कैसे मैं अहंकार से मुक्त हुई

27 फ़रवरी, 2022

कीचेन, म्यांमार

जून 2019 में, मैंने अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकारा। एक साल बाद, मैं कलीसिया में अगुआ बन गई। अभ्यास के मौके के लिए परमेश्वर का शुक्रिया कर मैं खुशी से काम में लग गई, काम को जानने-समझने लगी, भाई-बहनों की समस्याओं को हल किया। कुछ समय बाद, नए सदस्य सभाओं में आने, सुसमाचार फैलाने और काम करने लगे। मेरे दूसरे काम के भी अच्छे नतीजे आने लगे, अनजाने में ही मेरा घमंड बढ़ने लगा। मैं सोचने लगी, "अपनी अगुआई में मैं जल्द ही व्यावहारिक समस्याएं हल करने लगी हूँ, भाई-बहन मेरा आदर भी करते हैं। मैं ज़रूर पिछली अगुआ से काफी बेहतर हूँ।"

एक सभा के बाद, एक बहन ने कहा कि उसे कलीसिया में लोगों को स्वीकारने के सिद्धांत समझ नहीं आए, वो मेरी संगति चाहती थी। मेरी साथी बहन झांग भी सुनना चाहती थी, तो मैंने सिद्धांतों पर विस्तार से संगति की और कुछ अहम बातों पर ज़ोर दिया। इस संगति के बाद, कई लोगों ने कहा कि उन्हें सब समझ आ गया, इससे मुझे बहुत खुशी हुई, लगा जैसे इन समस्याओं को हल करना कितना आसान है। धीरे-धीरे, मैं अहंकारी बनने लगी। दूसरों के काम की जांच करने पर, देखा कि कुछ टीम अगुआ अपनी टीम का हाल नहीं समझते, काम में टालमटोल करते हैं, मेरे सब्र का बाँध टूट गया, मैंने उन्हें फटकार लगाई, उनके साथ संगति भी नहीं करना चाहती थी। जब मैंने उन्हें अपने आगे बेबस होते देखा, तो पहले, अपने गुस्से के कारण थोड़ा अपराध बोध तो महसूस हुआ, मगर फिर सोचा, "कलीसिया के काम में बिना सख्ती के अच्छे नतीजे नहीं मिलेंगे।" फिर मैंने आत्मचिंतन नहीं किया और बात आई-गई हो गई।

एक बार सुसमाचार की बैठक से पहले सभा पर चर्चा के लिए मैं सिंचन समूह की अगुआओं से मिली। पहले मैंने उनसे अपने विचार बताने को कहा, पर काफी देर तक किसी ने कुछ नहीं कहा, बस एक बहन ने थोड़ी-बहुत संगति की। उस वक्त, मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने सोचा, वे इतने बेकार हैं कि बैठक की विषयवस्तु भी नहीं बता पाये, मैं उन पर अपना गुस्सा उतारना चाहती थी, पर लगा कि इसका असर शाम की बैठक पर पड़ेगा, तो परमेश्वर से प्रार्थना करके मन को शांत किया। मैंने सोचा, "उनमें से किसी की कोई राय नहीं है, तो पहले मैं संगति करूंगी। बैठक में अगर सभी ने मेरे विचारों के आधार पर संगति की, तो हम कुछ नतीजे हासिल कर पाएंगे।" यह सोचकर, मैंने शांति से अपने विचारों पर विस्तार से संगति की। कहा कि यह बैठक सत्य के कई पहलुओं के बारे में है, तो उन्हें एक के बाद दूसरी बात पर संगति करनी चाहिए। मैंने इसमें यह भी जोड़ दिया, "आपको मेरी बात सही लगे तो इस पर अमल करें, अगर बेहतर सुझाव हों, तो अपने मन से संगति कर सकते हैं।" उस बैठक में, मैंने देखा कि कुछ बहनों ने मेरा निर्देश नहीं माना, दूसरों ने भी खुलकर संगति नहीं की। गुस्से में अपना आपा खोने ही वाली थी, पर मुझे डर लगा कि बैठक में आए नये सदस्य बेबस महसूस करेंगे, तो मैंने अपने गुस्से पर काबू पाया। बैठक के बाद, हमें उम्मीद के मुताबिक नतीजे नहीं मिले, मुझे बहुत बुरा लगा। बैठक खत्म होने पर मैंने कहा, "बैठक के नतीजों पर आप लोगों की क्या राय है? कौन-सी समस्याओं या कमियों पर आपका ध्यान गया।" एक बहन ने कहा कि वो संगति के लिए खुद को शांत नहीं कर पाई, कुछ बहनों ने कहा कि बैठक बहुत छोटी थी, दूसरों ने भी कहा कि उन्हें ज़्यादा समय नहीं मिला...। यह सुनकर मेरा गुस्सा फिर से उबल पड़ा। मैंने सोचा, "मैं शांत मन से गलतियों पर चर्चा करना चाहती थी, पर इन्होंने अपनी समस्याओं पर विचार तो किया नहीं, बहाने भी बनाने लगे। अब सबक सिखाना ही पड़ेगा।" फिर, उनसे