दिखावे के लिए कर्तव्य निभाने के नतीजे

05 फ़रवरी, 2023

2021 में, मैं कई कलीसियाओं के काम की प्रभारी थी। वे हाल ही में स्थापित की गई थीं और उनका सारा काम शुरुआती चरण में था। हमारी ऊपरी अगुआ अक्सर काम निर्देशित करने के लिए आती थीं और समस्या होने पर समय से संगति करती थीं। वे खासकर सुसमाचार-कार्य के बारे में बहुत पूछती थीं। अन्य कलीसियाओं का सुसमाचार-कार्य अच्छा देख, और उनमें काफी ज्यादा लोगों को सच्चे मार्ग की जाँच कर हर महीने शामिल होते देख मुझे बहुत ईर्ष्या हुई। मैंने सोचा उच्च अगुआ के लिए सुसमाचार-कार्य अहम था पर मैं इस काम में बहुत पीछे हूँ। अगर मैं इसे अच्छी तरह न कर पाई और कार्य बाधित हो गया, तो अगुआ यकीनन कहेगी कि मुझमें क्षमता नहीं है, और मुझे बर्खास्त कर देगी। इसलिए कुछ समय मैंने सुसमाचार-कार्य पर बहुत मेहनत की, भाई-बहनों से बार-बार पता किया कि काम कैसा चल रहा है, हल खोजने के लिए उनकी समस्याओं को इकठ्ठा किया, पर दूसरे कार्य के बारे में ज्यादा पूछताछ नहीं की, जानकारी नहीं ली। कुछ समय बाद, हमें अपने सुसमाचार-कार्य में बेहतर नतीजे मिलने लगे, लेकिन हमारे सिंचन-कार्य की प्रभावशीलता कम होती गई। कठिनाइयों का सामना कर रहे या अपने पादरियों से परेशान कुछ नए विश्वासियों को समय पर सिंचन और सहारा नहीं मिला, इसलिए नकारात्मक होकर उन्होंने सभाओं में आना बंद कर दिया। यह देख मैंने सोचा कि हमारे पास सिंचन-कर्मियों की कमी है, कुछ नए विश्वासियों को प्रशिक्षित कर सिंचन-कर्मी बनाना चाहिए। लेकिन फिर मुझे ख्याल आया कि इस समय ऊपरी अगुआ का ध्यान सुसमाचार-कार्य पर लगा है, और अन्य सभी कलीसियाएँ इसमें बढ़िया काम कर रही हैं। अगर मुझे अच्छे नतीजे नहीं मिले, तो अगुआ जरूर सोचेगी कि मुझमें क्षमता की कमी है। मैंने सोचा, मुझे अपनी ऊर्जा सुसमाचार-कार्य पर लगानी चाहिए। इसके मद्देनजर, मैंने नवागतों को विकसित करने पर ज्यादा विचार नहीं किया। जब अगुआ ने हमारे काम की जाँच की, तो पाया कि हम हाल के महीनों में नए विश्वासियों को प्रशिक्षण नहीं दे रहे थे, और नए सदस्यों को समय पर सिंचन नहीं मिल रहा था। उसने गुस्से से कहा, "परमेश्वर के घर की अपेक्षा है कि हम नए विश्वासी विकसित करें। आपने हमारे काम का इतना अहम हिस्सा रोक दिया है—क्यों?" उसने सिंचन-कार्य की जिम्मेदारी मुझसे ले ली। मैं कुछ भ्रमित थी। पर मैंने सोचा कि इसका प्रभारी न होना ठीक है। कलीसिया का बहुत काम है और मैं सब नहीं कर सकती, सिर्फ सुसमाचार-कार्य की जिम्मेदारी होगी तो मैं उसे अच्छी तरह कर सकूँगी। मुझे अपने अंदर की समस्या की कोई जानकारी नहीं थी। अगले दिन अपने भक्ति-कार्य में मुझे एहसास हुआ कि नवागतों के सिंचन जैसी अहम चीज की जिम्मेदारी मुझसे ले लिए जाने में मेरे सीखने के लिए एक सबक होना चाहिए। मुझे इसकी रोशनी में आत्मचिंतन करना चाहिए। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे प्रबुद्ध कर खुद को जानने में मेरा मार्गदर्शन करे। प्रार्थना करके मुझे एहसास हुआ कि मैं उस काम पर ध्यान लगा रही थी, जिसकी अगुआ जाँच कर रही थी। अगर अगुआ जिक्र न करती, तो मेरी जिम्मेदारी के क्षेत्र में कोई समस्या आने पर भी मैं ध्यान न देती। क्या मैं सिर्फ दिखावा नहीं कर रही थी? बाद में मुझे परमेश्वर के कुछ प्रासंगिक वचन मिले। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "कुछ कलीसियाएँ सुसमाचार के कार्य का प्रसार करने में खास तौर से धीमी हैं, और ऐसा केवल नकली अगुआओं के अपने कर्तव्यों में असावधान रहने और बहुत ज्यादा गलतियाँ करने के कारण है। काम की विभिन्न मदों को अंजाम देते हुए, वास्तव में कई समस्याएँ, व्यतिक्रम और चूकें होती हैं, जिन्हें नकली अगुआओं को हल करना चाहिए, सुधारना चाहिए और ठीक करना चाहिए—लेकिन चूँकि उनमें कोई दायित्व-बोध नहीं होता, चूँकि वे केवल एक सरकारी अधिकारी की भूमिका निभा सकते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते, जिसके