अपने अहंकार से जागना

27 फ़रवरी, 2022

क्षीयंगक्षिण, इटली

मैंने 2015 में सुसमाचार फैलाने का काम शुरू किया। परमेश्वर के मार्गदर्शन से जल्द ही सफलता मिली। कुछ धार्मिक धारणाओं से ग्रसित ऐसे लोग भी मिले जो अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को जाँचना नहीं चाहते थे। तो मैं परमेश्वर में विश्वास रखकर सत्य पर संगति करता और वे तुरंत स्वीकार लेते। थोड़ा-बहुत हासिल करते ही, मुझे लगने लगा कि मैं काबिल हूँ, मेरी प्रतिभा का कोई सानी नहीं है।

तब भाई लियु और मैं अलग-अलग कलीसिया का सिंचन कार्य सँभालने लगे। मेरी कलीसिया बड़ी थी जिसमें काफी सदस्य थे, जब मैंने शुरू किया, तो मैं हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करता, भाई-बहनों से चर्चा करता था। जल्दी ही हर कार्य सुचारु रूप से होने लगा। कलीसिया के अधिकांश सदस्य सामान्य रूप से सभाओं में भाग लेते थे और बड़े सक्रिय ढंग से काम करते थे। मुझे मन ही मन खुद से प्रसन्न था। मैं सोच रहा था इतनी बड़ी कलीसिया और इतने सदस्य होने के बावजूद परिणाम मिल रहे हैं, मुझमें कुछ काबिलियत तो है। मैंने देखा कि भाई लियु का सिंचन कार्य कुछ खास अच्छा नहीं चल रहा था, उसकी कलीसिया के कुछ कर्मियों को बदलने की ज़रूरत थी, और कुछ की स्थिति नकारात्मक होने के कारण, उन्हें संगति की आवश्यकता थी। मैंने उसे थोड़ा हिकारत से देखा। मुझे लगा कि मैं बेहतर कर सकता हूँ। उसके बाद मैं उसके काम में हाथ बंटाने लगा, मैं सभाओं में गलतियों को समझाता, लोगों की नकारात्मक अवस्था से निकालने के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति करता, ज़रूरी होने पर सिंचन कार्य वालों के काम में बदलाव करता। इस तरह काम में तेज़ी आने लगी। मुझे लगा कि मैंने हमारी समस्याओं का समाधान जल्दी ही कर लिया, प्रतिभाशाली होने का यकीन और बढ़ गया। मेरा अहंकार बढ़ने लगा। काम का सारांश निकालते समय, मैंने लोगों में बहुत-सी कमियाँ और गलतियाँ देखीं और उन्हें डाँटने लगा। मैंने कहा, "सिंचन कार्य में कितना विलंब हो गया है। क्या कोई भी परमेश्वर की इच्छा पूरी करना और कार्य करना चाहता है? आप सब लोग बहुत गैरजिम्मेदार हैं। अच्छी बात यह है कि पिछले कुछ हफ्तों में थोड़ी प्रगति हुई है, वरना इस देरी का जिम्मा कौन लेता?" उस समय किसी ने एक शब्द नहीं कहा। मैं सोचने लगा कि मैंने कहीं ज़्यादा सख्ती तो नहीं दिखा दी। लेकिन फिर सोचा बिना सख्ती दिखाए वे परवाह नहीं करेंगे।

मैंने उन्हें हिकारत से देखा, उनकी गलतियों के लिए उनसे निपटा, कहा कि जैसा मैंने कहा है वैसा ही करो। धीरे-धीरे उन्होंने मुझसे किनारा कर लिया, काम के अलावा वे मुझसे और कोई बात नहीं करते थे। कभी-कभी वे आपस में हंसते-खिलखिलाते थे, लेकिन मुझे देखते ही तितर-बितर हो जाते, मानो मुझसे डरते हों। चूंकि वे गड़बड़ करने और आलोचना से डरते थे, इसलिए कुछ बात हो तो वे मेरे फैसले का इंतज़ार करते। यह स्थिति देखकर मुझे भी थोड़ी बेचैनी हुई। मैं सोचने लगा कि कहीं मैं स्वेच्छाचारी और अधिकारवादी तो नहीं हो रहा। लेकिन फिर सोचा कि मुझे काम में दृढ़ रहने की ज़रूरत है। अगर मैंने थोड़ी सख्ती नहीं दिखाई तो कोई मेरी नहीं सुनेगा। इस तरह काम कैसे होगा? सीधे समस्याओं पर बात करने का अर्थ है कि मुझमें धार्मिकता की समझ है। उसके बाद तो मेरा अहंकार और भी बढ़ गया, मैं चाहता था कि हर छोटी-बड़ी चीज़ में मेरी राय ही अंतिम हो। अकेले मैं ही सारे काम की व्यवस्था संभाल रहा था क्योंकि मुझे टीम में अपने बराबर कोई लगता ही नहीं था। चर्चा की भी तो होता वही था जो मैं चाहता था, तो मुझे लगा कि मैं ही फैसला ले लूँ तो समय बचेगा। अगर कोई अगुआ किसी सभा में आता, तो भी मैं परवाह न करता, सोचता, "अगर आप अगुआ हैं तो क्या हुआ? क्या आप सुसमाचार साझा कर गवाही दे सकते हैं? क्या आप यह काम कर सकते हैं? सभाओं में सत्य पर संगति करने से व्यावहारिक कार्य नहीं होता। आप मेरी बराबरी नहीं कर सकते।" तो जब अगुआ मुझसे पूछते कि काम कैसा चल रहा है, तो मन होता, तो मैं कुछ बातें बताता, वरना गोल कर जाता। मुझे लगता क्या ज़रूरत है इस बारे में बात करने की, क्योंकि आखिर में सब करना तो मुझे ही है। अगुआ ने मेरे अहंकारी होने की आलोचना की, कहा कि मैं हमेशा अपनी बात मनवाता हूँ, भाई-बहनों के साथ अच्छे से काम नहीं करता। अपनी आलोचना सुनकर मैंने माना कि मैं अहंकारी हूँ, लेकिन इस पर खास