आराम की लालसा करने से कुछ हासिल नहीं होता

19 जुलाई, 2022

पिछली जुलाई में, मुझे वीडियो के काम का प्रभारी बनाया गया। शुरू में, मैं अक्सर भाई-बहनों के कामकाज की खोज-खबर लेती रहती थी। कर्तव्य निभाने में उनकी मुश्किलों और परेशानियों के बारे में जानती, फिर सत्य खोजने और हल निकालने के लिए टीम अगुआ के साथ मिलकर काम करती थी। परमेश्वर के मार्गदर्शन से, कुछ समय बीतने के बाद ही, काम के नतीजों में सुधार दिखने लगा। मैंने सोचा, "अब काम में लगातार सुधार हो रहा है, तो कोई बड़ी समस्या नहीं होनी चाहिए। कोई समस्या आई भी, तो काम के नतीजों पर असर नहीं पड़ेगा, हम समय रहते उसे हल कर लेंगे। हर कोई अपने काम में बढ़चढ़कर जुटा है और कीमत चुका सकता है, मुझे ज्यादा फिक्र करने की ज़रूरत नहीं है। हर चीज की खोज-खबर लेने का मतलब था अक्सर ओवरटाइम काम करना, कभी-कभी मैं इतनी व्यस्त रहती कि समय पर खाना भी नहीं खा पाती। मेरी सेहत खास अच्छी नहीं है, तो ज्यादा दबाव लेना ठीक नहीं होगा।" उसके बाद, मैं काम को लेकर थोड़ी बेफिक्र रहने लगी, इसकी खोज-खबर रखने पर ज़्यादा ध्यान देना छोड़ दिया। कभी-कभी मैं यूं ही थोड़ी पूछताछ कर लेती, पर भाई-बहनों के कर्तव्यों की बारीकियों में शायद ही कभी जाती, यह सोचना भी छोड़ दिया कि हमारे काम के नतीजों में आगे सुधार कैसे हो।

जल्दी ही, हमारे तैयार किए गए कई वीडियो में समस्याएं दिखने लगीं, उन पर दोबारा काम करना पड़ा, जिससे काम की प्रगति पर सीधा असर पड़ा। इस हालत को देखकर, मुझे बड़ी चिंता हुई। मुझे यह भी एहसास हुआ कि ऐसा अपने-आप नहीं हुआ, इसमें मेरे सीखने के लिए कुछ सबक थे, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उसकी इच्छा को समझने के लिए राह दिखाने की विनती की। प्रार्थना के बाद, मैंने टीम अगुआ से पूछा कि हमें इन समस्याओं का सामना क्यों करना पड़ा। टीम अगुआ ने कहा, "कुछ भाई-बहन झट से कामयाब होना चाहते हैं, और सिद्धांतों के बिना कर्तव्य निभाते हैं। वे केवल प्रगति पर ध्यान देते हैं, गुणवत्ता पर नहीं। दूसरी वजह यह है कि मैंने काम की खोज-खबर नहीं ली, समय रहते समस्याओं का पता नहीं लगाया।" इस पर मैं गुस्से से सोचने लगी, "कितनी बार तुम्हें इन समस्याओं के बारे में बताया है? ये अभी भी क्यों आ रही हैं?" मैं टीम अगुआ को फटकारना चाहती थी, तभी मैंने सोचा, "क्या टीम अगुआ और मेरी समस्या एक ही नहीं है? मैंने भी तो कोई खोज-खबर नहीं ली।" इसलिए मैं चुप ही रही। फिर, मैंने इस दौरान बनाए गए सभी वीडियो की फौरन जांच की। मैंने पाया कि कुछ लोगों ने अपने काम में कोई प्रगति नहीं की थी, कुछ तो बदतर हो गए थे। ये कुछ स्पष्ट समस्याएं थीं, पर मुझे ये दिखी ही नहीं। मैं जानती थी कि यह व्यावहारिक काम न करने की वजह से हुआ था। मुझे पछतावा हुआ, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, आत्मचिंतन करके खुद को जानने के लिए राह दिखाने की विनती की।

अगले दिन, अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा। "यदि तुम परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में मेहनत नहीं करते, सत्य नहीं समझते, तो तुम आत्मचिंतन नहीं कर सकते; तुम केवल सांकेतिक प्रयास करने और कोई अपराध न करने मात्र से संतुष्ट रहोगे और इसे पूंजी के रूप में उपयोग करोगे। तुम हर दिन जैसे-तैसे गुजार दोगे, भ्रम की स्थिति में रहोगे, केवल नियत समय पर काम करोगे, जी-जान नहीं लगाओगे, अपना दिमाग नहीं लगाओगे, हमेशा सतही और लापरवाह रहोगे। इस तरह, तुम कभी भी स्वीकार्य स्तर पर अपना कर्तव्य नहीं निभा पाओगे। किसी चीज में अपना सारा प्रयास लगाने के लिए, पहले तुम्हें पूरी तरह उसमें अपना मन लगाना होगा; अगर तुम पहले किसी चीज में पूरी तरह अपना मन लगाते हो, तभी तुम अपना सारा प्रयास उसमें लगा सकते हो और अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकते हो। आज, ऐसे लोग हैं जो अपने कर्तव्य के निर्वहन में मेहनत करना शुरू कर चुके हैं, वे सोचने लगे हैं कि परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को ठीक से कैसे निभाया जाए। वे नकारात्मक और आलसी नहीं हैं, वे निष्क्रिय होकर ऊपर से आदेश आने की प्रतीक्षा नहीं करते, बल्कि थोड़ी पहल