मेरे अतीत का कलंक

05 फ़रवरी, 2023

अगस्त 2015 में, मैं परिवार के साथ रहने के लिए शिनजियांग आ गई थी। सुनने में आया कि वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी ने अल्पसंख्यक उइगर समुदाय के दंगे रोकने के नाम पर सख्त निगरानी और नियंत्रण के उपाय कर रखे थे—माहौल खतरनाक था। शिनजियांग पहुँचने पर, वहां का माहौल मेरी कल्पना से भी ज्यादा तनावपूर्ण लगा। हर जगह पुलिस की निगरानी थी। सुपरमार्केट में भी हमें सिक्योरिटी चेक पास करता होता था, पूरे शरीर को स्कैन किया जाता था। बस में चढ़ते समय, हर स्टॉप पर बंदूकें लटकाए पुलिस गश्त लगाती दिखती थी। यह सब देखकर मैं बहुत घबरा गई। विश्वासी होने के नाते, हम कम्युनिस्ट पार्टी की गिरफ्तारी और उत्पीड़न तो झेलते ही थे, अब यहाँ निगरानी और नियंत्रण इतना सख्त था कि मेरा दम घुटने लगा, मानो हर पल मुझ पर गिरफ्तारी या मौत का खतरा मंडरा रहा था। अक्टूबर में, मैंने सुना कि परमेश्वर के वचनों की किताबें पहुँचाने के लिए दो बहनों को 10 साल की सजा हो गई। मुझे भी यह सुनकर बहुत हैरानी हुई। वे अगुआ नहीं थीं, सिर्फ किताबें पहुँचाने के लिए 10 साल की सजा हुई। मैं कलीसिया के कार्य की प्रभारी थी, तो लगा कि गिरफ्तार हुई तो कम-से-कम 10 साल की जेल होगी। उस वक्त, मेरे मन में सबसे पहला ख्याल भाई-बहनों पर जेल में हो रहे अत्याचार का ही आया। मैं बहुत डर गई। मुझे चिंता थी कि मैं गिरफ्तार हो जाऊँगी, फिर यातनाएं झेलूंगी, अफसोस होने लगा कि मैं पैदा ही क्यों हुई। मैं और ज्यादा डर गई, और सोचने की हिम्मत नहीं हुई। मगर मैंने कुछ भाई-बहनों की संगति भी सुनी कि ऐसे माहौल में वे कैसे अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करते थे, कैसे उन्होंने उसकी सर्वशक्तिमान सत्ता देखी, उसकी देखरेख और सुरक्षा को महसूस किया। इससे मुझे प्रोत्साहन मिला और इन हालात को झेलने की आस्था मिली।

फरवरी 2016 में, पता चला कि मेरी जिम्मेदारी वाली कलीसिया का एक दुष्ट सदस्य, वांग बिंग, हमेशा अगुआओं में कमियां ढूँढता था, कलीसियाई जीवन में काफी बाधा डाली थी। कुछ सहकर्मियों और मैंने इस पर चर्चा करके, फैसला किया कि समस्या को हल करने मैं उस कलीसिया में जाऊँगी। पर मैं थोड़ी डरी हुई थी। जिन बहनों को 10 साल की जेल हुई थी उन्हें उसी कलीसिया से गिरफ्तार किया गया था। सीसीपी ने उन दो बहनों की सजा की घोषणा के लिए स्थानीय लोगों को भी इकट्ठा किया था, उन्हें डरा-धमकाकर आस्था न रखने की चेतावनी दी थी। वह काफी खतरनाक माहौल था। क्या पता मैं वहाँ जाऊँ तो मुझे भी गिरफ्तार कर लिया जाए। मैंने वहाँ न जाने के बहाने बनाये। मगर फिर देखा कि मेरी साथी, बहन शिन किन जाने को तैयार थी, इससे मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। शिन किन को विश्वासी बने ज्यादा समय नहीं हुआ था, वह अगुआ बनने की ट्रेनिंग भी ले रही थी। उस कलीसिया में बहुत सी परेशानियाँ थीं, माहौल भी अच्छा नहीं था। उसे जाते देख मुझे बुरा लगा। तो मैंने कहा, "मेरा जाना ही ठीक रहेगा।" वहाँ पहुँचकर मैंने देखा कि वांग बिंग सभाओं में परमेश्वर के वचनों की समझ पर संगति नहीं कर पा रहा था, हमेशा अगुआओं में कमियाँ ढूँढता था, उसने कलीसियाई जीवन को काफी नुकसान पहुँचाया था। मैंने उपदेशक के साथ इसकी चर्चा की और हमने पहले इस कुकर्मी को अलग करने फिर दूसरों के साथ सत्य पर संगति करने का फैसला किया ताकि वे समझ सकें और आगे ज्यादा नुकसान न हो। फिर हम जल्द बहन झोंग शिन को कलीसिया का कामकाज संभालने का प्रशिक्षण दे सकते थे। मगर उस कलीसिया की सभी समस्याओं को हल करने में काफी ज्यादा समय लग जाता। कलीसिया के करीब आधे भाई-बहन गिरफ्तार हो गए थे, तो जितना वक्त मैं वहाँ बिताती, उतना ही खतरनाक होता। क्योंकि हमने समस्या का हल निकाल लिया था, तो मुझे लगा मैं इसके आगे का काम उपदेशक पर छोड़ सकती हूँ। मैंने फौरन बचे हुए काम उन्हें सौंप दिए और वापस घर चली आई। उपदेशक ने बाद में बताया कि वह कुकर्मी बहुत बेशर्मी दिखा रहा था, अगुआओं पर हमला करने के लिए गुट बनाकर कलीसियाई जीवन को काफी नुकसान पहुँचा रहा था। मैंने कुछ समाधानों पर उपदेशक के साथ संगति की, फिर भी समस्या हल नहीं हुई। मुझे लगा मैं दोषी हूँ। कलीसिया की अव्यवस्था से निपटने की जिम्मेदारी मेरी थी, पर गिरफ्तारी के डर से मैं वहाँ नहीं रहना चाहती थी—यह सही नहीं था। पर तभी उस बहन का ख्याल आया जो हाल ही में हमारी कलीसिया की सभा में ट्रेन से आते समय वह गिरफ्तारी से बाल-बाल बची थी। अगर ट्रेन में चढ़ते हुए मेरे साथ भी यही हुआ तो क्या होगा? सोचने लगी, अगर मेरी सुरक्षा पक्की न हो पाई तो मैं बतौर अगुआ अपना काम नहीं कर पाऊँगी। इसी वजह से, मैंने उस कलीसिया की सभी समस्याओं का जिम्मा उपदेशक पर छोड़ दिया, पर क्योंकि उनकी काबिलियत सीमित थी, तो कलीसिया की समस्याएँ हल नहीं हुईं।

