समझने का ढोंग करके मैंने आफत मोल ले ली

21 अप्रैल, 2023

मैं कलीसिया के लिए डिजाइन बनाया करती थी। समय के साथ, सभी तरह के डिजाइन और चित्र बनाने से मेरी कार्यकुशलता खूब बढ़ गई तो मुझे टीम अगुआ बना दिया गया। मैंने सोचा : “मुझे टीम अगुआ बनाने का मतलब ही यह है कि मुझमें कुछ हुनर और प्रतिभा है, मैं दूसरे भाई-बहनों से बेहतर हूँ और इस काम को संभाल सकती हूँ। मुझे इस काम को सँजोना होगा, कड़ी मेहनत करनी है, सत्य के सिद्धांत खोजने हैं और अपना भरसक देना है। मैं ऐसी गलतियाँ नहीं कर सकती जो कलीसिया के कार्य में रुकावट डालें। मुझे सबको दिखाना है कि मैं टीम अगुआ के लिए ही बनी हूँ।”

एक दिन कलीसिया के अगुआ ने मुझसे कहा : “कलीसिया को भजनों की एक वीडियो के लिए बैकग्राउंड तस्वीर चाहिए। इसे बनाना हमारे पहले वाले चित्रों से कठिन है। चूँकि बाकी लोग अभी दूसरे डिजाइन बनाने में व्यस्त हैं और किसी दूसरे को यह काम सौंपने से हमारा काम रुक जाएगा, इसलिए यह काम हम तुम्हें सौंपना चाहते हैं। क्या तुम कर पाओगी?” अगुआ की बात सुनकर मैंने सोचा : “मैंने ऐसी जटिल बैकग्राउंड पर पहले कभी काम नहीं किया, इसलिए मुझे अच्छे नतीजों की गारंटी देने का यकीन नहीं है।” लेकिन फिर सोचा, “इस प्रोजेक्ट पर अगुआओं और भाई-बहनों की भी निगाह रहेगी—मैं दो साल से यह काम कर रही हूँ, मैंने मुश्किल मसले और काम बखूबी संभाले हैं और मुझमें अच्छा खासा हुनर आ चुका है। ठीक है कि इतनी कठिन बैकग्राउंड बनाने का काम पहली बार कर रही हूँ, इसमें कुछ अनजानी समस्याएँ सामने आना भी तय है, लेकिन अगर ऐसे काम को भी नहीं कर पाई तो मेरे बारे में बाकी लोग क्या सोचेंगे? अगर इसे नहीं संभाल पाई तो क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि मुझमें प्रतिभा नहीं है और मैंने कोई तरक्की नहीं की है? बाकी भाई-बहन अपने कामों में जुटे हुए हैं, और अगर इस मौके पर किसी और को मेरे साथ लगाया जाता है, तो हर कोई यही सोचेगा कि मैं बड़ी जिम्मेदारी नहीं संभाल सकती, मैं भरोसेमंद नहीं हूँ और अगुआ होने लायक भी नहीं। मैं ऐसा नहीं होने दूँगी! चाहे जो हो, मुझे यह प्रोजेक्ट करना है। मुझे जो कुछ नहीं आता, उसे सीखूँगी, ताकि सब कुछ ठीक से कर सकूँ और सबको दिखा दूँगी कि मैं भी चुनौती वाले काम संभाल सकती हूँ।” अपना मन मजबूत करके मैंने पूरे यकीन से कहा : “मैं इसे कर लूँगी, कोई दिक्कत नहीं होगी। यह दूसरी बैकग्राउंड से बस थोड़ी-सी ही कठिन और चुनौतीपूर्ण है। थोड़ी-सी ज्यादा कोशिश करके मैं अच्छा काम कर लूँगी।” मेरा आत्मविश्वास देखकर अगुआ ने सिर हिलाकर हामी भरी : “इस काम के लिए समय बहुत कम बचा है और भजन का अर्थ और भाव भी डिजाइन में झलकना चाहिए। अगर डिजाइन बनाते समय कोई भी दिक्कत हो तो तुरंत मुझसे बात कर लेना।” मेरे निरीक्षकनिरीक्षक ने भी कहा : “अगर तुम्हें लगे कि बात नहीं बन रही है तो हमें बताना, हम तुम्हारी मदद के लिए किसी को भेज देंगे।” मैंने उत्साह और घबराहट में हामी भर दी : मेरे उत्साह का कारण यह था कि मुझे इतना अहम डिजाइन बनाना था, जिसे ठीक से बना लिया तो मुझे बहुत इज्जत मिलेगी, लेकिन मुझे यह चिंता भी थी कि इतना कठिन काम कर भी पाऊँगी या नहीं। मुझे यह भी यकीन नहीं था कि उनके मन मुताबिक अच्छा बना सकूँगी! लेकिन कुछ भी हो, मैं किसी का सिर झुकने नहीं दे सकती थी। मुझे फौरन खोजबीन शुरू करनी थी, नई चीजें आजमानी थीं ताकि कभी-कभी मिलने वाले ऐसे अवसर का फायदा उठा सकूँ। मुझे इस काम को अंजाम देना था, चाहे जितना कठिन हो।

डिजाइन बनाते समय लगा कि वक्त दौड़ता जा रहा है और कई समस्याएँ भी सामने आईं। मुझ पर दबाव बढ़ता जा रहा था। अगुआ और निरीक्षक अक्सर मेरे काम की प्रगति के बारे में पूछते और जानना चाहते कि कोई दिक्कत तो नहीं आ रही है। मैं इतनी ज्यादा घबराई रहती थी कि उन्हें बस यही कह देती कि सब-कुछ “ठीक चल रहा है”, जबकि हकीकत में मैं काँप रही होती थी : डिजाइन में अब भी कुछ महत्वपूर्ण काम और सुधार करना बाकी था। यह अंतिम रूप क्या लेगा इस बात का मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था। अगर यह ठीक नहीं बना तो मेरे हुनर की असलियत सबको दिख जाएगी, वे कहेंगे कि