कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए सिद्धांतों पर अडिग रहो

04 फ़रवरी, 2022

क्षु नुओ, चीन

यह अगस्त 2019 की बात है। एक कलीसिया की अगुआ, बहन लिन ने त्यागपत्र दे दिया और मेरी अगुआ ने मुझे वहाँ जाकर जाँच करने को कहा। अगर बहन लिन वाकई व्यावहारिक कार्य नहीं कर पा रहीं, तो उन्हें बरखास्त कर नया चुनाव कराया जाएगा। मेरे पहुँचने पर वहाँ के उपयाजकों ने मुझे बहन लिन की स्थिति के बारे में बताया, "इन दो महीनों में, जब से बहन लिन कलीसिया की अगुआ बनी हैं, कोई पारिवारिक हित या निजी समस्या आने पर वे कलीसिया का काम छोड़कर सब-कुछ अपनी साथी के कंधों पर डाल देती हैं। इस कारण उनकी साथी पर काम का बहुत बोझ हो जाता है और काम अच्छे से नहीं हो पाता। विशेष रूप से जरूरी मामलों में वे समय पर चीजों को नहीं सँभाल पातीं। उनकी साथी भारी दबाव के कारण थोड़ी नकारात्मक हो गई है। बड़े अगुआओं ने कई बार बहन लिन को मदद और समर्थन की पेशकश की है, लेकिन वे कोई सुधार नहीं ला पाई हैं। सभाओं में भी परमेश्वर के वचनों पर बहन लिन की संगति में कोई प्रबोधन नहीं होता, इसलिए भाई-बहनों को पोषण नहीं मिल रहा, कुछ तो अब सभाओं में आना ही नहीं चाहते। चूँकि बहन लिन भाई-बहनों की व्यावहारिक समस्याएँ नहीं सुलझा पातीं, इसलिए वे उनसे मिलने से कतराती हैं और खुद भी सभाओं में नहीं आना चाहतीं। भाई-बहनों के मुश्किल हालात में वे मदद करने के लिए सत्य पर संगति नहीं कर पातीं, बस सिद्धांत की बातों से बहलाती हैं, या फिर समस्याएँ सुलझाने के लिए अपने ही तरीकों और सांसारिक फलसफों का उपयोग करती हैं। अगर वे बीमारी के कारण नकारात्मक स्थिति में होते हैं, तो बस इतना बताती हैं कि फलाँ डॉक्टर से मिल लो या फलाँ स्वास्थ्यवर्धक चीजें ले लो, लेकिन कभी उन्हें परमेश्वर के सामने जाने, उसकी इच्छा जानने और सबक सीखने को नहीं कहतीं। इसके अलावा, जब कभी कोई सभा में निवेशों की बात करता है, तो बहन लिन उसे उजागर करने और रोकने की बात तो दूर, खुद भी उसमें हिस्सा लेने और अन्य भाई-बहनों को भी ऐसा करने के लिए कहती हैं। कुछ भाई-बहनों ने उन्हें कई बार याद दिलाया कि उन्हें सत्य का अनुसरण कर अपने कर्तव्य निभाने पर ध्यान देना चाहिए, लेकिन इस डर से कि भाई-बहन उन्हें धन-लोलुप कहेंगे, उन्होंने गुपचुप निवेश किया और 400,000 से अधिक का नुकसान उठाया, जिसके कारण वे अपने कर्तव्यों से और भी भटक गईं।" बहन लिन अपने कर्तव्य और व्यावहारिक कार्य नहीं कर रही थीं, इसलिए वहाँ कलीसियाई जीवन बेअसर हो गया था, और भाई-बहन नकारात्मक और कमजोर महसूस करने लगे थे।

उनसे हालात की रिपोर्ट सुनकर मैंने सोचा, "बहन लिन न तो सत्य का अनुसरण करती हैं, न व्यावहारिक काम, चीजों को लेकर उनके विचार भी अविश्‍वासियों जैसे हैं। इस तरह वे पवित्र आत्मा का कार्य नहीं पा सकतीं। इस तरह वे कलीसिया की अगुआई कैसे कर सकती हैं? त्यागपत्र के बिना भी उन्हें झूठे अगुआ के तौर पर बरखास्त कर दिया जाएगा।" इसलिए मैंने यह पता लगाने का सिद्धांत खोजा कि किसी व्यक्ति में पवित्र आत्मा का कार्य है या नहीं, और उस सिद्धांत और बहन के व्यवहार के आधार पर संगति की। मेरी संगति खत्म होने पर कई उपयाजकों ने अनुमोदन में सिर हिलाया और कहा कि बहन लिन में पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है। लेकिन जब मैंने बहन लिन को उनके कार्य से बरखास्त करने की बात की, तो उपयाजकों ने कहा, "बहन लिन में अच्छी मानवता है, वे हर मुश्किल में भाई-बहनों की जितनी मदद कर सकती हैं, करती हैं, वे मिलनसार और सरल हैं।" उन्होंने यह भी कहा कि उनमें अच्छी क्षमता है, वे चतुर हैं, परमेश्वर का वचन तुरंत स्वीकार कर लेती हैं, और भाई-बहनों को किसी भी तरह की समस्या में दिलासा दे सकती हैं। अगर उन्हें बरखास्त किया गया, तो कलीसिया कोई दूसरा उपयुक्त अगुआ नहीं खोज पाएगी। एक उपयाजक ने तो यह भी कहा, "शायद बहन लिन की बुरी दशा थोड़े समय के लिए ही है। हमें पहले उनके साथ संगति करके उनकी मदद करनी चाहिए।" बाकी उपयाजक भी कमोबेश इस बात से सहमत थे। यानी वे बहन लिन की बरखास्तगी नहीं चाहते थे। अगर अगुआ और कर्मी पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त न करें और लंबे समय तक व्यावहारिक कार्य न कर पाएँ, तो उन्हें बदल देना चाहिए। अगर उनमें पवित्र आत्मा का कार्य न हो और हम फिर भी उन्हें रखें, तो क्या यह परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध