परमेश्वर की गवाही देना सच में कर्तव्य निभाना है

10 जून, 2022

जूडी, दक्षिण कोरिया

हाल ही में, मैंने नए सदस्यों की अनुभवजन्य गवाही वाले कुछ वीडियो देखे, जो मेरे दिल को छू गए। दो-तीन साल विश्वास करके भी वे अपनी अनुभवजन्य गवाहियां साझा कर रहे थे। मुझे बड़ी शर्मिंदगी हुई, सोचने लगी कि इतने साल विश्वासी रहकर भी मैं परमेश्वर की गवाही क्यों नहीं दे पाई। एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जो कुछ तुम लोगों ने अनुभव किया और देखा है, वह हर युग के संतों और पैगंबरों के अनुभवों से बढ़कर है, लेकिन क्या तुम लोग अतीत के इन संतों और पैगंबरों के वचनों से बड़ी गवाही देने में सक्षम हो? अब जो कुछ मैं तुम लोगों को देता हूँ, वह मूसा से बढ़कर और दाऊद से बड़ा है, अतः उसी प्रकार मैं कहता हूँ कि तुम्हारी गवाही मूसा से बढ़कर और तुम्हारे वचन दाऊद के वचनों से बड़े हों। मैं तुम लोगों को सौ गुना देता हूँ—अतः उसी प्रकार मैं तुम लोगों से कहता हूँ मुझे उतना ही वापस करो। तुम लोगों को पता होना चाहिए कि वह मैं ही हूँ, जो मनुष्य को जीवन देता है, और तुम्हीं लोग हो, जो मुझसे जीवन प्राप्त करते हो और तुम्हें मेरी गवाही अवश्य देनी चाहिए। यह तुम लोगों का वह कर्तव्य है, जिसे मैं नीचे तुम लोगों के लिए भेजता हूँ और जिसे तुम लोगों को मेरे लिए अवश्य निभाना चाहिए। मैंने अपनी सारी महिमा तुम लोगों को दे दी है, मैंने तुम लोगों को वह जीवन दिया है, जो चुने हुए लोगों, इजरायलियों को भी कभी नहीं मिला। उचित तो यही है कि तुम लोग मेरे लिए गवाही दो, अपनी युवावस्था मुझे समर्पित कर दो और अपना जीवन मुझ पर कुर्बान कर दो। जिस किसी को मैं अपनी महिमा दूँगा, वह मेरा गवाह बनेगा और मेरे लिए अपना जीवन देगा। इसे मैंने पहले से नियत किया हुआ है। यह तुम लोगों का सौभाग्य है कि मैं अपनी महिमा तुम्हें देता हूँ, और तुम लोगों का कर्तव्य है कि तुम लोग मेरी महिमा की गवाही दो। अगर तुम लोग केवल आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हो, तो मेरे कार्य का ज़्यादा महत्व नहीं रह जाएगा, और तुम लोग अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे होगे। ... तुम लोगों ने केवल मेरे सत्य, मेरे मार्ग और मेरे जीवन को ही प्राप्त नहीं किया है, अपितु मेरी उस दृष्टि और प्रकटीकरण को भी प्राप्त किया है, जो यूहन्ना को प्राप्त दृष्टि और प्रकटीकरण से भी बड़ा है। तुम लोग कई और रहस्य समझते हो, और तुमने मेरा सच्चा चेहरा भी देख लिया है; तुम लोगों ने मेरे न्याय को अधिक स्वीकार किया है और मेरे धर्मी स्वभाव को अधिक जाना है। और इसलिए, यद्यपि तुम लोग इन अंत के दिनों में जन्मे हो, फिर भी तुम लोग पूर्व की और पिछली बातों की भी समझ रखते हो, और तुम लोगों ने आज की चीजों का भी अनुभव किया है, और यह सब मेरे द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया गया था। जो मैं तुम लोगों से माँगता हूँ, वह बहुत ज्यादा नहीं है, क्योंकि मैंने तुम लोगों को इतना ज़्यादा दिया है और तुम लोगों ने मुझमें बहुत-कुछ देखा है। इसलिए, मैं तुम लोगों से कहता हूँ कि सभी युगों के संतों के लिए मेरी गवाही दो, और यह मेरे हृदय की एकमात्र इच्छा है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं बहुत जोश में थी, पर थोड़ा अपराध-बोध भी हुआ। मैं जोश में थी क्योंकि मुझे परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने, उसके वचनों की आपूर्ति पाने का मौका मिला, अपराध-बोध इसलिए कि सालों तक परमेश्वर में विश्वास करके, उसके अनुग्रह का आनंद लेकर, मैंने उसकी कोई गवाही नहीं दी। मैंने सोचा कि कैसे अंत के दिनों में परमेश्वर ने हमें मुक्त रूप से ढेर-सारा सत्य दिया है, वह हमारी भ्रष्टता का खुलासा करते हुए हमारा न्याय करता है, हमें याद दिलाता है, समझाता है, हौसला बढ़ाता है और राहत देता है, पर हम सत्य का अनुसरण नहीं करते, समझने की क्षमता भी कमजोर है, इसलिए परमेश्वर सत्य के सभी पहलुओं पर विस्तार से संगति करता है, हमें मिसाल और उपमाएं देता है, हमें व्यावहारिक रूप से समझाता है, ताकि हम इसे अच्छे से समझ सकें। परमेश्वर ने हम पर काफी मेहनत की है और बड़ी कीमत चुकाई है, वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि वह चाहता है हम उसे जानें, सत्य समझें, अपने भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा पाएं और सच्चे मन से पश्चात्ताप कर खुद को बदलें। परमेश्वर हमसे यही गवाही चाहता है। उसका कार्य शुरू हुए 30 साल बीत चुके हैं। उसने बहुत-सारा कार्य किया है, बहुत-सारा सत्य व्यक्त किया है, वह हमारी गवाही देखना चाहता है। यह सतही हो, तो भी वह इसे वास्तविक मानकर स्वीकार करता है। परमेश्वर को उम्मीद है कि हम उसके कार्य के अनुभव से जुड़े अपने फायदों और ज्ञान को बाँटेंगे और गवाही के लेख लिखेंगे, क्योंकि यही परमेश्वर के कार्य का फल और उसके प्रयास का मूर्तरूप है। फिर मैंने खुद के बारे में सोचा। हालांकि परमेश्वर ने मुझे बहुत कुछ दिया था, मगर मैंने कभी नहीं सोचा कि मैं सत्य के किन पहलुओं को समझती हूँ और किस सत्य वास्तविकता में मैंने प्रवेश किया है, क्योंकि मैं परमेश्वर के ज़्यादातर वचन सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर समझती थी, कभी उन पर गंभीरता से विचार, अभ्यास या उनका अनुभव नहीं किया था। इसलिए, जब परमेश्वर की गवाही देने वाले लेख लिखने की बात आई, तो मुझे डर लगा और संकोच हुआ, मैंने इस संबंध में कोई प्रयास नहीं किया। यह सोचकर कि सालों तक विश्वास रखने पर भी मैं अपने अनुभव नहीं लिख पाई, मेरे पास कोई गवाही भी नहीं थी, मैं बहुत निराश हो गई।