करते हैं। तुम लोगों के कर्तव्य प्रदर्शन को देखते हुए, तुम पहले की तुलना में थोड़े अधिक प्रभावी हो। हालांकि यह अभी भी मानक से नीचे है, फिर भी इसमें थोड़ी-बहुत वृद्धि तो हुई है—जो कि अच्छा है। लेकिन तुम्हें यथास्थिति से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, तुम्हें खोजते और बढ़ते रहना चाहिए—तभी तुम अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से निभाकर एक स्वीकार्य-स्तर तक पहुँच पाओगे। लेकिन जब कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो वे कभी भी अपना सौ प्रतिशत नहीं देते, इसे अपना सर्वस्व नहीं देते, वे केवल अपने प्रयास का 50-60% ही देते हैं और अपना कार्य पूरा होने तक कामचलाऊ ढंग से कार्य करते रहते हैं। वे कभी भी सामान्य स्थिति को बनाए नहीं रख पाते : जब उन पर नजर रखने या उनका समर्थन करने वाला कोई नहीं होता, तो वे सुस्त होकर हिम्मत हार जाते हैं; जब सत्य पर संगति करने वाला कोई होता है, तो वे उत्साहित रहते हैं, लेकिन यदि कुछ समय के लिए उनके साथ सत्य पर संगति न की जाए, तो वे उदासीन हो जाते हैं। जब वे इस तरह अनिश्चितता की स्थिति में रहते हैं, तो यहाँ समस्या क्या है? जब लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया होता, तो उनकी स्थिति ऐसी ही होती है, वे सभी जुनून में जीते हैं—जुनून को बनाए रखना बेहद कठिन होता है : कोई न कोई ऐसा होना चाहिए जो हर दिन उन्हें उपदेश दे और उनके साथ संगति करे; जब कोई उनका सिंचन और देखभाल करने वाला तथा उनका समर्थन करने वाला नहीं होता, तो वे फिर से ठंडे पड़ जाते हैं और सुस्त हो जाते हैं। और जब उनका हृदय शिथिल हो जाता है, तो वे अपने कार्य में कम प्रभावी हो जाते हैं; यदि वे अधिक मेहनत करते हैं, तो उनकी प्रभावशीलता बढ़ जाती है, कार्य की उत्पादकता में वृद्धि हो जाती है और उन्हें अधिक लाभ होता है। क्या तुम लोगों का यह अनुभव है? तुम लोग कह सकते हो, 'हमें अपना कर्तव्य निभाने में हमेशा परेशानी क्यों होती है? जब इन समस्याओं का समाधान हो जाता है, तो हम उत्साहित हो जाते हैं; जब नहीं होता, तो हम उदासीन हो जाते हैं। जब हमारे कर्तव्य निभाने का कोई परिणाम आता है, जब परमेश्वर हमारे विकास की प्रशंसा करता है, तो हम प्रसन्न होते हैं, हमें लगता है कि हमने अंततः बढ़त हासिल की है, लेकिन जैसे ही कोई समस्या आती है, तो हम फिर से नकारात्मक हो जाते हैं—इस प्रकार की अवस्था हमेशा एकसमान क्यों नहीं रहती?' दरअसल, इसका मुख्य कारण यह है कि तुम लोग बहुत कम सत्य समझते हो, तुम्हारे अनुभवों और प्रवेश में गहराई की कमी है, तुम अभी भी बहुत से सत्य नहीं समझते, तुममें इच्छाशक्ति की कमी है और तुम बस अपना कर्तव्य निभाकर ही संतुष्ट हो जाते हो। यदि तुम्हें सत्य की समझ नहीं है, तो तुम अपने कर्तव्य का पालन ठीक से कैसे कर सकते हो? वास्तव में, परमेश्वर लोगों से जो माँगता है, उसे लोग प्राप्त कर सकते हैं; अगर तुम लोग अपने अंतःकरण से काम लो, अपना कर्तव्य निभाते समय अपने अंतःकरण का अनुसरण करो, तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना आसान होगा—और यदि तुम सत्य स्वीकार सको, तो तुम अपना कार्य ठीक से कर सकते हो। तुम लोगों को इस तरह से सोचना चाहिए : 'इन वर्षों में परमेश्वर में विश्वास रखते हुए, इन वर्षों में परमेश्वर के वचनों को खा-पीते हुए, मैंने बहुत कुछ पाया है, परमेश्वर ने मुझ पर महान अनुग्रह और आशीर्वाद बरसाया है। मैं परमेश्वर के हाथों में जीता हूँ, मैं परमेश्वर की शक्ति और उसके प्रभुत्व में जीता हूँ, उसी ने मुझे ये सांसें दी हैं, इसलिए मुझे अपना मन लगाना और पूरी ताकत से अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास करना चाहिए—यही कुंजी है।' लोगों में इच्छाशक्ति होनी चाहिए; जिनमें इच्छाशक्ति है, वही वास्तव में सत्य के लिए प्रयास कर सकते हैं, सत्य समझ लेने के बाद ही वे अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकते हैं, परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं और शैतान को शर्मसार कर सकते हैं। यदि तुममें इस प्रकार की ईमानदारी है, और तुम अपने लिए कोई योजना नहीं बनाते हो, बल्कि सत्य प्राप्त कर अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहते हो, तो तुम्हारा कर्तव्य-निष्पादन सामान्य हो जाएगा और पूरे समय स्थिर रहेगा; तुम्हारे सामने चाहे कोई भी परिस्थिति हो, तुम दृढ़ता से अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहोगे। चाहे तुम्हें कोई भी गुमराह या परेशान करने आए, तुम्हारी मनःस्थिति चाहे अच्छी हो या बुरी, तब भी तुम अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा पाओगे। इस तरह, तुम्हारी ओर से परमेश्वर का मन निश्चिंत हो सकता है, पवित्र आत्मा सत्य के सिद्धांत समझने में तुम्हें प्रबुद्ध कर पाएगा और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। परिणामस्वरूप, तुम्हारा कर्तव्य-निष्पादन यकीनन मानक के अनुरूप होगा। यदि तुम ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाओगे, विनम्रता से अपना कर्तव्य-पालन करोगे, धूर्तता से काम नहीं करोगे या चालबाजी नहीं करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें स्वीकार कर लेगा। परमेश्वर लोगों का मन, विचार और इरादे देखता है। यदि तुम्हारे दिल में सत्य के लिए तड़प है और तुम सत्य खोज सकते हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन करेगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर में आस्था के लिए सर्वाधिक आवश्यक है जीवन में प्रवेश')। इन पर विचार करके एहसास हुआ कि मैंने हाल ही में काम में कुछ नतीजे हासिल किए थे, मैं आत्मतुष्ट हो गई; दैहिक सुख की परवाह करने लगी। मैं काफी देर तक व्यस्त रहने के बाद थक जाती थी, तो सोचा शरीर को थोड़ी राहत दी जाए, फिर अपने काम में ढिलाई बरतकर आराम करने लगी। मैंने बेपरवाह रवैया अपनाया, दूसरों के काम के प्रदर्शन की खोज-खबर और जानकारी लेने में नाकाम रही। मैं जानती थी कि हमारे काम की कुछ समस्याएं अभी भी हल नहीं हुई हैं, फिर भी मैंने इसे जरूरी नहीं समझा। मैंने सोचा कि इसका असर हमारे मौजूदा नतीजों पर नहीं पड़ा, तो कोई बात नहीं, पर जो वीडियो बने उनमें बहुत-सी समस्याएं थीं, उन पर दोबारा काम करना ज़रूरी था। सबसे बड़ी बात, सभी में लापरवाही से काम करने की प्रकृति होती है, सब अपने काम में ढीले पड़ जाते हैं, इसके बावजूद मैंने कोई खोज-खबर नहीं ली, मैंने अपने काम में लापरवाही की, मैंने ध्यान नहीं दिया और गैर-जिम्मेदार बनी रही। फिर काम में समस्याएं कैसे नहीं आतीं? परमेश्वर ने मुझे ऊंचा उठाकर निरीक्षक बनाया और अभ्यास का मौका दिया, इस उम्मीद में कि मैं अपने कर्तव्य पर ध्यान दूंगी, जिम्मेदार और कर्तव्यनिष्ठ बनूंगी। हालात चाहे जैसे भी हों, मुझे अपना कर्तव्य और जिम्मेदारियां निभाने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए। यही प्रगति करने का एकमात्र रास्ता है। मगर मैंने अपने कर्तव्य को एक नौकरी समझ लिया, मानो मैं किसी और के लिए काम कर रही थी। कम चिंता और कम योगदान करने के सभी मौके लपके। मुझे काम की कोई चिंता या अनिवार्यता महसूस नहीं हुई। मैंने कभी नहीं सोचा कि चीजों को बेहतर कैसे करें या सबसे अच्छे नतीजे कैसे हासिल करें। मैंने सिर्फ यही सोचा कि कैसे मेरे शरीर को कम तकलीफ और थकान हो। मैंने परमेश्वर की इच्छा का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि अपना कर्तव्य निभाने को लेकर मेरा रवैया गलत था। मैं परमेश्वर से अपना दिल छिपाकर, घटिया दर्जे की चालाकी कर रही थी।

एक बैठक में, मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश देखा जिसमें झूठे अगुआओं का खुलासा किया था, इसका मुझ पर गहरा असर पड़ा। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "चूँकि नकली अगुआ कार्य की प्रगति की स्थिति को नहीं समझते, इसलिए इसमें अकसर बार-बार देरी होती रहती है। किसी खास काम में, चूँकि लोगों के पास सिद्धांतों की कोई समझ नहीं होती, और इसके अलावा, इसकी देखरेख के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं होता, इसलिए उस काम को अंजाम देने वाले लोग नकारात्मकता, निष्क्रियता और प्रतीक्षा की स्थिति में रहते हैं, जो कार्य की प्रगति को गंभीर रूप से प्रभावित करती है। यदि अगुआ ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर दी होतीं—यदि उसने कार्यभार