नहीं? उपयाजकों ने केवल यही देखा कि बहन लिन लोगों के भौतिक सुख का ख्याल रखती हैं, लोगों से थोड़ा प्रेम करती हैं, थोड़ी होशियार और क्षमतावान हैं, लेकिन वो यह नहीं देख पाए कि क्या वे सत्य का अनुसरण करती हैं, क्या वे व्यावहारिक कार्य कर सकती हैं। वे लोगों के चयन में परमेश्वर के घर के मानकों का उपयोग नहीं कर रहे थे। बहन लिन स्पष्ट रूप से सत्य का अनुसरण नहीं करती थीं और अविश्‍वासियों जैसे विचार रखती थीं। कोई समस्या आने पर वे सत्य पर संगति नहीं करती थीं, न ही भाई-बहनों की जीवन-प्रवेश संबंधी व्यावहारिक समस्याएँ दूर कर पाती थीं। वे एक झूठी अगुआ के तौर पर उजागर हो चुकी थीं। अगर वे अपने कर्तव्य में बनी रहीं, तो कलीसिया के काम को बाधित ही करेंगी और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश के रास्ते की रुकावट बनेंगी।

मेरी संगति के बाद सभी उपयाजक चुप हो गए, लेकिन अभी भी वे उनकी बरखास्तगी से सहमत नहीं दिखे। मैंने सोचा, "अगर मैं अपने दृष्टिकोण पर अड़ी रही, और सत्य और बहन लिन को समझने पर संगति करती रही, तो क्या उपयाजक मुझे अहंकारी और स्वेच्छाचारी नहीं मानेंगे और कहेंगे, मैं दूसरों की राय नहीं मानती?" मुझे यह भी चिंता हुई कि अगर मैंने आते ही इन उपयाजकों से अपने रिश्ते बिगाड़ लिए, तो मेरे लिए बाकी काम करना मुश्किल हो जाएगा। यह सोचकर मैंने झूठे अगुआओं को पहचानने के सिद्धांतों पर उपयाजकों के साथ आगे संगति नहीं की, और अपने वरिष्ठ अगुआओं को कलीसिया की स्थिति के बारे में बता दिया। मैंने सोचा, "अगर मेरी अगुआ मेरी बात से सहमत होंगी, तो मैं बहन लिन को बरखास्त कर दूँगी, और उपयाजक भी मेरे बारे में कोई बुरी राय नहीं बनाएँगे।" इसके बाद मैं उस कलीसिया की बाकी बहनों के पास बहन लिन के बारे में उनके विचार जानने गई, लेकिन मैंने देखा कि वे बहनें भी उन्हें पहचान नहीं पाई हैं। उन सबने उनके बारे में अच्छी राय जाहिर की, और कहा कि वे स्नेही हैं, उनकी कठिनाइयाँ समझती हैं, होशियार और क्षमतावान हैं। उनकी राय उपयाजकों जैसी ही थी। यह देख मैं बहन लिन को जानने के लिए सत्य पर संगति करने का साहस नहीं कर पाई। मुझे डर था कि वे मुझे अभिमानी, दंभी और दूसरों के विचारों की उपेक्षा करने वाली कहेंगी, और उन पर मेरा बुरा प्रभाव पड़ेगा। इसलिए मैंने बस अगुआ के जवाब की प्रतीक्षा की। इस तरह, बहन लिन की बरखास्तगी के मामले का मुझ पर कोई बोझ नहीं रहा। मुझे उन भाई-बहनों में सत्य और विवेक की कमी साफ दिखी, लेकिन उनके साथ संगति करने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। उन दिनों मुझे आध्यात्मिक अंधकार का अनुभव हुआ, और मैं परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं कर पाई। मुझे अपनी दशा के गलत होने का एहसास हुआ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वो मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन करे, ताकि मैं अपनी दशा जान सकूँ। कुछ दिनों बाद मेरी अगुआ ने मुझसे मिलने को कहा। हमने परमेश्वर के वचनों के इस लेख का एक अंश पढ़ा—"परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण भाग सत्य को व्यवहार में लाना है।" "परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हें उसका सिद्धांत समझना चाहिए। सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होने का अर्थ है सिद्धांत के अनुसार कार्य करना। अगर तुम्हें कोई चीज स्पष्ट नहीं है, अगर तुम सुनिश्चित नहीं हो कि क्या करना उचित है, तो सर्वसम्मति प्राप्त करने के लिए संगति करो। जब यह निश्चित हो जाए कि कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के लिए सर्वाधिक लाभकारी क्या है, तो उसे करो। नियमों से बँधे मत रहो, देर मत करो, प्रतीक्षा मत करो, निष्क्रिय दर्शक मत बनो। अगर तुम हमेशा निष्क्रिय दर्शक बने रहते हो—जब कोई निर्णय लेता है, तब अपनी राय देते हो और महज धीमी गति से काम करते हो, और जब कोई निर्णय नहीं लेता तो इंतजार करते रहते हो—तो तुम अपना हर काम खराब कर लोगे। जो चीजें तुम्हें स्पष्ट हैं, अगर उनके बारे में हर कोई तुम्हें बताता है कि इसे करने का यह उचित तरीका है, कि तुम्हें इसे इस तरह से करना चाहिए, और उसे वैसे ही करने में परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन करता है, तो तुम्हें उसे वैसे ही करना चाहिए—जिम्मेदारी लेने या दूसरों को ठेस पहुँचाने या संभावित परिणामों से मत डरो। जब लोग चालाकी और बेईमानी