मुझमें क्षमता नहीं है और मैं सिर्फ दिखावा करती हूँ। मैंने सोचा कि चूँकि मैं इसे पूरा करने का वादा कर चुकी हूँ, इसलिए इससे मुकरने का मतलब अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारना होगा, लिहाजा मेरे बस में सिर्फ मजबूरी में काम करते जाना और समाधान ढूंढना था। मुझे तो अभी कोई खाका भी ठीक से नहीं सूझा था, इसलिए कुछ समय माथापच्ची में लगा। एक बार मेरा काम देखने के लिए अगुआ स्टूडियो में आया, तो मैं जानबूझकर एक आसान हिस्से में जाकर तेजी से चित्र बनाने लगी, ताकि उसे लगे कि सब-कुछ मेरे काबू में है। हालाँकि, हकीकत में मेरी हथेलियों में पसीना आ रहा था। जब अगुआ चला गया, तो मैं दुबारा कठिन हिस्से में जुटकर दिमाग दौड़ाने लगी। मैं समस्या कबूलना नहीं चाहती थी, डरती थी कि अगुआ मेरी क्षमता पर सवाल खड़ा करेगा। मुझे लगा कि चूँकि मैं पहले ही अपनी शेखी बघार चुकी हूँ, इसलिए पीछे हटना बहुत शर्मनाक होगा। मैं इस मुश्किल हालत में भी अकेले डटकर तस्वीर बनाने पर आमादा थी, लेकिन काम सुस्त होने से मैं मानसिक रूप से बुरी तरह थक चुकी थी। मुझे आखिरी रात में देर तक जागकर डिजाइन पूरा करना पड़ा। मेरे अगुआ और निरीक्षक ने कहा कि यह अच्छा लग रहा है पर थोड़ा-सा सुधारना पड़ेगा। फिर भी, मुझे काम पूरा करके मजा नहीं आया—मैं खोई हुई थी और अपना हौसला नहीं बढ़ा पा रही थी।

बाद में, भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का अंश पढ़ा : “अगर अपने जीवन में तुम अक्सर दोषारोपण करने की भावना रखते हो, अगर तुम्हारे हृदय को सुकून नहीं मिलता, अगर तुम शांति या आनंद से रहित हो, और अक्सर सभी प्रकार की चीजों के बारे में चिंता और घबराहट से घिरे रहते हो, तो यह क्या प्रदर्शित करता है? केवल यह कि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते, परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रहते। जब तुम शैतान के स्वभाव के बीच जीते हो, तो तुम्हारे अक्सर सत्य का अभ्यास करने में विफल होने, सत्य से मुँह मोड़ने, स्वार्थी और नीच होने की संभावना है; तुम केवल अपनी छवि, अपना नाम और हैसियत, और अपने हित कायम रखते हो। हमेशा अपने लिए जीना तुम्हें बहुत दर्द देता है। तुम इतनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, उलझावों, बेड़ियों, गलतफहमियों और झंझटों में जकड़े हुए हो कि तुम्हें लेशमात्र भी शांति या आनंद नहीं मिलता। भ्रष्ट देह के लिए जीने का मतलब है अत्यधिक कष्ट उठाना(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है)। परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचकर मैंने जाना कि डिजाइन बनाने के बाद मेरी थकावट और उदासी का कारण यह था कि मुझे अपने रुतबे की बहुत ज्यादा चिंता थी। अपने कार्य में कमियाँ छिपाने के लिए मैंने छद्मवेश धारण कर मुखौटा पहन लिया था। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अन्य अंश पढ़कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को बेहतर ढंग से समझा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “लोग स्वयं सृष्टि की वस्तु हैं। क्या सृष्टि की वस्तुएँ सर्वशक्तिमान हो सकती हैं? क्या वे पूर्णता और निष्कलंकता हासिल कर सकती हैं? क्या वे हर चीज में दक्षता हासिल कर सकती हैं, हर चीज समझ सकती हैं, हर चीज की असलियत देख सकती हैं, और हर चीज में सक्षम हो सकती हैं? वे ऐसा नहीं कर सकतीं। हालांकि, मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभाव और एक घातक कमजोरी है : जैसे ही लोग किसी कौशल या पेशे को सीख लेते हैं, वे यह महसूस करने लगते हैं कि वे सक्षम हो गये हैं, वे रुतबे और हैसियत वाले लोग हैं, और वे पेशेवर हैं। चाहे वे कितने भी साधारण हों, वे सभी अपने-आपको किसी प्रसिद्ध या ऊँची हस्ती के रूप में पेश करना चाहते हैं, अपने-आपको किसी छोटी-मोटी मशहूर हस्ती में बदलना चाहते हैं, ताकि लोग उन्हें पूर्ण और निष्कलंक समझें, जिसमें एक भी दोष नहीं है; दूसरों की नजरों में वे प्रसिद्ध, शक्तिशाली, कोई महान हस्ती बनना चाहते हैं, पराक्रमी, कुछ भी करने में सक्षम और ऐसे व्यक्ति बनना चाहते हैं, जिनके लिए कोई चीज ऐसी नहीं, जिसे वे न कर