ध्यान नहीं दिया। मुझे लगा कि मुझमें अच्छी क्षमता है और मैं काबिल हूँ, मैं काम अच्छे से करता हूँ, कोई मुझे अहंकारी कहता है तो कहता रहे। फिर कलीसिया के अधिकांश कार्यों की अगुआई भी मैं ही करता था, वे क्या कर लेंगे—मुझे निकाल देंगे? मैंने अगुआ के फीडबैक पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया, अपना काम पूरी तरह से अपनी मर्ज़ी से करता रहा। एक बार, एक नई कलीसिया में सिंचन के लिए लोग चाहिए थे, मैंने बिना किसी से बात किए, उनकी मदद के लिए एक बहन के जाने का इंतज़ाम कर दिया। मुझे लगा कि आम तौर पर वे मेरे सुझाव से सहमत होते हैं, इसलिए मेरे अकेले का निर्णय लेना काफी है। लेकिन मुझे हैरानी हुई जब पता चला कि उस बहन को सत्य की अच्छी समझ नहीं है, वह व्यावहारिक कार्य भी नहीं कर सकती जो एक बड़ा व्यवधान था। लेकिन फिर भी मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। मेरे भयंकार अहंकार के कारण, सत्य के सिद्धांत न खोज पाने और लोगों को काम में सिद्धांतों का पालन करने की राह न दिखा पाने की वजह से, हर कोई बिना किसी वास्तविक परिणाम के बस इधर-उधर भागने में व्यस्त था। इससे वाकई हमारी प्रगति में बाधा आई। लेकिन फिर भी, मुझे खुद में कोई समस्या नहीं दिखी, बोझ न उठाने के लिए मैं औरों को ही दोष देता रहा। कुछ समय तक तो, लगा कि मैं अच्छे से काम करा रहा हूँ, लेकिन फिर मुझे पूर्वाभास हुआ कि जैसे कोई बड़ी गड़बड़ होने वाली है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि सभाओं या प्रार्थनाओं में क्या कहूँ, कार्य बैठकों में मुझे नींद आने लगती थी, किसी चीज़ में अंतर्दृष्टि नहीं रही। दिमाग में धुँधलापन महसूस होने लगा, कुछ करने को ताकत नहीं बची, मन करता था कि आराम करूँ। मुझे एहसास हुआ कि मैंने पवित्र आत्मा का कार्य खो दिया है, लेकिन क्यों ये समझ नहीं आया। मैंने परमेश्वर से मदद की गुहार लगाई ताकि खुद को समझ सकूँ।

सभा में एक अगुआ आई और मेरे बर्ताव के कारण मेरी आलोचना की। उन्होंने कहा, "तुम अहंकार भाव से अपना काम कर रहे हो। हमेशा घमंड से लोगों को डांटते हो, उन्हें बाधित करते हो, अपनी वरिष्ठता का दिखावा करते हो। तुम्हारे साथ काम करना मुश्किल है। तुम लोगों के साथ किसी काम पर चर्चा नहीं करते। हर जगह मनमर्ज़ी करते हो, तुम स्वेच्छाचारी और निरंकुश हो। यह एक मसीह-विरोधी स्वभाव है। तुम्हारे व्यवहार को देखते हुए, हमने तुम्हें बर्खास्त करने का फैसला किया है।" उनके एक-एक शब्द ने सीधे मेरे दिल पर चोट किया। मैंने अपने बर्ताव पर विचार किया। मैंने कभी किसी के साथ चर्चा नहीं की, हमेशा अपनी ही चलाई है और तानाशाही की है। क्या मैं एक मसीह-विरोधी नहीं हूँ? उस विचार ने मुझे सचमुच डरा दिया। क्या परमेश्वर इस स्थिति के ज़रिए मुझे उजागर कर हटा रहा था? क्या मेरी बरसों की आस्था का अंत इस तरह होगा? कुछ दिन तो लगा जैसे मैं कोई प्रेत हूँ। उठने के साथ ही मुझे भय लगने लगता, समझ न आता कि पूरा दिन कैसे काटूँगा। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता रहा, "परमेश्वर, मुझे पता है कि इसमें तुम्हारी दयालु इच्छा है, लेकिन समझ नहीं आ रहा कि इससे पार कैसे पाऊँ। हे परमेश्वर, मैं बहुत दुखी और पीड़ित हूँ। मुझे प्रबुद्ध करो ताकि तुम्हारी इच्छा जान सकूँ।" फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "परमेश्वर को इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि हर दिन तुम्हारे साथ क्या होता है, या तुम कितना काम करते हो, तुम कितना प्रयास करते हो—वह जो देखता है, वह यह है कि इन चीजों के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा है। और जिस रवैये के साथ तुम इन चीजों को करते हो, और जिस तरह से तुम उन्हें करते हो, वह किस बात से संबंधित है? वह इस बात से संबंधित है कि तुम सत्य का अनुसरण करते हो या नहीं, और जीवन में तुम्हारे प्रवेश से भी संबंधित है। परमेश्वर तुम्हारे जीवन में प्रवेश को देखता है, उस मार्ग को देखता है जिस पर तुम चलते हो। अगर तुम जीवन में प्रवेश के मार्ग पर चलते हो, तो तुम अपने कर्तव्य-पालन में स्वीकार्यता के मार्ग पर कदम रखोगे। लेकिन अगर अपने कर्तव्य का पालन करते हुए तुम लगातार इस बात पर जोर देते हो कि तुम्हारे पास पूँजी है, कि तुम अपने कार्य-क्षेत्र को समझते हो, कि तुम्हारे पास अनुभव है, और तुम परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत हो, और किसी और से अधिक सत्य का अनुसरण करते हो, और अगर तुम सोचते हो कि इन चीजों के कारण तुम्हारा निर्णय अंतिम होना चाहिए, और तुम किसी और के साथ किसी भी चीज पर चर्चा नहीं करते, और हमेशा अपने आप में एक कानून होते हो, और अपना कार्य संचालित करने की कोशिश करते हो, और हमेशा 'एकमात्र खिला फूल' बनना चाहते हो, तो क्या तुम जीवन में प्रवेश के मार्ग पर चलते हो? (नहीं।) नहीं—यह हैसियत के पीछे भागना है, यह पौलुस के मार्ग पर चलना है, यह जीवन में प्रवेश का मार्ग नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?')