परिणामस्वरूप वे एक विनाशकारी समस्या का कारण बन जाते हैं। कुछ कलीसियाओं के सदस्यों में एकता नहीं रहती, और वे एक-दूसरे को नीचा दिखाते हैं, एक-दूसरे के प्रति शंकालु और चौकन्ने हो जाते हैं, वे इस बात से भी चिंतित और भयभीत हो जाते हैं कि परमेश्वर का घर उन्हें बाहर निकाल देगा। जब नकली अगुआओं के सामने यह स्थिति आती है, तो वे कोई विशिष्ट कदम नहीं उठाते। नकली अगुआओं को इससे थोड़ी-सी भी पीड़ा नहीं होती कि उनका कार्य लकवे की हालत में पड़ा है; वे कोई वास्तविक कार्य करने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाते, और इसके बजाय ऊपरवाले द्वारा नीचे आदेश भेजे जाने की प्रतीक्षा करते हैं, जिसमें उन्हें यह बताया गया हो कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना, मानो उनका काम केवल ऊपरवाले के लिए किया जाता हो। अगर ऊपरवाला कोई विशिष्ट अपेक्षाएँ नहीं बताता, और कोई प्रत्यक्ष आज्ञाएँ या आदेश नहीं देता, तो वे कुछ नहीं करते, लापरवाह और अनमने रहते हैं। वे उतना ही करते हैं, जितना ऊपरवाला उन्हें करने के लिए देता है, वे धक्का देने पर हिलते हैं वरना नहीं हिलते, लापरवाह और अनमने बने रहते हैं। नकली अगुआ क्या होता है? संक्षेप में, वह व्यावहारिक कार्य नहीं करता, जिसका अर्थ है कि वह अगुआ के रूप में अपना कार्य नहीं करता। वह महत्वपूर्ण, आधारभूत कार्य से गंभीर रूप से वियुक्त रहता है—वह कुछ नहीं करता। ऐसा होता है नकली अगुआ" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। वचनों से मैंने जाना कि नकली अगुआ तन-मन से खुद को अच्छा दिखाने वाले काम करते हैं। वे वही करते हैं जिस पर उनके अगुआ जोर देते हैं या जिसे सब देख सकते हैं। अगर अगुआ कुछ आदेश नहीं देता, तो भले ही वह काम ठीक से न हो रहा हो, वे आँख मूँद लेते हैं या उसे जैसे-तैसे निपटाते हैं। ऐसा व्यक्ति कर्तव्य में कलीसिया का कार्य कायम नहीं रखता, न ही कोई व्यावहारिक कार्य करता है। उसमें कोई मानवता या चरित्र नहीं होता, वह सत्य का खोजी या प्रेमी नहीं होता। कर्तव्य निभाते हुए भी, वह सिर्फ बाधक होता है और बुराई करता है। पहले, मैंने कभी महसूस नहीं किया था कि मुझमें अच्छी मानवता नहीं है, लेकिन फिर मैंने देखा कि मेरी अवस्था वैसी ही थी। मैंने अपने कर्तव्य-प्रदर्शन पर विचार किया। उच्च अगुआ सुसमाचार-कार्य को प्राथमिकता देती थी उस पहलू में मेरा बहुत मार्गदर्शन और मदद करती थी, क्योंकि मैं उसमें दक्ष नहीं थी, इसलिए मुझे डर था कि इससे जूझती रही तो बर्खास्त हो जाऊँगी। अपना ओहदा बचाए रखने के लिए, मैं सुसमाचार-कार्य पर ज्यादा ध्यान देने लगी और कार्य के अन्य पहलुओं की उपेक्षा कर दी। उस दौरान मुझे लगा कि अन्य चीजें भी मेरे कार्यक्षेत्र में हैं, मुझे उन पर भी काम करना चाहिए, पर फिर लगा कि चूँकि अगुआ उन चीजों के बारे में नहीं पूछ रही, इसलिए वे अहम नहीं हैं, तो मैंने उन्हें नहीं किया। मैंने सिर्फ वही किया जो अगुआ ने कहा, जिससे मेरा नाम और हैसियत बढ़े। मैंने परमेश्वर की इच्छा का ध्यान नहीं रखा। मैं अपने कर्तव्य में अगुआ की जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रही थी। मैं सिर्फ दिखावे के लिए काम कर रही थी, ताकि मेरी अगुआ संतुष्ट रहे। कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया मेरे काम को प्रभावित कर चुका था। परमेश्वर के घर ने कई बार संगति की थी कि हमें अच्छी क्षमता वाले नए विश्वासी सिंचित और विकसित करने हैं, ताकि वे कर्तव्य सँभाल सकें। इससे राज्य के सुसमाचार के विस्तार में लाभ होगा। लेकिन मैंने दो-तीन महीने से इतना अहम काम नहीं किया था, जिससे उसमें बहुत देरी हो गई। यह दुष्टता करना था। इस तरह सोचकर वाकई दुख हुआ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं बहुत झूठी और चालाक हूँ। मैं खुद को अच्छा दिखाने के लिए काम कर रही हूँ, मैंने कलीसिया के काम में देरी की है। परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ!"