सँभाल लिया होता, काम आगे बढ़ाया होता, काम में तेजी दिखाई होती, और मार्गदर्शन देने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ा होता जो संबंधित किस्म के काम को समझता है, तो बार-बार की देरी से नुकसान होने के बजाय काम और अधिक तेजी से प्रगति करता। तो अगुआओं के लिए काम की वास्तविक स्थिति को समझना और उस पर पकड़ रखना अति महत्वपूर्ण है। निस्संदेह अगुआओं के लिए यह समझना और जानना अत्यधिक आवश्यक है कि कार्य कैसे प्रगति कर रहा है—क्योंकि प्रगति कार्य की दक्षता और उस कार्य से अपेक्षित परिणामों से संबंध रखती है। अगर किसी अगुआ में इस बात की समझ की भी कमी है कि काम कैसे आगे बढ़ रहा है, तो ज्यादातर समय काम धीरे-धीरे और सुस्त रफ्तार से आगे बढ़ेगा। अपने कर्तव्य का पालन करने वाले अधिकतर लोग किसी ऐसे व्यक्ति की उपस्थिति के बिना लापरवाही से, धीरे-धीरे और सुस्ती से काम करते हैं, जिसमें दायित्व का बोध और उस तरह के कार्य की कुछ योग्यता हो, कोई ऐसा व्यक्ति जो उन्हें प्रेरित-प्रोत्साहित कर सके, पर्यवेक्षण और मार्गदर्शन उपलब्ध करा सके। यह ऐसे मामले में भी होता है, जब कोई आलोचना, अनुशासन, काट-छाँट या निपटान न हो। यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि अगुआ और कार्यकर्ता अपने कार्य की प्रगति की सामयिक समझ और जानकारी रखें, क्योंकि अगुआओं के मार्गदर्शन, प्रेरणा और पूछने-जानने की कार्रवाई के बिना लोग आलसी हो जाते हैं, कार्य की प्रगति की नवीनतम जानकारी रखने वाले अगुआओं के बिना लोगों के धीमे पड़ने, सुस्त होने, असावधान हो जाने की संभावना होती है—अगर काम के प्रति उनकी यही मानसिकता रहती है, तो इस कार्य की प्रगति और साथ ही इसकी प्रभावशीलता गंभीर रूप से प्रभावित होगी। इन परिस्थितियों को देखते हुए, योग्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चुस्ती से काम की हर मद पर नजर रखनी चाहिए और कर्मचारियों और काम से संबंधित स्थिति के बारे में अवगत रहना चाहिए; उन्हें नकली अगुआओं की तरह बिल्कुल नहीं होना चाहिए। नकली अगुआ अपने काम में लापरवाह और उदासीन होते हैं, उनमें जिम्मेदारी का कोई भाव नहीं होता, समस्याएँ आने पर वे उन्हें नहीं सुलझाते, और काम चाहे जो भी हो, वे हमेशा 'सरपट भागते घोड़े की पीठ पर बैठे हुए रास्ते के फूलों की प्रशंसा करते हैं'; वे लापरवाह और जैसे-तैसे काम निपटाने वाले होते हैं; उनकी हर बात आडंबरपूर्ण और खोखली होती है, वे सिद्धांत झाड़ते हैं, और यंत्रवत ढंग से काम करते हैं। आम तौर पर, नकली अगुआओं का काम करने का यही तरीका होता है। अगर मसीह-विरोधियों से उनकी तुलना करें तो, हालाँकि वे खुले तौर पर कुछ भी बुरा नहीं करते और जानबूझकर नुकसानदेह नहीं होते, और उनका कार्य अपनी प्रकृति में बुरा नहीं कहा जा सकता, फिर भी यह कहना उचित है कि प्रभावशीलता के दृष्टिकोण से उसकी प्रकृति लापरवाह और कामचलाऊ है, दायित्व का कोई बोध न होने की है; उनमें अपने काम के प्रति कोई निष्ठा नहीं होती" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे काफी अपराध-बोध हुआ। क्या मेरा व्यवहार किसी झूठे अगुआ जैसा ही नहीं था? मैं आलसी थी, अपने शारीरिक सुख की सोचती थी, इसलिए मैंने काम की खोज-खबर नहीं ली, निगरानी नहीं की, जिसका हमारे काम की पूरी प्रगति और नतीजों पर बहुत गंभीर असर पड़ा। मैं बस कल्पना करती रही कि काम अच्छी तरह चल रहा है और ज़्यादा समस्याएं नहीं हैं, मगर दरअसल, कई समस्याएं अभी भी अनसुलझी थीं। मैंने अपना दायित्व नहीं उठाया और गैर-जिम्मेदार बनी रही, इसलिए मैं सभी समस्याओं से आँखें मूँदे रही। आत्मचिंतन से यह एहसास हुआ कि मेरी सोच गलत थी। जब मैंने भाई-बहनों को अपने-अपने कर्तव्यों में सक्रिय होकर प्रगति करते देखा, तो मैंने सोचा कि सभी लोग अपने कर्तव्यों में काफी प्रेरित हैं, उनकी निगरानी करने की ज़रूरत नहीं है। परमेश्वर के वचन ने बहुत पहले खुलासा कर दिया था कि लोगों में जड़ता है, उनके भ्रष्ट स्वभाव की जड़ें बहुत गहरी हैं। सत्य हासिल करने और अपने स्वभाव में बदलाव लाने से पहले, लोग हमेशा शारीरिक सुख और आराम की लालसा करते हैं, वे अपने कर्तव्य में लापरवाह होते हैं, चालाकी करते हैं, चालें चलते हैं, वे अपने विचारों पर काम करते हैं, सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं करते। मैं भी उनसे अलग नहीं थी। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना, भाई-बहनों की निगरानी और उनके चेताए बिना, मैं आसानी से ढीली पड़ सकती हूँ, मेरे काम में समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इसलिए, मुझे काम की खोज-खबर रखने और निगरानी करने की जरूरत है, हमारे कर्तव्यों की समस्याओं और भटकावों का फौरन पता लगाकर हल करना होगा, ताकि काम सुचारु रूप से चल सके। मगर चीजों को लेकर मेरा नजरिया बेतुका था। मैं लोगों की भ्रष्ट प्रकृति को नहीं समझती थी, लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचन के अनुसार नहीं देखती थी। मैंने बस अपनी कल्पना पर भरोसा किया, काम की जांच नहीं की, खोज-खबर नहीं ली, समय रहते समस्याएं हल नहीं कीं, फिर भी अच्छे नतीजे की चाह रखी। यह व्यावहारिक काम न करने वाले झूठे अगुआ का लक्षण है। हालांकि मैंने जाहिर तौर पर कोई बुराई नहीं की थी, पर मेरी गैर-जिम्मेदारी से काम की प्रभाविता में गिरावट आई, यह घाटा भरा नहीं जा सकता। फिर मैंने अपनी हालत के बारे में भाई-बहनों के सामने खुलकर बात और संगति की। बताया कि कैसे सभी काम को हल्के में लेते थे, और अपने काम में प्रगति नहीं कर पाते थे, हमने साथ मिलकर हल भी खोजे। इसके बाद, मैं अपने कर्तव्य में थोड़ी और गंभीर रहने लगी। काम खत्म करने के बाद, विचार करती कि क्या अब भी सुधार की कोई गुंजाइश है। मैं अक्सर अपने भाई-बहनों के कामकाज की खोज-खबर लेती, फिर हमारे नतीजों में कुछ सुधार दिखने लगा।

जल्दी ही, वीडियो बनाते हुए हमारे सामने एक समस्या आ गई, टीम अगुआ ने मुझसे पूछा कि क्या मेरे पास कोई अच्छी तरकीब या सुझाव है। मुझे कोई जवाब नहीं सूझा, तो मैंने कहा, "अभी तो कोई अच्छा हल नहीं दिख रहा, इस बारे में थोड़ा और सोचते हैं।" इसके बाद, मुझे एहसास हुआ कि इस मुश्किल हालात से सिर्फ कुछ शब्द बोलकर निकला नहीं जा सकता था। मुझे जानकारी जुटाने, थोड़ा शोध करने और अभ्यास का मार्ग ढूँढने की ज़रूरत थी। इसमें काफी समय और प्रयास लगता, मुझे लगातार चीज़ों को आजमाना और नतीजों का आकलन करना होगा। आखिर में कामयाबी मिलेगी या नहीं, कहना मुश्किल था। अगर बात नहीं बनी, तो क्या मेरी सारी मेहनत बेकार नहीं चली जाएगी? इस बारे में जितना सोचा, उतना ही मुझे यह थकाऊ काम लगने लगा। मैंने सोचा, "चलो छोड़ो, जैसे चल रहा है चलने दो। फिलहाल हमारे काम के नतीजे अच्छे हैं, तो इसे हल करने की कोई जल्दी नहीं है।" फिर मैंने समस्या को ताक पर रख दिया। उस वक्त, मुझे थोड़ी बेचैनी हुई। ऐसा नहीं था कि इसे हल करने का कोई तरीका नहीं था। मुझे बस थोड़ी और कीमत चुकानी थी। टीम अगुआ ने मुझे फिर से कहा, "भाई-बहनों को मुश्किलें आ रही हैं; हमें इस समस्या को हल करना होगा।" टीम अगुआ के याद दिलाने पर मैंने विचार किया, "निरीक्षक के तौर पर, क्या तुम्हें मुश्किलों से निबटने और लोगों की समस्याएं हल करने में आगे नहीं रहना चाहिए? मगर मैं मुश्किलों को देखकर उनसे दूर भागने लगी, मुझमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं थी।" मुझे अपराध-बोध हुआ, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, काम में मुश्किलों का सामना होने पर, मैं कड़ी मेहनत नहीं करना चाहती, हमेशा अपने शारीरिक सुख की सोचती हूँ। मैं जानती हूँ यह तुम्हारी इच्छा के अनुरूप नहीं है। मुझे राह दिखाओ ताकि मैं आत्मचिंतन करके अपनी गलत हालत को बदल सकूं।"

अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने सोचा, "मैं कर्तव्य में हमेशा शारीरिक सुख की परवाह क्यों करती हूँ? व्यावहारिक काम करने के लिए कीमत क्यों नहीं चुका पाती?" एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े, तब बात समझ आई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "तो शैतान का जहर क्या है—इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, 'लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?' तो लोग जवाब देंगे, 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।' यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा लोगों का जीवन बन गया है। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे उसे बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन और फ़लसफ़ा है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति, भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर बन गए हैं, और यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है; कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। "मनुष्य की देह साँप के समान है : इसका सार उसके जीवन को हानि पहुँचाना है—और जब पूरी तरह से उसकी मनमानी चलने लगती है, तो तुम जीवन पर से अपना अधिकार खो बैठते हो। देह शैतान से संबंधित है। इसके भीतर असंयमित इच्छाएँ हैं, यह केवल अपने बारे में सोचता है, यह आरामतलब है और फुरसत में रंगरलियाँ मनाता है, सुस्ती और आलस्य में धँसा रहता है, और इसे एक निश्चित बिंदु तक संतुष्ट करने के बाद तुम अंततः इसके द्वारा खा लिए जाओगे। कहने का अर्थ है कि, यदि तुम इसे इस बार संतुष्ट करोगे, तो अगली बार यह और अधिक की माँग करने आ जाएगा। इसकी हमेशा असंयमित इच्छाएँ और नई माँगें रहती हैं, और अपने आपको और अधिक पोषित करवाने और उसके सुख के बीच रहने के लिए तुम्हारे द्वारा अपने को दिए गए बढ़ावे का फायदा उठाता है—और यदि तुम इस पर विजय नहीं पाओगे, तो तुम अंततः स्वयं को बरबाद कर लोगे। तुम परमेश्वर के सामने जीवन प्राप्त कर सकते हो या नहीं, और तुम्हारा परम अंत क्या होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम देह के प्रति अपना विद्रोह कैसे कार्यान्वित करते हो। परमेश्वर ने तुम्हें बचाया है, और तुम्हें चुना और पूर्वनिर्धारित किया है, फिर भी यदि आज तुम उसे संतुष्ट करने के लिए तैयार नहीं हो, तुम सत्य को अभ्यास में लाने के लिए तैयार नहीं हो, तुम अपनी देह के विरुद्ध एक ऐसे हृदय के साथ विद्रोह करने के लिए तैयार नहीं हो, जो सचमुच परमेश्वर से प्रेम करता हो, तो अंततः तुम अपने आप को बरबाद कर लोगे, और इस प्रकार चरम पीड़ा सहोगे। यदि तुम हमेशा अपनी देह को खुश करते हो, तो शैतान तुम्हें धीरे-धीरे निगल लेगा, और तुम्हें जीवन या पवित्रात्मा के स्पर्श से रहित छोड़ देगा, जब तक कि वह दिन नहीं आ जाता, जब तुम भीतर से पूरी तरह अंधकारमय नहीं हो जाते। जब तुम अंधकार में रहोगे, तो तुम्हें शैतान के द्वारा बंदी बना लिया जाएगा, तुम्हारे हृदय में अब परमेश्वर नहीं होगा, और उस समय तुम परमेश्वर के अस्तित्व को नकार दोगे और उसे छोड़ दोगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैंने जाना कि मेरी हालत कितनी खतरनाक थी! मैं इस शैतानी फलसफे के अनुसार जी रही थी, "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।" मैं बेहद स्वार्थी थी, चाहे जो भी हो जाए, मैं हमेशा अपने शारीरिक सुख को आगे रखती थी। जब मेरे काम में ऐसी समस्या आई जिसे हल करना जरूरी था, तो मैंने यह नहीं सोचा कि परमेश्वर के घर का हित कैसे हो। मैंने हमेशा अपने शरीर की परवाह की, हमेशा कम तकलीफ उठाने और कम कीमत चुकाने की सोची। दरअसल, कुछ समस्याओं को तो मैं कीमत चुकाकर, थोड़ा अध्ययन करके और समझकर आसानी से हल कर सकती थी, मगर मैंने अपने शरीर की परवाह की, तकलीफ नहीं उठानी चाही, इसलिए मुझे लगा शोध में बहुत दिमाग खपाना होगा। नतीजतन, समस्या हल नहीं हुई और काम में भी सुधार नहीं हुआ। परमेश्वर के वचन खुलासा करते हैं कि लोगों का शरीर वास्तव में शैतान का है, शरीर की हमेशा कई इच्छाएं और मांगें होती हैं। हम इसे जितना संतुष्ट करते हैं, इसकी इच्छा उतनी ही बढ़ती है, हमारी शारीरिक इच्छाओं और हमारे कर्तव्यों के बीच टकराव होने पर, अगर लोग आराम की लालसा रखते हैं, तो वे शारीरिक इच्छाओं की परवाह करेंगे और परमेश्वर के घर के कार्य को ताक पर रख देंगे। इससे शरीर संतुष्ट होता है, पर परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान होता है, अंत में, इससे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान होता है, वह हमसे नफरत करता और हमें निकाल देता है। शारीरिक सुख में लिप्त होने और आराम की लालसा रखने के परिणाम गंभीर हैं। मैं शारीरिक सुख के सार को नहीं जान पाई, हमेशा आराम की लालसा करती रही। मैंने शारीरिक