निपटान होने से मैंने क्या पाया

05 फ़रवरी, 2023

2020 के अंत में एक दिन, एक उच्च अगुआ ने देखा कि मेरे प्रभार-क्षेत्र की एक कलीसिया में, दर्जनों नए सदस्य नियमित रूप से सभाओं में नहीं आते थे। उन्होंने यह कहकर मेरा निपटान किया, "इन नए सदस्यों ने हाल में सच्चे मार्ग को स्वीकारा है, वे बहुत-सी बाधाओं और प्रलोभनों का सामना करते हैं। सिंचन और सहारा न मिले, वे सभाओं में न आ पाएँ, तो वे शैतान द्वारा बंदी बना लिए जाने के खतरे में होते हैं। कलीसिया अगुआ के नाते, आपको लगन से उनका सिंचन करना चाहिए, ताकि वे सच्चे मार्ग में अपनी नींव जमा सकें। यह सबसे अहम काम है। आप जिस कलीसिया की प्रभारी हैं, वहां कई नए सदस्य सभाओं में नियमित नहीं आते। मतलब अगुआ के रूप में, आपने सिंचन कार्य ठीक से नहीं किया, कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, आप गैर-जिम्मेदारी और बेपरवाही से काम कर परमेश्वर को छल रही हैं, परमेश्वर की सेवा करते हुए उसका प्रतिरोध कर रही हैं।" ऐसी काट-छाँट और निपटान को मान पाना बहुत मुश्किल था। इन नए सदस्यों का सीधे सिंचन मैं नहीं करती थी, और इस कलीसिया में मैंने सिंचनकर्मियों के साथ सिंचन-सिद्धांतों पर स्पष्ट संगति की थी। पर उन्होंने सिंचन कार्य ठीक से नहीं किया, जिससे नए सदस्य सभाओं में अनियमित थे। यह मेरी जिम्मेदारी कैसे थी? सिंचन कार्य में जिम्मेदारी की कमी के कारण ही नए सदस्य पीछे हट रहे थे, जो कि बाधा और गड़बड़ी थी। अगर मैंने इसकी जिम्मेदारी ली तो क्या यह एक अपराध और परमेश्वर में मेरी आस्था पर धब्बा नहीं होगा? इसलिए मैंने अगुआ द्वारा लगाए आरोप को सिरे से नकार दिया, दलीलें देकर खुद को सही ठहराती रही, जिम्मेदारी से बचने के लिए जोर देकर कहा कि मैं सीधे नए सदस्यों का सिंचन नहीं करती। यह देखकर कि मैं आत्मचिंतन नहीं कर रही थी, अगुआ ने मुझे टोका, सत्य को नकारने पर निपटान किया। अगुआ की बात सुनकर मैं चौंक गई, मैंने सोचा, "सत्य स्वीकार न करने वाले गैर-विश्वासी होते हैं न? कोई बात होने पर गैर-विश्वासी बहस करते हैं, सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारते।" मेरे तर्क और बहानों ने मुझे डरा दिया, तो मैंने आगे बोलने की हिम्मत नहीं की। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मार्गदर्शन कर देखरेख करने और आज्ञा मानने देने की विनती की।

अगले कुछ दिन, मैं इस मामले पर सोचती रही। गैर-जिम्मेदार होने और सिंचन कार्य ठीक से न करने के लिए मेरा निपटान किया गया था। मैं इसे क्यों नहीं मान सकी? आत्मचिंतन से समझी कि मेरी सोच थी कि अगर मैं नए सदस्यों का सीधे सिंचन नहीं कर रही, तो उनका सभा में न आना, सिंचनकर्मियों की जिम्मेदारी थी, मेरी नहीं। लेकिन कलीसिया ने मुझे अनेक कलीसियाओं के कार्य की जिम्मेदारी दी थी, कलीसिया कार्य में समस्याएँ और मुश्किलें होतीं, तो जाँचकर तुरंत ठीक करना मेरा काम था। लेकिन अपने कर्तव्य में मैंने सिंचनकर्मियों के काम का निरीक्षण या जाँच, कुछ भी नहीं किया, नतीजतन, दर्जनों नए सदस्य, सभाओं में अनियमित हो गए। क्या यह मेरी गैर-जिम्मेदारी और कर्तव्य की अनदेखी का नतीजा नहीं था? मुझे याद आया कि कुछ समय पहले, मैंने सुना था कि इस कलीसिया के सिंचनकर्मी मुश्किलों में पड़ जाते थे। नए सदस्यों की वास्तविक कठिनाइयों के सामने, जब उनकी संगति से अच्छे नतीजे नहीं मिले, तो उन्होंने इसे कठिन बता कर नए सदस्यों के सिंचन की कोशिश नहीं करनी चाही। लेकिन मैंने समय से ये समस्याएँ सुलझाने के लिए उनके साथ संगति नहीं की, नतीजतन सभाओं में नियमित रूप से आने वाले नए सदस्यों की संख्या घटती गई। अगुआ ने कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार होने के लिए मेरा निपटान किया, और वे सही थे। मुझमें जरा भी स्वीकृति और आज्ञाकारिता क्यों नहीं थी, मैंने बहस कर खुद को सही क्यों ठहराया? क्या यह अविवेकी होना नहीं था? यह सोचकर मैं थोड़ी दुखी हो गई। लगा कि मैंने बहुत बड़ी गलती की थी, पर मैं जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं थी। बेवकूफ की तरह, बहाने बनाने, खुद को सही ठहराने और जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रही थी। बहस करने और खुद को सही ठहराने की अपनी भद्दी हालत के बारे में सोचकर, मैंने शर्मिंदा महसूस किया, मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया, लगा जैसे धरती फटे और मैं समा जाऊँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार थी, मैंने दर्जनों नए सदस्यों के सिंचन में रुकावट डाली। मैंने गंभीर अपराध किया है, फिर भी काट-छाँट और निपटान होने पर, मुझमें बुनियादी स्वीकृति और आज्ञाकारिता भी नहीं थी। हे परमेश्वर, मुझे रास्ता दिखाओ कि मैं खुद को जानूँ।"

