जब कर्तव्यों का निर्वहन संतानोचित भक्ति से टकराता है

03 सितम्बर, 2024

पिछले कुछ वर्षों में, मैंने घर से दूर रहकर अपने कर्तव्यों का पालन किया। मुझे कभी-कभी अपनी माँ की याद आती थी, लेकिन मेरे कर्तव्य ने मुझे व्यस्त रखा और वह अभी भी जवान थी और उसकी सेहत बहुत अच्छी थी, इसलिए अपना कर्तव्य निभाते समय मैं बहुत ज्यादा बेबस या चिंतित महसूस नहीं करता था। फिर, सितंबर 2020 में, कम्युनिस्ट पार्टी ने घर-घर जाकर विश्वासियों की तलाश के लिए जनगणना को बहाने की तरह इस्तेमाल किया। उसी जनगणना के दौरान, मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और हिरासत में ले लिया। जब मुझे जमानत पर छोड़ा गया और मैं घर गया, मैंने देखा कि इतने सालों में मेरी माँ के बाल बहुत ज्यादा सफेद हो गए थे, उसकी गतिशीलता काफी कम हो गई थी, और उसकी पेट की बीमारी बढ़ गई थी। अगर कुछ गड़बड़ खा लेती, तो उसे कई दिनों तक दर्द रहता। सुरक्षा चिंताओं के कारण, वह सभाओं में शामिल नहीं हो पाती थी और उसकी हालत बहुत खराब थी। और पुलिस द्वारा मुझे दो बार गिरफ्तार करने के कारण, वह इतनी चिंतित थी कि वह उदास हो गई और घर से बाहर नहीं निकलती थी। मुझे बहुत बुरा लगा। मेरे पिता का निधन बहुत पहले ही हो गया था, और माँ ने मुझे और मेरी बहन को स्कूल भेजने के लिए बहुत कष्ट सहे थे। मैं हमेशा से अपनी माँ के प्रति कुछ संतानोचित भाव दिखाना चाहता था, लेकिन ऐसा करने का कभी मौका नहीं मिला। अब जब मैं घर आ गया था, तो आखिरकार मैं अपनी माँ की देखभाल कर सकता था।

जैसे ही मैं घर आया, राष्ट्रीय सुरक्षा ब्रिगेड हमारे घर आ गई और मुझसे कहा कि मुझे हर महीने उनसे संपर्क करना होगा और अपने काम और ठिकाने की रिपोर्ट देनी होगी। इस वजह से, मैं कलीसिया से संपर्क करने और अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ था, इसलिए मैंने फोटोग्राफी की नौकरी कर ली और अपना बाकी समय अपनी माँ की देखभाल में बिताने लगा। जब भी मेरे पास समय होता, मैं अपनी माँ से पिछले कुछ वर्षों के अपने अनुभव के बारे में बात करता। और मैं और मेरी बहन उसे रेस्तरां में खाने के लिए भी ले जाते। कभी-कभी, मैं उसे चेकअप के लिए अस्पताल ले जाता और मैं उसके पेट की समस्या के लिए सप्लीमेंट खरीदता। पुलिस हमेशा हमारे घर आती और हमें परेशान करती थी। मुझे अपने पास आकर रिपोर्ट करने और “तीन बयानों” पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर करती थी। यह देखकर कि वे मुझे कैसे नियंत्रित कर रहे थे और इस बात की चिंता करते हुए कि मुझे कुछ हो जाएगा, मेरी माँ दरअसल और उदास हो गई और उसने परिवार के बाहर के लोगों से बातचीत करना बंद कर दिया। वह किराने का सामान खरीदने भी बाहर नहीं जाती थी। अपनी माँ को इस तरह व्यवहार करते देख मैं बहुत चिंतित था, और मुझे फिक्र थी कि उसे कोई मानसिक बीमारी न हो जाए। मैंने उसका मार्गदर्शन करने के लिए हर संभव कोशिश की—मैंने उसके साथ संगति की, उसे आराम दिलाने के लिए बाहर ले गया, लेकिन कुछ भी काम नहीं आया। मैं चिंतित और बेचैन था। मैं बस इतना कर सकता था कि अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए थोड़ी और मेहनत करूँ, ताकि वह मेरे बारे में इतनी चिंता न करे। इसी तरह एक साल बीत गया, और पुलिस ने अभी तक मुझ पर अपनी कड़ी पकड़ ढीली नहीं की थी। मैं अभी भी अपने घर के पास अपना कर्तव्य नहीं कर सकता था। बाद में, मेरे भाई-बहनों ने मुझसे पूछा कि क्या मैं किसी कर्तव्य को करने के लिए घर से बाहर जा सकता हूँ। क्योंकि मेरी माँ की तबियत ठीक नहीं थी और मैं उसकी देखभाल करना चाहता था, मैंने काम करने से मना कर दिया। उसके बाद, उन्होंने कई बार मेरे साथ संगति की, मेरा साथ दिया और मदद की, परमेश्वर के इरादे के बारे में संगति की और उम्मीद जताई कि मैं अपना कर्तव्य जारी रखूँगा। मैं महसूस कर सकता था कि यह परमेश्वर का प्रेम और उद्धार था, जो मुझ पर उतर रहा था लेकिन मैं अभी भी उलझन में था। मैंने सोचा कि अगर मैं फिर से अपना कर्तव्य निभाने चला गया, तो पुलिस को जरूर पता चल जाएगा कि मैंने उन्हें रिपोर्ट करना बंद कर दिया है, और कौन जानता है कि मैं कब तक घर वापस आऊँगा। मेरी माँ की तबीयत खराब थी और उसकी हालत बहुत बुरी थी। अगर मैं उसके साथ रहता, तो मैं कम से कम उसकी देखभाल कर सकता था और संतानोचित भक्ति का अभ्यास कर सकता था। अगर मैं चला गया तो क्या वह और भी निराश हो जाएगी? अगर उसकी हालत और खराब हो गई और उन्हें मानसिक बीमारी हो गई तो क्या होगा? तब मेरे दोस्त और रिश्तेदार मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे मुझे गैर-संतानोचित नहीं समझेंगे? इन चिंताओं के कारण, मैं सचमुच दुविधा में था और समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ।

