, बल्कि अपनी शान बघार रहे हैं, खुद को स्थापित कर रहे हैं। उनकी बातों के पीछे की प्रेरणा और सार परमेश्वर के चुने हुए लोगों और हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ होड़ करना है। परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, जबकि शैतान अपनी शान दिखाता है। क्या इनमें कोई अंतर है? दिखावा बनाम विनम्रता और प्रच्छन्नता : इनमें से कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं? (विनम्रता और प्रच्छन्नता।) क्या शैतान को विनम्र कहा जा सकता है? (नहीं।) क्यों? उसके दुष्ट प्रकृति-सार को देखते हुए, वह रद्दी का एक बेकार टुकड़ा है; शैतान के लिए अपनी शान न बघारना एक असामान्य बात होगी। शैतान को ‘विनम्र’ कैसे कहा जा सकता है? ‘विनम्रता’ परमेश्वर का अंग है। परमेश्वर की पहचान, सार और स्वभाव उदात्त और आदरणीय हैं, लेकिन वह कभी दिखावा नहीं करता। परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, इसलिए लोगों को नहीं दिखता कि उसने क्या किया है, लेकिन जब वह ऐसी गुमनामी में कार्य करता है, तो लोगों को निरंतर समर्थन, पोषण और मार्गदर्शन मिलता है—और इन सब चीजों की व्यवस्था परमेश्वर करता है। क्या यह प्रच्छन्नता और विनम्रता नहीं है कि परमेश्वर इन बातों को कभी घोषित नहीं करता, कभी इनका उल्लेख नहीं करता? परमेश्वर विनम्र ठीक इसलिए है, क्योंकि वह ये चीजें करने में सक्षम है लेकिन कभी इनका उल्लेख या घोषणा नहीं करता, और लोगों के साथ इनके बारे में बहस नहीं करता। तुम्हें विनम्रता के बारे में बोलने का क्या अधिकार है, जब तुम ऐसी चीजें करने में असमर्थ हो? तुमने इनमें से कोई चीज नहीं की है, फिर भी इनका श्रेय लेने पर जोर देते हो—इसे बेशर्म होना कहा जाता है। मानव-जाति का मार्गदर्शन करते हुए परमेश्वर ऐसा महान कार्य करता है, और वह पूरे ब्रह्मांड का संचालन करता है। उसका अधिकार और सामर्थ्य बहुत व्यापक है, फिर भी उसने कभी नहीं कहा, ‘मेरा सामर्थ्य असाधारण है।’ वह सभी चीजों के बीच छिपा रहता है, हर चीज का संचालन करता है, और मानव-जाति का भरण-पोषण करता है, जिससे पूरी मानव-जाति का अस्तित्व पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहता है। उदाहरण के लिए, हवा और धूप को या पृथ्वी पर मानव-अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी भौतिक वस्तुओं को लो—ये सब लगातार बहती रहती हैं। परमेश्वर मनुष्य का पोषण करता है, यह असंदिग्ध है। अगर शैतान कुछ अच्छा करे, तो क्या वह चुप रहेगा, और एक गुमनाम नायक बना रहेगा? कभी नहीं। वह वैसा ही है, जैसे कलीसिया में कुछ मसीह-विरोधी हैं, जिन्होंने पहले जोखिम भरा काम किया, जिन्होंने चीजें त्याग दीं और कष्ट सहे, जो शायद जेल भी गए हों; ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कभी परमेश्वर के घर के कार्य के एक पहलू में योगदान दिया था। वे ये चीजें कभी नहीं भूलते, उन्हें लगता है कि इन कामों के लिए वे आजीवन श्रेय के पात्र हैं, वे सोचते हैं कि ये उनकी जीवन भर की पूँजी हैं—जो दर्शाता है कि लोग कितने ओछे हैं! लोग सच में ओछे हैं, और शैतान बेशर्म है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। मैं परमेश्वर की विनम्रता और अदृश्यता से द्रवित थी। जब मैंने उसके आचरण से अपने की तुलना की, तो मुझे बेहद शर्मिंदगी हुई। परमेश्वर सर्वोच्च है, फिर भी मानवजाति को बचाने के लिए सत्य व्यक्त के लिए उसने देहधारण किया और इतना बड़ा कष्ट और अपमान सहा। उसने कितने भी महान कार्य किए या कितने भी सत्य व्यक्त किए, कभी उनकी डींग नहीं हांकी। बस वह चुपचाप मानवजाति की पूर्ति करता है और उसे बचाता है। परमेश्वर का सार अविश्वसनीय तौर पर सुंदर है। मैं तो बस एक तिनका हूँ, और शैतान ने मुझे बुरी तरह भ्रष्ट किया है। मैं बिल्कुल खास नहीं और फिर भी मैं प्रशंसा पाने के लिए मरी जा रही थी। हर छोटे से काम का बखान किया, इस चिंता में कि दूसरों को इसका पता नहीं चलेगा। साफ है कि यह सारा काम तो परमेश्वर करता है, मैं बस थोड़ी सी मदद करती हूँ। मैं अभी भी बेशर्मी से परमेश्वर की महिमा चुराने की कोशिश में, लगातार दिखावा कर रही थी। इस बारे में मैंने जितना सोचा उतनी ही शर्मिंदगी महसूस की—इससे परमेश्वर बहुत घृणा करता है। अब मैं वैसी इंसान नहीं बनी रहना चाहती थी।

उसके बाद की सभाओं में, मैंने परमेश्वर का उत्कर्ष करते हुए उसकी गवाही दी, अपने भ्रष्ट और विद्रोही स्वभाव की ज़्यादा बातें की, अपने उन नीच इरादों के बारे में बताया जो मेरी नाकामियों की वजह बने थे, और कैसे परमेश्वर के अनुशासन ने मुझे सिद्धांत और अभ्यास का मार्ग समझने में मार्गदर्शन किया था। इससे भाई-बहन मेरी नाकामियों से सीख ले सकते थे और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और उद्धार को पहचान सकते थे। मुझे अभी भी थोड़ा-बहुत दिखावा करने की इच्छा होती है, पर इसका एहसास होते ही, प्रार्थना करके इच्छाओं का त्याग करती हूँ। इस पर अमल करके मैंने काफी बेहतर महसूस किया। यह परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के कारण था कि मैं इस तरह बदल पाई।

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