कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए सिद्धांतों पर अडिग रहो
अगस्त 2019 में, एक कलीसिया की अगुआ, बहन लिन शिन ने त्यागपत्र दे दिया। मेरी अगुआ ने मुझे वहाँ जाकर जाँच करने को कहा। उन्होंने कहा कि अगर लिन शिन वाकई व्यावहारिक कार्य नहीं कर पा रहीं, तो उन्हें बर्खास्त किया जाएगा और नया चुनाव कराया जाएगा। मेरे पहुँचने पर वहाँ के उपयाजकों ने मुझे लिन शिन की स्थिति के बारे में बताया, कहा कि जैसे ही कोई पारिवारिक हित या निजी समस्या आती थी, वे कलीसिया का काम भुला देती थीं और सब-कुछ अपनी साथी बहन को संभालने के लिए दे देती थीं। इस कारण उनकी साथी पर काम का बहुत बोझ हो जाता था और आगे का काम अच्छे से नहीं हो पाता था। कुछ जरूरी मामलों का तुरंत समाधान नहीं किया जा रहा था। वरिष्ठ अगुआओं ने कई बार लिन शिन को मदद और समर्थन की पेशकश की, लेकिन वे कोई सुधार नहीं ला पाईं और चीजें नहीं बदल सकीं। सभाओं में परमेश्वर के वचनों पर उनकी संगति में भी कोई प्रबोधन नहीं होता था, और जब भाई-बहनों को समस्याएँ या मुश्किलें पेश आतीं, तो वह उनके समाधान के लिए सत्य पर संगति नहीं कर पाती थीं, बस शब्दों और धर्म-सिद्धांत की बातों से बहलाती थीं, या फिर वह समस्याएँ सुलझाने के लिए अपने ही तरीकों और सांसारिक फलसफों का उपयोग करती थीं। मिसाल के लिए अगर कोई भाई या बहन बीमारी के कारण खराब आध्यात्मिक स्थिति में होता था, तो वह परमेश्वर की इच्छा का पता लगाने या सबक सीखने को कहने के बजाय उन्हें बस इतना बताती थीं कि फलाँ डॉक्टर से मिल लो या फलाँ स्वास्थ्यवर्धक चीजें ले लो। इसके अलावा, जब कभी कोई सभा में निवेशों की बात करता था, तो लिन शिन उसे उजागर करने और रोकने की बात तो दूर, खुद भी उसमें हिस्सा लेने और अन्य भाई-बहनों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करती थीं। कुछ भाई-बहनों ने उन्हें कई बार याद दिलाया था कि उन्हें सत्य का अनुसरण कर अपने कर्तव्य निभाने पर ध्यान देना चाहिए, लेकिन उन्होंने नहीं सुना। इस डर से कि भाई-बहन उन्हें धन-लोलुप कहेंगे, उन्होंने गुपचुप निवेश किया और 400,000 युआन से अधिक का नुकसान उठाया, जिसके कारण वे अपने कर्तव्यों से और भी भटक गईं। लिन शिन अपने कर्तव्य की अनदेखी कर रही थीं और व्यावहारिक कार्य नहीं कर रही थीं, इसलिए वहाँ कलीसियाई जीवन बेअसर हो गया था, और भाई-बहन नकारात्मक और कमजोर महसूस करने लगे थे। उनमें से कुछ अब सभाओं में नहीं आना चाहते थे, और वह खुद भाई-बहनों से मिलने से डरती थीं, क्योंकि उनकी समस्याएं हल करने में असमर्थ थीं।
उपयाजकों से हालात की रिपोर्ट सुनकर मैंने सोचा, “लिन शिन न तो सत्य का अनुसरण करती हैं, न व्यावहारिक काम, और चीजों को लेकर उनके विचार भी अविश्वासियों जैसे हैं। इस तरह वे कलीसिया की अगुआई कैसे कर सकती हैं? त्यागपत्र के बिना भी उन्हें झूठे अगुआ के तौर पर बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए।” इसलिए मैंने संबद्ध सिद्धांत का पता लगाया और उस सिद्धांत और बहन के व्यवहार के आधार पर इस समझ पर संगति की। मेरी संगति खत्म होने पर सभी उपयाजकों ने अनुमोदन किया कि लिन शिन में पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है। लेकिन जब मैंने लिन शिन को उनके कर्तव्यों से बर्खास्त करने की बात की, तो एक उपयाजक ने कहा, “लिन शिन में अच्छी मानवता है, वे हर मुश्किल में भाई-बहनों की जितनी मदद कर सकती हैं, करती हैं, वे मिलनसार और सरल हैं।” एक ने कहा कि उनमें अच्छी क्षमता है, वे चतुर हैं, और जब भाई-बहन बुरी स्थिति में होते थे या किसी परेशानी में होते थे तो वह दिलासा दे सकती थीं। अगर उन्हें बर्खास्त किया गया, तो कलीसिया कोई दूसरा उपयुक्त अगुआ नहीं खोज पाएगी। एक अन्य उपयाजक ने यह भी कहा, “शायद लिन शिन की बुरी दशा थोड़े समय के लिए ही है। हमें पहले उनकी मदद करनी चाहिए।” वे इस पर चर्चा करते रहे और सभी इस बात से सहमत थे कि उन्हें बर्खास्त नहीं किया जाना चाहिए। अगुआओं और कर्मियों को हटाने