सकते हों। उन्हें लगता है कि अगर वे दूसरों की मदद माँगते हैं, तो वे असमर्थ, कमजोर और हीन दिखाई देंगे और लोग उन्हें नीची नजरों से देखेंगे। इस कारण से, वे हमेशा एक झूठा चेहरा बनाए रखना चाहते हैं। जब कुछ लोगों से कुछ करने के लिए कहा जाता है, तो वे कहते हैं कि उन्हें पता है कि इसे कैसे करना है, जबकि वे वास्तव में कुछ नहीं जानते होते। बाद में, वे चुपके-चुपके इसके बारे में जानने और यह सीखने की कोशिश करते हैं कि इसे कैसे किया जाए, लेकिन कई दिनों तक इसका अध्ययन करने के बाद भी वे नहीं समझ पाते कि इसे कैसे करें। यह पूछे जाने पर कि उनका काम कैसा चल रहा है, वे कहते हैं, ‘जल्दी ही, जल्दी ही!’ लेकिन अपने दिलों में वे सोच रहे होते हैं, ‘मैं अभी उस स्तर तक नहीं पहुँचा हूँ, मैं कुछ नहीं जानता, मुझे नहीं पता कि क्या करना है! मुझे अपना भंडा नहीं फूटने देना चाहिए, मुझे दिखावा करते रहना चाहिए, मैं लोगों को अपनी कमियाँ और अज्ञानता देखने नहीं दे सकता, मैं उन्हें अपना अनादर नहीं करने दे सकता!’ यह क्या समस्या है? यह हर कीमत पर इज्जत बचाने की कोशिश करने का एक जीवित नरक है। यह किस तरह का स्वभाव है? ऐसे लोगों के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती, उन्होंने अपना सारा विवेक खो दिया है! वे हर किसी की तरह नहीं बनना चाहते, वे आम आदमी या सामान्य लोग नहीं बनना चाहते, बल्कि अतिमानव, ऊँचे व्यक्ति, कोई दिग्गज बनना चाहते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है! जहाँ तक सामान्य मानवता के भीतर की कमजोरियों, कमियों, अप्रबुद्धतता, मूर्खता और समझ की कमी की बात है, वे इन सबको छिपा लेते हैं और दूसरे लोगों को इन्हें देखने नहीं देते, और फिर खुद को छद्म वेश में छिपाए रहते हैं। ... तुम लोग क्या कहते हो, क्या ऐसे लोग कल्पना-लोक में नहीं रहते हैं? क्या वे सपने नहीं देख रहे हैं? वे नहीं जानते कि वे स्वयं क्या हैं, न ही वे सामान्य मानवता को जीने का तरीका जानते हैं। उन्होंने एक बार भी व्यावहारिक मनुष्यों की तरह काम नहीं किया है। यदि तुम कल्पना-लोक में रहकर दिन गुजारते हो, जैसे-तैसे काम करते रहते हो, यथार्थ में रहकर काम नहीं करते, हमेशा अपनी कल्पनानुसार जीते हो, तो यह परेशानी वाली बात है। तुम जीवन में जो मार्ग चुनते हो वह सही नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत को उजागर कर दिया। मुझे लगता था, चूँकि मैं काफी समय से डिजाइन बना रही थी, मैंने कुछ हुनर भी हासिल कर लिया था और मुझे टीम अगुआ भी बना दिया गया था, तो मैं काबिल और विरल प्रतिभा हूँ। चूँकि मैं खुद को इस नजरिये से देखती थी, इसलिए मेरे बारे में दूसरे क्या सोचते हैं, इसका खास ध्यान रखती थी, डरती थी कि मेरी कमियाँ देखकर वे कहेंगे कि मैं इस काम के लायक नहीं हूँ। खासकर बैकग्राउंड तस्वीर को लेकर, मैंने ऐसा कठिन काम पहले कभी नहीं किया था और मुझे कामयाब होने का यकीन भी नहीं था, फिर भी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने, अपने अगुआ और निरीक्षक का भरोसा पाने के लिए मैंने सब-कुछ नियंत्रण में होने का ढोंग किया। जब समस्याएँ सामने आईं और काम रुक गया तो मदद माँगने के बजाय मैं अकेले जूझती रही। जब मेरे अगुआ ने तरक्की या समस्याओं के बारे में पूछा तो कुछ भी समझ में न आने के बावजूद मैंने अपनी समस्या नहीं बताई, बल्कि झूठ बोलकर उसे धोखा दिया, यही नहीं, यह ढोंग भी किया कि मैं बहुत हुनरमंद हूँ ताकि वह सोचे कि मैं काम कर सकती हूँ। अपनी कमियाँ छिपाने के लिए मैंने कोई मुखौटा नहीं छोड़ा। मैंने हमेशा ढोंग किया कि मैं प्रतिभाशाली कार्यकर्ता हूँ ताकि दूसरों को लगे कि मैं कुछ भी कर सकती हूँ और हर चीज जानती हूँ। मुझे एहसास हुआ कि मैं बहुत ही घमंडी और अहंकारी हूँ। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “लोग स्वयं सृष्टि की वस्तु हैं। क्या सृष्टि की वस्तुएँ सर्वशक्तिमान हो सकती हैं? क्या वे पूर्णता और निष्कलंकता हासिल कर सकती हैं? क्या वे हर चीज में दक्षता हासिल कर सकती हैं, हर चीज समझ सकती हैं, हर चीज की असलियत देख सकती हैं, और हर चीज में सक्षम हो सकती हैं? वे ऐसा नहीं कर सकतीं।” दरअसल, कोई भी भ्रष्ट व्यक्ति मुकम्मल और हर फन में माहिर कैसे हो सकता है? अपने काम के दौरान कोई बात समझ में न आना या कुछ चीजें न कर सकना सामान्य है, लेकिन अपनी कमियों को लेकर मेरा ऐसा नजरिया नहीं था। बल्कि, मैं खुद को प्रतिभाशाली कार्यकर्ता के रूप में दिखाने में लगी रही। मैं एक सामान्य सृजित प्राणी के रूप में नहीं दिखना चाहती थी। मैं मुकम्मल और दोषरहित होना चाहती थी। इतने अहंकार से मेरी मति मारी जा चुकी थी। चूँकि मैं अपने काम में हमेशा मुखौटा ओढ़े रहती थी, डरती थी कि दूसरे मेरी असलियत देख लेंगे और कुछ समझ में न आने पर मदद नहीं माँगती थी, तो डिजाइन बनाने में देरी हुई जबकि यह काम तेजी से होना चाहिए था और मैं भावनात्मक रूप से टूट गई। मुझे एहसास हुआ कि दोषरहित बनने का प्रयास मूर्खता था। अपनी कमियों का सामना न कर मैं उन्हें हमेशा छिपाती थी। नतीजतन, मैं अपने काम में निढाल और लापरवाह तो थी ही, मैंने कलीसिया के कार्य में भी देरी कर दी थी। इसका एहसास होने पर मैंने प्रार्थना की : “प्यारे परमेश्वर! मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन करने के लिए शुक्रिया, जिससे मैंने जाना कि हमेशा झूठा मुखौटा पहनकर मैं कितनी दयनीय बन गई थी। मैं भविष्य में अपने गलत विचारों को सुधारने, अपनी कमियों को लेकर सही नजरिया अपनाने, कुछ समझ में न आने पर पूछने, दुराव-छिपाव से दूर रहने को राजी हूँ और व्यावहारिक और ईमानदार होकर अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।”

बाद में, मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। जीवन में प्रवेश करने के लिए खुलकर बोलना सीखना सबसे पहला कदम है, और यह पहली बाधा है, जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक: दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना, परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग भी यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना किसी बंधन या पीड़ा के जिओगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मैंने जाना कि अगर मैं अपना काम ठीक से करना और परमेश्वर से प्रशंसा पाना चाहती हूँ तो सत्य खोजना सबसे महत्वपूर्ण है। अपने काम में मैंने चाहे जो भ्रष्ट स्वभाव दिखाया हो या मेरी जो भी समस्याएँ रही हों, मुझे परमेश्वर के सामने प्रार्थना में खुलकर मार्गदर्शन माँगना होगा, प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए अपनी लालसा छोड़नी होगी, भाई-बहनों के साथ संगति करनी होगी, दुराव-छिपाव से बचना होगा, सबके सामने असली रूप में रहना होगा, सिर्फ वही करना होगा जिसके काबिल हूँ, जो कर नहीं सकती उसे स्वीकार करके दूसरों के साथ सत्य खोजना होगा। इस तरह अपना कर्तव्य निभाना कम थकावट और कम रुकावट भरा होगा—बल्कि यह आनंददायक भी होगा। यह एहसास होने के बाद, मैं भाई-बहनों के साथ संगति में पूरी डिजाइन प्रक्रिया में खुलकर विचार व्यक्त करने लगी और मुझे जो समस्याएँ आतीं उन्हें चर्चा के लिए सामने रखने लगी। भाई-बहनों ने मुझे कुछ नई तकनीकें सिखाईं तो कुछ नए विचार भी दिए। उसके बाद बैकग्राउंड डिजाइन में मेरा बाकी समय बेहद सहजता से बीता। बाद में कुछ भाई-बहनों ने मुझसे कहा, “तुमने पहले से बहुत बेहतर बैकग्राउंड तस्वीर बनाई है। क्या तुम किसी समय हमें अपना अनुभव और हमसे क्या सीखा, यह बताना चाहोगी?” यह सुनकर मैं गदगद हो गई और लगा कि मैंने अपना कर्तव्य व्यावहारिक रूप से निभाया है। बैकग्राउंड डिजाइन के अनुभव के बारे में विचार करने पर मुझे एहसास हुआ कि किसी में कमियाँ होना बुरा नहीं है और वे दूसरों को पता चल जाएं, इसमें भी नुकसान नहीं है। इनके बारे में खुलकर बात करना, सत्य खोजना, अपने अनुचित इरादों और इच्छाओं को परे रखना सबसे महत्वपूर्ण है। इस तरह काम करके आप शांत और सहज रह सकते हैं।