फिर, परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ने से, आखिरकार मैंने काट-छाँट और निपटान को स्वीकार न करने की जड़ की थोड़ी समझ हासिल की। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "व्यवहार और काट-छाँट के प्रति मसीह-विरोधियों का ठेठ रवैया उन्हें स्वीकार करने या मानने से सख्ती से इनकार करने का होता है। चाहे वे कितनी भी बुराई करें, परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान पहुँचाएँ, उन्हें इसका जरा भी पछतावा नहीं होता और न ही वे कोई एहसान मानते हैं। इस दृष्टिकोण से, क्या मसीह-विरोधियों में मानवता होती है? बिलकुल नहीं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हर तरह की क्षति पहुँचाते हैं, कलीसिया के कार्य को क्षति पहुँचाते हैं—परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे एकदम स्पष्ट देख सकते हैं, और मसीह-विरोधियों के कुकर्मों का अनुक्रम देख सकते हैं। और फिर भी मसीह-विरोधी इस तथ्य को मानते या स्वीकार नहीं करते; वे हठपूर्वक यह स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं कि वे गलती पर हैं, या कि वे जिम्मेदार हैं। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि वे सत्य से परेशान हैं? मसीह-विरोधी सत्य से इस हद तक परेशान रहते हैं। चाहे वे कितनी भी दुष्टता कर लें, तो भी उसे मानने से इनकार कर देते हैं और अंत तक अड़े रहते हैं। यह साबित करता है कि मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीरता से नहीं लेते या सत्य स्वीकार नहीं करते। वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं; वे शैतान के अनुचर हैं, जो परमेश्वर के घर के कार्य को अव्यवस्थित और बाधित करने के लिए आए हैं। मसीह विरोधियों के दिलों में सिर्फ प्रसिद्धि और हैसियत रहती है। उनका मानना है कि अगर उन्होंने अपनी गलती मानी, तो उन्हें जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, और तब उनकी हैसियत और प्रसिद्धि गंभीर संकट में पड़ जाएगी। परिणामस्वरूप, वे 'मरने तक नकारते रहो' के रवैये के साथ प्रतिरोध करते हैं। लोग चाहे जो उजागर या विश्लेषण करें, वे उन्हें नकारने के लिए जो बन पड़े वो करते हैं। चाहे उनका इनकार जानबूझकर किया गया हो या नहीं, संक्षेप में, एक ओर यह मसीह-विरोधियों की सत्य से ऊबने और उससे घृणा करने वाली प्रकृति और सार को उजागर करता है। दूसरी ओर, यह दिखाता है कि मसीह-विरोधी अपनी हैसियत, प्रसिद्धि और हितों को कितना सँजोते हैं। इस बीच, कलीसिया के कार्य और हितों के प्रति उनका क्या रवैया रहता है? यह अवमानना और जिम्मेदारी से इनकार करने का होता है। उनमें अंतःकरण और विवेक की पूर्णतः कमी होती है। क्या मसीह-विरोधियों का जिम्मेदारी से बचना इन मुद्दों को प्रदर्शित नहीं करता है? एक ओर, जिम्मेदारी से बचना सत्य से ऊबने और उससे घृणा करने के उनके सार और प्रकृति को साबित करता है, तो दूसरी ओर, यह उनमें अंतःकरण, विवेक और मानवता की कमी दर्शाता है। उनके हस्तक्षेप और कुकर्म के कारण भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए, उन्हें कोई अपराध-बोध नहीं होता और वे इससे कभी परेशान नहीं हो सकते। यह किस प्रकार का प्राणी है? अगर वे अपनी थोड़ी भी गलती मान लेते हैं, तो यह थोड़ा-बहुत जमीर और समझ का होना माना जाएगा, लेकिन मसीह-विरोधियों में इतनी थोड़ी-सी भी मानवता नहीं होती। तो तुम लोग क्या कहोगे कि वे क्या हैं? मसीह-विरोधियों का सार शैतान का सार होता है। वे परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितना नुकसान पहुँचाते हों, वे उसे नहीं देखते। वे अपने दिल में इससे जरा भी परेशान नहीं होते, न ही वे खुद को धिक्कारते हैं, एहसानमंद तो वे बिलकुल भी महसूस नहीं करते। यह वह बिलकुल नहीं है, जो सामान्य लोगों में दिखना चाहिए। यह शैतान है, और शैतान में कोई जमीर या समझ नहीं होती। मसीह-विरोधियों ने चाहे जितने भी बुरे काम किए हों, कलीसिया के काम को भारी नुकसान पहुँचाया हो, पर वे उन्हें स्वीकार न करने पर अड़े रहते हैं। वे मानते हैं कि अगर उन्होंने गलतियाँ स्वीकार कीं, तो उनकी निंदा की जाएगी, उन्हें मौत की सजा दी जाएगी, नरक में और आग व गंधक की झील में जाने के लिए बाध्य किया जाएगा। क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोग सत्य स्वीकार सकते हैं? क्या उनसे सच्चे पश्चात्ताप की उम्मीद की जा सकती है?" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। वचन खुलासा करते हैं कि मसीह-विरोधी कभी सत्य नहीं स्वीकारते, प्रकृति से ही सत्य से त्रस्त होते हैं, वे चाहे कितनी बड़ी गलतियाँ करें, कलीसिया के कार्य को कितना भी नुकसान पहुँचाएं, काट-छाँट और निपटान होने पर वे कभी अपनी गलतियाँ नहीं मानते, निरंतर बहस करने और खुद को सही ठहराने की कोशिश करते हैं। मसीह-विरोधी स्वार्थी और घिनौने भी होते हैं, और सिर्फ अपने निजी हितों और रुतबे की कद्र करते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधी कलीसिया के कार्य को जितना भी नुकसान पहुँचाएँ, वे जरा भी दोषी महसूस नहीं करते, न ही कोई जिम्मेदारी उठाना चाहते हैं। काट-छाँट और निपटान के प्रति अपने रवैए पर सोच-विचार कर मैंने देखा कि मेरा बर्ताव मसीह-विरोधी जैसा ही था। मैं एक कलीसिया अगुआ थी, कलीसिया के कार्य में आई हर समस्या की जिम्मेदारी मेरी थी। मुझे मालूम था कि कलीसिया के सिंचन-कर्मियों में समस्या थी, लेकिन इसकी खोज-खबर लेकर इसे सुलझाया नहीं। तो सिंचन-कर्मी नए सदस्यों को मजबूत नहीं बना पाए, मगर मैंने अपनी गलती नहीं मानी, अपने लिए बहाने बनाती रही। मैंने पूरी जिम्मेदारी भाई-बहनों पर डाल दी, क्योंकि मैं