मुखौटा उतारना

24 जनवरी, 2022

टिंघुआ, चीन

पिछले साल मैंने अगुआ के तौर पर काम करना शुरू ही किया था। शुरू में, क्योंकि मैं फ्रेंच बोलती थी और नए सदस्यों से सीधे बात कर सकती थी, तो मेरे साथ काम करने वाली कुछ बहनें अनुवाद में, किसी सवाल या किसी दूसरी मुश्किल में मुझसे मदद मांगती थीं। नवविश्वासी कलीसिया में, मैं संगति के लिए जिस समूह में भी जाती थी, सभी लोग मुझे ध्यान से सुनते थे और संगति के बाद हमेशा कहते थे कि उन्हें बहुत मदद मिली है। मैं सोचती थी कि साथी बहनों की तुलना में भाषा पर मेरी बेहतर पकड़ है, और नवागंतुकों की तुलना में मैं सत्यों पर संगति कर सकती थी, इसलिए मैं समूह की एक अभिन्न अंग थी। ऐसा सोचने से मेरा दंभ तुष्ट होता था। इसका नतीजा यह हुआ कि मैं हरेक पर अपनी अच्छी छाप छोड़ने की कोशिश करने लगी। जब भी कोई भाई या बहन सवाल पूछते, तो जवाब पता न होने के बावजूद मैं जानने का दिखावा करती।

मुझे याद है कि एक बार मैं एक समूह में एक परियोजना लागू करने पर संगति करने गई। एक भाई ने मुझसे कुछ पूछा, लेकिन काम का पहला दिन होने के कारण, मैं अभ्यास के खास नियमों और जरूरतों को लेकर निश्चित नहीं थी और मुझे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। मैंने मन-ही-मन सोचा : "अगर मैंने कहा कि मैं नहीं जानती, तो क्या वह मेरी कम इज्जत करेगा? क्या वह यह सोचेगा कि उससे कहीं ज्यादा समय से परमेश्वर में विश्वास करने के बावजूद, मैं छोटे-से सवाल का जवाब भी नहीं दे सकती, इसलिए मुझे सत्य की समझ नहीं है? यह कितनी शर्मिंदगी की बात होगी। क्या दूसरे भाई-बहन तब भी मुझे अगुआ मानेंगे? चाहे कुछ भी हो, किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि मैं नहीं समझती।" यही सोचते हुए मैंने शांति से उसे कुछ सिद्धांतों के उपदेश दे दिए। मैं देख रही थी कि वह मेरे जवाब से संतुष्ट नहीं था। दरअसल मैं दोषी महसूस कर रही थी—क्या मैं इस भाई को बेवकूफ नहीं बना रही? पर अपना मान बचाने के लिए मैंने उसे सच्चाई नहीं बताई। एक और बार, किसी भाई ने मुझसे पूछा कि ज्यादा कुशलता से अपने कर्तव्य निभाने के लिए समय कैसे नियोजित करें। उसने कहा कि इससे उसे बहुत परेशानी हो रही है और उसे मदद की जरूरत है। उस समय मुझे पता नहीं था कि उसकी मदद कैसे करूँ क्योंकि मेरी खुद की भी यही परेशानी है मैं भी अपना समय सही से नियोजित नहीं कर पाती। अक्सर समय कम पड़ जाता है। लेकिन अगर मैं उसे बता दूँ कि इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मेरी भी वही परेशानी है, तो क्या वह मेरी इज्जत करेगा? क्या वह यह सोचेगा कि मुझे भी उतना ही पता है जितना कि उसे? क्या उसकी नजरों में मेरी छवि खराब नहीं हो जाएगी? मैंने उसे प्रबंधन के कुछ सिद्धांत बताए और उसे विश्वास दिला दिया कि मैं खुद भी इनका अभ्यास करती हूँ। उसने इसके बाद कुछ नहीं कहा मैंने भी बाद में उससे नहीं पूछा कि क्या उसे संगति से फायदा हुआ था। मुझे डर था कि कहीं वह मुझसे और सवाल न करने लगे, अगर मैं उनके जवाब नहीं दे पाई, तो मेरे लिए बड़ी शर्मिंदगी की बात होगी। इसलिए, मैंने उसकी परेशानी को अनदेखा कर दिया। कई बार मेरी अपनी अवस्था भी कोई खास अच्छी नहीं होती थी। भाई-बहनों के साथ काम करते हुए मेरे कुछ भ्रष्ट स्वभाव उजागर हुए, पर सभा में मैं उन पर ईमानदारी से बात करने से बचती थी। मैं सिर्फ परमेश्वर के वचनों की शाब्दिक समझ पर बात और कुछ खोखले सिद्धांतों पर संगति करती थी, ताकि उन्हें लगे कि मैं सत्य समझती हूँ, उनसे ज्यादा आस्था और आध्यात्मिक कद रखती हूँ। एक बार मैंने जिस बहन का सिंचन किया था, उसने मुझे यह संदेश भेजा कि उसे हमारी सभा की बहुत याद आती है। आमतौर से, भाई-बहनों के साथ बातचीत के दौरान, मैं उनकी बातों और हाव-भाव से यह बता सकती थी कि वे मेरी इज्जत और आदर करते हैं। मैं सचमुच ही बहुत खुश थी और खुद को कलीसिया की एक महत्वपूर्ण हस्ती समझती थी, मैं यह भी सोचती थी कि वे इसी तरह मेरा आदर और सहयोग करते रहें। कभी-कभी मैं यह सोचकर बेचैन हो जाती कि मैं हमेशा एक प्रशंसा योग्य इंसान होने का दिखावा करती हूँ। क्या मैं लोगों को यह सिखा रही थी कि वे मेरी आराधना करें? पर यह ख्याल कभी-कभी ही मेरे मन में आता था, मैं इस पर खास ध्यान नहीं देती थी।

