जब पता चला कि माँ को कैंसर है

17 जुलाई, 2024

जून 2023 में, सुसमाचार कार्य की जरूरतों के चलते मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ना था। क्योंकि मुझे पता था कि मैं कुछ समय तक वापस नहीं आ पाऊँगी, मैंने सोचा कि मैं घर जाऊँगी, अपने माता-पिता को बताऊँगी और इस दौरान कुछ कपड़े भी ले आऊँगी। जब मैं पहुँची, तो मैंने देखा कि मेरी माँ को एक आईवी लगी हुई थी और काफी पीली दिख रही थी। मैंने उससे पूछा कि उसे क्या हुआ है, उसने कहा कि यह कोई बड़ी परेशानी नहीं है और एक छोटी सी सर्जरी से ठीक हो जाएगी। लेकिन यह कुछ ज्यादा ही गंभीर बात लग रही थी, इसलिए मैंने उसे मेडिकल रिकॉर्ड दिखाने के लिए कहा। रिकॉर्ड में लिखा था कि उसे तीन तरह के घातक ट्यूमर थे। मैं चौंक गई, मेरी माँ को कैंसर था! ये घातक ट्यूमर थे—क्या वह वास्तव में ठीक हो सकती थी? अगर इलाज काम न करे तो क्या होगा? मेरे पिता ने मुझसे कहा, “तुम्हारी माँ अभी कीमोथेरेपी करवा रही है और उसके इलाज की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि कीमोथेरेपी कैसी चलती है।” हालाँकि, मुझे पता था कि यह सब परमेश्वर की अनुमति से हो रहा था और मैं शिकायत नहीं कर सकती थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से अपने हृदय की रक्षा करने के लिए प्रार्थना की। फिर मेरे पिता ने मुझे बताया कि जब मेरी माँ अस्पताल में बीमार थी, तो कैसे मेरा छोटा भाई उसकी देखभाल करने के लिए वहाँ पर था और यहाँ तक कि उसने मेरी माँ के मेडिकल बिलों का भुगतान करने के लिए दूसरी नौकरी भी कर ली थी। यह सुनकर मैं बहुत निराश थी। मैं घर की बड़ी बेटी थी और मुझे ही यह सब संभालना चाहिए था। लेकिन इसके बजाय मैं कोई भी मदद करने में असमर्थ थी। क्या मेरे माता-पिता यह सोचेंगे कि मुझमें अंतरात्मा की कमी है, मैं संतानोचित नहीं हूँ और उन्होंने मुझे बेकार में ही पाला है? मेरी माँ ने मुझे दिलासा देते हुए कहा, “तुम चिंता मत करो और मत डरो। हम कब तक जीवित रहेंगे यह सब परमेश्वर पर निर्भर है। तुम बस अपना कर्तव्य करती रहो और मेरी चिंता मत करो।” माँ की बात सुनकर, मैं वहीं रुकना चाहती थी और उनकी देखभाल करना चाहती थी, लेकिन कलीसिया में इतना ज्यादा काम था कि मुझे पता था कि मैं घर पर नहीं रह सकती थी। अपनी माँ को ऐसे देखकर, मैं बोल ही नहीं पाई कि मैंने घर से दूर जाकर अपना कर्तव्य निभाने की योजना बनाई है, इसलिए मैं अंततः बिना कुछ बोले ही वहां से जल्दी से निकल गई।

रास्ते मे मैं बस यही सोच रही थी कि मेरी माँ अस्पताल में बीमार है और उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। और मेरा छोटा भाई मेरी माँ के मेडिकल बिलों का भुगतान करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है। मैंने इस बारे में जितना ज्यादा सोचा, उतना ही बुरा महसूस हुआ। मुझे लगा कि उसकी बेटी होने के नाते, मुझे उसकी बीमारी के समय उसकी देखभाल करनी चाहिए, लेकिन न सिर्फ मैं उसकी देखभाल नहीं कर पाऊँगी, बल्कि मैं उसकी बिल्कुल भी मदद नहीं कर पाऊँगी। अगर दूसरे लोग इस बारे में सुनेंगे, तो वे मेरे बारे में क्या कहेंगे? क्या वे कहेंगे कि मुझमें अंतरात्मा की कमी है और मैं कृतघ्न हूँ? क्या मेरा छोटा भाई मेरे बारे में शिकायत करेगा? मैं जितना ज्यादा सोचती, उतना ही बुरा महसूस करती, और मैं घर छोड़ने और अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा पूरी तरह से खो बैठी। मैंने अपने हृदय में परमेश्वर से कहा, “हे परमेश्वर, मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़कर नहीं जा सकती। मेरी माँ को कैंसर है, और अगर मैं अभी चली गई, तो शायद मैं उसे फिर कभी न देख पाऊँ! मैं यहीं अपना कर्तव्य निभाऊँगी, इस तरह जब मेरे पास खाली समय होगा तो मैं अपनी माँ से मिल सकती हूँ।” उसके बाद, मैंने अपना कर्तव्य निभाया, लेकिन मैं अपने मन को शांत नहीं कर पाई और ध्यान केंद्रित नहीं कर सकी। मैं सोचती रही, “मेरी माँ अब कैसी होगी?” मैं घर जाकर उससे मिलने के लिए समय निकालना चाहती थी। मुझे पता था कि मेरी हालत ठीक नहीं है, इसलिए मैंने पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों की तलाश की। मुझे यह अंश मिला : “हर अवधि और हर चरण में कलीसिया में कुछ विशेष चीजें घटित होती हैं जो लोगों की धारणाओं के विपरीत