करते हैं, तो परमेश्वर देखता है, नजर रखता है। तुम जो कुछ भी सोचते हो, जब भी तुम सत्य के अनुसार कार्य नहीं करते, जब तुममें प्रतिबद्धता की कमी होती है, जब भी कभी तुममें व्यक्तिगत दूषण होता है, और तुम्हारे अपने विचार और अभिप्राय होते हैं, तो परमेश्वर देखता है और वह जानता है, और अगली बार जब तुम कुछ करोगे, तो वह तुम्हारे साथ नहीं होगा। क्यों नहीं होगा? क्योंकि तुम्हारे दिल में हमेशा कुछ ऐसी चीजें होती हैं, जो तुम्हें परमेश्वर से अलग करती हैं। वे कौन-सी चीजें हैं? तुम्हारे विचार, तुम्हारा अहंकार और हित, और तुम्हारा ओछापन। जब लोगों के दिलों में ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें परमेश्वर से अलग करती हैं, और वे लगातार उन चीजों में मग्न रहते हैं, तो यह समस्या है। अगर तुम्हारी क्षमता खराब और अनुभव थोड़ा है, लेकिन तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हो, और हमेशा परमेश्वर के साथ एकचित्त रहते हो, अगर तुम क्षुद्र चालों में पड़े बिना, परमेश्वर द्वारा सौंपे जाने वाले काम में अपना सब-कुछ झोंक सकते हो, तो परमेश्वर इसे देखेगा। अगर तुम्हारे दिल और परमेश्वर के बीच हमेशा दीवार खड़ी रहती है, अगर तुम हमेशा क्षुद्र षड्यंत्र पालते हो, हमेशा अपने हितों और गर्व के लिए जीते हो, अपने दिल में हमेशा इन चीजों की गणना करते रहते हो, उनके काबू में हो, तो परमेश्वर तुमसे प्रसन्न नहीं होगा, और तुम अपना काम खराब कर लोगे। वह इसलिए, क्योंकि तुम्हारा उपयोग करना आसान नहीं है। तुममें प्रतिबद्धता की कमी है, तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, तुम परमेश्वर के साथ हमेशा खिलवाड़ करते हो, तुम परमेश्वर के घर के लिए चीजों को सँभालने में कपट करते हो; तुम्हारा दिल ईमानदार नहीं है, तुम अपना पूरा दिल और आत्मा नहीं देते, तुम अपना पूरा दिल लगाए बिना बस कुछ सांकेतिक प्रयास करते हो। यह नहीं चलेगा। परमेश्वर लोगों के दिलों को देखता है : अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम जीवन में प्रवेश नहीं करोगे, और न ही तुम्हारा जीवन कभी विकास करेगा, और इसलिए तुम्हें परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं होगा" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। मैंने परमेश्वर के वचनों से सीखा कि परमेश्वर के घर के कार्यों में सब-कुछ सत्य के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए। जो मामले स्पष्ट न हों, उनमें चर्चा करके आम सहमति बना सकते हैं, और कलीसिया के लिए सबसे उपयुक्त कार्य कर सकते हैं। जो मामले स्पष्ट हों, उनमें हमें परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने के लिए सत्य का अभ्यास करते हुए सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। लेकिन अगर हमारा मन साफ नहीं, हम परमेश्वर से छल करें, निजी हितों की रक्षा करने की कोशिश करें, सत्य को समझें पर उसका अभ्यास न करें, परमेश्वर के प्रति कोई निष्ठा या लिहाज न रखें, तो हम कभी पवित्र आत्मा का कार्य नहीं पा सकेंगे, हमें कभी अपने काम में परमेश्वर का आशीष नहीं मिलेगा। बहन लिन की दशा पर उपयाजकों की रिपोर्ट सुनकर मैं समझ गई थी कि वे सत्य का अनुसरण या व्यावहारिक कार्य बिलकुल नहीं करतीं, वे एक झूठी अगुआ हैं जिन्हें बदलना जरूरी है, लेकिन जब मैंने उपयाजकों की असहमति देखी, तो मैं डर गई कि वे मुझे अभिमानी और दंभी समझेंगे, इसलिए मैं सत्य के सिद्धांत कायम नहीं रख पाई, और मैंने उनसे झूठे अगुआओं को पहचानने को लेकर सत्य पर संगति नहीं करनी चाही। जब मैंने अपनी अगुआ को रिपोर्ट करते हुए पत्र लिखा, तो बाहर से तो मैं अपने कर्तव्यों के प्रति गंभीर लगती थी, लेकिन असल में मैं आगे बढ़ने में झिझक रही थी, क्योंकि मुझे डर था कि भाई-बहन कहीं मुझे नकारात्मक नजर से न देखें। अपने कर्तव्य में मुझे केवल अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत का खयाल था, जिसके लिए मैंने एक झूठी अगुआ द्वारा कलीसिया के काम में बाधा और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में रुकावट बरदाश्त की। मैंने देखा कि मैं स्वार्थी, नीच और चालाक बन गई थी। परमेश्वर लोगों के दिल और दिमाग का निरीक्षण करता है, मेरे विचार लोगों को तो धोखा दे सकते हैं, परमेश्वर को नहीं। उस दौरान मेरी आत्मा में अँधेरा था, मैं परमेश्वर को महसूस नहीं कर पा रही थी। यह दरअसल मेरे लिए परमेश्वर की धार्मिक ताड़ना थी!