सितंबर 2016 में अचानक मुझे एक चिट्ठी मिली कि उस कलीसिया के चार भाई-बहन परमेश्वर के वचनों की किताबें पहुँचाने के कारण गिरफ्तार हो गए। उनमें से एक, झोंग शिन को बुरी तरह से पीटा गया। कुछ दिनों बाद एक और चिट्ठी मिली कि पुलिस ने उसे पीट-पीटकर मार डाला। इस खबर से मुझे बहुत बड़ा झटका लगा। मैं इसे स्वीकार नहीं सकी। मैं जानती थी कि कम्युनिस्ट पार्टी की यातना के तरीके बेहद क्रूर थे, पर मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि किसी भले-चंगे इंसान को कुछ ही दिनों में पीट-पीटकर मार डाला जाएगा। यह भयानक था। लगा जैसे सब कुछ ठंडा पड़ गया हो, मैं रो पड़ी। इस बारे में जितना सोचती उतना ही दुखी होती थी, हमेशा सोचती कि ये सब कैसे हो गया। मैं जानती थी कि एक कुकर्मी कलीसिया के कार्यों में बाधा डाल रहा था और वहाँ के सदस्य कलीसिया का सामान्य जीवन नहीं जी पा रहे। मैं एक कलीसिया अगुआ थी, पर गिरफ्तारी के डर से यह समस्या अच्छे से हल नहीं कर पाई। अगर मैंने थोड़ी और जिम्मेदारी ली होती, या फिर परदे के पीछे से निर्देश देकर समस्याओं को हल करवाया होता, भाई-बहनों को अपनी सुरक्षा करने के लिए कहा होता, तो शायद झोंग शिन को पुलिस पीट-पीटकर मार नहीं डालती। मैंने खुद को उसकी मौत का कसूरवार माना, मैं बहुत डर गई थी। यह मेरे लिए बेहद दम घोंटने वाला माहौल था, जैसे मुझ पर अँधेरे के बादल मंडरा रहे थे, मैं साँस नहीं ले पा रही थी। मगर मैं जानती थी कि इतने महत्वपूर्ण समय में मैं भागती नहीं रह सकती थी, तो मैं आगे की घटनाओं से निपटने में उपदेशक की मदद करने के लिए उसके पास गई। मगर उस कलीसिया की स्थितियाँ अब भी ठीक नहीं हुई थीं, फिर पता चला कि एक बहन जिसके साथ मैंने काम किया था, वह गिरफ्तार हो गई थी, पुलिस को हमारी कलीसिया के मुख्य अगुआओं और कर्मियों के बारे में भी कुछ जानकारी मिल गई थी। मैं उन भाई-बहनों के साथ लगातार संपर्क में थी, अगर पुलिस निगरानी की फुटेज देखती, तो मैं कभी भी गिरफ्तार हो सकती थी। अगर मैं गिरफ्तार हुई और जेल चली गई, तो पता नहीं जिंदा वापस आऊँगी भी या नहीं। मेरा अंत भी झोंग शिन जैसा हो सकता है, कम उम्र में ही पुलिस की मार से मेरी मौत हो सकती है। इस बारे में सोचकर मैं और ज्यादा डर गई, अब मैं यह कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी। मैं वहाँ और नहीं रुकना चाहती थी। क्योंकि मैंने कभी अपनी दशा पर ध्यान नहीं दिया, और महीनों तक कलीसिया में बाधा डालने वाले कुकर्मी की समस्या हल नहीं कर पाई, तो मुझे बर्खास्त कर दिया गया। इसके बाद मैं कलीसिया में लिखने का काम करने लगी, पर मुझे इसमें भी खतरा लगता था। चिंता रहती कि किसी भी दिन गिरफ्तार हो जाऊँगी, मैं अपने शहर वापस जाना चाहती थी। भाई-बहनों ने मेरे साथ संगति की, इस उम्मीद में कि ऐसे अहम समय में, मैं उनके साथ रहकर आगे के हालात से निपटने में उनकी मदद करूँगी। पर मैं बेहद डर गई थी, मैंने उनकी एक न सुनी, और आखिर में वहाँ से निकल गई।

अप्रैल 2017 में, मेरे बर्ताव के कारण, कलीसिया ने मुझे सभाओं में जाने से रोक दिया, मुझे घर पर आत्मचिंतन के लिए अलग कर दिया गया। यह खबर सुनकर मैं रो पड़ी, मगर मैं ऐसे अहम मौके पर अपना कर्तव्य त्यागकर भगोड़ी बन गई थी, इसलिए आत्मचिंतन के लिए मुझे अलग करना परमेश्वर की धार्मिकता थी, मैं समर्पण करना चाहती थी। एक दिन मैंने अपने भक्ति-कार्य में परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "अगर तुम सुसमाचार फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हो और परमेश्वर की अनुमति के बिना अपना पद छोड़ देते हो, तो इससे बड़ा कोई अपराध नहीं। क्या यह परमेश्वर से विश्वासघात नहीं है? तो, तुम लोगों के विचार में, परमेश्वर को अपना कर्तव्य छोड़ने वालों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? (उन्हें दरकिनार कर दिया जाना चाहिए।) दरकिनार किए जाने का मतलब है अनदेखा किया जाना, उन्हें जैसा वे चाहें वैसा करने के लिए छोड़ दिया जाना। अगर दरकिनार किए गए लोग पछताते हैं, तो संभव है कि परमेश्वर देखे कि उनका रवैया पर्याप्त रूप से पछतावे वाला है, और अभी भी उन्हें वापस पाना चाहे। लेकिन जो लोग अपना कर्तव्य छोड़ देते हैं, उनके प्रति—और केवल उन्हीं लोगों के प्रति—परमेश्वर का ऐसा रवैया नहीं होता। परमेश्वर ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है? (परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता; परमेश्वर उनसे घृणा करता है और उन्हें नकार देता है।) शत-प्रतिशत सही। विशेष रूप से, जो लोग कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाते हैं, उन्हें परमेश्वर द्वारा नियुक्त किया जाता है, और अगर वे अपना पद छोड़ देते हैं, तो चाहे उन्होंने पहले कितना भी अच्छा काम किया हो, या बाद में कितना भी अच्छा काम करें, परमेश्वर की नजर में वे ऐसे लोग हैं, जिन्होंने परमेश्वर को धोखा दिया है, उन्हें फिर कभी कोई कर्तव्य निभाने का अवसर नहीं दिया जाएगा" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। "परमेश्वर को उन लोगों से, जो अपना कर्तव्य छोड़ देते हैं या उसे मजाक समझते हैं, और परमेश्वर से विश्वासघात के असंख्य व्यवहारों, कार्यों और अभिव्यक्तियों से अत्यधिक घृणा है, क्योंकि परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न संदर्भों, लोगों, मामलों और चीजों के बीच, ये लोग परमेश्वर के कार्य की प्रगति में बाधा डालने, उसे क्षति पहुँचाने, उसमें देर करने, उसे बाधित या प्रभावित करने