कोई मुझसे आगे बढ़ जाए, इससे मैं इतना क्यों डरती हूँ?
2017 में, स्नातक होने के बाद, मैंने कलीसिया में कर्तव्य निभाना शुरू किया। मेरे आसपास के भाई-बहनों में, मैं सबसे छोटी थी, और बहुत कम समय से परमेश्वर में विश्वास रख अपना कर्तव्य निभा रही थी, फिर भी मुझे बार-बार तरक्की मिली, तो मुझमें हमेशा उच्चता की भावना थी। दिसंबर में, मुझे अनेक समूहों के सिंचन कार्य का प्रभारी बनाया गया। कलीसिया अगुआ ने मेरे पास आकर संगति की, और अच्छे ढंग से कर्तव्य निभाने का प्रोत्साहन दिया। मुझे बहुत खुशी हुई। आम तौर पर अगुआ काम में बहुत व्यस्त होती थीं, तो उनके मेरे पास आकर संगति करने से, लगा, अगुआ मेरी तरक्की से खुश थीं। मैंने सोचा, शायद भाई-बहनों से वे मेरा जिक्र करें, जिसके बाद वे लोग यकीनन मुझे आदर से देखेंगे, और छोटी उम्र में तेजी से तरक्की पाने पर मेरा अभिनंदन करेंगे। इस ख्याल ने मुझे बड़ी खुशी दी। कुछ समय बाद, मैंने देखा बहन आई बड़ी तेजी से नए सदस्यों का सिंचन सीख रही थी। भाई-बहनों ने उसे ऊँचा बताया, और आखिरकार उसे समूह अगुआ चुन लिया। वैसे तो यह खुशी की बात होनी चाहिए थी, मगर मुझे एक फिक्र सता रही थी : "बहन आई इतनी बढ़िया है तो शायद जल्द ही उसे तरक्की मिले।" एकाएक मुझे कुछ खोने का एहसास हुआ। सभी का ध्यान उसी पर था, शुरुआत में ही वह मुझसे बेहतर कर रही थी। अगर फिर से उसे तरक्की मिली, तो अगुआ यकीनन उसे ऊँचा मानेंगी, और हो सकता है भाई-बहनों से भी वे अक्सर उसका जिक्र करें, तब फिर कोई भी मुझे ऊँचा नहीं मानेगा। मेरे दिल में एकाएक खालीपन महसूस हुआ, मैं बहुत दुखी हो गई। मैं ऐसा नहीं होने देना चाहती थी। यह भी नहीं चाहती थी कि बहन आई समूह अगुआ बनी रहे।
सिर्फ महीने भर बाद, मैंने देखा, बहन आई जिस काम की देखरेख करती थी, वह बहुत कम प्रभावी था। जाँच-पड़ताल के बाद, मुझे पता चला कि समूह अगुआ बनने के बाद, बहन आई बेपरवाह हो गई थी, दूसरों के सामने दिखावा करती थी, और सिद्धांत खोजे बिना अपना कर्तव्य निभाती थी, जिससे उसका काम बहुत कम प्रभावी हो गया था। मुझे लगा, "बहन आई समूह अगुआ के रूप में सही मार्ग पर नहीं चल रही थी, जिससे काम में रुकावट पैदा हो रही थी। क्या वह समूह अगुआ होने लायक नहीं है?" एकाएक मेरी आँखों में चमक आ गई। अगर बहन आई समूह अगुआ न रही, तो उसे तरक्की नहीं मिलेगी। मैंने अपनी साझीदार बहन लियू से फौरन कहा, "समूह अगुआ के रूप में, वह प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती है, और उसके काम के नतीजे गिर गए हैं। वह अब समूह अगुआ रहने लायक नहीं रही।" मुझसे सहमत होने को मनाने के लिए मैंने बहन लियू से यह भी कहा, "पहले मैं बहन आई के साथ काम करती थी। सब कहते थे उसमें अच्छी काबिलियत नहीं है, वह अच्छी समूह अगुआ नहीं हो सकती।" बहन लियू ने मेरी बात सुनकर सुझाया कि मैं कलीसिया अगुआ को इसकी रिपोर्ट कर दूं। लेकिन मेरा पत्र पढ़ने के बाद, अगुआ ने वापस लिखा कि बहन आई बस अस्थाई रूप से बुरी हालत में थी, फिर भी कुछ व्यावहारिक कार्य करने लायक थी, और उन्होंने मुझसे बहन आई की ज्यादा मदद करने को कहा। कुछ समय बाद, मैंने देखा बहन आई की हालत में सुधार नहीं हुआ था। मैंने उसकी मदद तो की