बिना सोचे-समझे किसी इंसान की आराधना करने के नतीजे
अगस्त 2015 में, मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया था। तब, कलीसिया में कुछ रिपोर्ट-पत्रों को निपटाना जरूरी था, लेकिन कलीसिया में काम शुरू किए मुझे कुछ ही दिन हुए थे और पहले कभी मैंने रिपोर्ट-पत्र नहीं निपटाए थे। मैं रिपोर्ट-पत्रों के सिद्धांतों से परिचित नहीं थी और उन्हें निपटाना नहीं जानती थी, तो मैं बहुत बेचैन थी। इसके बाद, उच्च अगुआ ने रिपोर्ट-पत्रों का कार्यभार वांग जिंग को सौंप दिया। मैंने सुना कि उसकी आस्था को करीब बीस साल हो चुके थे और उसने अगुआ के रूप में काम किया था, और अब उसे रिपोर्ट-पत्र के कार्य की देखरेख का काम सौंपा जा रहा था। मैंने मन-ही-मन सोचा : "वह सत्य को जरूर समझती होगी, सत्य की वास्तविकता जानती होगी। वह हमारे लिए बड़ी मददगार होगी।" इसके बाद, मैंने देखा कि वांग जिंग रिपोर्ट-पत्रों का बहुत स्पष्ट और तार्किक विश्लेषण पेश करती थी। वह न सिर्फ रिपोर्ट-पत्रों में उठाई गई समस्याओं को सुलझा पाती थी, बल्कि व्यावहारिक उदाहरण देकर विवेक के सत्य पर गहरी संगति भी कर पाती थी, और सबकी समस्याओं के समाधान के लिए परमेश्वर के वचनों के उपयुक्त अंश ढूँढ लाती थी। इससे मेरे मन में वांग जिंग की बहुत अच्छी छाप पड़ी, मुझे लगा कि उसके पास सत्य की वास्तविकता है और मुझे उससे काफी कुछ सीखना चाहिए। इसके बाद, सभाओं के दौरान, वांग जिंग कुछ मुश्किल रिपोर्ट-पत्रों पर चर्चा करती, बताती कि दूसरों ने कैसे अनुचित ढंग से उन्हें निपटाया था, और कैसे वह सिद्धांतों के जरिये समस्याएँ सुधार कर आखिर उन्हें सुलझा लेगी। कुछ समय बाद, मुझे लगा कि ऐसी कोई भी समस्या नहीं थी जिसे वह न सुलझा सके, अनजाने ही मैं उसकी सराहना करने लगी। एक बार हमें ऐसा रिपोर्ट-पत्र मिला जिसमें एक बहुत जटिल मसला था, लेकिन वांग जिंग ने कुछ ही शब्दों में मसले का सार पहचान लिया और जल्दी ही समस्या को सुलझा दिया। एक बहन ने सराहना करते हुए उससे कहा : "हममें से किसी को भी इस पत्र का यह मसला समझ नहीं आया था, यहाँ तक कि हमारी सुपरवाइजर बहन लिन युहान भी इसे नहीं सुलझा सकी थी, लेकिन आपकी एक ही संगति में 'समस्या सुलझ गई।' आप बहुत अच्छी हैं।" वांग जिंग ने सराहना का आनंद लेते हुए जोश में अपना सिर हिलाया, और हमें लिन युहान की आलोचना वाली कुछ बातें भी सुनाईं। मुझे आभास हुआ कि वह खुद को बड़ा बता कर लिन युहान को नीचा दिखा रही थी, लेकिन फिर मैंने सोचा कि उसकी हर बात सच थी, इसलिए मैंने उस बात को ज्यादा तूल नहीं दी। इसके बजाय, मैंने सोचा कि अगर भविष्य में मैं वांग जिंग की तरह लोगों की समस्याएँ सुलझा सकी, तो यकीनन अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकूँगी। वांग जिंग कभी भी अपने कर्तव्य की समस्याओं या नाकामियों, अपनी भ्रष्टता या कमजोरियों, और इन मसलों को सुलझाने के लिए सत्य खोजने के तरीके के बारे में चर्चा नहीं करती थी, इसलिए, समय के साथ सभी उसकी सराहना करने लगे। मुझे भी लगा कि वांग जिंग के साथ सभा करके मैं सत्य को ज्यादा समझ पा रही थी। वांग जिंग की तरह समस्याएँ सुलझाने में समर्थ होने की इच्छा रखने के कारण मैं उसकी हर सभा में जाती थी, यह देखने कि वह रिपोर्ट-पत्रों का विश्लेषण कैसे करती थी परमेश्वर के कौन-से वचन ढूँढ कर वह भाई-बहनों के हालात से जोड़ती थी और कैसे संगति करती थी। यह सारी जानकारी मैं अच्छे से लिख लेती थी। इसके बाद, सहकर्मियों के साथ सभाएँ करते समय, मेरी संगति का अधिकाँश अंश वांग जिंग से सीखी हुई बातों का होता था। यह देखकर कि सहकर्मी किस तरह से मेरी संगति को ध्यान से सुनकर टिप्पणियाँ भी लिखते थे, मुझे लगा कि मैं वांग जिंग जैसी ही एक प्रतिभाशाली कार्यकर्ता थी, दूसरे लोग मेरे काम से जरूर संतुष्ट होंगे और परमेश्वर मेरी सराहना करेगा।