अक्तूबर में एक दिन, मैं और मेरी भागीदार बहन एक समूह अगुआ के साथ काम पर बात कर रहे थे। उस बहन ने समूह अगुआ से हमारे कर्तव्य पालन से जुड़ी परेशानियों और खामियों पर बात करने के लिए कहा। मैं तब हैरान रह गई जब समूह अगुआ ने मुझसे कहा : "मैं सचमुच तुम चीनी भाई-बहनों की आराधना करती हूँ, खासकर आपकी। मुझे अक्सर लगता है आपकी बातें परमेश्वर के वचनों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। मैं सिर्फ आपको सुनना चाहती हूँ।" यह सुनकर मेरा दिल धक–सा रह गया और मेरा चेहरा सुलगने लगा। उसने आगे कहा : "मैं जानती हूँ कि लोगों की आराधना करना गलत है, पर मैं आपको एक साल से जानती हूँ और मुझे आपकी कोई भ्रष्टता, समस्या या कमजोरी दिखाई नहीं दी। इसलिए मुझे लगता है कि आप मूल रूप से पूर्ण हैं, आपमें भ्रष्टता नहीं है। मैं आपका आदर और प्रशंसा करने से खुद को रोक नहीं पाती।" यह सुनकर मैं हैरान और भयभीत हो गई। मैं कुछ देर कुछ नहीं बोली, फिर मैंने साथी बहन के लिए समूह अगुआ की बात का हिचकते हुए अनुवाद किया। फिर उसने समूह अगुआ की अवस्था के बारे में संगति की। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था, इसलिए मैं बस अनुवाद करती रही। और वह सभा ऐसे ही अटपटे ढंग से खत्म हो गई।

बाद में, मेरा पूरा शरीर पस्त-सा पड़ गया। उस बहन के शब्द मेरे दिमाग में गूँजते रहे, खासकर मेरी भ्रष्टता न दिखने वाली बात, कि मैं पूर्ण लगती हूँ और वह मेरी आराधना करती है, उसे मेरी बातें परमेश्वर के वचनों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण लगती हैं। शुरू में, खुद को न समझने के कारण, मुझे लगा मेरे साथ गलत हुआ है। मैं बहुत घबरा गई। मुझे लगा कि उसकी बातें बेतुकी थीं। मैंने उससे कभी नहीं कहा कि मेरे शब्दों को परमेश्वर के वचन समझो। उसके ऐसा कहने का मतलब था कि समस्या सचमुच गंभीर थी। क्या मैं उसे अपने सामने लाकर मसीह-विरोधी नहीं बन गई थी? उस दोपहर मैं बस उन्हीं लम्हों को बार-बार याद करती रही। मैं प्रार्थना और खोज के लिए परमेश्वर के सम्मुख आई : "परमेश्वर, उस बहन की बात सोचकर मैं दुखी और भयभीत हूँ। मुझे कभी नहीं लगा था कि वह मेरे बारे में ऐसा सोचेगी। हे परमेश्वर, मुझे नहीं पता मैं इस दशा में कैसे पहुँच गई। मैं अभी खुद को नहीं समझती। मुझे राह दिखाओ कि मैं खुद को जान सकूँ। मैं प्रायश्चित करने और उन चीजों को छोड़ने के लिए तैयार हूँ जो तुम्हें नापसंद हैं।" एक सुबह, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। "चाहे कैसा भी परिवेश हो, या चाहे कहीं भी वे अपना कर्तव्य निभा रहे हों, ये मसीह-विरोधी दूसरों से अपना असली रवैया और सत्य और परमेश्वर के बारे में अपने हृदय की गहराइयों में छिपी अपनी असली धारणाओं को छिपाते हुए ऐसा जतलाते हैं कि वे दुर्बल नहीं हैं, कि उनमें परमेश्वर के लिए असीम प्रेम है, उनमें परमेश्वर के लिए भरपूर आस्था है, कि वे कभी भी नकारात्मक नहीं हुए। वास्तव में, क्या अपने हृदय की गहराइयों में वे सचमुच खुद को सर्वशक्तिमान समझते हैं? क्या वे सचमुच ऐसा समझते हैं कि उनमें कोई दुर्बलता नहीं है? नहीं। तो, यह जानते हुए कि उनमें दुर्बलता, विद्रोहीपन और भ्रष्ट स्वभाव हैं, वे दूसरों के सामने इस तरह की बातें और व्यवहार क्यों करते हैं? उनका उद्देश्य स्पष्ट है : यह बस दूसरों के सामने और उनके बीच अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए है। उन्हें लगता है कि अगर दूसरों के सामने वे खुलकर नकारात्मक हों, खुलकर ऐसी बातें कहें जो दुर्बलता की प्रतीक हों और विद्रोहीपन को उजागर करती हों, और अपने आपको जानने की बात कहें, तो यह ऐसी चीज़ है जिससे