के सिद्धांतों के मुताबिक अगर कोई अगुआ या कर्मी पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त न करे और लंबे समय तक व्यावहारिक कार्य न कर पाए, तो उन्हें बदल देना चाहिए। अगर उनमें पवित्र आत्मा का कार्य न हो और हम फिर भी उन्हें रखें, तो क्या हम परमेश्वर के विरुद्ध नहीं जा रहे हैं? इन उपयाजकों ने केवल यही देखा कि लिन शिन लोगों का ख्याल रखती हैं, उनके भौतिक हितों का ध्यान रखती हैं, कुछ हद तक लोगों से प्रेम करती हैं, थोड़ी होशियार और क्षमतावान हैं, लेकिन वो यह नहीं देख पाए कि क्या वे सत्य का अनुसरण करती हैं, या क्या वे व्यावहारिक कार्य कर सकती हैं। वे लोगों के चयन में परमेश्वर के घर के मानकों का उपयोग करके उनका आकलन नहीं कर रहे थे। लिन शिन स्पष्ट रूप से सत्य का अनुसरण नहीं करती थीं और अविश्वासियों जैसे विचार रखती थीं। कोई समस्या आने पर वे सत्य पर संगति नहीं करती थीं, न ही वे भाई-बहनों की जीवन-प्रवेश संबंधी व्यावहारिक समस्याएँ ही दूर कर पाती थीं। वे एक झूठी अगुआ के तौर पर उजागर हो चुकी थीं। अगर वे अपने कर्तव्य में बनी रहतीं, तो वे कलीसिया के काम में रुकावट डालतीं और बाधित करतीं और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश के रास्ते में देरी करतीं। इसलिए एक बार फिर मैंने उपयाजकों के साथ उन्हें हटाने के बारे में संगति की। मेरी संगति के बाद सभी उपयाजक चुप थे, लेकिन अभी भी वे उनकी बर्खास्तगी से सहमत नहीं दिखे। उस वक्त मैं हिचकी, “अगर मैं अपने दृष्टिकोण पर अड़ी रही, और सत्य और लिन शिन को समझने पर संगति करती रही, तो क्या ये उपयाजक मुझे अहंकारी और स्वेच्छाचारी नहीं मानेंगे और कहेंगे, मैं दूसरों की राय नहीं मानती? अगर मैंने आते ही इन उपयाजकों से अपने रिश्ते बिगाड़ लिए, तो मेरे लिए बाकी काम करना मुश्किल हो जाएगा।” यह सोचकर मैंने झूठे अगुआओं को पहचानने के सिद्धांतों पर उपयाजकों के साथ आगे संगति नहीं की, और अपने वरिष्ठ अगुआ को कलीसिया की स्थिति के बारे में बता दिया। मैंने सोचा, अगर अगुआ मेरी बात से सहमत होंगी, तो मैं लिन शिन को बर्खास्त कर दूँगी, और उपयाजक भी मेरे बारे में कोई बुरी राय नहीं बनाएँगे। इसके बाद मैं उस कलीसिया की बाकी बहनों के पास लिन शिन के बारे में उनके विचार जानने गई, लेकिन मैंने देखा कि वे बहनें भी उन्हें पहचान नहीं पाई थीं। उन सबने कहा कि उनकी मानवता अच्छी थी, वे उनके प्रति स्नेही थीं, उनकी कठिनाइयाँ समझती थीं, होशियार और क्षमतावान थीं। उनकी राय उपयाजकों जैसी ही थी। यह देख मैं लिन शिन को जानने के लिए सत्य पर संगति करने का साहस नहीं कर पाई। मुझे डर था कि वे मुझे अभिमानी, आत्मतुष्ट और दूसरों के विचारों की उपेक्षा करने वाली कहेंगी, और उन पर मेरा बुरा प्रभाव पड़ेगा। इसलिए मैंने निष्क्रियता के साथ बस अगुआ के जवाब की प्रतीक्षा की। इस तरह, लिन शिन की बर्खास्तगी के मामले का मुझ पर कोई बोझ नहीं रहा। मुझे उन भाई-बहनों में सत्य और विवेक की कमी साफ दिखी, लेकिन उनके साथ संगति करने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। उन दिनों मुझे अंदर अंधकार का अनुभव हुआ, और मैं परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं कर पाई। इसलिए मैं फौरन परमेश्वर के सामने गई और उनसे प्रार्थना की कि वह मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन करे, ताकि मैं अपनी दशा जान सकूँ।
कुछ दिनों बाद मेरी अगुआ ने मुझसे सभा करने को कहा। हमने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हें उसका सिद्धांत समझना चाहिए और सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए। इसी को सिद्धांतनिष्ठ होना कहते हैं। अगर तुम्हें कोई चीज स्पष्ट नहीं है, अगर तुम सुनिश्चित नहीं हो कि क्या करना उचित है, तो सर्वसम्मति पाने के लिए संगति करो। जब यह निश्चित हो जाए कि कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के लिए सर्वाधिक लाभकारी क्या है, तो उसे करो। नियमों से बँधे मत रहो, देर मत