। "एक व्यक्ति था, जिसमें सुसमाचार फैलाने की प्रतिभा थी। सुसमाचार फैलाते हुए उसने बहुत कठिनाई का सामना किया, यहाँ तक कि उसे कैद कर लिया गया और कई वर्षों के लिए जेल भेज दिया गया। बाहर निकलने के बाद उसने सुसमाचार फैलाना जारी रखा और सैकड़ों लोगों को धर्मांतरित किया, जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण प्रतिभाएँ साबित हुईं; कुछ तो अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में भी चुने गए। नतीजतन, इस व्यक्ति ने खुद को बड़ी प्रशंसा के योग्य माना, और जहाँ भी वह जाता, दिखावा करते हुए और अपनी गवाही देते हुए शेखी बघारने में इसका पूँजी के रूप में इस्तेमाल करता : 'मैं आठ साल के लिए जेल गया और अपनी गवाही में दृढ़ रहा। मैंने कई लोगों का धर्मांतरण कराया है, जिनमें से कुछ अब अगुआ या कार्यकर्ता हैं। परमेश्वर के घर में मैं श्रेय का पात्र हूँ, मैंने योगदान किया है।' चाहे वह कहीं भी सुसमाचार फैला रहा होता, वह स्थानीय अगुआओं या कार्यकर्ताओं के सामने शेखी जरूर बघारता। वह यह भी कहता, 'तुम लोगों को मेरी बात सुननी चाहिए; यहाँ तक कि तुम लोगों के वरिष्ठ अगुआ भी मुझसे बात करते समय विनम्र रहते हैं। जो नहीं रहता, उसे मैं सबक सिखा देता हूँ!' यह व्यक्ति दबंग है, है न? अगर ऐसा व्यक्ति सुसमाचार न फैलाता और उन लोगों का धर्मांतरण न कराता, तो क्या वह इतना घमंडी होने की हिम्मत करता? ऐसे लोगों का स्वभाव और सार ऐसा होता है : इतना अहंकारी कि उनमें जरा-सी भी समझ नहीं होती। सुसमाचार फैलाने और कुछ लोगों का धर्मांतरण कराने के बाद उनकी अभिमानी प्रकृति फूल जाती है, और वे और भी अधिक घमंडी हो जाते हैं। ऐसे लोग जहाँ भी जाते हैं, अपनी पूँजी के बारे में शेखी बघारते हैं, वे जहाँ भी जाते हैं, श्रेय का दावा करने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि विभिन्न स्तरों के अगुआओं पर दबाव डालते हैं, उनके साथ समान स्तर पर रहने की कोशिश करते हैं, और यहाँ तक सोचते हैं कि परमेश्वर के घर में उन्हें खुद एक वरिष्ठ अगुआ होना चाहिए। इस तरह के व्यक्ति के व्यवहार से जो कुछ प्रकट होता है, उसके आधार पर हम सभी को स्पष्ट होना चाहिए कि उनकी प्रकृति कैसी है, और उनका अंत क्या होने की संभावना है। जब कोई दानव झाँसा देकर परमेश्वर के घर में घुस जाता है, तो अपना असली रंग दिखाने से पहले वह थोड़ी-सी सेवा करता है; चाहे कोई भी उससे निपटे या उसकी काट-छाँट करे, वह नहीं सुनता, और परमेश्वर के घर के विरुद्ध लड़ने में लगा रहता है। उसके कार्यों की प्रकृति क्या होती है? परमेश्वर की दृष्टि में वह खुद को मौत के घाट उतार रहा होता है, और जब तक वह खुद को मार न डाले, तब तक चैन से नहीं बैठेगा। इसे कहने का यही एकमात्र उपयुक्त तरीका है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है')। इसे पढ़कर मैं वाकई डर गया। लगा जैसे परमेश्वर मुझे सामने से उजागर कर रहा है, मेरी उस स्थिति और राज़ का खुलासा कर रहा है जो मैंने कभी किसी को नहीं बताए थे। मैंने कई साल अच्छे से सुसमाचार साझा किया, तो लगा कि मैंने बहुत बड़ा योगदान दिया है, मेरे बगैर काम नहीं चलेगा, मैं अपने हर काम का हिसाब रखता था। मुझे लगता था कलीसिया में मेरा सम्मानजनक स्थान है और मैं एक स्तंभ हूँ। मैंने उसे निजी पूंजी मानकर, अहंकार में लोगों को हिकारत से देखा। मुझे लोगों को घृणा से डांटना भी अच्छा लगता था, जिससे भाई-बहन विवश हो रहे थे। मैं अपने काम में कोई सहयोग नहीं करता था, बस निरंकुश बनकर मनमर्ज़ी करता था, जिससे कलीसिया के काम में बहुत ज़्यादा देरी हो रही थी। यहाँ तक कि जब अगुआ ने मेरा निपटारा किया तो मैंने ध्यान नहीं दिया। बल्कि अपनी काबिलियत की शान दिखाई। मुझे लगा कि वह मुझसे बेहतर नहीं है, मैं किसी से मदद नहीं लेना चाहता था। मैं सब-कुछ अपने आप तय करना चाहता था। मेरी बात न सुनने पर मैं भाई-बहनों को डाँटता-फटकारता, उन्हें धमकी देता कि काम अच्छे से नहीं करने पर उन्हें निकाल दूँगा। इस डर से वे हर वक्त अपने काम में ही जुटे रहते, कुछ गड़बड़ होने पर काम से निकाल दिए जाने के भय से वे दुखी रहते। ये कर्तव्य करना कैसे हुआ? क्या ये दुष्टता और परमेश्वर का विरोध नहीं है? इस ख्याल ने मुझे सचमुच डरा दिया। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं ऐसी दुष्टता करूंगा, भाई-बहनों को इतना आहत कर उन्हें बाधित करूँगा, इस हद तक काम में व्यवधान पैदा करूँगा। मैं परमेश्वर से लड़ रहा था, लेकिन लगा कि मैं उसे संतुष्ट करने के लिए कर्तव्य निभा रहा हूँ। मैं बेतुकी हरकत कर रहा था! मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि ऐसी हरकतें करना खुद को मौत के मुँह में धकेलना है। परमेश्वर के वचनों में यह वाक्यांश "खुद को मौत के घाट उतार देना," पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि ऐसे व्यक्ति से परमेश्वर कितना चिढ़ता है। यह दिल दहला देने वाला था, मानो परमेश्वर ने मुझे मौत की सज़ा दी हो। मुझे लगता था कि मैं अपने कर्तव्य के लिए सब-कुछ कुर्बान कर सकता हूँ, मैंने हमेशा ऐसा किया है, निश्चित ही परमेश्वर मुझे स्वीकारेगा, थोड़े-बहुत अहंकार से क्या फर्क पड़ता है। लेकिन फिर एहसास हुआ, अगर मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, तो अपने काम में कितनी भी उपलब्धि या अनुभव हासिल कर लूँ, परमेश्वर को इससे घृणा ही होगी। वह इसे स्वीकार नहीं करता। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से मैंने उसका धार्मिक स्वभाव जाना जिसका अपमान नहीं हो सकता। परमेश्वर अपने कार्यों में सैद्धांतिक है। दुनिया में अगर मैं कुछ चीज़ें हासिल कर लूँ, तो शायद मुझे कुछ पूंजी और लाभ मिल जाए। लेकिन परमेश्वर के घर में तो सत्य और धार्मिकता का ही बोलबाला है। पूंजी और लाभ का उपयोग करना खुद को मारना, उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाना है।

फिर मैंने सोचा कि मुझे क्यों लगा थोड़ी-बहुत उपलब्धियों से बहुत कुछ मिल गया है, और मैं इतनी तानाशाही क्यों करने लगा। मुझे कैसी प्रकृति नियंत्रित कर रही थी? मैंने परमेश्वर के वचनों में कुछ पढ़ा। "अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हें खुद को अन्य लोगों और परमेश्वर से श्रेष्ठ समझने के लिए मजबूर करेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुम्हारे विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजें। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। "अहंकार मनुष्‍य के भ्रष्‍ट स्‍वभाव की जड़ है। लोग जितने ही ज्‍़यादा अहंकारी होते हैं, उतनी ही अधिक संभावना होती है कि वे परमेश्‍वर का प्रतिरोध करेंगे। यह समस्‍या कितनी गम्‍भीर है? अहंकारी स्‍वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्‍वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं। भले ही कुछ लोग, बाहरी तौर पर, परमेश्‍वर में विश्‍वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्‍वर क़तई नहीं मानते। उन्‍हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्‍य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्‍या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्‍छ मसला है। महत्‍वपूर्ण बात यह है कि एक व्‍यक्ति का अहंकारी स्‍वभाव उसको परमेश्‍वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्‍यवस्‍था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्‍यक्ति हमेशा दूसरों पर सत्‍ता स्‍थापित करने की ख़ातिर परमेश्‍वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्‍त होता है। इस तरह का व्‍यक्ति परमेश्‍वर में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखता, परमेश्‍वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे, जो इतने घमंडी होते हैं कि अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पित नहीं हो पाते, यहाँ तक कि बढ़-बढ़कर खुद के लिए गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं" (परमेश्‍वर की संगति)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे सिखाया कि परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह की जड़ अहंकार है। अहंकारी प्रकृति