धीरे-धीरे मैं कठिन परियोजनाओं के लिए भी उम्दा डिजाइन बनाने लगी और दूसरे भाई-बहनों से ज्यादा बेहतर काम करने लगी। वे डिजाइन संबंधी विचारों और दूसरी तकनीकी समस्याओं पर हमेशा मुझसे राय लेने लगे। पहले तो मैं जो जानती थी उतना बता देती थी, लेकिन जब ज्यादा लोग पूछने लगे तो मैं अनायास सोचने लगी, “लगता है अब सब मेरी प्रतिभा पहचान गए हैं। वरना वे मेरी राय क्यों माँगते?” अनजाने में ही, मैं इस संतुष्टि भरे एहसास में मगन होकर खुद से काफी खुश रहने लगी। लेकिन तभी कुछ अप्रत्याशित हो गया। भजनों के लिए बनाई एक बैकग्राउंड तस्वीर में, एक सिद्धांत विरोधी गलती नजर आने पर अगुआ ने मुझे चर्चा के लिए बुलाया। उसने कहा कि तस्वीर तुरंत संपादित करनी पड़ेगी, वरना काम में देर हो जाएगी और पूछा कि क्या मैं यह काम खुद कर लूँगी या मुझे दूसरों की मदद चाहिए। मैंने सोचा : “तस्वीर मैंने डिजाइन की है, इसलिए अगर इसे दूसरों को सौंपने देती हूँ तो कहीं यह तो नहीं लगेगा कि मुझमें हुनर की कमी है? क्या लोग यह नहीं सोचेंगे कि मैं बातें तो बड़ी-बड़ी बनाती हूँ, लेकिन जब करने की बारी आती है तो कर नहीं पाती? ऐसा नहीं होने दूँगी! इस मुकाम पर हार नहीं मान सकती। अगर मैं इसे खुद सुधार लेती हूँ, तो सब जानेंगे कि मैं अपना काम कर सकती हूँ, भरोसेमंद हूँ और विकसित होने लायक भी हूँ।” यह सोचकर मैंने अगुआ से कहा कि मैं इसे सिद्धांत के अनुरूप खुद ही सुधार लूँगी। संपादन के दौरान, तस्वीर के एक हिस्से के लिए मुझे कोई अच्छा विचार नहीं सूझा। चूँकि समय नहीं बचा था और मैं उसी विचार पर अटकी हुई थी, मैं बुरी तरह परेशान होकर बस किसी तरह इसे जल्द से जल्द पूरा करना चाहती थी, लेकिन मैंने डिजाइन में चाहे जितनी हेर-फेर की, बात नहीं बन रही थी। मैं उस विचार पर सुबह 5 बजे तक अटकी रही, फिर भी कुछ नहीं सूझा। तब जाकर मैं खुद से पूछने लगी, मुझे यह समस्या क्यों हो रही है? मुझे अचानक अहसास हुआ कि मेरे डिजाइन में सैद्धांतिक चूक का कारण यह है कि मैं सिद्धांतों के कुछ पहलुओं को समझती ही नहीं हूँ। संपादन के इस काम के कारण पहले ही देर हो चुकी थी। मुझे यह भी यकीन नहीं था कि मेरे संपादन से चीजें ठीक हो ही जाएंगी, और इस तस्वीर की जरूरत भी तुरंत थी, इसलिए जानती थी कि मुझे मदद माँगनी चाहिए। लेकिन अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने और कमियाँ छिपाने के लिए मैं बस अकेले ही रास्ता निकालने के लिए जूझ रही थी। क्या मैं कलीसिया के काम में देर नहीं कर रही थी? यह सोचकर मुझे बहुत ग्लानि हुई और मैंने पश्चात्ताप के लिए तुरंत प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव में जकड़ी हुई हूँ। जैसे ही मुझे कोई समस्या होती है, मैं सब-कुछ ठीक होने का ढोंग करती हूँ ताकि दूसरे लोग मेरा सम्मान करें। मैं अपनी कमियों का सामना ठीक से नहीं कर सकती। अपने कर्तव्य पालन का यह कितना कष्टदायक तरीका है! प्यारे परमेश्वर, मुझे अपनी भ्रष्टता पहचानने और घमंड छोड़ने की राह दिखाओ ताकि मैं तुम्हारे वचनों के अनुरूप अभ्यास कर सकूँ।” प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा, “तुम हमेशा महानता, कुलीनता और रुतबा ढूँढ़ते हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और वह तुमसे दूर रहेगा। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीज़ों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चाताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें तुच्छ समझकर त्याग देगा। सुनिश्चित करो कि तुम ऐसे व्यक्ति न बनो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? आज्ञाकारिता के साथ सत्य को ग्रहण करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हुए व्यावहारिक रहकर, अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह निर्वहन करके, सच्चा इंसान बनने का प्रयास करके और मनुष्य की तरह जीवन जी कर। इतना काफी है, परमेश्वर संतुष्ट होगा। लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे मन में किसी तरह की महत्वाकांक्षा न पालें या बेकार के सपने न देखें, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे न भागें या भीड़ से अलग दिखने की कोशिश न करें। इसके अलावा, उन्हें ऐसे महान या अलौकिक व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, जो लोगों में श्रेष्ठ हो और दूसरों से अपनी पूजा करवाता हो। यही भ्रष्ट इंसान की इच्छा होती है और यह शैतान का मार्ग है; परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। अगर लोग