भ्रम से निकलना

18 सितम्बर, 2019

झेंग्ज़ी झेंगझोउ शहर, हेनान प्रांत

दस साल पहले, अपनी अहंकारी प्रकृति के कारण, मैं कभी भी कलीसिया की व्यवस्थाओं का पूरी तरह से पालन करने में सक्षम नहीं थी। अगर मुझे उपयुक्त लगा तो मैं उसका पालन करती थी, लेकिन अगर मुझे नहीं लगा तो मैं चुना करती थी कि उसका पालन करना है या नहीं। इसके परिणामस्वरूप अपने कर्तव्य को पूरा करने के दौरान कार्य की व्यवस्थाओं का गंभीरता से उल्लंघन होता था। मैं अपने खुद के काम करती थी और परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करती थी, और बाद में मुझे घर भेज दिया गया था। अनेक वर्षों तक आत्म-चिंतन के बाद, मुझे खुद की प्रकृति का कमोबेश कुछ ज्ञान मिल गया था, लेकिन सत्य के उस पहलू के संदर्भ में जो कि परमेश्वर का सार है, मुझे अभी भी ज्यादा ज्ञान नहीं था। बाद में, कलीसिया ने मेरे सुसमाचार के कार्य की प्रभारी होने की व्यवस्था की, तो मुझे परमेश्वर के बारे में संदेह होना शुरू हो गया: मैं बहुत भ्रष्ट हूँ और मैंने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान भी किया था। तो परमेश्वर क्यों मेरा उपयोग करेगा? क्या वह मेरा फायदा उठा रहा है? क्या मेरा फायदा उठाने के बाद मुझे हटा दिया जाएगा? आह! चूँकि कलीसिया ने मुझे एक अवसर दिया था, इसलिए मैं इस पर ध्यान देने जा रही हूँ, भले मुझे एक सेवा-करने-वाली बनना पड़े। उसके बाद से, मैं ऐसी मानसिकता रखते हुए, लेकिन उच्च लक्ष्य—परमेश्वर द्वारा सिद्ध बनाया जाना—को खोजे बिना अपने कर्तव्य को पूरा करती थी।