आनंद को हर चीज से ज्यादा अहम माना। क्या मेरा लक्ष्य और नजरिया अविश्वासियों जैसा ही नहीं था? अविश्वासी अक्सर कहते हैं, "खुद से प्रेम करो," यानी अपने शरीर को तकलीफ मत होने दो, शरीर की सभी इच्छाओं और मांगों को पूरा करो। वे सिर्फ शारीरिक सुख के लिए जीते हैं, मानव जीवन का महत्व और अर्थ नहीं समझते, उनके जीवन मेंसही दिशा और मकसद नहीं होता है। वे अपने दिलों में सुकून महसूस नहीं करते, वे अपनी जिंदगी खालीपन में गुजारते हैं, उनका जीना पूरी तरह से व्यर्थ होता है। कलीसिया में कुछ लोग हमेशा शारीरिक सुख की लालसा करते हैं, वे सत्य की खोज नहीं करते, अपने कर्तव्यों की अनदेखी करते हैं, चालें चलते हैं, ढीले पड़ जाते हैं, जिससे परमेश्वर के घर के काम को गंभीर नुकसान पहुँचता है, अंत में, उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है, या कर्तव्य निभाने के अयोग्य ठहरा दिया जाता है, वे उद्धार का अपना मौका पूरी तरह गँवा देते हैं। इस बारे में सोचना भी खौफनाक है! फिर मैंने खुद के बारे में सोचा। मैंने बरसों परमेश्वर में विश्वास किया, पर मेरे विचार बिल्कुल नहीं बदले। मैंने अपने शारीरिक हितों को सत्य से अधिक अहम माना। मैंने सिर्फ आराम की लालसा की, कर्तव्य निभाने के लिए जैसे-तैसे काम किया। अगर यही चलता रहा, तो क्या परमेश्वर मुझे भी ठुकराकर निकाल नहीं देगा? इसका एहसास होते ही, मुझे बहुत डर लगने लगा। अब मैं शारीरिक सुख की परवाह नहीं कर सकती। मैं ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाना और अपनी जिम्मेदारियां पूरी करना चाहती थी।

एक दिन, परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "यदि तुम सच में परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय कुछ कीमत चुकानी चाहिए और कड़ी मेहनत करनी चाहिए। कड़ी मेहनत करने का क्या मतलब है? यदि तुम केवल कुछ सांकेतिक प्रयास करने और थोड़ी शारीरिक कठिनाई झेलने से संतुष्ट हो, लेकिन अपने कर्तव्य को बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते या सत्य के सिद्धांतों की खोज नहीं करते, तो यह लापरवाही और बेमन से काम करना है—इसे वास्तव में प्रयास करना नहीं कहते। प्रयास करने का अर्थ है उसे पूरे मन से करना, अपने हृदय में परमेश्वर का भय मानना, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील रहना, परमेश्वर की अवज्ञा करने और उसे आहत करने से डरना, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए किसी भी कठिनाई को सहना : यदि तुम्हारे पास ऐसा हृदय है जो इस तरह से परमेश्वर से प्रेम करते है, तो तुम अच्छे से अपना कर्तव्य निभा पाओगे। यदि तुम्हारे मन में परमेश्वर का भय नहीं है, तो अपने कर्तव्य का पालन करते समय, तुम्हारे मन में दायित्व वहन करने का भाव नहीं होगा, उसमें तुम्हारी कोई रुचि नहीं होगी, अनिवार्यत: तुम लापरवाह और अनमने रहोगे, तुम चलताऊ काम करोगे और उससे कोई प्रभाव पैदा नहीं होगा—जो कि कर्तव्य का निर्वहन करना नहीं है। यदि तुम सच में दायित्व वहन करने की भावना रखते हो, कर्तव्य निर्वहन को निजी दायित्व समझते हो, और तुम्हें लगता है कि यदि तुम ऐसा नहीं समझते, तो तुम जीने योग्य नहीं हो, तुम पशु हो, अपना कर्तव्य ठीक से निभाकर ही तुम मनुष्य कहलाने योग्य हो और अपनी अंतरात्मा का सामना कर सकते हो—यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय दायित्व की ऐसी भावना रखते हो—तो तुम हर कार्य को निष्ठापूर्वक करने में सक्षम होगे, सत्य खोजकर सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाओगे और इस तरह अच्छे से अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे, परमेश्वर द्वारा सौंपे गए मिशन, परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो त्याग किए हैं और उसे तुमसे जो अपेक्षाएँ हैं, उन सबके योग्य बनोगे। इसी को वास्तव में कठिन प्रयास करना कहते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने कर्तव्य को अच्छी तरह निभाने के लिए कम से कम, एक जमीर का होना आवश्यक है')। "जब तुम ख़ुद को स्वार्थी और अधम होने के रूप में प्रकट करते हो, और इस बारे में जान जाते हो, तो तुम्हें सत्य की तलाश करनी चाहिए : तुम्हें खोजना