होती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग बीमार हो जाते हैं, अगुआओं और कर्मियों को बदल दिया जाता है, कुछ लोग उजागर करके निकाल दिए जाते हैं, कुछ को जिंदगी और मौत की परीक्षा का सामना करना पड़ता है, कुछ कलीसियाओं में बुरे लोग और मसीह-विरोधी भी होते हैं जो परेशानियाँ खड़ी करते हैं, वगैरह। ये चीजें समय-समय पर होती रहती हैं, लेकिन ये संयोगवश बिल्कुल नहीं होती हैं। ये सभी चीजें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के परिणाम हैं। एक बहुत शांत अवधि में अचानक कई घटनाएं या असामान्य चीजें घटित हो सकती हैं, जो या तो तुम लोगों के आस-पास होंगी या व्यक्तिगत रूप से तुम लोगों के साथ होंगी, और ऐसी घटनाएं लोगों के जीवन की सामान्य व्यवस्था और सामान्य गतिविधि में बाधक बनती हैं। बाहर से, ये चीजें लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होती हैं, लोग नहीं चाहते कि उनके साथ ऐसी चीजें हों या वे इन्हें घटित होते देखना नहीं चाहते हैं। तो क्या इन चीजों के घटित होने से लोगों को फायदा होता है? ... कुछ भी संयोग से नहीं होता, हर चीज पर परमेश्वर का शासन है। हालाँकि लोग इसे सैद्धांतिक रूप से समझ और स्वीकार सकते हैं, फिर भी लोगों को परमेश्वर की संप्रभुता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? लोगों को यही सत्य खोजना और समझना चाहिए, और विशेष रूप से इसका अभ्यास करना चाहिए। यदि लोग केवल सैद्धांतिक रूप से परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकारते हैं, पर इसकी वास्तविक समझ नहीं रखते, और उनकी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का समाधान नहीं हुआ है, तो चाहे उन्होंने कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, और चाहे उन्होंने कितनी ही चीजों का अनुभव किया हो, वे अंत में सत्य प्राप्त नहीं कर पाएँगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11))। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि लोगों को अपने जीवन के विभिन्न चरणों में कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। हो सकता है कि लोग ऐसी परिस्थितियों का सामना न करना चाहें, लेकिन इनमें परमेश्वर का इरादा होता है। अगर हम सत्य की खोज नहीं करते, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जीते हैं, परमेश्वर को गलत समझकर उसके बारे में शिकायत करते हैं, तो इन परिस्थितियों से सीखना मुश्किल होगा। मेरी माँ के बीमार पड़ने से मैं कुछ बातें सीख सकती थी। मुझे सत्य की खोज करनी थी और खुद पर विचार करना था। मैंने विचार किया कि जब मैंने सुना कि मेरी माँ को कैंसर है, तो कैसे मुझे चिंता हुई कि इलाज काम नहीं करेगा। मुझे यह भी चिंता थी कि अगर मैं अस्पताल में कीमोथेरेपी करवाते समय उसकी देखभाल नहीं करूँगी, तो वह परेशान हो जाएगी। क्या उसे लगेगा कि उसने मुझे बेकार में ही पाला है? इसी चिंता में, मैंने तुरंत अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर से बाहर निकलने की सारी प्रेरणा खो दी। यहाँ तक कि मैंने परमेश्वर के सामने अपना बचाव भी किया। मुझे लगा कि अब मुझे यहीं रुक कर अपनी माँ की देखभाल करनी चाहिए क्योंकि वह बीमार थी और मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर नहीं छोड़ सकती थी। मेरे भावनात्मक लगाव बहुत गहरे थे, और मुझे उन्हें हल करने के लिए सत्य की खोज करनी थी।

बाद में, मैंने पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंशों की तलाश की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “गैर-विश्वासियों की दुनिया में एक कहावत है : ‘कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं।’ एक कहावत यह भी है : ‘जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।’ ये कहावतें कितनी शानदार लगती हैं! असल में, पहली कहावत में जिन घटनाओं का जिक्र है, कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना, वे सचमुच होती हैं, वे तथ्य हैं। लेकिन वे सिर्फ पशुओं की दुनिया की घटनाएँ हैं। वह महज एक किस्म की विधि है जो परमेश्वर ने विविध जीवित प्राणियों के लिए स्थापित की है, जिसका इंसानों सहित सभी जीवित प्राणी पालन करते हैं। ... लोग ऐसी बातें क्यों करते हैं? इस वजह से कि समाज में और लोगों के समुदायों में तरह-तरह के गलत विचार और सहमतियाँ हैं। लोगों के प्रभावित हो जाने, बिगड़ जाने और इन चीजों से सड़-गल जाने के बाद उनके भीतर माता-पिता और बच्चे के रिश्ते की व्याख्या करने और उससे निपटने के अलग-अलग तरीके पैदा होते हैं, और आखिरकार वे अपने माता-पिता से लेनदारों जैसा बर्ताव करते हैं—ऐसे लेनदार जिनका कर्ज वे पूरी जिंदगी नहीं चुका सकेंगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने माता-पिता के निधन के बाद पूरी जिंदगी अपराधी महसूस करते हैं, और सोचते हैं कि वे अपने माता-पिता की दयालुता के लायक नहीं थे, क्योंकि उन्होंने वह काम किया जिससे उनके माता-पिता खुश नहीं हुए या वे उस राह पर नहीं चले जो उनके माता-पिता चाहते थे। मुझे बताओ, क्या यह ज्यादती नहीं है? लोग अपनी भावनाओं के बीच जीते हैं, तो इन भावनाओं से उपजनेवाले तरह-तरह के विचारों से ही वे अतिक्रमित और परेशान हो सकते हैं। लोग एक ऐसे माहौल में जीते हैं जो भ्रष्ट मानवजाति की विचारधारा से रंगा होता है, तो वे तरह-तरह के भ्रामक विचारों से अतिक्रमित और परेशान होते हैं, जिससे उनकी जिंदगी दूसरे जीवित प्राणियों से ज्यादा थकाऊ और कम सरल होती है। लेकिन फिलहाल, चूँकि परमेश्वर कार्यरत है, और चूँकि वह इन तमाम तथ्यों की सच्ची प्रकृति बताने और उन्हें सत्य समझने योग्य बनाने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है, इसलिए सत्य को समझ लेने के बाद ये भ्रामक विचार और सोच तुम पर बोझ नहीं बनेंगे और फिर वे वह मार्गदर्शक भी नहीं बनेंगे जो तुम्हें बताए कि अपने माता-पिता से तुम्हें अपना रिश्ता कैसे निभाना चाहिए। तब तुम्हारा जीवन ज्यादा सुकून-भरा रहेगा। सुकून-भरा जीवन जीने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों का ज्ञान नहीं होगा—तुम अब भी ये चीजें जान सकोगे। यह बस इस पर निर्भर करता है कि तुम अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों से पेश आने के लिए कौन-सा नजरिया और तरीके चुनते हो। एक रास्ता भावनाओं की राह पकड़ना है और इन चीजों से भावनात्मक उपायों और शैतान द्वारा मनुष्य को दिखाए गए तरीकों, विचारों और सोच के साथ निपटना है। दूसरा रास्ता इन चीजों से परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सिखाए वचनों के आधार पर निपटना है। जब लोग ये मामले शैतान के भ्रामक विचारों और सोच के अनुसार सँभालते हैं, तो वे बस अपनी भावनाओं की उलझनों में ही जी सकते हैं, और कभी भी सही-गलत में फर्क नहीं कर सकते। इन हालात में उनके पास जाल में फँसकर जीने के सिवाय कोई चारा नहीं रहता, वे हमेशा ऐसे मामलों में उलझे रहते हैं जैसे कि ‘तुम सही हो, मैं गलत। तुमने मुझे ज्यादा दिया है, मैंने तुम्हें कम दिया। तुम कृतघ्न हो। तुम कतार से बाहर हो।’ नतीजतन, कभी भी कोई ऐसा वक्त नहीं होता जब वे स्पष्ट बातें करते हों। लेकिन, लोगों के सत्य समझने के बाद, और जब वे उनके भ्रामक विचारों, सोच और भावनाओं के जाल से बच निकलते हैं, तो ये मामले उनके लिए सरल हो जाते हैं। अगर तुम उन सत्य सिद्धांतों, विचारों और सोच का पालन करते हो जो सही हैं और परमेश्वर से आए हैं, तो तुम्हारा जीवन बहुत सुकून-भरा हो जाएगा। अब अपने माता-पिता से अपने रिश्तों को सँभालने में न जनमत रुकावट बनेगा, न तुम्हारे जमीर की जागरूकता, और न ही तुम्हारी भावनाओं का बोझ; इसके विपरीत, ये चीजें तुम्हें इस योग्य बना देंगी कि तुम इस रिश्ते का सही और तार्किक ढंग से सामना कर सको। अगर तुम परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिए गए सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो, तो भले ही लोग पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना करें, तुम अपने दिल की गहराई में शांति और सुकून ही महसूस करोगे, और तुम पर उसका कोई असर नहीं होगा। कम-से-कम तुम खुद को एक लापरवाह अहसान-फरामोश होने पर नहीं धिक्कारोगे, या अपने दिल की गहराई में अब अपने जमीर का आरोप महसूस नहीं करोगे। यह इसलिए कि तुम यह जान लोगे कि तुम्हारे सारे कार्य परमेश्वर द्वारा तुम्हें सिखाए गए तरीकों के अनुसार किए जाते हैं, तुम परमेश्वर के वचनों को सुनते और उनके प्रति समर्पण करते हो, और उसके मार्ग का अनुसरण करते हो। परमेश्वर के वचनों को सुनना और उसके मार्ग का अनुसरण करना ही जमीर की वह समझ है जो लोगों में सबसे ज्यादा होनी चाहिए। ये चीजें कर सकने पर ही तुम एक सच्चे व्यक्ति बन पाओगे। अगर तुमने ये चीजें संपन्न नहीं की हैं, तो तुम एक लापरवाह अहसान-फरामोश हो। क्या बात यही नहीं है? (यही है।