जिम्मेदारी उठाने से डरती थी। मैंने अपनी काट-छाँट और निपटान को स्वीकार नहीं किया, और अपराध से बरी होने के लिए अपने अगुआ के सामने अड़ी रही कि इन नए सदस्यों का सिंचन सीधे मैं नहीं करती थी। इतने नए सदस्य सभाओं में नियमित नहीं आ रहे थे, लेकिन मैंने कोई पछतावा या खुद को कर्जदार महसूस नहीं किया, अपने कर्तव्य की अनदेखी करने और कलीसिया के सिंचन कार्य को हानि पहुँचाने के लिए खुद से घृणा नहीं की। इन तथ्यों के सामने होते हुए भी, मेरा खुद को सही ठहराने की कोशिश करना दिखाता था कि मैं सत्य को नहीं स्वीकारती थी। अब देखती हूँ, तो लगता है कि कैसी भी बहस करके मैं इस सच्चाई को नहीं नकार सकती थी कि मैं कर्तव्य में जिम्मेदार नहीं थी। इसके बजाय, मेरे खुद को सही ठहराने और तर्क-वितर्क ने, सत्य से त्रस्त होने और इसे न मानने की मेरी प्रकृति को उजागर किया। अपने निजी हितों की रक्षा की कोशिश में, मैंने दिखाया कि मैं जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ती थी, स्वार्थी और घिनौनी थी।

परमेश्वर के वचनों को मैं बार-बार पढ़ती, और निपटान होने पर मसीह-विरोधियों के बर्ताव से अपने बर्ताव की तुलना करती, जितनी तुलना की उतना ही लगा कि परमेश्वर का वचन मुझे उजागर कर रहा था। मैं कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार थी, सिंचन कार्य को बहुत नुकसान पहुँचा रही थी, इस तरह अपराध कर रही थी, फिर भी काट-छाँट और निपटान होने पर, मैंने नहीं माना और सत्य से त्रस्त रही। मैं सत्य का अनुसरण करने वालों में से एक नहीं थी। इस बारे में सोचकर, लगा कि परमेश्वर को मेरे बर्ताव से खासतौर पर घृणा हुई होगी। यही नहीं, मुझे बहस करता देख, अगुआ साफतौर पर समझ गए होंगे कि मैं कौन-थी, जान गए होंगे कि मैं भरोसेमंद और विकसित करने योग्य नहीं थी। मैं सोचने लगी, "क्या अगुआ मुझ पर नजर रखे हैं? इस बार, मैंने सिंचन कार्य ठीक से न करके, अपराध किया है। अगर किसी दिन मैंने कोई और बाधा या गड़बड़ी पैदा की, फिर काट-छाँट और निपटान हुआ, तो कहीं खुलासा कर मुझे त्याग तो नहीं दिया जाएगा? ऐसा हुआ, तो परमेश्वर में आस्था से मुझे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं बचेगी।" मैंने कर्तव्य निभाने के लिए परिवार और काम छोड़ दिया, और अब लग रहा था कि अंत में शायद मुझे त्याग दिया जाएगा। मैंने जितना सोचा उतनी ही निराशा हुई। मुझे यह भी लगा कि गैर-जिम्मेदार होने, कर्तव्य की अनदेखी करने, सत्य को स्वीकार न कर उससे त्रस्त होने के कारण, मैं अगुआ होने लायक नहीं थी, इसलिए मुझे थोड़ा आत्म-बोध होना चाहिए, शीघ्र इस्तीफा देकर, कोई आसान कर्तव्य ढूँढना चाहिए जिसे मैं ईमानदारी से निभा सकूँ। इस तरह, मैं कम समस्याएँ पैदा करूँगी और मेरी काट-छाँट और निपटान कम होगा, परमेश्वर का कार्य समाप्त होने पर, बचे रहने की आस भी होगी। उस दौरान, मैंने परमेश्वर की इच्छा बिल्कुल नहीं खोजी, न ही कर्तव्य बेपरवाही से निपटाने और गैर-जिम्मेदार होने की अपनी समस्या सुलझाने की कोशिश की। मैं बचाव और गलतफहमी की स्थिति में जीती रही, यही सोचती रही कि इस्तीफा कैसे दूँ, मेरा मन कर्तव्य में लगता ही नहीं था। मैं बेहद दुखी थी। फिर, मैंने अपनी साझीदार बहन को अपनी हालत के बारे में बताया, उसने मुझे परमेश्वर के कुछ वचन पढ़कर सुनाए, जिससे मुझे परमेश्वर की इच्छा की थोड़ी समझ मिली।

परमेश्वर के वचन कहते हैं, "मनुष्य की दशा और अपने प्रति मनुष्य का व्यवहार देखकर परमेश्वर ने नया कार्य किया है, जिससे मनुष्य उसके विषय में ज्ञान और उसके प्रति आज्ञाकारिता दोनों से युक्त हो सकता है, और प्रेम और गवाही दोनों रख सकता है। इसलिए मनुष्य को परमेश्वर के शुद्धिकरण, और साथ ही उसके न्याय, व्यवहार और काट-छाँट का अनुभव अवश्य करना चाहिए, जिसके बिना मनुष्य कभी परमेश्वर को नहीं जानेगा, और कभी वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करने और उसकी गवाही देने में समर्थ नहीं होगा। परमेश्वर द्वारा मनुष्य का शुद्धिकरण केवल एकतरफा प्रभाव के लिए नहीं होता, बल्कि बहुआयामी प्रभाव के लिए होता है। केवल इसी तरह से परमेश्वर उन लोगों में शुद्धिकरण का कार्य करता है, जो सत्य को खोजने के लिए तैयार रहते हैं, ताकि उनका संकल्प और प्रेम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाए। जो लोग सत्य को खोजने के लिए तैयार रहते हैं और जो परमेश्वर को पाने की लालसा करते हैं, उनके लिए ऐसे शुद्धिकरण से अधिक अर्थपूर्ण या अधिक सहायक कुछ नहीं है। परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य द्वारा सरलता से जाना या समझा नहीं जाता, क्योंकि परमेश्वर आखिरकार परमेश्वर है। अंततः, परमेश्वर के लिए मनुष्य के समान स्वभाव रखना असंभव है, और इसलिए मनुष्य के लिए परमेश्वर के स्वभाव को जानना सरल नहीं है। सत्य मनुष्य द्वारा अंतर्निहित रूप में धारण नहीं किया जाता, और वह उनके द्वारा सरलता से नहीं समझा जाता, जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हैं; मनुष्य सत्य से और सत्य को अभ्यास में लाने के संकल्प से रहित है, और यदि वह पीड़ित नहीं होता और उसका शुद्धिकरण या न्याय नहीं किया जाता, तो उसका संकल्प कभी पूर्ण नहीं किया जाएगा। सभी लोगों के