इसके बाद, मैं वांग जिंग पर और ज्यादा भरोसा करने लगी। रिपोर्ट-पत्र कर्मियों के साथ मुश्किल रिपोर्ट-पत्र या समस्याएँ निपटाते हुए, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करते और सत्य खोजते समय शांत नहीं रहती थी। सोचती थी कि जैसे ही वांग जिंग संगति के लिए आएगी, मेरी तमाम समस्याएँ हल हो जाएँगी। धीरे-धीरे, मेरे दिल में परमेश्वर की कोई जगह नहीं रही, और वांग जिंग का रुतबा और भी बड़ा होता गया। मैं परमेश्वर पर भरोसे के बजाय एक इंसान पर भरोसा करने लगी। समय के साथ, कलीसिया के कार्य की सरल से सरल समस्या को समझना भी मेरे लिए मुश्किल होने लगा। सभाओं में, मैं पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता पर संगति करने में असमर्थ हो गई। मैं सिर्फ सिद्धांतों की बातें करने लगी और लोगों के जीवन-प्रवेश की समस्याएँ नहीं सुलझा सकी। लगा जैसे परमेश्वर ने मुझसे मुँह फेर लिया था, मुझे बहुत कष्ट हुआ। लेकिन तब मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया।
एक सभा से पहले, बर्फबारी के कारण सड़कें बंद हो गई थीं और कारें आ-जा नहीं पा रही थीं। वांग जिंग यह कहकर कि वह नहीं आ पाएगी, मुझे और मेरी साथी को सभा का संचालन करने को कहा। यह सुनकर मेरे पांवों के नीचे की जमीन खिसक गई। सभा के दौरान, मुझे समझ नहीं आया कि रिपोर्ट-पत्र के मसले का स्रोत क्या था, मैं बुरी तरह से डर गई। लेकिन मैंने दूसरों का मार्गदर्शन नहीं किया कि वे प्रार्थना कर परमेश्वर पर भरोसा करें, परमेश्वर के वचनों में सत्य के सिद्धांत खोजें; इसके बजाय, मैं मनाती रही कि वांग जिंग जल्दी से आकर इस अहम मामले को सुलझा दे। सभा के समापन पर, मुझे अपराध-बोध हुआ क्योंकि सभा उपयोगी नहीं थी, मैंने अपना कर्तव्य नहीं निभाया था। फिर भी मैंने परमेश्वर का इरादा जानने की कोशिश नहीं की, और बस एक ही उम्मीद रखी कि वांग जिंग आकर मसला सुलझा देगी। एक दूसरे मौके पर, वांग जिंग ने कहा कि वह हमारे लिए एक सभा करेगी, मगर पूरी सुबह वह नजर नहीं आई, मैं बुरी तरह घबराने लगी, डर गई कि वह पिछली बार की तरह नहीं आ पाएगी। मुझे फिक्र थी कि अगर वह नहीं आई, तो मैं सबकी समस्याएँ नहीं सुलझा सकूँगी। लंच के बाद, मैंने एकाएक दरवाजा खुलने की आवाज सुनी और जाना कि वांग जिंग आ गई थी। अपनी मददगार के आने से बेहद खुश होकर मैं फौरन उसका अभिवादन करने बाहर गई, लेकिन आँगन में चलते वक्त मेरा संतुलन बिगड़ गया और एड़ी में मोच आ गई। एड़ी गुब्बारे जैसी सूज गई, इतना अधिक दर्द होने लगा कि मैं चल नहीं सकी। लेकिन वांग जिंग आ गई थी, इसलिए मुझे सबको सभा के लिए तुरंत बुलाना था, ताकि कोई भी उसके मसले सुलझाने का मौका चूक न जाए। मैं दर्द से कराहते हुए एक बहन के घर तक पहुँची, मगर जैसे ही उसके दरवाजे पर दस्तक देने वाली थी, मेरा संतुलन बिगड़ गया और मैं जमीन पर गिर पड़ी। किसी तरह खड़े होने के बाद, मैंने देखा कि मेरी दाईं हथेली खून और कोयले के अंगारों से सनी हुई थी। दुर्घटनाओं की इस झड़ी से मेरा दिल सहम गया, मुझे एहसास हुआ कि वांग जिंग की प्रतीक्षा करते समय महसूस हुई मेरी ललक असामान्य थी। क्या परमेश्वर मुझे अनुशासित कर रहा था? तो मैंने जवाब खोजते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की। इसके बाद, परमेश्वर के वचनों के इस अंश पर मेरी नजर पड़ी : "जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए। किसी व्यक्ति को ऊँचा न ठहराओ, न किसी पर श्रद्धा रखो; परमेश्वर को पहले, जिनका आदर करते हो उन्हें दूसरे और ख़ुद को तीसरे स्थान पर मत रखो। किसी भी व्यक्ति का तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं होना चाहिए और तुम्हें लोगों को—विशेषकर उन्हें जिनका तुम सम्मान करते हो—परमेश्वर के समतुल्य या उसके बराबर नहीं मानना चाहिए। यह परमेश्वर के लिए असहनीय है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)। मैंने