वाला खुद को परमेश्वर का विरोध करने से नहीं रोक पाता। मेरा व्यवहार मेरी अहंकारी प्रकृति के वश में होने का परिणाम था। थोड़ी-सी चीज़ें हासिल करके मैं उड़ने लगा था, लगा कि मेरे पास काबिलियत है, मैं सक्षम और ज़रूरी हूँ, मेरे बिना कलीसिया का काम नहीं चल सकता। मैंने दूसरों को हिकारत से देखा, अपने पद का दुरुपयोग कर उन्हें डांटा, बेबस किया, कभी किसी और के बारे में सोचा ही नहीं। मैं अपने कर्तव्य में निरंकुश और तानाशाह था, किसी से चर्चा नहीं करता था। मुझे लगता कि मैं सही हूँ और एकतरफा निर्णय ले सकता हूँ। अपने साथी को कोई महत्व नहीं दिया। मैं बेहद अभिमानी था परमेश्वर के लिए मन में श्रद्धा नहीं थी। जब अगुआ ने मेरा निपटारा किया, तो मैंने माना कि मैं अहंकारी हूँ, लेकिन इसकी परवाह नहीं की। मुझे तो ये भी लगा कि अहंकार इतनी बुरी चीज़ नहीं है, इसका मतलब तो ये है कि मुझमें कुछ कौशल है, वरना मैं अहंकारी क्यों होता? मैं एकदम बेतुका और बेशर्म था। "सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ," इस शैतानी विष से जी रहा था, किसी की परवाह न करके कलीसिया के बादशाह की तरह पेश आता था। मैं कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कहाँ था? कम्युनिस्ट पार्टी अहंकारी और अराजक है, जो उनकी नहीं सुनता, वो उसे अभूतपूर्व साधनों से हिंसापूर्वक दबाते हैं। मैं कलीसिया में तानाशाह और अड़ियल था, किसी की निगरानी बर्दाश्त नहीं करता था। क्या यह बड़े लाल अजगर जैसा बर्ताव नहीं था? तब मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी अभिमानी हूँ, मुझे न लोगों की परवाह है, न ही परमेश्वर की, मैं परमेश्वर-विरोधी मार्ग पर था। अगर मैंने पश्चाताप नहीं किया, तो यकीनन परमेश्वर द्वारा शापित और दंडित किया जाऊंगा। मैंने देखा कि मेरी अहंकारी प्रकृति के परिणाम कितने गंभीर हैं, मेरी समस्या कोई छोटी-मोटी भ्रष्टता दिखाने जैसी नहीं थी। मुझे याद आया कि कैसे मैंने दूसरों को नीचा दिखाकर खुद को ऊंचा उठाया है, मैं ऐसे बोलता और खुद को पेश करता मानो दुनिया में मेरे बराबर कोई नहीं है। मुझे अपने आपसे घिन आने लगी, नफरत होने लगी। मैंने संकल्प लिया कि मुझे हर चीज़ में सिद्धांत खोजते हुए सत्य का अनुसरण करना है, अहंकार में जीते हुए परमेश्वर का विरोध नहीं करना है।

जब मैं खोज कर रहा था कि सफलता मिलने पर मेरा व्यवहार कैसा होना चहिए, तो मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। "अपना कर्तव्य निभाने के दौरान क्या तुम परमेश्वर का मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा का प्रबोधन महसूस करने में सक्षम हो? (हाँ।) अगर तुम पवित्र आत्मा के कार्य को महसूस करने में सक्षम हो और अभी भी अपने बारे में ऊँची राय रखते हो और सोचते हो कि तुम वास्तविकता से युक्त हो, तो यहाँ क्या हो रहा है? (जब हमारा कर्तव्य-पालन कुछ सफल हो जाता है, तो धीरे-धीरे हम सोचने लगते हैं कि आधा श्रेय परमेश्वर का है और आधा हमारा। हम अपने सहयोग को बेहद बढ़ा-चढ़ा लेते हैं, और सोचते हैं कि हमारे सहयोग से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है, और परमेश्वर का प्रबोधन इसके बिना संभव न होता।) तो परमेश्वर ने तुम्हें प्रबुद्ध क्यों किया? क्या परमेश्वर अन्य लोगों को भी प्रबुद्ध कर सकता है? (हाँ।) जब परमेश्वर किसी को प्रबुद्ध करता है, तो यह परमेश्वर का अनुग्रह होता है। और तुम्हारी ओर से वह छोटा-सा सहयोग क्या है? क्या वह कोई ऐसी चीज है, जिसके लिए तुम्हें श्रेय दिया जाए—या वह तुम्हारा कर्तव्य, तुम्हारी जिम्मेदारी है? (कर्तव्य और जिम्मेदारी।) जब तुम मानते हो कि यह कर्तव्य और जिम्मेदारी है, तो यह सही मन:स्थिति है, और तुम श्रेय लेने की कोशिश करने का विचार नहीं करोगे। अगर तुम हमेशा यह मानते हो, 'यह मेरी पूँजी है। क्या परमेश्वर का प्रबोधन मेरे सहयोग के बिना संभव होता? उसके लिए लोगों के सहयोग की जरूरत होती है; वह मुख्य रूप से लोगों के सहयोग की बदौलत होता है,' तो यह गलत है। अगर पवित्र आत्मा ने तुम्हें प्रबुद्ध न किया होता, और अगर परमेश्वर ने कुछ न किया होता, और किसी ने तुम्हारे साथ सत्य के सिद्धांतों पर संगति न की होती, तो तुम सहयोग कैसे कर पाते? न तो तुम यह जान पाते कि परमेश्वर को क्या अपेक्षित है; न तुम्हें अभ्यास के मार्ग का ही पता होता। अगर तुम परमेश्वर की आज्ञा का पालन और परमेश्वर के कार्य में सहयोग