सलाह मानना इतना मुश्किल क्यों है?
जून 2021 में, मैं कलीसिया में नए सदस्यों का सिंचन करती थी। भाई जेरेमी हमारे कामकाज की देखरेख करते थे। वे आमतौर पर मुझसे मेरे कर्तव्य की समस्याओं या मुश्किलों के बारे में पूछा करते, मेरा मार्गदर्शन करते कि नए विश्वासियों के साथ संवाद कर उनकी समस्याएं कैसे दूर करें। कभी-कभार मेरे काम में त्रुटियाँ या समस्याएँ होतीं। पता चलने पर वे उनके बारे में बताकर उनका समाधान सुझाते। शुरू-शुरू में मैं भाई जेरेमी की इन बातों का स्वागत करती, लेकिन जब वे बहुत-सी समस्याएँ बताने लगे, तो मुझे अब और सुनने का मन नहीं हुआ। मैंने सोचा : "मैं हर दिन नए सदस्यों के सिंचन में इतनी व्यस्त रहती हूँ कि समय पर भोजन भी नहीं कर पाती। मैं लगन से काम कर रही हूँ, तो फिर आप हमेशा मेरी समस्याओं के बारे में ही क्यों बोलते हैं? मेरे ख्याल से मेरी काबिलियत खासी अच्छी है, मैं जानती हूँ मुझे क्या करना है, किसी और को मुझे बताने की जरूरत नहीं है।"
एक दिन, एक समूह के नए विश्वासी ने संदेश भेजा, माफी माँगते हुए लिखा कि काम में बहुत व्यस्त होने के कारण वह पिछली सभा में नहीं आ सका। तब मैं कुछ और कर रही थी, तो तुरंत जवाब नहीं दिया। मेरे देखने से पहले ही, भाई जेरेमी उस नए सदस्य के संदेश का जवाब दे चुके थे। उसने मुझे समय से जवाब देने की याद दिलाते हुए एक निजी संदेश भी भेजा, और उनके साथ संवाद को लेकर सुझाव भी दिए। उसके संदेश से मैं चिढ़-सी गई, लगा कि वह मुझे तंग कर रहा था, "उनके साथ संवाद का तरीका मैं जानती हूँ, तो फिर तुम मुझे सलाह देने पर क्यों उतारू हो? अगर तुम्हें लगता है कि तुम संगति कर सकते हो, तो खुद ही करो।" मुझे थोड़ा असंतोष भी हो रहा था, "सारा काम मैं ही कर रही हूँ, इस हद तक कि कभी-कभी मैं खाना भी भूल जाती हूँ, फिर भी तुम कहते हो मैं फलाँ-फलाँ काम ठीक से नहीं कर रही हूँ।" जब भाई जेरेमी ने कामकाज की जाँच के लिए फोन किया, तो न मैंने जवाब दिया और न ही उसे संदेश भेजा—मैं उसे भाव नहीं देना चाहती थी। मगर वह मेरे कामकाज के बारे में पूछता रहा और सुझाव देता रहा। एक बार जब एक नए सदस्य ने मेरे भेजे संदेश का जवाब नहीं दिया, तो मैंने उसकी खोज-खबर नहीं ली। भाई जेरेमी ने मुझसे कहा कि मुझे उससे संपर्क करते रहना चाहिए, और यह भी कि मुझे नए सदस्यों के साथ सब्र रखकर उनकी बहुत मदद करनी चाहिए। मैंने उसकी सलाह नहीं माननी चाही। मैं सोच रही थी, "नया सदस्य जवाब नहीं दे रहा है, तो मुझे अब उस पर ज्यादा वक्त नहीं गँवाना चाहिए। इसमें कुछ गलत नहीं है, तो फिर मैं तुम्हारी क्यों सुनूं?" इसलिए मैंने उसकी सलाह नहीं मानी। जिन लोगों ने मुझे कभी जवाब नहीं दिया, मैंने उनकी फिक्र करनी छोड़ दी। धीरे-धीरे, मेरे जिम्मे वाले समूहों के बहुत-से नए सदस्यों ने सभाओं में भाग लेने में दिलचस्पी खो दी। यह देखने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि सलाह न मानने का मेरा रवैया गलत था। मैंने यह भी सोचा कि कैसे मैं भाई जेरेमी की अनदेखी कर उसकी सलाह ठुकरा रही थी, फिर भी वह हमेशा मेरे संदेशों का जवाब देता था। मुझे लगा मुझे उससे माफी माँगनी चाहिए। इसलिए मैंने प्रार्थना की, परमेश्वर से मार्गदर्शन करने और मुझे हिम्मत देने की विनती की। मैं अपने निजी विचारों से मुँह मोड़कर भाई की सलाह मानना चाहती थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : "कुछ लोग अपने कर्तव्य का पालन करते हुए कभी सत्य की तलाश नहीं करते। वे, अपनी कल्पनाओं के अनुसार आचरण करते हुए, महज़ वही करते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, वे हमेशा स्वेच्छाचारी और उतावले बने रहते हैं, और वे बस सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर नहीं चलते। 