निपटने के लिए मैंने उन्हें परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा। कहा कि बैठक की बातों पर चर्चा करते हुए वे निष्क्रिय थे बैठक ठीक से नहीं हुई, तो वे बहाने बनाने लगे, आत्मचिंतन भी नहीं किया। भाई-बहनों की मुँह खोलने की हिम्मत नहीं हुई। फिर मैं सोचने लगी कि कहीं मेरे शब्द बहुत कड़े तो नहीं थे। भाई-बहनों से इस तरह निपटना सही नहीं था। पर ये तो उनकी मदद के लिए था, ताकि वे खुद को जान सकें। मुझे लगा मैंने सही किया है, अपनी समस्याओं पर विचार नहीं किया। फिर, अपने अगुआ को रिपोर्ट में लिखा कि सिंचनकर्मियों में काबिलियत की कमी है, उनमें जिम्मेदारी का भाव नहीं है। मैं चाहती थी वो मुझे अच्छे सिंचनकर्मी भेजें, मैं तो एक बहन को हटाना भी चाहती थी। इस पर, मेरे अगुआ ने संगति में कहा कि वे कुछ ही समय से परमेश्वर के विश्वासी हैं, उनका आध्यात्मिक कद छोटा है। हमें ज्यादा अपेक्षा न करते हुए, संगति करके उनकी मदद करनी चाहिए। कई नये सदस्य ऐसे हैं जिन्होंने हाल ही में परमेश्वर के नये कार्य को स्वीकारा है, तो वे और सिंचनकर्मियों का इंतज़ाम नहीं कर सकते। मैंने बेमन से इसे मान लिया।

बाद में, मैंने देखा कि मेरी साथी, बहन झांग काम के बारे में मुझसे ज़्यादा बातें नहीं करती। वो काम से जुड़ी समस्याएँ मुझे बताना नहीं चाहती थी, सहकर्मियों की बैठकों में, कई उपयाजक ठीक से संगति नहीं करते थे, जिससे मैं चिढ़ जाती। कुछ दिनों बाद, मेरे अगुआ ने मेरी समस्याएँ बताते हुए कहा, "बहन झांग बता रही थीं कि आप बैठकों में लोगों को फटकारती और उनसे निपटती हैं। ऐसे लहजे के कारण लोग बेबस महसूस करते हैं, तो इस पर ठीक से विचार कीजिये...।" मैंने सोचा, "मैं उन्हें उनकी समस्याएँ बता रही थी। वे खुद को नहीं जानते और कहते हैं कि वे बेबस महसूस कर रहे हैं, मैंने तो ऐसा करने को नहीं कहा। अगर ऐसा है तो ये उनकी समस्या है।" बाद में, मुझे ग्लानि हुई यह भी लगा कि भाई-बहनों के साथ सहयोग करते हुए मैंने भ्रष्टता दिखाई थी, जिसके कारण वे बेबस महसूस करने लगे। फिर मैं बहन झांग के साथ खुलकर संगति करने गई और कहा, "मैं जो मुँह में आए बोल देती हूँ, अक्सर गुस्सा हो जाती हूँ। कभी-कभी अपने भाई-बहनों की भ्रष्टता और कमियों से ढंग से पेश नहीं आती, लोगों के साथ बहुत कड़ाई से बात करती हूँ, जिसके कारण वे बेबस महसूस करते हैं।" मुझे हैरानी हुई जब बहन झांग ने कहा, "मुझे लगता है तुम अहंकारी और दंभी हो, जल्दी गुस्सा हो जाती हो, दूसरों को नीचा दिखाना और डराना पसंद करती हो।" यह सुनकर मैं अवाक रह गई। मैंने सोचा, "मानती हूँ मैं अहंकारी हूँ, पर मैंने किसी को नीचा नहीं दिखाया! मैंने अभी तो तुमसे संगति करते हुए खुलकर बात की है, खुद को तो जानती नहीं और मुझमें समस्याएँ निकाल रही हो।" मैं इसे हज़म नहीं कर पाई, तो मैंने भी उसके काम में कुछ समस्याएँ गिना दीं। पर जब बहन झांग ने मेरी बात मान ली तो मैं अवाक रह गई। मुझे शर्मिंदगी और बेचैनी महसूस हुई, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा, "परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि ये सब तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं का हिस्सा है। मेरी बहन ने मेरी समस्याएँ बताईं, पर मैं इसे पहचान या स्वीकार नहीं सकी। परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध करो, आत्मचिंतन में मेरी मदद करो।"