एक बार एक बहन ने पूछा कि क्या मैं अनुभव की गवाहियां लिखना चाहूंगी। उस समय तो मैंने सहमति जताई, मगर बस थोड़ा-सा लिखती और फिर उसे किनारे रख देती। भले ही, मेरे पास काम की ज़्यादा जिम्मेदारी नहीं थी, मुझे हमेशा यही लगता था कि मैं व्यस्त थी और मेरे पास लिखने का समय नहीं था। फिर, दिन बीतते गए और मैं लेख लिखने की बात टालती रही। बाद में, मैंने लिखने की समय-सारणी बनाई, मगर समय आने पर, मैं अभी भी अपने कर्तव्य से जुड़ी दूसरी चीज़ों में व्यस्त रहती, लिखने के लिए मन को शांत नहीं कर पाती थी। मैंने बहुत-से कारण और बहाने ढूंढे। कभी-कभी कहती मेरी शिक्षा अच्छी नहीं है, मुझमें काबिलियत की कमी है, मैं अच्छे से नहीं लिख सकती। कभी कहती मैं बहुत व्यस्त हूँ, मेरे पास वक्त नहीं है, ये काम बाद में कर लूंगी। कभी-कभी मुझे यह भी लगता कि लेख लिखना कोई खास महत्वपूर्ण काम नहीं है, अपने रोजाना के काम को निपटाना सबसे अधिक अहम है, क्योंकि इसमें देरी हो गई, तो मेरी काट-छाँट की जाएगी, गंभीर मामले में बर्खास्त भी हो सकती हूँ। अनुभव की गवाहियां न लिखूँ तो किसी को फर्क नहीं पड़ेगा। ये सब सोचकर, मैंने लेख लिखने के काम को और भी कम गंभीरता से लिया, इसे अपने कर्तव्य का अहम हिस्सा नहीं माना। इस तरह, मैं इस अड़ियल और विद्रोही हालत में फंस जाती, और अनुभव की गवाहियां लिखने के मामले में बहुत निष्क्रिय रहती।

एक दिन, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, जिससे मेरी सोच थोड़ी बदल गई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अब क्या तुम सच में जानते हो कि तुम मुझ पर क्यों विश्वास करते हो? क्या तुम सच में मेरे कार्य के उद्देश्य और महत्व को जानते हो? क्या तुम सच में अपने कर्तव्य को जानते हो? क्या तुम सच में मेरी गवाही को जानते हो? अगर तुम मुझमें मात्र विश्वास करते हो, और तुममें मेरी महिमा या गवाही नहीं पाई जाती, तो मैंने तुम्हें बहुत पहले ही बाहर निकाल दिया है। जहाँ तक सब-कुछ जानने वालों का सवाल है, वे मेरी आँख के और भी ज्यादा काँटे हैं, और मेरे घर में वे मेरे रास्ते की अड़चनों से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मेरे कार्य से पूरी तरह निकाले जाने वाले खरपतवार हैं, वे किसी काम के नहीं हैं, वे बेकार हैं; मैंने लंबे समय से उनसे घृणा की है। अकसर मेरा प्रकोप उन पर टूटता है, जिनके पास गवाही नहीं है, और मेरी लाठी कभी उन पर से नहीं हटती। मैंने बहुत पहले ही उन्हें दुष्ट के हाथों में दे दिया है; वे मेरे आशीषों से वंचित हैं। जब दिन आएगा, उनका दंड मूर्ख स्त्रियों के दंड से भी कहीं ज़्यादा पीड़ादायक होगा। आज मैं केवल वही काम करता हूँ, जो मेरा कर्तव्य है; मैं सारे गेहूँ को उस मोठ घास के साथ गठरियों में बाँधूँगा। आज मेरा यही कार्य है। पछोरने के समय वह सारी मोठ घास मेरे द्वारा पछोर दी जाएगी, और फिर गेहूँ के दानों को भंडार-गृह में इकट्ठा किया जाएगा, और पछोरी गई उस मोठ घास को जलाकर राख कर देने के लिए आग में डाल दिया जाएगा। अब मेरा कार्य मात्र सभी मनुष्यों को एक गठरी में बाँधना है, अर्थात् उन सभी को पूरी तरह से जीतना है। तब सभी मनुष्यों के अंत को प्रकट करने के लिए मैं पछोरना शुरू करूँगा। अतः तुम्हें जानना ही होगा कि अब तुम मुझे कैसे संतुष्ट कर सकते हो और तुम्हें किस तरह मेरे प्रति विश्वास में सही पथ पर आना चाहिए। अब मैं तुम्हारी निष्ठा और समर्पण, तुम्हारा प्रेम और गवाही चाहता हूँ। यहाँ तक कि अगर तुम इस समय नहीं जानते कि गवाही क्या होती है या प्रेम क्या होता है, तो तुम्हें अपना सब-कुछ मेरे पास ले आना चाहिए और जो एकमात्र खजाना तुम्हारे पास है : तुम्हारी निष्ठा और समर्पण, उसे मुझे सौंप देना चाहिए। तुम्हें जानना चाहिए कि मेरे द्वारा शैतान को हराए जाने की गवाही मनुष्य की निष्ठा और समर्पण में निहित है, साथ ही मनुष्य के ऊपर मेरी संपूर्ण विजय की गवाही भी। मुझ पर तुम्हारे विश्वास का कर्तव्य है मेरी गवाही देना, मेरे प्रति वफादार होना, और किसी और के प्रति नहीं, और अंत तक समर्पित बने रहना(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। इस अंश में साफ तौर पर कहा गया है कि परमेश्वर के विश्वासियों को उसकी गवाही देनी चाहिए, यह इंसान का कर्तव्य है। जब उसके विश्वासी गवाही नहीं दे सकते, तो वे उसकी नफरत के पात्र बन जाते हैं। परमेश्वर के वचन की इन पंक्तियों को पढ़कर मैंने परमेश्वर का क्रोध महसूस किया, “अगर तुम मुझमें मात्र विश्वास करते हो, और तुममें मेरी महिमा या गवाही नहीं पाई जाती, तो मैंने तुम्हें बहुत पहले ही बाहर निकाल दिया है। जहाँ तक सब-कुछ जानने वालों का सवाल है, वे मेरी आँख के और भी ज्यादा काँटे हैं, और मेरे घर में वे मेरे रास्ते की अड़चनों से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मेरे कार्य से पूरी तरह निकाले जाने वाले खरपतवार हैं,” और “अकसर मेरा प्रकोप उन पर टूटता है, जिनके पास गवाही नहीं है, और मेरी लाठी कभी उन पर से नहीं हटती। मैंने बहुत पहले ही उन्हें दुष्ट के हाथों में दे दिया है; वे मेरे आशीषों से वंचित हैं। जब दिन आएगा, उनका दंड मूर्ख स्त्रियों के दंड से भी कहीं ज़्यादा पीड़ादायक होगा।” इतने बरसों तक परमेश्वर में विश्वास करने, परमेश्वर के इतने सारे वचन पढ़ने, अनगिनत उपदेश और संगति सुनने, काट-छाँट, रुकावटों और नाकामियों का अनुभव करने, पवित्र आत्मा के प्रबोधन, मार्गदर्शन और अनुशासन का अनुभव करने के बाद भी, मैं परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकती। मेरे पास थोड़ा अनुभव और ज्ञान था, मगर मैं लिखने पर मेहनत नहीं करना चाहती थी। मैं पूरा दिन बाहरी चीज़ों को संभालती थी, अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने के लिए सत्य नहीं खोजती थी, सत्य में प्रगति करने की कोशिश नहीं की। मैंने थोड़ा ज्ञान और प्रकाश हासिल किया, मगर मैंने कभी विचार कर स्पष्टता हासिल नहीं की, ताकि वास्तविक समझ पा सकूँ, समय के साथ, जो हासिल किया था वो भी गँवा दिया और पवित्र आत्मा का प्रबोधन भी दब गया। फिर मैंने उस वक्त के बारे में सोचा जब मैं नए सदस्यों का सिंचन करती थी। मैं परमेश्वर के कार्य की गवाही देने के सत्य पर