लगातार प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं और पश्चाताप नहीं करते, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : त्याग दिया जाना(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सही नब्ज पकड़ी : मैं हमेशा प्रतिष्ठा, रुतबे और प्रशंसा के पीछे भागती रहती थी। जब मैं दूसरों से ज्यादा मुकम्मल डिजाइन बनाने लगी और चुनौती भरे प्रोजेक्ट गारंटीशुदा खूबी से पूरे करने लगी, तो मैं अनजाने में ही अहंकारी बन गई। यही नहीं, जब दूसरे लोग सवाल लेकर मेरे पास आते रहे, तो मुझे बहुत चैन मिला और मैं अपनी तारीफों का मजा लेने लगी। जब मेरी तस्वीर किसी नुक्स के कारण वापस भेज दी गई और अगुआ ने समय बचाने की खातिर किसी और भाई-बहन से संपादन में मदद लेने का सुझाव दिया तो मैंने कलीसिया के काम का ख्याल नहीं रखा, बल्कि सिर्फ यह चिंता करती रही कि कहीं मदद माँगने से मेरी अयोग्यता उजागर न हो जाए। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा कायम रखने और नीचा देखने से बचने के लिए, मैंने संपादन अपने हाथ में ही रखा। जब मेरे सामने समस्याएँ आईं तो मदद माँगने के बजाय मैं इस मुश्किल हालत में अकेले डटे रहकर माथापच्ची करती रही और सब कुछ रोक दिया। बाहर से दिख रहा था, मैं तस्वीर सुधारने में बहुत समय दे रही हूँ लेकिन हकीकत में मैं सिर्फ अपनी प्रतिभा साबित करने में लगी रही, ताकि लोगों को लगे कि मैं भरोसेमंद हूँ। मुझे समझ आया कि मुझमें प्रतिष्ठा और रुतबे की बहुत लालसा है। परमेश्वर हमारे विचारों का परीक्षण करता है—भले ही मैं दूसरों को धोखा देने में सफल रही, लेकिन परमेश्वर को धोखा नहीं दे पाई, और मैंने चाहे जितनी खूबी से अपनी कमियाँ छिपाई हों, अगर मेरा भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदला और मैंने सत्य नहीं खोजा, तो उसके बावजूद परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा और बहिष्कृत कर देगा। प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागकर मैंने कलीसिया के कार्य में देर की थी और अगर मैंने परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप कर आत्म-चिंतन नहीं किया, तो मैं खुद को और दूसरों को धोखा देकर अपना ही नुकसान करूँगी। यह एहसास होने पर, मैंने डिजाइन में निपुण एक बहन से फौरन मदद माँगी। हमने तस्वीर के संपादन के बारे में चर्चा की और उसके बाद मेरी परिकल्पना काफी स्पष्ट हो गई। जल्द ही मैंने संपादन पूरा कर दिया।

बाद में, मैंने अपनी कमियाँ छिपाने की आदत पर लगातार आत्मचिंतन किया। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझ पर गहरा असर डाला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “अगर कोई व्यक्ति कुछ काम न कर सके, तो क्या यह कोई शर्म की बात है? कौन-सा व्यक्ति सब-कुछ कर पाने में सक्षम होता है? इसमें कोई शर्म की बात नहीं है—याद रखो, तुम एक साधारण व्यक्ति हो। इंसान केवल इंसान होता है; यदि तुम कुछ न कर पाओ, तो कह दो। बहाने क्यों बनाते हो? यदि तुम हमेशा बहानेबाजी करते हो, तो लोगों को यह घृणास्पद नहीं लगता, देर-सवेर तुम बेनकाब हो ही जाओगे और तब तुम्हारी न तो गरिमा रहेगी और न ही सम्मान। यह मसीह-विरोधियों का स्वभाव होता है। वे अपने आपको हरफनमौला की तरह पेश करते हैं जैसे सब-कुछ कर सकते हैं, वे हर काम में सक्षम और उसके जानकार हैं। इसका मतलब मुसीबत है, है न? अगर उनका रवैया ईमानदारीपूर्ण होता, तो वे क्या करते? वे कहते, ‘मैं इसमें विशेषज्ञ नहीं हूँ, मुझे बस इसका थोड़ा-बहुत अनुभव है, लेकिन अब हमें जिस कौशल की आवश्यकता है, वह पहले से अधिक जटिल है। मैं तो जो कर सकता हूँ, वह सब पहले ही बता चुका हूँ, अब जो नई समस्याएँ हमारे सामने हैं, उनकी समझ मुझे नहीं है। यदि हमें अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना है, तो हमें कुछ और तकनीकी विशेषज्ञता हासिल करनी होगी। एक बार जब हम उस पर महारत हासिल कर लेंगे, तो हम अपना काम प्रभावी ढंग से कर पाएँगे। परमेश्वर ने हमें यह कर्तव्य सौंपा है और इसे अच्छे से निभाना हमारी जिम्मेदारी है। उसी भावना से, हमें कुछ और तकनीकी विशेषज्ञता हासिल करनी चाहिए।’ यही सत्य का अभ्यास है। यदि किसी में मसीह-विरोधी का स्वभाव होगा, तो वह ऐसा नहीं करेगा। अगर उसमें थोड़ी भी समझ होगी, तो वह कुछ ऐसा कहेगा, ‘मैं तो बस इतना ही काम जानता हूँ। मुझे ज्यादा काबिल मत समझो और मैं दिखावा नहीं करूँगा—इस तरह से यह आसान होगा, है न? हमेशा दिखावा और ढोंग करते रहना सिरदर्दी है। अगर हमें कोई काम नहीं आता, तो हम मिल-जुलकर उस काम को सीख लेंगे। हमें अपना काम ठीक से करने के लिए सहयोग करना चाहिए। हम सब में एक जिम्मेदारीपूर्ण रवैया होना चाहिए।’ जब लोग ऐसा देखते हैं, तो वे सोचते हैं, ‘यह व्यक्ति हमसे बेहतर है। अगर कोई समस्या आती है, तो वह अपने कौशल के बारे में ऊटपटाँग दावे नहीं करता, वह चीजें दूसरों पर थोपता नहीं है या जिम्मेदारी से बचने की कोशिश नहीं करता। बल्कि, अपने ऊपर जिम्मेदारी लेकर, एक गंभीर और जिम्मेदारीपूर्ण रवैये से काम करता है। वह कार्य और अपने कर्तव्य के प्रति एक जिम्मेदार, गंभीर दृष्टिकोण वाला नेक व्यक्ति है। वह भरोसेमंद है। यह महत्वपूर्ण परियोजना उस व्यक्ति को सौंपना परमेश्वर के घर का सही निर्णय था। परमेश्वर वास्तव में मनुष्य के अंतरतम अस्तित्व की जाँच करता है!’ इस तरह से अपना कर्तव्य निभाकर, वह व्यक्ति अपने कौशल को निखारने में सक्षम होता है और सबकी स्वीकृति प्राप्त करता है। यह अनुमोदन कहाँ से आता है? सबसे पहले तो यह उस व्यक्ति के अपने कर्तव्य के प्रति गंभीर और जिम्मेदारीपूर्ण रवैये से आता है। दूसरे, यह व्यावहारिकता के दृष्टिकोण और सीखने की इच्छा के साथ एक ईमानदार व्यक्ति बनने की उसकी योग्यता से आता है। और तीसरे, कोई इस संभावना से इंकार नहीं कर सकता कि उसे पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन और प्रबोधन मिल रहा है। इस तरह के व्यक्ति को परमेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है और इसे जमीर और समझ वाले लोग ही प्राप्त कर सकते हैं। वे भ्रष्ट और दोषपूर्ण हो सकते हैं और ऐसे बहुत-से काम हो सकते हैं जो वे न कर पाते हों, लेकिन उनके अभ्यास का मार्ग सही होता है। वे ढोंग या कपट नहीं करते, उनमें अपने कर्तव्य के प्रति एक गंभीर और जिम्मेदारीपूर्ण रवैया होता है, सत्य के प्रति एक पवित्र और ललक रखने वाला रवैया होता है। मसीह-विरोधी कभी भी उन चीजों के लिए सक्षम नहीं होते, क्योंकि उनके सोचने का तरीका कभी भी उन लोगों के समान नहीं होता जो सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करते हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि उनमें शैतान का स्वभाव होता है। वे सत्ता हथियाने के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए, शैतानी स्वभाव में जीते हैं। वे हमेशा अलग-अलग तरीकों से साजिशें और षड्यंत्र रचने की कोशिश करते हैं, लोगों को हर तरह से लुभाते-फुसलाते हैं ताकि लोग उन्हें पूजें और उनका अनुसरण करें। तो वे लोगों की आँखों में धूल झोंकने, खुद को छिपाने, धोखा देने, झूठ बोलने और लोगों को ठगने के लिए हर तरह के हथकंडों के बारे में सोचते रहते हैं—ताकि लोगों को यह विश्वास दिला सकें कि वे हमेशा सही होते हैं, वे सब-कुछ जानते हैं और सब-कुछ कर सकते हैं; कि वे दूसरों से अधिक चतुर और समझदार हैं और दूसरों से अधिक समझते हैं; वे हर चीज में दूसरों से बेहतर हैं, दूसरों से आगे हैं, यहाँ तक कि वे किसी भी समूह में सबसे अच्छे व्यक्ति हैं। उनकी जरूरत इस प्रकार की होती है; यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव है। तो वे ढोंग करना सीखते हैं, जिससे सभी प्रकार के अभ्यास और व्यवहार पैदा होते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग तीन))। मसीह-विरोधी आदतन धोखेबाज और दुष्ट होते हैं। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा कायम रखने के लिए वे कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते; मुखौटा पहन लेते हैं, झूठ बोलते हैं और दूसरों को धोखा देते हैं। मुझे एक मसीह-विरोधी का ख्याल आया जिसे कलीसिया ने निकाल दिया था : अपने पैर जमाने और तारीफें लूटने के लिए, वह समस्या सामने आने पर भी मदद नहीं माँगता था, जितना जानता था, उससे ज्यादा जानने का ढोंग करता था, अपना रुतबा और छवि कायम रखने के लिए कलीसिया का काम लटकाने से भी बाज नहीं आता था। वह नाकामियाँ छिपाकर और सिर्फ अपनी कामयाबियाँ बताकर कई बार कलीसिया का काम बिगाड़ चुका था, लेकिन उसने कभी पश्चात्ताप नहीं किया। इस हरकत के लिए, आखिरकार कलीसिया ने उसे निकाल दिया गया। मैंने अपने व्यवहार की तुलना उससे की : मैंने भी अपने काम में सत्य और सिद्धांत खोजने पर ध्यान नहीं दिया, परमेश्वर के परीक्षण को स्वीकार नहीं किया या सादगी से काम नहीं किया और दूसरों की तारीफ पाने के लिए हमेशा मुखौटा ओढ़े रखा। मेरे डिजाइन में साफ दिक्कत थी, लेकिन इसे संपादित करने की स्पष्ट समझ न होने के बावजूद, मैंने भाई-बहनों से खोज या चर्चा नहीं की, बल्कि खुद ही इसे ठीक करने पर तुली रही। मैंने कलीसिया के काम की फिक्र नहीं की, और जहाँ तक हो सका, अपनी कमियाँ उजागर नहीं होने दीं, मानो कलीसिया के काम में देर करना कोई बड़ी बात नहीं है, मेरे लिए अपनी छवि बनाए रखना सबसे महत्वपूर्ण था। जिस चीज से मेरी छवि और रुतबे को आँच आती उसे मैंने भरपूर छिपाया, भले ही यह बेहद थकाऊ और दुष्कर काम था। मुझे लगता था, अपनी तथाकथित “अच्छी छवि” खोने का मतलब अपने जीवन को ही खो बैठना है। मेरी हरकतों से मसीह-विरोधी स्वभाव दिखता था। इसका एहसास होने पर मैं डर-सी गई। संभव है, मैंने किसी मसीह-विरोधी जैसे सारे बुरे काम न किए हों, लेकिन मैं हमेशा प्रतिष्ठा, रुतबा और दूसरों की तारीफ हासिल करने में लगी रही, यहाँ तक कि कपट करके दूसरों को धोखा देती रही। अगर मैंने इस स्वभाव को नहीं बदला तो आखिरकार परमेश्वर द्वारा मुझे उजागर कर बहिष्कृत कर दिया जाएगा। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर पश्चात्ताप किया, घमंड और रुतबा त्यागने की इच्छा जताई ताकि उसके वचनों का अभ्यास कर सकूँ।

बाद में, अगर मेरे डिजाइन में नुक्स निकलते और मैं उन्हें खुद दूर नहीं कर पाती, तो मैं तुरंत किसी से बात कर संगति में खुलकर बोलती थी ताकि उनसे सुझाव लेकर सत्य खोज सकूँ। कभी-कभी मैं उनके साथ मिलकर डिजाइन तैयार करती। एक बार, मुझे डिजाइन में एक और समस्या आई और काफी सोच-विचार के बाद भी आगे नहीं बढ़ पाई। मेरे अगुआ ने प्रगति पूछी तो मैंने झूठ बोलना चाहा, लेकिन तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपना रुतबा और प्रतिष्ठा कायम करने की सोचने लगी हूँ। फिर, मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “यदि तुम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते हो, दिखावा नहीं करते हो, ढोंग नहीं करते हो, मुखौटा नहीं लगाते हो, यदि तुम भाई-बहनों के सामने अपने आपको खोल देते हो, अपने अंतरतम विचारों और सोच को छिपाते नहीं हो, बल्कि दूसरों को अपना ईमानदार रवैया दिखा देते हो, तो फिर धीरे-धीरे सत्य तुम्हारे अंदर जड़ें जमाने लगेगा, यह खिल उठेगा और फलदायी होगा, धीरे-धीरे तुम्हें इसके परिणाम दिखाई देने लगेंगे। यदि तुम्हारा दिल ईमानदार होता जाएगा, परमेश्वर की ओर उन्मुख होता जाएगा और यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना जानते हो, और इन हितों की रक्षा न कर पाने पर जब तुम्हारी अंतरात्मा परेशान हो जाए, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम पर सत्य का प्रभाव पड़ा है और वह तुम्हारा जीवन बन गया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से गहरी प्रेरणा मिली। मैं जानती थी कि मुझे मुखौटे ओढ़ना बंद करना चाहिए; ईमानदारी और शांत चित्त से अपनी कमियों का सामना करना चाहिए। दूसरे लोग मेरे बारे में चाहे जो सोचें, मुझे सत्य बोलना था और दूसरों से मिलकर समाधान खोजना था। उस दिन कार्य संबंधी सभा थी, लिहाजा मैंने संगति में अपनी समस्या और भ्रष्टता खुलकर सामने रखी। यह बताकर मैं सहज हो गई। जब मैंने दूसरों के साथ हर चीज पर चर्चा की, तो उन्होंने डिजाइन को दुरुस्त करने में मेरी मदद की और जल्द ही मैंने संपादन पूरा कर लिया। मैं बेहद खुश थी! मुझे एहसास हुआ कि खुलकर बोलना और ईमानदार होना सचमुच कितना अद्भुत है! परमेश्वर से उद्धार पाकर ही मैं यह जान सकी और खुद को बदल पाई। परमेश्वर का धन्यवाद!

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