फिर, बहन झांग ने जो मुझे अहंकारी और दंभी कहा था, उस पर मैंने विचार किया, पर तीन दिन तक सोचने के बाद भी कुछ समझ नहीं पाई। तो मैंने बहन झांग को सब साफ-साफ बताने को कहा। उसने कहा, "पिछली बार, बैठक के सारांश के समय, आपने हमसे ये नहीं पूछा कि हमें क्या समस्याएं थीं, बस अचानक हमारा निपटान कर दिया।" मैंने सोचा, "बस इस बात पर तुमने कह दिया कि मैं अहंकारी हूँ, दूसरों को नीचा दिखाना पसंद करती हूँ?" मैंने समझाया, "तुम लोगों से निपटने के पीछे एक वजह थी। पहले, मैं गलतियों के बारे में बताना चाहती थी। मुझे गुस्सा तभी आया जब देखा कि कोई खुद को नहीं जानता।" मुझे लगा बहन झांग इस बात को समझेगी, पर उसने फौरन कहा, "मुझे लगता है आप बहुत अहंकारी हैं। अपने विचारों को सत्य मानती हैं, माँग करती हैं कि सब आपकी सुनें।" यह सुनकर मेरी उलझन और बढ़ गई। सोचा शायद मैंने गलत सुना, तो मैंने फिर से पूछा, उसने साफ-साफ कहा, "तुम ऐसी ही हो।" मुझे डर लगने लगा, सोचा, "उसकी बात कोरी बकवास है! मैं अपने विचारों को सत्य कैसे मान सकती हूँ? मैंने तो कभी ऐसा नहीं सोचा।" मैं जानती थी इस तरह के निपटारे के पीछे परमेश्वर के नेक इरादे थे, तो मैंने फौरन उससे प्रार्थना करते हुए प्रबुद्धता माँगी, ताकि आत्मचिंतन करके खुद को जान सकूँ।

धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। "कुछ लोग कहते हैं कि उनका स्वभाव भ्रष्ट नहीं है, कि वे अभिमानी नहीं हैं। ये कौन-से लोग हैं? ये नासमझ लोग हैं, और ये सबसे मूर्ख और अहंकारी लोग भी हैं। वास्तव में, वे किसी से भी अधिक अभिमानी और विद्रोही हैं; जो व्यक्ति जितना अधिक यह कहता है कि वह भ्रष्ट नहीं है, वह उतना ही अधिक अभिमानी और आत्म-संतुष्ट होता है। दूसरे लोग क्यों खुद को जान पाते और परमेश्वर का न्याय स्वीकार कर पाते हैं, और तुम क्यों ऐसा नहीं कर पाते? क्या तुम कोई अपवाद हो? कोई संत हो? क्या तुम शून्य में रहते हो? तुम यह स्वीकार नहीं करते कि मानवजाति को शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया है, कि लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है, और इसलिए तुम सबसे अधिक विद्रोही और अभिमानी हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अहंकारी स्वभाव ही परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ है')। "मैंने पाया है कि कई अगुआ केवल लोगों को व्याख्यान देने में सक्षम होते हैं, वे केवल उच्च स्थान से लोगों को उपदेश देने में सक्षम होते हैं, और उनके साथ समान स्तर पर संवाद नहीं कर सकते; वे लोगों के साथ सामान्य रूप से बातचीत नहीं कर पाते। जब कुछ लोग बात करते हैं, तो हमेशा ऐसा लगता है मानो वे भाषण दे रहे हों या रिपोर्ट कर रहे हों; उनके शब्द हमेशा केवल अन्य लोगों की अवस्थाओं पर निर्देशित होते हैं, और वे अपने बारे में कभी खुलकर नहीं बताते, वे कभी अपने भ्रष्ट स्वभावों का विश्लेषण नहीं करते, केवल अन्य लोगों के मुद्दों का विश्लेषण करते हैं, ताकि दूसरे लोग जान सकें। और वे ऐसा क्यों करते हैं? उनके द्वारा ऐसे उपदेश दिए जाने, ऐसी बातें कहे जाने की संभावना क्यों होती है? यह इस बात का प्रमाण है कि उन्हें आत्मज्ञान नहीं होता, उनमें समझ की बहुत कमी होती है, वे बहुत अहंकारी और दंभी होते हैं। उन्हें लगता है कि अन्य लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को पहचानने की उनकी क्षमता साबित करती है कि वे अन्य लोगों से ऊपर हैं, कि वे लोगों और चीजों को दूसरों से बेहतर पहचानते हैं, कि वे अन्य लोगों की तुलना में कम भ्रष्ट हैं। दूसरों का विश्लेषण करने और उन्हें व्याख्यान देने में सक्षम होना, लेकिन खुद को उजागर करने में अक्षम होना, अपने भ्रष्ट स्वभाव को उजागर या विश्लेषित न करना, अपना असली चेहरा न दिखाना, अपनी प्रेरणाओं के बारे में कुछ न कहना, गलत काम करने पर केवल अन्य लोगों को व्याख्यान देना—यह है अपने को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना और खुद को ऊँचा उठाना" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'राज्य के युग में परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं के बारे में वार्ता')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत को स्पष्ट किया। शैतान ने पूरी मानवजाति को भ्रष्ट कर दिया है, सबमें शैतानी स्वभाव भरा है। मैं किसी शून्य में नहीं रहती। शैतान ने मुझे भी भ्रष्ट किया है। तो मुझमें भी अहंकारी स्वभाव है। परमेश्वर की इच्छा से मेरी बहन ने अहंकारी होने और दूसरों को नीचा दिखाने पर मेरा निपटान किया। मुझे लगा मेरा निपटान करते वक्त उसका लहजा बहुत सख्त था। मैं बहुत असंवेदनशील थी, खुद को बिल्कुल नहीं जानती थी। परमेश्वर के वचन कहते हैं, अगर अगुआ सत्य पर संगति और दूसरों को पोषण न दे सकें, विश्लेषण करके खुद को न जान सकें, बल्कि उपदेश देते हुए दूसरों को फटकार लगाएं, नीचा दिखाएं, हमेशा खुद को दूसरों से बेहतर समझें, तो वे सबसे अहंकारी और विद्रोही लोग हैं। मैं समझ गई कि अपने काम में मेरा बर्ताव ऐसा ही था। जब मेरी ज़िम्मेदारी वाला काम सफल हुआ, या भाई-बहन मुझसे सहमत हुए, तो मैं खुद की सराहना करने लगी, लगा जैसे मैं भाई-बहनों से बेहतर हूँ। उन्हें धीमी रफ़्तार से काम करते देख मैंने सोचा वे ज़िम्मेदारी नहीं उठा रहे, तो मुझे गुस्सा आ गया, उन्हें फटकार लगाई और दोषी ठहराया, मुझे वे बिल्कुल बेकार लगे, मैं उस बहन को हटाना चाहती थी जिसमें लगा कि काबिलियत नहीं है, यह भी नहीं देखा कि वो अपने काम में कितनी समर्थ है। बैठक की बातों पर चर्चा करते वक्त भाई-बहन खामोश थे, पर उनकी समस्या जानने के बजाय, मैंने उन्हें खास तरीके से संगति करने पर मजबूर किया, तो वे बेबस महसूस करने लगे। बैठक में, जब उन्होंने मेरे हिसाब से संगति नहीं की, तो गुस्सा में आकर मैं उनसे निपटी। उनकी समस्याएँ बताने पर भी, जब उन्होंने नहीं पहचाना, तो मन-ही-मन उनकी निंदा की, नीचा दिखाया, सख्ती से उनका निपटान किया। ये नहीं सोचा कि उनका आध्यात्मिक कद इस लायक है भी या नहीं। अगुआ ने बताया, बहन झांग मेरे आगे बेबस महसूस करती थी, मुझे चिंतन करने को कहा, मगर मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया, सोचा मैंने बहन झांग का निपटान किया ताकि वो खुद को समझ सके। बहन झांग ने एक बार बताया था, एक नया सदस्य बैठकों में मेरी मौजूदगी में संगति नहीं करना चाहता था। उस वक्त मैंने ध्यान नहीं दिया। अब समझ आया कि मेरे भाई-बहन मुझसे बेबस महसूस करते थे, मुझे अपनी समस्या पता नहीं थी, पर ज़िम्मेदारी न उठाने के लिए मैंने उनसे घृणा की। मैं वाकई बहुत अहंकारी थी! भाई-बहनों को अपने बराबर नहीं समझा, न ही उनकी मुश्किलों और कमियों को समझने या उन पर सोचने की कोशिश की। इसके बजाय, उन्हें नीचा दिखाते हुए फटकार लगाई। जब परमेश्वर ने मेरी काट-छाँट, निपटारे और समझाने के लिए भाई-बहनों का इस्तेमाल किया, तो मैं खुद को नहीं जानती थी, मैंने खुद को बचाने और समझाने की कोशिश की। सोचा, मैं तो बस सीधी बात करती हूँ, गुस्सा करती हूँ। लोगों की नीचा नहीं दिखाती, उन्हें फटकारती नहीं हूँ। दूसरों से खुद को जानने के लिए कहकर मैंने अपनी ही भ्रष्टता पर विचार नहीं किया। हमेशा सोचती थी मैं ही सही हूँ, गलती तो दूसरों की है। मैं बहुत अहंकारी और विवेकहीन थी। तब जाकर मुझे परमेश्वर की कृपा और सहनशीलता की समझ आई। उसने मेरी समस्याएँ बताने के लिए बार-बार बहन झांग का इस्तेमाल किया, ताकि मैं खुद को जान सकूँ, अपने पापों को कबूल कर पश्चाताप कर सकूँ।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हें खुद को अन्य लोगों और परमेश्वर से श्रेष्ठ समझने के लिए मजबूर करेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुम्हारे विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजें। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। परमेश्वर के वचनों से समझ आया, अहंकारी और दंभी प्रकृति के लोग खुद का गुणगान करते हैं, दूसरों को नीचा दिखाते हैं, खुद को सही मानते हैं। वे अपने विचारों को सत्य मानते हैं, कभी भी कुकर्म या परमेश्वर का विरोध कर सकते हैं। मैंने अपनी पिछली बातचीत याद की : मैंने अपने अनुभव की चर्चा नहीं की, अपनी भ्रष्टता का विश्लेषण नहीं किया, ताकि वे खुद को जान सकें। नीचा दिखाते हुए उनका विश्लेषण किया, उन्हें उजागर किया। जब उन्हें बात समझ नहीं आई, तो गुस्सा में, उनका अनादर करते हुए निपटान किया, जिससे वे बेबस महसूस करने लगे। काम में रुकावट डालने और कलीसियाई जीवन को प्रभावित करने वाली कोई समस्या होने पर वे मुझसे कह नहीं पाते थे। इन सबकी वजह मेरी अहंकारी प्रकृति थी। मैंने सोचा, कैसे परमेश्वर लोगों को पोषण देने और हमारी भ्रष्टता उजागर करने के लिए सत्य व्यक्त करता है। वो हमें स्वीकारने या अमल करने पर मजबूर नहीं करता। धीरज रखकर लोगों का मार्गदर्शन करता है, अपने वचन और कार्य का अनुभव करने के रास्ते दिखाता है। अनुभव से लोग धीरे-धीरे खुद को जान पाते हैं, सत्य पर अमल करके जीवन में आगे बढ़ते हैं। लोगों से पेश आने के लिए भी परमेश्वर के सिद्धांत हैं। परमेश्वर लोगों के आध्यात्मिक कद और काबिलियत के अनुसार बर्ताव करता है। हम जो कर सकते हैं उससे अधिक अपेक्षा नहीं करता। वह हमें ऊँचा या नीचा नहीं समझता। मैं तो बस एक मामूली सृजित प्राणी हूँ, संगति में थोड़ी समझ साझा कर पाती हूँ, तो लोगों से अपेक्षा की कि वे मेरी बात सुनें। मैंने लोगों के अलग हालात पर नहीं सोचा, हर किसी से ऊँची अपेक्षाएं रखी। जब लोग मेरे मानकों पर खरे नहीं उतरे, तो मैंने उनसे घृणा की, नीचा दिखाया, उनके हटा दिए जाने की उम्मीद की। अपने काम के सार पर मैंने चिंतन किया। मैंने अपने विचारों को सत्य मान लिया था, समय या जगह की परवाह किए बिना अपने विचारों को सही बताती थी, भाई-बहनों से मेरी बात सुनने को कहती थी। अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी। क्या ये परमेश्वर का विरोध नहीं था? मैं अपने अहंकारी और दंभी प्रकृति के काबू में थी, मेरे कुकर्मों से परमेश्वर का विरोध हुआ, मेरे भाई-बहनों को नुकसान पहुंचा। मैं बहुत बुरी थी, परमेश्वर से दंड पाने लायक थी! एहसास होने पर, मैंने परमेश्वर का आभार माना कि उसने सही समय पर बहन के ज़रिए आत्मचिंतन का मौका देकर मेरी रक्षा की, गुमराह होने से बचाया। अब पता चला कि मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं थी। मैं अब भी अपने विचारों और समझ को सत्य मान सकती थी, सबसे अपनी बात मनवा सकती थी। मैं बहुत अहंकारी थी, मुझे खुद की ज़रा-भी समझ नहीं थी।

फिर, एक बहन ने परमेश्वर के कुछ वचन भेजे। "केवल वे ही अगुआई कर सकते हैं जिनके पास सत्य वास्तविकता है" के पहले अंश से है। "अगर कलीसिया के एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर की उचित गवाही देने में अगुआई करनी है, तो सबसे महत्वपूर्ण बात लोगों का परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और सत्य की संगति करने में अधिक समय व्यतीत करने में मार्गदर्शन करना है, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग मनुष्य को बचाने में परमेश्वर के उदेश्यों और परमेश्वर के कार्य के प्रयोजन का गहरा ज्ञान प्राप्त कर सकें, और परमेश्वर की इच्छा और मनुष्य के लिए उसकी विभिन्न आवश्यकताएँ समझ सकें, और इस प्रकार उन्हें सत्य को समझने दें। ... अगर तुम