भी संगति नहीं कर पाती थी। मैं बहुत सतही चीज़ें साझा करती थी, मुख्य चीज़ें नहीं समझती थी। फिर, सुसमाचार का प्रचार करते हुए भी, धार्मिक धारणाओं या मसीह-विरोधियों की भ्रांतियों का स्पष्ट रूप से विश्लेषण करने के लिए मुख्य बिंदुओं को समझ नहीं पाती थी। सत्य के हर पहलू में, मेरी समझ आधी-अधूरी होती थी, मैं साफ तौर पर संगति नहीं कर पाती थी। सभाओं में जीवन प्रवेश की समस्याओं पर संगति के दौरान, ज़्यादातर वक्त पुराने सतही मुहावरों से लोगों को फुसलाती थी या कुछ खोखले सिद्धांतों और उथली समझ की बातें करती थी। मैं समस्याओं को जड़ से खत्म नहीं कर पाती थी, परमेश्वर की मेरी गवाही असरदार नहीं थी। सत्य के किसी भी पहलू के बारे में मेरी समझ बस धर्म-सिद्धांतों तक थी, इनमें सत्य वास्तविकताएँ नहीं थीं। मैंने देखा कि इतने बरसों तक परमेश्वर में विश्वास करके भी मैं उसकी गवाही नहीं दे सकती थी। मैं बहुत कम प्रयास करती थी और थोड़ा काम करती थी, पर दरअसल मैंने परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को कभी नहीं स्वीकारा, मेरे पास सत्य समझने और जीवन स्वभाव बदलने की भी गवाही नहीं थी। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर ने कहा था, ऐसे लोग उसकी “आँखों का काँटा,” “रास्ते की अड़चनों,” और “पूरी तरह निकाले जाने वाले खरपतवार” हैं जिन्हें वह चुन-चुनकर पूरी तरह से हटा देगा। ऐसे लोगों के लिए परमेश्वर का क्रोध कभी कम नहीं होता। इन विचारों ने मुझे दुखी कर दिया। मैंने बरसों से परमेश्वर में विश्वास किया, पर सीखा कुछ भी नहीं। मुझे लगा मैं बेकार हूँ, और बेहद शर्मिंदगी हुई। परमेश्वर ऐसे लोगों से खास तौर पर नफरत करता है, उन्हें सहन नहीं करता उनसे क्रोधित रहता है। ऐसे लोग भले ही अपना कर्तव्य निभाते हैं, पर क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे पवित्र आत्मा का कार्य हासिल नहीं कर सकते और अंत में उनके पास स्वभाव में बदलाव की कोई गवाही नहीं होगी, और वे परमेश्वर द्वारा बचाए नहीं जा सकते। ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये को देखते हुए, मेरी धारणाएं पूरी तरह से खंडित हो गईं। मैं सोचती थी कि अगर मैंने कलीसिया द्वारा मुझे सौंपा गया काम अच्छे से किया, अपने कर्तव्य में कोई दुष्टता या बड़ी गलती नहीं की, गंभीर अपराध नहीं किए, और अगर मुझे बर्खास्त नहीं किया गया, तो यह ऐसा था मानो मैं सुरक्षित हाथों में थी, मुझे उद्धार की उम्मीद थी। अब मैंने जाना कि यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है। यह सिर्फ मेरी धारणाएं और महत्वाकांक्षी सोच थी। परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब सिर्फ अपने कर्तव्य में कड़ी मेहनत करना, कुछ नियमों का पालन करना और कोई प्रत्यक्ष दुष्टता न करना नहीं है। अगर बरसों तक परमेश्वर में विश्वास करके भी गवाही न दे सको, तो अंत में तुम्हें निकाल बाहर किया जाएगा। मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया : “अगर कोई ऐसा दिन आता है, जब तुम उस सबकी गवाही देने में असमर्थ होते हो जो तुमने आज देखा है, तो तुम सृजित प्राणी का कार्यकलाप गँवा चुके होगे, और तुम्हारे अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं होगा। तुम मनुष्य होने के लायक नहीं होगे। यहाँ तक कहा जा सकता है कि तुम मनुष्य नहीं रहोगे! मैंने तुम लोगों पर अथाह कार्य किया है, लेकिन चूँकि तुम फिलहाल कुछ नहीं सीख रहे, कुछ नहीं जानते, और तुम्हारा परिश्रम अकारथ है, इसलिए जब मेरे पास अपने कार्य का विस्तार करने का समय होगा, तब तुम बस भावशून्य दृष्टि से ताकोगे, तुम्हारे मुँह से आवाज नहीं निकलेगी और तुम बिलकुल बेकार होगे। क्या यह तुम्हें सदा के लिए पापी नहीं बना देगा? जब वह समय आएगा, तो क्या तुम्हें गहरा अफसोस नहीं होगा?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ क्या है?)। परमेश्वर के वचनों ने बेहद शर्मिंदा महसूस कराया, मुझे बड़ी चिंता हुई। लगा, इस तरह तो नहीं चल सकता, परमेश्वर की गवाही देने के लिए मुझे लेख लिखने पर ध्यान देना होगा।

जब मैं वास्तव में लिखने को तैयार हुई, तब भी कुछ परेशानियां और रुकावटें थीं। पहले तो, अपने अनुभव के बारे में ठीक से सोच नहीं पा रही थी, पता नहीं कहाँ शुरू से करूं, फिर एक दूसरा काम भी था, जो बहुत ज़रूरी था, तो मैंने दूसरी चीज़ों को निपटाया। उसके बाद भी, मैंने बहाने बनाए। सोचा, दूसरे लोग पूरा गवाही लेख आधे घंटे में लिख लेते हैं, पर मैं शांत माहौल और पर्याप्त समय के बिना नहीं लिख सकती, इससे यही लगता है कि लेख लिखने में मेरी काबिलियत कम थी, तो मैंने फिर से लिखना बंद कर दिया। उसके बाद मैं इस बारे में सोचने लगी। मैं गवाही लेख लिखने को लेकर इतनी निष्क्रिय क्यों थी? क्यों मैं लिखने को तैयार हुई, पर कुछ नहीं कर पाई? एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे खुद को थोड़ा समझ पाई। परमेश्वर कहते हैं : “तुम शैतानी स्वभाव को कैसे जान और पहचान सकते हो? शैतान जो चीजें करना पसंद करता है, उनके साथ ही उन तरीकों और तरकीबों के आधार पर जिनके द्वारा वह काम करता है, यह देखा जा सकता है कि उसे सकारात्मक चीजें कभी पसंद नहीं आतीं, वह बुराई पसंद करता है और वह हमेशा खुद को निपुण और हर काम नियंत्रित करने में सक्षम समझता है। यह शैतान की अहंकारी प्रकृति है। इसलिए शैतान अनैतिक ढंग से परमेश्वर को नकारता है, उसका प्रतिरोध और विरोध करता है। शैतान सभी नकारात्मक और बुरी चीजों का प्रतिनिधि और मूल है। अगर तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से देख पाते हो, तो तुम्हें शैतानी स्वभावों की समझ है। लोगों के लिए सत्य को स्वीकारना और सत्य का अभ्यास करना कोई साधारण बात नहीं है, क्योंकि उन सभी में शैतानी स्वभाव होते हैं, और वे सभी अपने शैतानी स्वभावों के द्वारा विवश और बंधे हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग समझते