परमेश्वर के वचनों पर मनन किया, वांग जिंग के साथ अपने मेलजोल के अनेक दृश्य मेरे मन में फिल्म की तरह चलने लगे। जब से मैं वांग जिंग से मिली थी, मैंने देखा कि वह प्रतिभाशाली, अच्छी वक्ता, और बढ़िया प्रचारक थी, मसले सुलझाने में खास तौर से कुशल थी। एक के बाद एक सभी पत्र जो मेरे लिए पहेली बने हुए थे, उसके विश्लेषण और संगति ने उन्हें आसानी से सुलझा दिया था। अनजाने ही, मैं उसकी आराधना करने लगी, यह सोचकर कि उसके साथ सभा कर और उसकी संगति सुनकर मैं सत्य को समझ सकूँगी और अंतर्दृष्टि पा सकूँगी। अगर मैंने उसके साथ सभा नहीं की, तो लगेगा मानो सत्य हासिल करने का एक मौका खो दिया हो। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करने और सत्य खोजने से ज्यादा, वांग जिंग के साथ सभा और संगति करना पसंद करने लगी। मैं पूरी तरह से वांग जिंग के भरोसे हो गई, समस्याएँ आने पर मैं परमेश्वर से प्रार्थना करने और सत्य खोजने के बजाय, उसकी संगति और समस्याएँ सुलझाने की प्रतीक्षा करने लगी। जब सड़कें बंद हो गईं और वह नहीं आ सकी, तो मुझे लगा कि उसके बिना हम काम नहीं कर सकेंगे। मैंने जितना आत्म-चिंतन किया, मुझे उतना ही डरावना लगा। परमेश्वर के विश्वासियों को चाहिए कि वे हर चीज से ज्यादा उसमें श्रद्धा करें। उसकी आराधना और सम्मान करे। हमारे दिलों में किसी भी इंसान के लिए जगह नहीं होनी चाहिए, लेकिन मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। मैंने जिस इंसान की आराधना की, उसका उत्कर्ष किया और उसे ही अपना आदर्श बनाया। परमेश्वर में विश्वास रखने के बावजूद, मैं एक इंसान की आराधना करती थी, और मैंने अनजाने ही परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया था। यह स्थिति एक तकाजा और एक प्रकार की सुरक्षा थी। मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की और प्रायश्चित्त करने को तैयार हो गई।
इसके बाद, मेरा ध्यान परमेश्वर के इन वचनों पर गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "किसी अगुआ या कार्यकर्ता का कोई भी स्तर हो, अगर तुम लोग सत्य की समझ और कुछ गुणों के लिए उनकी आराधना करते हो और मानते हो कि उनके पास सत्य की वास्तविकता है और वे तुम्हारी मदद कर सकते हैं, और अगर तुम सभी चीजों में उन पर श्रद्धा रखते हो और उन पर निर्भर रहते हो, और इसके माध्यम से उद्धार प्राप्त करने का प्रयास करते हो, तो तुम मूर्ख और अज्ञानी हो, और अंत में इन सबका कोई फल नहीं निकलेगा, क्योंकि प्रस्थान-बिंदु ही अंतर्निहित रूप से गलत है। कोई कितने भी सत्य समझता हो, मसीह का स्थान नहीं ले सकता, और चाहे वे कितने भी प्रतिभाशाली हों, इसका यह मतलब नहीं कि उनके पास सत्य है—और इसलिए लोगों की आराधना, श्रद्धा और अनुसरण करने वाले सभी अंततः त्याग दिए जाएँगे, वे सभी निंदित होंगे। जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे केवल परमेश्वर की ही आराधना और उसका ही अनुसरण कर सकते हैं। अगुआओं में उनका स्तर चाहे जो हो, अगुआ और कार्यकर्ता आम इंसान ही होते हैं। अगर तुम उन्हें अपना आसन्न वरिष्ठ समझते हो, अगर तुम्हें लगता है कि वे तुमसे श्रेष्ठ हैं, तुमसे ज़्यादा योग्य हैं, वे तुम्हारी अगुवाई करें, वे उस वर्ग में सर्वश्रेष्ठ हैं, तो फिर यह ग़लत है—यह तुम्हारा भ्रम है। और इस भ्रम का नतीजा क्या होता है? यह तुम्हें अनजाने में अपने अगुआओं से ऐसी अपेक्षाएं करने की ओर ले जाएंगे जो वास्तविकता के अनुरूप नहीं हैं; और तुम्हें उनकी समस्याओं और कमियों से सही तरह से पेश आने में असमर्थ बना देंगे, साथ ही, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम उनके हुनर, खूबियों और प्रतिभाओं की ओर गहराई से आकर्षित होने लगोगे, इस हद तक कि तुम्हें पता भी न चलेगा और तुम उनकी आराधना कर रहे होगे, और वे तुम्हारे परमेश्वर बन चुके होंगे। जब वे