केवल लोगों से निपटते हो और उन्हें व्याख्यान देते हो, तो क्या तुम उन्हें सत्य समझा सकते हो और उसकी वास्तविकता में प्रवेश करा सकते हो? जिस सत्य की तुम संगति करते हो, अगर वह वास्तविक नहीं है, अगर वह सिद्धांत के शब्दों के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम कितना भी उनसे निपटो और उन्हें व्याख्यान दो, उसका कोई लाभ नहीं होगा। क्या तुम्हें लगता है कि लोगों का तुमसे डरना और जो तुम उनसे कहते हो वह करना, और विरोध करने की हिम्मत न करना, उनके सत्य को समझने और आज्ञाकारी होने के समान है? यह एक बड़ी गलती है; जीवन में प्रवेश इतना आसान नहीं है। कुछ अगुआ एक मजबूत छाप छोड़ने की कोशिश करने वाले एक नए प्रबंधक की तरह होते हैं, वे अपने नए प्राप्त अधिकार को परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर थोपने की कोशिश करते हैं ताकि हर व्यक्ति उनके अधीन हो जाए, उन्हें लगता है कि इससे उनका काम आसान हो जाएगा। अगर तुममें सत्य की वास्तविकता का अभाव है, तो तुम्हारे असली रंग जल्दी ही सामने आ जाएँगे, तुम्हारा असली अध्यात्मिक कद उजागर हो जाएगा, और तुम्हें हटाया भी जा सकता है। कुछ प्रशासनिक कार्यों में थोड़ा निपटान, काट-छाँट और अनुशासन स्वीकार्य है। लेकिन अगर तुम सत्य प्रदान करने में असमर्थ हो—अगर तुम केवल लोगों को व्याख्यान देने में सक्षम हो, और बस अचानक आगबबूला हो जाते हो—तो यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है जो प्रकट हो रहा है, और तुमने अपनी भ्रष्टता का बदसूरत चेहरा दिखा दिया है। जैसे-जैसे समय बीतेगा, परमेश्वर के चुने हुए लोग तुमसे जीवन का प्रावधान प्राप्त करने में असमर्थ हो जाएँगे, वे कुछ भी वास्तविक हासिल नहीं करेंगे, और इसलिए तुमसे घृणा करेंगे और तुम्हें ठुकरा देंगे, और तुमसे दूर चले जाएँगे" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर कहता है कि अगुआ होने के नाते, हम समस्या सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करना सीखें सत्य समझने में लोगों का मार्गदर्शन करें, लोगों को न फटकारें, छोटी बात पर उनसे न निपटें, अपनी ताकत दिखाकर उन्हें न डराएँ। ये झूठे अगुआ के कर्म हैं। परमेश्वर ने अगुआ का कर्तव्य देकर मुझे ऊँचा उठाया, पर मैंने कोई व्यावहारिक काम नहीं किया, सार्थक तरीके से अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश का लाभ नहीं किया, बिना सोचे-समझे भाई-बहनों को फटकारा, उनका निपटान किया, जिससे वे मेरे आगे बेबस महसूस करने लगे, डरकर मुझसे दूर रहने लगे। मुझे पिछले महीने बर्खास्त हुए झूठे अगुआ की याद आई, क्योंकि उसने व्यावहारिक काम नहीं किया, अपने भाई-बहनों के काम से जुड़ी मुश्किलें हल नहीं कर पाया, वह बिना सोचे-समझे लोगों का निपटान करता, खराब काम करने के आरोप लगाता, जिससे लोग रोने लगते, उसके आगे बेबस महसूस करते। वे कमज़ोर और नकारात्मक हालात में जी रहे थे, उन्हें लगता था वे कर्तव्य नहीं निभा सकते। इस झूठे अगुआ के कर्मों की वजह से परमेश्वर के घर के कार्य और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को गंभीर नुकसान पहुंचा। क्या मैं भी इस झूठे अगुआ जैसी नहीं थी? मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं थी, मैंने सत्य खोजने या स्वभाव बदलने पर ध्यान नहीं दिया। मैंने बिना सोचे-विचारे अपने अहंकारी स्वभाव से लोगों को फटकारा और उनका निपटान किया। मैं झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की राह चल रही थी। ऐसा करते रहना खतरनाक था।