'स्वेच्छाचारी और उतावला' होने का क्या अर्थ है? इसका मतलब है कि जब तुम्हारा किसी समस्या से सामना हो, तो किसी विचार-प्रक्रिया या खोज-प्रक्रिया के बगै़र, उस तरह का आचरण करना जो तुम्हारे हिसाब से ठीक बैठता हो। किसी और का कहा हुआ कुछ भी तुम्हारे दिल को नहीं छू सकता, न तुम्हारे दिमाग को बदल सकता है। यहाँ तक कि अपने साथ सत्य की संगति किए जाने पर भी तुम उसे स्वीकार नहीं कर सकते, तुम अपनी ही राय पर अड़े रहते हो, जब दूसरे लोग कुछ भी सही कहते हैं, तब तुम नहीं सुनते, खुद को ही सही मानते हो और अपने ही विचारों से चिपके रहते हो। भले ही तुम्हारी सोच सही हो, तुम्हें दूसरे लोगों की राय पर भी ध्यान देना चाहिए, है न? और अगर तुम ऐसा बिलकुल नहीं करते, तो क्या यह अत्यधिक दंभी होना नहीं है? जो लोग अत्यधिक दंभी और स्वच्छंद होते हैं, उनके लिए सत्य को स्वीकार करना आसान नहीं होता। अगर तुम कुछ गलत करते हो और दूसरे यह कहते हुए तुम्हारी आलोचना करते हैं, 'तुम इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहे!' तो तुम जवाब देते हो, 'भले ही मैं इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहा, फिर भी मैं इसे इसी तरह से करने वाला हूँ।' और फिर तुम कोई ऐसा कारण ढूँढ़ लेते हो जिससे यह उन्हें सही लगने लगे। अगर वे यह कहते हुए तुम्हें फटकार लगाते हैं, 'तुम्हारा इस तरह से काम करना दखलंदाजी है और यह कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाएगा,' तो न केवल तुम नहीं सुनते, बल्कि बहाने भी बनाते रहते हैं : 'मुझे लगता है कि यही सही तरीका है, इसलिए मैं इसे इसी तरह करने वाला हूँ।' यह कौन-सा स्वभाव है? (अहंकार।) यह अहंकार है। अहंकारी स्वभाव तुम्हें जिद्दी बनाता है। अगर तुम्हारी प्रकृति अहंकारी है, तो तुम दूसरों की बात न सुनकर स्वेच्छाचारी और अविवेकी ढंग से व्यवहार करोगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझ पर गहरा प्रभाव छोड़ा। मैं कर्तव्य निभा रही थी, मगर सत्य के सिद्धांत नहीं खोज रही थी। मैं बस अपने ही विचारों पर चलकर मनमानी कर रही थी, किसी और की बात मान ही नहीं रही थी। मुझे लगा कि मेरी काबिलियत अच्छी थी, मैं सही ढंग से काम कर रही थी, इसलिए मुझे दूसरों के मार्गदर्शन या सलाह मानने की जरूरत नहीं थी। मैं सच में अड़ियल और दंभी थी। जब मैंने नए सदस्यों के संदेशों की अनदेखी की, तो भाई जेरेमी ने मुझे पहल करने की याद दिलाई, नए विश्वासियों के साथ संवाद के बारे में सलाह दी, लेकिन मैंने उसके सुझाव नहीं माने, मुझे लगा मैं अपना काम जानती थी और उसे मुझे बताने की जरूरत नहीं थी। इस वजह से मैं उससे चिढ़ गई, और जब उसने नए सदस्यों की समस्याओं के बारे में बात करनी चाही, तो मैंने उसके फोन का जवाब नहीं दिया, उसके संदेश नहीं पढ़े। उसने मुझे नए सदस्यों के प्रति स्नेही होने को कहा था, मैं जानती थी कि उनके साथ पेश आने का यह एक जिम्मेदार तरीका था, पर मुझे लगा मैं पहले ही बहुत अच्छे से पेश आ रही थी और ज्यादा संदेश भेजना वक्त बरबाद करना था। मेरे खुद पर ज्यादा भरोसा करने और भाई जेरेमी की सलाह न मानने के कारण, बहुत-से नए सदस्यों ने सभाओं में दिलचस्पी खो दी। इस नतीजे से मैं देख पाई कि मैं वैसी ही थी जैसा परमेश्वर बयान करता है—अड़ियल, अहंकारी, और आत्म-तुष्ट। मैं सिद्धांत नहीं मानती थी, कर्तव्य में मनमानी करती और उतावलापन दिखाती थी, सत्य नहीं खोजती थी। मैं अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रही थी। अगर मैं अपने अहं को दूर रखकर दूसरों की सलाह मान पाती, तो अपना काम इतने बुरे ढंग से न कर रही होती। इस बारे में सोचकर मुझे अपने घमंडी स्वभाव से सचमुच चिढ़ हो गई। इसके बाद से मैंने शपथ ली कि मैं देह-सुख त्याग दूँगी, सत्य पर अमल करूँगी और सुझाव स्वीकार करना सीखूँगी। अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने का प्रयत्न करूँगी। इसके बाद, मैंने भाई जेरेमी के सुझाव मानने की कोशिश की, और उन नए सदस्यों से संपर्क में रहने लगी जो मुझे जवाब नहीं देते थे। मुझे यह देख हैरत हुई कि जल्दी ही उनमें से कुछ ने फिर से सभाओं में आना चाहा, आखिरकार मैंने देखा कि भाई जेरेमी के सुझाव कितने उपयोगी थे, कर्तव्य निभाने का जिम्मेदार तरीका यही था। इसके बाद, जब भी कोई भाई-बहन सुझाव देते, मैं उसे मानने की कोशिश करती।
