इस "प्रेम" के पीछे क्या छिपा है
विश्वासी बनने से पहले, मुझे लगता था "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है," "लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए," और "प्रेम से कहा गया एक शब्द गहरी उदासी को दूर कर सकता है, एक कठोर शब्द खुशनुमा माहौल को बिगाड़ सकता है" जीने के सही फलसफे हैं। मैंने कभी लोगों की कमियों पर ध्यान नहीं दिया, कथनी और करनी में, मैं हमेशा दूसरों की भावनाओं का ध्यान रखती थी और परेशानियों में उन्हें दिलासा देती थी। दोस्त और सहपाठी मुझे पसंद करते थे, हर किसी के साथ अच्छी तरह घुल-मिलकर रहने को लेकर मैं खुद से काफी खुश थी। आस्था रखने के बाद भी मैंने यही नज़रिया बनाए रखा, मैंने भाई-बहनों की किसी भी समस्या पर कभी उँगली नहीं उठायी। अगर कोई अपनी भ्रष्टता की वजह से कलीसिया को नुकसान पहुंचा रहा होता, तो उसे ऐसा करते देखकर भी मैं चुप ही रहती थी। मुझे लगता था जैसे दूसरों के प्रति सहनशील, क्षमाशील और स्नेही होकर, मैं एक नेक इंसान हूँ। परमेश्वर से न्याय और ताड़ना मिलने के बाद मैंने जाना कि मेरे "प्रेम" के पीछे मेरे बुरे इरादे छिपे हुए थे। मैंने देखा कि मैं एक नेक इंसान बिल्कुल भी नहीं थी, बल्कि मैं तो एक नेक इंसान के वेश में स्वार्थी, नीच और कपटी थी। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के साथ-साथ उसके वचनों के मार्गदर्शन से ही मैं एक नेक इंसान होने के सिद्धांतों को जान पाई।
मैंने जुलाई 2018 में, कलीसिया की अगुआ के तौर पर काम करते हुए शुरुआत की। मैंने देखा कि बहन लियु जो वीडियो प्रोडक्शन में काम करती थी, वो अपने कर्तव्य में लापरवाह है और हमेशा अपने कदम पीछे खींच लेती है, उसे ज़िम्मेदारी का ज़रा भी एहसास नहीं था। एक सभा में, मैंने परमेश्वर के ऐसे वचन ढूंढ़ निकाले जो बड़े काम के थे, मैंने थोड़ी सरल सहभागिता साझा की, तब उसने माना कि वो अपने कर्तव्य में लापरवाह थी और अब बदलना चाहती है, लेकिन वो फिर पहले की ही तरह लापरवाह हो गई। उस वक्त मैंने सोचा कि अगर उसने अपने कर्तव्य के प्रति अपना रवैया नहीं बदला, तो इससे ज़रूर कार्य की प्रभावशीलता पर असर पड़ेगा और इससे उसके जीवन प्रवेश में भी मदद नहीं मिलेगी। लगा जैसे मुझे उसकी हालत और बर्ताव के बारे में सब-कुछ साफ़-साफ़ बताते हुए उसके साथ सहभागिता करनी चाहिए, उस तरीके से काम करने की प्रकृति और परिणामों के बारे में बताना चाहिए, ताकि वह समस्या की गंभीरता को समझ सके और समय रहते बदलाव कर सके। मगर फिर मैंने सोचा, "अगर मैंने उसकी समस्याओं के बारे में बताया, तो क्या वो इसे स्वीकार कर पाएगी? क्या वो कहेगी कि मुझमें प्रेम की कमी है और सोचेगी कि मैं उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हूँ? अगर वो मुझसे नाराज़ होकर मेरे ख़िलाफ़ हो गई, तो उसके साथ घुल-मिलकर रह पाना मुश्किल हो जाएगा। चलो छोड़ो। मैं सीधे-सीधे उसे सब कुछ नहीं बताऊंगी। मैं बस थोड़ी-सी चर्चा कर दूँगी और वो अपनी हालत के बारे में खुद समझ जाएगी। इस तरीके से उसे शर्मिंदा नहीं होना पड़ेगा और हमारे बीच चीज़ें उतनी बुरी नहीं होंगी।" फिर, मैंने यह कहते हुए बात को टाल दिया, "अगर हम लापरवाही की हालत का समाधान नहीं करते हैं, तो किसी भी तरह अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा पाएंगे। कर्तव्य निभाने का यह अवसर अनमोल है, हमें इसे संजोना ही पड़ेगा।" वो लापरवाही से अपना कर्तव्य निभाती रही, जिससे हमारा वीडियो प्रोडक्शन का काम ही नहीं रुका, बल्कि दूसरे भाई-बहनों पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ा। दूसरे लोग वक्त की ज़रूरत को समझे बिना अपना काम धीरे-धीरे करने लगे। वे आने वाली मुश्किलों को हल करने के लिए कड़ी मेहनत नहीं करना चाहते थे। बाद में, जब एक बहन ने उसकी काट-छाँट और निपटान किया, तो न तो उसने पश्चाताप किया और न ही खुद को बदला। इससे मैं थोड़ी परेशान हो गई, मैंने सोचा, "बहन लियु बड़ी लापरवाह है, उसने खुद में कोई बदलाव नहीं किया। वो अपने कर्तव्य में कुछ भी हासिल नहीं कर पा रही है। सिद्धांतों के अनुसार, उसे बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए, लेकिन अगर मैंने उसे इस तरह बर्खास्त किया, तो वो कह सकती है कि मेरे अंदर प्रेम या सब्र नहीं है, मुझमें इंसानियत नाम की चीज़ नहीं है।" इस पर मंथन करने के बाद, मैंने बहन लियु को बर्खास्त करने के बजाय, उसे कोई और काम सौंपने की भरसक कोशिश करने का फ़ैसला किया। इस तरह मुझे लेकर उसकी राय नकारात्मक