तुम्हारे आदर्श और तुम्हारी आराधना के लक्ष्य बनना शुरू हो जाते हैं, तो यह पथ, उस क्षण से लेकर उस पल तक जब तुम उनके अनुयायियों में से एक बन जाते हो, तुम्हें अनजाने में परमेश्वर से दूर ले जाएगा" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह : वे कुटिल तरीकों से व्यवहार करते हैं, वे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते, और वे दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं)। "कुछ लोग किसी भी ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा करते हैं, जो किसी गहन उपदेश का प्रचार कर सकता है या एक अच्छा वक्ता है, और उन लोगों की लालसा करते हैं जो उपदेश देते समय प्रभावशाली तरीके से पेश आते हैं। क्या यह दृष्टिकोण रखना सही है? क्या ऐसा लक्ष्य पाने की कोशिश करना सही है? (नहीं।) तो फिर, सही क्या है? तुम्हें किस तरह का व्यक्ति बनने का प्रयास करना चाहिए? (वह जो विवादों और दिखावे से बचता है और समझदारी से अपना कर्तव्य निभाता है, जो व्यावहारिक रूप से आचरण और कार्य करता है।) यह सही है। तुम्हें व्यावहारिक रूप से आचरण और कार्य करना चाहिए, किसी भी मामले में प्रार्थना नहीं छोड़नी चाहिए, और किसी भी मामले में परमेश्वर के वचनों से दूर नहीं होना चाहिए। परमेश्वर के सामने अक्सर आओ और उसके साथ सच्ची संगति करो। ये परमेश्वर में विश्वास करने के मूल सिद्धांत हैं!" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य को प्राप्त करना ही वास्तव में परमेश्वर को प्राप्त करना है)। परमेश्वर के वचनों के जरिए, मैंने जाना कि परमेश्वर के विश्वासी के रूप में, हमें अक्सर उसके सामने आना चाहिए। हर चीज में हमें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कर्तव्य निभाना चाहिए, सबसे बढ़कर उसमें श्रद्धा रखनी चाहिए और कभी किसी इंसान की आराधना नहीं करनी चाहिए। इंसान की प्रतिभाएँ, काम की दक्षता, समस्याएँ सुलझाने की उनकी क्षमता सभी परमेश्वर की देन हैं। परमेश्वर की प्रबुद्धता के जरिए ही लोग अंतर्दृष्टि वाली संगति कर सकते हैं, और अगर उनकी संगति कोई मार्ग प्रशस्त करती है, तो इसलिए कि वह परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुरूप होती है। जो चीजें मैं न समझ पाऊँ, उनके बारे में मैं उनके साथ सत्य खोज सकती हूँ, उनकी खूबियों से सीख सकती हूँ, लेकिन वे कितनी भी अच्छी संगति क्यों न करें, मुझे आखिरकार यही मानना चाहिए कि वह परमेश्वर से मिली है, हमें इंसानों की आराधना नहीं करनी चाहिए। इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास किया, और वांग जिंग पर पूरी तरह आश्रित होना छोड़ दिया। जब कोई समस्या होती, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती, परमेश्वर के वचनों में सत्य के जरूरी सिद्धांत खोजती। कभी-कभी कुछ समझ नहीं पाती, तो वांग जिंग से पूछ लेती, मगर परमेश्वर के सामने शांत-चित्त रहती, और सीधे वांग जिंग की सराहना करने के बजाय, इस बात पर ध्यान देती कि उसने सत्य के किन पहलुओं पर संगति की थी। धीरे-धीरे, वांग जिंग के बारे में मेरा नजरिया ज्यादा सामान्य होने लगा, और मैं रिपोर्ट-पत्रों की कुछ समस्याएँ सुलझाने में समर्थ होने लगी। बाद में, वांग जिंग को एक दूसरी कलीसिया की अगुआ चुना गया, और मैंने उसके इर्द-गिर्द न होने पर बुरी तरह घबराना बंद कर दिया। सभाओं के दौरान, जब मुश्किल मसले सामने आते, तो मैं प्रार्थना करती, दूसरों के साथ मिलकर परमेश्वर की ओर देखती और उसके वचनों के जरिए अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ती। जब मैं कोई समस्या न सुलझा पाती, तभी सत्य समझने वाले किसी व्यक्ति या अगुआ से पूछती। धीरे-धीरे हमारी समस्याएँ सुलझ गईं और मैंने थोड़ी प्रगति का अनुभव किया।