करना भी चाहते, तो भी तुम यह न जानते कि कैसे करें। क्या तुम्हारा यह 'सहयोग' खोखले शब्द नहीं हैं? सच्चे सहयोग के बिना, तुम केवल अपने विचारों के अनुसार कार्य कर रहे होते हो—उस स्थिति में, तुम जो कर्तव्य निभाते हो, क्या वह मानक के अनुरूप हो सकता है? (नहीं।) नहीं, और यह एक समस्या का संकेत देता है। यह किस समस्या का संकेत देता है? व्यक्ति चाहे जो भी कर्तव्य करे, परमेश्वर को संतुष्ट करने और उसका अनुमोदन प्राप्त करने के लिए परिणाम प्राप्त करना और अपना कर्तव्य उपयुक्त रूप से निभाना परमेश्वर के कार्यों पर निर्भर करता है। अगर तुम अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य करते हो, किंतु परमेश्वर कार्य नहीं करता और तुम्हें यह नहीं बताता कि तुम्हें क्या करना है, तो तुम अपना मार्ग, अपनी दिशा या अपने लक्ष्य नहीं जान पाओगे। अंतत: इसका क्या परिणाम होता है? यह प्रयास निरर्थक होगा, तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा। इस प्रकार, अपना कर्तव्य उपयुक्त रूप से करना और परमेश्वर के घर के भीतर मजबूती से खड़े रह पाना, भाइयों और बहनों को सुशिक्षा उपलब्ध कराना और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करना पूरी तरह से परमेश्वर पर निर्भर करता है! लोग केवल वही चीजें कर सकते हैं, जिन्हें करने में वे व्यक्तिगत रूप से सक्षम होते हैं, जिन्हें उन्हें करना चाहिए और जो उनकी अंतर्निहित क्षमताओं के भीतर होती हैं—इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए, अंतत: तुम्हारे कर्तव्य से प्राप्त होने वाले परिणाम परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा के प्रबोधन से निर्धारित होते हैं, जिनसे तुम परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया मार्ग, लक्ष्य, दिशा और सिद्धांत समझ पाते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि काम में मिली उपलब्धि का पूरा श्रेय परमेश्वर के अनुग्रह और पवित्र आत्मा के प्रबोधन को जाता है। सत्य और सिद्धांतों पर परमेश्वर की संगति को भी इसका श्रेय जाता है, न कि मेरी अच्छी क्षमता या कार्य करने में समर्थ होने को। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन या पवित्र आत्मा के प्रबोधन के बिना, मेरी काबिलियत या बोलने की कला के बावजूद, मैं कुछ हासिल नहीं कर पाता। मेरा यह काम करना मात्र एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है। यह मेरा दायित्व है। एक सृजित प्राणी को जो भी काम दिया जाए वह उसे करना चाहिए। कोई भी उपलब्धि हमारा निजी योगदान या पूंजी नहीं है। लेकिन पता नहीं मैं किस मिट्टी का बना था। मुझे लगा उपलब्धियों का मतलब है कि मैं काम में निपुण हूँ और इस का लाभ उठा सकता हूँ। मैं परमेश्वर की महिमा चुरा रहा था, अपने आपसे बहुत खुश था। बेहद घमंडी और विवेकशून्य था! कार्य के दौरान कोई उपलब्धि हासिल कर लेना पवित्र आत्मा के प्रबोधन और परमेश्वर के वचनों का परिणाम है। हम अपने दम पर कुछ नहीं कर सकते। विचार करता हूँ तो लगता है कि अहंकारी भाव से काम करके मैंने कुछ हासिल नहीं किया, बल्कि काम में देरी की। जैसे कि जब मैंने गलत व्यक्ति को सिंचन कार्य सौंपा, तो बहुत से भाई-बहनों को समय पर सहारा नहीं मिल पाया। उससे परमेश्वर के घर का काम बाधित हुआ। मैं सत्य के सिद्धांत भी नहीं खोज रहा था न ही लोगों को काम में सिद्धांतों का पालन करने की राह दिखा रहा था। यानी हम काम पूरा करने के बजाय उसे आगे बढ़ने से रोक रहे थे। लेकिन इन सब बातों पर मैंने कभी विचार ही नहीं किया। खुद को बधाई देकर और भी अहंकारी हो गया, मानो मेरे बिना कलीसिया का काम नहीं चल सकता। परमेश्वर मुझे प्रबुद्ध कर सकता है, तो औरों को भी कर सकता है, ताकि मेरी बर्खास्तगी के बाद भी कलीसिया का काम चलता रहे। मैं इतना दंभी था तो लगा मेरे बिना कलीसिया का काम नहीं चल सकता। मुझे अनुग्रह के युग के पौलुस का ख्याल आया। थोड़ा काम करके उसे लगा कि उसके पास पूंजी है, उसने दूसरों के बारे में नहीं सोचा। उसने सीधे यही कहा कि वह दूसरे शिष्यों से कम नहीं है, वह अक्सर पतरस को हिकारत से देखकर उसका अपमान करता। आखिरकार, उसने अपने काम की एवज में परमेश्वर से मुकुट माँगा। वह मूर्खता की हद तक अहंकारी था। मैं भी पौलुस बनकर उसी के मार्ग पर चल रहा था। परमेश्वर के कठोर न्याय और ताड़ना के बिना, मैं अपनी समस्याओं से अनजान रहता, सोचता कि मैं महान हूँ। यह सब देखकर मुझे अपने आपसे सचमुच घृणा होने लगी। मैं परमेश्वर के सामने पाप स्वीकारकर पश्चाताप करना चाहता था।