की भूमिका निभाते हैं। और इस कारण से, परमेश्वर अपना कर्तव्य छोड़ने वाले और परमेश्वर को धोखा देने वाले लोगों के प्रति कैसा महसूस करता है और क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करता है? परमेश्वर क्या रवैया अपनाता है? सिर्फ और सिर्फ तिरस्कार और नफरत। क्या उसे दया आती है? नहीं—उसे दया कभी नहीं आ सकती। कुछ लोग कहते हैं, 'क्या परमेश्वर प्रेम नहीं है?' परमेश्वर ऐसे लोगों से प्रेम नहीं करता, ये लोग प्रेम के काबिल नहीं होते। अगर तुम उनसे प्रेम करते हो, तो तुम्हारा प्रेम मूर्खता है, और सिर्फ इसलिए कि तुम उनसे प्रेम करते हो, इसका मतलब यह नहीं कि परमेश्वर भी उनसे प्रेम करता है; तुम उन्हें सँजो सकते हो, लेकिन परमेश्वर नहीं सँजोता, क्योंकि ऐसे लोगों में कुछ भी सँजोने लायक नहीं होता। इसलिए, परमेश्वर ऐसे लोगों को दृढ़ता से त्याग देता है, और उन्हें कोई दूसरा मौका नहीं देता। क्या यह उचित है? यह न केवल उचित है, बल्कि सर्वोपरि यह परमेश्वर के स्वभाव का एक पहलू है, और यह सत्य भी है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर के वचनों का न्याय और प्रकाशन बहुत कष्टदायी था, जैसे दिल में छुरा भोंक दिया हो। झोंग शिन को पीट-पीटकर मार डाला गया और मेरी साथी गिरफ्तार हो गई थी। ऐसे महत्वपूर्ण समय में, आगे के हालात से निपटने के लिए मुझे भाई-बहनों के साथ मिलकर काम करना चाहिए था, पर मैं वहाँ से भाग गई। जिसके पास थोड़ी भी अंतरात्मा होगी वह कभी ऐसा नहीं करेगा। मैं ऐसा करने के लिए खुद को माफ़ नहीं कर सकी। मैं सोचती थी कि चाहे मैं कोई भी गलती करूँ, अगर मैंने पश्चात्ताप किया तो परमेश्वर मुझ पर दया दिखाता रहेगा। मगर फिर एहसास हुआ कि यह बस मेरी धारणा, मेरी कल्पना थी। परमेश्वर कहता है कि जो लोग किसी अहम मौके पर अपना कर्तव्य त्यागकर उससे मुँह मोड़ लेते हैं, परमेश्वर उन्हें त्याग देता है, उन्हें और मौके नहीं देता। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने जाना कि उसकी दया और सहनशीलता में भी सिद्धांत हैं। परमेश्वर किसी अपराध के लिए यूँ ही किसी को माफ नहीं करता या उस पर दया नहीं दिखता। वह धार्मिक और प्रतापी भी है, वह कोई अपराध नहीं सहेगा। जबसे मैं भागी तबसे लग रहा था कि परमेश्वर मुझे त्याग चुका है। मेरा मन बेहद अशांत था—मुझे पछतावा हो रहा था। न जाने कितनी बार मैंने प्रार्थना की, कितना रोई। परमेश्वर ने मुझे त्यागा हो या नहीं, मैं फिर भी उसकी सेवा करने और अपना ऋण चुकाने को तैयार थी, मैं जानती थी कि वह मेरे साथ जैसा भी बर्ताव करेगा, वह धार्मिक ही होगा। अगर वह मुझे नरक में भी भेज दे तो मैं शिकायत नहीं करूँगी, क्योंकि मैंने जो किया वह बहुत बुरा था, इससे परमेश्वर को चोट पहुँची। मैं कई सालों से विश्वासी थी, मैंने कुछ त्याग किये थे, और मैं उद्धार पाना चाहती थी, पर कभी ऐसा नहीं सोचा था कि कम्युनिस्ट पार्टी की गिरफ्तारी और अत्याचार का सामना करते हुए, मैं अपने जीवन का लालच करूंगी, अपना कर्तव्य त्यागकर परमेश्वर को धोखा दूँगी, इतना बड़ा अपराध कर बैठूँगी। इस बारे में सोचकर मैं बहुत दुखी और निराश हो गई। मैं अपने आँसू नहीं रोक पाई। मैं दोष और पछतावे से भर गई। अगर मैंने वहाँ से जाने की जिद न की होती, और जरूरत पड़ने पर अपना कर्तव्य निभाती रहती, दूसरों के साथ मिलकर आगे के हालात से निपटती, तो यह कितना अच्छा होता। फिर मुझे इस दुख और निराशा में नहीं जीना पड़ता। मैं नहीं चाहती थी कि यह सब हो! मगर अब कुछ भी करने के लिए बहुत देर हो गई थी। मैंने खुद के लिए गड्ढा खोदा था। स्वार्थी और दुष्ट बनकर सिर्फ अपनी रक्षा करने के कारण मुझे खुद से नफरत हो गई। मेरे जैसी इंसान परमेश्वर की सहनशीलता और दया के काबिल नहीं थी। क्योंकि कलीसिया ने मुझे निकाला नहीं था, तो लगा कि मुझे अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए जितना हो सके उतनी सेवा करनी चाहिए।

इसके बाद से अपने कर्तव्य में, अगुआ मुझे जहाँ भेजते मैं वहाँ चली जाती थी। मुझे खतरों का सामना करने वाली कलीसियाओं में जाकर मदद करने को कहा जाता, तो मैं चली जाती, कुछ समय बाद मुझे थोड़े नतीजे भी मिले। मगर मैं उस मामले पर दोबारा चर्चा नहीं करना चाहती थी। मैं खुद को उनसे बचाना चाहती थी, उन्हें भूलना चाहती थी। मगर, मैं ऐसा नहीं कर सकी। ऐसा लगा जैसे मेरे दिल पर इसकी गहरी छाप पड़ गई थी जो मिट नहीं सकती थी। इसके बारे में सोचना मेरे लिए कष्टदायी था, मैंने बेहद दोषी महसूस किया। फिर एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों में कुछ पढ़ा जिसने मेरे हालत पर रोशनी डाली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "खुद को बचाने में, मसीह-विरोधी अक्सर भाई-बहनों की सुरक्षा की उपेक्षा कर देते हैं। ... अगर कोई स्थान सुरक्षित होता है, या अगर कोई कार्य या कर्तव्य उनकी सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है और उसमें जोखिम नहीं होता, तो वे अपनी महान 'जिम्मेदारी की भावना' और 'वफादारी' दिखाने के लिए वहाँ जाने में बहुत सकारात्मक और सक्रिय रहते हैं। अगर किसी कार्य में जोखिम होता है और उसके खराब होने या उसे करने वाले के बड़े लाल अजगर द्वारा