इसके तुरंत बाद, एक उच्च अगुआ ने मुझे लिखकर बताया कि वांग जिंग काम में अपनी प्रतिभा का सहारा ले रही थी और सत्य नहीं खोज रही थी। वह हमेशा दिखावा कर खुद का उत्कर्ष करती थी ताकि दूसरे उसकी सराहना और आराधना करें। उसे निपटान मंजूर नहीं था, वह आत्म-चिंतन नहीं करती थी। एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने के कारण उसे उजागर किया गया था, और झूठी अगुआ होने के कारण उसे बर्खास्त किया गया था। मुझ पर इस बात का बहुत गहरा असर पड़ा। वांग जिंग के साथ मैंने जो वक्त गुजारा था, उसमें वह ऐसा बर्ताव दिखा चुकी थी : उसने कभी चर्चा नहीं की कि अपने कर्तव्य में उसने कैसी भ्रष्टता दिखाई या कैसी नाकामियाँ झेलीं। वह हमेशा अपनी कामयाबियों के बारे में ही बताती थी, मानो ऐसी कोई समस्या ही नहीं थी जिसे वह सुलझा न सके। नतीजतन, सभी लोग उसे आदर से देखते और उसकी आराधना करते। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : "कुछ लोग अपने पदों का उपयोग बार-बार अपने बारे में गवाही देने, अपनी शक्ति बढ़ाने, और लोगों एवं हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा करने हेतु अपने पदों का उपयोग कर सकते हैं। वे लोगों से अपनी आराधना करवाने के लिए विभिन्न तरीकों एवं साधनों का उपयोग करते हैं और लोगों को जीतने एवं उनको नियंत्रित करने की लगातार कोशिश करते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग जानबूझकर लोगों को यह सोचने के लिए गुमराह करते हैं कि वे परमेश्वर हैं ताकि उनके साथ परमेश्वर की तरह व्यवहार किया जाए। वे किसी को कभी नहीं बताएँगे कि उन्हें भ्रष्ट कर दिया गया है—कि वे भी भ्रष्ट एवं अहंकारी हैं, उनकी आराधना नहीं करनी है और चाहे वे कितना भी अच्छा करते हों, यह सब परमेश्वर द्वारा उन्हें ऊँचा उठाने के कारण है और वे वही कर रहे हैं जो उन्हें वैसे भी करना ही चाहिए। वे ऐसी बातें क्यों नहीं कहते? क्योंकि वे लोगों के हृदय में अपना स्थान खोने से बहुत डरते हैं। इसीलिए ऐसे लोग परमेश्वर को कभी ऊँचा नहीं उठाते हैं और परमेश्वर के लिए कभी गवाही नहीं देते हैं..." (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। वांग जिंग को परमेश्वर के वचनों की रोशनी में देखकर, मैं उसे थोड़ा परख पाई। वह अक्सर संगति करती थी कि मुश्किलें झेलते समय वह सत्य कैसे खोजती थी, मुश्किल से मुश्किल पत्रों को आसानी से निपटा लेती थी, और कैसे दूसरों की समस्याएँ सुलझाने में मदद करती थी। लेकिन वह विरले ही अपनी भूलों और कमियों के बारे में, या अपनी भ्रष्टता और कमजोरियों के बारे में खुलकर बताती थी। उसने कभी किसी ऐसी समस्या या पत्र पर चर्चा नहीं की जिसे उसने गलत समझा हो या समझ न सकी हो, और जिससे उसकी कमियों का खुलासा हुआ हो। उसने कभी ऐसी समस्याओं के बारे में नहीं बोला जो उसे समझ न आई हों, कैसे दूसरों ने उसकी मदद की थी और इससे सत्य के कौन-से पहलू वह समझ पाई थी। वह लोगों को अपना बढ़िया झूठा मुखौटा ही देखने देती थी। जब हम उसकी आराधना और प्रशंसा करते, तो वह मामूली इंसानों की आराधना न करने के बारे में संगति नहीं करती, और ऐसा लगता जैसे उसे इससे आनंद मिल रहा था। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में उसके बर्ताव को जान-समझकर, मैंने देखा कि अपने काम और प्रचार में वह बस अपनी प्रतिभा के भरोसे रहती थी, कभी भी परमेश्वर का उत्कर्ष कर उसकी गवाही नहीं देती थी, दूसरों को छलने के लिए सिर्फ दिखावा करती थी, जिससे लोग उसकी भ्रष्टता और कमियाँ नहीं देख पाते थे, बस उसकी आराधना और अनुसरण करते थे। लोगों के दिलों में जगह पाने के लिए वह ऐसा बर्ताव करती थी—कितनी कपटी और दुष्ट थी! लेकिन उसके बर्ताव को जानना-समझना तो दूर रहा, मैं तो उसकी प्रतिभाओं, कौशल और समस्याएँ सुलझाने की क्षमता की सराहना भी करती थी। मेरे ख्याल से वह सत्य को समझती थी, उसके पास सत्य की वास्तविकता थी, इसलिए मैं उसकी आराधना करती थी। मैं कितनी अंधी थी!