नहीं, मुझे उससे चिढ़ भी होने लगी। यह कहकर कि वह सत्य का अनुसरण नहीं करती, और प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने से, उसके काम के नतीजे कमजोर रहे हैं, मैंने बेसब्री से उसका निपटान भी किया। मेरे इस तरह उसका निपटान करने के बाद, बहन आई और ज्यादा नकारात्मक हो गई। उसने खुद को परिभाषित करना शुरू कर दिया, उसकी हालत बदतर होती गई, इधर मैं और भी ज्यादा आश्वस्त हो गई कि अब वह समूह अगुआ नहीं रह सकेगी। मैंने कलीसिया अगुआ को फिर से उसकी रिपोर्ट की, मगर अगुआ ने जवाब दिया कि बहन आई सत्य स्वीकार सकती है और अपनी हालत संभालने के लिए उसे थोडा समय लगेगा। मुझे यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। बहन आई की हालत बहुत बुरी थी, तो क्या उसका समूह अगुआ बने रहना जरूरी था? ऐसे नहीं चलेगा। मुझे कलीसिया के कार्य के बारे में सोचना था। तो मैंने दूसरी कलीसिया अगुआ को लिखा, और कहा, "समूह अगुआ बनने पर, बहन आई प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भाग रही थी, जिससे हमारे कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा हुई थी। अब वह समूह अगुआ नहीं रह सकती।" तब मेरे कथन निष्पक्ष नहीं थे, मैंने जान-बूझकर अगुआ को गुमराह किया था। नतीजतन, अगुआ ने बहन आई को बर्खास्त कर दिया। मैंने सुना, बाद में वह बहुत नकारात्मक होकर, खुद को परिभाषित करने लगी थी। मैंने थोड़ा दोषी महसूस किया, लेकिन इसके बाद मैंने इस बारे में नहीं सोचा।
थोड़े समय बाद, कुछ भाई-बहनों ने यह बताने के लिए लिखा कि हमने बहन आई को बर्खास्त करके बड़ा घमंड दिखाया था। सिद्धांतों के अनुसार वह कुछ व्यावहारिक कार्य कर सकती थी, और अब उसके बर्खास्त होने के बाद, हमें उसकी जगह कोई योग्य समूह अगुआ नहीं मिल पाया, नतीजतन, काम के नतीजे कमजोर बने रहे। यह पत्र पढ़कर, मैं थोड़ा डर गई। मुझे पता था मैंने कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा की थी। एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचन में पढ़ा, "चूँकि मसीह-विरोधी प्रतिष्ठा और हैसियत के पीछे भागते हैं, इसलिए उनकी बातचीत और कार्यकलाप भी उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत को बनाए रखने के लिए ही होते हैं। वे प्रतिष्ठा और हैसियत को सबसे ऊपर रखते हैं। यदि किसी मसीह-विरोधी के इर्द-गिर्द कोई काबिल व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है, जो भाई-बहनों में प्रतिष्ठित है, जिसे समूह अगुआ चुना गया है और सभी भाई-बहन उसे सराहते और प्रशंसा करते हैं, तो मसीह विरोधी के दिल पर क्या गुजरती है? वह दुखी हो जाता है और उससे ईर्ष्या करने लगता है। और अगर वह सच में उस व्यक्ति से ईर्ष्या करता है, तो वह क्या करेगा? सबसे पहले तो वह इस तरह का हिसाब-किताब लगाएगा : 'इस व्यक्ति में काबिलियत तो है। काम के बारे में थोड़ा-बहुत जानता भी है—दरअसल, वह मुझसे बेहतर है। यह परमेश्वर के घर के लिए तो फायदेमंद है, लेकिन मेरे लिए नहीं। कहीं वह मुझसे मेरी हैसियत तो नहीं छीन लेगा? अगर वाकई उसने मेरी जगह ले ली तो? क्या तब मेरे लिए मुसीबत खड़ी नहीं हो जाएगी? मुझे ही कोई पहल करनी पड़ेगी। जिस दिन उसके पंख निकल आए, तो