तभी मैंने एक कलीसिया के बारे में सुना, जहाँ कोई मसीह-विरोधी बुराई करते हुए पाया गया था, लेकिन किसी ने उसकी रिपोर्ट या खुलासा नहीं किया था। उस मसीह-विरोधी को निकाल देने के बाद भी सदस्य उसे बचाते रहे थे। इससे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँची, और वहाँ के सभी लोगों को आत्मचिंतन के लिए अलग कर दिया गया। उस परिणाम के बारे में सुनकर मेरा दिल डर से काँप गया। मैंने खुद से बार-बार पूछा, पता लगने के बाद भी मैं झूठी अगुआ को क्यों नहीं हटा पाई। विशेषकर परमेश्वर के इन वचनों पर विचार करते हुए, "जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तब अगर कोई परमेश्वर की निंदा करता है, उसके प्रति कोई श्रद्धा नहीं रखता, अपने काम में लापरवाही दिखाता है, कलीसिया के काम में रुकावट या गड़बड़ी पैदा करता है, और जब तुम यह सब होते देखते हो तो तुम उस चीज को पहचानकर, जरूरत होने पर उसे उजागर कर सकते हो और सत्य के सिद्धांत के अनुसार उसका समाधान कर सकते हो। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हारा सामना दुष्ट लोगों और शैतानों से होगा जो परमेश्वर के घर के कार्य में रुकावट डालते हैं और बाधाएँ खड़ी करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नज़रअंदाज़ कर दोगे। यहाँ तक कि तुम यह भी सोचोगे कि वह जो परमेश्वर के घर के कार्य में बाधाएँ खड़ी कर रहा है, तुम्हारा उससे कोई लेना-देना नहीं है। चाहे परमेश्वर के कार्य और उनके घर के हितों को कितना भी बड़ा नुकसान हो जाए, तुम अपने विवेक से कोई धिक्कार महसूस नहीं करोगे, जिसका अर्थ है कि तुम कोई ऐसे व्यक्ति बनोगे जो अपने शैतानी स्वभाव से जीता हो। शैतान तुम्हें नियंत्रित करता है और तुम्हें कुछ इस तरह से जीने के लिए प्रेरित करता है जो न तो पर्याप्त रूप से मानवीय होता है, और न ही पूरी तरह से दानवीय। तुम परमेश्वर का दिया हुआ खाते हो, पीते हो, और जो कुछ भी उससे मिलता है, उसका आनंद लेते हो, फिर भी जब परमेश्वर के घर के कार्य का कोई नुकसान होता है, तो तुम सोचोगे कि तुम्हारा इससे कोई लेना-देना नहीं है, और जब तुम इसे होते हुए देखते हो, तो तुम 'अपनी कोहनी को बाहर की ओर मोड़ लेते हो',[क] और तुम परमेश्वर का पक्ष नहीं लेते, न ही परमेश्वर के कार्य को या परमेश्वर के घर के हितों को थामते हो। इसका मतलब है कि तुम पर शैतान का प्रभाव है, क्या ऐसा नहीं है? क्या ऐसे लोग मानव की तरह जीते हैं? जाहिर है, वो दुष्टात्मा हैं, मानव नहीं!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचनों की हर पंक्ति ने मेरा हृदय बेध दिया और मैं डर गई। लगा, जैसे परमेश्वर मुझसे नाराज है। मैंने साफ तौर पर कलीसिया में एक झूठी अगुआ को काम में बाधा डालते देखा, जिससे भाई-बहनों का जीवन-प्रवेश बाधित हुआ, लेकिन उपयाजकों और भाई-बहनों से रिश्ते मधुर बनाए रखने के लिए मैंने झूठी अगुआ को उजागर करने का साहस नहीं किया, और उन्हें पहचानने में मदद करने के लिए सत्य पर संगति नहीं की। मैं झूठी अगुआ की ढाल बन गई थी, शैतान की साथी बन गई थी। मैं दुष्टता कर रही थी। जरा सोचिए, परमेश्वर ने देहधारण करके हमारे सिंचन और पोषण के लिए इतना सत्य व्यक्त किया है, और मैंने सब-कुछ परमेश्वर से पाया है, लेकिन जब परमेश्वर के घर के कार्य को हानि पहुँची, तो मैंने एक झूठी अगुआ को काम में बाधा डालने दी। मैंने देखा कि मैं कितनी कृतघ्न हूँ। मुझमें न विवेक था, न बुद्धि थी और न ही जरा-सी भी इंसानियत थी। मैं परमेश्वर के लिए एक मायूसी थी।

फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश याद आया, "तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम में शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरूद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफ़ाश कर सकोगे? क्या तुम मेरी इच्छा को स्वयं में पूरा होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के वचनों की हर पंक्ति से मैंने उसकी इच्छा समझी। इस कलीसिया में एक झूठी अगुआ आई, परमेश्वर को आशा थी कि हम उसके पक्ष में खड़े होकर उसकी इच्छा का ध्यान रखेंगे, और उसके घर के हितों की रक्षा करेंगे। कलीसिया ने मुझे यह कर्तव्य सौंपा था, ताकि जरूरत पड़ने पर मैं झूठे अगुआओं को जल्दी से हटा सकूँ, सही व्यक्ति चुनने के लिए सिद्धांतों का उपयोग कर सकूँ, और भाई-बहनों