इसके बाद, मेरी नजर परमेश्वर के वचनों के इन अंशों पर पड़ी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "कुछ लोग अक्सर ऐसे लोगों के हाथों धोखा खा जाते हैं जो बाहर से आध्यात्मिक, कुलीन, ऊँचे और महान प्रतीत होते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो वाक्पटुता से शाब्दिक और सैद्धांतिक बातें कर सकते हैं, और जिनके भाषण और कार्यकलाप सराहना के योग्य प्रतीत होते हैं, तो जो लोग उनके हाथों धोखा खा चुके हैं उन्होंने उनके कार्यकलापों के सार को, उनके कर्मों के पीछे के सिद्धांतों को, और उनके लक्ष्य क्या हैं, इसे कभी नहीं देखा है। उन्होंने यह कभी नहीं देखा कि ये लोग वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं या नहीं, वे लोग सचमुच परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हैं या नहीं हैं। उन्होंने इन लोगों के मानवता के सार को कभी नहीं पहचाना। बल्कि, उनसे परिचित होने के साथ ही, थोड़ा-थोड़ा करके वे उन लोगों की तारीफ करने, और आदर करने लगते हैं, और अंत में ये लोग उनके आदर्श बन जाते हैं" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। "चाहे लोग सतही मसलों पर ध्यान दें या गंभीर मसलों पर, शब्दों एवं सिद्धांतों पर ध्यान दें या वास्तविकता पर, लेकिन लोग उसके मुताबिक नहीं चलते जिसके मुताबिक उन्हें सबसे अधिक चलना चाहिए, और उन्हें जिसे सबसे अधिक जानना चाहिए, उसे जानते नहीं। इसका कारण यह है कि लोग सत्य को बिल्कुल भी पसंद नहीं करते; इसलिए, लोग परमेश्वर के वचन में सिद्धांतों को खोजने और उनका अभ्यास करने के लिए समय लगाने एवं प्रयास करने को तैयार नहीं है। इसके बजाय, वे छोटे रास्तों का उपयोग करने को प्राथमिकता देते हैं, और जिन्हें वे समझते हैं, जिन्हें वे जानते हैं, उसे अच्छा अभ्यास और अच्छा व्यवहार मान लेते हैं; तब यही सारांश, खोज करने के लिए उनका लक्ष्य बन जाता है, जिसे वे अभ्यास में लाए जाने वाला सत्य मान लेते हैं। इसका प्रत्यक्ष परिणाम ये होता है कि लोग अच्छे मानवीय व्यवहार को, सत्य को अभ्यास में लाने के विकल्प के तौर पर उपयोग करते हैं, इससे परमेश्वर की कृपा पाने की उनकी अभिलाषा भी पूरी हो जाती है। इससे लोगों को सत्य के साथ संघर्ष करने का बल मिलता है जिसे वे परमेश्वर के साथ तर्क करने तथा स्पर्धा करने के लिए भी उपयोग करते हैं। साथ ही, लोग अनैतिक ढंग से परमेश्वर को भी दरकिनार कर देते हैं, और जिन आदर्शों को वे सराहते हैं उन्हें परमेश्वर के स्थान पर रख देते हैं" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि आस्था के इतने वर्षों में मेरे मन में हमेशा यह भ्रांति रही : मेरा अनुमान था कि अच्छा काम और प्रचार करने वाले, मसले सुलझा सकने वाले चतुर, प्रतिभाशाली लोग स्वाभाविक रूप से सत्य को समझते हैं और उनके पास सत्य की वास्तविकता होती है। फिर एहसास हुआ कि मुझे सत्य की वास्तविकता का कोई अंदाजा नहीं था। परमेश्वर, लोगों के भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध कर उन्हें सत्य की वास्तविकता जानने और सच्ची मानवता वाला जीवन जीने देने के लिए सत्य व्यक्त कर न्याय कार्य करता है। अगर कोई व्यक्ति सिर्फ दूसरों की समस्याएँ दूर कर उन्हें परख सकता है, मगर परमेश्वर के वचनों का न्याय स्वीकारने और निपटान झेलने में असमर्थ होता है, तो वे कितने भी प्रतिभाशाली क्यों न हों, कितना भी बढ़िया काम या प्रचार क्यों न करते हों, उन्हें सत्य की वास्तविकता हासिल नहीं होती। वांग जिंग कभी खुद को जानने के की बात नहीं करती थी, अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में कभी नहीं खुलती, न ही विश्लेषण करती थी, सत्य स्वीकार नहीं करती थी, काट-छाँट और निपटान होने पर सचमुच आज्ञापालन नहीं करती थी। उसके पास सत्य की वास्तविकता कैसे रही होगी? थोड़ा कार्य अनुभव और सिद्धांतों की थोड़ी जानकारी होने के कारण वह सिर्फ रिपोर्ट-पत्र ही निपटा पाती थी। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं था कि उसके पास सत्य की वास्तविकता थी। मैं सत्य नहीं समझ सकी थी और उसे परखने में नाकाम थी। मैंने आँखें बंद करके उसकी आराधना की और उसे अपना आदर्श माना, उसका अनुकरण और नकल करने की कोशिश की। मैं कितनी मूर्ख थी। आस्था का ऐसा अभ्यास कर मैं बहुत बड़े खतरे में थी!