हैं कि एक ईमानदार व्यक्ति होना अच्छा होता है, और जब वे किसी को ईमानदार होते, सच बोलते और सरल व खुले दिल से बोलते देखते हैं, तो वे ईर्ष्या और जलन महसूस करते हैं, फिर भी यदि तुम उन्हें ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए कहो, तो यह उन्हें मुश्किल लगता है। वे ईमानदारी की बातें कहने और करने में अविचल रूप से अक्षम हैं। क्या यह शैतानी स्वभाव नहीं है? वे बातें तो अच्छी-अच्छी करते हैं, लेकिन उनका अभ्यास नहीं करते। यह होता है सत्य से चिढ़ना। जो लोग सत्य से चिढ़ते हैं, उनके लिए सत्य स्वीकारना कठिन होता है, उनके लिए सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने का कोई रास्ता नहीं होता। सत्य से चिढ़ने वालों की सबसे स्पष्ट अवस्था यह होती है कि उन्हें सत्य और सकारात्मक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं होती, यहाँ तक कि वे उनसे विमुख भी होते हैं और उनसे घृणा करते हैं, वे चलनों के पीछे भागना खासकर पसंद करते हैं। वे अपने दिल में उन चीजों को स्वीकार नहीं करते जिनसे परमेश्वर प्रेम करता है और जिन्हें करने की अपेक्षा परमेश्वर लोगों से करता है। इसके बजाय, उनके प्रति उनका रवैया उपेक्षापूर्ण और उदासीन होता है, कुछ लोग तो उन मानकों और सिद्धांतों का अक्सर तिरस्कार भी करते हैं जिनकी परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा करता है। वे सकारात्मक चीजों से विमुख होते हैं, अपने दिलों में वे उन चीजों के प्रति प्रतिरोधी, विरोधी होते हैं और घृणा से भरे रहते हैं। यह सत्य से चिढ़ने की प्राथमिक अभिव्यक्ति है। कलीसियाई जीवन में, परमेश्वर के वचन पढ़ना, प्रार्थना करना, सत्य पर संगति करना, कर्तव्यपालन करना और सत्य के द्वारा समस्याओं का समाधान करना सकारात्मक बातें हैं। वे परमेश्वर को प्रसन्न कर रहे हैं, लेकिन कुछ लोग इन सकारात्मक चीजों से विमुख होते हैं, उनकी परवाह नहीं करते और उनके प्रति उदासीन होते हैं। सबसे घृणित बात तो यह है कि वे सकारात्मक लोगों के प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया अपनाते हैं, जैसे कि ईमानदार लोग, जो सत्य का अनुसरण करते हैं, अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करते हैं और जो परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करते हैं। वे हमेशा इन लोगों पर हमला करने और उन्हें बाहर करने की कोशिश करते हैं। अगर उन्हें पता चल जाए कि उनमें कमियाँ हैं या उन्होंने कोई भ्रष्टता दिखाई है, तो वे इस बात को पकड़ लेते हैं, तिल का ताड़ बनाते हैं, और इस कारण उन्हें निरंतर नीचा दिखाते हैं। यह कैसा स्वभाव है? वे सकारात्मक लोगों से इतनी नफरत क्यों करते हैं? वे दुष्ट लोगों, गैर-विश्वासियों और मसीह-विरोधियों से इतना प्यार क्यों करते हैं और उनके साथ मिलकर रहना क्यों चाहते हैं, वे ऐसे लोगों के साथ अक्सर समय बर्बाद क्यों करते हैं? जहाँ नकारात्मक और बुरी चीजें होती हैं, वे उत्साह और उल्लास से भर जाते हैं, लेकिन जब सकारात्मक चीजों की बात आती है, तो उनका रवैया प्रतिरोधी होने लगता है; खासकर तब जब वे लोगों को सत्य पर संगति करते सुनते हैं या समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करते देखते हैं, तो उन्हें दिल में ऊब और असंतुष्टि महसूस होती है और वे शिकायतें करने लगते हैं। क्या यह स्वभाव सत्य से चिढ़ने का नहीं है? क्या यह भ्रष्ट स्वभाव दिखाना नहीं है? ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, जो उसके लिए कार्य करना और उत्साहपूर्वक भाग-दौड़ करना पसंद करते हैं, और बात जब अपने गुणों और शक्तियों का प्रयोग करने, दिखावा करने, अपनी प्राथमिकताओं में लिप्त होने की होती है, तो उनमें असीम ऊर्जा होती है। लेकिन अगर तुम उन्हें सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए कहो, तो उनकी हवा निकल जाती है, उनका उत्साह भंग हो जाता है। अगर उन्हें दिखावा न करने दिया जाए, तो वे उदासीन और निराश हो जाते हैं। दिखावा करने के लिए उनमें ऊर्जा क्यों होती है? और सत्य का अभ्यास करने के लिए उनमें ऊर्जा क्यों नहीं होती? यहाँ क्या समस्या है? सभी लोग अपनी अलग पहचान बनाना पसंद करते हैं; वे सभी खोखले यश के लिए लालायित रहते हैं। आशीषों और पुरस्कारों को पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करने की बात हो तो हर किसी के पास असीम ऊर्जा होती है, फिर वे सत्य का अभ्यास करने और देह-सुख त्यागने की बात आने पर निराश क्यों हो जाते हैं, उदासीन क्यों होते हैं? ऐसा क्यों होता है? इससे साबित होता है कि लोगों के दिलों में मिलावट है। वे पूरी तरह से आशीष पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं—स्पष्ट रूप से कहें तो, वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए विश्वास करते हैं। पाने के लिए आशीष या लाभ न होने पर लोग उदासीन और निराश हो जाते हैं, और उनमें कोई उत्साह नहीं रहता। यह सब सत्य से चिढ़ने वाले भ्रष्ट स्वभाव की देन है। इस तरह के स्वभाव के नियंत्रण में होने पर लोग सत्य के अनुसरण का मार्ग चुनने के अनिच्छुक होते हैं, वे अपनी ही राह चलते हैं और गलत रास्ता चुनते हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता होता है कि प्रतिष्ठा, लाभ और हैसियत हासिल करने के प्रयास में लगे रहना गलत है, फिर भी इन चीजों को छोड़ना या एक किनारे कर देना उनसे सहन नहीं होता और वे अभी भी शैतान के रास्ते पर चलते हुए इन चीजों के लिए प्रयासरत रहते हैं। इस तरह के मामलों में, लोग परमेश्वर का नहीं, बल्कि शैतान का अनुसरण कर रहे होते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं वह सब शैतान की सेवा में होता है और वे शैतान के सेवक हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। पहले, मैं लेख लिखने पर ज़्यादा मेहनत नहीं करती थी। मुझे सिर्फ कुछ समय के लिए थोड़ा-सा अपराध-बोध होता था, और इस बारे में