पकड़ लिए जाने की संभावना होती है, तो वे बहाने बना देते हैं और उसे किसी और को सौंपकर उससे बचकर भागने का मौका ढूँढ़ लेते हैं। जैसे ही कोई खतरा होता है, या जैसे ही खतरे का कोई संकेत होता है, वे भाई-बहनों की परवाह किए बिना, खुद को छुड़ाने और अपना कर्तव्य त्यागने के तरीके सोचते हैं। वे केवल खुद को खतरे से बाहर निकालने की परवाह करते हैं। दिल में वे पहले से ही तैयार रह सकते हैं। जैसे ही खतरा प्रकट होता है, वे उस काम को तुरंत छोड़ देते हैं जिसे वे कर रहे होते हैं, इस बात की परवाह किए बिना कि कलीसिया का काम कैसे होगा, या इससे परमेश्वर के घर के हितों या भाई-बहनों की सुरक्षा को क्या नुकसान पहुँचेगा। उनके लिए जो मायने रखता है, वह है भागना। यहाँ तक कि उनके पास एक 'तुरुप का इक्का', खुद को बचाने की एक योजना भी होती है : जैसे ही उन पर खतरा मँडराता है या उन्हें गिरफ्तार किया जाता है, वे जो कुछ भी जानते हैं वह सब कह देते हैं, खुद को पाक-साफ बताकर तमाम जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। फिर वे सुरक्षित हो जाते हैं, है न? उनके पास ऐसी योजना भी होती है। ये लोग परमेश्वर पर विश्वास करने के कारण उत्पीड़न सहने को तैयार नहीं होते; वे गिरफ्तार होने, प्रताड़ित किए जाने और दोषी ठहराए जाने से डरते हैं। सच तो यह है कि वे बहुत पहले ही शैतान के आगे घुटने टेक चुके हैं। वे शैतानी शासन की शक्ति से भयभीत हैं, और इससे भी ज्यादा खुद पर होने वाली यातना और कठोर पूछताछ जैसी चीजों से डरते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधियों के साथ अगर सब-कुछ सुचारु रूप से चल रहा होता है, और उनकी सुरक्षा को कोई खतरा या उसे लेकर कोई समस्या नहीं होती, तो वे अपने उत्साह और वफादारी, यहाँ तक कि अपनी संपत्ति की भी पेशकश कर सकते हैं। लेकिन अगर हालात खराब हों और परमेश्वर पर विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने के कारण उन्हें किसी भी समय गिरफ्तार किया जा सकता हो, और अगर परमेश्वर पर उनके विश्वास के कारण उन्हें उनके आधिकारिक पद से हटाया जा सकता हो या उनके करीबी लोगों द्वारा त्यागा जा सकता हो, तो वे असाधारण रूप से सावधान रहेंगे, न तो सुसमाचार का प्रचार करेंगे, न ही परमेश्वर की गवाही देंगे और न ही अपना कर्तव्य निभाएँगे। जब परेशानी का कोई छोटा-सा भी संकेत होता है, तो वे छुईमुई बन जाते हैं; जब परेशानी का कोई छोटा-सा भी संकेत होता है, तो वे परमेश्वर के वचनों की अपनी पुस्तकें और परमेश्वर पर विश्वास से संबंधित कोई भी चीज फौरन कलीसिया को लौटा देना चाहते हैं, ताकि खुद को सुरक्षित और हानि से बचाए रख सकें। क्या ऐसा व्यक्ति खतरनाक नहीं है? गिरफ्तार किए जाने पर क्या वह यहूदा नहीं बन जाएगा? मसीह-विरोधी इतना खतरनाक होता है कि कभी भी यहूदा बन सकता है; इस बात की संभावना हमेशा बनी रहती है कि वह परमेश्वर से मुँह मोड़ लेगा। इतना ही नहीं, वह परम स्वार्थी और नीच होता है। यह मसीह-विरोधी की प्रकृति और सार द्वारा निर्धारित होता है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो))। "मसीह-विरोधी बेहद स्वार्थी और नीच होते हैं। उनका परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं होता, परमेश्वर के प्रति भक्ति-भाव तो बिलकुल भी नहीं होता; जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो वे केवल अपनी रक्षा और बचाव करते हैं। उनके लिए अपनी सुरक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं होता। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि कलीसिया के कार्य को कितना नुकसान हुआ है—वे अब भी जीवित हैं और गिरफ्तार नहीं किए गए हैं, उनके लिए बस यही मायने रखता है। ये लोग बेहद स्वार्थी होते हैं, वे भाई-बहनों या कलीसिया के बारे में बिलकुल नहीं सोचते, वे केवल अपनी सुरक्षा के बारे में सोचते हैं। वे मसीह-विरोधी हैं" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो))। परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन का हर एक वचन सीधा मेरे दिल पर लगा। मेरे पास छिपने की कोई जगह नहीं थी—मैं नहीं बच सकती थी। मैं एक ऐसी इंसान थी जो खतरा आने पर सिर्फ अपनी रक्षा करना चाहती है, मुझे कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन की परवाह नहीं थी। मैं स्वार्थी और नीच थी। जब मैं शिनजियांग में पहली बार आई, तो देखा कि हर जगह का माहौल बहुत खराब था। हर मोड़ पर गिरफ्तारी या मौत का खतरा मंडरा रहा था। मुझे वहाँ जाकर कर्तव्य निभाने पर पछतावा हुआ। जब पता चला कि कलीसिया में कोई कुकर्मी काम में बाधाएं डाल रहा है और उससे निपटना होगा, तो मैंने गिरफ्तारी और यातना के डर से न जाने के लिए बहाने बनाये। फिर मैं बेमन से वहां चली तो गई, पर क्योंकि मुझे सिर्फ अपनी सुरक्षा की परवाह थी, तो समस्याएं हल होने से पहले ही निकल गई। मैं अच्छे से जानती थी कि उस कलीसिया में गंभीर समस्याएं थीं जिन्हें हल करना बहुत जरूरी था, पर मैं अपना बचाव करना चाहती थी। मैंने वास्तविक कार्य नहीं किया, बल्कि दूसरों को आदेश देती रही, यहाँ तक कि समस्या दूसरे भाई-बहनों पर छोड़ दी, खुद कायर बनकर छिपी रही, मैं बेहद नीच बन गई थी, कई