क्या अपने माता-पिता की देखभाल करना परमेश्वर द्वारा सौंपा गया मिशन है?

03 दिसम्बर, 2024

सितंबर 2022 के अंत में, मिंग हुई का पति उसे जेल से घर ले गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण मिंग हुई को पुलिस ने दो बार गिरफ्तार कर उसका उत्पीड़न किया। यह उसकी दूसरी बार गिरफ्तारी थी, उसे तीन साल कैद की सजा हुई थी। पुलिस से बचने और बाद में जेल की सजा सुनाए जाने के कारण, उसे दस साल घर से दूर रहना पड़ा।

घर पहुँचकर मिंग हुई को पता चला कि सालभर पहले उसके पिता बीमारी के कारण चल बसे और उसकी माँ लकवाग्रस्त हो गई। माँ की हालत देखकर वह दंग रह गई। जो माँ कभी अच्छी-खासी सेहतमंद हुआ करती थी, अब व्हीलचेयर पर आ गई थी। मिंग हुई को लगा कि वह अपने माता-पिता की ऋणी है। वह अपने परिवार में सबसे छोटी थी। बचपन से ही उसके पिता ने उसे कोई काम नहीं करने दिया था। माँ ने भी उसका खास ध्यान रखा था। उन्होंने उसके लालन-पालन में बहुत कष्ट उठाए थे, उसके खाने, कपड़े और शिक्षा का ख्याल रखा था। लेकिन जब उन्हें उसकी जरूरत थी तो वह एक कर्तव्यनिष्ठ बेटी साबित नहीं हुई। उसे वह समय याद आया जब उसे पहली बार नजरबंदी गृह में रखा गया था। उसकी माँ को चिंता हुई थी कि पुलिस उसे बेरहमी से पीटेगी, यह सब सोचकर उसका खाना-पीना, सोना हराम हो गया था। उसकी माँ ने भाग-दौड़ और पैसा खर्च करके उसे बाहर निकलवाया था। यह सब सोचते हुए, मिंग हुई माँ के करीब गई। और माँ ने रोते हुए कहा, “आखिर तू लौट आई। पता है इतने बरस तेरी याद में कैसे काटे हैं? मुझे यही लगा रहता था कि पता नहीं तू कितने कष्ट में होगी, तुझ पर वो कितना जुल्म कर रहे होंगे।” यह सुनकर तो मिंग हुई को लगा कि उस पर माँ का और कर्ज चढ़ गया है। उसकी आँखों से अनवरत आँसू बह रहे थे, वह सोचने लगी, “‘इंसान को बुढ़ापे में अपने माता-पिता की देखभाल करनी चाहिए,’ लेकिन जब बीमारी में देखभाल के लिए उन्हें मेरी जरूरत थी, तो मुझे उनके पास रहकर उनकी सेवा करने का मौका नहीं मिला। मैं उन्हें अपने हाथ से न तो खाना खिला पाई, न ही उनकी दवा-दारू कर पाई, उनकी बाकी देखभाल और सेवा-शुश्रूषा की तो दूर की बात है। मेरी परवरिश में उन्होंने जो दयालुता दिखाई, मैं उसकी पात्र नहीं हूँ। मेरी जैसी बेटी के लालन-पालन का क्या फायदा हुआ!” सोच-सोचकर मिंग हुई खुद को धिक्कारने लगी। जेल से आने के बाद, मिंग हुई ने एक-एक दिन अपनी लकवाग्रस्त माँ की देखभाल में बिताया। मिंग हुई जैसे इतने बरसों का कर्ज उतारना चाहती थी। मिंग हुई काफी समय से घर पर नहीं थी, उस दौरान दो स्थानीय पुलिसकर्मी उसके घर गए और उसकी फोटो ली। उन्होंने यह भी कहा कि वे हर महीने एक बार उससे मिलने आएँगे। मिंग हुई अच्छी तरह जानती थी कि ये शैतान उसके ठौर-ठिकाने पर नजर रख हुए हैं। वहाँ रहकर उसके लिए परमेश्वर में विश्वास रखना और अपना कर्तव्य-निर्वहन करना नामुमकिन है।

एक दिन कलीसिया अगुआ ने मिंग हुई को एक पत्र लिखकर पूछा कि क्या वह कहीं और जाकर अपना कर्तव्य-निर्वहन कर सकती है। पत्र पाकर मिंग हुई को खुशी भी हुई और चिंता भी। यह जानकर उसे खुश हुई कि उसे अभी भी अपना कर्तव्य निभाने का मौका मिल रहा है, लेकिन उसे अपनी लकवाग्रस्त बुजुर्ग माँ की फिक्र भी थी। फिर घर लौटकर अपनी माँ की देखभाल करने का मौका मिल पाना काफी मुश्किल था। अगर वह चली गई तो पता नहीं कब वापस आएगी। मिंग हुई गहरी सोच में डूब गई, “मेरे माता-पिता ने मुझे इतना बड़ा किया। मैं अपने पिता के निधन पर भी घर पर नहीं थी। अगर मेरी गैर-मौजूदगी में माँ का निधन हो गया, तो क्या कह पाऊँगी कि मुझमें इंसानियत है? पास-पड़ोसी तो मुझे एहसान फरामोश कहेंगे ही; मेरी आत्मा पर यह बोझ हमेशा के लिए रह जाएगा! क्या मेरे माता-पिता ने मुझे कष्टों से नहीं पाला है ताकि उनके बुढ़ापे में मैं उनका सहारा बन सकूँ? परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण कम्युनिस्ट पार्टी ने मुझे इतने बरस जेल में रखा और यातनाएँ दीं, मुझे कभी उनकी सेवा करने का मौका नहीं मिला। इस वजह से मेरी अंतरात्मा मुझे पहले ही धिक्कारती है; अब मैं अपनी माँ को नहीं छोड़ सकती।” यह सोचकर मिंग हुई ने अपनी अगुआ के अनुरोध को अस्वीकार करते हुए एक पत्र लिखा। इसके बाद उसने मन ही मन खुद को धिक्कारा। एक सृजित प्राणी के रूप में उसे अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, लेकिन उसने घर पर रहकर अपनी माँ की देखभाल करने के लिए इसे अस्वीकार कर दिया। यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं था! उन दिनों मिंग हुई बहुत व्यथित थी और लगातार इस मामले को लेकर प्रार्थना करती रहती थी। उसे परमेश्वर के वचनों के एक अंश का ख्याल आया : “सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति के पास कम-से-कम अपना जमीर और समझ तो होनी ही चाहिए। तुम कैसे बता सकते हो कि किसी