करो, प्रतीक्षा मत करो, मूकदर्शक मत बनो। यदि तुम हमेशा मूकदर्शक बने रहकर कभी भी अपनी राय नहीं रखते, यदि कुछ भी करने से पहले तुम प्रतीक्षा करते हो कि कोई और निर्णय ले, और जब कोई निर्णय नहीं लेता, तो तुम धीरे-धीरे काम करते हो और प्रतीक्षा करते हो, तो इसका क्या परिणाम होता है? हर काम बिगड़ जाता है और कुछ भी पूरा नहीं हो पाता। तुम्हें सत्य खोजना सीखना चाहिए या कम-से-कम अपने अंतःकरण और विवेक से काम लेने में सक्षम होना चाहिए। जब तक तुम्हें कोई काम करने का उचित तरीका समझ में न आ जाए और ज्यादातर लोग इस तरीके को कारगर न मान लें, तुम्हें इसी तरह अभ्यास करना चाहिए। उस काम की जिम्मेदारी लेने या दूसरों की नाराजगी मोल लेने या परिणाम भुगतने से मत डरो। अगर कोई कुछ वास्तविक कार्य नहीं करता, हमेशा तोलमोल करते हुए जिम्मेदारी लेने से डरता है, और जो कार्य करता है उनमें सिद्धांतों का पालन करने का साहस नहीं कर पाता, तो यह दिखाता है कि वह व्यक्ति निहायत ही चालाक और धूर्त है और उसके मन में बहुत सी दुष्ट योजनाएँ हैं। परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष का आनंद लेने की इच्छा रखना लेकिन कुछ भी वास्तविक न करना कितना अधर्म है। परमेश्वर ऐसे धूर्त और चालाक लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है। तुम चाहे जो भी सोच रहे हो, तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे, तुममें वफादारी नहीं है, और तुम्हारे व्यक्तिगत विचार हमेशा शामिल रहते हैं, हमेशा तुम्हारे विचार और मत होते हैं। परमेश्वर इन चीजों को देखता है, परमेश्वर जानता है—क्या तुमने सोचा कि परमेश्वर नहीं जानता? यह सोचना मूर्खता है! और यदि तुम तुरंत पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम परमेश्वर का कार्य खो दोगे। तुम उसे क्यों खो दोगे? क्योंकि परमेश्वर लोगों के अंतरतम अस्तित्व का निरीक्षण करता है। वह पूरी स्पष्टता के साथ उनकी सभी साजिशें और चालबाजियाँ देखता है, और वह जानता है कि उनका हृदय उससे अलग है, वे उसके साथ एकचित्त नहीं हैं। वे कौन-सी मुख्य बातें हैं जो उनके हृदय को परमेश्वर से दूर रखती हैं? उनके विचार, उनके हित और अभिमान, और उनकी तुच्छ साजिशें। जब लोगों के दिलों में ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें परमेश्वर से अलग करती हैं, और वे लगातार उन चीजों में मग्न रहते हैं, हमेशा साजिशें करते रहते हैं, तो यह समस्या है” (परमेश्वर की संगति)। मैंने परमेश्वर के वचनों से सीखा कि कलीसिया के कार्यों में कर्तव्य निभाते हुए सब-कुछ सत्य सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए। जो मामले स्पष्ट न हों, उनमें हम चर्चा करके आम सहमति बना सकते हैं, और कलीसिया के लिए सबसे उपयुक्त कार्य कर सकते हैं। जो मामले स्पष्ट हों, उनमें हमें सत्य का अभ्यास करते हुए सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। केवल ऐसा करके ही हम परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रख सकते हैं। लेकिन अगर हमारा मन साफ नहीं, हम परमेश्वर से छल करें, हमेशा निजी हितों की रक्षा करने की कोशिश करें, सत्य को समझें पर उसका अभ्यास न करें, परमेश्वर के प्रति कोई निष्ठा या लिहाज न रखें, तो हम कभी पवित्र आत्मा का कार्य नहीं पा सकेंगे, हमें कभी अपने कर्तव्य में परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन नहीं मिलेगा। मैं पहले ही समझ गई थी कि लिन शिन सत्य का अनुसरण या व्यावहारिक कार्य बिलकुल नहीं करतीं, और वे एक झूठी अगुआ थीं, जिन्हें तुरंत बदलना जरूरी था, लेकिन जब मैंने उपयाजकों की असहमति देखी, तो मैं डर गई कि वे मुझे अभिमानी और आत्मतुष्ट समझेंगे, इसलिए मैं सत्य सिद्धांत कायम नहीं रख पाई, और मैंने उनसे झूठे अगुआओं को पहचानने को लेकर सत्य पर संगति करने का प्रयास नहीं किया। जब मैंने अपनी अगुआ को रिपोर्ट करते हुए पत्र लिखा, तो बाहर से तो मैं अपने कर्तव्यों के प्रति गंभीर लगती थी, लेकिन असल में मैं आगे बढ़ने में