उस दौरान, मुझे संतानोचित भक्ति के बारे में परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “परमेश्वर ने लोगों को पहले अपने माता-पिता का सम्मान करने के लिए कहा, और उसके बाद, परमेश्वर ने लोगों के लिए सत्य का अभ्यास करने, अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के संबंध में उच्चतर अपेक्षाएँ सामने रखीं—तुम्हें इनमें से किसका पालन करना चाहिए? (उच्चतर अपेक्षाओं का।) क्या उच्चतर अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना सही है? क्या सत्य को उच्च और निम्न सत्य या पुराने और नए सत्य में विभाजित किया जा सकता है? (नहीं।) तो जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, तब तुम्हें किसके अनुसार अभ्यास करना चाहिए? सत्य का अभ्यास करने का क्या अर्थ है? (मामले सिद्धांतों के अनुसार सँभालना।) मामले सिद्धांतों के अनुसार सँभालना सबसे महत्वपूर्ण बात है। सत्य का अभ्यास करने का अर्थ है विभिन्न समयों, स्थानों, परिवेशों और संदर्भों में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना; यह चीजों पर हठपूर्वक नियम लागू करने के बारे में नहीं है, यह सत्य सिद्धांत कायम रखने के बारे में है। सत्य का अभ्यास करने का यही अर्थ है। इसलिए, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और परमेश्वर द्वारा रखी गई अपेक्षाओं का पालन करने के बीच कोई विरोध नहीं है। इसे और ज्यादा ठोस रूप से कहें तो, अपने माता-पिता का सम्मान करने और परमेश्वर ने तुम्हें जो आदेश और कर्तव्य दिया है उसे पूरा करने के बीच कोई विरोधाभास नहीं है। इनमें से कौन-से परमेश्वर के वर्तमान वचन और अपेक्षाएँ हैं? तुम्हें पहले इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए। परमेश्वर अलग-अलग लोगों से अलग-अलग चीजों की माँग करता है; उनके लिए उसकी विशिष्ट अपेक्षाएँ हैं। जो लोग अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में सेवा करते हैं, उन्हें परमेश्वर ने बुलाया है, इसलिए उन्हें त्याग करना ही होगा, वे अपने माता-पिता का सम्मान करते हुए उनके साथ नहीं रह सकते। उन्हें परमेश्वर का आदेश स्वीकारना चाहिए और उसका अनुसरण करने के लिए सब-कुछ त्याग देना चाहिए। यह एक तरह की स्थिति है। आम अनुयायी परमेश्वर द्वारा नहीं बुलाए गए, इसलिए वे अपने माता-पिता के साथ रहकर उनका सम्मान कर सकते हैं। ऐसा करने का कोई पुरस्कार नहीं है और इसके परिणामस्वरूप उन्हें कोई आशीष नहीं मिलेगा, लेकिन अगर वे संतानोचित निष्ठा नहीं दिखाते, तो उनमें मानवता की कमी है। असल में, अपने माता-पिता का सम्मान करना सिर्फ एक तरह की जिम्मेदारी है और यह सत्य के अभ्यास से कम है। परमेश्वर के प्रति समर्पण ही सत्य का अभ्यास है, परमेश्वर का आदेश स्वीकारना ही परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की निशानी है, और परमेश्वर के अनुयायी वे होते हैं जो अपने कर्तव्य निभाने के लिए सब-कुछ त्याग देते हैं। संक्षेप में, सबसे महत्वपूर्ण कार्य जो तुम्हारे सामने है, वह है अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना। यही सत्य का अभ्यास है और यह परमेश्वर के प्रति समर्पण की एक निशानी है। तो वह कौन-सा सत्य है, जिसका लोगों को अब मुख्य रूप से अभ्यास करना चाहिए? (अपना कर्तव्य निभाना।) सही कहा, निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभाना सत्य का अभ्यास करना है। अगर व्यक्ति अपना कर्तव्य ईमानदारी से नहीं निभाता, तो वह सिर्फ मजदूरी कर रहा है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (4))। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से, मुझे उसके इरादे और माँगों का पता चला। माता-पिता का सम्मान करने की माँग को परमेश्वर ने पहले ही आगे रखा है और इसका पालन किया जाना चाहिए। जब तक यह किसी के कर्तव्य को प्रभावित नहीं करता, अपने माता-पिता की देखभाल करना और उनके साथ समय बिताना, और उन्हें चिंता और बेचैनी से दूर रखना एक बेटे या बेटी के रूप में हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है। फिर भी, इसका सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण से कोई लेना-देना नहीं है। जब मेरी माँ बीमार पड़ी, उसे अस्पताल ले जाना, और उसके लिए सप्लिमेंट खरीदना मेरी जिम्मेदारी थी। लेकिन मैं तो सिर्फ अपना संतानोचित कर्तव्य ही निभा रहा था, पर सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा था। जब परमेश्वर लोगों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए बुलाता है और माँग करता है, भले ही वह कर्तव्य किसी के अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होने की क्षमता के साथ टकराव में हो, सृजित प्राणी होने के नाते हमें परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए और सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। यह हमारा स्वर्गिक आह्वान और परमेश्वर का वर्तमान इरादा और माँग है। इस एहसास के बाद मुझे पता चला कि आगे बढ़ने के लिए मुझे कैसे फैसला करना चाहिए। यह राज्य के सुसमाचार के महान