व्यक्ति के पास जमीर और समझ है? यदि किसी की कथनी-करनी मूल रूप से जमीर और समझ के मानकों के अनुरूप है तो मानवीय दृष्टिकोण से वह अच्छा व्यक्ति है, और वह स्वीकार्य मानक पर खरा उतरता है। अगर वह सत्य को समझने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में भी सक्षम है, तो फिर वह परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर रहा है जो जमीर और समझ के मानक से भी ऊपर हैं। कुछ लोग कहते हैं : ‘परमेश्वर ने मनुष्य का सृजन किया। परमेश्वर ने हमें जीवन की साँस दी, परमेश्वर ही हमें पालता है, पोषण देता है, और हमें वयस्क बनने की ओर आगे बढ़ाता है। जमीर और समझ वाले लोग अपने लिए या शैतान के लिए नहीं जी सकते; उन्हें परमेश्वर के लिए जीना चाहिए और अपने कर्तव्य पूरे करने चाहिए।’ यह सही है, लेकिन यह केवल एक मोटा और कच्चा खाका है। जहाँ तक परमेश्वर के लिए वास्तविकता में रहने के ब्योरों की बात है, इनसे जमीर और समझ जुड़े होते हैं। तो परमेश्वर के लिए कैसे जीया जाता है? (सृजित प्राणी को जो कर्तव्य निभाना चाहिए, उसे ठीक से निभाना।) बिल्कुल सही। अभी तुम लोग जो कुछ भी कर रहे हो वह सब मनुष्य का कर्तव्य निभाना भर है, लेकिन वास्तव में तुम यह किसके लिए कर रहे हो? (परमेश्वर के लिए।) यह परमेश्वर के लिए है, यह उसके साथ सहयोग है! परमेश्वर ने तुम्हें जो आदेश दिया है वह तुम लोगों का कर्तव्य है। यह भाग्य में लिखित, पूर्वनियत और परमेश्वर द्वारा शासित है, या अन्य शब्दों में, परमेश्वर ही तुम्हें यह कार्य सौंपता है, और चाहता है कि तुम इसे पूरा करो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचनों से मिंग हुई को समझ आया कि विवेक और मानवता होने का क्या मतलब है। वह एक सृजित प्राणी थी, उसकी हर सांस उसे परमेश्वर ने दी थी। उसके पास जो कुछ भी था सब परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया था। उसका आज तक जीवित रह पाना परमेश्वर की संप्रभुता और प्रावधान से अलग नहीं था, उसने इतने बरस परमेश्वर में विश्वास रखते हुए उसके ढेरों वचनों के सिंचन और प्रावधान का आनंद लिया था। अगर वाकई उसमें थोड़ी-सी भी अंतरात्मा और विवेक है, तो उसे परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देने के लिए अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए। उसे केवल अपने मामलों की ही चिंता नहीं करनी चाहिए, केवल अपने परिवार, अपने माता-पिता या बच्चों के लिए ही नहीं जीना चाहिए; ऐसा करने का मतलब है अंतरात्मा का न होना। अब उसका बड़ा भाई और बहन माँ की देखभाल कर रहे थे, और वे ऐसा करते चाहे वह घर पर हो या न हो। आने वाले दिनों में, मिंग हुई ने परमेश्वर से प्रार्थना की, वह उसके आयोजन और व्यवस्था के प्रति समर्पित होने और अपना कर्तव्य निभाने को तैयार थी।

फरवरी 2023 में मिंग हुई पुलिस की निगरानी से आजाद होकर अपने कर्तव्य-निर्वहन के लिए घर से निकल गई। आखिरकार वह भाई-बहनों से जा मिली। उसके अंदर एक ऐसा उत्साह था जिसे बयान नहीं किया जा सकता। एक दिन उसने एक संक्षिप्त लेख पढ़ा जो एक अधेड़ उम्र की महिला के बारे में था जिसने सुना कि उसकी माँ बीमार पड़ गई है। उसने माँ के लिए कुछ आहार खरीदा और उससे मिलने गई। वह महिला चाहती थी कि अपनी माँ को अपने घर लाकर कुछ दिन उसकी देखभाल करे। लेकिन हालात इसकी इजाजत नहीं दे रहे थे। वह बस अपनी माँ से थोड़ी-बहुत दिल की बातें ही कर पाई। मिंग हुई को भी अपनी माँ का ख्याल आया और उसकी आवाज भर्रा गई। यह देखकर मिंग हुई की साथीदार बहन ने मजाक में कहा, “क्या हुआ? इस लेख ने तुम्हारे दिल पर कोई असर डाल दिया क्या?” उस समय मिंग हुई बहन को जवाब नहीं दे पाई। उसे लगा जैसे वह अपनी माँ को व्हीलचेयर पर बैठे हुए देख रही हो, इस उम्मीद में कि उसका चेहरा दिख जाए, और इसी वजह से अनजाने में ही उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े। बचपन से ही उसने माँ को बहुत परेशान किया था। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, कम्युनिस्ट पार्टी के लगातार उत्पीड़न के कारण उसे दो बार गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था। उसके कारण माँ अक्सर चिंताग्रस्त रहती थी। उसकी माँ ने उसके लिए न जाने कितनी बार चिंता कर-करके अनगिनत आँसू बहाए थे और शायद इन्हीं सब कारणों से वह बीमार भी हुई। अब जब उसकी माँ को उसकी सेवा की आवश्यकता थी, तो वह उसे छोड़कर अपने कर्तव्य-निर्वहन पर निकल पड़ी थी। मिंग हुई सोच-सोचकर माँ के ऋण से दबती चली गई और रोने लगी। उसे एहसास हुआ कि वह एक बार फिर मोहजाल में फँस रही है, उसने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं एक बार फिर अपनी माँ को लेकर चिंतित हो रही हूँ। मेरे हृदय की रक्षा कर ताकि मैं शैतान से परेशान हुए बिना, तेरे वचनों के आधार पर लोगों और चीजों को देख पाऊँ। आमीन!”