फिर मेरे लिए आसानी से उसे संभालना मुश्किल हो जाएगा। क्या तब तक बहुत देर नहीं हो जाएगी? बेहतर यही है कि मैं जल्दी से जल्दी अपनी चाल चल दूँ; अगर मैंने ज्यादा इंतजार किया, तो वह मुझसे बेहतर स्थिति में पहुँच जाएगा। तो मुझे क्या करना चाहिए? मुझे चाल कहाँ चलनी चाहिए? मुझे कोई बहाना, कोई अवसर खोजना पड़ेगा।' यदि कोई किसी को कष्ट पहुँचाना चाहता है, तो क्या तुम्हें लगता है कि उसे आसानी से ऐसा करने का बहाना या अवसर मिल जाएगा? शैतान किस तरह की चालें चलता है? (जहाँ चाह, वहाँ राह।) सही कहा, जहाँ चाह, वहाँ राह। शैतान की दुनिया में इस तरह के तर्क और परिस्थिति का अस्तित्व होता है। जहाँ परमेश्वर होता है, वहाँ यह सब नहीं होता, लेकिन मसीह विरोधी ऐसा करता है। मसीह-विरोधी सोचता है, 'जहाँ चाह, वहाँ राह। मैं तुम पर आरोप लगाऊँगा, तुम्हें पीड़ा पहुँचाने का मौका ढूंढूंगा और तुम्हारे मान को कम करूँगा ताकि भाई-बहन तुम्हारा सम्मान करना बंद कर दें और अगली बार समूह अगुआ बनाने के लिए तुम्हें वोट न दें। इस तरह तुम्हारी तरफ से मुझे कोई खतरा नहीं रहेगा, है न? अगर आगे आने वाली परेशानी को बढ़ने से पहले ही उसका इलाज कर दूँ और अपने प्रतिद्वंदी को खत्म कर दूँ, तो मैं और अधिक सुरक्षित महसूस करूंगा, है न?' जिसके दिमाग में ये सब कुचक्र चल रहा हो, क्या वह शांत दिख सकता है? जब प्रकृति मसीह-विरोधी हो तो, क्या कोई अपने इन विचारों पर अमल किए बिना उन्हें दफ्न कर सकता है? बिलकुल नहीं। वह जरूर उन पर अमल करने के तरीकों के बारे में सोचेगा। यही मसीह-विरोधी को शातिर बनाता है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो))। परमेश्वर खुलासा करता है कि मसीह-विरोधियों का स्वभाव दुष्ट होता है। वे अपने रुतबे के लिए खतरा बनने वालों को दबाने और दंडित करने के लिए, अफवाहों, लांछनों और साजिशों का सहारा लेते हैं। मुहे एहसास हुआ कि बहन आई की बर्खास्तगी में मेरा बर्ताव मसीह-विरोधी जैसा ही था। यह देखकर कि बहन आई मेरे मुकाबले ज्यादा तेजी से आगे बढ़ रही थी, मुझे फिक्र हुई कि उसे तरक्की मिलेगी और दूसरे लोग मेरे बजाय उसे ऊँचा मानेंगे, तो मैं उसके गलती करने और इस वजह से समूह अगुआ न बनने का इंतजार नहीं कर सकती थी। यह देखकर कि वह प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भाग रही थी और उसका काम प्रभावी नहीं था, मैंने उसकी बर्खास्तगी के लिए इसे एक बहाने के रूप में लेने की कोशिश की, और जान-बूझकर उस पर अच्छी काबिलियत न होने का तमगा चिपका दिया, इस उम्मीद से कि अगुआ गुमराह होकर यह सोचें कि उसकी समस्या गंभीर थी। जब अगुआ ने मुझसे उसकी मदद करने को कहा, तो मैंने नहीं की, मुझे उम्मीद थी उसकी हालत बिगड़ी रहेगी, ताकि जल्द-से-जल्द उसे बर्खास्त कर दिया जाए। जब मैंने देखा कि अगुआ उसे बर्खास्त नहीं करने वाली थीं, तो मैंने मामला संभालने के लिए दूसरी अगुआ को पकड़ा। दरअसल, मुझे पता था कि बहन आई सिर्फ भ्रष्ट स्वभाव दिखा रही थी, और वह आत्मचिंतन कर प्रायश्चित करने को तैयार थी, मदद और सहारा पाकर हालत संभल जाने पर वह अपना कर्तव्य निभा सकती थी। लेकिन उसकी तरक्की न हो, अगुआ और भाई-बहन उसके बारे में ऊँची राय न रखें, इसके लिए