लिए शुद्धिकरण कष्टदायी होता है, और उसे स्वीकार करना बहुत कठिन होता है—परंतु शुद्धिकरण के दौरान ही परमेश्वर मनुष्य के समक्ष अपना धर्मी स्वभाव स्पष्ट करता है और मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ सार्वजनिक करता है, और अधिक प्रबुद्धता, अधिक वास्तविक काट-छाँट और व्यवहार प्रदान करता है; तथ्यों और सत्य के बीच की तुलना के माध्यम से वह मनुष्य को अपने और सत्य के बारे में बृहत्तर ज्ञान देता है, और उसे परमेश्वर की इच्छा की और अधिक समझ प्रदान करता है, और इस प्रकार उसे परमेश्वर के प्रति सच्चा और शुद्ध प्रेम प्राप्त करने देता है। शुद्धिकरण का कार्य करने में परमेश्वर के ये लक्ष्य हैं। उस समस्त कार्य के, जो परमेश्वर मनुष्य में करता है, अपने लक्ष्य और अपना अर्थ होता है; परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता, और न ही वह ऐसा कार्य करता है, जो मनुष्य के लिए लाभदायक न हो। शुद्धिकरण का अर्थ लोगों को परमेश्वर के सामने से हटा देना नहीं है, और न ही इसका अर्थ उन्हें नरक में नष्ट कर देना है। बल्कि इसका अर्थ है शुद्धिकरण के दौरान मनुष्य के स्वभाव को बदलना, उसके इरादों को बदलना, उसके पुराने विचारों को बदलना, परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को बदलना, और उसके पूरे जीवन को बदलना। शुद्धिकरण मनुष्य की वास्तविक परीक्षा और वास्तविक प्रशिक्षण का एक रूप है, और केवल शुद्धिकरण के दौरान ही उसका प्रेम अपने अंतर्निहित कार्य को पूरा कर सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शुद्धिकरण का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। वचनों पर मनन कर, मैं समझ गई कि जब परमेश्वर लोगों के लिए पीड़ा, शुद्धिकरण, न्याय और ताड़ना, काट-छाँट और निपटान के अनुभव के हालात बनाता है, तो ये लोगों की भ्रष्टता और कमियों पर लक्षित होते हैं, जीवन-प्रवेश की प्रक्रिया में लोगों को इन चीजों का अनुभव और सामना करना चाहिए। इनसे होकर गुजरने की प्रक्रिया में हालाँकि हमें थोड़े कष्ट सहने पड़ते हैं, ये परमेश्वर के कार्य और हमारे खुद के भ्रष्ट स्वभाव को समझने में बड़े मददगार होते हैं। पिछले वर्ष की अपनी अगुआई पर नजर डालूँ, तो मैंने किसी असफलता का सामना नहीं किया, न ही गंभीरता से मेरी काट-छाँट या निपटान किया गया। कुछ काम सिद्धांत के अनुरूप न होने पर, अगुआ मेरे आध्यात्मिक कद के अनुरूप संगति करती थीं, कर्तव्य में भटकाव को पलटने में मेरी मदद कर मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाती थीं। जब भाई-बहन मेरे कर्तव्य में समस्याएँ देखते, तो वे अक्सर स्नेह से मदद करते, शायद ही कभी मुझे उजागर या मेरा निपटान करते थे। इसलिए अपने भ्रष्ट स्वभाव और अपने काम में आई समस्याओं से सामना होने पर, मैं हमेशा सोचती कि ये समस्याएँ ज्यादा बड़ी नहीं थीं, इन्हें दोहराने से आसानी से बच सकती थी, इसलिए मैंने अपनी नाकामी के मूल कारण को समझने के लिए कभी आत्म-चिंतन नहीं किया। इस बार हुई काट-छाँट और निपटान के बाद ही मैं अपना असली आध्यात्मिक कद समझ सकी। मैं कर्तव्य में लापरवाह थी, नतीजतन बहुत-से नए सदस्यों का समय पर सिंचन और पोषण नहीं हो पाया, लेकिन अपने निजी हितों को बचाने के लिए, मैंने जिम्मेदारी से जी चुराया और खुद को दोष-मुक्त कर लिया। मुझे अपने भविष्य और भाग्य से हाथ धोने की भी फिक्र थी, मैं निराश हो गई, गलतफहमियाँ पालीं, मैं बस अपना कर्तव्य छोड़ देना चाहती थी। जब पहले लोग मेरी समस्याओं के बारे में विनम्रता से बोले, तब तो मैंने स्वीकार किया, लेकिन इस बार जब मेरी काट-छाँट और निपटान हुआ, बेपरवाही से काम करने के नतीजे बताए गए, तो मैं बिल्कुल मान नहीं पाई। छोटे-छोटे मामलों में निपटान होने पर मैं मान लेती थी। लेकिन जब बड़े मामलों में मेरा निपटान हुआ, जहाँ सार और नतीजे ज्यादा गंभीर थे, और जहाँ मुझे जिम्मेदारी उठानी थी, तो मैं मान नहीं पाई। मैंने देखा कि काट-छाँट और निपटान की स्वीकृति को लेकर मेरी अपनी पसंद थी, जो कि परमेश्वर की आज्ञाकारिता की अभिव्यक्ति थी ही नहीं। अगर अगुआ ने मेरी काट-छाँट और निपटान न किया होता, तो मुझे अपनी स्थिति का पता ही न चलता, मैं अब भी खुद को सत्य का अनुसरण करने वाला समझती, मैं अपने ही मुखौटे को सच्चा मान लेती। मेरा जीवन-प्रवेश रुक गया होता, परमेश्वर द्वारा तैयार की गए हालात से मैं सबक नहीं सीख पाती, परमेश्वर के वचन से खुद को नहीं समझ पाती, न अपनी भ्रष्टता दूर कर पाती। इस बारे में सोचकर, मैंने परमेश्वर का बड़ा आभार माना, परमेश्वर की इच्छा खोजने और इस हालत से सबक सीखने को तैयार हो गई।