चाहिए कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य कैसे करें, क्या करें कि कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश के लिए लाभदायक हों। तुम्हें अपने हितों को भूलने से शुरुआत करनी चाहिए, अपने कद के अनुसार धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा करके उनका त्याग करना चाहिए। कुछ बार इसका अनुभव करने के बाद, तुम पूरी तरह अपने हितों को भूल चुके होगे, और यह करने के बाद, तुम स्थिर महसूस करोगे, और तुम्हें लगेगा कि इंसान के रूप में तुममें विवेक और तर्क होना चाहिए, तुम्हें स्वार्थी नहीं होना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए—और परिणामस्वरूप तुम स्पष्ट, ईमानदार व्यक्ति बन जाओगे। केवल परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए काम करना उचित है, और जीवन को मायने देता है। इस तरह से पृथ्वी पर जीने के द्वारा, तुम एक स्पष्ट और ईमानदार व्यक्ति बनकर जी रहे हो, तुम एक सच्चे व्यक्ति की तरह बर्ताव कर रहे हो, तुम्हारी अंतरात्मा साफ़ है, और तुम उन सभी चीज़ों के योग्य हो जो परमेश्वर ने तुम पर न्योछावर की हैं। तुम जितना इस तरह जीवन व्यतीत करोगे, उतना ही स्थिर और उजला महसूस करोगे। इस तरह, क्या तुमने सही रास्ते पर चलना नहीं शुरू कर दिया होगा?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। मैं समझ गई कि अच्छे से कर्तव्य निभाने के लिए, मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कड़ी मेहनत करनी होगी। बाहर से कड़ी मेहनत करना और कीमत चुकाना काफी नहीं। सबसे अधिक मायने रखता है अपने दिल में इस बोझ को उठाना, परमेश्वर के घर के काम को सबसे ऊपर रखना, भरसक कोशिश करना, और जो मुझे हासिल करना चाहिए उसे हासिल करना। सिर्फ इसी तरीके से, मैं उस अथक मेहनत को सार्थक कर पाऊंगी जो परमेश्वर मुझ पर कर रहा है, सचमुच एक इंसान जैसी जिंदगी जी पाऊंगी। मुझे एहसास हुआ कि वीडियो के काम की प्रभारी बनाकर परमेश्वर ने मुझे ऊंचा उठाया था। सुसमाचार का लक्ष्य बनने वाले कई लोग परमेश्वर के घर के वीडियो देखकर सच्चे मार्ग की जांच-पड़ताल करते हैं। अच्छे वीडियो के जरिये परमेश्वर की गवाही देना सुसमाचार फैलाने के काम का बहुत अहम हिस्सा है! मुझे परमेश्वर पर भरोसा कर अच्छे से कर्तव्य निभाने का जतन करना चाहिए। भले ही मेरे काम में कई तरह की मुश्किलें और समस्याएं आईं, पर इन मुश्किलों से गुजरकर ही, मैं आराम की लालसा करने और प्रगति की परवाह न करने की अपनी पतित दशा को जान पाई। मुझे अनुसरण पर अपनी गलत सोच का एहसास हुआ, जिससे मैं प्रायश्चित करके खुद को बदल पाई। यह मेरे लिए सत्य हासिल करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने का मौका था। साथ ही, मुझे उनसे अपनी पेशेवर कमियों का भी पता चला। अपने कर्तव्य में प्रगति करने के लिए हमें अपने पेशेवर कौशल को सुधारना होता है। परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद, मुझे नई प्रेरणा मिली। फिर, मैंने हमारी समस्याओं और मुश्किलों को लेकर परमेश्वर से प्रार्थना की, उसका मार्गदर्शन माँगा, और अपने भाई-बहनों के साथ समाधानों पर चर्चा की। अपने दिल की गहराइयों से, अब मैं आलसी या लापरवाह होना नहीं चाहती थी, मैंने पेशेवर कौशल सीखने के लिए भी कड़ी मेहनत की। जब मैं कहीं उलझ जाती और हार मानने की सोचती, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करके शारीरिक सुख को त्याग देती, खुद को अपने कर्तव्य में समर्पित कर देती। कुछ समय बाद, मुझे आखिर एक रास्ता दिखा, और समस्या जल्दी ही सुलझ गई, पहले के मुकाबले हमारे नतीजों में थोड़ा सुधार हुआ। इस तरह काम करके मैं निश्चिंत थी। दरअसल, समस्याएं हल करना और व्यावहारिक काम करना उतना मुश्किल नहीं है, मुझे ज्यादा तकलीफ भी नहीं उठनी पड़ी। परमेश्वर का मार्गदर्शन और आशीष पाने के लिए, मुझे बस थोड़ा और कर्तव्यनिष्ठ होना था। मेरा प्रवेश अभी भी बहुत सीमित है, इसलिए मैं आगे से, अपने कर्तव्य में अपने भ्रष्ट स्वभाव को सुधारने पर पूरा ध्यान दूंगी, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, दिल से अपना कर्तव्य निभाउंगी!

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