झिझक रही थी, क्योंकि मुझे डर था कि भाई-बहन कहीं मुझे नकारात्मक नजर से न देखें। अपने कर्तव्य में मुझे परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं रहा था, मैंने कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं की थी और केवल अपनी प्रतिष्ठा और स्थिति का खयाल रखा था। अपनी प्रतिष्ठा और स्थिति को बचाने के लिए मैंने एक झूठी अगुआ द्वारा कलीसिया के काम में बाधा और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में रुकावट तक बरदाश्त की थी। मैंने देखा कि मैं स्वार्थी और चालाक बन गई थी। परमेश्वर लोगों के दिल और दिमाग का निरीक्षण करता है, और मेरे विचार लोगों को तो धोखा दे सकते हैं, परमेश्वर को नहीं। उस दौरान मेरी आत्मा में अँधेरा था, और मैं परमेश्वर की मौजूदगी को महसूस नहीं कर पा रही थी। यह दरअसल परमेश्वर की ताड़ना और अनुशासन था!
उसी दौरान मैंने एक कलीसिया के बारे में सुना, जहाँ कोई मसीह-विरोधी बुराई करते हुए पाया गया था, लेकिन किसी ने उसकी रिपोर्ट या उसे उजागर नहीं किया था। उस मसीह-विरोधी को निकाल देने के बाद भी सदस्य उसका पक्ष लेते रहे और उसे बचाते रहे थे। इसने परमेश्वर के स्वभाव को कुपित कर दिया, और कलीसिया के सभी लोगों को आत्मचिंतन के लिए अलग कर दिया गया। उस परिणाम के बारे में सुनकर मेरा दिल डर से काँप गया। मैंने खुद से बार-बार पूछा, पता लगने के बाद भी मैं झूठी अगुआ को क्यों नहीं हटा पाई थी। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कर्तव्य निभाते समय लापरवाह और अनमना रहता है या कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर बाधा डालता है, तो तुम सत्य-सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन दुष्ट लोगों और शैतानों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नजरअंदाज कर दोगे। तुम यह भी सोचोगे कि कलीसिया के कार्य में कोई भी बाधाएँ डाले तो इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक विवेकहीन या नासमझ व्यक्ति, एक गैर-विश्वासी, एक सेवाकर्ता बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, इंसान से ज्यादा राक्षस जैसे हो, और स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासियों में से एक हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मेरा हृदय बेध दिया और मैं डर गई। लगा, जैसे परमेश्वर मुझसे नाराज है। मैंने साफ तौर पर कलीसिया में एक झूठी अगुआ को काम में बाधा डालते देखा, भाई-बहनों का जीवन-प्रवेश बाधित करते देखा, लेकिन उपयाजकों और भाई-बहनों से रिश्ते मधुर बनाए रखने और उन्हें ठेस पहुँचाने से बचने के लिए मैंने झूठी अगुआ को उजागर करने का साहस नहीं किया, और उन्हें पहचानने में मदद करने के लिए भाई-बहनों के साथ सत्य पर संगति नहीं की। मैं अनजाने ही झूठी अगुआ की ढाल बन गई थी। मैं शैतान की साथी बन गई थी। मैं दुष्टता कर रही थी! परमेश्वर ने देहधारण करके हमारे सिंचन और पोषण के लिए इतना सत्य व्यक्त किया है, और मैं उस सबका उपयोग कर रही थी जो परमेश्वर से मिला है, लेकिन जब एक झूठी अगुआ कलीसिया में आई तो अपने हितों की रक्षा के लिए मैंने उसे कलीसिया के कार्य में बाधा डालने दी। मैं वास्तव में जिस थाली में खा रही थी उसी में छेद कर रही थी। मुझमें न विवेक था, न बुद्धि थी और न जरा-सी भी मानवता थी। मैंने परमेश्वर को बहुत दुख पहुँचाया था। इसके बाद, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश याद आया : “तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुममें शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरूद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफ़ाश कर सकोगे? क्या तुम मेरी इच्छा को स्वयं में पूरा होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के वचनों की इन पंक्तियों से मैंने उसकी इच्छा समझी। इस कलीसिया में एक झूठी अगुआ आई, और परमेश्वर को आशा थी कि मैं उसके पक्ष में खड़े होकर उसकी इच्छा का ध्यान रखूँगी, और