विस्तार के लिए एक महत्वपूर्ण समय है, और अभी बहुत सारा जरूरी काम करना बाकी है। मैंने परमेश्वर की सत्य आपूर्ति का भरपूर आनंद लिया था और परमेश्वर के घर ने वर्षों तक मेरा पालन-पोषण किया था, इसलिए बेशक मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य को चुनना था। आखिरकार, मेरी माँ का स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं था, लेकिन वह अपना ख्याल ठीक से रख सकती थी, और मेरे चाचा और बहन भी उसका ख्याल रखने में मदद कर सकते थे। मुझे अपना कर्तव्य निभाना था—यह परमेश्वर की मुझसे उम्मीद और मांग थी और मेरे लिए सत्य की खोज और उद्धार पाने की जरूरत थी। अगर मैं घर पर ही रहता, तो पुलिस की मुझ पर निगरानी और नियंत्रण जारी रहता, और मैं अपना कर्तव्य निभाने और आस्था के मार्ग पर चलने में पूरी तरह से नाकाम रहता। अगर मैं अपनी माँ के साथ संतानोचित रहता, तो मैं अंततः परिवार और दैहिक चिंताओं में उलझ जाता और अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ रहता। मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कार्य खो देता और बचाए जाने का अपना मौका गंवा देता। मैंने उस संकल्प के बारे में सोचा जो मैंने एक बार परमेश्वर के सामने लिया था कि मैं अपना पूरा जीवन परमेश्वर को समर्पित कर दूँगा और खुद को उसके लिए खपा दूँगा। मैंने यह भी सोचा कि घर से दूर अपना कर्तव्य निभाते हुए मैंने क्या-क्या सीखा है, और मेरा जीवन कितना विकसित हुआ है। यह घर पर अपनी देह और परिवार के साथ रहने से कहीं अधिक सार्थक और मूल्यवान था। परमेश्वर मेरा उस मार्ग पर मार्गदर्शन कर रहा था, जो उसने मेरे लिए निर्धारित किया था। मैं उस पर चलते रहने के लिए तैयार था।

इसके बाद, मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने की योजना अपनी माँ को बताई। मेरी माँ अलग होने के लिए थोड़ी अनिच्छुक थी, लेकिन उसने मेरे फैसले का सम्मान किया। बाद के दिनों में, जब मैं काम नहीं कर रहा था, मैं अपनी माँ की परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और संगति करने में मदद करता था। मुझे उम्मीद थी कि वह जल्द से जल्द अपने अवसाद से उभर सकेगी। कुछ दिनों बाद, मैंने घर पर सब कुछ व्यवस्थित किया और निकल पड़ा। उसके तुरंत बाद, मैं अपने काम में लग गया। काफी व्यस्त होने के बावजूद, मैं अपनी माँ को याद किए बिना नहीं रह पाता था। जब मैं सोचता कि मुझे घर से दूर देखकर वह कितनी उदास और अनिच्छुक होगी, तो मुझे दुख का एहसास होता। घर पर, मैं उसके साथ समय बिता सकता था और उससे बातें कर सकता था ताकि वह इतनी अकेली न रहे। अब जब मैं चला गया था, तो वह अकेली कैसे रहेगी? मेरी माँ की तबीयत खराब थी और मुझे फिक्र थी कि उसकी बिगड़ती सेहत उसके अवसाद को और बढ़ा देगी। अगर समय के साथ वह अपने अवसाद से बाहर नहीं निकल पाई, तो क्या वह कोई मूर्खतापूर्ण काम कर लेगी? जितना मैं सोचता, मुझे उतनी ही फिक्र होती। अगर मेरी माँ को कुछ हो गया तो मेरे रिश्तेदार मुझे जरूर बुरा-भला कहेंगे। यह एहसास होने पर मैं थोड़ा विचलित हो जाता था और अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता था। मुझे पता था कि जब मैं वहाँ था, तो मुझे अपना सब कुछ अपने कर्तव्य में लगा देना चाहिए, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य पूरा करना महत्वपूर्ण था, लेकिन मैं अपनी माँ के प्रति अपराध बोध और आत्म-ग्लानि की भावना से छुटकारा नहीं पा सका।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा, जो कहते हैं : “कौन वास्तव में पूरी तरह से मेरे लिए खप सकता है और मेरी खातिर अपना सब-कुछ अर्पित कर सकता है? तुम सभी अनमने हो; तुम्हारे विचार इधर-उधर घूमते हैं, घर के बारे में, बाहरी दुनिया के बारे में, भोजन और कपड़ों के बारे में सोचते रहते हैं। इस तथ्य के बावजूद कि तुम यहाँ मेरे सामने हो, मेरे लिए काम कर रहे हो, अपने दिल में तुम अभी भी घर पर मौजूद अपनी पत्नी, बच्चों और माता-पिता के बारे में सोच रहे हो। क्या ये सभी चीजें तुम्हारी संपत्ति हैं? तुम उन्हें मेरे हाथों में क्यों नहीं सौंप देते? क्या तुम्हें मुझ पर पर्याप्त विश्वास नहीं है? या ऐसा है कि तुम डरते हो कि मैं तुम्हारे लिए अनुचित व्यवस्थाएँ करूँगा? तुम हमेशा अपने दैहिक परिवार के बारे में चिंतित क्यों रहते हो? तुम हमेशा अपने प्रियजनों के लिए विलाप करते रहते हो!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 59)। वास्तव में, क्या मेरी माँ का स्वास्थ्य और उसके अवसाद की गंभीरता सब परमेश्वर के हाथ में नहीं थी? मेरे कितनी भी चिंता करने से उसकी परेशानियां हल नहीं होतीं; मुझे सब कुछ परमेश्वर के हाथों में सौंप देना था। बाद में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मुझे पता है कि मेरी मां की हालत सुधरेगी या नहीं और उसका स्वास्थ्य खराब होगा या नहीं यह सब तुम्हारे हाथ में है। कृपया उसे अवसाद और दुख से बाहर निकालो। अगर उसे इससे कुछ सीखना चाहिए तो, कृपया आत्म-चिंतन करने और तुम्हारे कार्य का अनुभव करने के लिए उसका मार्गदर्शन करो। मैं सब कुछ तुम्हारे हाथों में सौंपने और तुम्हारी संप्रभुता और व्यवस्थाओं में समर्पण के लिए तैयार हूँ।” प्रार्थना के बाद, मुझे थोड़ी और सहजता महसूस हुई। बाद में, मैंने अपनी माँ को एक पत्र लिखा, और जो कुछ भी सीखा था, उसे साझा किया, और उसके अनुभव में कुछ समस्याओं की ओर इशारा किया इस उम्मीद के साथ कि वह चिंतन करेगी और खुद को जानेगी।