नहीं होगी और वो अब भी मुझे एक स्नेही इंसान समझेगी। फिर इस बहाने के साथ कि बर्खास्त करने से बहन लियु नकारात्मक और निराश हो जाएगी, मैंने उसे वीडियो प्रोडक्शन के लिए ज़रूरी फ़ुटेज की व्यवस्था करने का काम सौंप दिया। मगर चूंकि उसे खुद की कोई असली समझ नहीं थी, वो अपने नए काम में पहले से भी ज़्यादा अनुशासनहीन और लापरवाह हो गई। वह तो अपने धार्मिक कार्यों और प्रार्थना में भी शिथिल पड़ने लगी। चूंकि उसने अपने कर्तव्य की ज़िम्मेदारी नहीं निभाई, उसकी संकलित की गई फ़ुटेज थोड़ी बेतरतीब हो गई और उसके फ़ुटेज तैयार करने के बाद दूसरे व्यक्ति से उसे ठीक कराना पड़ा। एक बार तो उसने अनजाने में कुछ बहुत अहम फ़ुटेज ही मिटा डाले।
जब मेरी अगुआ को इस बारे में पता चला, तो उसने मेरे सिद्धांत के अनुसार काम न करने या सत्य पर अमल न करने, बल्कि अपनी छवि और रुतबे को बचाने की कोशिश के कारण मेरा निपटारा किया, क्योंकि मेरे कारण कलीसिया के काम पर असर पड़ा था। यह सुनकर मेरा दिल बैठ गया। मैं बहुत परेशान हो गई। उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे उस तरीके से काम करने की प्रकृति की थोड़ी समझ आई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का कोई संकल्प और इच्छा नहीं होती है; सत्य उनका जीवन बन गया है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे दुष्ट या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान उठाना पड़ता है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? इनमें से तो कोई नहीं; बात यह है कि तुम कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित किये जा रहे हो। इन सभी स्वभावों में से एक है, कुटिलता। तुम यह मानते हुए सबसे पहले अपने बारे में सोचते हो, 'अगर मैंने अपनी बात बोली, तो इससे मुझे क्या फ़ायदा होगा? अगर मैंने अपनी बात बोल कर किसी को नाराज कर दिया, तो हम भविष्य में एक साथ कैसे काम कर सकेंगे?' यह एक कुटिल मानसिकता है, है न? क्या यह एक कुटिल स्वभाव का परिणाम नहीं है? एक अन्य स्वार्थी और कृपण स्वभाव होता है। तुम सोचते हो, 'परमेश्वर के घर के हित का नुकसान होता है तो मुझे इससे क्या लेना-देना है? मैं क्यों परवाह करूँ? इससे मेरा कोई ताल्लुक नहीं है। अगर मैं इसे होते देखता और सुनता भी हूँ, तो भी मुझे कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। यह मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है—मैं कोई अगुआ नहीं हूँ।' इस तरह की चीज़ें तुम्हारे अंदर हैं, जैसे वे तुम्हारे अवचेतन मस्तिष्क से अचानक बाहर निकल आयी हों, जैसे उन्होंने तुम्हारे हृदय में स्थायी जगहें बना रखी हों—ये मनुष्य के भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव हैं। ये भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे विचारों को नियंत्रित करते हैं और तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देते हैं, और वे तुम्हारी ज़ुबान को नियंत्रित करते हैं। जब तुम अपने दिल में कोई बात कहना चाहते हो, तो शब्द तो तुम्हारे होठों तक पहुँचते हैं लेकिन तुम उन्हें बोलते नहीं हो, या, अगर तुम बोलते भी हो, तो तुम्हारे शब्द गोलमोल होते हैं, और तुम्हें चालबाज़ी करने की गुंजाइश देते हैं—तुम बिल्कुल साफ़-साफ़ नहीं कहते। दूसरे लोग तुम्हारी बातें सुनने के बाद कुछ भी महसूस नहीं करते, और तुमने जो कुछ भी कहा होता है उससे समस्या हल नहीं होती। तुम मन-ही-मन सोचते हो, 'अच्छा है, मैंने बोल लिया। मेरा अन्त:करण निश्चिंत हुआ। मैंने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दी।' सच्चाई यह है कि तुम अपने हृदय में जानते हो कि तुमने वह सब नहीं कहा है जो तुम्हें कहना चाहिए, कि तुमने जो कहा है उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और परमेश्वर के घर के कार्य का अहित ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। तुमने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं की, फिर भी तुम खुल्लमखुल्ला कहते हो कि तुमने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दी है, या जो कुछ भी हो रहा था वह तुम्हारे लिए स्पष्ट नहीं था। क्या तुम पूरी तरह अपने भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव के वश में नहीं हो?