बाद में, मैंने सुसमाचार फैलाना शुरू किया। बहन मोना हमारे काम की देखरेख करती थी। शुरू-शुरू में सुसमाचार फैलाते समय मैं सच में बहुत घबराई हुई थी, लेकिन मैंने सुसमाचार सुनने वालों के साथ लगन से संगति की। मुझे लगा कि मैं बढ़िया कर रही थी, लेकिन पहला हफ्ता बीत जाने के बाद मुझे अच्छे नतीजे नहीं मिले। बहन मोना ने मुझसे पूछा कि क्या कोई परेशानी है, और याद दिलाया कि सुसमाचार सुनने वालों की धारणाएँ और समस्याएँ सुलझाने के लिए उनसे खूब संवाद करना चाहिए। उसकी बात सुनकर मैं थोड़ा चिढ़कर बोली, "मैं पहले ही संगति कर चुकी हूँ, पर वे मुझे जवाब नहीं दे रहे हैं।" सबूत के तौर पर मैंने उन्हें भेजे अपने संदेशों के स्क्रीनशॉट भी भेज दिए। फिर बहन मोना ने मुझे भाई जोसेफ की परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की गवाही की रेकॉर्डिंग भेजी, ताकि मैं उससे सीख सकूँ। उसने कहा कि वह सुसमाचार फैलाने में बहुत कुशल था और काफी सफल था। यह मेरे लिए बड़ी शर्मिंदगी की बात थी। मुझे लगा कि वह भाई जोसेफ से मेरी तुलना कर रही थी, जिसे झेलना मेरे लिए मुश्किल था। "उसने मुझे वह रेकॉर्डिंग क्यों भेजी? क्या उसकी संगति मेरी संगति से बेहतर थी? उसे सफल बताने के पीछे उसका अर्थ जरूर यह होगा कि मैं बेकार हूँ।" मैंने खुद से कहा, "मेरी संगति अच्छी है, मैं बस कर्तव्य में नई हूँ और सिद्धांतों से परिचित नहीं हूँ।" मुझे लगा कि हर किसी की अपनी निजी शैली होती है, इसलिए मैंने रेकॉर्डिंग सुनी ही नहीं। मैंने बहन मोना को जवाब दिया, "दूसरे लोगों की अपनी शैली है, और मेरी अपनी। अगर तुम्हें दूसरों की शैली पसंद है, तो मैं नए सदस्यों के सिंचन में वापस जा सकती हूँ।" मुझे लगा कि बहन मोना मुझे नीची नजर से देख रही थी, शायद उसे लगता था कि मैं अच्छी सुसमाचार कार्यकर्ता नहीं थी। मैं वाकई उदास और बेचैन थी, और उसकी सलाह नहीं मानना चाहती थी। मैंने आहत होकर उससे पूछा, "प्रचार के हमारे अलग-अलग तरीके हैं। मुझे वह रेकॉर्डिंग भेजने की क्या जरूरत?" इसके बाद मैंने उसे जवाब देना बंद कर दिया।
यह भाँपकर कि मेरी हालत ठीक नहीं थी, बहन मोना ने मुझे परमेश्वर के कुछ वचन भेजे, जिन्होंने मुझे हिलाकर रख दिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "चाहे तुम किसी भी तरह का कर्तव्य निभा रहे हो या किसी भी व्यावसायिक कौशल का अध्ययन कर रहे हो, समय के साथ तुम्हें उसमें बेहतर होना चाहिए। यदि तुम सुधार की कोशिश करते रह सको, तो तुम अपना कर्तव्य निभाने में निरंतर बेहतर होते जाओगे। ... तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, तुम्हें चीजों का अध्ययन करने में अपना दिल लगाने की जरूरत है। अगर तुममें पेशेवर ज्ञान की कमी है, तो पेशेवर ज्ञान का अध्ययन करो। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो सत्य की तलाश करो। अगर तुम सत्य समझ लोगे और पेशेवर ज्ञान प्राप्त कर लोगे, तो तुम अपना कर्तव्य निभाते समय उनका उपयोग करने में सक्षम होगे और परिणाम प्राप्त करोगे। यह सच्ची प्रतिभा और वास्तविक ज्ञान रखने वाला व्यक्ति है। अगर तुम अपने कर्तव्य के दौरान किसी पेशेवर ज्ञान का बिल्कुल भी अध्ययन नहीं करते, सत्य की तलाश नहीं करते, और तुम्हारी सेवा औसत दर्जे की है, तो तुम अपना कर्तव्य कैसे निभा सकते हो? अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए तुम्हें बहुत सारे उपयोगी ज्ञान का अध्ययन करना चाहिए और खुद को कई सत्यों से लैस करना चाहिए। तुम्हें कभी सीखना बंद नहीं करना चाहिए, कभी खोजना बंद नहीं करना चाहिए और कभी दूसरों से सीखकर अपनी कमजोरियाँ सुधारना बंद नहीं करना चाहिए। चाहे दूसरे लोगों की कुछ भी खूबियाँ हों, या वे किसी भी तरह से तुमसे अधिक मजबूत हों, तुम्हें उनसे सीखना चाहिए। और इससे भी बढ़कर तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति से सीखना चाहिए, जो सत्य तुमसे बेहतर समझता हो। कई वर्षों तक इस तरह अपना कर्तव्य निभाने से, एक ओर तो तुम सत्य समझोगे और उसकी वास्तविकताओं में प्रवेश करोगे, और दूसरी ओर, तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन अपेक्षित स्तर का होगा। तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे, जिसके पास सत्य और मानवता है, एक ऐसा व्यक्ति जिसके पास सत्य की वास्तविकता है। यह सत्य का अनुसरण करने से प्राप्त होता है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं देख पाई कि किसी कर्तव्य में आगे बढ़ने और सुसमाचार कार्य में सफल होने के लिए मुझे दूसरों के सुझाव मानना सीखना होगा, उनकी खूबियों और सफल तरीकों से सीख लेनी होगी। यह अत्यंत महत्वपूर्ण था। सत्य की मेरी समझ बहुत उथली थी, मुझमें बहुत-सी खामियां और कमियाँ थीं। कर्तव्य चाहे जो भी हो, मुझे उससे जुड़े सिद्धांत और कौशल सीखने होंगे। अगर मैं दूसरों की सलाह मानने को तैयार रहती, तो अपनी कमियाँ दूर कर सुधार कर पाती। लेकिन मैं घमंडी थी, खुद पर भरोसा करती थी। मैंने अभी-अभी सुसमाचार साझा करना शुरू किया था—मुझे सिद्धांतों की समझ नहीं थी, ज्यादा कामयाब नहीं थी, मगर लगता था कि मैंने अच्छा काम किया था और मैं सलाह मानने को तैयार नहीं थी। बहन मोना के मेरी समस्याओं के बारे में बताने पर भी, मैंने बस उन्हें स्क्रीनशॉट भेजकर साबित करने की कोशिश की कि मैं अपना काम जानती थी, मुझे किसी सलाह की जरूरत नहीं थी। जब उसने मुझे भाई जोसेफ के सुसमाचार साझा करने की रेकॉर्डिंग भेजी, तो मैंने उसे नहीं स्वीकारा, क्योंकि मुझे लगता था कि मेरे विचार अच्छे थे, मुझे दूसरों से सीखने की जरूरत नहीं थी। अपने घमंड के कारण मैं सकारात्मक और आगे आकर दी गई सलाह मानने को तैयार नहीं थी। बहन मोना और भाई जेरेमी के सुझावों के प्रति मेरा रवैया एक ही था, हमेशा प्रतिरोधी, ठुकराने वाला, और अड़ियल। ऐसे रवैये के साथ मुझे किसी भी कर्तव्य में अच्छे नतीजे नहीं मिलते ना ही मैं कोई तरक्की कर पाती। परमेश्वर भी मेरे कर्तव्य को स्वीकृति नहीं देता।
बाद में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अहंकारी और आत्म-तुष्ट होना लोगों का एकदम स्पष्ट शैतानी स्वभाव है, और अगर वे सत्य नहीं स्वीकारते, तो उन्हें शुद्ध करने का कोई तरीका नहीं है। जो लोग अहंकारी और आत्म-तुष्ट स्वभाव के होते हैं, वे मानते हैं कि वे सही हैं, वे जो भी सोचते हैं, बोलते हैं और जो उनकी राय होती है, उनमें उन्हें हमेशा यही लगता है कि उनका दृष्टिकोण और उनकी सोच सही है, कोई और अगर कुछ कहता है तो वह उनकी बात जितना अच्छा या सही नहीं होता। वे अपनी राय पर अड़े रहते हैं, किसी और की नहीं सुनते; भले ही दूसरे जो कह रहे हों, वह सही हो, सत्य के अनुरूप हो, पर वे उसे स्वीकार नहीं करते, वे केवल सुनने का दिखावा करते हैं, लेकिन कुछ ग्रहण नहीं करते हैं। जब काम करने का समय आता है, तो वे अपने तरीके से ही चलते हैं; वे खुद को सही और न्यायसंगत मानते हैं। तुम सही हो सकते हो, न्यायसंगत हो सकते हो या हो सकता है कि तुम बिना समस्या के सही काम कर रहे हो, लेकिन तुम्हारा