जल्दी ही, मुझे अपनी माँ का एक पत्र मिला। उसने कहा कि मेरे जाने के कुछ समय बाद, भाई-बहनों ने उसके लिए कलीसियाई जीवन की व्यवस्था की। इसके अलावा, परमेश्वर के वचनों के माध्यम से वह अवसाद की स्थिति में रहने से जुड़ी नकारात्मक भावनाओं को समझने लगी थी। उसकी हालत में भी काफी सुधार हुआ। जब मैंने यह खबर सुनी तो मैं बहुत खुश हुआ और परमेश्वर को धन्यवाद दिया। बाद में, जब मैंने इस सत्य पर परमेश्वर की संगति पढ़ी कि माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को सही तरीके से कैसे देखा जाए, मुझे तुरंत राहत महसूस हुई और अभ्यास का उचित दृष्टिकोण और सिद्धांत प्राप्त हुआ। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “माता-पिता वाला रिश्ता किसी के लिए भावनात्मक रूप से संभालने का सबसे कठिन रिश्ता है, लेकिन दरअसल, इसे संभालना पूरी तरह असंभव नहीं है। सिर्फ सत्य की समझ के आधार पर लोग इस मामले से सही और तर्कपूर्ण ढंग से पेश आ सकते हैं। भावनाओं के परिप्रेक्ष्य से शुरू मत करो, और सांसारिक लोगों की अंतर्दृष्टियों या नजरियों से शुरु मत करो। इसके बजाय अपने माता-पिता से परमेश्वर के वचनों के अनुसार उचित ढंग से पेश आओ। माता-पिता वास्तव में कौन-सी भूमिका निभाते हैं, माता-पिता के लिए बच्चों का वास्तविक अर्थ क्या है, माता-पिता के प्रति बच्चों का रवैया कैसा होना चाहिए, और लोगों को माता-पिता और बच्चों के बीच के रिश्ते को कैसे सँभालना और हल करना चाहिए? लोगों को इन चीजों को भावनाओं के आधार पर नहीं देखना चाहिए, न ही उन्हें किन्हीं गलत विचारों या प्रचलित भावनाओं से प्रभावित होना चाहिए; उन्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर सही दृष्टि से देखना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर द्वारा नियत माहौल में अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में नाकामयाब हो जाते हो, या तुम उनके जीवन में कोई भी भूमिका नहीं निभाते, तो क्या यह असंतानोचित होना है? क्या तुम्हारा जमीर तुम पर आरोप लगाएगा? तुम्हारे पड़ोसी, सहपाठी और रिश्तेदार सब तुम्हें गाली देंगे और तुम्हारी पीठ पीछे आलोचना करेंगे। वे तुम्हें यह कह कर एक असंतानोचित बच्चा कहेंगे : ‘तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए इतने त्याग किए, तुम पर इतनी कड़ी मेहनत की, तुम्हारे बचपन से ही तुम्हारे लिए बहुत-कुछ किया, लेकिन तुम, जो कि एक कृतघ्न बच्चे हो, बिना किसी सुराग के गायब हो गए, एक संदेश तक नहीं भेजा कि तुम सुरक्षित हो। न सिर्फ तुम नव वर्ष के लिए वापस नहीं आते, तुम अपने माता-पिता को एक फोन भी नहीं करते या अभिवादन तक नहीं भेजते।’ जब भी तुम ऐसी बातें सुनते हो, तुम्हारा जमीर रोता है, उससे खून रिसता है, और तुम निंदित महसूस करते हो। ‘ओह, वे सही हैं।’ तुम्हारा चेहरा गर्म होकर लाल हो जाता है, और दिल काँपता है मानो उसमें सुइयाँ चुभाई गई हों। क्या तुम्हें ऐसा महसूस हुआ है? (हाँ, पहले महसूस हुआ है।) क्या पड़ोसियों और तुम्हारे रिश्तेदारों की बात सही है कि तुम संतानोचित नहीं हो? ... पहले तो ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने को कुछ हद तक व्यापक वस्तुपरक हालात के कारण चुनते हैं जिससे उनका अपने माता-पिता को छोड़ना जरूरी हो जाता है; वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिए उनके साथ नहीं रह सकते; ऐसा नहीं है कि वे स्वेच्छा से अपने माता-पिता को छोड़ना चुनते हैं; यह वस्तुपरक कारण है। दूसरी ओर, व्यक्तिपरक ढंग से कहें, तो तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर इसलिए नहीं जाते कि तुम अपने माता-पिता को छोड़ देना चाहते हो और अपनी जिम्मेदारियों से बचकर भागना चाहते हो, बल्कि परमेश्वर की बुलाहट की वजह से जाते हो। परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करने, उसकी बुलाहट स्वीकार करने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास अपने माता-पिता को छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं था; तुम उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ नहीं रह सकते थे। तुमने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें नहीं छोड़ा, सही है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना और परमेश्वर की बुलाहट का जवाब देने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें छोड़ना—क्या इन दोनों बातों की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं? (बिल्कुल।) तुम्हारे हृदय में तुम्हारे माता-पिता के प्रति भावनात्मक लगाव और विचार जरूर होते हैं; तुम्हारी भावनाएँ खोखली नहीं हैं। अगर वस्तुपरक हालात अनुमति दें, और तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए भी उनके साथ रह पाओ, तो तुम उनके साथ रहने को तैयार होगे, नियमित रूप से उनकी देखभाल करोगे और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करोगे। लेकिन वस्तुपरक हालात के कारण तुम्हें उनको छोड़ना पड़ता है; तुम उनके साथ नहीं रह सकते। ऐसा नहीं है कि तुम उनके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते हो, बल्कि तुम नहीं निभा सकते हो। क्या इसकी प्रकृति अलग नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुमने संतानोचित होने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने से बचने के लिए घर छोड़ दिया था, तो यह असंतानोचित होना है और यह मानवता का अभाव दर्शाता है। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, लेकिन तुम अपने पंख फैलाकर जल्द-से-जल्द अपने रास्ते चले जाना चाहते हो। तुम अपने माता-पिता को नहीं देखना चाहते, और उनकी किसी भी मुश्किल के बारे में सुनकर तुम कोई ध्यान नहीं देते। तुम्हारे पास मदद करने के साधन होने पर भी तुम नहीं करते; तुम बस सुनाई न देने का बहाना कर लोगों को तुम्हारे बारे में जो चाहें कहने देते हो—तुम बस अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह असंतानोचित होना है। लेकिन क्या स्थिति अभी ऐसी है? (नहीं।) बहुत-से लोगों ने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपनी काउंटी, शहर, प्रांत और यहाँ तक कि अपने देश तक को छोड़ दिया है; वे पहले ही अपने गाँवों से बहुत दूर हैं। इसके अलावा, विभिन्न कारणों से उनके लिए अपने परिवारों के साथ संपर्क में रहना सुविधाजनक नहीं है। कभी-कभी वे अपने माता-पिता की मौजूदा दशा के बारे में उसी गाँव से आए लोगों से पूछ लेते हैं और यह सुन कर राहत महसूस करते हैं कि उनके माता-पिता अभी भी स्वस्थ हैं और ठीक गुजारा कर पा रहे हैं। दरअसल, तुम असंतानोचित नहीं हो; तुम मानवता न होने के उस मुकाम पर नहीं पहुँचे हो, जहाँ तुम अपने माता-पिता की परवाह भी नहीं करना चाहते, या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह विभिन्न वस्तुपरक कारणों से है कि तुम्हें यह चुनना पड़ा है, इसलिए तुम असंतानोचित नहीं हो। ये वे दो कारण हैं। एक और कारण भी है : अगर तुम्हारे माता-पिता वैसे लोग नहीं हैं जो तुम्हें खास तौर पर सताते हैं या परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में रुकावट पैदा करते हैं, अगर वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास को समर्थन देते हैं, या वे ऐसे भाई-बहन हैं जो तुम्हारी तरह परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, खुद परमेश्वर के घर के सदस्य हैं, फिर तुम दोनों में से कौन दिल की गहराई से अपने माता-पिता के बारे में सोचते समय शांति से परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करेगा? तुममें से कौन अपने माता-पिता को—उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा और उनके जीवन की तमाम जरूरतों के साथ—परमेश्वर के हाथों में नहीं सौंप देगा? अपने माता-पिता को परमेश्वर के हाथों में सौंप देना उनके प्रति संतानोचित आदर दिखाने का सर्वोत्तम तरीका है। तुम उम्मीद नहीं करते कि वे जीवन में तरह-तरह की मुश्किलें झेलें, तुम उम्मीद नहीं करते कि वे बुरा जीवन जिएँ, पोषणरहित खाना खाएँ, या बुरा स्वास्थ्य झेलें। अपने हृदय की गहराई से तुम निश्चित रूप से यही उम्मीद करते हो कि परमेश्वर उनकी रक्षा करेगा, उन्हें सुरक्षित रखेगा। अगर वे परमेश्वर के विश्वासी हैं, तो तुम उम्मीद करते हो कि वे अपने खुद के कर्तव्य निभा सकेंगे और तुम यह भी उम्मीद करते हो कि वे अपनी गवाही में दृढ़ रह सकेंगे। यह अपनी मानवीय जिम्मेदारियाँ निभाना है; लोग अपनी मानवता से केवल इतना ही हासिल कर सकते हैं। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने और अनेक सत्य सुनने के बाद, लोगों में कम-से-कम इतनी समझ-बूझ तो है : मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है, मनुष्य परमेश्वर के हाथों में जीता है, और परमेश्वर द्वारा मिलने वाली देखभाल और रक्षा, अपने बच्चों की चिंता, संतानोचित धर्मनिष्ठा या साथ से कहीं ज्यादा अहम है। क्या तुम इस बात से राहत महसूस नहीं करते हो कि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर की देखभाल और रक्षा के अधीन हैं? तुम्हें उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम चिंता करते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते; उसमें तुम्हारी आस्था बहुत थोड़ी है। अगर तुम अपने