कलीसिया के हितों की रक्षा करूँगी। जब से मुझे झूठे अगुआ का पता चला था, मुझे उसे तुरंत हटा देना चाहिए था, सही व्यक्ति चुनने के लिए सिद्धांतों का उपयोग करना चाहिए था, और भाई-बहनों को एक अच्छा कलीसियाई जीवन देना चाहिए था। अगर मैं हमेशा अपने ही हितों की सोचती और योजना बनाती हूँ और कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं कर पाती, तो निश्चित ही परमेश्वर की घृणा झेलूँगी और नकार दी जाऊँगी। यह समझ आते ही मैंने लिन शिन को तुरंत बदलने का निर्णय ले लिया। मुझे अब अभिमानी और आत्मतुष्ट कहलाए जाने की चिंता नहीं थी। क्योंकि मुझे साफतौर पर पता था कि ऐसा करना सिद्धांतों को बनाए रखना, सत्य का अभ्यास करना और कलीसिया के कार्य की रक्षा करना है, अहंकार और आत्मतुष्टता नहीं। केवल वे लोग, जो परमेश्वर के वचनों के सत्य में आधार के बिना कार्य करते हैं, मनमानी करते हैं और अपनी ही धारणाओं और विचारों से चिपके रहते हैं, अभिमानी, आत्मतुष्ट और सत्य के विरुद्ध चलने वाले होते हैं।
इसलिए उसके बाद मैंने उनके साथ संगति करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग किया कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या व्यावहारिक कार्य करना चाहिए, झूठे अगुआओं को न हटाने के क्या परिणाम होते हैं, और अच्छी मानवता क्या है, अच्छी क्षमता और स्नेही हृदय क्या होता है। मेरी संगति के जरिए भाई-बहन, लिन शिन की पहचान विकसित कर पाए। उन्होंने यह भी देखा कि परमेश्वर के घर में तबादले और बर्खास्तगी के सिद्धांत हैं। यह किसी व्यक्ति का ऊपरी प्रेम, प्रतिभा या क्षमता देखना नहीं है, बल्कि यह देखना है कि क्या वे सत्य का अनुसरण और अभ्यास और व्यावहारिक कार्य कर सकते हैं। हर किसी ने साफ तौर पर देखा कि लिन शिन एक झूठी अगुआ थीं और उन्हें हटाया ही जाना था। उनको हटाए जाने के बाद मैंने भाई-बहनों के साथ चुनाव के सिद्धांतों के बारे में संगति की और हमने एक नई कलीसिया अगुआ चुनी।
चुनाव होने के बाद मैंने भाई-बहनों द्वारा शाओ लेई के कुछ व्यवहारों को लेकर की गई रिपोर्ट पर विचार किया। उनका कहना था कि वे कभी सत्य का अनुसरण नहीं करते, कि बरसों परमेश्वर में आस्था रखकर भी चीजों के बारे में उनके विचार नहीं बदले, उनके मन में सांसारिक चीजों और धन की लालसा थी, और वे बस धनी बनकर असाधारण जीवन जीना चाहते थे। जब भी उन्हें कोई कर्तव्य दिया जाता था, वे पैसा कमाने में व्यस्त नजर आते, और उसे करने में दिलचस्पी नहीं रखते थे। उन्होंने कलीसिया में भाई-बहनों को निवेश में लगा दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि वे सारा पैसा गँवा बैठे। उनका व्यवहार पहले ही कलीसिया के जीवन में गड़बड़ी और व्यवधान पैदा कर रहा था। मैंने उनके साथ संगति करके उन्हें चेताने के बारे में विचार किया। मगर सभा के दिन वे जानबूझकर शाम तक घर नहीं आए, तब तक सभा समाप्त हो चुकी थी। मैंने उनसे पूछा कि ताजा घटनाओं के बारे में उनके क्या विचार हैं और क्या उन्होंने आत्म-चिंतन कर खुद को समझने की कोशिश की है। उनमें कोई समझ नहीं थी, न ही अपने कामों को लेकर उन्हें कोई पछतावा था, और उनके अंदर ढेरों गलतफहमियाँ और शिकायतें थीं। वे बोले, परमेश्वर में बरसों की आस्था के बावजूद उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ। बेटा बात नहीं मानता, पत्नी उन्हें गलत समझती थी। ... उन्होंने जो कहा वह एक अविश्वासी का नजरिया था। मैंने संगति कर उन्हें आत्म-चिंतन के लिए प्रेरित करने की कोशिश की, लेकिन वे अड़े रहे। उन्होंने यह भी कहा, “सत्य का अभ्यास करने का क्या फायदा?” भाई-बहनों ने उन्हें पहले याद दिलाया था और उनकी मदद की थी पर उनकी प्रतिक्रिया वही रही थी। शाओ लेई ने कभी सत्य का अनुसरण नहीं किया था, और उनमें अविश्वासी जैसा दिखावा था। सिद्धांतों के अनुसार जो सत्य का स्वीकार और कर्तव्य-पालन नहीं करता और कलीसियाई जीवन को बाधित करता है, उसे अलग कर देना चाहिए ताकि वह आत्मचिंतन कर सके। उन्हें कलीसियाई जीवन बाधित