को एक अच्छा कलीसियाई जीवन दूँ। अगर मैं हमेशा अपने ही फायदे की सोचती और योजना बनाती हूँ और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं कर पाती, तो निश्चित ही परमेश्वर द्वारा नकार दी जाऊँगी। मैंने पाया कि बहन लिन सत्य का अनुसरण नहीं कर रहीं, और चीजों को लेकर उनके विचार नहीं बदले, तो वे भाई-बहनों का सिंचन कैसे कर सकती हैं? अगर ऐसे व्यक्ति को रहने दिया जाए, तो वह परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित करता रहेगा और लोगों के जीवन-प्रवेश में रुकावट डालेगा। जब मुझे ये एहसास हुआ, तो बहन लिन को हटाने पर मुझे अभिमानी और दंभी कहलाए जाने की चिंता नहीं रही, क्योंकि मुझे पता था कि ऐसा करना सिद्धांतों को बनाए रखना, सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के घर के काम की रक्षा करना है, अहंकार और दंभ नहीं। केवल वे लोग ही, जो परमेश्वर के वचनों के आधार या सत्य के बिना कार्य करते हैं, मनमानी करते हैं और अपनी ही धारणाओं और विचारों से चिपके रहते हैं, अभिमानी, अहम्मन्य और सत्य के विरुद्ध चलने वाले होते हैं।

इसलिए उसके बाद मैंने उनके साथ बहन लिन को बरखास्त न करने के परिणामों पर संगति करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग किया कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को व्यावहारिक कार्य कैसे करना चाहिए, और अच्छी इंसानियत, अच्छी क्षमता और स्नेही हृदय क्या होता है। मेरी संगति के बाद भाई-बहन, बहन लिन को पहचान गए। उन्होंने यह भी देखा कि परमेश्वर के घर में तबादले और बरखास्तगी के सिद्धांत हैं। परमेश्वर का घर किसी व्यक्ति की प्रतिभा या क्षमता नहीं देखता, यह देखता है कि वह सत्य का अनुसरण और अभ्यास और व्यावहारिक कार्य करता है या नहीं। बहन लिन एक झूठी अगुआ थीं और उन्हें हटाया ही जाना था। फिर मैंने बहन लिन के साथ संगति की, लेकिन मैंने देखा कि वे बड़ी संवेदनहीन हैं। उन्हें न गलती का एहसास था, न वे खुद को दोषी मानती थीं। मैंने बातचीत के दौरान ही उन्हें हटा दिया। उसके बाद मैंने भाई-बहनों के साथ चुनाव के सिद्धांतों के बारे में संगति की और हमने एक नई कलीसिया-अगुआ चुनी।

चुनाव होने के बाद मैंने भाई-बहनों द्वारा भाई शाओ लेई के व्यवहार को लेकर की गई रिपोर्ट पर विचार किया। उनका कहना था कि वे कभी सत्य का अनुसरण नहीं करते, बरसों परमेश्वर में आस्था रखकर भी उनके विचार नहीं बदले, उनके मन में सांसारिक चीजों और धन की लालसा है, वे बस धनी बनकर असाधारण जीवन जीना चाहते हैं। जब भी उन्हें कोई काम दिया जाता, वे पैसा कमाने में व्यस्त नजर आते, कर्तव्य-पालन से उन्हें कोई खुशी न मिलती, इतना ही नहीं, कलीसिया में भी वे लोगों को निवेश और पैसा बनाने की योजनाएँ बेचा करते। उनका व्यवहार कलीसिया के जीवन में गड़बड़ी और व्यवधान पैदा कर रहा था। मैंने सोचा, "मुझे उनके साथ संगति करके उन्हें चेताना चाहिए।" मुलाकात के दिन वे मिलने से बचने के लिए जानबूझकर घर नहीं आए। मुझे शाम तक उनके लौटने का इंतजार करना पड़ा। मैंने उनसे पूछा, "आपने कलीसियाई जीवन में जो व्यवधान पैदा किए हैं, उनके बारे में आपके क्या विचार हैं? क्या आपने आत्म-चिंतन कर खुद को समझने की कोशिश की है?" उनमें कोई समझ नहीं थी, न ही अपने कामों को लेकर कोई पछतावा था, उनके अंदर ढेरों गलतफहमियाँ और शिकायतें थीं। वे बोले, परमेश्वर में बरसों की आस्था के बावजूद मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ। बेटा बात नहीं मानता, पत्नी उन्हें गलत समझती है। ... वे सारा दोष दूसरों पर मढ़ते रहे, अपनी समस्याओं पर एक शब्द नहीं बोले। मैंने संगति कर उन्हें आत्म-चिंतन के लिए प्रेरित करने की कोशिश की, लेकिन वे अड़े रहे। उन्होंने यह भी कहा, "सत्य का अभ्यास करने का क्या फायदा?" एक बार एक बहन ने परमेश्वर के वचनों द्वारा उनका अविश्वासी व्यवहार दिखाया था, लेकिन उन्हें न कोई समझ थी, न पश्चात्ताप। शाओ लेई ने कभी सत्य का अनुसरण नहीं किया, और कई तरह से एक अविश्वासी जैसा व्यवहार किया। सिद्धांतों के अनुसार जो सत्य का अनुसरण और कर्तव्य-पालन नहीं करता और कलीसियाई जीवन को बाधित करता है, उसके साथ अकेले में सभा करनी चाहिए। उसे कलीसियाई जीवन बाधित नहीं करने दे सकते। शाओ लेई जैसे व्यक्तियों के साथ अकेले में सभा करनी चाहिए, वरना वे उन छोटे आध्यात्मिक