फिर, मेरी नजर परमेश्वर के वचनों के एक और अंश पर पड़ी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "तुम मसीह की विनम्रता की प्रशंसा नहीं करते, बल्कि विशेष हैसियत वाले उन झूठे चरवाहों की प्रशंसा करते हो। तुम मसीह की मनोहरता या बुद्धि से प्रेम नहीं करते, बल्कि उन व्यभिचारियों से प्रेम करते हो, जो संसार के कीचड़ में लोटते हैं। तुम मसीह की पीड़ा पर हँसते हो, जिसके पास अपना सिर टिकाने तक की जगह नहीं है, लेकिन उन मुरदों की तारीफ करते हो, जो चढ़ावे हड़प लेते हैं और ऐयाशी में जीते हैं। तुम मसीह के साथ कष्ट सहने को तैयार नहीं हो, लेकिन खुद को उन धृष्ट मसीह-विरोधियों की बाँहों में प्रसन्नता से फेंक देते हो, जबकि वे तुम्हें सिर्फ देह, शब्द और नियंत्रण ही प्रदान करते हैं। अब भी तुम्हारा हृदय उनकी ओर, उनकी प्रतिष्ठा, उनकी हैसियत, उनके प्रभाव की ओर ही मुड़ता है। अभी भी तुम ऐसा रवैया बनाए रखते हो, जिससे मसीह के कार्य को गले से उतारना तुम्हारे लिए कठिन हो जाता है और तुम उसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुममें मसीह को स्वीकार करने की आस्था की कमी है। तुमने आज तक उसका अनुसरण सिर्फ इसलिए किया है, क्योंकि तुम्हारे पास कोई और विकल्प नहीं था। बुलंद छवियों की एक शृंखला हमेशा तुम्हारे हृदय में बसी रहती है; तुम उनके किसी शब्द और कर्म को नहीं भूल सकते, न ही उनके प्रभावशाली शब्दों और हाथों को भूल सकते हो। वे तुम लोगों के हृदय में हमेशा सर्वोच्च और हमेशा नायक रहते हैं। लेकिन आज के मसीह के लिए ऐसा नहीं है। तुम्हारे हृदय में वह हमेशा महत्वहीन और हमेशा श्रद्धा के अयोग्य है। क्योंकि वह बहुत ही साधारण है, उसका बहुत ही कम प्रभाव है और वह ऊँचा तो बिल्कुल भी नहीं है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?)। न्याय से जुड़े परमेश्वर के वचनों ने दिल को चीर कर रख दिया। कि परमेश्वर ने विनम्रता के साथ देहधारण किया है, वह कभी खुद को बड़ा नहीं दिखाता। वह सिर्फ मानवजाति को बचाने के लिए सत्य व्यक्त करता है। परमेश्वर की विनम्रता उसके गौरव, महानता और पवित्रता की अभिव्यक्ति है। यह हमारी सराहना के योग्य है। लेकिन यह देखकर कि वांग जिंग एक अगुआ थी, समस्याएँ सुलझा सकती थी, दृढ़ता और जोश के साथ बोलती थी, मैंने उसकी सराहना की। मैंने परमेश्वर की आराधना किए बिना उसमें विश्वास रखा, मुझमें मसीह की विनम्रता और मनोहरता के प्रति श्रद्धा नहीं थी। इसके बजाय, मैं भव्य और रोबदार इंसानों की आराधना करती थी, बड़े व्यक्तित्व, प्रतिभा और काम और प्रचार करने की क्षमता रखने वालों को ऊंचा समझती थी। मैं उन्हें अपना आदर्श मानती थी। इससे परमेश्वर के स्वभाव का सच में अपमान हुआ। हमें किसी मामूली इंसान की सराहना कर उसे आदर से नहीं देखना चाहिए : केवल परमेश्वर ही सत्य है, उसी का अनुसरण और आराधना होनी चाहिए। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "मैं कहता हूँ कि जो लोग सत्य को महत्व नहीं देते, वे सभी गैर-विश्वासी और सत्य के प्रति गद्दार हैं। ऐसे लोगों को कभी भी मसीह का अनुमोदन प्राप्त नहीं होगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?)। मैंने सत्य नहीं खोजा, अनेक वर्षों की आस्था के बावजूद मुझे परमेश्वर का जरा भी ज्ञान नहीं था। मैंने तो एक भ्रष्ट इंसान की उपासना भी की, उसकी आराधना कर उसका अनुसरण किया, पर मैंने मसीह की आराधना नहीं की या सत्य की कद्र नहीं की। ये परमेश्वर से धोखा था, मैं गैर-विश्वासी जैसी हरकतें कर रही थी, अगर मैंने प्रायश्चित्त नहीं किया, तो परमेश्वर मुझसे नाराज होकर मुझे त्याग देगा!