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। मुझे यह देखकर काफ़ी शर्मिंदगी हुई कि परमेश्वर के वचनों ने मेरे स्वार्थी और कपटी स्वभाव को उजागर कर दिया था। मैंने देखा कि बहन लियु अपने कर्तव्य में लापरवाह है और कई बार आलोचना किए जाने पर भी उसने खुद को नहीं बदला, मगर इस डर से कि कहीं वो ये न कहने लगे कि मैं स्नेही नहीं हूँ, मैंने बस उसकी समस्याओं की ओर थोड़ा इशारा भर कर दिया, ताकि मैं उसके दिल में बनी अपनी छवि और रुतबे को बचा सकूँ, इससे बहन लियु को कोई फायदा नहीं हुआ और हमारा वीडियो प्रोडक्शन का काम भी रुक गया। सिद्धांतों के अनुसार, मुझे उसे काम से बर्खास्त कर देना चाहिए था, मगर मैं एक नेक, स्नेही इंसान दिखना चाहती थी, इसलिए मैंने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय, मैंने उसे वीडियो के लिए फ़ुटेज तैयार करने दी, जिससे कलीसिया के काम को काफ़ी नुकसान पहुंचा। मुझे एहसास हुआ कि मैं दूसरों के दिलों में अपनी इज़्ज़त बनाये रखने के लिए भाई-बहनों को बुरी हालत में रखकर और कलीसिया के हितों को नुकसान पहुंचाकर खुश थी। इसे एक नेक इंसान होना कैसे कहा जाएगा? ये तो स्वार्थी, नीच, कपटी और दुष्ट इंसान का काम है। इससे परमेश्वर को घृणा क्यों नहीं होगी? उसके बाद, हमने बहन लियु को बर्ख़ास्त करने में देर नहीं की, मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में उसके साथ सहभागिता की, अपने काम में उसके लगातार एक जैसे बर्ताव को उजागर किया। कुछ समय बाद, सत्य की खोज करके उसे कुछ आत्मज्ञान मिला और वह अपनी हालत को बदल पायी। वह फिर से अपने काम पर लौट आई और एक टीम की प्रभारी चुनी गई। उसके बारे में ऐसी खबर सुनकर मुझे बहुत खुशी मिली, मगर शर्मिंदगी और पछतावा भी हुआ। पहले, मैं सत्य पर अमल न करके, सिर्फ़ अपनी इज़्ज़त और रुतबे को बचाने में लगी रहती थी, जिससे जीवन में उसकी प्रगति रुक गई और परमेश्वर के घर के काम को भी क्षति पहुँची। ये वाकई बहुत बुरा था! तब से मुझे पता चल गया कि मैं भाई-बहनों के हितों और परमेश्वर के घर के काम की कीमत पर, एक खुशामदी इंसान नहीं बन सकती। लेकिन जब सत्य पर अमल करने का वक्त आया, तो मैंने अपनी भ्रष्टता को खुद पर हावी पाया।
अक्टूबर 2020 में, मुझे एहसास हुआ कि बहन लिन, जो सिंचन का कर्तव्य निभा रही थी, उसे अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे, क्योंकि उसमें काबिलियत की कमी थी, इसलिए मैं उसे दूसरा काम सौंपने वाली थी। फिर मैंने देखा कि वह बहुत अहंकारी है और दूसरों से असहमत होने पर सत्य के सिद्धांतों की खोज करने के बजाय चाहती थी कि सभी लोग उसकी बात सुनें। मैंने सोचा, "अगर उसके अहंकारी स्वभाव का समाधान नहीं हुआ, तो वह कभी दूसरों के साथ ठीक से काम नहीं कर पाएगी और अपने किसी भी कर्तव्य में अच्छा नतीजा नहीं दे पाएगी। यह उसके या परमेश्वर के घर के काम के लिए अच्छा नहीं होगा। उसकी इस समस्या के बारे में मुझे उससे बात करनी चाहिए और सबसे अच्छी सहभागिता करनी चाहिए।" लेकिन बाद में अपनी सहभागिता में, मैंने कहा, "तुम्हें जानने के बाद मुझे पता चला कि तुम्हें अहंकार की समस्या है। तुम दूसरों के साथ ठीक से काम नहीं करती या उनके सुझावों को नहीं मानती, इससे अपने काम में तुम्हारे नतीजों पर असर पड़ता है। इसके बारे में तुम क्या सोचती हो?" मेरे मुँह से यह बात सुनते ही, बहन लिन ने उदास होकर कहा, "दूसरों के साथ ठीक से काम नहीं करने का मतलब है कि मैं कोई भी काम अच्छे से नहीं कर पाऊँगी। मुझे कुछ समय तक काम छोड़कर आत्मचिंतन करना होगा।" उसे ऐसा कहते सुनकर, मैंने सोचा, "सबसे पहले तो उसकी हालत बहुत अच्छी नहीं है। अगर मैं उसे उजागर करके उसकी समस्या का विश्लेषण करती हूँ, तो क्या वो यह सोचेगी कि मैं जान-बूझकर उसके साथ कठोरता से पेश आकर उसे निशाना बना रही हूँ? वो कह सकती है कि मैं निष्ठुर और कठोर हूँ। इससे, जाने से पहले उसके मन में मेरे बारे में खराब छवि बन सकती है। मैं सीधे-सीधे नहीं कहूंगी, बल्कि उसे थोड़ा प्रोत्साहन दूँगी। उसकी समस्या के बारे में संक्षेप में बात करना ही काफ़ी होगा। विचार करने के बाद शायद उसे थोड़ी समझ आ जाए और वो खुद को बदल सके। इससे उसे अधिक बुरा भी नहीं लगेगा और वो मुझे एक स्नेही, सहनशील कलीसिया अगुआ के तौर पर देखेगी।" इसलिए, मैंने अपना लहजा बदलकर, उसे यह कहते हुए दिलासा दी, "दरअसल कर्तव्य में आया यह बदलाव भी परमेश्वर का प्रेम ही है। तुम खुद को बदलने की कोशिश जारी रख सकती हो, अगर कुछ समय बाद तुम्हारे अहंकार में थोड़ा भी बदलाव आता है, तो तुम सिंचन के काम में वापस आ सकती हो। हमें इस पर सही तरीके से सोचना होगा।" फिर मैंने लोगों को दिलासा देने और समझाने वाले, परमेश्वर के कुछ वचन ढूंढ़कर सहभागिता की, इन वचनों को सुनकर उसके चेहरेसे चिंता की लकीरें गायब हो गईं। उसने कहा कि अब से, वो अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना और बेहतर नतीजे पाने की कोशिश करना चाहती है।