फिर मैंने मसीह-विरोधी स्वभाव उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़े, जिन्होंने खुद को समझने में मेरी मदद की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "सत्य का अभ्यास करने के प्रति मसीह-विरोधी का यही रवैया होता है : जब यह उनके लिए फायदेमंद होता है, जब हर कोई इसके लिए उनकी प्रशंसा और आदर करता है, तो वे अवश्य कृतज्ञ होते हैं और दिखावे के लिए कुछ सांकेतिक प्रयास करते हैं। यदि सत्य का अभ्यास करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता, यदि इस पर कोई ध्यान नहीं देता और वरिष्ठ अगुआ मौजूद न हों, तो ऐसे समय में उनके सत्य का अभ्यास करने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। सत्य का उनका अभ्यास प्रसंग पर, समय पर निर्भर करता है, इस पर निर्भर करता है कि यह सार्वजनिक रूप से किया जाता है या अकेले में या इस पर कि लाभ कितना बड़ा है; जब ऐसी चीजों की बात आती है तो वे असाधारण रूप से समझदार और हाजिर-जवाब हो जाते हैं, कोई लाभ न मिलना या खुद की नुमाइश न करना उन्हें स्वीकार्य नहीं होता। यदि उनके प्रयासों को मान्यता न मिले, यदि उनके कितना भी काम करने पर कोई न देखे तो वे कोई काम नहीं करते। यदि सीधे परमेश्वर के घर ने उनके लिए किसी कार्य की व्यवस्था की है और उनके पास उसे करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, तो भी वे इस बात पर विचार करते हैं कि इससे उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा को लाभ होगा या नहीं। यदि यह उनकी हैसियत के लिए अच्छा है और उनकी प्रतिष्ठा बढ़ सकती है, तो वे उस काम में अपना सब कुछ लगा देते हैं और अच्छा काम करते हैं; उन्हें लगता है कि वे एक तीर से दो निशाने लगा रहे हैं। यदि उससे उनकी हैसियत या प्रतिष्ठा को कोई लाभ नहीं होता, उसे खराब ढंग से करने पर उनकी साख को बट्टा लग सकता है, तो वे उससे छुटकारा पाने का कोई तरीका या बहाना सोच लेते हैं। वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, हमेशा एक ही सिद्धांत पर टिके रहते हैं : उन्हें कुछ लाभ प्राप्त होना चाहिए। मसीह-विरोधी ऐसा काम सबसे ज्यादा पसंद करते हैं जिसके लिए उन्हें कोई कीमत न देनी हो, उन्हें कष्ट न उठाना पड़े या कोई मूल्य न चुकाना पड़े और उससे उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे को लाभ होता हो। संक्षेप में, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, वे पहले अपना हित देखते हैं, वे तभी कार्य करते हैं जब वे हर चीज पर अच्छी तरह सोच-विचार कर लेते हैं; वे बिना समझौते के, सच्चाई से, ईमानदारी से और पूरी तरह से सत्य का पालन नहीं करते, बल्कि वे चुन-चुन कर अपनी शर्तों पर ऐसा करते हैं। यह कौन-सी शर्त होती है? शर्त है कि उनका रुतबा और प्रतिष्ठा सुरक्षित रहे, उन्हें कोई नुकसान न हो। यह शर्त पूरी होने के बाद ही वे तय करते हैं कि क्या करना है। यानी मसीह-विरोधी इस बात पर गंभीरता से विचार करते हैं कि सत्य के सिद्धांतों, परमेश्वर के आदेशों और परमेश्वर के घर के कार्य से किस ढंग से पेश आया जाए या उनके सामने जो चीजें आती हैं, उनसे कैसे निपटा जाए। वे इन बातों पर विचार नहीं करते कि परमेश्वर की इच्छा कैसे पूरी की जाए, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने से कैसे बचा जाए, परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया जाए या भाई-बहनों को कैसे लाभ पहुँचाया जाए; वे लोग इन बातों पर विचार नहीं करते। मसीह-विरोधी किस बात पर विचार करते हैं? वे सोचते हैं कि कहीं उनके अपने रुतबे और प्रतिष्ठा पर तो आँच नहीं आएगी, कहीं उनकी प्रतिष्ठा तो कम नहीं हो जाएगी। अगर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कुछ करने से कलीसिया के काम और भाई-बहनों को लाभ पहुँचता है, लेकिन इससे उनकी अपनी प्रतिष्ठा को नुकसान होता है और लोगों को उनके वास्तविक कद का एहसास हो जाता है और पता चल जाता है कि उनकी प्रकृति और सार कैसा है, तो वे निश्चित रूप से सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करेंगे। यदि व्यावहारिक काम करने से और ज्यादा लोग उनके बारे में अच्छी राय बना लेते हैं, उनका सम्मान और प्रशंसा करते हैं, या उनकी बातों में अधिकार आ जाता है जिससे और अधिक लोग उनके प्रति समर्पित हो जाते हैं, तो फिर वे काम को उस प्रकार करना चाहेंगे; अन्यथा, वे परमेश्वर के घर या भाई-बहनों के हितों पर ध्यान देने के लिए अपने हितों की अवहेलना करने का चुनाव कभी नहीं करेंगे। यह मसीह-विरोधी की प्रकृति और सार है। क्या यह स्वार्थ और नीचता नहीं है?" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। "मसीह-विरोधी चालाक किस्म के होते हैं, है न? वे जो कुछ भी करते हैं, उसकी आठ-दस बार या उससे भी अधिक बार गुप्त योजना बनाते और हिसाब-किताब करते हैं। वे सोचते रहते हैं कि कैसे भीड़ में अपनी स्थिति को अधिक मजबूत बनाया जाए, कैसे और अधिक प्रतिष्ठा और ज्यादा सम्मान प्राप्त किया जाए, कैसे उच्च की कृपा हासिल की जाए, भाई-बहनों का समर्थन, प्रेम और सम्मान कैसे पाया जाए और वे इन परिणामों को प्राप्त करने के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। वे किस मार्ग पर चल रहे हैं? उनके लिए परमेश्वर के घर के हित, कलीसिया के हित और परमेश्वर के घर का कार्य कोई मायने नहीं रखता, उनसे जुड़ी चीजों की तो उन्हें और भी चिंता नहीं होती। वे क्या सोचते हैं? 'इन बातों का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। हर आदमी अपनी सोचे और बाकियों को शैतान ले जाए; लोगों को अपने लिए, अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए जीना चाहिए। यही सर्वोच्च लक्ष्य होता है। अगर कोई नहीं जानता कि उसे अपने लिए जीना और अपनी रक्षा करनी चाहिए तो वह मूर्ख है। अगर मुझे सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने, परमेश्वर और उसके घर की व्यवस्था के प्रति समर्पित होने को कहा जाए, तो यह इस पर निर्भर करेगा कि इससे मेरा हित सधेगा या नहीं और क्या ऐसा करने का कोई लाभ होगा। यदि परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण न करने से मुझे बाहर निकाल दिए जाने का और आशीष प्राप्त करने का अवसर खोने का डर है, तो मैं समर्पण कर दूंगा।' इस प्रकार, अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत की रक्षा के लिए, मसीह-विरोधी अक्सर कुछ समझौते करने को तैयार हो जाते हैं। तुम कह सकते हो कि हैसियत के लिए मसीह-विरोधी किसी भी प्रकार की पीड़ा सहने को और एक अच्छी प्रतिष्ठा के लिए हर तरह की कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं। यह कहावत उन पर खरी उतरती है, 'एक महान व्यक्ति जानता है कि कब झुकना है और कब नहीं।' यह शैतान का तर्क है, है न? यह संसार में रहने के लिए शैतान का फलसफा है और यह जीवित रहने का शैतान का सिद्धांत भी है। यह बेहद घृणित है!" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों से जाना कि मसीह-विरोधी प्रकृति से चालाक और धोखेबाज होते हैं; वे बहुत स्वार्थी और नीच हैं। अपने कर्तव्य में वे सिर्फ अपने नाम और हैसियत और हित की सोचते हैं। अगर किसी चीज से उन्हें, और उनकी प्रतिष्ठा को फायदा होता है, अगुआओं की प्रशंसा और भाई-बहनों का समर्थन मिलता है, तो वे खुद को उसमें झोंक देते हैं। लेकिन जिस कार्य पर अगुआ का ध्यान नहीं होता, या जिससे उनका नाम या हैसियत नही बढ़ती, वे उनके लिए कोई कीमत नहीं चुकाना चाहते। कुछ करने से पहले मसीह-विरोधी यह हिसाब लगाते हैं कि अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत की रक्षा कैसे की जाए, ज्यादा लाभ कैसे पाया जाए। वे कभी कलीसिया का काम बनाए रखने पर विचार नहीं करते। अपने किए पर विचार करके मेरा स्वभाव मसीह-विरोधी जैसा ही था। कर्तव्य में मैंने नहीं सोचा कि कलीसिया के काम को किससे लाभ होगा, न मैं कलीसिया का कार्य कायम रख रही थी। मैं बस यह हिसाब लगा रही थी कि मेरे अगुआ पर किस चीज का अच्छा प्रभाव पड़ेगा, कैसे उसका मनचाहा काम कर उसे अपनी कमियाँ देखने से रोकना है, ताकि मेरा ओहदा बचा रह सके। अगुआ को सुसमाचार-कार्य के बारे में बहुत पूछते देख मुझे लगा कि यह उसके लिए अहम है, तो अपना ओहदा बचाने के लिए मैंने सुसमाचार-कार्य पर ध्यान दिया, उसी पर काम कर उससे जुड़े मुद्दे हल किए। जब देखा कि अगुआ का ध्यान सिंचन-कार्य पर नहीं था तो काम का वह पहलू नजरअंदाज कर दिया। लगा कि उस पर समय दिया तो भी अगुआ की प्रशंसा नहीं मिलेगी। मैं अच्छी तरह जानती थी कि हमारे पास