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से, मुझे एहसास हुआ कि मैं इतनी दुखी इसलिए थी क्योंकि मेरे विचार भ्रामक थे जैसे “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” और “एक गैर-संतानोचित व्यक्ति एक जानवर से भी नीच है,” शैतान ने ये विचार मेरे मन में भर दिए थे, वे मेरे अंदर गहराई से जड़ जमा चुके थे। मुझे लगा कि अगर मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित नहीं हो सकती, तो इसका मतलब है कि मैं एक कृतघ्न, गैर-संतानोचित बेटी हूँ। मुझे लगा कि मुझे पालना मुश्किल रहा होगा, खासकर इसलिए कि मैं ऐसे युग में पैदा हुई थी जहाँ लड़कों और पुरुषों को श्रेष्ठ माना जाता था, जिसका मतलब था कि मेरी माँ को बहुत अपमान और तिरस्कार सहना पड़ा था, लेकिन वह मुझे मेरे छोटे भाई से भी ज्यादा प्यार करती थी। वह मेरी आस्था और कर्तव्य का भी खास तौर से समर्थन करती थी। वह जानती थी कि मेरा भावनात्मक लगाव बहुत गहरा है, इसलिए अगर घर पर कुछ होता था तो वह मुझे नहीं बताती थी, उसे डर था कि कहीं मेरा ध्यान भंग न हो जाए और मेरा कर्तव्य प्रभावित न हो जाए। चाहे भावनात्मक हो या वित्तीय दृष्टिकोण से, मेरी माँ ने मेरा बहुत साथ दिया और वह अक्सर मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए प्रोत्साहित करती थी। यह सब सोचकर और कैसे उसके बीमार होने पर मैं उसकी देखभाल करने के लिए उसके पास नहीं रह सकी, मुझे बहुत दुख हुआ। मैंने हमेशा सोचा कि उनकी बेटी होने के नाते, अगर मैं उनका सम्मान नहीं करती या जब वे बीमार होते हैं तो उनकी देखभाल नहीं करती, तो यह उनके प्रति गैर-संतानोचित, कृतघ्न व्यवहार होगा। इसलिए मैं अपराधी महसूस करती थी और उनके सामने आने में शर्म आती थी। मैं शैतानी जहर से गहराई तक प्रभावित हो चुकी थी! अगर मैं इसे भावनात्मक लगाव और पारंपरिक विचारों के नजरिए से देखना जारी रखती, तो मुझे यह वैचारिक बोझ उठाना पड़ता, यह सोचकर कि मैं अपनी माँ की देखभाल न करने की वजह से गैर-संतानोचित हूँ। यह जीने का एक बहुत ही थकाऊ और दयनीय तरीका होगा। मुझे सक्रिय रूप से यह सब त्यागना पड़ा और लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों में सत्य के अनुरूप देखना सीखना पड़ा, तभी मैं खुद को इस पीड़ा से मुक्त कर पाई।

बाद में, आध्यात्मिक भक्ति के दौरान, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला। इससे मुझे अपने माता-पिता के साथ अपने रिश्ते के बारे में सोचने के तरीके के बारे में अधिक स्पष्टता मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “एक बच्चे के तौर पर तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें इस जीवन में करनी हैं, ये सब ऐसी चीजें हैं जो एक सृजित प्राणी को करनी ही चाहिए, जो तुम्हें सृष्टि प्रभु ने सौंपी हैं, और इनका तुम्हारे माता-पिता को दयालुता का कर्ज चुकाने के साथ कोई लेना-देना नहीं है। अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना, उनकी दयालुता का बदला चुकाना—इन चीजों का तुम्हारे जीवन के उद्देश्य से कोई लेना-देना नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारे लिए अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना या उनके प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी पूरी करना जरूरी नहीं है। दो टूक शब्दों में कहें, तो तुम्हारे हालात इजाजत दें, तो तुम यह थोड़ा-बहुत कर सकते हो और अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो; जब हालात इजाजत न दें, तो तुम्हें ऐसा करने पर अड़ना नहीं चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने की जिम्मेदारी पूरी न कर सको, तो यह कोई भयानक बात नहीं है, बस यह तुम्हारे जमीर, मानवीय नैतिकता और मानवीय धारणाओं के थोड़ा खिलाफ है। मगर कम-से-कम यह सत्य के विपरीत नहीं है, और परमेश्वर इसे लेकर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। जब तुम सत्य को समझ लेते हो, तो इसे लेकर तुम्हारे जमीर को फटकार महसूस नहीं होगी। अब चूँकि तुमने सत्य के इस पहलू को समझ लिया है, तो क्या तुम्हारा दिल स्थिर महसूस नहीं कर रहा है? (कर रहा है।) कुछ लोग कहते हैं : ‘भले ही परमेश्वर मेरी निंदा नहीं करेगा, मगर मेरा जमीर इससे उबर नहीं पा रहा है, मैं डाँवाडोल महसूस कर रहा हूँ।’ अगर तुम्हारी स्थिति ऐसी है, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और तुमने इस मामले की गहराई या उसके सार को नहीं समझा है। तुम मनुष्य की नियति को नहीं समझते, परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझते और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाएँ स्वीकारने को तैयार नहीं हो। तुम सदा मानवीय इच्छा और अपनी भावनाएँ लिए रहते हो, यही चीजें तुम्हें प्रेरित करती और तुम पर हावी रहती हैं; ये तुम्हारा जीवन बन गई हैं। अगर तुम मानवीय इच्छा और अपनी भावनाएँ चुनते हो, तो तुमने सत्य को नहीं चुना है, तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो, उसके लिए समर्पित नहीं हो। अगर तुम मानवीय इच्छा और अपनी भावनाएँ चुनते हो, तो तुम सत्य को धोखा दे रहे हो। तुम्हारे हालात और माहौल स्पष्ट रूप से तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने की अनुमति नहीं देते, मगर तुम हमेशा सोचते हो : ‘मैं अपने माता-पिता का ऋणी हूँ। मैंने उन्हें संतानोचित निष्ठा नहीं दिखाई है। उन्होंने मुझे कई सालों से नहीं देखा है। उन्होंने मुझे बेकार ही पाल-पोस कर बड़ा किया।’ तुम इन चीजों को अपने दिल की गहराई से कभी भी त्याग नहीं सकते। इससे एक बात साबित होती है : तुम सत्य को नहीं स्वीकारते। सिद्धांत के संदर्भ में, तुम मानते हो कि परमेश्वर के वचन सही हैं, लेकिन तुम उन्हें सत्य के रूप में स्वीकार नहीं करते या अपने कार्य सिद्धांतों के तौर पर नहीं लेते। इसलिए कम-से-कम अपने माता-पिता से बर्ताव के मामले में तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो। ऐसा इसलिए कि इस मामले में, तुम सत्य के आधार पर कार्य नहीं करते, परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास नहीं करते, बल्कि सिर्फ अपनी भावनात्मक और जमीर की जरूरतें संतुष्ट करते हो, अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना चाहते हो और उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना चाहते हो। भले ही इस फैसले के लिए परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करता, यह तुम्हारा फैसला है, मगर अंत में खास तौर से जीवन के संदर्भ में जिसकी हार होगी, वह तुम हो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मुझे और अधिक स्पष्टता मिली। मैंने देखा कि जिस तरह से मेरे माता-पिता ने मेरा पालन-पोषण किया था, वह सब परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के कारण था। मेरी माँ का दयालु व्यवहार वास्तव में परमेश्वर का अनुग्रह था। आस्था में प्रवेश करने के बाद, मेरी माँ ने घर संभालने का प्रयास किया ताकि मैं शांति से अपना कर्तव्य निभा सकूँ बाहरी तौर पर यह मेरी माँ की दयालुता लग सकती है, लेकिन वास्तव में, यह इसलिए था क्योंकि परमेश्वर मेरा आध्यात्मिक कद जानता था और उसके अनुसार व्यवस्था करता था। यह मेरी माँ का कर्तव्य और जिम्मेदारी थी कि वह घर संभाले और मेरी आस्था में मेरा साथ दे। परमेश्वर कहता है कि हमारे माता-पिता हमारे ऋणदाता नहीं हैं, अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना सिर्फ एक जिम्मेदारी है, न कि लोगों के रूप में हमारा मिशन। अगर परिस्थितियाँ सही हैं, तो हम उनकी देखभाल कर सकते हैं और उनके प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखा सकते हैं, लेकिन अगर ऐसा नहीं है और हम उनके प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा नहीं दिखा सकते हैं, तो यह कोई अपमान की बात नहीं है, क्योंकि इस जीवन में हमें बहुत सी चीजें करनी हैं। हमारे पास ऐसे कर्तव्य हैं जो हमें सृजित प्राणियों के रूप में करने चाहिए, और हम सिर्फ अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाने के लिए नहीं जी सकते। ऐसे कई गैर-विश्वासी भी हैं जो अपने करियर और परिवार के कारण अपने माता-पिता से बहुत समय तक दूर रहते हैं और अपने माता-पिता की देखभाल करने में असमर्थ होते हैं, लेकिन लोग समझते हैं और उनकी निंदा या उनका उपहास नहीं करते। जहाँ तक मेरी बात है, मैं अपने माता-पिता के प्रति कृतज्ञता में डूबी हुई थी, और अक्सर उनके साथ नहीं रह पाने के कारण निराशा और दोषी महसूस करती थी और यहाँ तक कि अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर नहीं छोड़ने का विकल्प भी चुना था। मेरे भावनात्मक लगाव बहुत मजबूत थे! हम ऐसे समय में हैं जब सुसमाचार का बहुत विस्तार हो रहा है, और कलीसिया के एक अगुआ के रूप में मुझे परमेश्वर के इरादे की ओर और भी अधिक ध्यान देना चाहिए। मुझे अपने भाई-बहनों को परमेश्वर के अंतिम दिनों के सुसमाचार की गवाही देने के लिए अगुआई करनी चाहिए और भी अधिक लोगों को परमेश्वर की आवाज सुनने और अंतिम दिनों में उसका उद्धार प्राप्त करने देना चाहिए। यह मेरा कर्तव्य और मेरी जिम्मेदारी थी। लेकिन इसके बजाय, मैंने माना कि अपने माता-पिता की देखभाल करना और उनका सम्मान करना सबसे महत्वपूर्ण काम था जो मैं कर सकती थी। मैं वर्षों से विश्वासी थी और परमेश्वर के वचनों को बहुत खाती-पीती थी, लेकिन जब वास्तविक संकट का सामना करना पड़ा, तो मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित नहीं हो सकी और अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर सकी, और सत्य सिद्धांतों का इस्तेमाल करके उस स्थिति को नहीं संभाल पाई। मैं विश्वासघात कर रही थी और सत्य को स्वीकार करने में नाकाम हो रही थी! मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं इन पारंपरिक विचारों के अनुसार जीना जारी रखती हूँ और परमेश्वर के सामने पश्चाताप नहीं करती हूँ और अपना कर्तव्य पूरा नहीं करती हूँ, तो मैं अंततः उजागर हो जाऊँगी और निकाल दी जाऊँगी। मैंने अपने हृदय में परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मेरी माँ की बीमारी ने मेरे अविश्वासी दृष्टिकोण को पूरी तरह से उजागर कर दिया है। अब मैं देख पा रही हूँ कि मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और मुझमें सत्य वास्तविकता की कमी है। अब मैं समझ गई हूँ कि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाना मेरा मिशन नहीं है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को पूरा करना मेरा सच्चा मिशन और जिम्मेदारी है। मैं अपने भ्रामक विचारों को त्यागने और अपनी माँ की बीमारी को तुम्हारे हाथों में सौंपने के लिए तैयार हूँ। चाहे कुछ भी हो, मैं अपने कर्तव्य में दृढ़ रहूँगी और शैतान की हंसी का पात्र नहीं बनूँगी।” प्रार्थना के बाद, मुझे बहुत अधिक सहजता महसूस हुई और मुझे दिए गए कर्तव्य को पूरा करने के लिए मैं परमेश्वर पर भरोसा करने के लिए तैयार थी।

कुछ दिनों बाद, मैंने अपनी माँ के बारे में एक चीनी डॉक्टर से सलाह ली और उससे उसका इलाज करने के लिए कहा। डॉक्टर ने कहा, “कैंसर पहले ही उसके पूरे शरीर में फैल चुका है और इसका इलाज नहीं किया जा सकता है। मैं बस इतना कर सकता हूँ कि उसे आधे महीने तक जड़ी-बूटियाँ दूँ और देखूँ कि क्या असर होता है।” जब मैंने देखा कि वह किस निष्कर्ष पर पहुँचा था, तो मेरा दिल बैठ गया। मैंने सोचा कि जब मैं घर आई थी और अपनी माँ को खाँसते हुए देखा था, तो मैं उसे कभी अस्पताल नहीं ले गई थी और बस उसे कुछ चीनी जड़ी-बूटियाँ लाकर दे दी थीं और इतना ही किया था। अगर मैं उसे शुरू में ही अस्पताल ले जाती और उसका इलाज जल्दी करवाती, तो क्या हालात ऐसे ही होते? जितना अधिक मैंने सोचा, मुझे उतनी अधिक निराशा और अपराध बोध हुआ, और मैं बहुत उदास हो गई। इसलिए, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे उस स्थिति से बाहर निकालने के लिए मार्गदर्शन करे। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : “तो जब तुम्हारे माता-पिता का ऐसे अहम मामलों से सामना होता है, तो क्या हो रहा होता है? बस यही कहा जा सकता है कि परमेश्वर ने उनके जीवन में ऐसा मामला आयोजित किया। यह परमेश्वर के हाथ से आयोजित हुआ—तुम वस्तुपरक कारणों और प्रयोजनों पर ध्यान नहीं लगा सकते—इस उम्र के होने पर तुम्हारे माता-पिता को इस मामले का सामना करना ही था, इस रोग से बीमार पड़ना ही था। तुम्हारे वहाँ होने पर क्या वे इससे बच जाते? अगर परमेश्वर ने उनके भाग्य के अंश के रूप में उनके बीमार पड़ने की व्यवस्था न की होती, तो तुम्हारे उनके साथ न होने पर भी कुछ न हुआ होता। अगर उनके लिए अपने जीवन में इस किस्म की महाविपत्ति का सामना करना नियत था, तो उनके साथ होकर भी तुम क्या प्रभाव डाल सकते थे? वे