कौन-सा स्वभाव प्रकट हो रहा है? क्या यह अहंकार और आत्म-तुष्टि नहीं है? अगर तुम अहंकार और आत्म-तुष्टि वाला यह स्वभाव नहीं त्याग पाते, तो क्या इससे तुम्हारे काम पर असर पड़ेगा? क्या यह सत्य पर अमल करने की तुम्हारी क्षमता को प्रभावित करेगा? अगर तुम इस तरह का अभिमानी और आत्म-तुष्ट स्वभाव दूर नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हें आगे चलकर बड़ी असफलताओं का सामना करना पड़ सकता है? निस्संदेह तुम्हें करना पड़ेगा, ऐसा होना अपरिहार्य है। क्या परमेश्वर लोगों में इन चीजों को प्रकट होते हुए देख सकता है? हाँ, बहुत अच्छी तरह देख सकता है; परमेश्वर न केवल मनुष्य के अंतर्मन की निगरानी करता है, बल्कि मनुष्य के हर शब्द और काम पर उसकी नजर रहती है। जब परमेश्वर इन चीजों को तुम्हारे अंदर प्रकट होते देखता है, तो वह क्या कहेगा? परमेश्वर कहेगा, 'तुम जिद्दी हो! जब तुम अपनी गलती को न जानते हुए अपनी बात पर अड़े रहते हो, तो समझ आता है, लेकिन अपनी गलती अच्छी तरह जानते हुए भी अगर तुम अपनी बात पर अड़े रहते हो और पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम अड़ियल और मूर्ख इंसान हो और तुम मुसीबत में हो। चाहे कोई भी सलाह दे, तुम नकारात्मक और विरोधी दृष्टिकोण अपनाकर प्रतिक्रिया देते हो और जरा-भी सत्य नहीं स्वीकारते—अगर तुम्हारे मन में केवल विरोध, संकीर्णता और अस्वीकृति भरी है—तो तुम बेहूदे हो, बेतुके मूर्ख हो! तुमसे निपटना बहुत मुश्किल है।' तुममें ऐसा क्या है जिससे निपटना इतना मुश्किल है? तुम्हारे बारे में कठिनाई यह है कि तुम्हारा व्यवहार चीजों को करने का गलत तरीका या गलत प्रकार का आचरण नहीं है, बल्कि वह एक खास तरह के स्वभाव को उजागर करता है। वह किस तरह के स्वभाव को उजागर करता है? तुम सत्य से ऊब गए हो और सत्य से नफरत करते हो" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि मेरा स्वभाव सचमुच कितना घमंडी और अड़ियल था। हमेशा लगता था कि मुझे चीजों की समझ थी और मैं सही ढंग से काम करती थी। बहन मोना और भाई जेरेमी बार-बार मुझे सलाह देते थे, लेकिन मैंने उसे कभी नहीं माना और खुद को उनके खिलाफ कर ढीठ बन गई। मेरा कर्तव्य सुसमाचार साझा करने और परमेश्वर की गवाही देने का था, तो अगर उनके सुझाव मेरे कर्तव्य में उपयोगी थे, सुसमाचार सुनने वालों के लिए सच्चा मार्ग स्वीकारने में सहायक थे, तो मुझे उन्हें मानकर उन पर अमल करना चाहिए था। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मैं सोचती थी कि मैं हर बात जानती हूँ और सत्य पर संगति करने में समर्थ हूँ, लेकिन दरअसल, सिद्धांतों पर मेरी पकड़ नहीं थी और मैं सुसमाचार साझा करने में अच्छी नहीं थी। मैं अपने कर्तव्य में बिल्कुल कामयाब नहीं थी। जब भाई-बहनों ने मेरी समस्याएँ बताईं या मुझे सुझाव दिए, तो मैंने घमंड और दंभ दिखाया और उन्हें स्वीकार नहीं पाई। कभी-कभी तो मैं प्रतिरोधी और चिड़चिड़ी भी होती थी। यह मेरे सतही व्यवहार की सिर्फ एक गलती नहीं थी, बल्कि इसमें सत्य के प्रति नाराजगी झलकती थी। मेरा प्रतिरोधी और अवज्ञाकारी होना वास्तव में मेरा सत्य को ठुकराना और उससे लड़ना था—यह सत्य से घृणा करना था। तब मैंने समझा कि परमेश्वर लोगों का सिर्फ बाहरी व्यवहार नहीं देखता, वह उनके दिलों के भीतर देखता है, सत्य और अपने प्रति उनका रवैया देखता है। मैं एक विश्वासी थी, कर्तव्य निभाती थी, सभाओं में जाती थी, लेकिन सत्य के अनुरूप सुझाव स्वीकार नहीं करती थी, न ही सकारात्मक बातें मानती थी। मैं सत्य को ठुकराती, उसके खिलाफ लड़ती, और उससे घृणा तक करती थी। मेरे मन में परमेश्वर के लिए कोई श्रद्धा नहीं थी। अगर मैं इस राह पर चलती रहती, तो न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य बुरे ढंग से निभाती, बल्कि आखिर में परमेश्वर को नाराज कर, उसके द्वारा निंदित और दंडित होती, और मेरा परिणाम भी अच्छा नहीं होता। अपनी बदसूरत शैतानी शक्ल देखकर मैं बेचैन और भयभीत हो गई। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि मैं इतनी भ्रष्ट थी, मेरा घमंडी स्वभाव मुझे परमेश्वर के खिलाफ कर देगा। इसका एहसास होने पर मैंने सच में खुद से घृणा की।