कद वालों को प्रभावित कर सकते हैं, जिनमें समझ नहीं होती। तो मैंने कलीसिया के अगुआओं और उपयाजकों के साथ संगति कर उन्हें पहचान करने के तरीके बताए। सभी ने माना कि शाओ लेई के साथ अकेले में सभा करके आत्म-चिंतन के लिए समय देना चाहिए। लेकिन कुछ दिन बाद एक बहन ने मुझे पत्र लिखकर बताया कि शाओ लेई सत्य का अभ्यास करना चाहते हैं, पर भ्रष्ट स्वभावों के काबू में होने से ऐसा नहीं कर पाते, इसलिए उनके साथ अकेले में सभा करना ठीक नहीं। पत्र देखकर मैं थोड़ी झिझकी। अगर शाओ लेई पश्चात्ताप करना और बदलना चाहते हैं, तो मेरा उनके लिए अकेले में सभाओं और आत्म-चिंतन की व्यवस्था करना उन्हें और नकारात्मक तो नहीं बना देगा? अगर शाओ लेई और बाकी लोगों को पता चला कि यह मेरा सुझाव था, तो क्या वे यह नहीं कहेंगे कि मैं लोगों को पश्चात्ताप का समय नहीं देती? मैं हाल ही में इस कलीसिया में आई थी और झूठे अगुआओं को हटा रही थी, अविश्वासियों से निपट रही थी। भाई-बहन यह तो नहीं कहेंगे कि मैं उन्हें डराने की कोशिश कर रही हूँ और बहुत निर्दयी हूँ? मैंने यह भी सोचा कि शाओ लेई वाक्पटु हैं और लोगों का दिल जीतना जानते हैं। अगर मैं संगति करने गई और उन्हें उजागर किया, और वे नहीं माने, मेरा विरोध या मुझ पर गुस्सा किया, तो मैं क्या करूँगी? इन बातों पर विचार करके मुझे लगा कि मैं फिर कठिनाई में हूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह अपनी इच्छा समझने में मेरा मार्गदर्शन करे, ताकि मैं सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकूँ।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। "कलीसिया निर्माणाधीन है और शैतान इसे ध्वस्त करने की पूरी कोशिश कर रहा है। यह मेरे निर्माण को किसी भी तरह से नष्ट कर देना चाहता है; इस कारण, कलीसिया को तुरंत शुद्ध किया जाना चाहिए। बुराई का ज़रा-सा भी तलछट शेष नहीं रहना चाहिए; कलीसिया को इस ढंग से शुद्ध किया जाना चाहिए ताकि यह निष्कलंक और उतनी ही शुद्ध हो जाए जितनी यह पहले थी और आगे भी वैसी ही रहे। तुम लोगों को जागते रहना चाहिए और हर समय प्रतीक्षा करनी चाहिए, और तुम लोगों को मेरे सामने अधिक बार प्रार्थना करनी चाहिए। तुम्हें शैतान की विभिन्न साजिशों और चालाक योजनाओं को पहचानना चाहिए, आत्माओं को पहचानना चाहिए, लोगों को जानना चाहिए और सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों को समझने में सक्षम होना चाहिए; तुम्हें मेरे वचनों को और अधिक खाना और पीना भी चाहिए, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें उन्हें अपने आप खाने और पीने में सक्षम होना चाहिए। तुम अपने आप को पूरे सत्य से युक्त करो और मेरे सामने आओ, ताकि मैं तुम लोगों की आध्यात्मिक आँखें खोल सकूँ और तुम्हें आत्मा के भीतर निहित सभी रहस्यों को देखने का मौका दे सकूँ...। जब कलीसिया अपने निर्माण के चरण में आती है, तो संत युद्ध के लिए कूच करते हैं। शैतान के विभिन्न वीभत्स लक्षण तुम सभी के सामने रखे जाते हैं : क्या तुम रुकते और पीछे हट जाते हो, या तुम मुझ में भरोसा रखकर खड़े हो जाते हो और आगे बढ़ना जारी रखते हो? शैतान के भ्रष्ट और घिनौने लक्षणों को पूरी तरह से उजागर कर दो, कोई भावुकता न रखो और कोई दया मत दिखाओ! मौत तक शैतान से लड़ते रहो! मैं तुम्हारे पीछे हूँ और तुममें एक मर्द बच्चे की भावना होनी चाहिए! शैतान अपनी मौत की पीड़ा में अंतिम प्रहार कर रहा है, लेकिन फिर भी वह मेरे न्याय से बच निकलने में असमर्थ ही रहेगा। शैतान मेरे पैरों तले है और उसे तुम लोगों के पैरों तले भी कुचला जा रहा है—यह एक तथ्य है!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 17)। मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि जैसे परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए कार्य करता है, वैसे ही शैतान भी उसे बाधित करने की कोशिश करता है। परमेश्वर झूठे अगुआओं, मसीह-विरोधियों, दुष्टों और अविश्वासियों को कलीसिया में आने देता है, ताकि हम खुद को सत्य से युक्त कर सकें, सत्य के सिद्धांतों से अपने आस-पास के लोगों, मामलों और चीजों को समझ सकें, कि कौन-सी चीज परमेश्वर से आती है और कौन-सी शैतान से, परमेश्वर के पक्ष में खड़े हो सकें और शैतान की नकारात्मक बातें समझकर नकार सकें, और फिर शैतान पर कोई दया न करें। मैंने शाओ लेई के