माता-पिता के बारे में सचमुच चिंतित और विचारशील हो, तो तुम्हें अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उन्हें परमेश्वर के हाथों में सौंप देना चाहिए, और परमेश्वर को हर चीज का आयोजन और व्यवस्था करने देनी चाहिए। परमेश्वर मानवजाति के भाग्य पर राज्य करता है और वह उनके हर दिन और उनके साथ होने वाली हर चीज पर शासन करता है, तो तुम अभी भी किस बात को लेकर चिंतित हो? तुम अपना जीवन भी नियंत्रित नहीं कर पाते, तुम्हारी अपनी ढेरों मुश्किलें हैं; तुम क्या कर सकते हो कि तुम्हारे माता-पिता हर दिन खुश रहें? तुम बस इतना ही कर सकते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में सौंप दो। अगर वे विश्वासी हैं, तो परमेश्वर से आग्रह करो कि वह सही पथ पर उनकी अगुआई करे ताकि वे आखिरकार बचाए जा सकें। अगर वे विश्वासी नहीं हैं, तो वे जो भी पथ चाहें उस पर चलने दो। जो माता-पिता ज्यादा दयालु हैं और जिनमें थोड़ी मानवता है, उन्हें आशीष देने के लिए तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हो, ताकि वे अपने बचा हुआ जीवन खुशी-खुशी बिता सकें। जहाँ तक परमेश्वर के कार्य करने के तरीके का प्रश्न है, उसकी अपनी व्यवस्थाएँ हैं और लोगों को उनके प्रति समर्पित हो जाना चाहिए। तो कुल मिला कर लोगों के जमीर में अपने माता-पिता के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों की जागरूकता है। इस जागरूकता से आने वाला रवैया चाहे जैसा हो, चाहे यह चिंता करने का हो या उनके साथ मौजूद रहने को चुनने का हो, किसी भी स्थिति में, लोगों को अपराध भावना नहीं पालनी चाहिए और उनकी अंतरात्मा को दोषी महसूस नहीं करना चाहिए क्योंकि वे वस्तुपरक हालात से प्रभावित होने के कारण अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर सके। ये और इन जैसे दूसरे मसले लोगों के परमेश्वर में विश्वास के जीवन में मुसीबतें नहीं बननी चाहिए; उन्हें त्याग देना चाहिए। जब माता-पिता के प्रति जिम्मेदारियाँ पूरी करने के विषय उभरते हैं, तो लोगों को ये सही समझ रखनी चाहिए और उन्हें अब बेबस महसूस नहीं करना चाहिए। एक बात तो यह है कि, तुम अपने दिल की गहराई से जानते हो कि तुम असंतानोचित नहीं हो, और तुम अपनी जिम्मेदारियों से जी नहीं चुरा रहे हो या बच नहीं रहे हो। दूसरी बात, तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर के हाथों में हैं, तो फिर अभी भी चिंता करने के लिए क्या रह गया है? किसी को जो भी चिंताएँ हों, बेकार हैं। प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के अनुसार अंत तक सुगम जीवन जिएगा, बिना किसी भटकाव के अपने पथ के अंत तक पहुँचेगा। इसलिए लोगों को अब इस मामले में चिंता करते रहने की कोई जरूरत नहीं है। तुम संतानोचित हो या नहीं, तुमने अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों या नहीं, या क्या तुम्हें अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाना चाहिए—ये वे चीजें नहीं हैं जिनके बारे में तुम्हें सोचना चाहिए; ये वे चीजें हैं जिन्हें तुम्हें त्याग देना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मैंने देखा कि कैसे जब मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर से निकला और एक बेटे के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाने में असमर्थ रहा, तो मुझे अपराध बोध और चिंता हुई कि मुझे गैर-संतानोचित बेटे के रूप में देखा जाएगा। मैंने देखा कि मैं सत्य के दृष्टिकोण से नहीं सोच रहा था और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से यह नहीं सोच रहा था कि अपने माता-पिता के प्रति एक बेटे या बेटी की जिम्मेदारी को कैसे ठीक से देखा जाए, बल्कि एक सांसारिक व्यक्ति के पारिवारिक लगाव के अनुसार ऐसी जिम्मेदारी को देख रहा था। वास्तव में, अपने माता-पिता की देखभाल करने की क्षमता और अवसर होना, लेकिन संतानोचित व्यवहार न कर पाना और अपने माता-पिता के साथ न रहना क्योंकि तुम्हें परमेश्वर से अपना कर्तव्य निभाने का बुलावा मिला था ये दो बिल्कुल अलग प्रकृतियों की भिन्न स्थितियाँ थीं। अगर कोई बेटा या बेटी अपने माता-पिता के साथ रहता है और उसके पास अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करने का समय है, लेकिन अपने हितों या इच्छाओं के कारण अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार नहीं हैं, और जब वे बूढ़े हो जाते हैं और बीमार पड़ जाते हैं, तो उनकी देखभाल नहीं करते, तो उनमें मानवता की कमी है और उन्होंने वह अंतरात्मा और विवेक खो दिया है जो एक सामान्य इंसान में होना चाहिए। हम जो परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करते हैं, अपने माता-पिता के प्रति जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए तैयार रहते हैं। और जब हम उनके साथ होते हैं तो अपनी पूरी क्षमता से उनकी देखभाल करते हैं। हालाँकि, कम्युनिस्ट पार्टी के