महीनों तक उस कलीसिया की समस्याएं हल नहीं हो सकीं। मैंने तो एक सही लगने वाला बहाना भी बनाया कि अगुआ होने के नाते अपना काम करने के लिए खुद की रक्षा करना जरूरी था, पर असल में, मैं खतरे को देखकर भागने के बहाने बना रही थी। जब झोंग शिन को गिरफ्तार करके पीट-पीटकर मार दिया गया, तब भी मैंने अपनी सुरक्षा की सोची कि क्या मुझे गिरफ्तार किया जायेगा, क्या मुझे यातना देकर मार डाला जाएगा। मैं तो अपना कर्तव्य त्यागने और उस खतरनाक जगह को छोड़ने के मौके ढूँढ रही थी। बर्खास्त होने के बाद, मैं आगे के हालात से निपटने में मदद करने के बजाय अपने शहर लौट जाना चाहती थी। भाई-बहनों ने मुझे फटकारा नहीं, पर मैंने महसूस किया कि परमेश्वर मुझे त्याग चुका था, मुझसे नफरत और मेरी निंदा करता था। मुझे सबसे ज्यादा पछतावा इस बात का था कि कलीसिया ने मुझे अगुआ बनाया, इतने भाई-बहनों की जिम्मेदारी सौंपी, पर मैं एक मुश्किल वक्त में भाग निकली, दूसरों के जीने-मरने की परवाह तक नहीं की, कलीसिया के काम में आने वाली बाधा का नहीं सोचा। मैं अपने जीवन का लालच करने वाली भगोड़ी, गद्दार और शैतान की हंसी की पात्र बन गई। यह मेरे दिल पर कभी न भरने वाला घाव बन गया। तथ्यों के अनुसार, मैंने देखा कि मैं एक कायर इंसान थी जो बिना किसी मानवता के स्वार्थी जीवन जी रही थी। परमेश्वर के वचन बिल्कुल ठिकाने पर लगे, इनसे दिल की गहराइयों में छिपी मेरी नीच और परोक्ष मंशाएं उजागर हो गईं। मैं वास्तविकता से भागती नहीं रह सकती थी। उस पल मुझे परमेश्वर को धोखा देने के महापाप का एहसास हुआ, मैं उसके उद्धार के काबिल नहीं थी। मैंने यह भी विचार किया कि कैसे परमेश्वर ने मानवजाति को बचाने के लिए दो बार देहधारण किया, हमें सब कुछ दिया। दो हजार साल पहले, प्रभु यीशु मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए क्रूस पर चढ़ गया, हमारे लिए अपने खून की हर एक बूँद बहा दी। अब अंत के दिनों में, परमेश्वर ने भ्रष्ट मानवजाति को बचाने के लिए फिर से देहधारण किया है, बड़े लाल अजगर की मांद में काम करने के लिए अपना जीवन दांव पर लगा दिया है, जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी लगातार उसका उसे सता रही है। मगर उसने मानवजाति को बचाने से कभी हार नहीं मानी। हमारे सिंचन और पोषण के लिए उसने लगातार सत्य व्यक्त किये हैं। परमेश्वर ने इंसान के लिए सब कुछ दिया—हमारे लिए उसका प्रेम बहुत सच्चा और निस्वार्थ है। मगर मैं बेहद स्वार्थी और नीच थी। मैंने अपने कर्तव्य में सिर्फ अपनी रक्षा की, कलीसिया के कार्य पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया। मैं परमेश्वर की बहुत ऋणी थी, उसके समक्ष जीने के काबिल नहीं थी। मैं बस परमेश्वर की सेवा करना चाहती थी ताकि अपने पाप का थोड़ा प्रायश्चित कर सकूँ।

दिसंबर 2021 में, मुझे फिर से कलीसिया अगुआ चुना गया। मगर यह सोचकर कि मैंने परमेश्वर को कैसे धोखा दिया था, और अगुआ बनने लायक नहीं थी, मैंने रोते-रोते एक अगुआ को अपने भगोड़ी होने की कहानी बताई। उस अगुआ ने कहा, "इतने साल बीत गए, तुम अब तक इस नकारात्मक और गलतफहमी की दशा में अटकी हो। इससे पवित्र आत्मा का कार्य पाना मुश्किल हो जाता है।" मैंने यह भी सोचा कि कई साल बीत गये, फिर भी मुझे अपने अपराध को लेकर इतना दुख और परमेश्वर को लेकर गलतफहमी क्यों थी? मैं अपनी हालत कैसे ठीक करूँ? मैंने प्रार्थना करके सत्य खोजने की कोशिश की। और परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : "यहाँ तक कि ऐसे क्षणों में भी, जिनमें तुम्हें लगे कि परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ दिया है और तुम अँधेरे में घिर गए हो, तो तुम डरो मत : जब तक तुम जीवित हो और जब तक तुम नरक में नहीं हो, तो तुम्हारे लिए एक मौका है। लेकिन अगर तुम पौलुस की तरह हो, जिसने अंततः यह गवाही दी कि जीवित रहना उसके लिए मसीह होना है, तो तुम्हारे लिए सब-कुछ समाप्त हो गया है। अगर तुम जाग सको, तो तुम्हारे पास अभी भी एक मौका है। तुम्हारे पास क्या मौका है? यह कि तुम परमेश्वर के सामने आने में सक्षम हो, तुम अभी भी परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हो और यह कहते हुए उससे जवाब माँग सकते हो, 'हे परमेश्वर! कृपया मुझे अभ्यास के मार्ग का यह पहलू, और सत्य का यह पहलू समझने के लिए प्रबुद्ध करो।' अगर तुम परमेश्वर के अनुयायियों में से एक हो, तो तुम्हारे पास उद्धार की आशा है, और तुम अंतत: इसमें सफल हो जाओगे। क्या ये शब्द पर्याप्त स्पष्ट हैं? क्या अभी भी तुम लोगों नकारात्मक होने की संभावना है? (नहीं।) जब लोग परमेश्वर की इच्छा को समझते हैं, तो उनका मार्ग व्यापक हो जाता है। अगर वे उसकी इच्छा को नहीं समझते, तो वह संकीर्ण हो जाता है, उनके हृदयों में अँधेरा छा जाता है, और उनके पास चलने के लिए कोई मार्ग नहीं होता। जो लोग सत्य को नहीं समझते, वे ऐसे होते हैं : वे संकीर्ण मानसिकता के होते हैं, वे हमेशा मीन-मेख निकालते हैं, और वे हमेशा परमेश्वर के बारे में शिकायत करते रहते हैं और उसकी गलत व्याख्या करते हैं—जिसका परिणाम यह होता है कि जितना वे आगे चलते हैं, उतना ही उनका मार्ग लुप्त होता जाता है। वस्तुत: लोग