उनकी प्रतिष्ठा और साख को नुकसान पहुँच सकता है, यह नुकसान की बात है। वे यह कहने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे कि वे दुर्बल और नकारात्मक हैं, कि वे संपूर्ण न होकर मात्र एक सामान्य व्यक्ति हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे यह स्वीकार कर लेंगे कि वे एक सामान्य व्यक्ति हैं, एक छोटे और गौण व्यक्ति, तो वे लोगों के मन में अपनी प्रतिष्ठा खो बैठेंगे। और इसलिए, चाहे कुछ भी हो जाए, वे अपनी यह प्रतिष्ठा खो नहीं सकते, बल्कि इसे बचाने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दस)')। "जब लोग हमेशा मुखौटा लगाए रहते हैं, हमेशा खुद को अच्छा दिखाते हैं, हमेशा ऐसा ढोंग करते हैं जिससे दूसरे उनके बारे में अच्छी राय रखें, और अपने दोष या कमियाँ नहीं देख पाते, जब वे लोगों के सामने हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम पक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं, तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकार है, कपट है, पाखंड है, यह शैतान का स्वभाव है, यह एक दुष्ट स्वभाव है। ... जो लोग इन चीजों को नहीं पहचानते, वे कभी अपने दोषों, कमियों और भ्रष्ट अवस्थाओं का उल्लेख नहीं करते, न ही कभी स्वयं को जानने की बात करते हैं। वे क्या कहते हैं? 'मैंने कई सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है। जब मैं कुछ करता हूँ, तो तुम लोग नहीं जानते कि मैं क्या सोच रहा होता हूँ, मैं उन बातों पर विचार करता हूँ कि मैं कौन-से काम करने योग्य हूँ!' क्या यह अहंकारी स्वभाव है? अहंकारी स्वभाव की मुख्य विशेषता क्या है? वे कौन-सा लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं? (लोगों से अपने बारे में अच्छी राय रखवाना।) लोगों से अपने बारे में अच्छी राय रखवाने का उद्देश्य खुद को उनके दिमाग में हैसियत दिलाना है। जब किसी के मन में तुम्हारी हैसियत होती है, तो जब वे तुम्हारे साथ होते हैं, तो वे तुम्हारे प्रति सम्मान से भरे होते हैं, और तुम्हारे साथ बात करते हुए विशेष रूप से विनम्र रहते हैं, वे तुम्हारे प्रति हमेशा आदरपूर्ण होते हैं, वे तुम्हें हमेशा सभी चीजों में पहल करने देते हैं, वे तुम्हारी चापलूसी करते हैं, और वे तुमसे कभी भी चोट पहुँचाने वाली कोई बात नहीं कहते, बल्कि तुमसे चीजों पर चर्चा करते हैं। क्या यह सब वास्तव में तुम्हारे लिए लाभकारी नहीं है? लोग ठीक यही चाहते हैं। ... जब वे लोगों को धोखा देते हैं, जब वे कृत्रिम रूप से व्यवहार करते हैं, अपने आप को अच्छा दिखाते हैं, मुखौटा लगाते हैं, खुद को सुशोभित करते हैं, ताकि दूसरों को लगे कि वे सर्वोत्तम हैं, तो यह हैसियत के जाल का आनंद लेना होता है। यदि तुम्हें इस पर विश्वास न हो, तो इस बारे में ध्यान से सोचो; तुम हमेशा क्यों चाहते हो कि लोग तुम्हारे बारे में अच्छी राय रखें? जिस हैसियत के पीछे तुम इतने जोश से भाग रहे हो, वह तुम्हें क्या देगी? वह तुम्हारे लिए अच्छी है, वह तुम्हें लाभ और ऐसी चीजें प्रदान करती है, जिनका तुम आनंद ले सकते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। परमेश्वर ने उजागर किया कि मसीह-विरोधियों के स्वभाव खासतौर से अहंकारी और दुष्ट होते हैं। अपना रुतबा और छवि बनाए रखने के लिए वे एक मुखौटा पहने रहते हैं। वे दूसरों को अपनी भ्रष्टता, कमजोरी या नकारात्मकता नहीं देखने देते, बल्कि लोगों के मन में रुतबा बनाकर इसके फ़ायदों का आनंद लेना चाहते हैं। मैंने देखा कि मेरा स्वभाव परमेश्वर द्वारा उजागर मसीह-विरोधियों जैसा ही था। नवविश्वासी कलीसिया की अगुआ बनने के बाद से, मैं हर मोड़ पर एक मुखौटा पहने रही ताकि अपना रुतबा और छवि बचाए रख सकूँ, दूसरों के आदर और आराधना से खुश होती रही। भाई-बहन यह सोचकर मुझसे सवाल पूछते रहे कि मैं उनकी मदद करूंगी, पर मैं जवाब जानने का सिर्फ दिखावा करती रही : उन पर कुछ खोखले सिद्धांत थोपती रही। कभी-कभी, भाई-बहनों के