उत्पीड़न के कारण, हममें से कई लोग घर पर रहकर अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ रहते हैं। हम बस अपने माता-पिता के साथ रहने और उनके प्रति संतानोचित भक्ति रखने में असमर्थ रहते हैं। साथ ही, कभी-कभी कलीसिया के काम की जरूरतों के कारण, हमें सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य करने के लिए अपने घरों को छोड़ना पड़ता है और हम अपने माता-पिता के साथ संतानोचित होने में असमर्थ होते हैं। अगर परिस्थितियाँ अनुमति दें, तो हम यह भी उम्मीद करते हैं कि हम अपने माता-पिता को यह देखने के लिए अक्सर फोन कर सकें कि वे कैसे हैं और उन्हें बताएँ कि हम ठीक हैं, ताकि उन्हें चिंता न हो। हमारे दिल में अपने माता-पिता के लिए कुछ हद तक चिंता होती है। कभी-कभी हम अपने माता-पिता के लिए भी प्रार्थना करते हैं और अपने परिवार को परमेश्वर के हाथों में सौंप देते हैं। हम संतानोचित भक्ति का अभ्यास करने की पूरी कोशिश करते हैं और अपने तरीके से अपनी परिस्थितियों के अनुसार अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हैं। यह वैसा नहीं है जिसे सांसारिक लोग “गैर-संतानोचित” कहते हैं। हम उनसे अलग मार्ग पर चल रहे हैं, हम परमेश्वर पर विश्वास और उसका अनुसरण करते हैं और जीवन के सही मार्ग पर चलते हैं, और हम अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर की इच्छा का पालन करना चाहते हैं। हमारे कंधों पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण जिम्मेदारी और मिशन है। अपना कर्तव्य निभाना परमेश्वर के इरादे और माँगों के अनुसार अभ्यास करने, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण का मामला है। यह नैतिकता और अंतरात्मा के मानवीय मानक से कहीं आगे की बात है। जब मुझे यह सब एहसास हुआ, तो मुझे बहुत स्पष्टता महसूस हुई और मेरा दृष्टिकोण और रवैया सही हो गया। मुझे अब सांसारिक लोगों द्वारा मजाक उड़ाने या गैर-संतानोचित होने का आरोप लगाने का डर नहीं रह गया था।

परमेश्वर की संगति के माध्यम से, मैंने यह भी स्पष्ट रूप से देखा कि मुझमें परमेश्वर में सच्ची आस्था की कमी थी। मैं यह नहीं समझ पाया कि मनुष्य की मृत्यु और भाग्य परमेश्वर के हाथों में है। जहाँ तक हमारे माता-पिता के स्वास्थ्य की बात है, उन्हें कौन सी बीमारी हो सकती है और वे अपने बुढ़ापे में कैसे रहते हैं, इनमें से कुछ भी सिर्फ लोगों द्वारा निर्धारित नहीं किया जा सकता, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। मुझे इस मामले में परमेश्वर की संप्रभुता को पहचानना था और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना था। मैंने सोचा कि जब मेरी माँ बीमार पड़ती थी, तो मैं उसे डॉक्टरों के पास ले गया था, और जब भी कोई विशेषज्ञ उपलब्ध होता, तो उसके लिए अपॉइंटमेंट लेता था, लेकिन इतनी सारी दवाएँ लेने के बावजूद, उनकी हालत नहीं सुधरी, बल्कि बदतर हो गई। मैं अपनी माँ के साथ रहते हुए भी उसके लिए कुछ नहीं कर पाया था, मैं उसके दर्द को थोड़ा भी कम नहीं कर पाया था। जब वह अवसाद और पीड़ा में फंस गई, तो मैंने उसके साथ काफी संगति की, कभी उसका मार्गदर्शन किया तो कभी उसकी समस्याओं को उजागर किया, लेकिन वह अनुचित स्थिति में फंस गई थी और इसे सुधारना नहीं चाहती थी, चिंता करने के बावजूद मैं असल में कुछ भी नहीं कर सकता था। फिर भी, जब मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए गया, तो मेरी माँ ने खुद को संभाल लिया, वह भाई-बहनों से बातचीत करने को तैयार हो गई और उसकी हालत में सुधार हुआ। मैंने देखा कि संतानोचित होने के मेरे छोटे-मोटे काम मददगार नहीं थे। उसका ख्याल रखने के लिए मेरा उसके पास रहने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण परमेश्वर की सुरक्षा और देखभाल थी। मैंने देखा कि माता-पिता की भलाई और खुशी इस बात पर निर्भर नहीं है कि उनके बच्चे उनके प्रति संतानोचित हैं या नहीं, बल्कि परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनियति पर निर्भर हैं। बच्चों के तौर पर जो हम सबसे अच्छा कर सकते हैं कि हम अपने माता-पिता के लिए प्रार्थना करें और उन्हें पूरी तरह से परमेश्वर के हाथों में सौंप दें। जैसा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अपने माता-पिता को परमेश्वर के हाथों में सौंप देना उनके प्रति संतानोचित आदर दिखाने का सर्वोत्तम तरीका है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। जब हमारी आस्था होती है कि परमेश्वर की सारी व्यवस्थाएँ उचित होंगी और हम परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण करते हैं, तो हम एक निश्चिंत और चिंतामुक्त जीवन जीते हैं।