परमेश्वर को नहीं समझते। अगर परमेश्वर लोगों के साथ उनकी कल्पना के अनुसार व्यवहार करता, तो मानव-जाति बहुत पहले ही नष्ट हो गई होती" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस की प्रकृति और सार को कैसे पहचानें)। "मैं किसी को ऐसा महसूस करते हुए नहीं देखना चाहता, मानो परमेश्वर ने उन्हें बाहर ठंड में छोड़ दिया हो, या परमेश्वर ने उन्हें त्याग दिया हो या उनसे मुँह फेर लिया हो। मैं बस हर एक व्यक्ति को बिना किसी गलतफहमी या बोझ के, केवल सत्य की खोज करने और परमेश्वर को समझने का प्रयास करने के मार्ग पर साहसपूर्वक दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ते देखना चाहता हूँ। चाहे तुमने जो भी गलतियाँ की हों, चाहे तुम कितनी भी दूर तक भटक गए हो या तुमने कितने भी गंभीर अपराध किए हों, इन्हें वह बोझ या फालतू सामान मत बनने दो, जिसे तुम्हें परमेश्वर को समझने की अपनी खोज में ढोना पड़े। आगे बढ़ते रहो। हर वक्त, परमेश्वर मनुष्य के उद्धार को अपने हृदय में रखता है; यह कभी नहीं बदलता। यह परमेश्वर के सार का सबसे कीमती हिस्सा है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। "परमेश्वर नीनवे के नागरिकों से इसलिए क्रोधित हुआ, क्योंकि उनकी दुष्टता के कार्य उसकी नज़रों में आ गए थे; उस समय उसका क्रोध उसके सार से निकला था। किंतु जब परमेश्वर का कोप जाता रहा और उसने नीनवे के लोगों पर एक बार फिर से सहनशीलता दिखाई, तो वह सब जो उसने प्रकट किया, वह भी उसका अपना सार ही था। यह संपूर्ण परिवर्तन परमेश्वर के प्रति मनुष्य के रवैये में हुए बदलाव के कारण था। इस पूरी अवधि के दौरान परमेश्वर का अनुल्लंघनीय स्वभाव नहीं बदला, परमेश्वर का सहनशील सार नहीं बदला, परमेश्वर का प्रेममय और दयालु सार नहीं बदला। जब लोग दुष्टता के काम करते हैं और परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हैं, तो वह उन पर क्रोध करता है। जब लोग सच में पश्चात्ताप करते हैं, तो परमेश्वर का हृदय बदलता है, और उसका क्रोध थम जाता है। जब लोग हठपूर्वक परमेश्वर का विरोध करते हैं, तो उसका कोप निरंतर बना रहता है और धीरे-धीरे उन्हें तब तक दबाता रहता है, जब तक वे नष्ट नहीं हो जाते। यह परमेश्वर के स्वभाव का सार है। परमेश्वर चाहे कोप प्रकट कर रहा हो या दया और प्रेममय करुणा, यह मनुष्य के हृदय की गहराइयों में परमेश्वर के प्रति उसका आचरण, व्यवहार और रवैया ही होता है, जो यह तय करता है कि परमेश्वर के स्वभाव के प्रकाशन के माध्यम से क्या व्यक्त होगा" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को छू लिया और मैंने बहुत कसूरवार महसूस किया। मुझे एहसास हुआ मैं इतने सालों से परमेश्वर को गलत समझ रही थी। परमेश्वर मानवजाति को बचाने की हर मुमकिन कोशिश करता है। क्षणिक अपराध के लिए वह किसी का त्याग नहीं करेगा, बल्कि उसे पश्चात्ताप करने के बहुत-से मौके देगा। ठीक नीनवे के लोगों की तरह। परमेश्वर ने कहा कि वह उनका नाश कर देगा क्योंकि वे कुकर्मी थे, वे उसके खिलाफ गये और उसे नाराज किया। मगर उनका नाश करने से पहले उसने योना को परमेश्वर के वचन साझा करने भेजकर, उन्हें पश्चात्ताप का आखिरी मौका दिया। जब उन्होंने परमेश्वर से सच्चा पश्चात्ताप किया, तो उसका क्रोध शांत हो गया, फिर यह सहनशीलता और दया में बदल गया, उसने उनके कुकर्मों को माफ कर दिया। इससे मैंने लोगों के प्रति परमेश्वर के महान प्रेम और दया को देखा। परमेश्वर का प्रचंड क्रोध और उदारतापूर्ण दया सिद्धांत के अनुरूप है, और यह परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैये के अनुसार ही बदलता है। हालांकि परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन के वचन कठोर हैं, ये हमें धिक्कारते और हमारी निंदा भी करते हैं, मगर यह बस शब्दों का प्रहार है, कोई वास्तविक घटना नहीं। परमेश्वर चाहता था मैं उसके धार्मिक स्वभाव को समझूं, जिसका अपमान नहीं किया जा सकता, उसके लिए अपने दिल में श्रद्धा रखूँ और सच्चा पश्चात्ताप करूँ, ताकि किसी भी पल, किसी भी हालात में मन लगाकर अपना कर्तव्य निभा पाऊँ। तब मुझे एहसास हुआ कि मैं बहुत अड़ियल और विद्रोही थी। मैं कई सालों से परमेश्वर को गलत समझ रही थी, धारणाओं के आधार पर खुद को सीमित करके अंधी गली में बढ़ती जा रही थी। मगर असल में, परमेश्वर ने मेरे उद्धार से हार नहीं मानी थी। मैंने परमेश्वर की मुझे बचाने की इच्छा को गलत समझा। इससे मुझे परमेश्वर की यह बात याद आई : "परमेश्वर की करुणा और सहनशीलता दुर्लभ नहीं है—बल्कि मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप दुर्लभ है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। भले ही परमेश्वर हम पर क्रोध करता है, हमारा न्याय कर हमें उजागर करता है, हमारी निंदा कर हमें शाप देता है, पर वह प्रेम और दया से भरपूर है। उसके धार्मिक स्वभाव को न समझें तो उसे गलत समझ सकते हैं। मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की इच्छा समझकर मुझे बहुत पछतावा और अपराध-बोध हुआ। मैं अपने पिछली अपराधों से भागना या परमेश्वर को गलत समझकर उससे बचना नहीं चाहती थी। मैं पश्चात्ताप के लिए तैयार थी। मैं इस नाकामी से सबक लेकर खुद को सचेत करती रहना चाहती थी। मैं अपने जीवन के लिए स्वार्थी, नीच, और लालची थी। खतरे के सामने मैं भगोड़ी बन गई, कलीसिया के कार्य की परवाह नहीं की। फिर एहसास हुआ कि मेरी कमजोरी थी मौत का डर। इसे हल करने, इससे दूर जाने के लिए मुझे सत्य खोजना था।

मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। "मानव धारणाओं के दृष्टिकोण से, यदि उन्होंने परमेश्वर के कार्य का प्रसार करने की इतनी बड़ी कीमत चुकाई, तो उन्हें कम से कम अच्छी मौत मिलनी चाहिए थी। लेकिन इन लोगों को समय से पहले ही मौत के घात उतार दिया गया। यह मानव धारणाओं से मेल नहीं खाता, किन्तु परमेश्वर ने ठीक यही किया—परमेश्वर ने यह होने दिया। परमेश्वर द्वारा यह होने देने में कौन-सा सत्य खोजा जा सकता है? क्या परमेश्वर द्वारा उन्हें इस प्रकार मरने देना उसका श्राप और भर्त्सना थी, या यह उसकी योजना और आशीष था? यह दोनों ही नहीं था। यह क्या था? अब लोग अत्यधिक मानसिक व्यथा के साथ उनकी मृत्यु पर विचार करते हैं, किन्तु चीजें इसी प्रकार थीं। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग इसी तरीक़े से मारे गए, और यह लोगों के हृदय को व्यथित कर देता है। इसे कैसे समझाया जाए? जब हम इस विषय को छुएँ, तो तुम लोग स्वयं को उनकी स्थिति में रखो; क्या तब तुम लोगों के हृदय उदास होते हैं, और क्या तुम भीतर ही भीतर पीड़ा का अनुभव करते हो? तुम सोचते हो, 'इन लोगों ने परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने का अपना कर्तव्य निभाया, इन्हें अच्छा इंसान माना जाना चाहिए, तो फिर उनका अंत, उनका परिणाम ऐसा कैसे हो सकता है?' वास्तव में, उनके शरीर इसी तरह मृत्यु को प्राप्त हुए और चल बसे; यह मानव संसार से प्रस्थान का उनका अपना माध्यम था, तो भी इसका यह अर्थ नहीं था कि उनका परिणाम भी वैसा ही था। उनकी मृत्यु और प्रस्थान का माध्यम चाहे जैसा रहा हो, यह वैसा नहीं था जैसे परमेश्वर ने उनके जीवन को, उन सृजित प्राणियों के अंतिम परिणाम को परिभाषित किया था। तुम्हें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। इसके विपरीत, उन्होंने इस संसार की भर्त्सना करने और परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए ठीक उन्हीं साधनों का उपयोग किया। इन सृजित प्राणियों ने अपने सर्वाधिक बहुमूल्य जीवन का उपयोग किया—उन्होंने परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए अपने जीवन के अंतिम क्षण का उपयोग किया, परमेश्वर के महान सामर्थ्य की गवाही देने के लिए उपयोग किया, और शैतान तथा इस संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए किया कि परमेश्वर के कर्म सही हैं, प्रभु यीशु परमेश्वर है, वह प्रभु है, और परमेश्वर का देहधारी शरीर है; यहां तक कि अपने जीवन के बिल्कुल अंतिम क्षण तक उन्होंने प्रभु यीशु का नाम कभी नहीं छोड़ा। क्या यह इस संसार के ऊपर न्याय का एक रूप नहीं था? उन्होंने अपने जीवन का उपयोग किया, संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए, मानव प्राणियों के समक्ष यह पुष्टि करने के लिए कि प्रभु यीशु प्रभु है, प्रभु यीशु मसीह है, वह परमेश्वर का देहधारी शरीर है, समस्त मानवजाति के लिए उसने जो छुटकारे का कार्य गढ़ा, उसी के कारण मानवता जीवित है—यह सच्चाई कभी बदलने वाली नहीं है। उन्होंने किस सीमा तक अपने कर्तव्य का पालन किया? क्या यह अंतिम सीमा तक किया गया था? यह अंतिम सीमा कैसे परिलक्षित होती थी? (उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया।) यह सही है, उन्होंने अपने जीवन से कीमत चुकाई। परिवार, सम्पदा, और इस जीवन की भौतिक वस्तुएँ, सभी बाहरी उपादान हैं; अंतर्मन की एकमात्र चीज जीवन है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के लिए, जीवन सर्वाधिक सहेजने योग्य है, सर्वाधिक बहुमूल्य है, और असल में कहा जाए तो ये लोग मानव-जाति के प्रति परमेश्वर के प्रेम की पुष्टि और गवाही के रूप में, अपनी सर्वाधिक बहुमूल्य चीज अर्पित कर पाए, और वह चीज है—जीवन। अपनी मृत्यु के दिन तक उन्होंने परमेश्वर का नाम नहीं छोड़ा, न ही परमेश्वर के कार्य को नकारा, और उन्होंने जीवन के अपने अंतिम क्षण का उपयोग इस तथ्य के अस्तित्व की गवाही देने के लिए किया—क्या यह गवाही का सर्वोच्च रूप नहीं है? यह अपना कर्तव्य निभाने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है; अपना उत्तरदायित्व इसी तरह पूरा किया जाता है। जब शैतान ने उन्हें धमकाया और आतंकित किया, और अंत में, यहां तक कि जब उसने उनसे अपने जीवन की कीमत अदा करवाई, तब भी उन्होंने अपने उत्तरदायित्व से हाथ पीछे नहीं खींचे। यह उनके कर्तव्य-निर्वहन की पराकाष्ठा है। इससे मेरा क्या आशय है? क्या मेरा आशय यह है कि तुम लोग भी परमेश्वर की गवाही देने और सुसमाचार फैलाने के लिए इसी तरीके का उपयोग करो? तुम्हें हूबहू ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु तुम्हें समझना होगा कि यह तुम्हारा दायित्व है, यदि परमेश्वर ऐसा चाहे, तो तुम्हें इसे नैतिक कर्तव्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं बहुत शर्मिंदा हुई। युगों से संतों ने सुसमाचार फैलाने के लिए अपना जीवन दांव