साथ काम करते हुए मेरा भ्रष्ट स्वभाव उजागर हो जाता था, पर संगति के दौरान मैं असली अवस्था पर बात करने से बचती रही, सोचा कि दूसरे मुझे नीची नजर से देखेंगे, समझ नहीं आ रहा था कि इतने वर्षों की आस्था के बाद भी मैं उनके जितनी भ्रष्ट कैसे हूँ। अपनी असली अवस्था पर भाई-बहनों से कभी खुलकर बात नहीं की, न ही अपने सच्चे एहसास बताये। मैं लोगों को बहकाने के लिए सिद्धांत बोल देती थी, यह सोचे बगैर कि क्या इससे उन्हें समस्याओं में मदद मिलेगी, या क्या मेरी संगति से उन्हें कुछ फायदा होगा। मैं सिर्फ अपना रुतबा और आदर बनाए रखना चाहती थी। मैं घृणित और दुष्ट थी। अगर मैं हमेशा नकाब ओढ़े रखूँगी, ताकि भाई-बहन मेरी भ्रष्टता और कमियाँ न देख पाएँ, तो समय के साथ वे मेरा आदर करने लगेंगे। मैंने याद किया जब मैं नवागंतुकों का सिंचन करती थी, जब भाई-बहन परमेश्वर के बारे में कुछ नहीं जानते थे, तो वे मेरा आदर और आराधना करने लगे। उन्हें मेरे शब्द परमेश्वर के वचनों से ज्यादा महत्वपूर्ण लगे। क्या मैं उन्हें अपने सम्मुख नहीं ला रही थी? मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी, मैं दुष्टता कर रही थी! हमेशा एक नकाब ओढ़े दूसरों की प्रशंसा पाना चाहती थी। पर जब एक बहन ने मुझे बताया कि वह मेरा कितना आदर और आराधना करती है, तो मुझे कोई खुशी या आनंद महसूस नहीं हुआ। उल्टे मैं डर गई, बेचैन हो गई, मानो खुद पर तबाही बुला ली हो। यह देखकर कि मैं हमेशा नाम और रुतबे की तलाश में, दूसरों की प्रशंसा और रुतबे के फायदों के लिए एक भेस धारण किए हुए थी, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं जिस रास्ता पर थी वो परमेश्वर के खिलाफ था। मुझे आखिरकार समझ आया कि उस बहन का वो सब कहना परमेश्वर की चेतावनी थी। वह मुझे बचा रहा था। वरना मैं ये दिखावे और रुतबे के लिए काम करना जारी रखती, जो बहुत खतरनाक है।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन पढे : "कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, और जब उन्हें अगुआ बनने का अवसर मिल जाता है, तो वे हैसियत प्राप्त करने के लिए विभिन्न तरीकों से कार्य करते हैं, वे प्रयास करते हैं और कीमत चुकाते हैं। आखिरकार, हो सकता है वे हैसियत हासिल कर लें, लोगों को धोखा देकर उनके दिल जीत लें, ताकि ज्यादा लोग उनका आदर-सत्कार करें और उनके बारे में अच्छी राय रखें। जब वे पूर्ण शक्ति प्राप्त कर लेते हैं, और हैसियत पाने की अपनी इच्छा पूरी तरह से पूर्ण कर लेते हैं, तो अंतिम परिणाम क्या होता है? ऐसे व्यक्ति लोगों को घूस देने के लिए कितने भी छोटे-मोटे एहसानों का उपयोग करें, कितनी भी योग्यताओं और क्षमताओं का दिखावा करें, या लोगों पर अपना अच्छा प्रभाव डालने हेतु उन्हें धोखा देने के लिए कोई भी तरीके इस्तेमाल करें, और लोगों के दिल जीतने और उनमें स्थान बनाने के लिए कोई भी उपाय आजमाएँ, लेकिन ऐसा करके उन्होंने क्या खो दिया है? उन्होंने अगुआई के कर्तव्य पूरे करते हुए सत्य हासिल करने का अवसर खो दिया है। साथ ही, जिन विभिन्न तरीकों से उन्होंने व्यवहार किया है, उनके कारण उन्होंने बुरे कर्म भी संचित कर लिए हैं, जो उनका अंतिम परिणाम तय करेंगे। इसे देखकर, क्या तुम कहोगे कि छोटे-मोटे एहसानों का उपयोग करना या दिखावा करना या लोगों को भ्रमित कर धोखा देना एक अच्छा मार्ग है, भले ही ये साधन इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति को बाहरी तौर पर कितने भी लाभ और कितनी भी संतुष्टि मिलती प्रतीत हो? क्या यह सत्य की खोज का मार्ग है? क्या यह ऐसा मार्ग है, जो किसी का उद्धार कर सकता है? बहुत स्पष्ट रूप से, नहीं। ये तरीके और तरकीबें, चाहे वे दूसरों से कितनी भी छिपी हुई या सूक्ष्म हों, और चाहे उनकी कल्पना कितने भी शानदार तरीके से की गई हो, अंततः परमेश्वर उन सभी की निंदा और उनसे घृणा करता है, क्योंकि इस तरह के व्यवहारों के पीछे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और अपने आप को परमेश्वर के खिलाफ रखने के एक तरह के रवैये और इच्छा का सार छिपा होता है। मन ही मन परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को कभी भी ऐसे इंसान के रूप में नहीं पहचानेगा, जो अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है, बल्कि उन्हें कुकर्मी के रूप में परिभाषित करेगा। कुकर्मियों के साथ व्यवहार करते समय परमेश्वर का निष्कर्ष क्या होता है? 'हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।' जब परमेश्वर ने कहा, 'मेरे पास से चले जाओ,' तो वह लोगों को शैतान के पास भेज रहा था, वहाँ भेज रहा था जहाँ शैतान रहता है, और वह अब उन्हें नहीं चाहता था। उन्हें न चाहने का मतलब था कि वह उन्हें नहीं बचाएगा। अगर तुम परमेश्वर के समूह में से एक नहीं हो, उसके अनुयायियों में से एक होने की बात तो छोड़ ही दो, तो तुम उन लोगों में से नहीं हो, जिन्हें वह बचाएगा। ऐसे व्यक्ति को इसी प्रकार परिभाषित किया जाता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं')। यह पढ़कर मैं बहुत डर गई। मुझे महसूस हुआ कि परमेश्वर का स्वभाव अपमाननहीं सहता। मैं लोकप्रियता के चक्कर में हमेशा दिखावा करके लोगों को गुमराह करती रही। मैं लोगों के दिलों में परमेश्वर की जगह लेना चाहती थी, चाहती थी वे मुझसे परमेश्वर जैसा व्यवहार करें। मैं परमेश्वर से होड़ कर रही थी, जिससे वह बहुत नाराज़ होता है। पीछे मुड़कर देखती हूँ तो, भाई-बहनों से आदान-प्रदान करते हुए मैं हर रोज दिखावा करती थी। कोई भी नहीं समझ सकता था कि मैं कैसी इंसान थी, सोचती थी कि मैं सत्य समझती हूँ, मेरे पास आध्यात्मिक कद-काठी है और मैं भ्रष्टता से मुक्त हूँ। वे आँख मूंदकर मेरी आराधना करते थे। लोगों को धोखा देकर, उन्हें मूर्ख बनाकर मैं बुराई और परमेश्वर का प्रतिरोध कर रही थी। यह मुझे फरीसियों की याद दिलाता है, जो परमेश्वर की सेवा करते थे, पर उसका उत्कर्ष, उसकी गवाही नहीं देते थे। वे मंदिरों में उपदेश देते थे कुछ सिद्धांत और शास्त्रों का ज्ञान बघारकर दिखावा करते थे। वे सड़कों पर खड़े होकर प्रार्थना करते थे अपने कर्मकांड और अपनी पोशाकों की लटकन बढ़ाते थे। वे भक्त प्रतीत होते थे और नेक आचरण दिखाते थे, आम लोग उन्हें बहुत मानते थे, उनका आदर और आराधना करते थे। पर परमेश्वर ने उन्हें कुकर्मी और साँपों जैसे लोग कहकर उनकी निंदा की, और उन्हें सात संकटों का भागी बनाया। परमेश्वर का धार्मिक, पवित्र स्वभाव है और वह अपने स्वभाव के खिलाफ कोई अपमान नहीं सहता। वह उन पाखंडियों से घृणा और निंदा करता है जो फरीसियों जैसे लोकप्रियता चाहते हैं। वह ऐसे लोगों को बिल्कुल भी नहीं बचाता। उस समय मेरे सारे काम फरीसियों जैसे थे। अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं बहुत-सी सभाओं में हिस्सा लेती और कुछ काम पूरे करती, पर मेरा इरादा परमेश्वर को संतुष्ट करना नहीं था, बल्कि लोगों के बीच अपना रुतबा और छवि बचाना था। मैं हमेशा यह दिखावा करती थी कि मैं सत्य और चीजें अच्छी तरह से समझती हूँ। मैं अपनी कमजोरियों और भ्रष्टताओं पर बात करने से भी बचती थी ताकि लोग मेरी प्रशंसा और आराधना कर सकें, नतीजतन मैं लोगों को अपने सम्मुख ले आई। अगर मैं यही भेस धारण किए रहती और फरीसियों के रास्ते पर चलती रहती, तो परमेश्वर ने मुझे तिरस्कृत करके हटा दिया होता। यह देखकर कि परमेश्वर इस तरह के लोगों की निंदा करता और उन्हें हटा देता है, मैं सचमुच डर गई। खुद को दोष देते हुए पश्चाताप करने लगी। परमेश्वर ने मुझे ऊंचा उठाकर अगुआ का पद सौंपा, ताकि मैं नवागंतुकों का सिंचन कर मदद कर सकूँ, सत्य जल्दी समझने और सच्चे मार्ग की नींव रखने में भाई-बहनों का मार्गदर्शन करूँ। पर मैंने अपना काम ठीक से नहीं किया, अगुवाई के कर्तव्य नहीं निभाए। मैं बस अपने रुतबे से चिपकी रही। मैं भाई-बहनों की उनके जीवन-प्रवेश में कोई मदद नहीं कर रही थी, बल्कि मैं उन्हें छल रही थी, नुकसान पहुंचा रही थी। मुझमें अंतरात्मा या विवेक का बहुत अभाव था। मैं इस बारे में जितना सोचती, उतना ही पश्चाताप से भर जाती। मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने लगी : "हे परमेश्वर, अपना कर्तव्य निभाते हुए मैंने सत्य नहीं खोजा, बल्कि नाम और रुतबे की खोज में गलत राह पर चल पड़ी। मैं तुम्हारी घृणा और तिरस्कार की भागी बन गई। परमेश्वर, मैं अब और ऐसी नहीं रहना चाहती। मैं प्रायश्चित करना और बदलना चाहती हूँ। मैं तुम्हारी अगुवाई और मार्गदर्शन की विनती करती हूँ।"