नहीं करने दिया जा सकता। तब भी वे अगर पछतावा न करें तो उन्हें कलीसिया से बाहर कर देना चाहिए। शाओ लेई को अलग करना चाहिए था और आत्मचिंतन का समय देना चाहिए था ताकि उन्हें नीचे की स्थिति में मौजूद भाई-बहनों को धोखा देने और उनके लिए रुकावट बनने से रोका जा सके जिनमें इतनी समझ नहीं थी। तो मैंने कलीसिया के अगुआओं और उपयाजकों के साथ संगति कर उन्हें पहचान करने के तरीके बताए। सभी ने माना कि शाओ लेई को अलग कर देना चाहिए। लेकिन कुई दिन बाद एक बहन ने मुझे पत्र लिखकर बताया कि शाओ लेई पछतावा करके बदलना चाहते हैं और सत्य का अभ्यास करना चाहते हैं, पर वह भ्रष्ट स्वभावों के कारण अभ्यास नहीं कर सकते। बहन को यह पता नहीं था कि उन्हें अलग करना उचित था। पत्र पढ़कर मैं झिझकी। अगर शाओ लेई पश्चात्ताप करना और बदलना चाहते हैं, तो मेरा उन्हें अलग करने की व्यवस्था करना उन्हें और नकारात्मक तो नहीं बना देगा? अगर शाओ लेई और भाई-बहनों को पता चला कि यह मेरा सुझाव था, तो क्या वे यह नहीं कहेंगे कि मैं लोगों को पश्चात्ताप का मौका नहीं दे रही थी? मैं हाल ही में इस कलीसिया में आई थी और झूठे अगुआओं को हटा रही थी, और अविश्वासियों से निपट रही थी। भाई-बहन यह तो नहीं कहेंगे कि मैंने अपना पद संभालने के बाद कड़ाई की थी और बहुत निर्दयी थी? शाओ लेई वाक्पटु थे और अगर मैं उन्हें उजागर करने गई, और वे नहीं माने, मेरा विरोध या मुझ पर गुस्सा किया, तो मैं क्या करूँगी? इन बातों पर विचार करके मुझे लगा कि मैं फिर कठिनाई में हूँ और नहीं जानती थी कि क्या करूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह अपनी इच्छा समझने में मेरा मार्गदर्शन करे, ताकि मैं सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकूँ।
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “कलीसिया निर्माणाधीन है और शैतान इसे ध्वस्त करने की पूरी कोशिश कर रहा है। यह मेरे निर्माण को किसी भी तरह से नष्ट कर देना चाहता है; इस कारण, कलीसिया को तुरंत शुद्ध किया जाना चाहिए। बुराई का ज़रा-सा भी तलछट शेष नहीं रहना चाहिए; कलीसिया को इस ढंग से शुद्ध किया जाना चाहिए ताकि यह निष्कलंक और उतनी ही शुद्ध हो जाए जितनी यह पहले थी और आगे भी वैसी ही रहे। तुम लोगों को जागते रहना चाहिए और हर समय प्रतीक्षा करनी चाहिए, और तुम लोगों को मेरे सामने अधिक बार प्रार्थना करनी चाहिए। तुम्हें शैतान की विभिन्न साजिशों और चालाक योजनाओं को पहचानना चाहिए, आत्माओं को पहचानना चाहिए, लोगों को जानना चाहिए और सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों को समझने में सक्षम होना चाहिए; तुम्हें मेरे वचनों को और अधिक खाना और पीना भी चाहिए, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें उन्हें अपने आप खाने और पीने में सक्षम होना चाहिए। तुम अपने आप को पूरे सत्य से युक्त करो और मेरे सामने आओ, ताकि मैं तुम लोगों की आध्यात्मिक आँखें खोल सकूँ और तुम्हें आत्मा के भीतर निहित सभी रहस्यों को देखने का मौका दे सकूँ...। जब कलीसिया अपने निर्माण के चरण में आती है, तो संत युद्ध के लिए कूच करते हैं। शैतान के विभिन्न वीभत्स लक्षण तुम सभी के सामने रखे जाते हैं : क्या तुम रुकते और पीछे हट जाते हो, या तुम मुझ में भरोसा रखकर खड़े हो जाते हो और आगे बढ़ना जारी रखते हो? शैतान के भ्रष्ट और घिनौने लक्षणों को पूरी तरह से उजागर कर दो, कोई भावुकता न रखो और कोई दया मत दिखाओ! मौत तक शैतान से लड़ते रहो! मैं तुम्हारे पीछे हूँ और तुममें एक मर्द बच्चे की भावना होनी चाहिए! शैतान अपनी मौत की पीड़ा में अंतिम प्रहार कर रहा है, लेकिन फिर भी वह मेरे न्याय से बच निकलने में असमर्थ ही रहेगा। शैतान मेरे पैरों तले है और उसे तुम लोगों के पैरों तले भी कुचला जा रहा है—यह एक तथ्य है!