मैंने उसकी भ्रष्टता पकड़ी, उसे डांटा, और काम में अप्रभावी होने पर उसे दोष दिया, जिससे वह और ज्यादा नकारात्मक हो गई। मैं उसके बर्खास्त होने तक नहीं रुकी। अपनी करनी पर आत्मचिंतन कर, मैंने देखा कि मेरा बर्ताव मसीह-विरोधी जैसा ही था। मैं बहुत अधिक दुष्ट और धूर्त थी! मुझे याद आया कि जब बहन आई और मैं साथ में कर्तव्य निभाते थे, तो नकारात्मक होने पर वह सच में मेरी मदद करती थी, लेकिन उसके नकारात्मक होने पर न सिर्फ मैंने उसकी मदद नहीं की, बल्कि उसकी पीठ पीछे उसकी आलोचना की, उसे दबाया और दंडित किया। मैं ऐसा अमानवीय काम कैसे कर सकती थी? बर्खास्तगी के बाद से बहन आई की हालत कितनी नकारात्मक थी, यह सोचकर, मुझे गहरा पछतावा और अपराध-बोध हुआ। बहन आई की देखरेख वाले समूह का काम बड़े लंबे समय तक अप्रभावी बना रहा, और इसका एक बड़ा कारण मैं ही थी; मैंने ही कलीसिया के कार्य में बाधा डाली थी। इस बारे में सोचकर, मुझे और ज्यादा पछतावा हुआ, मैंने खुद को दोषी माना। उस रात मैं अपने कंबल में सिर छुपाकर रोती रही। मुझे मालूम था यह एक अपराध था, एक कुकर्म था। उस दौरान, मैं बहुत परेशान थी। अपने कुकर्म के बारे में सोचकर, मुझे बस पछतावा हुआ, मैंने खुद को दोषी माना। रोते हुए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं अब प्रतिभा को दबाने की हिम्मत नहीं करूँगी। मैं प्रायश्चित करना चाहती हूँ।"
बाद में, मैंने सोचा, अंतरात्मा को हिलाए बिना मैं ऐसा काम कैसे कर सकी? परमेश्वर के वचन में, मैंने पढ़ा, "अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव और सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करता है, उसमें उनका पहला विचार अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होती हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : 'मेरी हैसियत का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरी हैसियत बढ़ेगी?' यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; वे अन्यथा इन समस्याओं पर विचार नहीं करेंगे। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिलकुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास हैसियत और प्रतिष्ठा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? हैसियत और प्रतिष्ठा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज के लिए वे दैनिक आधार पर प्रयास करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ी होती हैं। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी वातावरण में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज के लिए प्रयास करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और उच्च पद पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे इसे कभी दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और उनका सार है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों ने खुलासा किया कि मसीह-विरोधी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए जीते हैं। वे इन चीजों को अपनी जिंदगी मानते हैं, वे प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए दूसरों से लड़ते हैं, लोगों