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा। "अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर के वचनों की संगति करने में सक्षम होना चाहिए, परमेश्वर के वचनों से अभ्यास करने के लिए मार्ग खोजने में सक्षम होना चाहिए, उन्हें परमेश्वर के वचनों को समझने और उन्हें अपने दैनिक जीवन में अनुभव करने और उनमें प्रवेश करने में लोगों की अगुआई करनी चाहिए। उन्हें परमेश्वर के वचनों को अपने दैनिक जीवन में शामिल करने में सक्षम होना चाहिए, और जब उनके सामने कोई समस्या आए, तो उन्हें परमेश्वर के वचनों का उपयोग करके उसे हल करने में सक्षम होना चाहिए; उन्हें इसलिए भी परमेश्वर के वचनों का उपयोग करने में सक्षम होना चाहिए कि वे अपने कर्तव्य का पालन करते हुए विभिन्न कठिनाइयों का सामना कर सकें" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'नकली अगुआओं की पहचान करना (1)')। अगुआओं और कर्मियों को अक्सर सत्य और सिद्धांतों पर संगति करनी चाहिए, ताकि वे सत्य समझने और उसकी वास्तविकता में प्रवेश करने की राह दिखा सकें। उन्हें लोगों के काम में आने वाली समस्याओं और मुश्किलों को समझकर उन्हें हल करना चाहिए, ताकि लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए अपने वास्तविक जीवन में सत्य पर अमल करके आगे बढना सीख सकें। यही अगुआओं और कर्मियों का काम है। यह वैसा नहीं है जो मैंने किया, मैं लोगों की मुश्किलें नहीं समझ पाई, समस्याएं हल करने के लिए सत्य पर संगति नहीं की, हमेशा तिरस्कार का रवैया अपनाकर आरोप लगाती, उनसे मांग करती। काट-छाँट और निपटान के भी अपने सिद्धांत हैं। सिद्धांत के शब्दों से लोगों से निपट नहीं सकते, अपने विचारों या गुस्से के आधार पर दूसरों को नीचा दिखाकर फटकार नहीं सकते। काट-छाँट और निपटान के लिए हालात और पृष्ठभूमि को समझना ज़रूरी है। अगर किसी के काम से परमेश्वर के घर के काम में गड़बड़ी या रुकावट आती है, भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को नुकसान होता है, पर बार-बार संगति करने से भी वह नहीं बदलता है, तो उसकी काट-छाँट और निपटान ज़रूरी है। कुछ लोग काम में अक्सर लापरवाही करते हैं, संगति के बाद भी नहीं बदलते, तो उनकी काट-छाँट और निपटान किया जाना चाहिए। जब लोग जानबूझकर पाप करते हैं या सत्य जानकर भी अमल नहीं करते, तो इसकी भी काट-छाँट और निपटान ज़रूरी है। दूसरों का निपटान करते समय, हमें समस्या के सार को ठीक से जानकर सत्य पर संगति करनी चाहिए, ताकि लोग जान सकें कि उनकी गलती क्या है, वे किस भ्रष्ट स्वभाव के काबू में हैं, उनके कर्मों का सार क्या है। काट-छाँट करने, निपटाने और लोगों की भ्रष्टता उजागर करने के समय, हमें भाई-बहनों को अपने बराबर की स्थिति में रखना होगा। हम खुद को अलग नहीं कर सकते, मानो हम भ्रष्ट न हों। मैं लोगों की काट-छाँट और निपटान के सिद्धांतों को नहीं समझती थी। भाई-बहनों को काम में लापरवाही और टालमटोल करते देख, उनकी मदद के लिए सत्य पर संगति करने के बजाय, उन्हें फटकार लगाई और उनसे निपटी। इसी वजह से, खुद को जानने के बजाय, वे मेरे सामने बेबस महसूस करने लगे। मेरे अगुआ ने बताया था कि कुछ भाई-बहनों ने हाल ही में काम शुरू किया है, उन्हें कुछ सिद्धांतों की समझ नहीं है, ऐसे में कुछ गलतियां और भटकाव होना लाज़मी है, इन हालात में मुझे उनसे निपटना नहीं चाहिए। इसके बजाय, उनकी कमियों और समस्या को समझकर, प्रेम से सहयोग और मदद करनी चाहिए, सत्य के सिद्धांत समझने में मार्गदर्शन करना चाहिए। अगर मैंने उनकी मदद करते हुए राह दिखाई होती, और वे सत्य पर अमल करना जानकर भी पश्चाताप करके नहीं बदलते, तो मुझे उनके साथ बराबरी से पेश आते हुए समस्याओं का सार बताना चाहिए था, परमेश्वर के वचनों और सिद्धांतों के अनुसार खुद को जानने में उनकी मदद करनी चाहिए थी। ऐसी काट-छाँट और निपटान ही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, इससे परमेश्वर के घर के कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में मदद होती है। सत्य के अनुसार अभ्यास करने से ही लोगों को लाभ होता है।