इसके बाद मिंग हुई ने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे उसके दिल को थोड़ी राहत मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे माता-पिता बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे, और यह निःशुल्क होना चाहिए, इसमें लेनदेन नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम्हें भरपाई करने के विचार के अनुसार न तो अपने माता-पिता से पेश आना चाहिए, न उनके साथ अपने रिश्ते को ऐसे संभालना चाहिए। अगर तुम इस विचार के अनुसार अपने माता-पिता से पेश आते हो, उनका कर्ज चुकाते हो और उनके साथ अपने रिश्ते को संभालते हो, तो यह अमानुषी है। साथ ही, हो सकता है इसके कारण तुम आसानी से अपनी दैहिक भावनाओं से नियंत्रित होकर उनसे बँध जाओ और फिर तुम्हारे लिए इन उलझनों से उबरना इस हद तक मुश्किल हो जाएगा कि शायद तुम अपनी राह से भटक जाओ। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं, इसलिए उनकी तमाम अपेक्षाएँ साकार करना तुम्हारा दायित्व नहीं है। उनकी अपेक्षाओं की कीमत चुकाना तुम्हारा दायित्व नहीं है। यानी उनकी अपनी अपेक्षाएँ हो सकती हैं। तुम्हारे अपने विकल्प हैं, तुम्हारा अपना जीवन पथ है और अपनी नियति है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए नियत किए हैं जिनसे तुम्हारे माता-पिता का कोई लेना-देना नहीं है। लिहाजा, जब तुम्हारे माता-पिता में से कोई एक कहता है : ‘तुम संतानोचित बच्चे नहीं हो। तुम इतने वर्षों से मुझे देखने नहीं आए, मुझे फोन किए तुम्हें जाने कितने दिन हो गए। मैं बीमार हूँ और मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। मैंने तुम्हें बेकार में ही पाल-पोस कर बड़ा किया। तुम सचमुच लापरवाह और अहसान-फरामोश संतान हो!’ अगर तुम इस सत्य को नहीं समझते कि ‘तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं,’ तो ये बातें सुनना उतना ही पीड़ादायक होगा जितना दिल में छुरा भोंकने पर होता है, और तुम्हारा जमीर निंदित महसूस करेगा। इनमें से प्रत्येक शब्द तुम्हारे दिल में बैठ जाएगा और इसके कारण तुम्हें अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्म आएगी, तुम उनका ऋणी महसूस करोगे और उनके प्रति अपराधबोध से ग्रस्त हो जाओगे। जब माता या पिता कहते हैं कि तुम अहसान-फरामोश हो, तो तुम्हें सच में लगेगा : ‘वे बिल्कुल सही हैं। उन्होंने मुझे इस उम्र तक बड़ा किया, और उन्हें मेरी छत्रछाया में जरा भी आराम नहीं मिला। अब वे बीमार हैं, उन्हें उम्मीद थी कि मैं उनके सिरहाने बैठकर उनकी सेवा करूँगा और उनका साथ दूँगा। उन्हें जरूरत थी कि मैं उनकी दयालुता का कर्ज चुकाऊँ, और मैं वहाँ नहीं था। मैं सच में लापरवाह अकृतज्ञ हूँ!’ तुम खुद को लापरवाह अकृतज्ञ का दर्जा दे दोगे—क्या यह वाजिब है? क्या तुम एक लापरवाह अकृतज्ञ हो? अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़कर नहीं गए होते और अपने माता-पिता के साथ ही रह रहे होते, तो क्या तुम उन्हें बीमार पड़ने से रोक सकते थे? (नहीं।) क्या यह तुम्हारे वश में है कि तुम्हारे माता-पिता जीवित रहें या मर जाएँ? क्या उनका अमीर या गरीब होना तुम्हारे वश में है? (नहीं।) तुम्हारे माता-पिता को जो भी रोग हो, वह इस वजह से नहीं है कि वे तुम्हें बड़ा करने में बहुत थक गए, या उन्हें तुम्हारी याद आई; वे खास तौर से कोई भी बड़ा, गंभीर और संभवतः जानलेवा रोग तुम्हारे कारण नहीं पकड़ेंगे। यह उनका भाग्य है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम चाहे जितने भी संतानोचित क्यों न हो, ज्यादा-से-ज्यादा तुम उनकी दैहिक पीड़ा और बोझों को कुछ हद तक कम कर सकते हो, लेकिन वे कब बीमार पड़ेंगे, उन्हें कौन-सी बीमारी होगी, उनकी मृत्यु कब और कहाँ होगी—क्या इन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना है? नहीं, नहीं है। अगर तुम संतानोचित हो, अगर तुम लापरवाह अकृतज्ञ नहीं हो, पूरा दिन उनके साथ बिताते हो, उनकी देखभाल करते हो, तो क्या वे बीमार नहीं पड़ेंगे? क्या वे नहीं मरेंगे? अगर उन्हें बीमार पड़ना ही है, तो क्या वे कैसे भी बीमार नहीं पड़ेंगे? अगर उन्हें मरना ही है, तो क्या वे कैसे भी नहीं मर जाएँगे? क्या यह सही नहीं है? ... चाहे तुम्हारे माता-पिता तुम्हें एक लापरवाह अहसान-फरामोश कहें या न कहें, कम-से-कम तुम सृष्टिकर्ता के समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रहे हो। अगर तुम परमेश्वर की नजरों में लापरवाह अहसान-फरामोश नहीं हो, तो यही काफी है। लोग क्या कहते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे बारे में क्या कहते हैं, वह अनिवार्य रूप से सही नहीं है, और उनका कहा उपयोगी नहीं है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को अपना आधार बनाना चाहिए। अगर परमेश्वर कहता है कि तुम एक सक्षम सृजित प्राणी हो, फिर अगर लोग तुम्हें लापरवाह अहसान-फरामोश कहें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, वे कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। बस इतना ही है कि लोग इन अपमानों से तब आहत होंगे जब उनके जमीर पर इनका असर होगा, या अगर वे सत्य को नहीं समझते, उनका आध्यात्मिक कद छोटा हो, वे थोड़ी बुरी मनःस्थिति में और थोड़ा अवसादग्रस्त हों, लेकिन जब वे परमेश्वर के समक्ष लौट आएँगे तो यह सब दूर हो जाएगा, और फिर उनके लिए इससे कोई समस्या नहीं होगी(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। मिंग हुई ने मन ही मन परमेश्वर को धन्यवाद दिया। अगर परमेश्वर ने सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति न की होती कि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे ऋणदाता नहीं हैं,” तो वह हमेशा यही मानती रहती कि चूँकि उसके माता-पिता ने उसे जन्म दिया है, उसकी पढ़ाई-लिखाई के लिए बहुत कष्ट उठाए हैं, उसे लेकर बहुत चिंतित रहे हैं, प्यार से उसकी जो परवरिश की है, वह हर चीज से बढ़कर है और बड़े होकर उन सब चीजों का बदला चुकाना चाहिए। अगर उसने ऐसा नहीं किया तो उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कारेगी, दुनिया उसे कृतघ्न और नालायक औलाद कहेगी। उसे लगता था कि अगर वह इतने बरस घर पर रहती, तो वह अपने बीमार पिता की ठीक से देखभाल कर सकती थी और माँ उसके बारे में इतनी चिंतित नहीं होती। तब शायद उसकी माँ भी बीमार नहीं पड़ती। उसे हमेशा यही लगता रहा कि उसकी माँ की बीमारी की वजह वही है। फिर उसने परमेश्वर के वचन पढ़े जिनमें लिखा है : “क्या यह तुम्हारे वश में है कि