ज्यादा परवाह नहीं करती थी। मैं इसे कोई बड़ी समस्या नहीं मानती थी। परमेश्वर के वचन के प्रकाशन से, अब समझ आया कि यह सत्य से ऊब जाना है, जो एक तरह का शैतानी स्वभाव है। लेख लिखने के लिए अनुभव और ज्ञान की ज़रूरत होती है, और सोचने में भी समय लगता है। हमें खुद को शांत करके परमेश्वर के वचनों पर विचार करना, सत्य खोजना और आत्मचिंतन करना चाहिए। यही वजह है कि सत्य खोजने, परमेश्वर के वचन पर विचार करने और लेख लिखने के लिए कहे जाने पर, मैंने इनकार किया, मन-ही-मन प्रतिरोध किया। परमेश्वर ने काफी संगति की है कि उसकी गवाही कैसे दें, और सभी भाई-बहन अपने अनुभव की गवाहियाँ लिखने का अभ्यास करते हैं, पर मुझे ही रुचि नहीं थी, मैंने तो इससे बचने के लिए बहाने भी बनाए। मैं बहुत अड़ियल थी। सत्य से जुड़ी चीज़ों का मैं प्रतिरोध करती, उनसे चिढ़ती थी, उन पर मेहनत करने को तैयार नहीं थी। बाहरी चीज़ों में, जो काम सत्य से जुड़ा नहीं था, उसे लेकर खास तौर पर जोश और रुचि दिखाती थी। इसकी वजह यह है कि ऐसे काम करना मेरी निजी खूबी थी; यह मेरे पास आसानी से आता था, और उसके बाद भाई-बहन मेरी मेहनत का फल साफ तौर पर देख सकते थे। मुझे काट-छाँट से नहीं गुजरना होगा या मुझे बर्खास्त नहीं किया जाएगा। मैं अपना रुतबा बनाए रख सकती थी। मेरी ओर से इस तरह का व्यवहार सत्य से ऊब जाने को दर्शाता है—यह एक शैतानी स्वभाव है। वास्तव में, लेख लिखने की प्रक्रिया सत्य खोजने की प्रक्रिया है। समस्याएं हल करने के लिए सत्य खोजने से सत्य के प्रति लोगों के रवैये का सबसे अच्छे से पता चलता है। मैं बरसों से परमेश्वर में विश्वास करती थी, अपना कर्तव्य निभाने के लिए त्याग कर खुद को खपा सकती थी, बहुत-से शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोल सकती थी, मगर सत्य में मेरी रुचि नहीं थी, इसके लिए तरसती या इसे संजोती नहीं थी, मैं परमेश्वर के प्रति सच में आज्ञाकारी नहीं थी। मैं अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जी रही थी, परमेश्वर से शत्रुता कर रही थी। इस पर विचार किया तो समझ आया कि मेरी समस्या गंभीर थी। परमेश्वर में बरसों विश्वास करने के बाद भी, परमेश्वर और सत्य के प्रति मेरे रवैये में कोई वास्तविक बदलाव नहीं आया था। मैं अभी भी शैतान की ही थी, सत्य से ऊब चुकी थी और परमेश्वर का प्रतिरोध करती थी। मेरा स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदला था। अगर यही चलता रहा, तो कितने ही बरसों तक विश्वास करूं, कितनी भी कोशिश करूं, कभी सत्य को नहीं समझ पाऊंगी या अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक नहीं कर पाऊंगी। अंत तक विश्वास करने पर भी, मुझे नहीं बचाया जाएगा। यह सोचकर मुझे थोड़ा डर लगा, पश्चात्ताप करते हुए मैंने प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं सत्य से प्रेम नहीं करती, इससे घृणा करती हूँ। मैं अपने कर्तव्य में सिर्फ प्रयास और मेहनत करके खुश थी। अब समझ आया मैं अपनी आस्था में कितनी कमजोर थी। मैं इस तरह आगे बढ़ना नहीं चाहती। तुम्हारी ओर मुड़कर, सत्य खोजने के लिए कड़ी मेहनत करना चाहती हूँ।”

फिर, मुझमें अच्छी शिक्षा और काबिलियत न होने की मेरी शिकायतों के जवाब में, एक बहन ने मुझे परमेश्वर के कुछ वचन भेजे, जो मेरे लिए काफी फायदेमंद थे। परमेश्वर कहते हैं : “परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करना तुम्हें लाभ और सच्चे अनुभव देता है—ताकि तुम परमेश्वर की गवाही दे सको। जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और कैसे लोगों को ताड़ना देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुम लोगों को इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुम्हारे अनुभव में कितनी भ्रष्टता उजागर हुई, तुमने कितना कष्ट सहा, परमेश्वर का विरोध करने के लिए तुमने कितनी चीजें कीं, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुम लोगों को जीता; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और कैसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। तुम्हें इन बातों को सरलता से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा में सत्व डालना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार चीजों का अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश मत करो, दिखावा करने के लिए खोखले सिद्धांतों की बात मत करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने वास्तविक अनुभव की असली, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज्यादा बोलना चाहिए; यह दूसरों के लिए सबसे अधिक लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा। तुम लोग परमेश्वर के सबसे कट्टर विरोधी थे, और उनके प्रति समर्पित होने के लिए तैयार ही नहीं थे, लेकिन अब तुम जीत लिए गए हो, इस बात को कभी नहीं भूलो। इन बातों पर तुम्हें और अधिक विचार करना और सोचना चाहिए। एक बार जब लोग इसे साफ तौर पर समझ जाएँगे, तो उन्हें गवाही देने का तरीका पता चल जाएगा; अन्यथा वे और अधिक बेशर्मी भरे, मूर्खतापूर्ण कृत्य करने लगेंगे, जो कि परमेश्वर के लिए गवाही देना नहीं, बल्कि उसे शर्मिंदा करना है। सच्चे अनुभवों और सत्य की समझ के बिना, परमेश्वर के लिए गवाही देना संभव नहीं है; परमेश्वर में जिन लोगों की आस्था संभ्रमित और उलझन भरी होती है, वे कभी भी परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे सकते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैं समझ गई कि परमेश्वर की सच्ची गवाही उसके वचनों और उसके कार्य की गवाही है, यह उसके वचनों के न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शुद्धिकरण के अपने अनुभव के बारे में संगति करना, अपनी भ्रष्टता के बारे में संगति करना, परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से अपने बारे में हासिल हुए ज्ञान को साझा करना और सत्य का