अपने भक्ति-कार्यों में मैंने खाने-पीने के लिए परमेश्वर के वचन खोजे। मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे काट-छाँट और निपटान के बाद, इस्तीफा देने की मेरी इच्छा की थोड़ी समझ मिल सकी। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है और उनसे निपटा जाता है, तो वे इसे हमेशा आशीष पाने की अपनी आशाओं से जोड़कर देखते हैं। यह रवैया और नजरिया गलत है, यह खतरनाक है। जब कोई मसीह-विरोधियों की खामियों या समस्याओं की ओर इशारा करता है, तो उन्हें लगता है कि आशीष पाने की उनकी आशा खो गई है; और जब उनकी काट-छाँट की जाती है और उनसे निपटा जाता है, या उन्हें अनुशासित किया जाता है या निंदा की जाती है, तो भी उन्हें यह लगता है कि आशीष पाने की उनकी आशा खो गई है। जैसे ही कोई चीज उनके मन-मुताबिक या उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती, जैसे ही उन्हें उजागर कर उनसे निपटा जाता है, तो यह महसूस करते हुए कि उनके आत्मसम्मान को झटका लगा है, उनके विचार फौरन इस दिशा में चले जाते हैं कि आशीष पाने की उनकी उम्मीद अब बची है या नहीं। क्या यह उनका अत्यधिक संवेदनशील होना नहीं है? क्या वे आशीष पाने के लिए बहुत ज्यादा इच्छुक नहीं होते? मुझे बताओ, क्या ऐसे लोग दयनीय नहीं हैं? (हैं।) वे वास्तव में दयनीय हैं! और वे किस प्रकार दयनीय हैं? क्या किसी का आशीष पा सकना, उनसे निपटे जाने और उनकी काट-छाँट किए जाने से संबंधित है? (नहीं।) यह उससे संबंधित नहीं है। तो फिर, जब मसीह-विरोधियों से निपटा जाता है और उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे यह क्यों महसूस करते हैं कि आशीष पाने की उनकी आशा खो गई है? क्या इसका उनकी खोज से कोई लेना-देना नहीं है? वे क्या खोजते हैं? (आशीष पाना।) वे आशीष पाने की अपनी इच्छा और इरादा कभी नहीं छोड़ते। परमेश्वर पर अपने विश्वास की शुरुआत से ही उनका आशीष पाने का इरादा रहा है, और हालाँकि उन्होंने बहुत सारे उपदेश सुने हैं, पर उन्होंने सत्य कभी नहीं स्वीकारा। इस पूरे समय, उन्होंने आशीष पाने की अपनी इच्छा और इरादा नहीं छोड़ा है। उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास के बारे में अपने विचार नहीं सुधारे या बदले, और अपना कर्तव्य निभाने में उनका इरादा शुद्ध नहीं हुआ है। वे हमेशा आशीष पाने की अपनी आशा और इरादा बनाए रखकर ही सब-कुछ करते हैं, और अंत में, जब आशीष पाने की उनकी आशाएँ चूर-चूर होने वाली होती हैं, तो वे क्रोध से भड़क उठते हैं, कटु विरोध करते हैं, और अंत में परमेश्वर पर संदेह करने और सत्य को नकारने के शर्मनाक तथ्य प्रकट कर देते हैं। क्या वे तबाही की राह पर नहीं चल रहे? मसीह-विरोधियों द्वारा सत्य को जरा भी न स्वीकारने, निपटान और काट-छाँट को न स्वीकारने का यह अपरिहार्य परिणाम है। परमेश्वर के कार्य के अपने अनुभव में, परमेश्वर के सभी चुने हुए लोग जान सकते हैं कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना, निपटान और काट-छाँट उसका प्रेम और आशीष हैं—लेकिन मसीह-विरोधी मानते हैं कि यह केवल लोगों की लफ्फाजी है, वे विश्वास नहीं करते कि यह सत्य है। इसलिए, वे निपटान और काट-छाँट को सीखे जाने वाले सबक नहीं मानते, न ही वे सत्य की तलाश या आत्मचिंतन करते हैं। इसके विपरीत, उनका मानना है कि निपटान और काट-छाँट इंसानी इच्छा से उपजे हैं, कि वे जानबूझकर किए जाने वाले, व्यक्तिगत इरादों से लदे उत्पीड़न और सजा हैं, और निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा नहीं किए जाते। वे इन चीजों का विरोध और उनकी अवहेलना करने का चुनाव करते हैं, यहाँ तक कि वे यह जाँच भी करते हैं कि कोई उनके साथ ऐसा बरताव क्यों करेगा। वे बिलकुल भी समर्पण नहीं करते। वे अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में जो कुछ भी करते हैं, उसे आशीष और पुरस्कार पाने से जोड़ते हैं, और वे आशीष पाने को जीवन की सबसे महत्वपूर्ण खोज के साथ-साथ परमेश्वर पर विश्वास का अंतिम और परम लक्ष्य मानते हैं। वे जीवन भर आशीष पाने के अपने इरादे से चिपके रहते हैं, फिर चाहे परमेश्वर का परिवार सत्य के बारे में कैसे भी संगति करे, वे यह सोचकर उसे नहीं छोड़ते कि अगर परमेश्वर पर विश्वास आशीष पाने के लिए नहीं है, तो वह पागलपन और मूर्खता है, बहुत बड़ा नुकसान है। उन्हें लगता है कि जो कोई भी आशीष पाने का इरादा छोड़ता है, उसे धोखा दिया गया है, कोई मूर्ख ही आशीष पाने की आशा छोड़ेगा, और निपटान और काट-छाँट स्वीकारना मूर्खता और अक्षमता का प्रदर्शन है, कोई चतुर इंसान ऐसा नहीं करेगा। यह मसीह-विरोधी के मन का तर्क है। इसलिए, जब किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है और उससे निपटा जाता है, तो वह दिल से बहुत उद्दंड हो जाता है, कपट और ढोंग में माहिर हो जाता है; वह सत्य जरा भी नहीं स्वीकारता, न ही वह समर्पण करता है। इसके बजाय, वह अवज्ञा और विद्रोह से भर जाता है। यह परमेश्वर का विरोध करने, परमेश्वर की आलोचना करने, परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने, और अंत में, उजागर कर बाहर निकाले जाने की ओर ले जा सकता है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचन ने मसीह-विरोधियों की काट-छाँट और निपटान की गलत समझ का खुलासा किया। वे इन्हें अपने आशीषों, भविष्य और भाग्य से जोड़ते हैं। वे सोचते हैं कि जब कोई उनकी कमियाँ और खामियाँ बताता है, उन्हें उजागर कर उनकी काट-छाँट और निपटान करता है, तो आशीष पाने की उनकी उम्मीद चूर हो जाती है। मसीह-विरोधियों के ऐसे बर्ताव से उजागर होता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका प्रयोजन आशीष पाना है। मसीह-विरोधियों को अपने भविष्य, भाग्य और आखिरी मंजिल से विशेष प्रेम होता है, इसलिए वे काट-छाँट और निपटान के प्रति खासतौर से त्रस्त और