तुम्हारे माता-पिता जीवित रहें या मर जाएँ? क्या उनका अमीर या गरीब होना तुम्हारे वश में है? (नहीं।) तुम्हारे माता-पिता को जो भी रोग हो, वह इस वजह से नहीं है कि वे तुम्हें बड़ा करने में बहुत थक गए, या उन्हें तुम्हारी याद आई; वे खास तौर से कोई भी बड़ा, गंभीर और संभवतः जानलेवा रोग तुम्हारे कारण नहीं पकड़ेंगे। यह उनका भाग्य है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है।” मिंग हुई ने जाना कि हर इंसान की नियति परमेश्वर के हाथों में है। अगर कोई बीमार पड़ जाता है या उसकी मृत्यु हो जाती है तो परमेश्वर ने उसकी यह नियति बहुत पहले ही तय कर दी है। अगर इन तमाम सालों में वह हमेशा अपने माता-पिता के साथ भी रह रही होती, तो भी इससे उनकी नियति नहीं बदलती। मिंग हुई ने सोचा कि कैसे हर साल इतने सारे बुजुर्गों को, उच्च रक्तचाप के कारण मस्तिष्क रक्तस्राव हो जाता है और दिल का दौरा पड़ जाता है, वे अचानक बीमारियों से मर जाते हैं या उनके दुष्प्रभावों के कारण पक्षाघात से पीड़ित हो जाते हैं। इनमें से कुछ लोगों के बच्चे पूरे समर्पित होकर उनकी देखभाल की, लेकिन अच्छी देखभाल के बावजूद, वे अपने माता-पिता को बीमार पड़ने और मरने से बचा नहीं पाए। वे ज्यादा से ज्यादा अपने माता-पिता को इलाज के लिए तुरंत अस्पताल ले जा पाए, लेकिन इस मामले में उनका कोई दखल नहीं था कि डॉक्टर उनके माता-पिता को ठीक कर पाएँगे या नहीं। इस बात को जानकर मिंग हुई साफ तौर पर समझ गई कि उसकी माँ के इस तरह बीमार पड़ने की वजह यह नहीं थी कि वह उसे याद करती है या उसकी परवरिश करके थक गई थी। यही उसकी नियति थी। मिंग हुई को काफी राहत महसूस हुई।

हालाँकि वह समझ गई थी कि उसकी माँ की बीमारी का उससे कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन जैसे ही उसे उन तमाम चीजों का ख्याल आया जो उसकी माँ ने उसके लिए की थीं, और अब कैसे लकवाग्रस्त हो गई और उसे देखभाल की जरूरत है लेकिन वह वहाँ नहीं है, वह फिर से अपने आपको धिक्कारने लगी। उसे लगा कि वह अपनी माँ की ऋणी है। इसके तुरंत बाद उसने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े जिससे इस मामले पर उसके विचार बदल गए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “गैर-विश्वासियों की दुनिया में एक कहावत है : ‘कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं।’ एक कहावत यह भी है : ‘जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।’ ये कहावतें कितनी शानदार लगती हैं! असल में, पहली कहावत में जिन घटनाओं का जिक्र है, कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना, वे सचमुच होती हैं, वे तथ्य हैं। लेकिन वे सिर्फ पशुओं की दुनिया की घटनाएँ हैं। वह महज एक प्रकार की व्यवस्था है जो परमेश्वर ने विविध जीवित प्राणियों के लिए बनाई है, जिसका इंसानों सहित सभी जीवित प्राणी पालन करते हैं। यह तथ्य कि हर प्रकार के जीवित प्राणी इस व्यवस्था का पालन करते हैं, आगे यह दर्शाता है कि सभी जीवित प्राणियों का सृजन परमेश्वर ने किया है। कोई भी जीवित प्राणी न तो इस विधि को तोड़ सकता है, न इसके पार जा सकता है। शेर और बाघ जैसे अपेक्षाकृत खूंख्वार मांसभक्षी भी अपनी संतान को पालते हैं और वयस्क होने से पहले उन्हें नहीं काटते। यह पशुओं का सहज ज्ञान है। वे जिस भी प्रजाति के हों, खूंख्वार हों या दयालु और भद्र, सभी पशुओं में यह सहज ज्ञान होता है। इंसानों सहित सभी प्रकार के प्राणी इस सहज ज्ञान और इस विधि का पालन करके ही अपनी संख्या बढ़ा और जीवित रह सकते हैं। अगर वे इस विधि का पालन न करें, या उनमें यह विधि और यह सहज ज्ञान न हो, तो वे अपनी संख्या बढ़ाकर जीवित नहीं रह पाएँगे। यह जैविक कड़ी नहीं रहेगी, और यह संसार भी नहीं रहेगा। क्या यह सच नहीं है? (है।) कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना ठीक यही दर्शाता है कि पशु जगत इस विधि का पालन करता है। सभी प्रकार के जीवित प्राणियों में यह सहज ज्ञान होता है। संतान पैदा होने के बाद प्रजाति के नर या मादा उसकी तब तक देखभाल और पालन-पोषण करते हैं, जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती। सभी प्रकार के जीवित प्राणी शुद्ध अंतःकरण और कर्तव्यनिष्ठा से अगली पीढ़ी को पाल-पोस कर बड़ा करके अपनी संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर पाते हैं। इंसानों के साथ तो ऐसा और अधिक होना चाहिए। इंसानों को मानवजाति उच्च प्राणी कहती है—अगर इंसान इस विधि का पालन न कर सकें, और उनमें यह सहज ज्ञान न हो तो वे पशुओं से बदतर हैं, है कि नहीं? इसलिए तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बड़ा करते समय चाहे जितना भी पालन-पोषण किया हो, तुम्हारे प्रति चाहे जितनी भी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों, वे बस वही कर रहे थे जो उन्हें एक सृजित मनुष्य की क्षमताओं के दायरे में करना ही चाहिए—यह उनका सहज ज्ञान था(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। “ऊपरी तौर पर यूँ लगता है कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे दैहिक जीवन को जन्म दिया और तुम्हारे माता-पिता ने ही तुम्हें जीवन दिया। लेकिन परमेश्वर के नजरिये से और इस मामले की जड़ से, तो तुम्हें यह दैहिक जीवन माता-पिता ने नहीं दिया, क्योंकि लोग जीवन का सृजन नहीं कर सकते। सरल शब्दों में कहें, तो कोई भी इंसान मनुष्य की साँस का सृजन नहीं कर सकता। जिस कारण से प्रत्येक व्यक्ति की देह एक व्यक्ति बन पाती है वह है उसकी साँस। मनुष्य का जीवन इस साँस में है, और यह एक जीवित व्यक्ति का चिह्न है। लोगों में यह साँस और जीवन होता है, और इन चीजों का स्रोत और उद्गम उनके माता-पिता नहीं हैं। बात बस इतनी है कि लोगों का निर्माण उनके माता-पिता द्वारा उन्हें जन्म देने के जरिए हुआ—मूल में, यह परमेश्वर ही है जो लोगों को ये चीजें देता है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं, तुम्हारे जीवन का विधाता परमेश्वर है। परमेश्वर ने मानवजाति को रचा, उसी ने मानवजाति के जीवन का सृजन किया, और उसी ने मानवजाति को जीवन की साँस दी, जोकि मनुष्य के जीवन का उद्गम है। इसलिए, क्या ‘तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं’ पंक्ति समझने में आसान नहीं है? तुम्हारी साँस तुम्हारे माता-पिता ने नहीं दी, न यह साँस उनके कारण जारी है। परमेश्वर तुम्हारे जीवन के प्रत्येक दिन की देखभाल करता है और उस पर राज करता है। तुम्हारे माता-पिता फैसला नहीं कर सकते कि तुम्हारा