अभ्यास करने और उसमें प्रवेश करने का तरीका बताना है, ताकि दूसरे लोग परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव देख सकें, उसके कार्य और प्रेम को जान सकें। परमेश्वर की गवाही देने के लिए उन्नत सिद्धांतों के बारे में बोलने की काबिलियत रखना ज़रूरी नहीं। मायने यह रखता है कि आप सच्चे मन से और ईमानदारी से बोलें। इसका एहसास होने पर, मेरे दिल में थोड़ी रोशनी हुई। यही बात अनुभव की गवाहियां लिखने को लेकर सही है। आपके शैक्षणिक स्तर या लेखन शैली से कोई फर्क नहीं पड़ता। अहम बात यह है कि क्या आप सत्य खोजने के लिए प्रयास कर सकते हैं, क्या आप अपनी भ्रष्टता और समस्याओं का हल करने के लिए सत्य खोजते हैं, क्या आप परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव कर सकते हैं, उसके वचन के आधार पर विश्लेषण कर खुद को जान सकते हैं, समस्याओं के सार को समझ सकते हैं, सच्चे मन से पश्चात्ताप कर बदल सकते हैं। जब आप इन चीज़ों से परिपूर्ण होते हैं, तो आपके लिखे लेख अच्छे होंगे। इसका आपकी शिक्षा के स्तर से कोई संबंध नहीं है। आपको बस अपने रोजमर्रा के जीवन की भाषा में व्यावहारिक अनुभव और ज्ञान के बारे में लिखना होता है। बस यह लिखना होता है कि आप क्या अनुभव करते और सोचते-समझते हैं। अगर आप अपनी सच्ची समझ और भावनाओं को अपने शब्दों में लिखते हैं, जिससे दूसरों को फायदा हो, तो आपके पास एक गवाही है। पहले, मैं हमेशा सोचती थी कि मेरे पास कम शिक्षा और कम काबिलियत है, इसे बहाना बनाकर लेख नहीं लिखती थी, मानो कि लेख लिखने के लिए उच्च स्तर का ज्ञान या काबिलियत होना ज़रूरी हो, मगर अब समझ आया कि ऐसी सोच गलत थी। मुझे ऐसी हालत में नहीं रहना चाहिए था। मुझे सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने, अपने अनुभव और ज्ञान के बारे में लेख लिखने पर ध्यान देना चाहिए, ताकि गवाही दे सकूं। यही मेरा कर्तव्य था।

एक सभा में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे सत्य का अनुसरण करने और गवाही लेख लिखने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अगुआओं और कार्यकर्ताओं की श्रेणी के लोगों के उद्भव के पीछे क्या कारण है? उनका उद्भव कैसे हुआ? एक विराट स्तर पर, परमेश्वर के कार्य के लिए उनकी आवश्यकता है, जबकि अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर, कलीसिया के कार्य के लिए उनकी आवश्यकता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उनकी आवश्यकता है। ... अगुआ व कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने बाकी लोगों के बीच बस उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों के विशिष्ट गुण का अंतर होता है। यह विशिष्ट गुण खास तौर पर उनकी अगुआई की भूमिका में दिखता है। उदाहरण के लिए, किसी कलीसिया में कितने भी लोग हों, अगुआ ही मुखिया होता है। तो यह अगुआ सदस्यों के बीच क्या भूमिका निभाता है? वह कलीसिया में मौजूद सभी चुने हुए लोगों की अगुआई करता है। संपूर्ण कलीसिया पर उसका क्या प्रभाव होता है? अगर यह अगुआ गलत रास्ते पर चलता है, तो कलीसिया में मौजूद परमेश्वर के चुने हुए लोग अगुआ के पीछे-पीछे गलत रास्ते पर चले जाएंगे, जिसका उन सब पर बहुत बड़ा असर पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर पौलुस को लो। उसने अपने द्वारा स्थापित कई कलीसियाओं और परमेश्वर के चुने लोगों की अगुआई की थी। जब पौलुस भटक गया, तो उसकी अगुआई वाली कलीसियाएँ और परमेश्वर के चुने हुए लोग भी भटक गए। इसलिए, जब अगुआ भटक जाते हैं, तो केवल अगुआ ही प्रभावित नहीं होते, बल्कि वे जिन कलीसियाओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई करते हैं, वे भी प्रभावित होते हैं। अगर अगुआ सही व्‍यक्ति है, ऐसा व्‍यक्ति जो सही मार्ग पर चल रहा है और सत्‍य का अनुसरण और अभ्‍यास करता है, तो उसकी अगुआई में चल रहे लोग अच्छी तरह परमेश्वर के वचन खाएँगे और पिएँगे और अच्छी तरह सत्य का अनुसरण करेंगे, और, साथ ही साथ, अगुआ का जीवन अनुभव और प्रगति दूसरों को दिखाई देगी और उन पर असर डालेगी। तो, वह सही मार्ग क्‍या है जिस पर अगुआ को चलना चाहिए? यह है दूसरों को सत्‍य की समझ और सत्‍य में प्रवेश की ओर ले जाने, और दूसरों को परमेश्वर के समक्ष ले जाने में समर्थ होना। गलत मार्ग क्‍या है? यह है बार-बार प्रतिष्‍ठा, प्रसिद्धि तथा लाभ के पीछे भागना, अपनी खूबियों का प्रदर्शन करना और अपनी गवाही देना, और कभी भी परमेश्वर की गवाही न देना। इसका परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर क्‍या प्रभाव पड़ता है? (यह उन्हें अपने सामने लाता है।) वे लोग भटककर परमेश्वर से दूर चले जाएँगे और इस अगुआ के नियंत्रण में आ जाएँगे। अगर तुम लोगों को अपने समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करते हो, तो तुम उन्‍हें भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई कर रहे हो, और तुम उन्‍हें परमेश्वर के समक्ष नहीं, शैतान के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई कर रहे हो। लोगों को सत्‍य के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करना ही उन्‍हें परमेश्वर के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करना है। अगुआ और कार्यकर्ता चाहे मार्ग सही पर चलें या गलत मार्ग पर, उनका परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर सीधा प्रभाव पड़ता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैं अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य अच्छे से समझ गई। उस वक्त, मुझे अपने कंधों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी महसूस हुई। परमेश्वर हमें बताता है कि अगुआ और कर्मी जो मार्ग चुनते हैं और जो खोजते हैं, इसका असर सिर्फ उन पर नहीं, बल्कि उनकी अगुआई में मौजूद लोगों पर भी पड़ता है। जब अगुआ और कर्मी सत्य खोजते हैं और वे सही लोग होते हैं, तो वे सत्य में