घर आकर, मैं भी यही सोच रही थी। मैंने सोचा, "इस तरह दिलासा देने से उस वक्त वो नकारात्मक नहीं रही, मगर क्या उसे अपने भ्रष्ट स्वभाव की कोई वास्तविक समझ हासिल हुई? क्या उसके काम में बदलाव करने से उसे खुद को बदलने की कोई प्रेरणा मिलेगी? कुछ ही दिनों में वो दूसरे काम में लग जाएगी, अगर वही समस्या दोबारा सामने आ गई, तो क्या उसकी कार्यक्षमता पर सीधा असर नहीं पड़ेगा?" मैं सहज महसूस नहीं कर रही थी, इसलिए मैंने अपने साथ काम करने वाली बहन फैंग से पूछा कि वो इस बारे में क्या सोचती है। उसने कहा, "मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि बहन लिन को अपने भ्रष्ट स्वभाव की वास्तविक समझ नहीं है। उसने कलीसिया के काम को जो नुकसान पहुंचाया है, उस बारे में उसे अधिक पछतावा नहीं है, न ही वो इसके लिए खुद को दोषी मानती है। जब आपने उसे यह कहते सुना कि वह अब अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती, तो आपने उसे दिलासा दी, मगर आपने उसके अहंकार और दूसरों के साथ ठीक से काम न कर पाने की उसकी समस्या की जड़ को लेकर स्पष्ट सहभागिता नहीं की। इससे उसके आत्मचिंतन और जीवन प्रवेश को लेकर उसे कोई मदद नहीं मिलेगी।" बहन फैंग ने आगे कहा, "इस दौरान जब से आपको जाना है, मुझे आप 'दाई माँ' जैसी लगी हैं।" उसे यह कहते सुनकर, मुझे समझ नहीं आया कि मैं हँसूँ या रोऊँ। मैंने सोचा, वो मुझे ऐसा कैसे समझ सकती है। मुझे उलझन में देखकर, उसने फ़ौरन अपनी बात समझाई : "जब कभी भ्रष्टता के कारण किसी भाई या बहन के कर्तव्य पर कोई असर पड़ता है, तो आप उन्हें दिलासा देती हैं, उन्हें उजागर करने के लिए कोई सच कहने की हिम्मत नहीं करती हैं। आप उन्हें समस्याओं से भागने देती हैं और इससे उनके जीवन में कोई फ़ायदा नहीं होने वाला। मैंने कई कलीसिया अगुआओं के साथ काम किया है, लेकिन मैंने आपकी जैसी अगुआ कभी नहीं देखी ..." लेकिन उसकी बात ने वाकई ऐसी चीज़ की ओर मेरा ध्यान दिलाया जो हमेशा से मेरी समस्या रही है, इसने मुझे पहले की एक घटना की याद दिला दी। एक और बहन ने पहले मेरी इस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था, उसने कहा, "मैंने कुछ समय से आपके साथ काम कर रही हूँ, लेकिन आपने मेरी किसी भी समस्या या कमी का ज़िक्र कभी नहीं किया। इस बारे में आपने कभी मेरी मदद नहीं की।" मेरे बारे में इन दो बहनों के आकलन ने वाकई मेरे दिल को चीर दिया, मैंने खुद को दोषी महसूस किया। मैं काफ़ी समय से दूसरे लोगों के साथ काम कर रही थी, मगर मैंने कभी ऐसा कुछ नहीं दिया जिससे उन्हें वाकई कोई मदद मिली हो। मैं हमेशा भाई-बहनों की किसी भी कमी पर उनका ध्यान दिलाने से क्यों डरती रही? इसकी वजह जानने के लिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "परमेश्वर, मैं अक्सर इस डर से दूसरों की समस्याओं की ओर उनका ध्यान दिलाने की हिम्मत नहीं कर पाती कि कहीं वे नाराज़ न हो जाएं। इस तरह लोग कुछ भी नहीं सीख पाते। परमेश्वर, मैं इस तरह की इंसान नहीं बनना चाहती, मगर मैं इस समस्या की जड़ को नहीं समझ पाती। मुझे राह दिखाओ, ताकि मैं खुद को जान सकूँ और यह सबक सीख सकूँ।"
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिसमें उन मसीह-विरोधियों को उजागर किया गया है जो अपनी साख बनाने में लगे रहते हैं। इससे मुझे काफ़ी मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "कलीसिया के कुछ अगुआ अपने भाई-बहनों को अपने कर्तव्य लापरवाही और मशीनी ढंग से निभाते देख फटकार नहीं लगाते, हालाँकि उन्हें ऐसा करना चाहिए। जब वे कुछ ऐसा देखते हैं जो परमेश्वर के घर के हितों के लिए स्पष्ट रूप से हानिकारक है, तो वे आँख मूँद लेते हैं, और कोई पूछताछ नहीं करते, ताकि दूसरों के थोड़े भी अपमान का कारण न बनें। उनका असली उद्देश्य और लक्ष्य दूसरों की कमज़ोरियों का लिहाज करना नहीं है—वे अच्छी तरह जानते हैं कि उनका मंतव्य क्या है : 'अगर मैं इसे बनाए रखूँ और किसी के भी अपमान का कारण न बनूँ, तो वे सोचेंगे कि मैं अच्छा अगुआ हूँ। मेरे बारे में उनकी अच्छी, ऊँची राय होगी। वे मुझे मान्यता देंगे और मुझे पसंद करेंगे।' परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितनी अधिक क्षति पहुँची हो, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनके जीवन प्रवेश में चाहे जितना अधिक बाधित किया जाए, या कलीसिया का उनका जीवन चाहे जितना अधिक अशांत हो, ऐसे लोग अपने शैतानी फलसफ़े पर अड़े रहते हैं और किसी को नुकसान नहीं पहुँचाते। उनके दिलों में कभी भी आत्म-धिक्कार का भाव नहीं होता; बहुत-से-बहुत, वे चलते-चलते कुछ मुद्दों का आकस्मिक उल्लेख भर कर सकते हैं, और फिर बस हो गया। वे सत्य की सहभागिता नहीं करते, न ही वे दूसरों की समस्याओं का मूलतत्त्व बताते हैं, और लोगों की दशाओं का विश्लेषण तो वे और भी नहीं करते। वे सत्य की वास्तविकता में प्रवेश के लिए लोगों की अगुआई नहीं करते, न ही वे बतलाते हैं कि परमेश्वर की इच्छा क्या है, या लोग अकसर कैसी ग़लतियाँ करते हैं, या लोग किस तरह के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। वे इन जैसी व्यावहारिक समस्याओं को हल नहीं करते; इसकी बजाय, वे दूसरों की कमज़ोरियों और नकारात्मकता के प्रति, यहाँ तक कि उनकी लापरवाही और मशीनी ढंग के प्रति भी हमेशा दयालु होते हैं। वे इन लोगों के कृत्यों और व्यवहारों को उनकी वास्तविकता का ठप्पा लगाए बिना जाने देते हैं, और, ठीक इसीलिए कि वे ऐसा करते हैं, अधिकांश लोग सोचने लगते हैं : 'हमारा अगुआ तो हमारे लिए माँ जैसा है। हमारी कमज़ोरियों के प्रति उनमें परमेश्वर से कहीं ज़्यादा समझ-बूझ है। हमारा आध्यात्मिक कद परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की दृष्टि से काफ़ी छोटा हो सकता है, लेकिन इतना काफ़ी है कि हम अपने अगुआ की अपेक्षाओं पर खरे उतर सकें। हमारे लिए वे अच्छे अगुआ हैं। अगर कोई दिन आता है जब उच्च हमारे अगुआ को बदल देता है, तो हमें पक्का करना चाहिए कि हमारी बात सुनी जाए, और अपने भिन्न-भिन्न मत और इच्छाएँ सामने रखनी चाहिए। हमें उच्च के साथ बातचीत करने का प्रयास करना चाहिए।' ... कुछ समय तक लोगों के बीच मसीह-विरोधियों की ऐसी हरकतों के बाद लोग उनके बारे में एक अनुकूल छवि बना लेते हैं और उन पर विश्वास करने लगते हैं, और उन पर उनका भरोसा जम जाता है—लेकिन एक चीज के बारे में तुम निश्चित हो सकते हो : जिन लोगों को वे इस तरह से जीतते हैं और जिन पर वे अपनी इन तकनीकों और विधियों से काम करते हैं, वे सत्य नहीं समझ सकते और अपने जीवन-प्रवेश में कोई प्रगति नहीं करते। इसके विपरीत, वे लोग उन्हें अपनी आजीविका के स्रोत के रूप में और परमेश्वर के विकल्प के रूप में देखते लगते हैं। वे लोगों के दिलों में परमेश्वर का स्थान हड़प लेते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं')। परमेश्वर के वचनों में जो उजागर किया गया है उससे मुझे एहसास हुआ कि मसीह-विरोधी लोगों को नाराज़ नहीं करते या दूसरों की भ्रष्टता को उजागर नहीं करते, ताकि वे उनके पक्ष में बोल सकें और दूसरों के दिलों में उनकी इज़्ज़त बनी रहे। क्या मैं भी ऐसी ही नहीं थी? आम तौर पर, जब मैं भाई-बहनों को ऐसा कुछ करते देखती थी जो सत्य के अनुरूप नहीं होता, जिससे परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुंचता था, तो मुझे समस्या की सार की ओर उनका ध्यान दिलाने की हिम्मत नहीं होती थी, क्योंकि इससे मुझे एक विचारशील और समझदार इंसान होने को लेकर उनके मन में बनी मेरी छवि बिगड़ने का डर रहता था। यही वजह है कि मैं अक्सर मामले को घुमा-फिराकर टालने की कोशिश करती थी और दूसरों को उनकी भ्रष्टता और कमज़ोरी में लिप्त कर लेती थी। मैं लोगों को गुमराह करके और बाहर से अच्छा बनकर अपनी साख बनाने में लगी थी, ताकि दूसरों के दिलों में मेरी इज़्ज़त बनी रहे। इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश और परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुंचता था। मैं दूसरों की मदद नहीं कर रही थी, लेकिन फिर भी वे मेरे बारे में अच्छी बातें करते थे। क्या यह भाई-बहनों को मेरे समक्ष नहीं ला रहा था? मेरे कर्मों और एक मसीह विरोधी के कर्मों के सार में क्या फ़र्क है? इसका एहसास होने पर मुझे काफ़ी डर लगने लगा। परमेश्वर ने मुझे अगुआ का पद देकर ऊँचा उठाया था, ताकि मैं दूसरों की समस्याओं और जीवन प्रवेश में आने वाली परेशानियों को हल करने के लिए सत्य पर सहभागिता करने का अभ्यास कर सकूँ, सत्य की खोज कर सकूँ और समस्याओं के आईने में खुद को जान कर, परमेश्वर के सामने पश्चाताप कर सकूँ, सत्य पर अमल करके उसके प्रति समर्पित हो सकूँ। लेकिन इसके बजाय, मैं एक सड़क छाप लुटेरे जैसी बन गई, दूसरों का समर्थन पाने और उनके बीच अपनी इज़्ज़त बनाये रखने के लिए घृणित तरीकों का इस्तेमाल