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 17)। मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि जैसे परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए कार्य करता है, वैसे ही शैतान भी उसे बाधित करने और बिगाड़ने की कोशिश करता है। परमेश्वर झूठे अगुआओं, मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों और अविश्वासियों को कलीसिया में आने देता है, ताकि हम समझ विकसित कर सकें, सत्य सिद्धांतों के मुताबिक अपने आसपास के लोगों, मामलों और चीजों को समझ सकें कि कौन-सी चीज परमेश्वर से आती है और कौन-सी शैतान से, सत्य के पक्ष में खड़े हो सकें और शैतान की सभी नकारात्मक बातें समझकर नकार सकें। शाओ लेई ने कभी सत्य का अनुसरण नहीं किया, बरसों परमेश्वर में आस्था रखकर भी अविश्वासियों जैसे विचार रखे, और जब उनके भाई-बहनों ने उनके साथ संगति की, तो अपने भ्रांत विचारों से हमेशा उनका खंडन किया। चाहे जो हो, उन्होंने सत्य को स्वीकार नहीं किया। सबसे अहम बात, सभाओं में हमेशा ऐसी बातें कीं जिनका सत्य से कोई संबंध नहीं था, और भाई-बहनों को पैसा बनाने और खुद को समृद्ध करने को प्रेरित किया, कलीसिया के जीवन में व्यवधान डाला और कभी सकारात्मक भूमिका नहीं निभाई। अगर ऐसे व्यक्ति को तुरंत नहीं सँभाला जाता, तो भाई-बहन कलीसिया में नियमित जीवन नहीं जी सकते थे और जो छोटे आध्यात्मिक कद के थे, वो भ्रमित होते। परमेश्वर के घर में अविश्वासियों से निपटना आवश्यक है क्योंकि जो सच्चे दिल से सत्य में विश्वास और उसे प्रेम करते हैं, वो बिलकुल अलग तरह के लोग होते हैं। अविश्वासियों को अलग करना उनके कुकर्मों को सीमित करना है, और सुनिश्चित करना है कि वे भाई-बहनों के लिए कलीसियाई जीवन को बाधित न कर सकें, और परमेश्वर के चुने हुए लोग सत्य का अच्छे से अनुसरण कर सकें और बचाए जा सकें। मुझे अविश्वासियों से सिद्धांतों के अनुसार निपटना था। अगर मैं अपने हित बचाने और दूसरों को नाराज न करने के लिए पीछे हटती, उनसे तुरंत नहीं निपटती तो क्या यह शैतान का बचाव और कलीसिया के जीवन को खराब करने के लिए अविश्वासियों को सहन करना नहीं होगा? मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और जाना कि मैं सत्य का अभ्यास या सिद्धांतों का पालन क्यों नहीं कर सकी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे दुष्ट या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? दोनों में से कुछ नहीं; यह मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित होने का परिणाम है। तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों में से एक है धूर्त स्वभाव; जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहली चीज जो तुम सोचते हो वह है तुम्हारे हित, पहली चीज जिस पर तुम विचार करते हो वह है नतीजे, कि यह तुम्हारे लिए फायदेमंद होगा या नहीं। यह एक धूर्त स्वभाव है, है न? दूसरा है स्वार्थी और नीच स्वभाव। तुम सोचते हो, ‘परमेश्वर के घर के हितों के नुकसान से मेरा क्या लेना-देना? मैं कोई अगुआ नहीं हूँ, तो मुझे इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए? इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है।’ ऐसे विचार और शब्द तुम सचेतन रूप से नहीं सोचते, बल्कि ये तुम्हारे अवचेतन द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं—जो वह भ्रष्ट स्वभाव है जो तब दिखता है जब लोग किसी समस्या का सामना करते हैं। ऐसे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे सोचने के तरीके को नियंत्रित करते हैं, वे तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देते हैं और तुम जो कहते हो उसे नियंत्रित करते हैं। अपने दिल में, तुम खड़े होकर बोलना चाहते हो, लेकिन तुम्हें आशंकाएँ होती हैं...। तुम जो कहते और करते हो, उस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं होता। यहाँ तक कि अगर तुम चाहते भी, तो भी तुम सच न बता पाते या वह न कह पाते जो तुम वास्तव में सोचते हो; चाहकर भी तुम सत्य का अभ्यास न कर पाते; चाहकर भी तुम अपनी जिम्मेदारियाँ न निभा पाते। तुम जो कुछ भी कहते, करते हो और जिसका भी अभ्यास करते हो, वह सब झूठ है, और तुम सिर्फ ढीले और अनमने हो। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव की बेड़ियों में जकड़े हुए और उससे नियंत्रित हो। हो सकता है कि तुम सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास करना चाहो, लेकिन यह तुम पर निर्भर नहीं है। जब तुम्हारे शैतानी स्वभाव तुम्हें नियंत्रित करते हैं, तो तुम वही कहते और करते हो जो तुम्हारा शैतानी स्वभाव तुमसे करने को कहता है। तुम भ्रष्ट देह की कठपुतली के अलावा और कुछ नहीं हो, तुम शैतान का एक औजार बन गए हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर ने जो उजागर किया, ठीक वही मेरी दशा थी। जब भी मुझे सत्य का अभ्यास करना था, और कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी थी, तब मैं केवल अपनी प्रतिष्ठा और स्थिति के लिए ही चिंतित थी। मैं बहुत स्वार्थी और चालाक थी। शैतानी फलसफे जैसे “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “ज्ञानी लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं” ने मेरे मन में गहरी जड़ें जमा ली थीं। मैं इसी शैतानी जहर के सहारे जी रही थी, इसलिए मैंने सत्य सिद्धांत कायम नहीं रखे थे। लिन शिन को हटाने के मामले में मुझे डर था कि मेरे सहकर्मी मुझे घमंडी और आत्मतुष्ट कहेंगे, और उन पर मेरा अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा, इसलिए मैंने सिद्धांत कायम नहीं रखे। शाओ लेई की समस्या संभालते समय, मैं साफ तौर पर जानती थी कि सिद्धांत के अनुसार उन्हें अलग कर दिया जाना चाहिए था, लेकिन मुझे डर था कि भाई-बहन कहेंगे कि मैं उन्हें पछतावे का मौका नहीं दे रही थी और मुझे उनकी कमजोरियों का ध्यान नहीं था। मैंने सत्य सिद्धांत बनाए रखने के बजाय कलीसिया का जीवन प्रभावित करना चुना था। मुझे तो बस अपनी छवि और हैसियत बचाने से मतलब था, और मुझे कलीसिया के काम या उसके हितों के नुकसान की परवाह नहीं थी। मैं खुद को परमेश्वर की सच्ची विश्वासी कैसे कह सकती थी? तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मेरे अंदर शैतानी फलसफों का जहर भरा था, कि मैं स्वार्थी और धोखेबाज थी। परमेश्वर उन्हें चाहता है जिनमें न्याय की भावना होती है, और जो सत्य सिद्धांत को कायम रख सकते हैं, जो सभी सकारात्मक चीजों की रक्षा और उन्हें बनाए रख सकते हैं और जिनमें नकारात्मक चीजों के खिलाफ खड़े होने, उन्हें उजागर करने और नकारने का साहस होता है। मुझे ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जिसमें न्याय की भावना हो। लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता छोड़कर सत्य सिद्धांत कायम रखने वाला बनना चाहिए। उसके बाद संगति के जरिए, भाई-बहनों ने शाओ लेई के अविश्वासी व्यवहार को पहचानना सीखा, और 80% सहमत हो गए कि शाओ लेई को अलग करना चाहिए ताकि वह आत्ममंथन कर सकें। उसके बाद मैंने शाओ लेई के साथ संगति की और उनकी समस्याएँ उजागर करने के लिए उनके सतत व्यवहार का उल्लेख किया। लेकिन संगति पूरी होने से पहले ही वह यह कहकर अड़ गए और असंतुष्ट हो गए, कि भाई-बहनों ने स्वेच्छा से निवेश किया है, इसका उनसे कोई लेना-देना नहीं था। ... उनके व्यवहार से साबित हो गया कि चाहे जो हो, वे सत्य स्वीकार नहीं कर सकते थे और इसलिए अविश्वासियों से जुड़े थे। अगर उन्होंने अलग रहकर आत्ममंथन या पश्चात्ताप न किया, तो उन्हें कलीसिया से निकाल दिया जाएगा। सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने के बाद मुझे असीम सुरक्षा, शांति और आनंद का एहसास हुआ।
उस अनुभव के बाद मैंने अपने भ्रष्ट स्वभावों को समझना शुरू कर दिया, मैं अपने हितों का त्याग कर सत्य का अभ्यास कर पाई और मैं एक अच्छे इंसान की तरह जी पाई। यह सब परमेश्वर का उद्धार था। मैं यह भी समझती हूँ कि परमेश्वर का घर दुनिया से अलग है। परमेश्वर के घर में सत्य का बोलबाला है। सत्य का अभ्यास और सिद्धांत से काम लेने पर हमें परमेश्वर का आशीष और मार्गदर्शन मिलता है।
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