पहले मुझे इनमें से कुछ भी समझ में नहीं आया था, और मैं हमेशा अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित न होने के कारण दोषी महसूस करता था, हमेशा चिंता रहती थी कि दूसरे लोग मुझे गैर-संतानोचित कहेंगे और पीठ पीछे बातें करेंगे। परिणामस्वरूप, अपना कर्तव्य निभाते समय मुझे हमेशा चिंता बनी रहती थी और मैं बेबस महसूस करता था। अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर से बाहर जाने के बावजूद, मेरा दिल अक्सर अपनी माँ के लिए फिक्रमंद रहता था। मैं अपना पूरा मन अपने कर्तव्य में नहीं लगा पाया, और नतीजा यह हुआ कि, मैं सिद्धांतों और गुणों को समझने में नाकाम रहा और मेरे काम में अक्सर समस्याएँ और विचलन सामने आने लगे। फिर भी मुझे इन समस्याओं के लिए अपराध बोध या पश्चात्ताप नहीं होता था, और इसके बजाय मुझे अक्सर अपनी माँ के प्रति संतानोचित न होने के लिए अपराध बोध होता था। क्या मैंने अपनी प्राथमिकताएं उलट नहीं दीं? मैं परमेश्वर के प्रति विद्रोही हो रहा था! परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनियति के कारण ही मुझे माता-पिता और जीवन मिले थे। मैं सर्वप्रथम एक सृजित प्राणी हूँ, और उसके बाद ही अपने माता-पिता का पुत्र हूँ। फिर भी, मैं हमेशा अपनी भावनात्मक जरूरतों को पूरा करने, और सांसारिक लोगों द्वारा फटकारे जाने से बच रहा था, लेकिन मैं उस जिम्मेदारी को पूरा करने में असफल रहा जो कर्तव्य परमेश्वर ने मुझे सौंपा था। क्या यह विश्वासघाती कृत्य नहीं था? मैं कैसे दावा कर सकता था कि मेरी अंतरात्मा सच्ची है? मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “तुमने एक संतानोचित बच्चे के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखी है, तुमने अपनी भावनात्मक जरूरतें पूरी की हैं, तुम्हारे जमीर ने कभी भी दोषी महसूस नहीं किया है, और तुमने अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाया है, लेकिन एक चीज है जिसकी तुमने अनदेखी की है, और जिसे तुमने खो दिया है : तुम इन तमाम मामलों के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश नहीं आए, उन्हें उनके अनुसार नहीं संभाला, और तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने का अवसर गँवा चुके हो। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि तुम अपने माता-पिता के प्रति तो संतानोचित रहे, मगर परमेश्वर को धोखा दे दिया। तुमने संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाई और अपने माता-पिता की देह की भावनात्मक जरूरतें पूरी कीं, मगर तुमने परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया। तुम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के बजाय एक संतानोचित बच्चा बनना चुनते हो। यह परमेश्वर का सबसे बड़ा तिरस्कार है। तुम संतानोचित हो, तुमने अपने माता-पिता को निराश नहीं किया है, तुम्हारे पास जमीर है, और तुम एक बच्चे के तौर पर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करते हो, सिर्फ इन कारणों से परमेश्वर नहीं कहेगा कि तुम उसके प्रति समर्पण करने वाले वह व्यक्ति हो जिसके पास मानवता है। अगर तुम सिर्फ अपने जमीर और अपनी देह की भावनात्मक जरूरतें पूरी करते हो, मगर इस मामले के साथ पेश आने या उसे संभालने के किए परमेश्वर के वचनों या सत्य को आधार और सिद्धांतों के रूप में स्वीकार नहीं करते, तो तुम परमेश्वर के प्रति अत्यधिक विद्रोहशीलता दिखाते हो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचनों का न्याय मुझे बहुत चुभता है। वास्तव में, भले ही मैं अपनी माँ के साथ रहता और जितनी हो सके उसकी देखभाल करता, भले ही सांसारिक लोग मेरे बारे में अच्छा सोचते और मैं एक अत्यंत संतानोचित पुत्र के रूप में जाना जाता, परमेश्वर के सामने मैं तब भी एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कार्य और कर्तव्य गंवा देता, मुझमें परमेश्वर के प्रति थोड़ी सी भी अंतरात्मा नहीं होती, जिसने मुझे जीवन और सब कुछ दिया है। इस तरह, मैं परमेश्वर के प्रति सबसे विद्रोही और प्रतिरोधी लोगों में से एक होता और उसके उद्धार के योग्य नहीं होता। यह एहसास करते ही मुझे दुख महसूस हुआ। मैंने देखा कि शैतान मुझे गहराई तक भ्रष्ट कर चुका था, मैंने परमेश्वर के प्रति अविवेकी ढंग से कार्य किया, मुझमें थोड़ी सी भी ईमानदारी नहीं थी और पूरी तरह से मानवता की कमी थी! मुझे अपने लिए मिले आदेश और मिशन का एहसास हुआ, और मैंने इस “गैर-संतानोचित” लेबल से बेबस होना बंद कर दिया। मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण के लिए तैयार था, अपने कर्तव्य जो कर सकता था वह करने के लिए तैयार था, और अपनी माँ को परमेश्वर के हाथों में सौंपने के लिए तैयार था, और चाहता था कि परमेश्वर हमारा मार्गदर्शन करे ताकि हम अपने जीवन में परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर सकें और अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकें। मुझे सही चुनाव करने और सही लक्ष्य पाने की अनुमति देने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!

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