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश देखे : "पहले, तुमको यह समझना जरूरी है कि सच्चा सृजित प्राणी किसे कहते हैं: सच्चा सृजित प्राणी कोई अलौकिक व्यक्ति नहीं होता है, बल्कि वह ऐसा व्यक्ति होता है जो पृथ्वी पर ईमानदारी से और नम्रतापूर्वक रहता है तथा वह बिल्कुल भी असाधारण नहीं होता है। असाधारण नहीं होने से क्या तात्पर्य है? इसका तात्पर्य यह है कि चाहे तुम कितने भी ऊँचे क्यों न हो या जितनी भी ऊँची छ्लांग लगा सकते हो, सच्चाई यह है कि तुम्हारी वास्तविक लंबाई में कोई भी परिवर्तन नहीं होगा, और तुम्हारे पास कोई भी असाधारण क्षमता नहीं होगी। यदि तुम हमेशा दूसरों से आगे निकलने की इच्छा रखते हो तथा दूसरों से श्रेष्ठ बनना चाहते हो, तो यह तुम्हारे अभिमानी और शैतानी स्वभाव से जन्मा है, और यह तुम्हारा भ्रम है। वास्तव में, तुम इसे हासिल नहीं कर सकते, और तुम्हारे लिए ऐसा करना असंभव है। परमेश्वर ने तुमको ऐसी प्रतिभा या कौशल नहीं प्रदान किया और न तो उसने तुम्हें ऐसा सार दिया। यह मत भूलो कि तुम मनुष्य जाति के एक सामान्य और साधारण सदस्य हो, तुम किसी भी तरह से दूसरों से भिन्न नहीं हो, हालांकि तुम्हारा रूप, परिवार और तुम्हारे जन्म का दशक अलग हो सकता है, और तुम्हारी प्रतिभा और गुणों में कुछ अंतर हो सकते हैं। लेकिन यह मत भूलो: चाहे तुम कितने ही भिन्न क्यों न हो, यह केवल इन छोटी-छोटी बातों तक सीमित है, तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव दूसरों के ही समान है, और वे सिद्धांत, लक्ष्य एवं नीति जिनका कर्तव्य निर्वाह करते समय पालन करना जरूरी है, दूसरों के समान ही हैं। लोग केवल अपनी शक्ति और गुणों में ही दूसरों से भिन्न होते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। "जीवधारियों में से एक होने के नाते, मनुष्य को अपनी स्थिति को बना कर रखना होगा और शुद्ध अंतःकरण से व्यवहार करना होगा। सृष्टिकर्ता के द्वारा तुम्हें जो कुछ सौंपा गया है, कर्तव्यनिष्ठा के साथ उसकी सुरक्षा करो। अनुचित ढंग से आचरण मत करो, या ऐसे काम न करो जो तुम्हारी क्षमता के दायरे से बाहर हों या जो परमेश्वर के लिए घृणित हों। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की चेष्टा मत करो, दूसरों से श्रेष्ठ होने की कोशिश मत करो, न ही परमेश्वर बनने की कोशिश करो। लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना और भी अधिक लज्जाजनक है; यह घृणित है और नीचता भरा है। जो काम तारीफ़ के काबिल है और जिसे प्राणियों को सब चीजो से ऊपर मानना चाहिए, वह है एक सच्चा जीवधारी बनना; यही वह एकमात्र लक्ष्य है जिसे पूरा करने का निरंतर प्रयास सब लोगों को करना चाहिए" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। इन अंशों से मुझे एहसास हुआ कि मैं दूसरों की ही तरह एक साधारण सृजित प्राणी हूँ। परमेश्वर उम्मीद करता है कि मैं अपने स्थान पर रह सकूँ, अपना खुद का कर्तव्य निभाते हुए ईमानदारी का व्यवहार कर सकूँ। परमेश्वर ने मुझे कुछ खास योग्यताएँ और भाषाई कौशल दिए। मुझे उसका धन्यवाद करते हुए इनसे अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। पर मैंने आगे बढ़ने के लिए इन चीजों का उपयोग किया। मैं साफ तौर पर एक भ्रष्ट इंसान थी जिसमें शैतान का भ्रष्ट स्वभाव था। पर मैंने अपनी भ्रष्टताओं और कमियों को छिपाने की हर कोशिश की, एक पूर्ण इंसान होने का भेस रचा, ताकि दूसरे