करती रही। क्या यह बिल्कुल एक मसीह-विरोधी जैसा बर्ताव नहीं था? मैं परमेश्वर के लोगों के लिए उसी के साथ लड़ रही थी, जिससे उसके स्वभाव का गंभीर अपमान होता है! मैंने देखा कि एक खुशामदी इंसान होने का सार और परिणाम कितने डरावने होते हैं, अब अगर मैं नहीं बदली, तो मुझे हटा दिया जाएगा। इसका एहसास होने पर, मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना की: "हे परमेश्वर, अब मुझे समझ आ गया है कि मैं एक अच्छी इंसान बिल्कुल भी नहीं हूँ, बस दूसरों की नज़रों में खुद को अच्छा दिखाना चाहती हूँ। हमेशा दूसरों के मन में अपनी छवि को बनाये रखना चाहती हूँ, भाई-बहनों को गुमराह करके उन्हें अपनी ओर खींचना चाहती हूँ। इससे तुम्हें बहुत नफ़रत है। परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने पश्चाताप करके खुद की इच्छाओं का त्याग करना और खुद को एक खुशामदी इंसान बनने से रोकना चाहती हूँ।"
उसके बाद, बहन फैंग और मैंने बहन लिन की समस्या के बारे में और भी बातें कीं, फिर उसके साथ सहभागिता करके उसकी मदद करने गईं। हमने उसकी अहंकार की अभिव्यक्तियों के बारे में बात की और उसकी राय जानने पर ज़ोर दिया। हमने परमेश्वर के ऐसे वचन भी ढूंढ़ निकाले जिनमें अहंकार के साथ जीने के खतरनाक परिणामों और जीवन प्रवेश के साथ-साथ अभ्यास की बात की गई है। हमारी सहभागिता के बाद वो हमसे नाराज़ नहीं हुई, वो उतनी कमज़ोर भी नहीं थी जितनी कि मैंने कल्पना की थी। उसने बड़ी सच्चाई से कहा, "आप दोनों मेरी समस्याओं के बारे में बिल्कुल सही कह रही हैं। आगे से मैं अपने अहंकारी स्वभाव को दूर करने पर ध्यान दूँगी...।" उसे ऐसा कहते सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने देखा कि लोगों से सत्य के सिद्धांतों के अनुसार बर्ताव करना और उन्हें परमेश्वर के सामने लाना ही सच्चा प्रेम और उदारता है। मैं हमेशा यही सोचती थी कि प्रेम से दूसरे भाई-बहनों की मदद करने का मतलब है उन्हें आगाह करके प्रोत्साहन देना, उनको सहारा देकर संभालना, न कि उनकी भ्रष्टता को लेकर बहुत कड़ा रवैया अपनाना। मुझे लगता था कि वे इसे स्वीकार नहीं कर पाएंगे और नकारात्मक हो जाएंगे। अब मुझे एहसास हुआ कि सही मायनों में स्नेही होने का मतलब है सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार दूसरों की भ्रष्टता, समस्याओं और परेशानियों का समाधान करने में मदद करना। सहारा देना और संभालना एक दृष्टिकोण है, लेकिन काट-छाँट और निपटारा करना दूसरा। उदाहरण के लिए, कभी-कभी जब किसी इंसान में कोई बहुत गंभीर भ्रष्टता होती है और बार-बार सहभागिता करने के बाद भी वह खुद को बदल नहीं पाता है, तब परमेश्वर के वचनों के अनुसार उसके सार, मूल और परिणामों की गंभीरता का विश्लेषण करना ज़रूरी हो जाता है, ताकि वे आत्मचिंतन करके खुद को जानने के लिए परमेश्वर के समक्ष आ सकें। तब आखिरकार वे सच्चा पश्चाताप कर सकते हैं। अच्छे नतीजे पाने का यही एकमात्र तरीका है। दूसरों के लिए मेरा तथाकथित प्रेम सांसारिक फलसफे पर आधारित था और इसमें मेरी घृणित मंशाएं छिपी हुई थीं। मैं बस दूसरों के मन में बनी अपनी छवि को बचाना चाहती थी। मैं भाई-बहनों के जीवन की कोई भी जिम्मेदारी नहीं उठा रही थी—इसमें सच्चा प्रेम होने की कोई संभावना नहीं थी। जब मुझे यह एहसास हुआ, तो मैं काफ़ी शर्मिंदा हुई और मैं अपने गलत तौर-तरीकों को सुधारने के लिए तैयार हो गई।
फिर मैं यह सोचने लगी कि जब मुझे दूसरों की गलतियों और भ्रष्टता का पता चलता है, और सत्य पर अमल करके उन्हें उजागर करने की ज़रूरत होती है, तो एक भी सच्ची बात कह पाना मेरे लिए इतना मुश्किल क्यों हो जाता है। ये तो ऐसा था जैसे मेरा मुँह सिल दिया गया हो और मेरे पास इसे खोलने का कोई उपाय न हो। कभी-कभी तो कोई बात मेरी ज़बान पर आकर रह जाती, फिर मैं उसे अंदर ही दबाकर कोई चालाकी भरी बात कह देती। मैं जब भी कोई ऐसी बात कहती जो सत्य के अनुरूप न होती तो मुझे वाकई चिढ़ होती, मैं जो महसूस करती और जो कहती, उनके बीच कोई तालमेल न होता। मैं भाई-बहनों के साथ नकली नेक इंसान बन रही थी, लेकिन सत्य पर अमल बिल्कुल नहीं करती थी। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े जिनमें इस समस्या की जड़ के बारे में बताया गया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "तुम सभी सुशिक्षित हो। तुम सभी अपनी बोली में परिष्कृत और संतुलित होने पर ध्यान देते हो, और बोलने के तरीके पर भी ध्यान देते हो : तुम व्यवहारकुशल हो, और दूसरों के स्वाभिमान और सम्मान को नुकसान नहीं पहुंचाना सीख चुके हो। अपने शब्दों और कार्यों में, तुम लोगों को उनकी अपनी सोच से काम करने का अवसर देते हो। लोगों को सहज महसूस कराने के लिए तुम वह सब कुछ करते हो जो तुम कर सकते हो। तुम उनकी कमियों या कमज़ोरियों को उजागर नहीं करते हो, और तुम कोशिश करते हो कि तुम उन्हें तकलीफ़ न पहुँचाओ और शर्मिंदा न करो। अधिकांश लोग इसी सिद्धांत के अनुसार काम करते हैं। और यह किस तरह का सिद्धांत है? यह चालाक, कपटी, विश्वासघाती और धोखेबाज़ है। लोगों के मुस्कुराते चेहरों के पीछे बहुत से द्वेषी, कपटी और घिनौनी बातें होती हैं। ... और इसलिए, क्या लोगों के शब्द विश्वसनीय हैं? क्या वे भरोसे के लायक होते हैं? लोग बहुत बेईमान होते हैं और भरोसा करने लायक नहीं हैं, और ऐसा इसलिए है क्योंकि उनका जीवन, उनके कार्य और शब्द, उनका प्रत्येक कर्म और अंतरतम विचार उनकी शैतानी प्रकृति, शैतानी सार और शैतान के भ्रष्ट स्वभाव पर आधारित है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जीवन संवृद्धि के छह संकेतक')। "अभी भी लोगों के जीवन में, और उनके आचरण और व्यवहार में कई शैतानी विष उपस्थित हैं—उनमें बिलकुल भी कोई सत्य नहीं है। उदाहरण के लिए, उनके जीवन दर्शन, काम करने के उनके तरीके, और उनकी सभी कहावतें बड़े लाल अजगर के विष से भरी हैं, और ये सभी शैतान से आते हैं। इस प्रकार, सभी चीजें जो लोगों की हड्डियों और रक्त में बहें, वह सभी शैतान की चीज़ें हैं। उन सभी अधिकारियों, सत्ताधारियों और प्रवीण लोगों के सफलता पाने के अपने ही मार्ग और रहस्य होते हैं, तो क्या ऐसे रहस्य उनकी प्रकृति का उत्तम रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं? वे दुनिया में कई बड़ी चीज़ें कर चुके हैं और उन के पीछे उनकी जो चालें और षड्यंत्र हैं उन्हें कोई समझ नहीं पाता है। यह दिखाता है कि उनकी प्रकृति आखिर कितनी कपटी और विषैली है। शैतान ने मनुष्य को गंभीर ढंग से दूषित कर दिया है। शैतान का विष हर व्यक्ति के रक्त में बहता है, और यह देखा जा सकता है कि मनुष्य की प्रकृति दूषित, बुरी और प्रतिक्रियावादी है, शैतान के दर्शन से भरी हुई और उसमें डूबी हुई है—अपनी समग्रता में यह प्रकृति परमेश्वर के साथ विश्वासघात करती है। इसीलिए लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं और परमेश्वर के विरूद्ध खड़े रहते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने सीखा कि भाई-बहनों की भ्रष्टता को उजागर करने की हिम्मत न कर पाने का कारण मेरा शैतानी विषों के काबू और जकड़ में होना था। मैंने इन बातों पर विचार किया, "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है," "लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए," "प्रेम से कहा गया एक शब्द गहरी उदासी को दूर कर सकता है, एक कठोर शब्द खुशनुमा माहौल को बिगाड़ सकता है" और "आप बोलने से पहले सोचें और फिर आत्मसंयम के साथ बात करें"—मैं इन शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी। मैं हमेशा अपनी इज़्ज़त और रुतबे को बचा रही थी। आस्था रखने के बाद भी, मैं शैतान के इन नियमों के अनुसार जीती रही, किसी को नाराज़ किये बिना, अपने संबंधों को प्यार से संजोती रही, यह सोचकर कि इस तरह मैं अपनी साख कायम करके दूसरों के दिलों में खुद की जगह बना पाऊँगी। मैं शैतान के इन विषों के काबू में थी, समस्याओं का सामना होने पर, मैं अपने नाम और रुतबे को ध्यान में रखकर, नफ़े-नुकसान का हिसाब लगाने लगती थी। अगर मुझे लगता कि मेरी निजी छवि को नुकसान पहुँचने की कोई संभावना है, तो मैं परमेश्वर के घर के हितों को दरकिनार कर अपने हितों की रक्षा करती थी। मैं तो दूसरों को नकारात्मक होने से रोकने की कोशिश का दावा भी करती थी, लोगों को गुमराह करके यह सोचने पर मजबूर करती थी कि मैं स्नेही और जिम्मेदार इंसान हूँ। मैंने देखा कि इन शैतानी फलसफों के अनुसार जीवन जीकर मैं कितनी स्वार्थी और धूर्त हूँ। मैं लोगों की नज़रों में एक अलग इंसान बनी हुई थी, जबकि मैं असलियत में दूसरी तरह की इंसान थी। मैंने सच्चे दिल से परमेश्वर का सामना नहीं किया, मैं तो भाई-बहनों के प्रति भी सच्चा रवैया नहीं रख पाई। मुझमें राक्षसी प्रवृत्ति आ गई थी। मैं दूसरों के साथ-साथ परमेश्वर के घर के काम को भी नुकसान पहुंचा रही थी। मैं बरसों से विश्वासी रही और परमेश्वर के बहुत-से वचन पढ़े, लेकिन मैंने परस्पर मेलजोल में सत्य के सिद्धांतों पर अमल नहीं किया, मैं कलीसिया के काम को भी कायम नहीं रख पाई। मैं शैतान के भ्रांतियों और झूठ पर अमल कर रही थी, मैं जिस थाली में खा रही थी उसी में छेद कर रही थी, और शैतान के साथ दलदल में धंसती जा रही थी। क्या मैं उनमें से नहीं जो परमेश्वर में विश्वास करते हुए भी उसका विरोध करते हैं? मैं जानती थी कि अगर मैंने खुद को नहीं बदला, तो परमेश्वर को नाराज़ करके उसके हाथों दंड की भागी बनूंगी। इसका एहसास होने पर, मैंने संकल्प लिया कि अब मैं इन शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जियूंगी, बल्कि समस्याओं का सामना करते हुए समझदारी से सत्य पर अमल करूंगी।