प्रतिरोधी होते हैं, काट-छाँट और निपटान होने पर वे बहस करते हैं, खुद को सही ठहराते हैं, और अपनी समस्याएँ मानने से इनकार करते हैं। मैंने काट-छाँट और निपटान होने पर अपने बर्ताव के बारे में फिर एक बार सोचा। मैं अपना बचाव करने की कोशिश करती रही, नहीं माना कि कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार होने के कारण मैंने गलतियाँ की थीं। मुझे लगा कि मान लेने पर मुझे उसके नतीजे भुगतने पड़ेंगे, तो मैं अपने विकृत तर्क से चिपकी रही, काट-छाँट और निपटान को स्वीकार नहीं किया। मैंने उस मामले की सच्चाई खोजकर, यह समझने की कोशिश नहीं की कि मैं कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार थी, और मैंने सिंचन कार्य को नुकसान पहुँचाया। ऊपर से, मैं अपना बचाव करने लगी, काट-छाँट और निपटान के बाद गलतफहमियाँ पाल लीं, यह सोचकर कि मैं अपराध कर चुकी थी, तो अगर मैंने एक और गलती की, फिर से मेरी काट-छाँट और निपटान हुआ, तो शायद मुझे त्याग दिया जाएगा। इसलिए मैंने खुद से उम्मीद छोड़ दी, अगुआ बने रहना नहीं चाहा। परमेश्वर के वचन में हुए खुलासे से मैंने अपनी अभिव्यक्ति पर आत्मचिंतन किया, समझ गई कि परमेश्वर में विश्वास रखने में मेरा इरादा हमेशा आशीष पाने का ही था। मैंने दोबारा परमेश्वर के वचन पढ़े : "जब आशीष पाने की उनकी आशाएँ चूर-चूर होने वाली होती हैं, तो वे क्रोध से भड़क उठते हैं, कटु विरोध करते हैं, और अंत में परमेश्वर पर संदेह करने और सत्य को नकारने के शर्मनाक तथ्य प्रकट कर देते हैं। क्या वे तबाही की राह पर नहीं चल रहे? मसीह-विरोधियों द्वारा सत्य को जरा भी न स्वीकारने, निपटान और काट-छाँट को न स्वीकारने का यह अपरिहार्य परिणाम है।" मैं एक निराश हालत में थी, इस्तीफा देना चाहती थी। यह परमेश्वर से लड़ने की अभिव्यक्ति थी, काट-छाँट और निपटान को स्वीकार न करना और उससे बचना था। मुझे पता था कि जीवन में परिपक्वता के लिए काट-छाँट और निपटान जरूरी थे, परमेश्वर ने मेरी जरूरतों और कमियों के आधार पर मेरे अनुभव के लिए हालात बनाए थे, लेकिन मैंने आशीषों के लिए परमेश्वर में आस्था को अपना सबसे बड़ा और जायज लक्ष्य माना, मैंने सत्य के अनुसरण और भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने को दरकिनार कर दिया। अपने भविष्य और भाग्य को सुरक्षित करने और आशीषों की महत्वाकांक्षा और इच्छा को संतुष्ट करने के लिए, मैं काट-छाँट और निपटान से बचना चाहती थी, एक अगुआ बने रहना नहीं चाहती थी। मेरी प्रकृति बहुत कपटी और बुरी थी।

परमेश्वर के वचन में मैंने यह अंश पढ़ा। "चूँकि आशीष प्राप्त करने का अनुसरण करना लोगों के लिए उचित लक्ष्य नहीं है, तो फिर उचित लक्ष्य क्या है? सत्य का अनुसरण, स्वभाव में बदलावों का अनुसरण, और परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करने में सक्षम होना : ये वे लक्ष्य हैं, जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो, काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने के कारण तुम धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल लेते हो, और आज्ञापालन में असमर्थ हो जाते हो। तुम आज्ञापालन क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि तुम्हें लगता है कि तुम्हारी मंजिल या आशीष पाने के तुम्हारे सपने को चुनौती दी गई है। तुम नकारात्मक और परेशान हो जाते हो, और अपने कर्तव्य-पालन से छुटकारा पाने का प्रयास करते हो। इसका क्या कारण है? तुम्हारे अनुसरण में कोई समस्या है। तो इसे कैसे हल किया जाना चाहिए? यह अनिवार्य है कि तुम ये गलत विचार तुरंत त्याग दो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल करने के लिए तुरंत सत्य की खोज करो। तुम्हें खुद से कहना चाहिए, 'मुझे छोड़कर नहीं जाना चाहिए, मुझे अभी भी परमेश्वर के प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए और आशीष पाने की अपनी इच्छा एक तरफ रख देनी चाहिए।' जब तुम आशीष पाने की इच्छा छोड़ देते हो, तो तुम्हारे कंधों से एक भार उतर जाता है। और क्या तुम अभी भी नकारात्मक हो पाते हो? हालाँकि अभी भी ऐसे अवसर आते हैं जब तुम नकारात्मक हो जाते हो, लेकिन तुम इसे खुद पर काबू नहीं पाने देते, और अपने दिल में प्रार्थना करते और लड़ते रहते हो, और आशीष पाने और मंजिल हासिल करने के अनुसरण के लक्ष्य को बदलकर सत्य के अनुसरण को लक्ष्य बनाते हो, और मन ही मन सोचते हो, 'सत्य का अनुसरण परमेश्वर के प्राणी का कर्तव्य है। आज कुछ सत्यों को समझना—इससे बड़ी कोई फसल नहीं है, यह सबसे बड़ा आशीष है। भले ही परमेश्वर मुझे न चाहे, और मेरी कोई अच्छी मंजिल न हो, और आशीष पाने की मेरी आशा चकनाचूर हो गई है, फिर भी मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँगा, मैं इसके लिए बाध्य हूँ। कोई भी वजह मेरे कर्तव्य-प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करेगी, वह मेरे द्वारा परमेश्वर के आदेश की पूर्ति को प्रभावित नहीं करेगी; मैं इसी सिद्धांत के अनुसार आचरण करता हूँ।' और इसमें, क्या तुमने देह की बेड़ियाँ पार नहीं कर लीं? कुछ लोग कह सकते हैं, 'अच्छा, अगर मैं अभी भी नकारात्मक हूँ तो क्या?' तो इसे हल करने के लिए दोबारा सत्य की तलाश करो। तुम चाहे