निरंतर प्रगति करते हैं, रोजमर्रा के जीवन में चिंतन कर सकते हैं कि उनमें किस तरह की गलत सोच है या वे किस भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं, वे परमेश्वर के वचनों से समस्याओं का सार समझते हैं, फिर पता लगाते हैं कि किन सिद्धांतों में प्रवेश करना है। जब अगुआ और कर्मी सही मार्ग पर चलते हैं, तो वे अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश की जिम्मेदारी उठाते हैं, समस्याएं हल करने के लिए सत्य खोजने पर ध्यान देते हैं, ताकि उनकी अगुआई में रहने वाले लोग भी इस दिशा में प्रवेश कर सकें। अगर अगुआ और कर्मी लापरवाह होते हैं, सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, अपना पूरा वक्त शोहरत और रुतबा हासिल करने में लगाते हैं, सत्य के अनुसरण में रुचि नहीं रखते हैं, और समस्याएं हल करने के लिए सत्य पर संगति नहीं कर पाते हैं, और अगर वे अपने कर्तव्य में बस बाहरी मामलों को निपटाने में खुद को व्यस्त रखते हैं या खुद को ऊंचा उठाने और अलग दिखाने के लिए शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की बात करते हैं, और वे परमेश्वर की गवाही देने के लिए सत्य पर संगति नहीं कर सकते हैं, तो फिर वे परमेश्वर के प्रतिरोध के मार्ग पर चलते हैं, और जिस दिशा में वे लोगों की अगुआई करते हैं वह गलत होती है। ऐसे लोग अनजाने में अपने ही रास्ते पर चल पड़ते हैं दूसरों को सेवा करने के मार्ग पर ले जाते हैं, जो पौलुस का परमेश्वर के प्रतिरोध का मार्ग है। यह काम करने और लोगों को बचाने के परमेश्वर के इरादे के खिलाफ है। कलीसिया ने मुझे अगुआ बनने का अभ्यास करने अवसर इसलिए नहीं दिया कि मैं बाहरी काम कर सकूं या सेवा और परिश्रम कर सकूं या शोहरत और रुतबे के पीछे भागती रहूँ। मुझे एक अगुआ की भूमिका निभानी चाहिए और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने में भाई-बहनों की अगुआई करनी चाहिए, उनके कर्तव्य की समस्याएं हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए और धीरे-धीरे सत्य को समझकर परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होना चाहिए। यही मेरा कर्तव्य भी था। मुझे लगा कि सत्य का अनुसरण करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने पर ध्यान देना बेहद अहम है। उस वक्त, मुझे सत्य की बेहद उथली समझ थी, मुझमें सत्य वास्तविकता नहीं थी, इसलिए मैं सिर्फ अनुभव करके ही सीख सकती थी। अगर मेरा दिल और चुना गया मार्ग सही है, तो मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन मिलेगा।

इसके बाद, मैं इस बात पर चिंतन करने लगी कि परमेश्वर में अपनी आस्था के इतने बरसों में मैंने सत्य खोजकर किन समस्याओं और भ्रष्ट स्वभावों को हल किया। ऐसा करने में, मैंने पाया कि मैं उलझन में थी, कई सवालों को आधा-अधूरा समझती थी। मैं वास्तव में सत्य नहीं समझती थी, समस्याओं के सार को नहीं देखती थी, अभ्यास के सिद्धांत नहीं ढूंढती थी, न ही कभी मैंने असरदार तरीके से समस्याओं को हल किया। उसके बाद, मैंने उन अनुभवों के बारे में लिखने की कोशिश की जिसकी मुझे अच्छी समझ थी, लिखते हुए विचार करती जाती थी। जब भी वक्त मिलता, मैं विचार करती। लेख लिखने का काम पूरा होने पर, मुझे काफी संतोष, सुरक्षा और सुकून का एहसास हुआ। लेख लिखने की प्रक्रिया के दौरान, सत्य खोजकर, मैं स्वाभाविक रूप से अपनी हालत और समस्याओं के सार को साफ तौर पर समझने लगी, सत्य के बारे में मेरा ज्ञान अधिक व्यावहारिक और ठोस हो गया, मेरा अभ्यास का मार्ग और भी स्पष्ट हो गया। मैंने देखा कि गवाही लेख लिखना अपनी हालत के बारे में समझने और समस्याएं हल करने के लिए सत्य खोजने को लेकर बेहद मददगार है। यह जीवन प्रवेश का मार्ग है, यही सत्य खोजने और उसे समझने का सबसे सही तरीका भी है।

फिर, मैंने सुना कि अगुआओं और कर्मियों समेत कई लोग लेख लिखने पर ध्यान नहीं देते, वे इस संबंध में कोई प्रयास भी नहीं करते। कुछ लोग हमेशा यही कहते कि वे काम में व्यस्त थे, उनके पास लेख लिखने का वक्त नहीं था। मैंने सोचा, “क्या मेरी हालत भी ऐसी ही नहीं थी? मुझमें भी वही गलत सोच थी, मैंने लेख न लिखने के लिए बहाने बनाए। अगर मैंने अपनी हालत को ठीक करने और अपनी सोच बदलने के तरीके को लेकर अपनी प्रक्रिया का पालन कर पाई और इस बारे में कोई लेख लिखा, तो क्या उससे मेरे कुछ भाई-बहनों की समस्याएं हल नहीं होंगी?” यह समझ आने पर, लगा अब मैं जिम्मेदारी उठा सकती हूँ, और मैंने इस बारे में लेख लिखने का फैसला किया। भले ही मेरी समझ बहुत उथली और एकतरफा थी, मैं जानती थी यह लेख लिखना मेरा कर्तव्य है, इसलिए मैंने जितना भी समझा उतना ही लिखने का अभ्यास करना होगा। आम तौर पर, जब मैं अपने भाई-बहनों से मिलती या उनके साथ चर्चा करती, तो इस विषय पर उनके साथ संगति करती, और जब भी मेरे पास खाली वक्त होता, इस पर सोचती। सुबह के अपने धार्मिक कार्य के दौरान, मैं इस विषय पर परमेश्वर के वचन खाती-पीती। कुछ समय बाद, मैं इस समस्या को अधिक स्पष्ट रूप से समझने लगी, और जब मैंने इस बारे में लिखा, तो यह और भी आसान लगा। रूपरेखा तैयार करने के बाद, मैंने अर्थ के हर स्तर को अपनी समझ के अनुसार व्यक्त किया, अपने विचारों और अनुभवों को अपने शब्दों में लिखा। अब मुझे यह काम उतना मुश्किल नहीं लगा, लिखते समय चीज़ों पर विचार करते हुए मैं समस्या को और इसमें शामिल सत्य के पहलुओं को अधिक स्पष्ट रूप से समझ सकती हूँ। मुझे सच में लगा कि जितना हम सत्य खोजने की कोशिश करते हैं, जितना हम लेख लिखते हैं और लेख लिखने को सत्य का अनुसरण करने और समस्याएं हल करने के साधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं, उतना ही हमें परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन मिलता है, उतने ही हम धन्य होते हैं। मुझे परमेश्वर का वचन याद आया : “परमेश्वर की इच्छा को तुम जितना अधिक ध्यान में रखोगे, तुम्हारा बोझ उतना अधिक होगा