मेरी प्रशंसा और आराधना करें। मुझे यह एहसास हुआ कि मैं जो खोज रही थी वह पाखंड भरा और शर्मनाक था। यह नीचता है जिससे परमेश्वर को घृणा है। मैं हमेशा एक भेस में अपनी भ्रष्टताएँ छिपाए रखती थी, पर दूसरों को पता न भी चले, ये भ्रष्टताएँ तब भी मेरा अभिन्न अंग थीं। तो क्या मैं दूसरों के साथ-साथ खुद को भी धोखा नहीं दे रही थी? बिना खुलकर सत्य खोजे, ये भ्रष्ट स्वभाव कभी भी हल नहीं हो सकते। न सिर्फ अपनी जिंदगी में मैं तकलीफ उठा रही थी, बल्कि दूसरों को भी गुमराह कर रही थी। क्या यह अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारना नहीं था? दिखावा और छल साफ तौर पर एक अच्छा रास्ता नहीं है।

एक बार एक सभा में हमने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढे और मुझे अभ्यास का रास्ता मिल गया। "'अनुभव साझा करने और संगति करने' का अर्थ है अपने हृदय के हर विचार, अपनी वर्तमान शारीरिक अवस्था, अपने अनुभवों और परमेश्वर के वचनों के ज्ञान, और अपने भीतर के भ्रष्ट स्वभाव के बारे में बोलना, फिर अन्य लोगों को इन्हें समझने देना, सकारात्मक को स्वीकार करने और जो नकारात्मक है उसे पहचानने देना। केवल यही साझा करना है, और केवल यही वास्तव में संगति करना है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। "खुद को हैसियत के नियंत्रण से मुक्त करने के लिए तुम्हें पहले उसे अपने इरादों, अपने विचारों और अपने दिल से हटाना होगा। यह कैसे हासिल किया जाता है? पहले, जब तुम बिना हैसियत के होते थे, तो तुम उन लोगों को नजरअंदाज कर देते थे, जो तुम्हें आकर्षित नहीं करते थे। अब जबकि तुम्हारी हैसियत है, जब तुम ऐसे लोगों को देखते हो, तो तुम्हें उनके साथ संगति करने में अतिरिक्त समय बिताना चाहिए—तुम्हें उसके विपरीत होना चाहिए। तुम्हें अपना दिल लोगों के सामने खोलने, खुद को उजागर करने, अपनी समस्याओं और कमजोरियों के साथ-साथ इस बारे में सहभागिता करने में अधिक समय बिताना चाहिए कि कैसे तुमने परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया, और फिर तुम इससे कैसे ऊपर उठे, और कैसे परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में सक्षम हुए। ... कुछ लोग हमेशा सोचते हैं कि जब लोगों के पास हैसियत हो, तो उन्हें अधिकारियों की तरह पेश आना चाहिए, तभी दूसरे लोग उन्हें गंभीरता से लेंगे और तभी उनका सम्मान करेंगे, जब वे खास तरीके से बोलेंगे। अगर तुम यह समझ पाओ कि सोचने का यह तरीका गलत है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और दैहिक चीजों से मुँह मोड़ लेना चाहिए। उस रास्ते पर मत चलो। जब तुम्हारे मन में इस तरह के विचार आएँ तो तुम्हें इस अवस्था से बाहर निकल आना चाहिए, तुम्हें अपने-आपको इसमें फँसने नहीं देना चाहिए। एक बार तुम इसमें फंस गए और ये सोच-विचार तुम्हारे भीतर आकार लेने लगे, तो तुम एक छद्म भेस धारण कर लोगे और अपने ऊपर एक आवरण लपेट लोगे, इतना मज़बूती से कस लोगे कि कोई देख न पाए या तुम्हारे दिल अथवा मन को भाँप न पाए। तुम दूसरों से ऐसे बात करोगे जैसे तुमने कोई मुखौटा लगा रखा हो। वे तुम्हारा हृदय नहीं देख पाएंगे। तुम्हें दूसरे लोगों को यह देखने देना सीखना चाहिए कि तुम्हारे दिल में क्या है, लोगों पर विश्वास करो और उनके करीब आओ। तुम्हें भौतिक प्रवृत्तियों से दूर हो जाना चाहिए—और इसमें कुछ भी गलत नहीं है; यह भी अपनाया जा सकने वाला मार्ग है। तुम्हारे साथ चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें सबसे पहले अपनी सोच में मौजूद समस्याओं पर विचार करना चाहिए। अगर तुम्हारा झुकाव अभी भी किसी प्रकार का दिखावा या ढोंग करने की ओर हो, तो तुम्हें जितनी जल्दी हो सके, परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : 'हे परमेश्वर, मैं फिर से अपना भेस बदलना चाहता हूँ, और मैं एक बार फिर चालबाजी और छल-कपट में लिप्त होना चाहता हूँ। मैं कितना शैतान हूँ! मैं तुम्हारे अंदर अपने लिए कितनी नफरत पैदा