सिंचन-कर्मियों की कमी है, नए विश्वासियों का समय पर सिंचन न करने के दुष्परिणाम सामने आ चुके थे, फिर भी मैंने ध्यान नहीं दिया, अपनी नाक के नीचे सिंचन-कार्य को प्रभावित होने दिया। मैं अपने कर्तव्य में व्यस्त दिखती थी और अगुआ का कहा करने के लिए दौड़ पड़ती थी, पर असल में मैं झूठी छवि से लोगों और परमेश्वर को धोखा देते हुए अपना कारोबार चला रही थी। मैं स्वार्थी, धूर्त और चालबाज थी। इतना अहम काम था, लेकिन मैं हर मोड़ पर अपने हितों के बारे में सोचती और हिसाब लगाती थी। मैंने अपने कर्तव्य को नाम और हैसियत पाने की सीढ़ी समझा। मैं मसीह-विरोधी रास्ते पर थी—मैंने जो किया, वह परमेश्वर के लिए घृणास्पद था। यह समझते ही, मैं समझ गई कि मैं कलीसिया के काम के लिए बाधक हूँ और मुझे बर्खास्त करना ज्यादती नहीं होगी। मैं बहुत स्वार्थी, चालाक और गैर-जिम्मेदार थी, मैं इतने अहम काम के योग्य नहीं थी। मुझे अपराध-बोध और खेद हुआ, लगा कि मैं परमेश्वर की बहुत ऋणी हूँ! मैंने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की कि अगुआ कुछ पूछे या न पूछे, अगर कोई काम मेरे कार्यक्षेत्र में है, तो अपना सब-कुछ झोंककर अपने अपराधों की भरपाई करूँगी। मुझे आश्चर्य हुआ, कि पश्चात्ताप करने के लिए तैयार होते ही अगुआ ने मुझे फिर से सिंचन-कार्य सँभालने के लिए कहा। उस पल मैं बहुत भावुक हो गई। मैंने सोचा, मुझे यह कर्तव्य पूरी तरह सँजोना है, फिर कभी नाम और हैसियत के बारे में नहीं सोचना है। इसके बाद मैंने खुद को अपने काम में झोंक दिया। मैंने स्वयं द्वारा उपेक्षित कार्यों की प्राथमिकता तय कर उनके बारे में सीखा और उन पर काम किया, समस्याओं का व्यावहारिक हल खोजा। इस तरह काम करके मुझे बहुत अच्छा लगा।

कुछ दिनों बाद, परमेश्वर के घर ने कलीसियाओं को सफाई-कार्य करने का आदेश दिया। मैंने सोचा कि मैं तो सुसमाचार और सिंचन के कार्यों के लिए जिम्मेदार हूँ, वे अहम हैं, सफाई-कार्य की प्राथमिक जिम्मेदारी मेरी नहीं है। मुझे लगा, मेरी साथी इसका ख्याल रख सकती है। इसलिए, मैंने इसे प्राथमिकता नहीं दी। मैंने बस अपनी साथी के साथ संक्षेप में चर्चा की कि वह काम कैसे करना है और उसे उसके जिम्मे छोड़ दिया। मैंने कभी उससे काम की प्रगति या मुश्किलों के बारे में नहीं पूछा। जब एक सभा में अगुआ ने सफाई-कार्य का पूछा तो मैं हैरान हो गई। वह एक अन्य कलीसिया के बारे में पूछ रही थी, जानना चाहती थी कि उन्होंने किन्हें हटाया है, उन लोगों ने कैसा व्यवहार किया है, उन्हें उस काम में कोई कठिनाई तो नहीं हुई या कोई चीज अस्पष्ट तो नहीं थी। मैं बहुत घबरा गई, क्योंकि मैं सफाई-कार्य नहीं देख रही थी, उसके बारे में कुछ नहीं जानती थी। पूछे जाने पर अगर मुझे कुछ पता न होता, तो अगुआ कहती कि मैं व्यावहारिक काम नहीं करती। मेरा कर्तव्य बदल दिया गया या मुझे बर्खास्त कर दिया गया, तो क्या होगा? उस समय दिमाग में यही घूम रहा था : सभा खत्म होते ही परियोजना की प्रगति के बारे में पता लगाना, निकाले गए लोगों की संख्या पता करना, देखना कि मैं किनके बारे में अनिश्चित हूँ, और चर्चा कर तुरंत निर्णय लेना कि क्या उन्हें हटाया जाना चाहिए, ताकि अगुआ इसकी जाँच करे, तो मैं एक बुनियादी जवाब दे पाऊँ। इस तरह वह सोचेगी कि मैं कुछ असली काम करने में सक्षम हूँ। सभा समाप्त हुई, तो आधी रात हो चुकी थी मैं अभी भी अपनी साथी से उसके बारे में पूछना चाहती थी। उससे संपर्क करने की तैयारी करते समय मुझे बुरा महसूस हुआ। क्या मैं दोबारा सिर्फ दिखावे के लिए काम नहीं कर रही थी? यह तो बस बेमन से काम करना था। अगर हमने गलत निर्णय लेकर किसी ऐसे व्यक्ति को हटा दिया, जिसे नहीं हटाया जाना चाहिए, तो क्या यह भाई-बहनों के जीवन के प्रति गैर-जिम्मेदारी नहीं होगी? अगर मैंने जाँचे-परखे बिना हड़बड़ी में निर्णय ले लिया और गलत व्यक्ति को हटा दिया, तो यह काम में गैर-जिम्मेदारी ही नहीं, बल्कि भाई-बहनों के लिए हानिकारक भी होगा। इस ख्याल से मुझे ठंडे पसीना आ गया तो मैंने चुपचाप प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं फिर से दिखावे के लिए काम करने लगी हूँ। मैं सफाई-कार्य की जानकारी लेने की जल्दी में हूँ। यह तुम्हारी इच्छा का ध्यान रखने और कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए नहीं, बल्कि मेरी प्रतिष्ठा और पद के लिए है। मैं फिर तुम्हारे साथ खिलवाड़ कर तुम्हें धोखा दे रही हूँ। परमेश्वर, मैं अपने कर्तव्य में जरा भी ईमानदार नहीं हूँ, बल्कि सिर्फ अच्छा दिखने के लिए काम कर रही हूँ। यह सब तुम्हारे लिए घृणास्पद है। हे परमेश्वर, मैं आत्मचिंतन कर तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।" तभी परमेश्वर के वचनों का हाल ही में पढ़ा हुआ एक अंश ध्यान में आया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अगर तुम एक अगुआ हो, तो चाहे तुम कितनी भी परियोजनाओं के लिए जिम्मेदार हो, यह तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तुम लगातार इसमें शामिल रहो और प्रश्न पूछो, और साथ ही चीजों की जाँच भी करो और समस्याएँ उत्पन्न होने पर उन्हें तुरंत हल करो। यह तुम्हारा कार्य है। और इसलिए, चाहे तुम कोई क्षेत्रीय अगुआ हो या जिला अगुआ, कलीसिया अगुआ या कोई टीम अगुआ या निरीक्षक, अपनी जिम्मेदारियों के दायरे का पता लगा लेने के बाद तुम्हें बार-बार जाँच करनी चाहिए कि क्या तुम इस कार्य में अपनी भूमिका निभा रहे हो, क्या तुमने वे जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं जो एक अगुआ या कार्यकर्ता को पूरी करनी चाहिए, तुमने कौन-सा कार्य नहीं किया है, कौन-सा कार्य अच्छी तरह नहीं किया है, कौन-सा काम तुम नहीं करना चाहते, कौन-सा कार्य निष्फल रहा है, और तुम किस कार्य के सिद्धांतों को समझने में असफल रहे हो। ये सभी वे चीजें हैं, जिन पर तुम्हें अकसर विचार करना चाहिए। साथ ही, तुम्हें अन्य लोगों के साथ संगति करना और उनसे प्रश्न पूछना, और परमेश्वर के वचनों और कार्य-व्यवस्थाओं में कार्यान्वयन के लिए एक योजना, सिद्धांतों और मार्ग की पहचान करना सीखना चाहिए। कोई भी कार्य-व्यवस्था, चाहे वह प्रशासन से संबंधित हो या मानव संसाधन से, या कलीसिया के जीवन से या किसी प्रकार के विशेष कार्य से, अगर वह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों को छूती है, अगर वह ऐसी जिम्मेदारी है जिसे तुम्हें पूरा करना है और जो तुम्हारी जिम्मेदारियों के दायरे में आती है, तो तुम्हें उस पर ध्यान देना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, स्थितियों के अनुसार प्राथमिकताएँ तय की जानी चाहिए, ताकि कोई परियोजना पीछे न रह जाए" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदार अगुआ के तौर पर, चाहे हम कितनी भी परियोजनाओं की देखरेख करें, हमें उनकी प्राथमिकता तय कर उनकी निगरानी, पूछताछ और जाँच करनी होगी ताकि हर परियोजना अपेक्षित रूप में आगे बढ़े। अगुआ या कार्यकर्ता को यही करना चाहिए, असली कार्य करने का यही एकमात्र तरीका है। पर मुझे लगता था कि अगर मैं प्रत्यक्ष परिणाम वाला अहम काम पूरा कर पाऊँ या उसे जिस पर अगुआ का ध्यान है, तो यही व्यावहारिक कार्य करना है। लेकिन जिनके बारे में अगुआ ज्यादा नहीं पूछती थी जिनसे कोई स्पष्ट फायदा नहीं होता था, उन पर मैं शायद ही कार्रवाई करती या जानकारी लेती थी। जबकि असल में, मुझे अपने कर्तव्य के दायरे में आने वाली हर चीज में अपना सर्वस्व लगाना चाहिए था। कुछ परियोजनाएँ शुरू हो चुकी थीं पर कुछ समय से उन पर चर्चा नहीं हुई थी, पर इसका मतलब यह नहीं कि वे रुक गई हैं, उन पर काम नहीं करना है। मुझे उन्हें प्राथमिकता के अनुसार देखना चाहिए था। अगर मैंने उनके बारे में कभी न पूछा और इससे उनकी प्रगति रुक गई, तो यह गैर-जिम्मेदाराना होगा, परमेश्वर के प्रति समर्पण की कमी होगा। मैंने काम के प्रति अपने रवैये के बारे में सोचा। मैं जानती थी कि सफाई-कार्य वाकई अहम है, पर मुझे लगा कि उसके लिए मैं मुख्य रूप से जिम्मेदार नहीं हूँ, अगर उसे अच्छे से किया, तो भी कोई मेरे प्रयास नहीं देख पाएगा, इसलिए उसमें दिल नहीं लगाया, गंभीरता से नहीं लिया। मुझे उसकी प्रगति की कोई जानकारी नहीं थी। अगुआ के पूछते ही मैं उसके बारे में पता करने चल दी। मैं बस थोड़ी खोज-खबर लेना चाहती थी, ताकि अगुआ के पूछने पर जवाब दे सकूँ, जिससे वो न जाने कि मैं असली काम नहीं कर रही, वह बर्खास्त न कर दे। मैं खिलवाड़ और धोखेबाजी करके अपना नाम और हैसियत बचा रही थी, कलीसिया के काम की जिम्मेदारी नहीं ले रही थी। यह दुष्टता करना था!