अगले दिन, मैंने बहन मोना के भेजे परमेश्वर के कुछ वचन एक समूह में पढ़े, और अभ्यास का एक मार्ग पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "व्यक्ति के जीवन-स्वभाव में परिवर्तन के कई लक्षण होते हैं। पहला लक्षण उन मामलों के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना है, जो सही और सत्य के अनुरूप हैं। चाहे कोई भी राय दे, चाहे वह बूढ़ा हो या जवान, तुम उसके साथ निभा पाओ या नहीं, तुम उसे जानते हो या नहीं, तुम उससे परिचित हो या नहीं, या उसके साथ तुम्हारा संबंध अच्छा हो या बुरा, अगर वह जो कहता है वह सही, सत्य के अनुरूप और परमेश्वर के घर के कार्य के लिए फायदेमंद है, तो तुम किसी भी कारक से प्रभावित हुए बिना उसे सुन पाओगे, अपना पाओगे और स्वीकार पाओगे। सही और सत्य के अनुरूप मामलों को स्वीकारकर उनके प्रति समर्पित होने में सक्षम होना पहला लक्षण है। दूसरा लक्षण है कुछ घटित होने पर सत्य की खोज करने में सक्षम होना; न केवल सत्य को स्वीकारने में, बल्कि सत्य का अभ्यास करने और मामले सँभालने में मनमानी न करने में सक्षम होना। चाहे तुम जिस भी समस्या का सामना कर रहे हो, अगर तुम नहीं समझते, तो तुम खोज सकते हो और यह देख सकते हो कि समस्या कैसे सँभालनी है और कैसे अभ्यास करना है, ताकि वह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप हो और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करे। तीसरा लक्षण यह है कि चाहे तुम जिस भी समस्या का सामना करो, तुम परमेश्वर की इच्छा पर विचार करते हो, और परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल करने के लिए देह के प्रति विद्रोह करते हो। चाहे तुम जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, तुम परमेश्वर की इच्छा पर विचार करते हो, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हो। उस कर्तव्य के लिए परमेश्वर की जो भी अपेक्षाएँ हों, तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए उसे उसकी अपेक्षाओं के अनुसार निभाने में सक्षम हो। तुम्हें यह सिद्धांत समझना चाहिए, और अपना कर्तव्य जिम्मेदारी और ईमानदारी से निभाना चाहिए। परमेश्वर की इच्छा पर विचार करने का यही अर्थ है। अगर तुम नहीं जानते कि किसी विशेष मामले में परमेश्वर की इच्छा पर कैसे विचार किया जाए या परमेश्वर को संतुष्ट कैसे किया जाए, तो तुम्हें खोज करनी चाहिए। तुम लोगों को परिवर्तित स्वभाव के इन तीन लक्षणों की तुलना स्वयं से करनी चाहिए, और देखना चाहिए कि तुममें ये लक्षण हैं या नहीं। यदि तुम्हारे पास इन तीन पहलुओं का व्यावहारिक अनुभव और उनका अभ्यास करने का मार्ग है, तो मामले सँभालते समय सिद्धांतवादी होने का यही अर्थ है। चाहे तुम जिस भी मामले का सामना कर रहे हो या जिस भी समस्या से जूझ रहे हो, तुम्हें हमेशा अभ्यास के सिद्धांतों और इस बात की तलाश करनी चाहिए कि सत्य के प्रत्येक सिद्धांत में कौन-से विवरण शामिल हैं, और सिद्धांतों का उल्लंघन किए बिना अभ्यास कैसे करें। एक बार ये समस्याएँ स्पष्ट हो जाने पर, स्वाभाविक रूप से तुम जान जाओगे कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है)। "जब तुम कोई सत्य नहीं समझते, तब यदि कोई तुम्हें सुझाव देता और बताता है कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है, तो सबसे पहले तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए, और