कितनी बार भी नकारात्मकता में पड़ो, अगर तुम उसे हल करने के लिए सत्य की तलाश करते रहते हो, और सत्य के लिए प्रयत्नशील रहते हो, तो तुम धीरे-धीरे अपनी नकारात्मकता से बाहर निकल आओगे। और एक दिन, तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे भीतर आशीष पाने की इच्छा नहीं है और तुम अपने गंतव्य और परिणाम से शासित नहीं हो, और तुम इन चीजों के बिना अधिक आसान और स्वतंत्र जीवन जी रहे हो। तुम महसूस करोगे कि तुमने जो जीवन पहले जिया था, जब हर दिन तुम आशीष और अपना गंतव्य पाने के उद्देश्य से जीते थे, वह थका देने वाला था। हर दिन आशीष पाने के लिए बोलना, काम करना और दिमाग चलाना—इससे तुम्हें आखिर क्या मिलेगा? ऐसे जीवन का क्या मूल्य है? तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया, बल्कि अपने सर्वोत्तम दिन तुच्छ बातों में व्यतीत कर दिए। अंत में, तुमने कोई सत्य प्राप्त नहीं किया, और तुम कोई अनुभवजन्य गवाही देने में असमर्थ रहे। तुमने खुद को मूर्ख बना लिया, पूरी तरह से बदनाम और असफल हो गए। और असल में इसका क्या कारण है? वह यह है कि आशीष पाने का तुम्हारा इरादा बहुत मजबूत था, तुम्हारे परिणाम और गंतव्य ने तुम्हारे दिल पर कब्जा कर लिया था और तुम्हें बहुत कसकर बाँध लिया था। लेकिन जब वह दिन आएगा, जब तुम अपनी संभावनाओं और भाग्य के बंधन से निकल जाओगे, तो तुम सब-कुछ पीछे छोड़कर परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम हो जाओगे। तुम इन चीजों को पूरी तरह से कब छोड़ पाओगे? जैसे-जैसे तुम्हारा जीवन-प्रवेश निरंतर गहराता जाएगा, तुम अपने स्वभाव में बदलाव हासिल करोगे, और तभी तुम उन्हें पूरी तरह से छोड़ने में सक्षम होगे। कुछ लोग कहेंगे, 'मैं जब चाहूँ, इन चीजों को छोड़ सकता हूँ।' क्या यह प्राकृतिक नियम के अनुरूप है? (नहीं।) दूसरे लोग कहेंगे, 'मैंने यह सब रातों-रात समझ लिया। मैं एक सरल इंसान हूँ, तुम सबकी तरह जटिल या नाजुक नहीं। तुम इतने महत्वाकांक्षी हो, जो दर्शाता है कि तुम मुझसे कहीं ज्यादा भ्रष्ट हो।' क्या यही स्थिति है? नहीं। सभी मनुष्यों की प्रकृति एक जैसी भ्रष्ट है, गहराई में कोई अंतर नहीं है। उनमें एकमात्र अंतर इस बात में है कि उनमें मानवता है या नहीं और वे किस तरह के इंसान हैं। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं और उसे स्वीकार करते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव का अपेक्षाकृत गहरा, स्पष्ट ज्ञान पाने में सक्षम होते हैं, और दूसरे लोग गलत ढंग से यह सोचते हैं कि ऐसे लोग अत्यधिक भ्रष्ट हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते या उसे स्वीकारते नहीं, वे हमेशा सोचते हैं कि उनमें कोई भ्रष्टता नहीं है, कुछ और अच्छे व्यवहार करके वे पवित्र हो जाएँगे। यह दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से अमान्य है—वास्तव में, ऐसा नहीं है कि उनकी भ्रष्टता उथली है, बल्कि वे सत्य को नहीं समझते और उन्हें अपनी भ्रष्टता के सार और सत्य का कोई स्पष्ट ज्ञान नहीं है। संक्षेप में, परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए इंसान को सत्य स्वीकारना चाहिए, उसका अभ्यास करना चाहिए और उसकी वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए। अपनी खोज की गलत दिशा और मार्ग बदल सकने, आशीषों के पीछे दौड़ने और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने की समस्या पूरी तरह से हल कर पाने से पहले व्यक्ति को अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव हासिल करने चाहिए। इस तरह, व्यक्ति परमेश्वर द्वारा बचाया और पूर्ण किया जा सकता है। मनुष्य का न्याय और शुद्धिकरण करने के लिए परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी सत्य इसी लक्ष्य के लिए कार्य करते हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अभ्यास में ही होता है जीवन-प्रवेश)। परमेश्वर के वचन में, मैंने अभ्यास का एक मार्ग पाया, जो आशीष की अपनी इच्छा छोड़ देना, परमेश्वर में आस्था में अपना गलत लक्ष्य बदल देना, और आशीषों के पीछे भागने के बजाय सत्य का और स्वभाव में बदलाव का अनुसरण करना था। किसी सृजित प्राणी के लिए सिर्फ यही उचित अनुसरण है। मैंने अपना बर्ताव देखा, और समझा कि उजागर होने पर मैंने कर्तव्य छोड़ना चाहा, जो अभ्यास का सही मार्ग नहीं था। मैं अगुआ न भी रहूँ, तो भी सत्य से त्रस्त होने के अपने स्वभाव, और आशीष पाने की इच्छा दूर न करने के कारण, मैं जो भी कर्तव्य करती, ऐसे ही करती जिससे कलीसिया का कार्य बाधित और गड़बड़ होता। इस दौरान, मैं निराशा की हालत में जी रही थी। अपने निजी हितों के लिए साजिश कर चालें चल रही थी, बहुत दुखी थी, कर्तव्य के लिए जोश खो बैठी थी, परमेश्वर से दूर हो गई थी। मैंने शपथ ली कि अब मैं आशीषों की अपनी इच्छा से बंधी या बेबस नहीं रहूँगी। मुझे आशीष मिलें न मिलें, मुझे अपना कर्तव्य ठीक से निभाना होगा। कलीसिया ने मुझे कर्तव्य निभाने का मौका दिया था, तो मुझे लगन से अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए थी। इसके बाद मेरी हालत में थोड़ा सुधार हुआ, कर्तव्य में बेपरवाह और गैर-जिम्मेदार होने की समस्या को देखते हुए, मैंने परमेश्वर के संबंधित वचन खाए-पिए, समझी कि बेपरवाह होने का सार परमेश्वर को बेवकूफ बनाना और उससे छल करना है। अगर मैंने हमेशा कर्तव्य में बेपरवाह होकर तिरस्कारपूर्ण रवैया रखा, तो मैं कभी भी अपना कर्तव्य योग्य तरीके से नहीं करूँगी, और आखिर में कर्तव्य निभाने का मौका खो दूँगी। यह सोचकर कि मेरी गैर-जिम्मेदारी के कारण बहुत-से नए सदस्य सभाओं में नियमित नहीं आ रहे थे, मुझे पछतावा हुआ, मैंने ऋणी महसूस किया, और दिल की गहराई से मैंने अपने गैर-जिम्मेदार बर्ताव से घृणा की।