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "क्या कोई जानता है कि परमेश्वर पूरी मानवजाति और सभी चीज़ों के बीच कितने वर्षों से काम करता रहा है? किसी को भी पता नहीं है कि परमेश्वर सटीक रूप से कितने वर्षों से सारी मानवजाति के लिए काम, और उसका प्रबंधन करता रहा है; वह मानवजाति को ऐसी बातों का विवरण नहीं देता। पर अगर शैतान थोड़ी देर भी ऐसा काम करे, तो क्या वह इसकी घोषणा करेगा? वह निश्चित रूप से इसकी घोषणा करेगा। शैतान अपनी शेखी बघारना चाहता है, ताकि वह अधिक लोगों को धोखा दे सके और उनमें से अधिक लोग उसे श्रेय दें। परमेश्वर इस दायित्व का विवरण क्यों नहीं देता है? परमेश्वर के सार का एक पहलू है जो विनम्र और छिपा हुआ है। कौन-सी चीजें विनम्रता और छिपाव के विपरीत होती हैं? अहंकार, धृष्टता और महत्वाकांक्षा। ... मानव-जाति का मार्गदर्शन करते हुए परमेश्वर ऐसे महान कार्य करता है, और वह पूरे ब्रह्मांड का संचालन करता है। उसका अधिकार और सामर्थ्य बहुत विशाल है, फिर भी उसने कभी नहीं कहा, 'मेरी क्षमता असाधारण है।' वह सभी चीजों के बीच छिपा रहता है, हर चीज का संचालन करता है, और मानव-जाति का भरण-पोषण करता है, जिससे पूरी मानव-जाति का अस्तित्व पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहता है। उदाहरण के लिए, हवा और सूर्य के प्रकाश को या मानव-अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी दृष्टिगोचर भौतिक वस्तुओं को लो—ये सभी बिना रुके प्रवाहित होती रहती हैं। परमेश्वर मनुष्य का पोषण करता है, यह प्रश्नातीत है। तो, अगर शैतान ने कुछ अच्छा किया, तो क्या वह चुप रहेगा, और एक गुमनाम नायक बना रहेगा? कभी नहीं। यह कलीसिया में कुछ मसीह-विरोधियों के जैसा ही है, जिन्होंने पहले खतरनाक काम किया था, या कभी कोई ऐसा काम किया था जो उनके अपने हितों के लिए हानिकारक था, जो शायद जेल भी गए हों; ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कभी परमेश्वर के घर के कार्य के एक पहलू में योगदान दिया था। वे इन बातों को कभी नहीं भूलते, उन्हें लगता है कि इन कामों के लिए वे आजीवन श्रेय के पात्र हैं, वे सोचते हैं कि ये उनकी जीवन भर की पूँजी हैं—जो दर्शाता है कि लोग कितने तुच्छ हैं! लोग तुच्छ हैं, और शैतान बेशर्म है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो)')। "परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है, मानवजाति की देखभाल करता है, मानवजाति के लिए चिंता दिखाता है, इसके साथ ही साथ लगातार और बिना रुके मानवजाति के लिए आपूर्तियाँ करता है। वह कभी अपने हृदय में यह महसूस नहीं करता कि यह एक अतिरिक्त कार्य है या जिसे ढेर सारा श्रेय मिलना चाहिए। न ही वह यह महसूस करता है कि मानवता को बचाना, उनके लिए आपूर्तियाँ करना, और उन्हें सब कुछ देना, मानवजाति के लिए एक बहुत बड़ा योगदान है। वह मानवजाति को अपने तरीके से और स्वयं के सार और जो वह स्वयं है और जो उसके पास है, उसके माध्यम से बस खामोशी से एवं चुपचाप प्रदान करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति को उससे कितना भोजन प्रबंध एवं कितनी सहायता प्राप्त होती है, परमेश्वर इसके बारे में कभी नहीं सोचता या श्रेय लेने की कोशिश नहीं करता। यह परमेश्वर के सार द्वारा निर्धारित होता है और साथ ही यह परमेश्वर के स्वभाव की बिलकुल सही अभिव्यक्ति भी है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, देखा कि उसका स्वभाव और सार कितना परोपकारी है। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है जो हर चीज़ पर शासन और उसका पोषण करता है। वो फिर से देहधारण कर इंसान को बचाने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है, हमारे लिए एक बड़ी कीमत चुका रहा है। लेकिन उसने नहीं सोचा कि यह मानवजाति के लिए बहुत बड़ा योगदान है। उसने कभी भी बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बोला, अहंकार नहीं किया। वह बस चुपचाप अपना काम करता है, किसी तरह का कोई अहंकार या दिखावा नहीं करता। वह हमारे प्रेम और अनंत स्तुति का अधिकारी है। मैं कितना निकम्मा इंसान हूँ, शून्य हूँ, लेकिन फिर भी कितना अहंकारी था। रत्ती भर सफलता पर इतना इतरा रहा था, मानो ये कोई महान कृति या विशाल योगदान हो। मैं सभी को हिकारत से देखता था, हर काम अपने तरीके से करता था। मैं बेहद मूर्ख, दुष्ट और छिछला था। परमेश्वर कितना विनम्र और छिपकर रहता है, उसका सार परोपकारी है। मुझे यह गहराई से महसूस हुआ कि मेरा अहंकारी स्वभाव घिनौना है, मैं जल्द से जल्द सत्य समझकर ऐसे स्वभाव से छुटकारा चाहता था, इंसानियत से जीना चाहता था।