बारे में फिर से सोचा, कि कैसे उन्होंने कभी सत्य का अनुसरण या अभ्यास नहीं किया, बरसों परमेश्वर में आस्था रखकर भी अविश्वासियों जैसे विचार रखे, और जब भाई-बहनों ने उनके साथ संगति की, तो अपने भ्रांत विचारों से हमेशा उनका खंडन किया। कलीसियाई जीवन में हमेशा ऐसी बातें कीं जिनका सत्य से कोई संबंध नहीं था, कभी सकारात्मक भूमिका नहीं निभाई, उनमें अपने कामों को लेकर न तो कोई समझ थी, न पश्चात्ताप था। जहाँ तक शाओ लेई जैसे व्यक्ति का संबंध है, अगर उन्हें सँभालकर तुरंत एकांत बैठक न की गई, तो वे भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में और भी बाधा डालेंगे और छोटे आध्यात्मिक कद के भाई-बहनों को भ्रमित करेंगे। मैं समझ गई कि अविश्वासियों से निपटने के लिए परमेश्वर के घर में यह सिद्धांत है, क्योंकि अविश्वासी और सच्चे दिल से विश्वास करने और सत्य से प्रेम करने वाले भाई-बहन बिलकुल अलग तरह के लोग होते हैं। कलीसिया में सकारात्मक भूमिका न निभाने वालों के लिए अलग सभा की जाती है, ताकि उनके कुकर्म सीमित किए जा सकें, वे कलीसियाई जीवन को बाधित न कर सकें, और दूसरे लोग सत्य का अच्छे से अनुसरण कर सकें और बचाए जा सकें। चूँकि मैं अगुआ थी, इसलिए मुझे अविश्वासियों से सिद्धांतों के अनुसार निपटना था। अगर मैं अपने हित बचाने और दूसरों को नाराज न करने के लिए अपने कर्तव्य की उपेक्षा करूँगी, तो क्या यह शैतान का बचाव और कलीसिया में भाई-बहनों को परेशान कर रहे अविश्वासियों को सहन करना नहीं होगा? बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा और जाना कि मैं सत्य का अभ्यास या सिद्धांतों का पालन क्यों नहीं कर सकी। परमेश्वर के वचन कहते है, "ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे दुष्ट या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान उठाना पड़ता है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? इनमें से तो कोई नहीं; बात यह है कि तुम कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित किये जा रहे हो। इन सभी स्वभावों में से एक है, कुटिलता। तुम यह मानते हुए सबसे पहले अपने बारे में सोचते हो, 'अगर मैंने अपनी बात बोली, तो इससे मुझे क्या फ़ायदा होगा? अगर मैंने अपनी बात बोल कर किसी को नाराज कर दिया, तो हम भविष्य में एक साथ कैसे काम कर सकेंगे?' यह एक कुटिल मानसिकता है, है न? क्या यह एक कुटिल स्वभाव का परिणाम नहीं है? एक अन्‍य स्‍वार्थी और कृपण स्‍वभाव होता है। तुम सोचते हो, 'परमेश्‍वर के घर के हित का नुकसान होता है तो मुझे इससे क्‍या लेना-देना है? मैं क्‍यों परवाह करूँ? इससे मेरा कोई ताल्‍लुक नहीं है। अगर मैं इसे होते देखता और सुनता भी हूँ, तो भी मुझे कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। यह मेरी ज़ि‍म्‍मेदारी नहीं है—मैं कोई अगुआ नहीं हूँ।' इस तरह की चीज़ें तुम्‍हारे अंदर हैं, जैसे वे तुम्‍हारे अवचेतन मस्तिष्‍क से अचानक बाहर निकल आयी हों, जैसे उन्‍होंने तुम्‍हारे हृदय में स्‍थायी जगहें बना रखी हों—ये मनुष्‍य के भ्रष्‍ट, शैतानी स्‍वभाव हैं। ... तुम वास्तव में जो सोचते हो, वह कभी नहीं कहते। वह सब तुम्हारे दिलो-दिमाग में पूर्व-संपादित होता है। तुम्हारी हर बात झूठ होती है, तथ्यों के विपरीत होती है, वह सब तुम्हारे झूठे बचाव में, तुम्हारे फायदे के लिए होता है। कुछ लोग झांसे में आ जाते हैं और तुम्हारे लिए यह काफी होता है : तुम्हारे शब्द और कार्य अपना लक्ष्य हासिल कर लेते हैं। तुम्हारे दिल में यही है, ये तुम्हारे स्वभाव हैं। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभावों के नियंत्रण में हो। अपनी कथनी-करनी पर तुम्हारा कोई जोर नहीं चलता। तुम चाहकर भी सच नहीं बोल पाते या यह नहीं बता पाते कि तुम वास्तव में क्या सोचते हो; चाहकर भी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते; चाहकर भी अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर पाते। तुम जो भी कहते, करते और अभ्यास में लाते हो, वह सब झूठ है, और तुम सिर्फ आलसी और बेपरवाह हो। स्पष्ट रूप से, तुम अपने शैतानी स्वभाव से पूरी तरह बंधे हुए हो और उसके काबू में हो। हो सकता है, तुम सत्य को स्वीकार करना और उसके लिए प्रयास करना चाहो, लेकिन यह तुम पर नहीं है : तुम भ्रष्ट देह की एक कठपुतली के सिवाय कुछ नहीं हो, तुम