सभी से साथ मिलकर संगति करने के लिए आग्रह करना चाहिए, यह देखना चाहिए कि क्या यह सही मार्ग है, क्या यह सत्य के सिद्धांतों के अनुसार है। यदि तुम आश्वस्त हो जाते हो कि यह सत्य के अनुसार है, तो इसी प्रकार अभ्यास करो; यदि तुम यह तय करते हो कि यह सही नहीं है, तो वैसे अभ्यास न करो। यह इतना आसान है। तुम्हें कई लोगों से सत्य की तलाश करनी चाहिए, सभी की बातें ध्यान से सुननी चाहिए और इसे गंभीरता से लेना चाहिए; बातों को अनसुना मत करो या लोगों का अपमान न करो। यह तुम्हारे कर्तव्य के अंतर्गत आता है, इसलिए तुम्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए। यही सही रवैया और स्थिति है। जब तुम्हारी स्थिति सही होगी, तो तुम सत्य के प्रति ऊबने या शत्रुता रखने का स्वभाव दिखाना बंद कर दोगे; इस तरह से अभ्यास करना तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का स्थान ले लेता है, और यह सत्य का अभ्यास करना है। और इस तरह से सत्य का अभ्यास करने का क्या प्रभाव होता है? (पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन मिलता है।) पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन पाना एक पहलू है। कभी-कभी, मामला बहुत सरल होता है, और अपनी बुद्धि का उपयोग करके इसे पूरा किया जा सकता है; एक बार जब तुम लोगों द्वारा तुम्हें दिए गए सुझाव समझ जाते हो, तो तुम चीजों को ठीक करके सिद्धांत के अनुसार आगे बढ़ते हो। इंसानों को यह बात तुच्छ लग सकती है, लेकिन परमेश्वर की नजर में यह बहुत बड़ी बात है। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? जब तुम इस तरह से अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर देखता है कि तुम सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो, कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्यार करता है, ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य से ऊब गया है, और तुम्हारा हृदय देखने के साथ ही साथ, परमेश्वर तुम्हारा स्वभाव भी देखता है। यह बहुत बड़ी बात है। और जब तुम परमेश्वर के समक्ष कोई कर्तव्य निभाते और काम करते हो, तो तुम जो जीते और प्रकट करते हो वह है सत्य की वास्तविकता जो लोगों में पाई जानी चाहिए; परमेश्वर के सामने, तुम्हारे सभी कार्यों में तुम्हारा रवैया, विचार और स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण है, परमेश्वर इन्हीं की जाँच करता है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी आँखें भी खोल दीं। अगर कोई व्यक्ति मुझे सलाह दे, वह चाहे जो भी हो, अगर वह सही और सत्य के अनुरूप है, तो उसे मानकर उस पर अमल करना चाहिए, और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कर्म करना चाहिए। यह है सत्य को स्वीकारने और उस पर अमल करने का व्यवहार। यही वह मार्ग है जिससे मैं ज्यादा आसानी से परमेश्वर का मार्गदर्शन पाकर अपने कर्तव्य में अच्छे नतीजे हासिल कर सकती हूँ, फिर मेरा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे बदल सकता है। अपने पहले के घमंड और अहंकार के कारण, मैंने अपने कर्तव्य में सत्य के सिद्धांत नहीं खोजे, न ही दूसरों की सलाह मानी, जिससे मेरे कामकाज का नतीजा बुरा रहा। अब मैं परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षाएं समझ गई हूँ। मुझे अपने कर्तव्य में परमेश्वर की इच्छा का पालन करना होगा, सत्य खोजकर सिद्धांतों पर अमल करना होगा, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी होंगी। मैं सुसमाचार फैलाने से संबंधित किसी भी काम में निठल्ली नहीं हो सकती, मुझे इसे गंभीरता से लेना होगा, और सच्चे मार्ग को स्वीकारने के बारे में सुसमाचार सुनने वालों के सवालों का जवाब देना