एक सभा में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे बहुत प्रेरित किया, मैंने उसकी इच्छा को बेहतर ढंग से समझा। अहंकार में काम करने से परमेश्वर के घर के काम में परेशानी हुई, तो मुझे सिद्धांतों के आधार पर बर्खास्त कर दिया गया। मुझे लगा परमेश्वर इस स्थिति द्वारा मुझे उजागर कर हटा रहा है, मैंने सोचा कि वह मेरी निंदा कर रहा है और मुझे बचाया नहीं जा सकता। फिर मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने मुझे इसलिए बर्खास्त किया और अपने वचनों से न्याय किया ताकि देख सकूँ कि मैं कितना भ्रष्ट और गलत मार्ग पर हूँ। यह परमेश्वर का मुझे बचाना था! न्याय और ताड़ना से मुझे थोड़ा कष्ट तो हुआ, लेकिन यह बहुत ही मूल्यवान और सार्थक था, इसने मेरी रक्षा की। यह मेरे लिए परमेश्वर का सच्चा प्यार था। परमेश्वर हमें चाहे जैसे अनुशासित करे, यह उसका उद्धार और प्रेम ही होता है।

उसके बाद, एक सभा में मैंने कर्तव्य में अहंकारी होने के बारे में सब बताया, कैसे मैंने भाई-बहनों को आहत किया, बर्खास्त होने के बाद क्या आत्म-चिंतन किया। मुझे लगा कि मेरी क्रूरता के कारण लोग मुझसे घृणा करेंगे, मुझसे कोई रिश्ता नहीं रखेंगे, लेकिन हैरत है कि उन्होंने मुझे दंडित नहीं किया। मैं उनके कर्ज़ में और भी डूब गया। मैं सभी को अपने अहंकार से आहत कर रहा था, मैं कितना क्रूर था। जब मैंने भाई-बहनों के साथ फिर से काम करना शुरू किया, तो मैंने अपनी अहमियत नहीं दिखाई। लोगों को उनकी गलतियों के लिए हिकारत से नहीं देखा, चीज़ों के प्रति बेहतर दृष्टिकोण रखा। मैंने समस्याओं पर सबके विचार ध्यान से सुनने का प्रयास किया, अपनी मनमानी नहीं की। जब अगुआ मेरे काम की जाँच के लिए आए, तो मैंने सहयोग किया और विनम्रता से स्वीकारा। थोड़े ही समय में मेरी स्थिति में अच्छा बदलाव आया, मैं फिर से पर्यवेक्षक बन गया। मुझे पता था कि परमेश्वर मेरा उत्कर्ष कर मुझपर अनुग्रह कर रहा है। पहले मैं अपने काम में बहुत अहंकारी और बाधाकारी था, लेकिन परमेश्वर ने मुझे हटाया नहीं। उसने मुझे महत्वपूर्ण काम करने का एक और मौका दिया। मैंने परमेश्वर की कृपा और उदारता का अनुभव किया। उसके बाद मैंने, अहंकारी बनकर मनमाने ढंग से काम करना बंद कर दिया, परमेश्वर का भय मानकर उससे लगातार प्रार्थना करने लगा। अगर कहीं कोई दुविधा आती, तो दूसरों से उस पर चर्चा करके सत्य की खोज करता। कुछ समय तक ऐसा करने के बाद, मैंने हमारी पूरी टीम के प्रदर्शन में सुधार महसूस किया। जब मैं सब-कुछ अपने दम पर कर रहा था, तो मैं थक जाता था। हर बात का ध्यान न रख पाने के कारण अच्छे नतीजे नहीं मिलते थे। लेकिन अब मैं हर मुद्दे पर भाई-बहनों के साथ चर्चा करता हूँ और हम एक-दूसरे की मदद करते हैं, अब समस्याएँ हल करना आसान है। लोगों के साथ सहयोग करके, मैंने जान लिया कि उनमें भी क्षमता है। कुछ तो बहुत मेहनत और भरसक प्रयास करते हैं। शायद कुछ में उतनी क्षमता न हो, पर वे परिश्रमी हैं, परमेश्वर के घर के काम को कायम रखते हैं। वह क्षमता मेरे अंदर नहीं है। अपनी कमियों को दूर करने के लिए मैंने भाई-बहनों से बहुत कुछ सीखा है। यह जीने का ज़्यादा स्वतंत्र और आसान तरीका है।

करीब सालभर बाद, कलीसिया के एक अगुआ ने आम सभा बुलाई ताकि सालभर में जो कुछ अनुभव किया है, उसे हर कोई साझा कर सके। मैंने अपनी सीख पर शांत मन से आत्म-चिंतन किया। तब मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने मुझे बर्खास्त करके मेरी जान बचाई थी, यही मेरा सबसे बड़ा लाभ था। अगर ऐसा न हुआ होता, तो मुझे अभी भी अपने भयंकर अहंकार का पता न चलता, जान न पाता कि थोड़ी-सी प्रतिभा के दम पर मैं आत्म-तुष्ट और स्वेच्छाचारी बन गया था। परमेश्वर के अनुशासन, न्याय और ताड़ना की बदौलत ही मुझे अपनी शैतानी प्रकृति का पता चला। उसने मुझे परमेश्वर की धार्मिकता के बारे में भी सिखाया, मुझमें परमेश्वर का भय पैदा किया। मैं परमेश्वर के उद्धार के लिए बहुत आभारी हूँ!

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