एक बार, जब मैं आध्यात्मिक प्रार्थना का अभ्यास कर रही थी, तो मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े: "आज, तुम केवल इस बात से संतुष्ट नहीं हो सकते कि तुम पर किस प्रकार विजय पाई जाती है, बल्कि तुम्हें उस पथ पर भी विचार करना होगा जिस पर तुम भविष्य में चलोगे। तुम पूर्ण बनाए जा सको, इसके लिए तुम्हारे अंदर आकांक्षाएँ और साहस होना चाहिए, और तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचते रहना चाहिए कि तुम असमर्थ हो। क्या सत्य के भी अपने चहेते होते हैं? क्या सत्य जानबूझकर लोगों का विरोध कर सकता है? यदि तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो क्या यह तुम पर हावी हो सकता है? यदि तुम न्याय के लिए मजबूती से खड़े रहते हो, तो क्या यह तुम्हें चित कर देगा? यदि जीवन की तलाश सच में तुम्हारी आकांक्षा है, तो क्या जीवन तुम्हें चकमा दे सकता है? यदि तुम्हारे अंदर सत्य नहीं है, तो इसका कारण यह नहीं है कि सत्य तुम्हें नजरअंदाज करता है, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम सत्य से दूर रहते हो; यदि तुम न्याय के लिए मजबूती से खड़े नहीं हो सकते हो, तो इसका कारण यह नहीं है कि न्याय के साथ कुछ गड़बड़ है, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम यह मानते हो कि यह तथ्यों के साथ मेल नहीं खाता; कई सालों तक जीवन की तलाश करने पर भी यदि तुमने जीवन प्राप्त नहीं किया है, तो इसका कारण यह नहीं है कि जीवन की तुम्हारे प्रति कोई चेतना नहीं है, बल्कि इसका कारण यह है कि तुम्हारे अंदर जीवन के प्रति कोई चेतना नहीं है, और तुमने जीवन को स्वयं से दूर कर दिया है; यदि तुम प्रकाश में जीते हो, लेकिन प्रकाश को पाने में असमर्थ रहे हो, तो इसका कारण यह नहीं है कि प्रकाश तुम्हें प्रकाशित करने में असमर्थ है, बल्कि यह है कि तुमने प्रकाश के अस्तित्व पर कोई ध्यान नहीं दिया है, और इसलिए प्रकाश तुम्हारे पास से खामोशी से चला गया है। यदि तुम अनुसरण नहीं करते हो, तो यही कहा जा सकता है कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो किसी काम का नहीं है, तुम्हारे जीवन में बिलकुल भी साहस नहीं है, और तुम्हारे अंदर अंधकार की ताकतों का विरोध करने का हौसला नहीं है। तुम बहुत कमजोर हो! तुम उन शैतानी ताकतों से बचने में असमर्थ हो जिन्होंने तुम्हारी घेराबंदी कर रखी है, तुम ऐसा ही सकुशल और सुरक्षित जीवन जीना और अपनी अज्ञानता में मर जाना चाहते हो। जो तुम्हें हासिल करना चाहिए वह है जीत लिए जाने का तुम्हारा प्रयास; यह तुम्हारा परम कर्तव्य है। यदि तुम स्वयं पर विजय पाए जाने से संतुष्ट हो जाते हो तो तुम प्रकाश के अस्तित्व को दूर हटाते हो" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान')परमेश्वर के वचन के इस अंश को खाने और पीने के बाद, मैं भीतर से काफी द्रवित हो गई थी। मैं देखती थी कि परमेश्वर का प्रयोजन सभी लोगों को परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने के लिए सिद्ध और उपयुक्त होने की कोशिश करने देना है। इसके बाद मैंने अपना मन बना लिया: मैं अपनी खुद की शंकाओं को हटाने जा रही हूँ तथा मैं अब और नकारात्मक एवं निष्क्रिय नहीं रहूँगी। मैं परमेश्वर के वचनों में विश्वास करूँगी और परमेश्वर द्वारा सिद्ध बनाए जाने का प्रयास करूँगी। लेकिन धीरे—धीरे, क्योंकि मैं अभी भी परमेश्वर की निष्ठा का सार नहीं जानती थी, इसलिए मैंने पुन: परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं करना शुरू कर दिया, हमेशा यह सोचती रहती थी कि ये वचन किसी और पर लक्षित हैं, और मुझ जैसे किसी को मात्र थोड़ा सा चैन और प्रोत्साहन दे सकते हैं। मैं याद करती रहती कि कैसे एक बार मैंने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया था, कि मेरी प्रकृति बहुत भ्रष्ट है, कि अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए मैं कभी-कभी अपने भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट कर देती थी, कि मैं चाहे कितना भी अनुसरण क्यों न कर लूँ लेकिन मुझे कभी भी सिद्ध नहीं बनाया जा सकता है, और यह सोचती रहती थी कि मुझे बस एक सेवा-करने-वाली बनकर ही संतुष्ट रहना चाहिए। इसी तरह से, मैंने फिर से अनजाने में निष्क्रियता में जीना शुरू कर दिया था। फिर एक दिन, जब मैं परमेश्वर के वचन खा और पी रही थी, तब मैंने परमेश्वर