मुझे अपनी माँ की दयालुता से कैसे पेश आना चाहिए?
शू जुआन, चीनमेरा जन्म एक किसान परिवार में हुआ था और हमारी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। जब मैं पाँच साल की थी तो मेरे पापा हमें छोड़कर...
हम परमेश्वर के प्रकटन के लिए बेसब्र सभी साधकों का स्वागत करते हैं!
मैं एक गरीब किसान परिवार में पली-बढ़ी। मेरे माता-पिता ने मुझे तब गोद लिया जब वे लगभग 40 साल के थे। जब से मैं समझने लायक हुई, मैंने अपने माता-पिता को हमारे परिवार के पालन-पोषण के लिए पैसे कमाने की कड़ी मेहनत करते देखा। मेरे पिता साल भर काम करने के लिए पौ फटने से पहले उठ जाते थे, और जून की चिलचिलाती धूप में बाहर काम करके मेरी पढ़ाई के लिए पैसे कमाते थे। मेरी माँ भी वैसी ही थीं। जब वे बीमार होतीं, तो इलाज पर पैसा खर्च करना उन्हें गवारा नहीं था; वे हर दिन खरगोश पालने के लिए खड्ड में जाकर सूखी घास काटतीं, ताकि मेरी ट्यूशन फीस के लिए पैसे कमा सकें। मैं अपने माता-पिता की दुर्दशा से बहुत दुखी थी, इसलिए मैंने ठान लिया कि बड़े होकर मैं उनकी सेवा करूँगी। जब मैं बड़ी हुई, तो मैं अक्सर खुद से कहती थी कि मैं “जब संतान सेवा करना चाहती है, तब तक माता-पिता नहीं रहते”, इस स्थिति से बचकर रहूँ। मैंने खुद से कहा कि मुझे अपने माता-पिता की सेवा करनी है, मुझे अपने माता-पिता की सेवा करने के मामले में कोई मलाल बाकी नहीं रहने देना है। बाद में, मैंने अपने माता-पिता की इच्छा के अनुसार उस व्यक्ति को छोड़ दिया जिससे मैं प्यार करती थी और अपने वर्तमान पति को चुना, जो मेरे परिवार के साथ रहने आ गए।
2011 में, मेरे पिता का अचानक निधन हो गया। वे चले गए, इससे पहले कि मुझे उनकी सेवा करने का मौका मिलता। मैंने सोचा, “चाहे कितनी भी मुश्किल या कठिनाई क्यों न हो, मैं अपनी माँ की ठीक से सेवा करूँगी। अब और कोई पछतावा नहीं होना चाहिए।” मैं अक्सर अपनी माँ के लिए पोषक पूरक और अन्य चीजें खरीदती थी। 2012 में, मेरी माँ ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के सुसमाचार का प्रचार किया। छह महीने बाद, मैं अक्सर सभाओं के लिए बाहर जाने लगी और अपना कर्तव्य निभाने लगी। मेरे पति ने मुझे सुसमाचार सुनाने के लिए मेरी माँ की दबे-छिपे और खुले तौर पर आलोचना की, और यहाँ तक कि जानबूझकर मेरे सामने मेरी माँ का मज़ाक उड़ाया और उनका उपहास किया। मैं इतनी नाराज़ हुई कि मैंने अपने पति को डाँटा, और हर बार जब ऐसा होता, तो मैं अपनी माँ को दर्द और लाचारी में छिपते हुए देखती। बाद में, मेरे पति का मुझ पर उत्पीड़न बढ़ गया और उन्होंने मुझे मारा-पीटा और डाँटा भी। मेरी माँ ने भी मेरे साथ जली-कटी सुनी और दर्द सहा, और मुझे लगा कि मैं अपनी माँ की बहुत कर्जदार हूँ। 2015 के अंत में, मुझे एक प्रचारक के रूप में चुना गया। एक बार, मैं अपने कर्तव्यों में इतनी व्यस्त थी कि मैं लगभग एक हफ्ते तक घर नहीं गई। मेरे पति ने रिश्तेदारों के साथ मिलकर मेरी माँ के लिए परेशानी खड़ी की, और कलीसिया में अगुआओं और कार्यकर्ताओं की शिकायत करने की धमकी भी दी। मुझे माहौल को सुरक्षित रखने के लिए अपना कर्तव्य निभाना बंद करने और घर जाने के लिए मजबूर किया गई। घर लौटने के बाद, मेरे पति ने काम करना बंद कर दिया और मुझ पर नज़र रखने के लिए घर पर ही रहने लगे। मुझे इससे पूरी तरह से घृणा महसूस हुई, लेकिन मैंने अपनी माँ के सामने उनसे बहस करने की हिम्मत नहीं की। मैं इसे केवल अंदर-ही-अंदर घुटकर सह सकती थी। मैंने सोचा कि जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया है, मेरे पति ने लगातार मेरी माँ को अपमानित किया है और उनका मजाक उड़ाया है और मैं इतनी व्यथित महसूस कर रही थी, जैसे मेरा दिल कुचला जा रहा हो। मुझे लगा कि मैं न केवल अपनी माँ को उनके बुढ़ापे का आनंद नहीं लेने दे रही हूँ, बल्कि मैं उन्हें बहुत दुख और दर्द भी दे रही हूँ। नतीजतन, मुझमें अब बाहर जाकर अपना कर्तव्य निभाने का संकल्प नहीं रहा। मेरी माँ ने मेरे साथ संगति की, यह कहते हुए कि मुझे इस माहौल का अनुभव करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, लेकिन मुझे चिंता थी कि अगर मैं फिर से अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाहर गई तो मेरे पति मुझे फिर से सताएँगे और मुझे नहीं पता था कि मेरी माँ को और कितने दुख सहने पड़ेंगे। इसलिए मैं घर पर ही रही और मेरी दशा बद से बदतर होती गई। बाद में मेरे भाई-बहनों ने मेरे बच्चे से मुझे एक संदेश देने के लिए कहा, मुझे याद दिलाया कि इस तरह के माहौल में परमेश्वर से प्रार्थना करूँ और उस पर और अधिक भरोसा करूँ। मैं रोई और परमेश्वर से प्रार्थना की। परमेश्वर के वचनों ने मुझे प्रबुद्ध किया और मेरा मार्गदर्शन किया और मैंने अपना संकल्प फिर से पा लिया। बाद में परमेश्वर ने मेरे लिए एक रास्ता खोल दिया। मेरे पति को उनकी भर्ती करने वाली कंपनी ने काम पर वापस जाने के लिए सूचित किया और मैं फिर से सभाओं में जा सकती थी। जल्द ही मैं फिर से एक अगुआ का कर्तव्य निभा रही थी और जब भी मेरे पास खाली समय होता, मैं अपनी माँ के साथ परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करती और परमेश्वर में आस्था प्राप्त करती।