होगा। मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं है, न ही मैं उसके सिद्धांत समझती हूँ, इसलिए मुझे दूसरों से संकेत और मदद की जरूरत है। जब वे मुझे सलाह देते हैं, तो वह सिर्फ कर्तव्य में आगे बढ़ने में मेरी मदद के लिए होती है, ताकि मैं अपनी जिम्मेदारियाँ उठा सकूँ। वे मुझे नीची नजर से नहीं देख रहे हैं, तो मुझे उनके इरादों को तोड़-मरोड़कर नहीं देखना चाहिए। उस दोपहर, अपने बर्ताव के लिए माफी माँगते हुए मैंने बहन मोना को एक संदेश भेजा। वह मुझसे जरा भी नाराज नहीं थी, फिर भी मैंने दोषी महसूस किया, क्योंकि मुझे लगा दोष मेरा था। सब-कुछ मेरे सत्य न स्वीकारने के कारण था; मैं बेहद घमंडी और जिद्दी थी। तब से बहन मोना मुझे जो भी सलाह देती, या दूसरे लोग मेरी कोई भी समस्या बताते, उनके सही और मेरे कर्तव्य में मददगार होने पर, मैं उन्हें मानने की कोशिश करती। कभी-कभी जब सुसमाचार साझा करते समय चुनौतियों का सामना करना पड़ता, तो मैं आगे आकर दूसरों से सुझाव माँगती। ऐसा करने से सुसमाचार साझा करने में मुझे बेहतर नतीजे मिले, और ज्यादा लोग आस्था से जुड़े। एक बार, जब मैंने सुसमाचार सुनने वालों को परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की गवाही दी, तो कुछ लोगों ने इस पर गौर करना चाहा, मगर कुछ ने मेरा संदेश पढ़कर जवाब नहीं दिया, तो मैंने उन पर आगे ध्यान नहीं दिया। बहन मोना ने मुझे ढीली होती देख, सुझाव दिया कि मैं उन्हें इतनी आसानी से न छोडूं। अगर वे मेरे संदेश पढ़ते हैं, मुझे उनके संपर्क में बने रहना चाहिए और उन्हें भीतर लाने का तरीका सोचना चाहिए। इस बार, मैंने उसकी सलाह नहीं ठुकराई। मुझे परमेश्वर का यह वचन याद आया : "व्यक्ति के जीवन-स्वभाव में परिवर्तन के कई लक्षण होते हैं। पहला लक्षण उन मामलों के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना है, जो सही और सत्य के अनुरूप हैं। चाहे कोई भी राय दे, चाहे वह बूढ़ा हो या जवान, तुम उसके साथ निभा पाओ या नहीं, तुम उसे जानते हो या नहीं, तुम उससे परिचित हो या नहीं, या उसके साथ तुम्हारा संबंध अच्छा हो या बुरा, अगर वह जो कहता है वह सही, सत्य के अनुरूप और परमेश्वर के घर के कार्य के लिए फायदेमंद है, तो तुम किसी भी कारक से प्रभावित हुए बिना उसे सुन पाओगे, अपना पाओगे और स्वीकार पाओगे।" मैं जानती थी कि अगर मुझे अपना भ्रष्ट स्वभाव बदलकर अपना कर्तव्य ठीक से निभाना है, तो मुझे दूसरों के सुझाव स्वीकार करना सीखना होगा। मैंने बहन मोना की सलाह पर चलने की कोशिश की, और उन सुसमाचार सुनने वालों की समस्याओं के बारे में पूछते हुए संदेश भेजती रही। मुझे यह देख हैरत हुई कि पहले जिन लोगों ने जवाब नहीं दिया था, वे मुझसे प्रचार में सुनी बातों पर संवाद करने लगे, उन्होंने सच्चे मार्ग पर सक्रियता से गौर करना शुरू कर दिया था। मैं बहुत खुश थी, मैंने खुद देखा कि दूसरों की सलाह मानना कितना लाभकारी है। इस तरह मैंने बहुत-कुछ सीखा। मैंने सुसमाचार साझा करने के बारे में कुछ सत्य ही नहीं जाने, बल्कि सुसमाचार सुनने वालों की मुश्किलों और सवालों को सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करने के तरीके भी जान लिए। अब उनसे संवाद करना मुश्किल नहीं लगता, और मेरा कर्तव्य पहले से बेहतर होता जा रहा है।
इस अनुभव से मैंने जाना कि परमेश्वर के वचन कितने अनमोल हैं, वे खुद को जानने में हमारी मदद कर सकते हैं। जब हम उसके वचनों पर अमल करते हैं, तो हमारा भ्रष्ट स्वभाव बदल सकता है। हालाँकि मैं अब भी थोड़ा घमंड दिखाती हूँ, पर अपने अहं को दूर रखने, सत्य को स्वीकारने, दूसरों की सलाह मानने और ज्यादा सत्य जानने को तैयार रहती हूँ। आशा है परमेश्वर मुझे रास्ता दिखाते हुए मेरी जाँच करता रहेगा।
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।