कुछ महीनों के बाद, मुझे पता चला कि बहन झाओ, जो मेजबानी का कर्तव्य निभा रही थी, उसके और अन्य भाई-बहनों के बीच छोटी-छोटी बातों पर गतिरोध पैदा हो गया है। जब कोई कुछ करता, तो उसे वह पसंद नहीं आता, उसका रवैया ऐसा था कि दूसरे लोग उससे बेबस महसूस करते थे। इससे कुछ लोगों के काम पर भी असर पड़ा, उसे फ़ौरन सहभागिता की ज़रूरत थी। बहन फैंग ने मुझसे पूछा, क्या मैं इस मामले को संभाल सकती हूँ, तो मैंने सोचा, "मैं बीते पाँच सालों से बहन झाओ को जानती हूँ। उसके मन में मेरी एक अच्छी छवि है, अगर मैंने उसे अहंकारी और खराब इंसानियत वाली इंसान के रूप में उजागर किया, तो क्या वो मुझसे खफ़ा नहीं हो जाएगी? क्या इससे हमारे संबंध बिगड़ नहीं जाएंगे? शायद बहन फैंग को इस बारे में खुद ही फ़ैसला करना चाहिए।" लेकिन फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश याद आया : "अच्छी मानवता होने का कोई मानक अवश्य होना चाहिए। इसमें संयम का मार्ग अपनाना, सिद्धांतों से चिपके न रहना, किसी को नाराज़ नहीं करने का प्रयत्न करना, जहाँ भी तुम जाओ वहीं चापलूसी करके कृपापात्र बनना, जिससे भी तुम मिलो सभी से चिकनी-चुपड़ी बातें करना, और सभी को अच्छा महसूस कराना शामिल नहीं है। यह मानक नहीं है। तो मानक क्या है? इसमें शामिल है परमेश्वर, अन्य लोगों, और घटनाओं के साथ सच्चे हृदय से बर्ताव करना, उत्तरदायित्व स्वीकार कर पाना, और यह सब इतने स्पष्ट ढंग से करना कि हर कोई देख और महसूस कर सके। इतना ही नहीं, परमेश्वर लोगों के हृदय को टटोलता है और उनमें से हर एक को जानता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। अच्छी इंसानियत होने का मतलब हमेशा मिलनसार होना और दूसरों के साथ घुल-मिलकर रहना नहीं होता है, बल्कि इसका मतलब अपनी कथनी और करनी में परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकार कर पाना और सत्य पर अमल करके एक ईमानदार इंसान बनना होता है। यह परमेश्वर के साथ-साथ भाई-बहनों को भी एक सच्चे दिल से देखना है। यही सही मायनों में अच्छी इंसानियत है। मैंने विचार किया : क्या मैं भाई-बहनों के साथ प्यार से पेश आ रही थी? क्या मैं सत्य पर अमल कर रही थी? मैं जानती थी कि बहन झाओ ने अपनी समस्या को नहीं समझा है, और दूसरों के साथ गतिरोध और वैर-भाव पीड़ादायक होता है। अगर मैंने इस समस्या को अनदेखा किया और अच्छी बनकर उसके अपराध में सहभागी बनी, तो क्या यह एक फिसलन भरे, कपटी स्वभाव के साथ जीना नहीं होगा? यह सोचकर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैं एक खुशामदी इंसान हूँ और मुझे सचमुच इंसानियत का अभाव है। मैंने एक बहन को भ्रष्टता के साथ जीते और शैतान के हाथों का खिलौना बनते देखा, लेकिन मैंने अपनी आँखें मूँद लीं। यह वास्तव में स्नेही होना नहीं है। परमेश्वर, मैं अपनी इच्छाओं का त्याग करना चाहती हूँ, अब अपने कपटी स्वभाव के अनुसार नहीं जीना चाहती, बल्कि बहन झाओ की समस्या को दूर करने में उसकी मदद के लिए खुलकर सहभागिता करना चाहती हूँ। मुझे राह दिखाओ।" हमारी सहभागिता के दौरान, मैंने उसे उसकी अहंकार की अभिव्यक्ति और इंसानियत के अभाव पर ध्यान दिलाने वाले परमेश्वर के कुछ वचन सुनाये और इस तरह का बर्ताव करने के खतरनाक परिणामों के बारे में सहभागिता की। उसे समझ आ गया कि वो अहंकारी है और हमेशा चीज़ों को अपने हिसाब से देखना चाहती है, जिससे भाई-बहन बेबस महसूस करते हैं। उसने यह भी कहा कि इस तरह की सहभागिता से उसे काफ़ी मदद मिली है। मैं परमेश्वर की आभारी हूँ कि उसने भ्रष्टता की जंजीरों को तोड़ने और यह अनुभव करने में मेरा मार्गदर्शन किया कि सत्य पर अमल करना और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जीना, भाई-बहनों के प्रति सच्चा प्रेम दिखाने का एकमात्र तरीका है। यही जीने का सबसे अच्छा और सुकून भरा रास्ता है।
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