2016 में जिस बहन के साथ मैं सहयोगी थी, उसे गिरफ्तार कर लिया गया। हम पड़ोसी भी थे और इसलिए मेरी सुरक्षा को भी खतरा था। मुझे घर छोड़कर छिपना पड़ा। मैंने अपने पति के साथ छिपने के लिए दूर जाने पर चर्चा की, लेकिन अविश्वसनीय रूप से मेरे घर छोड़ने के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने पुलिस स्टेशन जाकर परमेश्वर में विश्वास करने और घर छोड़ने के लिए मेरी शिकायत कर दी। पुलिस ने मेरी जाँच शुरू कर दी, इसलिए मैं घर जाने में और भी असमर्थ हो गई। मैंने भविष्य में घर न जा पाने और अपनी माँ को न देख पाने के बारे में सोचा—मैं उनकी देखभाल कैसे करूँगी और उनकी सेवा कैसे करूँगी? मेरे पिता का निधन हो चुका था और मेरे पति हमें इस तरह सता रहे थे। मेरे जाने के बाद मुझे नहीं पता था कि वह मेरी माँ के साथ किस तरह का दुर्व्यवहार करेंगे। मैं अपनी माँ की एकमात्र रिश्तेदार हूँ। उनके साथ मेरे नहीं होने पर वे बहुत दुखी होंगी और उन्हें यह असहनीय लगता होगा। लेकिन अगर मैं घर जाने पर गिरफ्तार हो गई तो क्या मैं अडिग रह पाऊँगी? मेरा दिल दर्द और संघर्ष से तड़प रहा था, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे विनती की कि इस माहौल का अनुभव करते समय वह मेरा मार्गदर्शन करे। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “कोई व्यक्ति हर दिन कहाँ जाएगा, क्या करेगा, किस व्यक्ति या चीज से उसका सामना होगा, वह क्या कहेगा और उसके साथ क्या होगा—क्या लोग इनमें से किसी चीज की भविष्यवाणी कर सकते हैं? कहा जा सकता है कि लोग न केवल इन सभी घटनाओं का पूर्वानुमान नहीं लगा सकते, बल्कि उससे भी अधिक, वे इस बात पर नियंत्रण नहीं कर सकते कि ये चीजें किस प्रकार विकसित होंगी। लोगों के दैनिक जीवन में ऐसी अप्रत्याशित घटनाएँ हर समय घटती हैं; ये आम घटनाएँ हैं। इन ‘दैनिक जीवन के तुच्छ मामलों’ की घटनाएँ और उनके विकास के साधन और नियमितता मानव जाति को लगातार याद दिलाते हैं कि कुछ भी संयोग से नहीं होता है और प्रत्येक घटना के विकास की प्रक्रिया और प्रत्येक घटना की अपरिहार्यता मनुष्य की इच्छा से बदली नहीं जा सकती। हर घटना का घटित होना सृष्टिकर्ता की ओर से मानवजाति को एक चेतावनी होती है और वह यह सन्देश भी देती है कि मनुष्य अपने भाग्य को खुद नियन्त्रित नहीं कर सकते। साथ ही, यह अपने भाग्य को अपने हाथों में लेने की मानवजाति की व्यर्थ महत्वाकांक्षा और इच्छा का खंडन भी है। यह खंडन एक जोरदार तमाचे जैसा है जो मानवजाति पर बार-बार पड़ता है और यह लोगों को यह आत्मचिंतन करने के लिए बाध्य करता है कि वास्तव में वो कौन है जो उनके भाग्य पर संप्रभुता रखता है और इसे नियन्त्रित करता है। और चूँकि उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ लगातार धराशायी होती हैं और बिखर जाती हैं, इसलिए लोग अनजाने में भाग्य की व्यवस्था के अनुरूप ढलने और वास्तविकता, स्वर्ग की इच्छा और सृष्टिकर्ता की संप्रभुता स्वीकारने से नहीं बच सकते। ‘दैनिक जीवन के तुच्छ मामलों’ के बार-बार घटित होने से लेकर सभी मनुष्यों के समस्त जीवन के भाग्य तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को प्रकट न करता हो; ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह सन्देश न देता हो कि ‘सृष्टिकर्ता के अधिकार से परे नहीं जाया जा सकता,’ जो इस अपरिवर्तनीय सत्य को व्यक्त न करता है कि ‘सृष्टिकर्ता का अधिकार सर्वोच्च है’” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया तो मुझे एहसास हुआ कि प्रत्येक दिन घटित होने वाली हर चीज पर परमेश्वर संप्रभु है; लोग इन चीजों की भविष्यवाणी या इन्हें खुद नियंत्रित नहीं कर सकते। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। मैंने सोचा कि कैसे जिस बहन के साथ मैं सहयोगी थी, उसे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था, कैसे मेरे पति ने पुलिस स्टेशन में मेरी शिकायत कर दी और कैसे पुलिस मेरा पीछा कर रही थी और मैं घर नहीं जा सकती थी। इन सब घटनाओं की मैं भविष्यवाणी नहीं कर सकती थी; यह सब परमेश्वर की अनुमति से हुआ था। मुझे इस असल माहौल को स्वीकार करना था। मैंने उस समय के बारे में सोचा जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था, जब मैं अपनी माँ को अपने पति द्वारा सताए और अपमानित होते देखती थी तो मेरा दिल बहुत दुखी हो जाता था और मैं बाहर जाकर अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी क्योंकि मुझे डर था कि मेरी माँ को सताया जाएगा। मुझे यह भी डर था कि मेरे जाने के बाद बुढ़ापे में उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा। जब मैंने यह सोचा तो मैं समझ गई कि मैं लगातार पारिवारिक स्नेह में फँसी हुई थी और ठीक से सत्य का अनुसरण या अपना कर्तव्य नहीं निभा पा रही थी। अब इस माहौल से सामना होने का मतलब था कि मैं घर नहीं जा सकती थी तो परमेश्वर का इरादा यह था कि मैं अपना दिल अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण करूँ, जो मेरी जीवन प्रगति के लिए लाभदायक होगा। इसके अलावा मैं एक कलीसिया अगुआ थी। अगर मैं घर नहीं छोड़ती तो जैसे ही मैं गिरफ्तार होती, पुलिस मुझे धमकाने के लिए मेरी माँ का इस्तेमाल करती। क्या मैं अडिग रह पाती? अगर मैं यातना का सामना नहीं कर पाती और यहूदा बनकर परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर देती तो मुझे परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से हटा दिया जाता। बहुत सोचने के बाद मैंने घर से दूर अपना कर्तव्य निभाने का फैसला किया। जब मैं घर से दूर थी तो हर बार जब बारिश होती, मैं सोचती, “हमारे आँगन में जमीन फिसलन भरी है—अगर मेरी माँ गिर गईं और उनकी मदद करने के लिए वहाँ कोई नहीं हुआ तो क्या होगा?” गेहूँ की कटाई के मौसम में मुझे चिंता होती, “मेरी माँ अकेले फसल कैसे काटेंगी? मुझे नहीं पता कि मेरे पति उनकी मदद करेंगे या नहीं।” चीनी नव वर्ष पर मेरे हाथों में मेजबान परिवार द्वारा तैयार किया भोजन था और आँखों में आँसू थे। “मैं घर से दूर तो अच्छा खा रही हूँ, लेकिन मुझे नहीं पता कि मेरी माँ घर पर ठीक हैं या नहीं। क्या मेरे पति उन्हें डाँटेंगे और बुरा-भला कहेंगे? त्योहारों के दौरान दूसरे परिवार एक साथ होते हैं, लेकिन मैंने अपनी माँ को घर पर अकेला छोड़ दिया है। वे जरूर अकेलापन और सूनापन महसूस करती होंगी और उन्हें हमारे रिश्तेदारों और दोस्तों का उपहास सहना पड़ेगा। मैं अपनी माँ की बहुत कर्जदार हूँ!” मैं जितना इसके बारे में सोचती, उतना ही अधिक व्यथित महसूस करती और मैंने अपना कर्तव्य निभाने की सारी प्रेरणा खो दी। मैं रोई और परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे विनती की कि वह मुझे इस नकारात्मक दशा से बाहर निकाले।
एक दिन भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो, क्या सोचते हो, या क्या योजना बनाते हो, वे सब महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि क्या तुम यह समझ सकते हो और सचमुच विश्वास कर सकते हो कि सभी सृजित प्राणी परमेश्वर के हाथों में हैं। कुछ माता-पिताओं को ऐसा आशीष मिला होता है और ऐसी नियति होती है कि वे घर-परिवार का आनंद लेते हुए एक बड़े और समृद्ध परिवार की खुशियाँ भोगें। यह परमेश्वर की संप्रभुता है और परमेश्वर से मिला आशीष है। कुछ माता-पिताओं की नियति ऐसी नहीं होती; परमेश्वर ने उनके लिए ऐसी व्यवस्था नहीं की होती। उन्हें एक खुशहाल परिवार का आनंद लेने, या अपने बच्चों को अपने साथ रखने का आनंद लेने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। यह परमेश्वर का आयोजन है और लोग इसे जबरदस्ती हासिल नहीं कर सकते। चाहे कुछ भी हो, अंततः जब संतानोचित शील की बात आती है, तो लोगों को कम से कम समर्पण की मानसिकता रखनी चाहिए। यदि वातावरण अनुमति दे और तुम्हारे पास ऐसा करने के साधन हों, तो तुम अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्व निर्वाह दिखा सकते हो। अगर वातावरण उपयुक्त न हो और तुम्हारे पास साधन न हों, तो तुम्हें जबरन ऐसा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इसे क्या कहते हैं? (समर्पण।) इसे समर्पण कहा जाता है। यह समर्पण कैसे आता है? समर्पण का आधार क्या है? यह परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और परमेश्वर द्वारा शासित इन सभी चीजों पर आधारित है। यद्यपि लोग चुनना चाह सकते हैं, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते, उन्हें चुनने का अधिकार नहीं है, और उन्हें समर्पण करना चाहिए। जब तुम महसूस करते हो कि लोगों को समर्पण करना चाहिए और सब कुछ परमेश्वर द्वारा आयोजित है, तो क्या तुम्हें अपने हृदय में शांति महसूस नहीं होती? (हाँ।) क्या तुम्हारी अंतरात्मा तब भी धिक्कार का अनुभव करती रहेगी? उसे अब लगातार धिक्कार की अनुभूति नहीं होगी, और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्वों का निर्वाह न कर पाने का विचार अब तुम पर हावी नहीं होगा। इतने पर भी कभी-कभी तुम्हें ऐसा महसूस हो सकता है क्योंकि मानवता में ये एक तरह से सामान्य विचार या सहज प्रवृत्ति है और कोई भी इससे बच नहीं सकता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद मैं समझ गई कि परमेश्वर ने हर व्यक्ति के लिए एक अलग नियति निर्धारित की है और लोगों में कुछ भी बदलने की शक्ति नहीं है। अगर परमेश्वर ने यह नियत किया है कि मेरी माँ को अपने आस-पास बच्चों के होने का सुख न मिले तो मैं चाहे कितनी भी कोशिश कर लूँ, मैं कुछ भी नहीं बदल सकती। मैंने सोचा कि कैसे मैं और मेरी माँ बचपन से एक साथ थे, एक बार भी अलग नहीं हुए। बाद में परमेश्वर में मेरे विश्वास के कारण पुलिस मेरा पीछा करने लगी और मुझे घर छोड़ना पड़ा। यह परमेश्वर की व्यवस्था और पूर्वनियति थी। जब मेरी माँ को घर पर मेरे पति द्वारा सताया जाता है तो यह कुछ ऐसा है जिसका उन्हें अनुभव करना ही है। लेकिन मैं परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझती थी और लगातार अपनी माँ के अकेलेपन और कष्ट के बारे में चिंतित रहती थी। अपना कर्तव्य निभाने में मेरी दशा प्रभावित हुई और मैं दर्द और अंधकार में डूब गई। अब मुझे एहसास हुआ कि चूँकि अब मेरे पास माँ की सेवा करने का कोई अवसर नहीं है, इसलिए मुझे इस माहौल के प्रति समर्पण करना और इसे स्वीकार करना चाहिए। मेरी माँ परमेश्वर में विश्वास करती हैं। भले ही वे मुझसे दूर हैं, फिर भी उनके पास परमेश्वर हैं और भविष्य में जब हम अपने रास्तों पर चलेंगे तो परमेश्वर हमारा मार्गदर्शन करेगा। मुझे विश्वास था कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है। जब मैंने यह सोचा तो मैंने समर्पण की इच्छा से चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने अपनी माँ को परमेश्वर को सौंप दिया, ताकि जब वे हमारे परिवार के हाथों उत्पीड़न का अनुभव करें तो वह उनका मार्गदर्शन करे। बाद में मैंने संयोग से अपनी माँ द्वारा लिखा एक अनुभवजन्य गवाही लेख पढ़ा। मैंने पढ़ा कि जब मैं उनके साथ नहीं थी और वे कमजोर थीं तो उन्होंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उनके भाई-बहन हमारे घर जाकर परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करते और उनकी मदद करते थे। जब वे परमेश्वर का इरादा समझ गईं तो वे धीरे-धीरे अपनी नकारात्मकता और कमजोरी से बाहर आ गईं। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी।
2022 में वैश्विक महामारी फिर से फैल गई। जब मैंने कई बुजुर्ग लोगों को महामारी से मरते देखा तो मैं फिर से चिंतित होने लगी, “अगर मेरी माँ महामारी में संक्रमित हो गईं तो क्या कोई उनकी देखभाल करेगा? क्या वे बच पाएँगी? अगर मैं उनके पास होती, उन्हें पानी और दवा देती और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति करती तो उन्हें अपने दिल में इतना कष्ट नहीं होता।” काश मैं वापस जाकर अपनी माँ को देख पाती! मैं सच में उन्हें पिछले कुछ वर्षों के अपने अनुभवों के बारे में और यह बताना चाहती थी कि मैंने उन्हें कितना याद किया। इसके तुरंत बाद, मैं बीमार पड़ गई और बिस्तर पर लेटे-लेटे मुझे अपनी माँ की और भी ज़्यादा याद आने लगी। मुझे चिंता थी कि अगर वे मर गईं, तो मैं उन्हें फिर कभी नहीं देख पाऊँगी, और मैंने अपने दिल में परमेश्वर से बहस की, “हे परमेश्वर, क्यों दूसरे लोग अपने परिवारों के साथ फिर से मिल सकते हैं लेकिन मुझे अपनी माँ से अलग रहना पड़ रहा है? आप जानते हैं कि मेरी पृष्ठभूमि दूसरों से अलग है। मैं परिवार में इकलौती संतान हूँ, लेकिन अब मैं उनके आखिरी समय तक उनकी देखभाल नहीं कर सकती। अगर वे अकेले मर गईं, तो यह मेरे ज़मीर पर एक बोझ बना रहेगा, और मुझे लगेगा कि मैं बहुत निर्दयी और अकृतज्ञ हूँ। मैं जानती हूँ कि इस तरह से सोचना गलत है, लेकिन मुझे नहीं पता कि इसका अनुभव कैसे करूँ। मेरा मार्गदर्शन करिए।” मैंने सोचा कि कैसे हर बार परमेश्वर के वचन ही थे जिन्होंने मुझे मेरी नकारात्मकता और कमजोरी से बाहर निकाला और मेरा मार्गदर्शन किया, और कैसे मेरी माँ ने भी घर पर परमेश्वर की अगुआई और सुरक्षा का अनुभव किया। हम दोनों परमेश्वर के प्रेम का आनंद ले रहे थे। परमेश्वर ने हमें इतना कुछ दिया था, लेकिन मैं उसका प्रतिदान करना नहीं जानती थी और इसके बजाय मैं उसके बारे में शिकायत करती थी। मुझमें सचमुच ज़मीर की कमी थी! मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, अपनी समस्याओं को हल करने के लिए ईमानदारी से सत्य खोजने को तैयार थी।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का पाठ सुना : “लोगों की बात करें, तो तुम्हारे माता-पिता ने सावधानी से तुम्हारी देखभाल की हो या तुम्हारी बहुत परवाह की हो, किसी भी स्थिति में, वे बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे। तुम्हें उन्होंने जिस भी कारण से पाल-पोस कर बड़ा किया हो, यह उनकी जिम्मेदारी थी—चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उन्हें तुम्हारी जिम्मेदारी उठानी चाहिए। इस आधार पर, जो कुछ भी तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए किया, क्या उसे दयालुता कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता, सही है? (सही है।) तुम्हारे माता-पिता का तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने को दयालुता नहीं माना जा सकता, तो अगर वे किसी फूल या पौधे के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं, उसे सींच कर उसे खाद देते हैं, तो क्या उसे दयालुता कहेंगे? (नहीं।) यह दयालुता से कोसों दूर की बात है। फूल और पौधे बाहर बेहतर ढंग से बढ़ते हैं—अगर उन्हें जमीन में लगाया जाए, उन्हें हवा, धूप और बारिश का पानी मिले, तो वे और भी ज्यादा फलते-फूलते हैं। घर के अंदर गमले में लगाने पर वे बाहर की तरह अच्छी तरह से नहीं उगते हैं या फलते-फूलते नहीं हैं! व्यक्ति जिस भी परिवार में जन्म लेता है, वह परमेश्वर द्वारा नियत होता है। तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास जीवन है और परमेश्वर हर जीवन की जिम्मेदारी लेता है जिससे लोग जीवित बचने में और उस नियम का पालन करने में सक्षम होते हैं जिसका पालन सभी प्राणी करते हैं। बात बस इतनी है कि एक व्यक्ति के रूप में तुम उसी परिवेश में रहे जिसमें तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारा पालन-पोषण किया, इसलिए तुम्हें उसी परिवेश में बड़ा होना चाहिए था। यह जो तुम्हारा उस परिवेश में जन्म हुआ यह परमेश्वर के विधान के कारण है; यह जो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे वयस्क होने तक तुम्हारा पालन-पोषण किया वह भी परमेश्वर के विधान के कारण है। किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता। चूँकि इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता, तो क्या यह कहा जा सकता है कि यह कुछ ऐसी चीज