इसके बाद मैंने अपने हाल के रवैये और कर्तव्य-प्रदर्शन पर कुछ विचार किया। परमेश्वर के वचनों के ये अंश दिमाग में आए : "जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के सौंपे हुए को स्वीकार करता है, तो परमेश्वर के पास न्याय करने के लिए एक मापदंड होता है कि उस व्यक्ति के कार्य अच्छे हैं या बुरे और उस व्यक्ति ने आज्ञा का पालन किया है या नहीं और उस व्यक्ति ने परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट किया है या नहीं और वे मानक पूरे करते हैं या नहीं। परमेश्वर जिसकी परवाह करता है वह है व्यक्ति का हृदय, न कि ऊपरी तौर पर किए गए उसके कार्य। ऐसी बात नहीं है कि परमेश्वर को किसी व्यक्ति को तब तक आशीष देना चाहिए जब तक वे कुछ करते हैं, इसकी परवाह किए बिना कि वे इसे कैसे करते हैं। यह परमेश्वर के बारे में लोगों की ग़लतफ़हमी है। परमेश्वर सिर्फ चीज़ों का अंतिम परिणाम ही नहीं देखता, बल्कि इस पर अधिक ज़ोर देता है कि किसी व्यक्ति का हृदय कैसा है और चीज़ों के आगे बढ़ने के दौरान किसी व्यक्ति का रवैया कैसा रहता है और वह यह देखता है कि उसके हृदय में आज्ञाकारिता, विचार एवं परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा है या नहीं" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। "हालाँकि हर व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने को तैयार है, पर उसकी वास्तविकता में प्रवेश करना आसान बात नहीं है। सत्य की खोज करने और सत्य को अमल में लाने पर ध्यान केंद्रित करना मुख्य है। तुम्हें इन चीजों पर रोज चिंतन करना होगा। तुम्हारे सामने कोई भी समस्या या कठिनाई क्यों न आए, सत्य का अभ्यास करना न छोड़ना; तुम्हें सीखना चाहिए कि सत्य की तलाश, आत्मचिंतन और अंततः सत्य का अभ्यास कैसे करें। यह सबसे महत्वपूर्ण है; तुम जो कुछ भी करो, अपने हितों की रक्षा करने की कोशिश मत करो, और अगर तुम अपने हित पहले रखते हो, तो तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर पाओगे। उन लोगों को देखो, जो केवल अपने लाभों के बारे में सोचते हैं—उनमें से कौन सत्य का अभ्यास कर सकता है? कोई नहीं। जो लोग सत्य का अभ्यास करते हैं, वे सभी ईमानदार, सत्य के प्रेमी और दयालु लोग हैं। उन सभी लोगों में जमीर और विवेक होता है, वे अपने हित, अभिमान और घमंड छोड़ सकते हैं, अहं त्याग सकते हैं। ये वे लोग हैं, जो सत्य अमल में ला सकते हैं। ... जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे उन लोगों से भिन्न मार्ग पर चलते हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते : जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे हमेशा शैतान के फलसफों के अनुसार जीने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वे केवल अच्छे व्यवहार और पवित्रता के बाहरी प्रदर्शन से संतुष्ट रहते हैं, पर उनके दिलों में अभी भी निरंकुश इच्छाएँ और लालसाएँ होती हैं, और वे अभी भी हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ते हैं, अभी भी आशीष पाना और राज्य में प्रवेश करना चाहते हैं—पर चूँकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने में असमर्थ रहते हैं, इसलिए वे हमेशा शैतान की शक्ति के अधीन रहते हैं। सभी चीजों में सत्य से प्रेम करने वाला हर व्यक्ति सत्य की खोज करता है, आत्मचिंतन करता है, खुद को जानने का प्रयास करता है और सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करता है, और उसके हृदय में हमेशा परमेश्वर की आज्ञाकारिता और परमेश्वर का भय रहता है। अगर परमेश्वर के बारे में कोई धारणा या गलतफहमी पैदा होती