तब भी इससे बच नहीं सकते थे, सही है न? (सही है।) उन लोगों के बारे में सोचो जो परमेश्वर में यकीन नहीं करते—क्या उनके परिवार के सभी सदस्य साल-दर-साल साथ नहीं रहते? जब उन माता-पिता का महाविपत्ति से सामना होता है, तो उनके विस्तृत परिवार के सदस्य और बच्चे सब उनके साथ होते हैं, है कि नहीं? जब माता-पिता बीमार पड़ते हैं या जब उनकी बीमारियाँ बदतर हो जाती हैं, तो क्या इसका कारण यह है कि उनके बच्चों ने उन्हें छोड़ दिया? बात यह नहीं है, ऐसा होना ही था। बात बस इतनी है कि चूँकि बच्चे के तौर पर तुम्हारा अपने माता-पिता के साथ खून का रिश्ता है, इसलिए उनके बीमार होने की बात सुनकर तुम परेशान हो जाते हो, जबकि दूसरे लोगों को कुछ महसूस नहीं होता। यह बहुत सामान्य है। लेकिन, तुम्हारे माता-पिता के ऐसी महाविपत्ति का सामना करने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करने की जरूरत है, या यह चिंतन करने की जरूरत है कि इससे कैसे मुक्त हों या इसे कैसे दूर करें। तुम्हारे माता-पिता वयस्क हैं; उन्होंने समाज में इसका कई बार सामना किया है। अगर परमेश्वर उन्हें इससे मुक्त करने के माहौल की व्यवस्था करता है, तो देर-सबेर यह पूरी तरह से गायब हो जाएगी। अगर यह मामला उनके जीवन में एक रोड़ा है और उन्हें इसका अनुभव होना ही है, तो यह परमेश्वर पर निर्भर है कि उन्हें कब तक इसका अनुभव करना होगा। इसका उन्हें अनुभव करना ही है, और वे इससे बच नहीं सकते। अगर तुम अकेले ही इस मामले को सुलझाना चाहते हो, इसके स्रोत, कारणों और नतीजों का विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करना चाहते हो, तो यह एक मूर्खतापूर्ण विचार है। इसका कोई लाभ नहीं, और यह बेकार है। तुम्हें इस तरह कार्य नहीं करना चाहिए, विश्लेषण, जाँच-पड़ताल और मदद के लिए अपने सहपाठियों और दोस्तों से संपर्क नहीं करना चाहिए, बढ़िया डॉक्टरों से संपर्क करने और उनके लिए सर्वोत्तम अस्पताल शय्या की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए—तुम्हें ये सब करने में अपना दिमाग नहीं कुरेदना चाहिए। अगर तुम्हारे पास सच में कुछ ज्यादा ऊर्जा है, तो तुम्हें अभी जो कर्तव्य निभाना है उसे बढ़िया ढंग से करना चाहिए। तुम्हारे माता-पिता का अपना अलग भाग्य है। कोई भी उस उम्र से बच नहीं सकता जब उसे मरना है। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे भाग्य के विधाता नहीं हैं, और उसी तरह से तुम अपने माता-पिता के भाग्य के विधाता नहीं हो। अगर उनके भाग्य में उन्हें कुछ होना लिखा है, तो तुम उस बारे में क्या कर सकते हो? व्याकुल होकर और समाधान खोजकर तुम कौन-सा प्रभाव हासिल कर सकते हो? इससे कुछ भी हासिल नहीं हो सकता; यह परमेश्वर के इरादों पर निर्भर करता है। अगर परमेश्वर उन्हें दूर ले जाना चाहता है, और तुम्हें अपना कर्तव्य अबाधित रूप से निभाने देना चाहता है, तो क्या तुम इसमें दखलंदाजी कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर से शर्तों पर चर्चा कर सकते हो? तुम्हें इस वक्त क्या करना चाहिए? अपना दिमाग कुरेद कर समाधान पाना, जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करना, खुद को दोष देना और अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्मिंदा महसूस करना—क्या ये विचार और कार्य किसी व्यक्ति को करने चाहिए? ये तमाम अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण के अभाव की हैं; ये अतार्किक, बुद्धिहीन और परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं। लोगों में ये अभिव्यक्तियाँ नहीं होनी चाहिए। क्या तुम समझे? (बिल्कुल।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर तय करता है और योजना बनाता है कि लोग किन कठिनाइयों का सामना करेंगे और अपनी आवश्यकताओं और आध्यात्मिक कद के आधार पर उन्हें कितनी पीड़ा सहनी होगी। जैसे लोग कब किसी खास परिस्थिति का सामना करेंगे और उन्हें कितने समय तक सहना होगा, यह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित और व्यवस्थित है। इसमें से कुछ भी मानव जाति द्वारा तय नहीं किया जा सकता है, इन चीजों का विश्लेषण महज इंसानी नजरिए से बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए। लोगों को परमेश्वर से स्वीकार करना और परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पित होना