बाद में, मैंने सुना कि सीसीपी द्वारा गिरफ्तार किए जाने पर वांग जिंग ने यहूदा जैसा कर्म किया था। उसने बहुत-से भाई-बहनों के नाम उगल दिए थे। रिहा होने पर भी उसने प्रायश्चित्त नहीं किया और आखिरकार उसे कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया। मैंने देखा कि भले ही वांग जिंग ने बहुत-से कर्तव्य निभाए थे, वह प्रतिभाशाली थी, उसमें बढ़िया प्रचार की क्षमता थी, समस्याएं सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल करती थी, लेकिन खुद की पहचान न होने, सत्य स्वीकार न करने, और वर्षों की आस्था के बावजूद सत्य की वास्तविकता न होने के कारण, गिरफ्तारी का सामना होने पर वह पूरी तरह से उजागर कर त्याग दी गई। इसके बाद, मेरी नजर परमेश्वर के वचनों के एक और अंश पर पड़ी। "तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन लोगों को कभी आसान प्रवेश नहीं दिया है जो अनुग्रह पाने के लिए मेरे साथ साँठ-गाँठ करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है! तुम्हें जीवन की खोज करनी ही चाहिए। आज, जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा वे उसी प्रकार के हैं जैसा पतरस था : ये वे लोग हैं जो स्वयं अपने स्वभाव में परिवर्तनों की तलाश करते हैं, और जो परमेश्वर के लिए गवाही देने, और परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं। केवल ऐसे लोगों को ही पूर्ण बनाया जाएगा। यदि तुम केवल पुरस्कारों की प्रत्याशा करते हो, और स्वयं अपने जीवन स्वभाव को बदलने की कोशिश नहीं करते, तो तुम्हारे सारे प्रयास व्यर्थ होंगे—यह अटल सत्य है!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचन कहते हैं कि कोई इंसान इस आधार पर उद्धार नहीं पाता कि उसमें कितनी प्रतिभाएं हैं, वह कितना काम करता है या कितना प्रचार करता है, बल्कि इस आधार पर पाता है कि क्या वह सत्य खोजता है, परमेश्वर के वचनों का न्याय स्वीकार कर उसका आज्ञापालन करता है, और अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाता है। पतरस ने अपनी आस्था में परमेश्वर को विराट बनाया और हर चीज में सत्य खोजा। उसने सत्य और जीवन हासिल करने को सबसे ऊपर माना, इसलिए भले ही उसने परमेश्वर का न्याय अनुभव करने के बाद, पौलुस जितना काम नहीं किया, फिर भी वह मृत्यु तक आज्ञाकारी बना रह सका, और आखिरकार उसने परमेश्वर की बुलंद गवाही दी और उसकी सराहना पाई। पतरस के मार्ग से मुझे अभ्यास का एक मार्ग मिला : मैं अब प्रतिभाशाली लोगों की सराहना नहीं करूँगी, और उन जैसी बनने की कोशिश नहीं करूँगी। इसके बजाय, मैंने ईमानदारी से सत्य खोजने, परमेश्वर के वचनों पर अमल करने, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने की ठान ली। यही सही मार्ग था।
इसके बाद, अपना कर्तव्य निभाने में, मैं परमेश्वर पर भरोसा करने और सत्य के सिद्धांत खोजने पर ध्यान देने लगी। जब मैं प्रचार करने में समर्थ प्रतिभाशाली लोगों से मिली, तो मैंने उन्हें सही रोशनी में देखने के लिए सचेतन होकर काम किया। जब उनकी संगति में पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता होती, तो मैंने इसे परमेश्वर से आई हुई माना। जब उनके विचार सिद्धांतों के अनुरूप होते, तो मैंने उन्हें स्वीकार कर उनका आज्ञापालन किया। अगर वे सिद्धांतों के अनुरूप न होते, तो मैंने उन्हें आँखें बंद कर नहीं सुना, बल्कि उनके साथ मिलकर सत्य खोजा। कुछ समय तक इस प्रकार अभ्यास करके मैंने ज्यादा स्वतंत्र और सुकून महसूस किया। अपने कर्तव्य में मैं अभ्यास के मार्ग पहचान कर कुछ नतीजे भी हासिल कर पाई। परमेश्वर का धन्यवाद!
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