है, तो वह तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना करता है और उसका समाधान करने के लिए सत्य की तलाश करता है; वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने पर ध्यान केंद्रित करता है, ताकि परमेश्वर की इच्छा पूरी हो; वह सत्य की दिशा में प्रयत्नशील रहता है, परमेश्वर के ज्ञान की खोज करता है, और अपने मन में उसका भय मानते हुए सभी दुष्कर्मों से दूर रहता है। यह ऐसा व्यक्ति है, जो हमेशा परमेश्वर के सामने रहता है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अच्छे व्यवहार का यह मतलब नहीं कि व्यक्ति का स्वभाव बदल गया है)। कर्तव्य में मैंने सिर्फ मुझे अच्छा दिखाने वाली चीजें कीं, हमेशा अगुआ से सम्मान हासिल कर ओहदा सुरक्षित रखने के बारे में सोचा। मुझे लगा, यह मेरी चतुराई है, पर असल में यह मूर्खता थी। परमेश्वर के वचन एकदम स्पष्ट हैं—परमेश्वर कर्तव्य में व्यक्ति का दिल देखता है। वह देखता है कि कर्तव्य के प्रति अपने रवैये में क्या व्यक्ति उसकी इच्छा का ध्यान रखता है, न कि वह कितना काम करता दिखाई देता है या उसे कितने लोग सराहते हैं। साथ ही, कलीसिया में लोगों को बर्खास्त करने के सिद्धांत हैं। किसी को इसलिए बर्खास्त नहीं किया जाता कि उसने कुछ समय अपना काम अच्छे से नहीं किया। अगर उसके इरादे अच्छे हैं और वह कलीसिया का काम बनाए रख पाता है, अगर वह सिर्फ अनुभव की कमी के कारण कुछ गलतियाँ कर देता है, तो परमेश्वर का घर उन्हें सहारा देकर मदद करेगा। अगर वह क्षमता की कमी के कारण काम न सँभाल पाए, तो कलीसिया उसके लिए किसी और कर्तव्य की व्यवस्था करेगी। कुल मिलाकर, कुंजी इरादे अच्छे होना है। अगर कर्तव्य में मंशा गलत है या परमेश्वर की इच्छा का ध्यान न रखा, अगर तुम सिर्फ नाम और हैसियत के पीछे दौड़ते हो, तिकड़म और कपट करते हो ताकि अगुआ तुम्हें महत्व दें, तो ऐसा लग सकता है कि तुम काम कर रहे हो, कष्ट उठाने और कीमत चुकाने में सक्षम हो, लेकिन तुम्हारे इरादे गलत हैं, तुम सब-कुछ अपने लिए कर रहे हो। यह कर्तव्य निभाना बिलकुल नहीं है, इसे परमेश्वर की मंजूरी नहीं मिलेगी। मैं जानती थी कि सफाई-कार्य परमेश्वर के घर के लिए अहम परियोजना है। अपने सहकर्मियों की प्रगति समझना और उसकी निगरानी करना मेरे काम का हिस्सा था। मुझे सही रवैया रखकर सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना चाहिए था। फिर, मैं अपने सहकर्मियों से सफाई-कार्य में उनकी प्रगति के बारे में बात करने गई और पूछा कि उन्हें कोई कठिनाई तो नहीं। फिर मैंने कर्मियों का जायजा लेने में मदद करने के लिए व्यावहारिक काम किया हमने वे लोग निकाल दिए, जो सफाई की शर्तों के अनुरूप थे। ऐसा करके मैंने वाकई सहज महसूस किया।

इन सभी अनुभवों से मैंने बहुत-कुछ हासिल किया। मैं सोचती थी, अगुआ जिस काम को प्राथमिकता देता है, जिस पर ध्यान लगाता है, उसे करना ही व्यावहारिक काम करना है। लेकिन इन अनुभवों से मैंने देखा कि अगर मेरे इरादे सही नहीं हैं, और मैं नाम, हैसियत, प्रशंसा, या अगुआ की संतुष्टि के लिए कर्तव्य निभाती हूँ, तो यह दिखावे के लिए काम करना है, कर्तव्य निभाना नहीं। फिर मैं कितना भी काम कर लूँ, परमेश्वर उसे कभी मंजूर नहीं करेगा। कर्तव्य करने में, परमेश्वर हमारे दिलों की परवाह करता है, कर्तव्य के प्रति हमारा रवैया देखता है, कि क्या हम कलीसिया का कार्य बनाए रखते हैं, सत्य को अमल में लाकर उसके वचनों के अनुसार जी सकते हैं। यही सबसे अहम है। परमेश्वर के मार्गदर्शन द्वारा मैं इसे पूरी तरह समझ पाया। परमेश्वर का धन्यवाद!

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