और तुम जितना ज्यादा बोझ वहन करोगे, तुम्हारा अनुभव भी उतना ही ज्यादा समृद्ध होगा। जब तुम परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखोगे, तो परमेश्वर तुम पर एक दायित्व डाल देगा, और उसने तुम्हें जो काम सौंपें हैं, उनके बारे में वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। जब परमेश्वर द्वारा तुम्हें यह बोझ दिया जाएगा, तो तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय सभी संबंधित सत्य पर ध्यान दोगे। यदि तुम्हारे ऊपर भाई-बहनों की स्थिति से जुड़ा बोझ है तो यह बोझ परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा है, और तुम प्रतिदिन की प्रार्थना में इस बोझ को हमेशा अपने साथ रखोगे। परमेश्वर जो करता है वही तुम्हें सौंपा गया है, और तुम वो करने के लिए तैयार हो जिसे परमेश्वर करना चाहता है; परमेश्वर के बोझ को अपना बोझ समझने का यही अर्थ है। इस बिंदु पर, परमेश्वर के वचन को खाते और पीते समय, तुम इस तरह के मामलों पर ध्यान केन्द्रित करोगे, और तुम सोचोगे कि मैं इन समस्याओं को कैसे सुलझा पाऊँगा? मैं अपने भाइयों और बहनों को मुक्ति और आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करने के योग्य कैसे बना सकता हूँ? तुम संगति करते समय इन मुद्दों को हल करने पर ध्यान दोगे, और परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते समय तुम इन मुद्दों से संबंधित वचनों को खाने-पीने पर ध्यान दोगे। तुम उसके वचनों को खाते-पीते समय भी बोझ उठाओगे। एक बार जब तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझ लोगे, तो तुम्हारे मन में तुम स्पष्ट हो जाओगे कि तुम्हें किस मार्ग पर चलना है। यह पवित्र आत्मा की वह प्रबुद्धता और रोशनी है जो तुम्हारे बोझ का परिणाम है, और यह परमेश्वर का मार्गदर्शन भी है जो तुम्हें प्रदान किया गया है। मैं ऐसा क्यों कहता हूं? यदि तुम्हारे ऊपर कोई बोझ नहीं है, तब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय इस पर ध्यान नहीं दोगे; बोझ उठाने के दौरान जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हो, तो तुम परमेश्वर के वचनों का सार समझ सकते हो, अपना मार्ग खोज सकते हो, और परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रख सकते हो। इसलिए, परमेश्वर से प्रार्थना करते समय तुम्हें अधिक बोझ माँगना चाहिए, और अधिक बड़े काम सौंपे जाने की कामना करनी चाहिए, ताकि तुम्हारे आगे अभ्यास करने के लिए और अधिक मार्ग हों, ताकि तुम्हारे परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का और ज्यादा प्रभाव हो; ताकि तुम उसके वचनों के सार को प्राप्त करने में सक्षम हो जाओ; और तुम पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाने के लिए और भी सक्षम हो जाओ(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखो)। परमेश्वर के वचन से मुझे समय आया कि जब हम अपने जीवन प्रवेश और कलीसिया की समस्याओं की जिम्मेदारी उठाते हैं, तब हम समस्याएं हल करने के लिए सत्य खोजने में और अधिक प्रयास कर पाते हैं, निष्ठापूर्वक परमेश्वर के वचनों को खाते, पीते और उन पर अमल करते हैं। तभी हम अधिक तेजी से सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान, जब हम जिम्मेदारी उठाते, तरसते और सत्य खोजते हैं, तब हमें परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन मिलता है, धीरे-धीरे हम सत्य की अपनी समझ को गहरा करते हैं, मामलों और लोगों को पूरी तरह से और अधिक स्पष्ट रूप से समझते हैं, सत्य के बारे में अधिक ठोस और व्यावहारिक समझ हासिल कर पाते हैं। अगर हम सत्य खोजने के लिए कड़ी मेहनत न करें या लेख लिखने का अभ्यास न करें, तो परमेश्वर के वचन के बारे में थोड़ी रोशनी मिलने के बाद भी, यह सिर्फ एक उथली, प्रतिबोधक समझ होगी, यह हमेशा अस्पष्ट लगेगा, ऐसा लगेगा जैसे ये धुंध में बनी आकृतियाँ हों, इससे पता चलता है कि हमें कोई वास्तविक ज्ञान नहीं है। सिर्फ अपने ज्ञान और अनुभव के बारे में लिखने, परमेश्वर के वचन के आधार पर समस्याओं पर विचार करने और समझने, फिर अपने प्रतिबोधक ज्ञान को अधिक स्पष्ट, यथार्थवादी और ठोस बनाने के बाद ही, अंत में हमारी समझ कारगर होती है। लेख लिखना चीज़ों को साफ तौर पर जानने, सत्य समझने और समस्याएं हल करने की एक प्रक्रिया है। हम जितना लिखेंगे, उतना ही हासिल करेंगे।

अब, मैं लेख लिखने में आनाकानी नहीं करती। अब इसमें मुझे खुशी मिलती है, क्योंकि लेखन की प्रक्रिया में, मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव को अधिक स्पष्ट रूप से जाना, परमेश्वर के वचनों को समझने से मेरी सोच और विचारधारा भी बदल गई। यही वास्तविक लाभ है, जो सबसे कीमती और सार्थक भी है। पहले, मुझे हमेशा यही लगता था कि लेख लिखना परिश्रम वाला और खास तौर पर मुश्किल काम है, अपने अनुभवों के बारे में लेख लिखने के बजाय मैं बाहरी काम करना ज़्यादा पसंद करती थी। मैं बहुत विद्रोही और अड़ियल थी। मुझे यह भी लगता था कि लेख लिखने से मेरे काम में देरी हो जाएगी, मगर यह सोच वास्तव में बहुत गलत और बेतुकी थी। लेख लिखने से काम में कोई देरी नहीं होती है। यह आपको समस्याएं हल करने के लिए सत्य खोजने को प्रेरित करता है, अपने कर्तव्य में आपको अधिक असरदार होने में सक्षम बनाता है। अब, जब भी वक्त मिलता है, मैं खुद को शांत करके अपनी हालत पर विचार करती हूँ। मैं उन समस्याओं पर विचार करने पर ध्यान देना चाहती हूँ जिन्हें मैं साफ तौर पर समझ या हल नहीं कर पाती। धीरे-धीरे मैं अपने जीवन प्रवेश के लिए जिम्मेदारी उठाने लगी हूँ। मुझे यह भी लगता है कि मेरे बहुत-से हालात ऐसे हैं जिनका सत्य खोजकर समाधान करना ज़रूरी है, और धीरे-धीरे मैं परमेश्वर के वचन के लिए तरसने लगी हूँ। यह सब परमेश्वर के अनुग्रह से मुमकिन हुआ है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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