शैतान के साधन बन गए हो, तुम वही कहते और करते हो, जो तुम्हारा शैतानी स्वभाव तुमसे कहता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। मैंने अपने व्यवहार पर विचार किया। जब भी मुझे सत्य का अभ्यास करना था, तब मैंने केवल अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत की ही चिंता की। मैं बहुत स्वार्थी और चालाक थी। "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और "खुद को बचाओ, केवल आरोप से बचने का रास्ता सोचो" जैसे शैतानी फलसफे मेरे मन में बसे थे। मैं इन्हीं के सहारे जीती थी, इसलिए मैंने सत्य के सिद्धांत कायम नहीं रखे। बहन लिन को हटाने के मामले में मुझे डर था कि मेरे सहकर्मी मुझे घमंडी और दंभी समझेंगे, इसलिए मैंने सिद्धांत कायम नहीं रखे। मैंने परमेश्वर के घर के काम की कीमत पर अपनी छवि की रक्षा की, और बहन लिन को समय पर नहीं हटा पाई। इसके अलावा, शाओ लेई के व्यवहार से कलीसिया का जीवन अस्त-व्यस्त था, इसलिए सिद्धांतों के अनुसार उनके साथ एकांत सभाएँ जरूरी थीं, ताकि बाकी लोगों का कलीसियाई जीवन सही रहे और वे भ्रमित या परेशान न हों। यह शाओ लेई और कलीसिया के बाकी लोगों के जीवन-प्रवेश, दोनों के लिए अच्छा होता। लेकिन यहाँ भी मुझे यही डर था कि भाई-बहन कहेंगे कि मैंने लोगों को पश्चात्ताप करने या अपनी कमजोरियाँ समझने का मौका नहीं दिया, इससे उनके मन में मेरी छवि और रुतबा खराब होता, इसलिए मैंने कलीसियाई जीवन को नुकसान होने दिया, मैं न तो सिद्धांत कायम रख पाई, न सत्य का अभ्यास कर सकी। मुझे तो बस अपनी छवि और हैसियत बचाने से मतलब था, मुझे कलीसिया के काम या परमेश्वर के घर के हितों के नुकसान की परवाह नहीं थी। मैं खुद को परमेश्वर की सच्ची विश्वासी कैसे कह सकती थी? तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मेरे अंदर शैतानी फलसफों का जहर भरा है। मैं स्वार्थी और धोखेबाज थी, मुझमें इंसानियत नहीं थी। परमेश्वर उन्हें चाहता है जो सत्य के सिद्धांत कायम रखते हैं, जिनमें न्याय की भावना होती है, जिनमें सकारात्मक चीजों को बनाए रखने और नकारात्मक चीजों को नकारने का साहस होता है। ये हमसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं। शाओ लेई मामले के जरिए परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहा था। वह जाँच रहा था कि मैं परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कर सकती हूँ या नहीं। मैंने सोचा, "मुझमें न्याय की भावना होनी चाहिए। लोगों की चिंता छोड़कर मुझे सत्य के सिद्धांत कायम रखने चाहिए।" उसके बाद, संगति के जरिये, अन्य लोगों ने शाओ लेई के अविश्वासी व्यवहार को पहचानना सीखा, और 80% भाई-बहन इस बात पर सहमत हो गए कि शाओ लेई के लिए एकांत सभाओं और निरीक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। उसके बाद मैंने शाओ लेई के साथ संगति की और उनकी समस्याएँ उजागर करने के लिए उनके सतत व्यवहार का उल्लेख किया। लेकिन संगति पूरी होने से पहले ही उन्होंने यह कहकर अपना बचाव और मेरा खंडन किया, कि भाई-बहनों ने स्वेच्छा से निवेश किया है, इसका उनसे कोई लेना-देना नहीं है। ... उनके इस व्यवहार से साबित हो गया कि वे अविश्वासी हैं। इसलिए मैंने उनके लिए कुछ समय तक एकांत सभाओं और निरीक्षण की व्यवस्था की, अगर फिर भी उनमें ज्ञान या पश्चात्ताप नजर न आया, तो उन्हें कलीसिया से निकाल दिया जाएगा। सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने के बाद मुझे इतनी शांति और आनंद महसूस हुआ कि बता नहीं सकती।

उस अनुभव के बाद मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझने लगी, मैं अपने हितों का त्याग कर सत्य का अभ्यास कर पाई और एक अच्छे इंसान की तरह जी पाई। यह सब परमेश्वर का उद्धार था। मैं यह भी समझती हूँ कि परमेश्वर का घर दुनिया से अलग है। परमेश्वर के घर में सत्य का बोलबाला है। सत्य का अभ्यास और सिद्धांत से काम करने पर हमें परमेश्वर का आशीष और मार्गदर्शन मिलता है। परमेश्वर का धन्यवाद!

फुटनोट :

क. "अपनी कोहनी को बाहर की ओर मोड़ लेना" एक चीनी मुहावरा है, जिसका अर्थ है कि कोई किसी दूसरे व्यक्ति की मदद, उसी व्यक्ति के करीब के लोगों की, उदाहरण के लिए उसके माता-पिता, बच्चे, रिश्तेदार या भाई-बहन की, कीमत पर कर रहा है।

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