कर रहा हूँ! मुझे इस समय अपने-आप पर कितनी कोफ्त हो रही है, कृपा करके मुझे अनुशासित करो, मुझे धिक्कारो और मुझे दंडित करो।' तुम्हें यह प्रार्थना करते हुए अपने रवैये को प्रकाश में लाना चाहिए। यह तुम्हारे अभ्यास के तरीके से जुड़ा हुआ है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग')। इन वचनों ने मुझे और भी प्रबुद्ध कर दिया। नाम और रुतबे के चक्कर से बाहर निकलना मतलब सत्य का अभ्यास करना, एक ईमानदार इंसान बनना। हमें भाई-बहनों के सामने अपना दिल खोलकर अपनी भ्रष्टताओं और कमियों पर बात करनी चाहिए, सभी को अपना सच्चा रूप दिखाना चाहिए। जब दूसरे सवाल पूछें तो हमें अपनी तरफ से अच्छे-से-अच्छा जवाब देना चाहिए कुछ न समझने पर उसके बारे में ईमानदार रहना चाहिए, ताकि हम सब मिलकर सत्य खोज सकें। सत्य को अधिक अभ्यास में लाकर हम धीरे-धीरे खुद को नाम और रुतबे से छुड़ा सकते हैं। तब मैंने सोचा कि मैं दूसरों के सामने दिल खोलकर बताऊँगी कि मैं कैसे नकाब ओढ़े रहती थी। पर मैं यह सोचकर बड़ी उलझन में थी कि ऐसा करने के बाद क्या होगा। "अगर मैंने अपना असली स्वभाव बता दिया तो सभी क्या सोचेंगे? क्या वे मुझे नीची नजर से देखेंगे?" यह सोचते हुए मैं बड़ी घबरा गई। मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर दिखावा करने की कोशिश कर रही हूँ, इसलिए मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की। सोचने लगी कि कैसे मुझे हमेशा यह चिंता रहती है कि दूसरे मुझे किस नजर से देखते हैं कैसे मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं पर कभी ध्यान नहीं देती। मैंने फैसला किया कि मैं अपना मान और रुतबा बचाना छोड़ दूँगी। मुझे सत्य का अभ्यास करना था, एक ईमानदार इंसान बनना था, हरेक के सामने अपना दिल खोलते हुए, भ्रष्टताओं को उजागर करते हुए, उन्हें यह देखने दूँगी कि मैं एक भ्रष्ट इंसान हूँ, ऐसी प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ। ऐसा सोचकर मैं काफी शांत महसूस करने लगी, और मैंने अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाने के लिए किस तरह अपनी भ्रष्टता और कमियों को छिपाया था, इस पर मैंने संगति भी की, मैंने उन्हें बताया कि मैंने रुतबे के पीछे भागने के खतरों के बारे में क्या सीखा था, ताकि मेरे भाई-बहन मेरी नाकामी से कुछ सीख सकें। संगति के बाद मुझे खासतौर से शांति और मुक्ति महसूस हुई, दूसरों ने कहा कि उन्हें सचमुच इससे फायदा हुआ। मैंने सत्य के अभ्यास और एक ईमानदार इंसान होने के आनंद को भी महसूस किया। अब भाई-बहनों के साथ होने पर मैं दिल खोलकर संगति करती हूँ, उन्हें बताती हूँ कि कैसे अलग-अलग स्थितियों ने मेरी भ्रष्टताएँ उजागर कीं, मुझे कैसे उनका एहसास हुआ, कैसे मैंने सत्य खोजा। अगर मुझे अभ्यास का तरीका पता नहीं होता तो मैं ईमानदारी से ऐसा कह देती हूँ, ये नहीं सोचती कि वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मैं जब भाई-बहनों के साथ अपना कर्तव्य निभाती हूँ, तो मैं मुझे उलझाने वाली या मुश्किल लगने वाली चीजों पर खुलकर बात करती हूँ। यह भी बताती हूँ कि मैं क्या नहीं समझती, क्या नहीं कर सकती, उन्हें सुझाव देने और हाथ बंटाने के लिए बढ़ावा देती हूँ, ताकि हम एक-दूसरे से सीख सकें। भाई-बहन धीरे-धीरे अपने कर्तव्य में कोई जिम्मेदारी लेने के योग्य होने लगे और अपनी भ्रष्टताओं पर आत्म-चिंतन करने लगे, फिर खुद को जानने के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ने लगे। यह सब देखकर मैंने दिल में परमेश्वर का बार-बार शुक्रिया किया। इस अनुभव से मैंने गहराई से यह महसूस किया कि एक सृजित प्राणी होने के लिए सबसे जरूरी है कि हम अडिग रहें और अपना कर्तव्य अच्छे-से-अच्छे ढंग से निभाएँ, परमेश्वर और दूसरे लोगों के साथ ईमानदार हों। सिर्फ इसी तरीके से दूसरों को फायदा हो सकता है और वे हमारे जीवन से शिक्षित हो सकते हैं।

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