सीखना चाहिए। मेरी माँ की बीमारी को ही लो, सतही तौर पर, ऐसा लग सकता है कि उसकी हालत इसलिए बिगड़ गई क्योंकि उसे जल्दी अस्पताल नहीं ले जाया गया, लेकिन वास्तव में यह उसकी किस्मत थी। मनुष्य की मृत्यु पूरी तरह से परमेश्वर के हाथों में है। अगर परमेश्वर अनुमति नहीं देता है, तो बड़े पैमाने पर होने वाली आपदाएँ भी लोगों को कोई नुकसान नहीं पहुँचाएँगी। जैसे कि, मेरे पिता एक बुरी कार दुर्घटना में थे, और सभी सहयात्री बुरी तरह घायल हुए थे लेकिन उन्हें बस हल्की चोटें आईं और वे सबसे जल्दी ठीक हो गए। हमारे जीवन में, हम अपने मिशन को पूरा कर रहे हैं। अगर किसी ने जीवन में अपना मिशन पूरा कर लिया है, तो वे परमेश्वर की योजना के अनुसार इस दुनिया से चले जाएँगे। अगर उन्होंने अपना मिशन पूरा नहीं किया है, तो चाहे उन्हें कितनी भी कठिनाई का सामना करना पड़े, वे सुरक्षित रूप से इससे बाहर निकल जाएँगे। मेरी माँ की बीमारी काफी गंभीर थी और डॉक्टर ने कहा था कि वह ठीक नहीं हो सकती, लेकिन वह कितने समय तक जीवित रहेगी, यह कोई साधारण व्यक्ति तय नहीं कर सकता, यह परमेश्वर तय करेगा और इसकी व्यवस्था करेगा। मैं इसलिए इतनी दुखी थी क्योंकि मैं परमेश्वर से अनुचित माँगें कर रही थी और मैं हमेशा चाहती थी कि मेरी माँ ठीक हो जाए। जैसे ही चीजें मेरे हिसाब से नहीं होती थीं, मैं नकारात्मक और दुखी हो जाती थी। यह सब इसलिए था क्योंकि मैं परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं जानती थी और परमेश्वर के सामने समर्पण नहीं कर सकती थी। परमेश्वर के इरादे को समझने के बाद, मैंने उससे प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! यह तय करना मेरा काम नहीं है कि मेरी माँ ठीक कैसी होगी या वह कितने समय तक जीवित रहेगी। मुझे अपनी माँगों को एक तरफ रख देना चाहिए और चाहे कुछ भी हो, मुझे समर्पण करने के लिए तैयार रहना चाहिए।” प्रार्थना के बाद, मुझे शांति और सुकून महसूस हुआ। फिर मैंने प्रभु यीशु के वचनों का यह अंश देखा : “यदि कोई मेरे पास आए, और अपने पिता और माता और पत्नी और बच्‍चों और भाइयों और बहिनों वरन् अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता(लूका 14:26)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “अगर अपने माता-पिता के लिए तुम्हारा प्यार परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम से अधिक है, तो तुम परमेश्वर का अनुसरण करने योग्य नहीं हो, तुम उसके अनुयायियों में शामिल नहीं हो। अगर तुम उसके अनुयायियों में से एक नहीं हो, तो कहा जा सकता है कि तुम विजयी नहीं हो और परमेश्वर को तुम्हारी जरूरत नहीं है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर ने कहा है कि जो लोग अपने माता-पिता को उससे ज्यादा प्रेम करते हैं, वे उसके अनुयायी होने के योग्य नहीं हैं। मुझे शैतान द्वारा मेरे अंदर डाले गए इन भ्रामक विचारों के अनुसार जीना बंद करना होगा। मुझे अलग तरह से जीना शुरू करना होगा, परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना होगा। अब मैंने धीरे-धीरे अपने कर्तव्य को पूरा करना शुरू कर दिया है। मुझे अभी भी कभी-कभी अपनी माँ के बारे में चिंता होती है, लेकिन फिर मुझे लगता है कि उसके जीवन में, वह जिन परिस्थितियों का सामना करती है और जिस पीड़ा से उसे गुजरना पड़ता है वह सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। यह सब परमेश्वर पर निर्भर करता है कि मेरी माँ कब तक जीवित रहेगी और कैसे विदा होगी, यह तय करना मेरा काम नहीं है। जैसे-जैसे मुझे यह एहसास हुआ, मैं और अधिक सहज हो गई। हाल ही में, मुझे पता चला कि मेरी माँ की हालत अब स्थिर है और इस बीमारी के माध्यम से उसने कुछ चीजें सीखी हैं। यह समाचार सुनकर, मैं बहुत भावुक हो गई और परमेश्वर में अपनी आस्था की कमी के लिए शर्मिंदा भी हुई। मैंने हाल ही में घर से दूर कर्तव्य निभाने के लिए सक्रिय रूप से आवेदन किया है।

इस अनुभव के माध्यम से, मुझे अपनी कमजोरियों की नई समझ मिली है और मैंने उन गलत विचारों को भी समझा है जो मैंने हमेशा से मन में रखे थे। मैं अब इन विचारों के अनुसार नहीं जीऊँगी और अपने माता-पिता के साथ अपने रिश्ते के प्रति उचित रवैया रखूँगी। यह सब परमेश्वर के मार्गदर्शन के कारण है।

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