प्रत्येक दिन कैसा बीतता है, हर दिन खुशहाल और आसान है या नहीं, तुम हर दिन किससे मिलते हो, या हर दिन कैसे माहौल में जीते हो। बात बस इतनी है कि परमेश्वर तुम्हारे माता-पिता के जरिए तुम्हारी देखभाल करता है—तुम्हारे माता-पिता बस वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ने तुम्हारी देखभाल के लिए भेजा। जब पैदा होने पर तुम्हें जीवन देने वाले तुम्हारे माता-पिता नहीं थे, तो जिस जीवन के कारण तुम अब तक जीवित हो, वो क्या तुम्हारे माता-पिता ने दिया है? ऐसा नहीं है। तुम्हारे जीवन का उद्गम अभी भी परमेश्वर ही है, तुम्हारे माता-पिता नहीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मिंग हुई ने राहत की सांस ली। जैसा कि परमेश्वर ने कहा है, यह तथ्य है कि “कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं,” लेकिन यह तथ्य तो यही साबित करता है कि प्राकृतिक संसार के सभी जानवर अपने बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे हैं। यही व्यवस्था तो परमेश्वर ने सभी जीवों के लिए बनाई है। खूंखार बाघ या शेर भी अपने नन्हे बच्चों को जब तक वे बड़े और आत्मनिर्भर नहीं हो जाते, तब तक उनकी रक्षा और पालन-पोषण करते हैं। यही व्यवस्था परमेश्वर ने उनके लिए बनाई है और यही उनकी सहज प्रवृत्ति भी है। मनुष्य दिल और आत्मा सहित अन्य जानवरों की तुलना में अधिक उन्नत प्रजाति है, उसे तो यह बेहतर ढंग से पता होना चाहिए कि इस व्यवस्था का पालन कैसे करना है। माता-पिता अपने बच्चों के लिए चाहे कोई भी कितनी कीमत चुकाएँ, वे केवल अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे होते हैं, इसे करुणा कतई नहीं कहा जा सकता। मिंग हुई ने देखा कि पहले वह “कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं” कहावत को इस ढंग से समझती थी जो सच्चाई से मेल नहीं खाता था। उसे लगता था कि इसका मतलब यह है कि जानवर भी अपनी परवरिश के लिए अपने माता-पिता की करुणा का बदला चुकाना जानते हैं, और अगर वह ऐसा न कर पाई तो यह एक जानवर से भी बदतर होना है। ऐसी समझ गलत थी और परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं थी। अगर उसके माता-पिता ने उसे जन्म दिया है, पाला-पोसा है और उसे भोजन, कपड़े और शिक्षा प्रदान की है तो माता-पिता के तौर पर इन जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करना भी उनका फर्ज है। उसे हमेशा अपने माता-पिता का ऋणी महसूस नहीं करना चाहिए, फिर उनकी करुणा का बदला चुकाने की सोचना तो दूर की बात है। सांसारिक दृष्टि से तो उसके माता-पिता ने उसे जन्म देकर उसका पालन-पोषण किया है, लेकिन यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया गया है। माता-पिता अपने बच्चों के जीवन की देखभाल करते हैं और उन्हें बड़ा करते हैं, लेकिन जहाँ तक उनके बच्चों की नियति के अच्छे और बुरे होने का सवाल है, उनके बच्चों के साथ क्या कुछ घटेगा या उनके साथ कब दुर्घटनाएँ घटेंगी, यह सब उनके हाथ में नहीं होता। मिंग हुई को अचानक वह समय याद आ गया जब वह पाँच-छह साल की थी, जब वह अपने से दो साल बड़ी बहन के साथ नदी के किनारे खेलने गई थी और वह दुर्घटनावश एक गहरी खाई में जा गिरी थी। बहुत सारा पानी निगल गई थी और डूबते-डूबते बची थी। रोते हुए उसकी बहन ने उसे खाई से बाहर निकाला था। हालाँकि उस समय वह परमेश्वर में विश्वास नहीं रखती थी, अगर परमेश्वर की उस पर नजर न होती और वह उसकी सुरक्षा न कर रहा होता, तो काफी पहले ही उसकी सांसें बंद होकर उसकी जीवन लीला समाप्त हो गई होती। चाहे उसके माता-पिता उससे कितना भी प्यार करते हों, उनका इस पर कोई नियंत्रण नहीं था कि वह जीवित रहेगी या मर जाएगी। अगर वह आज जिंदा है तो यह पूरी तरह से परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा का परिणाम है। उसे यह सोचना चाहिए कि वह परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान कैसे दे और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य कैसे निभाए; जिस व्यक्ति मेंं अंतरात्मा और विवेक हो, उसे यही करना चाहिए।

इसके तुरंत बाद मिंग हुई ने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “सृष्टिकर्ता की मौजूदगी में, तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम्हें इस जीवन में जो करना चाहिए वह सिर्फ अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना नहीं, बल्कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाना भी है। तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ सिर्फ परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर पूरी कर सकते हो, अपनी भावनाओं या अपने जमीर की जरूरतों के आधार पर काम करके नहीं। ... बेशक, कुछ लोग कहेंगे : ‘तुमने जो बातें कही हैं वे सब तथ्य हैं, मगर मुझे लगता है कि यूँ कार्य करना बड़ी बेरुखी है। मेरा जमीर हमेशा मुझे फटकारता हुआ लगता है, मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता।’ अगर तुम बर्दाश्त नहीं कर सकते, तो बस अपनी भावनाओं को संतुष्ट करो; अपने माता-पिता के साथ चलो, उनके करीब रहो, उनकी सेवा करो, संतानोचित रहो और वे सही कहें या गलत, उनकी बात मानो—उनकी छोटी-सी दुम और एक सहायक बन जाओ, ये सब ठीक है। इस तरह, कोई भी तुम्हारी पीठ पीछे आलोचना नहीं करेगा, और तुम्हारा विस्तारित परिवार भी कहेगा कि तुम बड़े संतानोचित हो। फिर भी अंत में तुम्हें ही नुकसान होगा। तुमने एक संतानोचित बच्चे के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखी है, तुमने अपनी भावनात्मक जरूरतें पूरी की हैं, तुम्हारे जमीर ने कभी भी दोषी महसूस नहीं किया है, और तुमने अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाया है, लेकिन एक चीज है जिसकी तुमने अनदेखी की है, और जिसे तुमने खो दिया है : तुम इन तमाम मामलों के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश नहीं आए, उन्हें उनके अनुसार नहीं संभाला, और तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने का अवसर गँवा चुके हो। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि तुम अपने माता-पिता के प्रति तो संतानोचित रहे, मगर परमेश्वर को धोखा दे दिया। तुमने संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाई और अपने माता-पिता की देह की भावनात्मक जरूरतें पूरी कीं, मगर तुमने परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया। तुम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के बजाय एक संतानोचित बच्चा बनना चुनते हो। यह परमेश्वर का सबसे बड़ा तिरस्कार है। तुम संतानोचित हो, तुमने अपने माता-पिता को निराश नहीं किया है, तुम्हारे पास जमीर है, और तुम एक बच्चे के तौर पर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करते हो, सिर्फ इन कारणों से परमेश्वर नहीं कहेगा कि तुम उसके प्रति समर्पण करने वाले वह व्यक्ति हो जिसके पास मानवता है। अगर तुम सिर्फ अपने जमीर और अपनी देह की भावनात्मक जरूरतें पूरी करते हो, मगर इस मामले के साथ पेश आने या उसे संभालने के किए परमेश्वर के वचनों या सत्य को आधार और सिद्धांतों के रूप में स्वीकार नहीं करते, तो तुम परमेश्वर के प्रति अत्यधिक विद्रोहशीलता दिखाते हो। अगर तुम एक योग्य सृजित प्राणी बनना चाहते हो, तो तुम्हें पहले सभी चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना और करना चाहिए। इसे योग्यता प्राप्त, मानवता युक्त और जमीर वाला होना कहते हैं। इसके विपरीत, अगर तुम इस मामले से पेश आने और इसे संभालने के लिए सिद्धांतों और आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करते, और तुम बाहर जा कर अपने कर्तव्य निभाने की परमेश्वर की बुलाहट को नहीं स्वीकार नहीं करते हो, या तुम अपने माता-पिता के साथ रहने, उनका साथ देने, उन्हें खुशी देने और उन्हें उनकी जीवन संध्या का आनंद लेने देने, उनकी दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए अपना कर्तव्य निभाने में देर करते हो या वह मौका छोड़ देते हो, तो परमेश्वर कहेगा कि तुममें मानवता या जमीर नहीं है। तुम एक सृजित प्राणी नहीं हो, और वह तुम्हें नहीं पहचानेगा(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। मिंग हुई को याद आया कि पहली बार कलीसिया अगुआ ने उसे एक पत्र लिखकर पूछा था कि क्या वह अपने कर्तव्य-निर्वहन के लिए घर छोड़ सकती है। सबसे पहले उसे यह ख्याल आया कि बरसों से वह अपने माता-पिता की ऋणी है। वह पहले ही अपने पिता की ऋणी है जिनके लिए वह कुछ नहीं कर पाई। अगर उसने अपनी माँ को भी यूँ ही छोड़ दिया तो खुद को क्या मुँह दिखाएगी। उसकी अंतरात्मा को थोड़ी तसल्ली मिले और पड़ोसी कहें कि वह एक अच्छी बेटी है, उसने अपना कर्तव्य अस्वीकार कर दिया और माँ की देखभाल के लिए घर पर ही रही। उसका मानना था कि विवेक और इंसानियत रखने वाला व्यक्ति होने का यही मतलब है। परमेश्वर के वचनों से उसने समझा कि एक सृजित प्राणी के रूप में जिसने परमेश्वर द्वारा दी गई सांसें लीं और जो कुछ उसने प्रदान किया है उसका आनंद उठाया, उसे परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देना चाहिए। लेकिन जब कलीसिया को कर्तव्य-निर्वहन के लिए उसकी आवश्यकता थी, तो उसने अपनी माँ की देखभाल के लिए उसे अस्वीकार कर दिया। भले ही वह अपनी माँ का बहुत ख्याल रखे और लोग उसके एक अच्छी बेटी होने के लिए उसकी प्रशंसा करें, लेकिन वह सृष्टिकर्ता के सामने एक विवेकशून्य या मानवता-रहित इंसान ही कहलाएगी। यह ख्याल आते ही मिंग हुई को खुद से नफरत हुई और सोचने लगी, “अगर मैं परमेश्वर में विश्वास न रखती और उसके वचन न पढ़ती तो क्षमा कर दी जाती। लेकिन इतने बरस परमेश्वर में विश्वास रखने और उसके ढेरों वचन पढ़ने के बाद भी मेरे विचार गैर-विश्वासियों जैसे हैं। क्या मैं छद्म-विश्वासी नहीं हूँ? प्रभु यीशु का अनुसरण करने, स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाने और कलीसियाओं की देखभाल करने के लिए, पतरस ने अपने माता-पिता और अपने परिवार का त्याग कर दिया था। ऐसी विदेशी मिशनरियाँ भी थीं जो अपने परिवारों को छोड़कर और समुद्र पार कर चीन आ गईं और प्रभु यीशु के स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार हम तक फैलाया। उनके भी तो माता-पिता, बच्चे और रिश्तेदार थे। लेकिन उन्होंने अपने परिवार, अपने माता-पिता और बच्चों की नहीं सोची, बल्कि यह सोचा कि परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील कैसे रहा जाए, यह सोचा कि उन लोगों को परमेश्वर के सामने कैसे लाया जाए जो पाप में जी रहे हैं और शैतान ने जिन्हें बहुत नुकसान पहुँचाया है ताकि वे परमेश्वर द्वारा उद्धार को स्वीकारें। उन लोगों में विवेक और मानवता थी। अब अंत के दिन आ चुके हैं और परमेश्वर का कार्य समाप्त होने वाला है। कोरोना वायरस, बाढ़, युद्ध और सभी प्रकार की आपदाएँ हम पर आ पड़ी हैं। अभी भी ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने अभी तक अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य का सुसमाचार नहीं सुना है। इन लोगों पर किसी भी वक्त आपदा में खो जाने का खतरा मंडरा रहा है। अब जबकि मुझे अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाने का अवसर मिला है— क्या यह सबसे उचित और सार्थक बात नहीं है? जिस किसी में भी इंसानियत है, उस व्यक्ति को यह कार्य करना चाहिए! इससे क्या फर्क पड़ता है कि लोग मेरी कितनी प्रशंसा करते हैं? एक सृजित प्राणी के रूप में, केवल अपना कर्तव्य निभाना और सृष्टिकर्ता की स्वीकृति प्राप्त करना ही सबसे महत्वपूर्ण है।” मिंग हुई ने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अपनी समस्या के बारे में और अधिक ज्ञान प्राप्त किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “चीनी परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन के कारण चीनी लोगों की परंपरागत धारणाओं में यह माना जाता है कि लोगों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए। जो भी संतानोचित निष्ठा का पालन नहीं करता, वह कपूत होता है। ये विचार बचपन से ही लोगों के मन में बिठाए गए हैं, और ये लगभग हर घर में, साथ ही हर स्कूल में और बड़े पैमाने पर पूरे समाज में सिखाए जाते हैं। जब किसी व्यक्ति का दिमाग इस तरह की चीजों से भर जाता है, तो वह सोचता है, ‘संतानोचित निष्ठा किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं इसका पालन नहीं करता, तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ—मैं कपूत हूँ और समाज मेरी निंदा करेगा। मैं ऐसा व्यक्ति हूँगा, जिसमें जमीर नहीं है।’ क्या यह नजरिया सही है? लोगों ने परमेश्वर द्वारा व्यक्त इतने अधिक सत्य देखे हैं—क्या परमेश्वर ने अपेक्षा की है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाए? क्या यह कोई ऐसा सत्य है, जिसे परमेश्वर के विश्वासियों को समझना ही चाहिए? नहीं, यह ऐसा सत्य नहीं है। परमेश्वर ने केवल कुछ सिद्धांतों पर संगति की है। परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, और तुम्हें परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं छोड़ता; तुम शैतान की इन चीजों के वश में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं रहे। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में खलल पैदा करती हैं, इनके कारण तुम सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करने लगते हो, और तुममें इतनी शक्ति नहीं रहती कि अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंक सको। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने को महत्वपूर्ण नहीं समझते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं लोगों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के आरोप-प्रत्यारोप झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो, और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उन्हें परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है? कुछ लोगों ने बरसों से परमेश्वर पर विश्वास किया है, फिर भी उनके पास संतानोचित निष्ठा के मामले में कोई अंतर्दृष्टि नहीं है। वे वास्तव में सत्य को नहीं समझते। वे कभी भी सांसारिक संबंधों की बाधा नहीं तोड़ सकते; उनमें न साहस होता है न ही आत्मविश्वास, संकल्प होना तो दूरी की बात है, इसलिए वे परमेश्वर से प्रेम नहीं कर सकते, उसकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। पल भर में ही परमेश्वर के वचनों ने मिंग हुई के हृदय को रोशन कर दिया। उसने जान लिया कि माँ की देखभाल की वजह से कर्तव्य-निर्वहन को नकारना पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा और प्रभाव का नतीजा था जो शैतान ने उसमें डाला था। वह “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए,” “तुम्हारे माता-पिता तुम्हें इसलिए बड़ा करते हैं ताकि उनके बूढ़े होने पर तुम उनकी देखभाल कर सको,” और “अपने माता-पिता के जीवित रहते दूर की यात्रा मत करो।” जैसे शैतानी जहर के अनुसार जी रही थी। बचपन से ही वह अक्सर लोगों की ऐसी टिप्पणियाँ सुनती थी, “अमुक का बच्चा बहुत लायक है; वह अपने माता-पिता की देखभाल करता है और उनकी करुणा का कर्ज चुकाना जानता है। वह वाकई विवेकशील है! जबकि अमुक का बच्चा नालायक है। उसके माता-पिता बीमार पड़ गये लेकिन उसने उनकी कोई परवाह नहीं की। कितना कृतघ्न बेटा है। उसने अपनी आत्मा बेच खाई है!” ऐसी बातें मिंग हुई के दिलो-दिमाग में पहले से ही भर दी गई थीं। उसने अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार को प्राथमिकता दी, उसने सोचा चूँकि उसकी माँ बीमार है, इसलिए बेटी होने के नाते उसे उसकी सेवा के लिए उसके पास रहना चाहिए। अगर वह अपनी माँ के पास नहीं रहती, तो इसका मतलब है कि वह नालायक बेटी है। उसे डर था कि पड़ोसी उसे कृतघ्न बेटी कहेंगे जिसमें मानवता नहीं है, यही सोचकर उसने अपने कर्तव्य-निर्वहन को अस्वीकार कर दिया। बाद में भले ही उसने फिर से अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर दिया, लेकिन उसमें अपनी माँ के प्रति कृतज्ञता का भाव रहा। उसे एहसास हुआ कि वह इस शैतानी जहर में बुरी तरह जकड़ी हुई है। उस वक्त मिंग हुई को ख्याल आया कि उसकी माँ तो छद्म-विश्वासी है। पिछले साल माँ अपनी बीमारी को झेल न पाने की वजह से बुरी आत्माओं की पूजा-पाठ में लग गई थी। केवल इतना ही नहीं कि मिंग हुई उस चीज से प्रेम न कर सकी जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे नफरत न कर सकी जिससे परमेश्वर को नफरत थी, बल्कि उसने माँ के प्रति अपने सरोकार को भी अपने कर्तव्य पर हावी होने दिया। क्या यह अच्छाई और बुराई में और सही-गलत में अंतर करने में असमर्थ होना नहीं था? मिंग हुई को अपने अंधेपन और अज्ञान से नफरत हो गई! उसने यह सोचकर एक आह भरी, “शुक्र है कि परमेश्वर ने ये वचन व्यक्त किये और बताया कि हमें अपने माता-पिता को लेकर किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। केवल इसी वजह से मैं माँ के प्रति अपने ऋणी होने का भाव त्यागकर अपने कर्तव्य पर ध्यान दे सकती हूँ। वरना तो इस जीवनकाल में मैं केवल उसी पारंपरिक सोच के कब्जे में रहती जो शैतान ने मुझमें भर दी है और मेरा मन अपने कर्तव्य-निर्वहन के प्रति कभी उन्मुख न होता। और अंत में मैं बचाए जाने का मौका गँवाकर दयनीय अवस्था में पहुँच जाती।”

मिंग हुई ने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े और सीखा कि अपने माता-पिता से कैसे पेश आना चाहिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “पहले तो ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने को कुछ हद तक व्यापक वस्तुपरक हालात के कारण चुनते हैं जिससे उनका अपने माता-पिता को छोड़ना जरूरी हो जाता है; वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिए उनके साथ नहीं रह सकते; ऐसा नहीं है कि वे स्वेच्छा से अपने माता-पिता को छोड़ना चुनते हैं; यह वस्तुपरक कारण है। दूसरी ओर, व्यक्तिपरक ढंग से कहें, तो तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर इसलिए नहीं जाते कि तुम अपने माता-पिता को छोड़ देना चाहते हो और अपनी जिम्मेदारियों से बचकर भागना चाहते हो, बल्कि परमेश्वर की बुलाहट की वजह से जाते हो। परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करने, उसकी बुलाहट स्वीकार करने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास अपने माता-पिता को छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं था; तुम उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ नहीं रह सकते थे। तुमने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें नहीं छोड़ा, सही है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना और परमेश्वर की बुलाहट का जवाब देने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें छोड़ना—क्या इन दोनों बातों की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं? (बिल्कुल।) तुम्हारे हृदय में तुम्हारे माता-पिता के प्रति भावनात्मक लगाव और विचार जरूर होते हैं; तुम्हारी भावनाएँ खोखली नहीं हैं। अगर वस्तुपरक हालात अनुमति दें, और तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए भी उनके साथ रह पाओ, तो तुम उनके साथ रहने को तैयार होगे, नियमित रूप से उनकी देखभाल करोगे और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करोगे। लेकिन वस्तुपरक हालात के कारण तुम्हें उनको छोड़ना पड़ता है; तुम उनके साथ नहीं रह सकते। ऐसा नहीं है कि तुम उनके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते हो, बल्कि तुम नहीं निभा सकते हो। क्या इसकी प्रकृति अलग नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुमने संतानोचित होने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने से बचने के लिए घर छोड़ दिया था, तो यह असंतानोचित होना है और यह मानवता का अभाव दर्शाता है। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, लेकिन तुम अपने पंख फैलाकर जल्द-से-जल्द अपने रास्ते चले जाना चाहते हो। तुम अपने माता-पिता को नहीं देखना चाहते, और उनकी किसी भी मुश्किल के बारे में सुनकर तुम कोई ध्यान नहीं देते। तुम्हारे पास मदद करने के साधन होने पर भी तुम नहीं करते; तुम बस सुनाई न देने का बहाना कर लोगों को तुम्हारे बारे में जो चाहें कहने देते हो—तुम बस अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह असंतानोचित होना है। लेकिन क्या स्थिति अभी ऐसी है? (नहीं।) बहुत-से लोगों ने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपनी काउंटी, शहर, प्रांत और यहाँ तक कि अपने देश तक को छोड़ दिया है; वे पहले ही अपने गाँवों से बहुत दूर हैं। इसके अलावा, विभिन्न कारणों से उनके लिए अपने परिवारों के साथ संपर्क में रहना सुविधाजनक नहीं है। कभी-कभी वे अपने माता-पिता की मौजूदा दशा के बारे में उसी गाँव से आए लोगों से पूछ लेते हैं और यह सुन कर राहत महसूस करते हैं कि उनके माता-पिता अभी भी स्वस्थ हैं और ठीक गुजारा कर पा रहे हैं। दरअसल, तुम असंतानोचित नहीं हो; तुम मानवता न होने के उस मुकाम पर नहीं पहुँचे हो, जहाँ तुम अपने माता-पिता की परवाह भी नहीं करना चाहते, या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह विभिन्न वस्तुपरक कारणों से है कि तुम्हें यह चुनना पड़ा है, इसलिए तुम असंतानोचित नहीं हो। ये वे दो कारण हैं। ... इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने और अनेक सत्य सुनने के बाद, लोगों में कम-से-कम इतनी समझ-बूझ तो है : मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है, मनुष्य परमेश्वर के हाथों में जीता है, और परमेश्वर द्वारा मिलने वाली देखभाल और रक्षा, अपने बच्चों की चिंता, संतानोचित धर्मनिष्ठा या साथ से कहीं ज्यादा अहम है। क्या तुम इस बात से राहत महसूस नहीं करते हो कि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर की देखभाल और रक्षा के अधीन हैं? तुम्हें उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम चिंता करते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते; उसमें तुम्हारी आस्था बहुत थोड़ी है। अगर तुम अपने माता-पिता के बारे में सचमुच चिंतित और विचारशील हो, तो तुम्हें अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उन्हें परमेश्वर के हाथों में सौंप देना चाहिए, और परमेश्वर को हर चीज का आयोजन और व्यवस्था करने देनी चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। “एक बच्चे के तौर पर तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें इस जीवन में करनी हैं, ये सब ऐसी चीजें हैं जो एक सृजित प्राणी को करनी ही चाहिए, जो तुम्हें सृष्टि प्रभु ने सौंपी हैं, और इनका तुम्हारे माता-पिता को दयालुता का कर्ज चुकाने के साथ कोई लेना-देना नहीं है। अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना, उनकी दयालुता का बदला चुकाना—इन चीजों का तुम्हारे जीवन के उद्देश्य से कोई लेना-देना नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारे लिए अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना या उनके प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी पूरी करना जरूरी नहीं है। दो टूक शब्दों में कहें, तो तुम्हारे हालात इजाजत दें, तो तुम यह थोड़ा-बहुत कर सकते हो और अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो; जब हालात इजाजत न दें, तो तुम्हें ऐसा करने पर अड़ना नहीं चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने की जिम्मेदारी पूरी न कर सको, तो यह कोई भयानक बात नहीं है, बस यह तुम्हारे जमीर, मानवीय नैतिकता और मानवीय धारणाओं के थोड़ा खिलाफ है। मगर कम-से-कम यह सत्य के विपरीत नहीं है, और परमेश्वर इसे लेकर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। जब तुम सत्य को समझ लेते हो, तो इसे लेकर तुम्हारे जमीर को फटकार महसूस नहीं होगी(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों से मिंग हुई को एहसास हुआ कि इन वर्षों में घर पर रहकर अपने माता-पिता की देखभाल न कर पाने की मुख्य वजह कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा उत्पीड़न और गिरफ्तारियाँ थीं। मजबूरी के कारण उसे घर पर रहकर अपने माता-पिता की देखभाल करने का मौका गँवाना पड़ा; ऐसा नहीं था कि वह जानबूझकर उनका सहारा बनने और अपनी जिम्मेदारी निभाने से बच रही थी। अब उसका एक आपराधिक रिकॉर्ड बन चुका था, पुलिस जब चाहे उसके घर जाकर उसे परेशान करती और उसके ठौर-ठिकाने पर नजर रखती। उसके लिए परमेश्वर में विश्वास रखना और घर पर रहकर कर्तव्य-निर्वहन करना संभव नहीं रह गया था, तो उसके पास घर छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। एक सृजित प्राणी के रूप में एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करने से अधिक महत्वपूर्ण था। यह उसके जीवन का सबसे उचित काम था, यह कहने की जरूरत नहीं कि यह उसका मिशन था। परमेश्वर के वचनों से मिंग हुई को अभ्यास का एक मार्ग मिल गया। अगर परिस्थितियाँ अनुकूल होतीं और उसे घर पर रहने और अपनी माँ की देखभाल करने का मौका मिलता, तो वह एक बेटी के तौर पर अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभाते हुए माँ की देखभाल कर सकती थी। लेकिन अगर परिस्थितियाँ अनुकूल न हों तो खुद को धिक्कारने की कोई आवश्यकता नहीं। बच्चों और माता-पिता का एक-दूसरे पर कुछ बकाया नहीं होता। इस बात को समझ लेने पर मिंग हुई को एक सुकून का एहसास हुआ। मन ही मन उसने परमेश्वर को धन्यवाद दिया। परमेश्वर के वचनों से उसने साफ तौर पर देख लिया कि पारंपरिक संस्कृति लोगों को कैसे नुकसान पहुँचाती है और समझ लिया कि एक सृजित प्राणी के रूप में केवल अपना कर्तव्य निभाने में ही जीवन की सार्थकता है और यही चीजें किसी व्यक्ति को एक ऐसा इंसान बनाती हैं जिसमें विवेक और मानवता हो। आने वाले दिनों में मिंग हुई पूरी लगन से अपने कर्तव्य-निर्वहन में लग गई।

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