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मैं काट-छाँट और निपटान का अर्थ और ज्यादा स्पष्ट समझ सकी। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "जब काट-छाँट करने और निपटने की बात आती है, तो लोगों को कम से कम क्या पता होना चाहिए? अपना कर्तव्य यथेष्ट रूप से निभाने के लिए काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने का अनुभव होना चाहिए, यह अपरिहार्य है। ये ऐसी चीजें हैं, जिनका लोगों को प्रतिदिन सामना करना चाहिए और जिन्हें परमेश्वर में अपने विश्वास और उद्धार की प्राप्ति में अकसर अनुभव करना चाहिए। कोई भी काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने से अलग नहीं रह सकता। क्या किसी की काट-छाँट और उसके निपटारे में उसका भविष्य और नियति भी शामिल होते हैं? (नहीं।) तो व्यक्ति के लिए काट-छाँट और निपटारा क्या होता है? क्या यह लोगों की निंदा करने के लिए किया जाता है? (नहीं, यह लोगों को सत्य समझने और अपना कर्तव्य सिद्धांतों के अनुसार निभाने में मदद करना है।) सही है। यह इसकी एकदम सही समझ है। किसी की काट-छाँट करना और उससे निपटना एक तरह का अनुशासन है, ताड़ना है, यह एक प्रकार से लोगों की मदद करना भी है। काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने से तुम समय रहते अपने गलत लक्ष्य को बदल सकते हो। इससे तुम अपनी मौजूदा समस्याएँ तुरंत पहचान सकते हो और समय रहते अपने उजागर हुए भ्रष्ट स्वभाव को पहचान सकते हो। चाहे कुछ भी हो, काट-छाँट किया जाना और निपटा जाना तुम्हें अपने कर्तव्य सिद्धांतों के अनुसार पूरा करने में मदद करते हैं, ये तुम्हें समय रहते गलतियाँ करने और भटकने से बचाते हैं और तबाही मचाने से रोकते हैं। क्या यह लोगों की सबसे बड़ी सहायता, उनका सबसे बड़ा उपचार नहीं है? जमीर और विवेक रखने वालों को निपटे जाने और काट-छाँट किए जाने को सही ढंग से लेने में सक्षम होना चाहिए" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग आठ))। वचन पढ़ने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि काट-छाँट और निपटान को लेकर मेरा एक और बेतुका विचार था। खुद पर परमेश्वर के वचन लागू किया तो पाया कि मुझमें सत्य से त्रस्त होने का शैतानी स्वभाव था, लगा कि मेरा विनाश तय है, मेरी भ्रष्टता बहुत गहरी थी, परमेश्वर जरूर मुझसे घृणा करेगा, मुझे नहीं बचाएगा। दरअसल यह एक निराशाजनक और शत्रुतापूर्ण रवैया था। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं समझ गई कि काट-छाँट और निपटान, उजागर कर त्यागे जाने के समान नहीं है, इसका यह अर्थ नहीं है कि आपका भविष्य और भाग्य आपसे छिन चुका है। इसके बजाय, यह इसलिए किया जाता है कि लोग कर्तव्य में अपनी कमियाँ जान सकें, अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझें, कर्तव्य के भटकाव को फौरन उलट दें, सत्य खोजें ताकि वे सिद्धांतों के अनुसार कर्म कर सकें। काट-छाँट और निपटान की घटना के बिना, मुझे एहसास नहीं होता कि मेरा स्वभाव सत्य से त्रस्त होने का था, अपने निजी हितों से जुड़े मामलों में, मैं जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़कर अपने लिए बहाने बनाती थी, और सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारती थी। यह एक अच्छी बात थी कि मैंने इसे पहचान लिया था। इससे मैं इसके बाद घटी घटनाओं के समय सत्य खोजने पर ध्यान दे सकी, और मेरे अच्छे व्यवहार ने मेरी आँखों पर परदा नहीं डाला। परमेश्वर में आस्था में सत्य खोजने की मेरी क्षमता के लिए यह बहुत अहम था।

इसके बाद, कर्तव्य में भटकाव के लिए जब मेरी काट-छाँट और निपटान हुआ, तो मैंने सचेत होकर परमेश्वर से प्रार्थना की, सबसे पहले आज्ञाकारिता का अभ्यास किया, अपनी भ्रष्टता और भाई-बहनों द्वारा बताई गई समस्याओं के आधार पर मैंने पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों के संगत अंश खोजे। कई बार काट-छाँट और निपटान के बाद, मैं इसकी अहमियत को थोड़ा बेहतर समझ पाई। काट-छाँट और निपटान के अनुभव और परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से, मैं अपना सच्चा आध्यात्मिक कद और अपने कर्तव्य की अनेक समस्याओं और भटकावों को समझ पाई। मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव और लोगों को बचाने की परमेश्वर की इच्छा का थोड़ा ज्ञान भी हासिल किया। काट-छाँट और निपटान जीवन-प्रवेश के मेरे अनुसरण के लिए बहुत मददगार और लाभकारी थे। मुझे लगता है कि खुद को जानने और कर्तव्य ठीक से निभाने को, परमेश्वर द्वारा न्याय, खुलासे, काट-छाँट और निपटान से अलग नहीं किया जा सकता।

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