एक दिन, मेरे अगुआ ने किसी काम की स्थिति जानने के लिए ग्रुप में मैसेज भेजा, मगर मेरी साथी और टीम अगुआओं ने समय पर जवाब नहीं दिया। मैंने सोचा, "भाई-बहनों ने तुरंत जवाब क्यों नहीं दिया? वे अपने काम में बहुत निष्क्रिय हैं।" हमारी बैठक के समय मैंने सवाल उठाया, तो हर कोई खामोश रहा, अनायास ही मैंने उन पर काम में बहुत धीमे और लापरवाह होने का आरोप लगा दिया। मेरी बात खत्म होने पर भी वे चुप बैठे रहे, मैंने सोचा, "क्या मैंने फिर से अपना अहंकारी स्वभाव दिखाया और भाई-बहनों को बेबस महसूस कराया?" फिर, मैंने अपने कंप्यूटर पर नज़र डाली तो पता चला कि संगति के वक्त मेरा माइक्रोफ़ोन बंद था। तब मुझे समझ आया कि परमेश्वर मेरी रक्षा करते हुए भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाने से मुझे रोक रहा था। मैंने मन-ही-मन परमेश्वर का धन्यवाद किया, पर मुझे काफी पछतावा भी हुआ, फिर से अहंकार दिखाने को लेकर खुद से नफ़रत हुई। मैंने माइक्रोफ़ोन चालू करके, शांत भाव से पूछा कि उन्होंने समय पर मैसेज का जवाब क्यों नहीं दिया। तब पता चला कि मेरी साथी के पास इंटरनेट नहीं था, दूसरे लोगों को सिद्धांतों या हालात की समझ नहीं थी, तो उन्हें जवाब समझ नहीं आया। मैंने धीरज रखकर, सिद्धांत अनुसार काम करने के तरीके पर उनके साथ संगति की, फिर काम की स्थिति के बारे में अपने अगुआ को रिपोर्ट किया। इस तरह से अमल करने पर, मुझे थोड़ा सुकून महसूस हुआ।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। "परमेश्वर द्वारा इंसानों पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद, उनमें समझदारी का जो बुनियादी गुण होना चाहिए वह है अहंकार के साथ बात न करने का ध्यान रखना। उन्हें अपना रुतबा बहुत छोटा समझना चाहिए, 'जमीन पर पड़े गोबर के समान,' और ऐसी बातें कहनी चाहिए जो सत्य हों। विशेष रूप से परमेश्वर की गवाही देते हुए, अगर तुम कोई खोखली या बड़ी बात किए बगैर, कोई काल्पनिक झूठ बोले बगैर, अपने हृदय से कोई गहरी बात कह सकते हो, तो फिर तुम्हारा स्वभाव बदल चुका होगा, और परमेश्वर द्वारा जीत लिए जाने के बाद तुममें यही बदलाव आना चाहिए। अगर तुम इतनी भी समझदारी नहीं रख सकते हो, तो तुम्हारे अंदर एक मनुष्य जैसी कोई बात नहीं है। भविष्य में जब सभी राष्ट्र और क्षेत्र परमेश्वर द्वारा जीत लिए जाएँगे, तो परमेश्वर के गुणगान के लिए एकत्र भारी भीड़ में तुम्हारे द्वारा फिर से अहंकारपूर्वक कार्य करना आरंभ कर देने परतुम हटाकर फेंक दिए जाओगे। अब से मनुष्य को हमेशा उचित व्यवहार करना चाहिए, अपनी हैसियत और स्थिति को पहचानना चाहिए, और अपने पुराने रंग-ढंग में नहीं लौटना चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि मैं एक मामूली सृजित प्राणी हूँ, जिसे गहराई तक भ्रष्ट किया गया है, मुझे भाई-बहनों को अपने बराबर समझकर अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। समझदार होने का यही मतलब है। अब, कलीसिया के काम की जानकारी लेते हुए, मैं जल्दी गुस्सा नहीं होती, भाई-बहनों को नहीं फटकारती। उनकी परेशानियों को समझने का प्रयास करती हूँ, सभी के साथ मिलकर सत्य खोजती हूँ। धीरे-धीरे, मैं और भाई-बहन तालमेल के साथ सहयोग करने लगे। मुझमें आये ये बदलाव परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का नतीजा हैं, मुझे बचाने के लिए, मैं परमेश्वर की आभारी हूँ।

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