के निम्नलिखत वचनों को पढ़ा: "परमेश्वर का सार विश्वसनीय है; जो वह कहता है उसे करता है और जो कुछ भी वह करता है वह पूरा होता है" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'देहधारण के अर्थ का दूसरा पहलू')। इस पल, ऐसा लगा कि मेरे भीतर अचानक ही किसी चीज़ ने खटखटाया, मानो कि मेरे दिल में फैली हुई धुंध तत्काल छितरा गई थी। सालों की गलतफ़हमियाँ और शंकाएँ अचानक गायब हो गईं। फिर मैंने परमेश्वर के वचन के उस अंश को पुन: याद किया, जो मैं खाया और पीया करती थी: "यदि जीवन की तलाश सच में तुम्हारी आकांक्षा है, तो क्या जीवन तुम्हें चकमा दे सकता है? यदि तुम्हारे अंदर सत्य नहीं है, तो इसका कारण यह नहीं है कि सत्य तुम्हें नजरअंदाज करता है, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम सत्य से दूर रहते हो; यदि तुम न्याय के लिए मजबूती से खड़े नहीं हो सकते हो, तो इसका कारण यह नहीं है कि न्याय के साथ कुछ गड़बड़ है, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम यह मानते हो कि यह तथ्यों के साथ मेल नहीं खाता; कई सालों तक जीवन की तलाश करने पर भी यदि तुमने जीवन प्राप्त नहीं किया है, तो इसका कारण यह नहीं है कि जीवन की तुम्हारे प्रति कोई चेतना नहीं है, बल्कि इसका कारण यह है कि तुम्हारे अंदर जीवन के प्रति कोई चेतना नहीं है, और तुमने जीवन को स्वयं से दूर कर दिया है...।" इस पल में, मैंने परमेश्वर के वचनों में छिपी हुई विस्मयकारी धार्मिकता और असीमित प्रेम का संचरण महसूस किया, मैंने देखा कि परमेश्वर इतना कुलीन और महान है, जबकि साथ ही मैंने अपनी स्वयं की नीचता, संकीर्णता और अवनति को भी देखा। परमेश्वर निष्ठावान है। यह निस्संदेह और निर्विवाद है। परमेश्वर में एक निष्ठावान सार है, वह विश्वासयोग्य है, और वह अधिकतम संभव सीमा तक मनुष्य को बचाने की कोशिश कर रहा है। जब तक मनुष्य परमेश्वर की अपेक्षानुसार सत्य की और स्वभाव में बदलाव की खोज करता रहेगा, तब तक परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण बनाता रहेगा, क्योंकि परमेश्वर जो कहेगा, वह करेगा, और वह जो करेगा वह पूरा होगा! बल्कि, मैं संदेह करती थी कि परमेश्वर मनुष्य की तरह है और जब मेरा उपयोग खत्म हो जाएगा तो वह मेरा त्याग कर देगा। मैं परमेश्वर के वचनों के साथ सत्य के रूप में बिल्कुल भी व्यवहार नहीं करती थी, और इसके अलावा परमेश्वर में सचमुच और सकारात्मक रूप से विश्वास नहीं करती थी। इसके बजाय, मैं सत्य के समक्ष साहस के अभाव के साथ और कायरता से अंधकार के प्रभावों के आगे झुककर, न्याय के लिए खड़े होने में असमर्थ अपने मन में कल्पनाओं और संदेहों में जीया करती थी। उस समय मैं सचमुच महसूस करती थी कि परमेश्वर के सार के ज्ञान का अनुसरण करना बहुत महत्वपूर्ण है। अगर मैंने पूर्व में पहले से ही परमेश्वर के स्वभाव और सार के ज्ञान का अनुसरण करने पर ध्यान दिया होता, तो मैंने शंका में जीते हुए, इतने सारे साल बर्बाद न किए होते, जिससे मेरे स्वयं के जीवन की प्रगति में देरी हो गई।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर, तेरा धन्यवाद! यह तू ही है जिसने मेरी परवाह की और मुझे उन बेड़ियों से छुटकारा पाने के लिए प्रबुद्ध और निर्देशित किया जिन्होंने मुझे इतने सालों से नियंत्रित कर रखा था, जिसने मुझे धुंध से बाहर निकलने दिया। अतीत में, मैं तुझे नहीं जानती थी और अक्सर ग़लतफ़हमी में जीती थी, तेरे वचन पर भरोसा करने में असमर्थ थी और इसे महज लोगों को चैन देने और प्रोत्साहित करने वाली बातों के रूप में मानती थी। मैं तेरे वचन को सत्य और जीवन के रूप में नहीं मानती थी, और इसके अलावा तुझे परमेश्वर के रूप में नहीं मानती थी। परन्तु तूने मुझे बर्दाश्त किया और तू मेरे प्रति धैर्यवान रहा। तुने मुझे प्रबुद्ध किया और मुझ पर अपना प्रकाश चमकाया, ताकि मैं तेरी निष्ठा और धार्मिक सार का थोड़ा सा ज्ञान पा सकूँ। यह निश्चित रूप से मनुष्य के लिए तेरे प्यार का उदाहरण है। हे परमेश्वर! अब से मैं परमेश्वर को जानने के बारे में सत्य में बहुत प्रयास करूँगी, तू मुझसे जो अपेक्षा करता है उसके अनुसार जीऊँगी, तेरे सार के ज्ञान का अनुसरण करूँगी, और शीघ्र ही स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश करूँगी ताकि मैं तेरे द्वारा सिद्ध बनाई जा सकूँ!

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