है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए? (यह कहा जा सकता है।) यह एक प्रकार का अधिकार है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि वयस्क होने से पहले तुम्हारी भूमिका एक पाले-पोसे जा रहे बच्चे की होती है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं, और तुम बस इसे प्राप्त कर रहे हो, लेकिन निश्चित रूप से तुम उनसे अनुग्रह या दयालुता प्राप्त नहीं कर रहे हो। किसी भी जीवित प्राणी के लिए बच्चों को जन्म देकर उनकी देखभाल करना, प्रजनन करना और अगली पीढ़ी को बड़ा करना एक किस्म की जिम्मेदारी है। उदाहरण के लिए, पक्षी, गायें, भेड़ें और यहाँ तक कि बाघ भी प्रजनन के बाद अपने बच्चों की देखभाल करते हैं। ऐसा कोई भी जीवित प्राणी नहीं है जो अपनी संतान को पाल-पोस कर बड़ा न करता हो। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन वे हमारे लिए अज्ञात बने हुए हैं। जीवित प्राणियों के अस्तित्व में यह एक कुदरती घटना है, जीवित प्राणियों की यह सहजप्रवृत्ति है और इसका श्रेय दयालुता को नहीं दिया जा सकता है। वे बस उस विधि का पालन कर रहे हैं जो सृष्टिकर्ता ने जानवरों और मानवजाति के लिए स्थापित की है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता का तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना किसी प्रकार की दयालुता नहीं है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। वे तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। वे तुम्हारे लिए अपने दिल का चाहे कितना ही खून खपाएँ और तुम पर कितना ही पैसा खर्च करें, उन्हें तुमसे इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए, क्योंकि माता-पिता के रूप में यह उनकी जिम्मेदारी है। चूँकि यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है, इसलिए इसे मुफ्त होना चाहिए, और उन्हें इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए। तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे माता-पिता बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे, और यह निःशुल्क होना चाहिए, इसमें लेनदेन नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम्हें भरपाई करने के विचार के अनुसार न तो अपने माता-पिता से पेश आना चाहिए, न उनके साथ अपने रिश्ते को ऐसे सँभालना चाहिए। अगर तुम इस विचार के अनुसार अपने माता-पिता से पेश आते हो, उनका कर्ज चुकाते हो और उनके साथ अपने रिश्ते को सँभालते हो, तो यह अमानुषी है। साथ ही, हो सकता है इसके कारण तुम आसानी से अपनी दैहिक भावनाओं से नियंत्रित होकर उनसे बँध जाओ और फिर तुम्हारे लिए इन उलझनों से उबरना इस हद तक मुश्किल हो जाएगा कि शायद तुम अपनी राह से भटक जाओ। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं, इसलिए उनकी तमाम अपेक्षाएँ साकार करना तुम्हारा दायित्व नहीं है। उनकी अपेक्षाओं की कीमत चुकाना तुम्हारा दायित्व नहीं है। उनकी अपनी अपेक्षाएँ हो सकती हैं, लेकिन तुम्हें अपने चुनाव खुद करने होंगे। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए एक जीवन पथ निर्दिष्ट किया है, तुम्हारे लिए एक नियति व्यवस्थित की है और इन चीजों का तुम्हारे माता-पिता से बिल्कुल भी कोई लेना-देना नहीं है। ... अगर तुम्हारे हालात तुम्हें उनके प्रति अपनी थोड़ी जिम्मेदारी पूरी करने की इजाजत देते हैं, तो जरूर करो। अगर तुम्हारा माहौल और तुम्हारे वस्तुपरक हालात तुम्हें उनके प्रति अपना दायित्व पूरा नहीं करने देते, तो तुम्हें उस बारे में ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें नहीं सोचना चाहिए कि तुम उनके ऋणी हो, क्योंकि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। चाहे तुम अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाते हो या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हो, तुम बस संतान का नजरिया अपना रहे हो और उन लोगों के प्रति अपनी थोड़ी-सी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हो, जिन्होंने कभी तुम्हें जन्म दिया और पाल-पोसकर बड़ा किया था। लेकिन तुम ऐसा यकीनन उनकी भरपाई करने के लिए या इस नजरिये से नहीं कर सकते कि ‘तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे हितैषी हैं और तुम्हें उनकी भरपाई करनी चाहिए, तुम्हें उनकी दयालुता का बदला चुकाना चाहिए’” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचन सुनने के बाद, मुझे अचानक समझ आया कि मैं अपने माता-पिता के पालन-पोषण को दयालुता का कर्ज मानती थी। मुझे लगा कि मुझे इसे चुकाना ही होगा, चाहे कभी भी हो, लेकिन यह दृष्टिकोण सत्य के बिल्कुल भी अनुरूप नहीं है। वास्तव में, अपने बच्चों का पालन-पोषण करना माता-पिता की जिम्मेदारी और दायित्व है। यह बिल्कुल भी कोई दयालुता नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे जानवर अपनी संतान को पालते हैं, यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है, और जीवित रहने का एक अटल नियम है। जब परमेश्वर ने मनुष्य को बनाया, तो उसने मनुष्य के जीवित रहने के लिए एक उपयुक्त पारिवारिक माहौल की व्यवस्था की। मेरा ही उदाहरण लें। जन्म देने वाली माँ मेरे जन्म के तुरंत बाद मर गई थीं और फिर मुझे गोद लेने वाले माता-पिता ने पाला। सतह पर