पर लगाया और खून बहाया है। अनेक संत परमेश्वर की खातिर शहीद हो गये। कुछ को पत्थरों से तो कुछ को घोड़ों से खिंचवाकर मार डाला गया। कुछ को जलते तवे पर डाल दिया तो कुछ को क्रूस पर चढ़ा दिया। कई पादरी जानते थे कि चीन आने पर उन्हें मौत के खतरे का सामना करना पड़ेगा, फिर भी परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने के लिए उन्होंने अपना जीवन जोखिम में डाला। और अब, सुसमाचार फैलाने के कारण पार्टी ने बहुत-से विश्वासियों को यातनाएं दीं, अत्याचार करके मार डाला, उन्होंने परमेश्वर की जोरदार गवाही देने के लिए अपना जीवन दे दिया। उनकी पीड़ा धार्मिकता के लिए थी, उनकी मौत सार्थक थी और उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिली। पहले मैं इन चीजों को नहीं समझ पाई थी, बस किसी तरह जिंदा रहना चाहती थी। मैं सोचती थी मेरे मरने पर सब खत्म हो जाएगा, तो पार्टी के पागलपन भरे अत्याचार के आगे मैंने अपना कर्तव्य त्याग दिया और घटिया जीवन जीने लगी। यह कभी न मिटने वाला दाग और बहुत बड़ा अपराध है। भयावह स्थिति का सामना करते हुए, गिरफ्तार हुए बगैर ही मैंने मौत के डर से परमेश्वर को धोखा दे दिया। मैंने देखा कि मुझमें परमेश्वर की सर्वशक्तिमान सत्ता की कोई समझ नहीं थी। हमें जीवन में किन हालात का सामना करना है, कितना कष्ट उठाना है, यह परमेश्वर तय करता है। हम इससे बचकर भाग नहीं सकते। मैं परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ, जिससे मैं यह सब समझ पाई, अपनी गलत सोच को बदलकर मौत का अच्छे से सामना कर पाई। इस विचार से मुझे और आस्था मिली। अब से, मेरे सामने चाहे जैसे हालात आयें, मैं परमेश्वर पर भरोसा करके गवाही देने को तैयार थी, अपना कर्तव्य त्यागकर उसे धोखा नहीं दूँगी।

6 जुलाई, 2022 को, मेरी साथी मेरे पास आई और घबराहट में कहा, "बहुत बुरा हुआ है। तीन अगुआ गिरफ्तार हो गये हैं।" यह सुनकर मैं बेचैन हो गई। कई लोगों और घरों से उनका संपर्क था, और उनमें से एक तो कुछ दिन पहले ही हमसे मिले थे। और बड़ा नुकसान होने से रोकने के लिए हमें फौरन आगे के हालात से निपटना था। मगर मैं अब भी थोड़ा डर रही थी। पुलिस की नजर उन भाई-बहनों पर थी, उनसे संपर्क रखने के कारण मैं भी उन पुलिसवालों की जाल में फंस सकती थी। मगर फिर मैंने भगोड़ी बनने से मिली कष्टदायी सीख याद की, कैसे मैंने परमेश्वर को धोखा देकर उसके स्वभाव को नाराज किया था। मैं वह पीड़ा कभी नहीं भुला सकती, अपनी गलती दोहराना नहीं चाहती थी, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, "हे परमेश्वर, मैं आज जिन हालात का सामना कर रही हूँ उससे थोड़ी डरी हुई हूँ, पर इस बार मैं भागने के बजाय अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। मुझे आस्था और हिम्मत दो।"

मैंने भाई-बहनों को अपनी सुरक्षा करने के लिए कहा, परमेश्वर के वचनों की किताबों को सुरक्षित जगहों पर रख दिया। फिर मुझे ख्याल आया कि मेरा घर भी सुरक्षित नहीं है, तो मैंने अपनी सास को उस दिन के लिए एक कमरा किराये पर लेने के लिए कहना चाहा। घर के दरवाजे पर पहुँचते ही मैंने वहाँ काले कपड़े पहने कुछ लोगों को देखा। अंदर जाने की हिम्मत नहीं हुई, तो हालात की जानकारी लेने के लिए एक रिश्तेदार के घर चली गई। मुझे पता चला कि मेरी सास पहले ही गिरफ्तार हो चुकी थी, और काले कपड़े पहने वे लोग पुलिस अधिकारी थे। बाद में, पता चला कि जो बहन भाई-बहनों को दूसरी जगह जाने के लिए कहने गई थी वह वापस नहीं आई थी और शायद उसे भी गिरफ्तार कर लिया गया था। हालात को देखते हुए मैंने इस बारे में ज्यादा नहीं सोचा। मैं अपनी साथी बहन के साथ दूसरे काम निपटाने चली गई। बाद में पता चला कि यह गिरफ्तारी कम्युनिस्ट पार्टी की समन्वित कार्रवाई थी जिसमें 5 और 6 जुलाई के बीच 27 लोगों को गिरफ्तार किया गया था। ऐसे भयावह हालात का सामना करते हुए, मैं जान गई कि परमेश्वर मुझे अलग चुनाव करने का एक और मौका दे रहा था। पहले, मैंने भगोड़ी बनकर परमेश्वर को धोखा दिया था। इस बार मैं परमेश्वर को निराश नहीं कर सकती थी, मुझे परमेश्वर पर भरोसा करके आगे के हालत से निपटने के लिए दूसरों के साथ मिलकर काम करना और अपना कर्तव्य निभाना था। यह सोचकर मेरे मन को अधिक सुकून और शांति मिली।

अपने अपराध के बारे में बात करते हुए, मैं इसका सामना कर यह स्वीकार पाती हूँ कि मैं अपने जीवन के लिए लालची, स्वार्थी, और नीच हूँ, पर अब मैं इस तरह की इंसान नहीं बनना चाहती। मैं चाहती हूँ यह अपराध मेरे लिए एक चेतावनी बन जाये, और मुझे याद दिलाये कि दोबारा ऐसी गलती नहीं करनी है। उस नाकामी के कारण मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव से नफरत कर पाती हूँ और वैसा स्वार्थी जीवन नहीं जीना चाहती। अब जब मैं भाई-बहनों को ऐसे हालात में देखती हूँ, तो उनके साथ संगति करती हूँ ताकि वे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को समझ सकें जिसे नाराज नहीं किया जा सकता। वह अपराध मेरे दिल पर छप गया है और बहुत कष्टदायी है, पर यह मेरे जीवन का सबसे कीमती अनुभव भी है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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