तो ऐसा लगता था कि मेरे माता-पिता ने ही मेरी देखभाल की और मुझे पाला-पोसा, लेकिन असल में, मेरा जीवन परमेश्वर से आता है। इतने सालों तक मेरे जीवित रहने का कारण यह है कि परमेश्वर मेरी निगरानी और सुरक्षा कर रहा है। मुझे याद है जब मैं बच्ची थी, तो मेरा पैर गेहूँ ओसाने वाले एक बड़े पंखे में फँस गया था, लेकिन मैं अपाहिज नहीं हुई। हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा से पहले, मैं परीक्षा कक्ष देखने के लिए अपनी साइकिल पर गई, और दो कारों के बीच फँस गई और लगभग टकरा ही गई थी। उस समय मेरी माँ मेरे साथ नहीं थीं, लेकिन मुझे कुछ नहीं हुआ। मैंने फिर से अपनी सगी माँ के बारे में सोचा। उन्होंने मुझे इस दुनिया में भेजा और फिर चल बसीं, और मेरे पालक माता-पिता मुझे पाल-पोस सके, यह परमेश्वर की पूर्वनियति और आयोजनों के कारण था। जब माता-पिता अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं, तो वे सिर्फ अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे होते हैं, अपने बच्चों के प्रति दयालुता नहीं दिखा रहे होते, और बच्चों को किसी दयालुता का बदला चुकाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि मैं इस संबंध में सत्य नहीं समझती थी, और हमेशा शैतान द्वारा मुझमें डाले गए भ्रामक विचारों से प्रभावित रही, जैसे “माता-पिता का प्यार समुद्र जितना गहरा होता है,” और “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है,” जब मैं घर से दूर अपना कर्तव्य निभा रही थी तो मेरी दशा लगातार बाधित होती थी। जन्म से लेकर अब तक मैंने हमेशा परमेश्वर की देखभाल, सुरक्षा और उसके द्वारा प्रदान की गई हर चीज़ का आनंद लिया है। अब भी मैं परमेश्वर का अनुग्रह पा रही हूँ, उसका अनुसरण कर रही हूँ, अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, और परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के सहस्त्राब्दि में इकलौते अवसर का आनंद ले रही हूँ। हालाँकि, मुझे यह एहसास नहीं था कि मुझे परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए, बल्कि इसके बजाय मैं केवल अपने माता-पिता के पालन-पोषण की दयालुता का कर्ज चुकाने के बारे में सोचती थी। यहाँ तक कि जब अपना कर्तव्य चुनने की बात आई, तो मैंने हमेशा इस शर्त के आधार पर इसे तौला कि क्या मैं अपनी माँ की सेवा कर पाऊँगी। मैं कितनी नासमझ थी! मैंने शैतान द्वारा मेरे मन में बिठाए गए पारंपरिक विचारों को स्वीकार कर लिया था और मूर्खता से इस “दयालुता” का बदला चुकाना चाहती थी। कितनी बड़ी मूर्खता थी! जब मैं यह समझ गई, तो मुझे बहुत अधिक मुक्ति का एहसास हुआ। जैसे-जैसे मैं धीरे-धीरे अपनी माँ की चिंता छोड़ रही थी, मुझे अपनी बेटी का एक पत्र मिला। उसमें लिखा था कि उसने कलीसिया में एक कर्तव्य निभाना शुरू कर दिया है, कि वह स्वस्थ है और घर पर नियमित रूप से सभा कर रही है और परमेश्वर के वचन पढ़ रही है। उस पल, मैं इतनी भावुक और आत्म-ग्लानि से भर गई कि मैं उस भावना का वर्णन भी नहीं कर सकती। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से कहा, “हे परमेश्वर, आपका धन्यवाद! मैं देखती हूँ कि आपने मेरे लिए जो कुछ भी व्यवस्थित किया है, वह बहुत अच्छा है, और मैं वास्तव में आपसे इतना अधिक प्रेम और दया पाने के योग्य नहीं हूँ। मुझे खुद से नफरत है कि मुझमें आप पर पर्याप्त आस्था नहीं है। प्रिय परमेश्वर, मैं सबसे ज़्यादा आपकी कर्जदार हूँ, अपने रिश्तेदारों की नहीं। अब से, मैं निश्चित रूप से अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने दिल को ठीक से स्थिर करूँगी, और आपको अब और चिंतित या परेशान नहीं करूँगी।”
बाद में, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े और अपनी माँ के प्रति कर्जदार महसूस करने की मेरी दशा का पूरी तरह समाधान हो गया। परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग अपने परिवारों को त्याग देते हैं क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। वे इस वजह से प्रसिद्ध हो जाते हैं और सरकार अक्सर उनके घर की तलाशी लेती है, उनके माता-पिता को परेशान करती है और यहाँ तक कि उनके माता-पिता को उन्हें सौंपने के लिए धमकाती भी है। उनके सभी पड़ोसी उनके बारे में बात करते हुए कहते हैं, ‘इस आदमी में जरा भी अंतरात्मा नहीं है। वह अपने बुजुर्ग माता-पिता की परवाह नहीं करता। न केवल वह संतानोचित आचरण नहीं करता, बल्कि वह अपने माता-पिता के लिए बहुत परेशानी का कारण भी है। वह माता-पिता के प्रति अनुचित आचरण करने वाली संतान है!’ क्या इनमें से एक भी शब्द सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) लेकिन क्या ये सभी शब्द गैर-विश्वासियों की नजर में सही नहीं माने जाते? गैर-विश्वासियों के बीच उन्हें लगता है कि इसे देखने का यह सबसे वैध और तर्कसंगत तरीका है, यह मानवीय नैतिकता के अनुरूप है और स्व-आचरण के मानकों के अनुरूप है। इन मानकों में चाहे कितनी ही चीजें शामिल हों, जैसे माता-पिता के प्रति संतानवत सम्मान कैसे दिखाया जाए, बुढ़ापे में उनकी देखभाल कैसे की जाए और उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था कैसे की जाए, या उनका कितना ऋण चुकाया जाए और बेशक ये मानक सत्य के अनुरूप हों या नहीं, गैर-विश्वासियों की नजर में वे सकारात्मक चीजें होती हैं, वे सकारात्मक ऊर्जा हैं, वे सही चीजें हैं, और लोगों के सभी लोगों के समूहों में उन्हें अनिंद्य माना जाता है। गैर-विश्वासियों में लोगों के लिए जीवन का यही मानक है और तुम्हें उनके दिलों में मानक स्तर का एक अच्छा इंसान बनने के लिए ये चीजें करनी होंगी। तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास करने तथा सत्य को समझने के पहले क्या तुम्हारा भी दृढ़ विश्वास नहीं था कि इस तरह का आचरण करने का मतलब ही अच्छा इंसान होना है? (हाँ।) इसके अलावा तुम स्वयं अपना मूल्यांकन करने और स्वयं को सीमित करने के लिए भी इन चीजों का उपयोग करते थे और तुम खुद को इसी प्रकार का व्यक्ति बनाना चाहते थे। ... हालाँकि जब तुम लोगों ने परमेश्वर के वचनों और उसके उपदेशों को सुना तो तुम्हारा दृष्टिकोण बदलना शुरू हो गया और तुम समझ गए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाने के लिए तुम्हें सब कुछ त्यागना होगा और कि परमेश्वर की अपेक्षा है कि लोग इस तरह का आचरण करें। यह निश्चित करने से पहले कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य है, तुम सोचते थे कि तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए, लेकिन तुम्हें यह भी लगता था कि एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए और तुम्हें अपने अंदर इनके बीच संघर्ष की स्थिति महसूस होती थी। परमेश्वर के वचनों के निरंतर सिंचन और परिपोषण के माध्यम से तुम धीरे-धीरे सत्य को समझने लगे और तब तुम्हें एहसास हुआ कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना पूरी तरह से प्राकृतिक और उचित है। आज तक बहुत-से लोग सत्य को स्वीकार करने और मनुष्य की पारंपरिक धारणाओं और कल्पनाओं से स्व-आचरण के मानकों को पूरी तरह से त्यागने में सक्षम हुए हैं। जब तुम इन चीजों को पूरी तरह से छोड़ देते हो, तो जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम गैर-विश्वासियों की आलोचना और उनकी निंदा से सीमित नहीं रह जाते, और तुम उन्हें आसानी से त्याग सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। “फिलहाल, चूँकि परमेश्वर कार्यरत है, और चूँकि वह इन तमाम तथ्यों का सत्य बताने और उन्हें सत्य समझने योग्य बनाने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है, इसलिए सत्य को समझ लेने के बाद ये भ्रामक विचार और दृष्टिकोण तुम पर बोझ नहीं बनेंगे और फिर तुम उन्हें मार्गदर्शक के रूप में इस्तेमाल नहीं करोगे जो तुम्हें बताए कि अपने माता-पिता के साथ तुम्हें अपना रिश्ता कैसे सँभालना चाहिए। तब तुम्हारा जीवन ज्यादा सुकून-भरा रहेगा। सुकून-भरा जीवन जीने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों का ज्ञान नहीं होगा—तुम अब भी ये चीजें जान सकोगे। यह बस इस पर निर्भर करता है कि तुम अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों से पेश आने के लिए कौन-सा नजरिया और तरीके चुनते हो। एक रास्ता भावनाओं की राह पकड़ना और इन चीजों से भावनात्मक उपायों और उन तरीकों, विचारों और दृष्टिकोणों के आधार पर निपटना है जिनकी ओर मनुष्य को शैतान ले जाता है। दूसरा रास्ता इन चीजों से परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सिखाए वचनों के आधार पर निपटना है। ... अगर तुम सत्य सिद्धांतों के एक पहलू या एक विचार और नजरिए का पालन करते हो जो सही है और परमेश्वर से आया है, तो तुम्हारा जीवन बहुत सुकून-भरा हो जाएगा। अब अपने माता-पिता से अपने रिश्तों को सँभालने में न जनमत रुकावट बनेगा, न तुम्हारे जमीर की जागरूकता, और न ही तुम्हारी भावनाओं का बोझ; इसके बजाय, ये सत्य सिद्धांत तुम्हें इस योग्य बना देंगे कि तुम इस रिश्ते का सही और तार्किक ढंग से सामना कर सको और इसे सँभाल सको। अगर तुम परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिए गए सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो, तो भले ही लोग पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना करें, तुम अपने दिल की गहराई में शांति और स्थिरता महसूस करोगे, और तुम अप्रभावित रहोगे। कम-से-कम तुम खुद को एक बेपरवाह एहसान-फरामोश होने पर नहीं धिक्कारोगे या अपने दिल की गहराई में अब और यह महसूस नहीं करोगे कि तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें कोस रही है। यह इसलिए कि तुम यह जान लोगे कि तुम्हारे सारे कार्य परमेश्वर द्वारा तुम्हें सिखाए गए तरीकों के अनुसार किए जाते हैं, तुम परमेश्वर के वचनों को सुनते और उनके प्रति समर्पण करते हो, और उसके मार्ग का अनुसरण करते हो। परमेश्वर के वचनों को सुनना और उसके मार्ग का अनुसरण करना ही जमीर की वह समझ है जो लोगों में सबसे ज्यादा होनी चाहिए। ये चीजें कर सकने पर ही तुम एक सच्चे व्यक्ति बन पाओगे। अगर तुमने ये चीजें संपन्न नहीं की हैं, तो तुम एक बेपरवाह एहसान-फरामोश हो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। मैं हमेशा अपनी माँ की कर्जदार महसूस करती थी क्योंकि चीज़ों को लेकर मेरा नज़रिया नहीं बदला था। जब मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करती थी, तो मैंने शैतान के पारंपरिक विचारों को स्वीकार कर लिया था, जैसे कि “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” और “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।” मेरा मानना था कि दुनिया में रहने वाले एक व्यक्ति के रूप में, मुझे सबसे पहले अपने आचरण में माता-पिता की सेवा को ही सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत मानना चाहिए, और अगर मैं इसे पूरा नहीं कर पाई, तो मैं इंसान कहलाने के योग्य नहीं हूँगी। इसी कारण से, मैंने घर-जमाई बनने वाले व्यक्ति से शादी करना चुना, जो मेरे साथ मेरे माता-पिता की देखभाल करेगा। परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद भी, मैं इन्हीं विचारों के अनुसार जीती रही। जब मैंने अपनी माँ को अपने पति द्वारा सताए जाते देखा, तो मुझे लगा कि एक बेटी होने के नाते, मैं अपनी माँ को अपने साथ सुख का आनंद नहीं दे पाई, बल्कि अपनी वजह से उन्हें कष्ट पहुँचाया। मुझे लगा कि मैंने उन्हें निराश किया है। बाद में, क्योंकि मेरे पति ने मुझे सताया और परेशानी खड़ी की, तो मैं माहौल को सुरक्षित रखने के लिए घर पर ही रही। जब मैंने अपनी माँ को मेरी वजह से बहुत कष्ट सहते देखा, तो मुझे और भी ज़्यादा आत्म-ग्लानि महसूस हुई और मैं अब और अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी। ये पारंपरिक विचार उन अदृश्य रस्सियों की तरह थे जिन्होंने मुझे कसकर बाँध रखा था, और मुझे अपने कर्तव्य के मामले में बार-बार समझौता करने पर मजबूर कर रहे थे। वे मेरे जीवन में बढ़ोत्तरी की खोज में एक बाधा बन गए थे। खासकर, जब महामारी फैल रही थी, तो मुझे चिंता थी कि मेरी माँ संक्रमित हो जाएँगी और मैं उनकी बीमारी में उनकी देखभाल नहीं कर पाऊँगी, इसलिए मैं उनकी कर्जदार महसूस करती थी। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से इस बात की भी शिकायत की कि उसने मुझे अपनी माँ की सेवा करने का अवसर नहीं दिया। अब जाकर मैंने स्पष्ट रूप से देखा कि शैतान द्वारा मुझमें भरी गई चीजें, “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए,” और “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है” न केवल सत्य के बारे में जानने के बावजूद मुझे उसका अनुसरण करने में हिम्मत हारने का कारण बने, बल्कि उन्होंने मुझे परमेश्वर से विद्रोह करने और उसका प्रतिरोध करने पर भी मजबूर किया। शैतान सचमुच पूरी तरह से दुष्ट, नीच और कुटिल है, और मुझे उससे सचमुच नुकसान पहुँचा था। असल में, मुझे परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर अपनी माँ का साथ देने से रोकने वाले असली दोषी तो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और दानव शैतान था! परमेश्वर में विश्वास करने वाले घर छोड़कर कर्तव्य इसलिए नहीं निभाते कि हम अपने परिवार को नहीं चाहते, या इसलिए कि हम क्रूर हैं, बल्कि इसलिए कि वह दुष्ट पार्टी हमें सच्चे परमेश्वर का अनुसरण करने और सही मार्ग पर चलने की अनुमति नहीं देती। वह कलीसिया को बदनाम करने के लिए निराधार अफवाहें फैलाती है, जिससे परिवार के अविश्वासी सदस्य हमें सताते हैं और हमें बाधित करते हैं। लेकिन मैं नासमझ थी और मुझमें भेद पहचानने की क्षमता नहीं थी, और मैं शैतान के दुष्ट सार को समझ नहीं पाई; मैंने तो यह भी शिकायत की कि परमेश्वर की व्यवस्थाएँ उचित नहीं थीं। मैं सचमुच सही-गलत का भेद नहीं कर पाती थी! मैं अब और इन पारंपरिक विचारों से बँधी नहीं रह सकती और गुमराह नहीं हो सकती, और मुझे अपनी माँ के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना था। मेरी माँ और मैं दोनों सृजित प्राणी हैं, और हम दोनों परमेश्वर में विश्वास कर सकते हैं और उसका अनुसरण कर सकते हैं और सृजित प्राणियों के कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने के लिए जी सकते हैं। यह पहले से ही एक बहुत बड़ा उत्कर्ष और अनुग्रह है जो परमेश्वर ने हमें दिया है। चाहे हम इस जीवन में फिर से मिल सकें या नहीं, मैं केवल परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहती हूँ और सबसे पहले परमेश्वर को संतुष्ट करना और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहती हूँ। जब मैं यह सब समझ गई, तो मैंने अपनी माँ के प्रति अपनी चिंताओं और कर्जदार होने के भाव को पूरी तरह से छोड़ दिया। कभी-कभी जब मैं अपनी माँ के बारे में सोचती हूँ, तो मुझे परमेश्वर के ये वचन ध्यान आते हैं : “किसी व्यक्ति को जितना भी दुख भोगना है और अपने मार्ग पर जितनी दूर तक चलना है, वह सब परमेश्वर ने पहले से ही तय किया होता है, और इसमें सचमुच कोई किसी की मदद नहीं कर सकता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मार्ग ... (6))। फिर, मैं चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना करती हूँ, अपनी माँ को परमेश्वर के हाथों में सौंप देती हूँ, और अपने मन को शांत करके अपना कर्तव्य निभाती हूँ।
इस अनुभव के माध्यम से, यह परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन था जिसने मुझे पारंपरिक संस्कृति का बंधन और मुझे पहुँचाया गया नुकसान देखने दिया, इसी से मुझे अपनी माँ के प्रति अपनी चिंताओं और कर्जदार होने के भाव को धीरे-धीरे छोड़ने में मदद मिली और मेरे दिल को सुकून मिला। परमेश्वर का धन्यवाद!
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