को दबाते और दंड देते हैं। उनके लिए सभी कुकर्म जायज हैं। आत्मचिंतन करने पर मैंने देखा कि मैं बिल्कुल मसीह-विरोधी जैसी थी। मुझे प्रतिष्ठा और रुतबा पसंद थे, दूसरों से सराहना और प्रशंसा पाना पसंद था, मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे को सकारात्मक चीज माना। तरक्की होने पर मुझे लगा, अगुआ मेरे बारे में ऊँची राय रखती हैं। मैंने यह भी अंदाजा लगाया कि अगुआ दूसरे भाई-बहनों से मेरा जिक्र करेंगी, और मैं सबकी प्रशंसा का विषय बनूँगी। यह देखकर कि बहन आई तेजी से तरक्की कर समूह अगुआ बन गई थी, मैं डर गई कि उसकी और तरक्की होगी, वह मुझसे आगे निकल जाएगी, और तब कोई भी मेरे बारे में ऊँची राय नहीं रखेगा। मेरे हितों के जुड़ने से पहले, बहन आई से मेरा मेल-जोल सामान्य था, लेकिन मेरे हितों के जुड़ते ही, मैंने तुरंत अपनी दुष्टता उजागर कर दी, और उसे दबाने की नीच चालें चलीं। लोगों के दिलों में अपना स्थान बनाए रखने के लिए, मैं तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने से नहीं झिझकी, मुझे उसकी बर्खास्तगी से कम कुछ नहीं चाहिए था। प्रतिष्ठा और रुतबे की मेरी चाह बहुत तीव्र थी। मैं बस सिर्फ यही सोचती थी कि रुतबा कैसे पाऊँ, जब मैंने उसका दमन किया, तो मेरी अंतरात्मा जरा भी परेशान नहीं हुई। सीसीपी लोगों को सिर्फ उसकी ही आराधना और अनुसरण करने देती है, और जब कोई उसकी तानाशाही के लिए खतरा बनता है, तो वह उसे कलंकित और निंदित करने, दबाने और सताने के सारे तरीके अपनाती है। अपना स्थान पक्का करने के लिए, वह बेरहमी से क़त्ल करती है, बेगुनाहों को नुकसान पहुँचाती है, इस हद तक कि स्वर्ग और मानवता दोनों उससे घृणा करते हैं, इससे तरह-तरह की प्राकृतिक और मानव-निर्मित विपत्तियाँ आई हैं। अगर मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती रही, तो कहना मुश्किल है मैं कैसे-कैसे कुकर्म करूँगी, और अंत में, इतनी अधिक दुष्टता के लिए परमेश्वर मुझे जरूर दंड देगा। लगा, मैं बहुत बुरी थी, मैं इस तरह नहीं जीना चाहती थी। मैं अक्सर प्रार्थना करती थी, परमेश्वर से प्रतिष्ठा और रुतबे के बंधन से निकलने का रास्ता दिखाने की विनती करती थी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े, जिनसे मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने के सार के बारे में थोड़ा और समझ सकी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "शैतान मनुष्य को मजबूती से अपने नियंत्रण में रखने के लिए किसका उपयोग करता है? (प्रसिद्धि और लाभ का।) तो, शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का तब तक उपयोग करता है, जब तक सभी लोग प्रसिद्धि और लाभ के बारे में ही नहीं सोचने लगते। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनमें उन्हें उतार फेंकने का न तो सामर्थ्य होता है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पैर घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ के लिए मानवजाति परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इसलिए, इस प्रकार एक के बाद पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। "लोग सोचते हैं कि एक बार उनके पास प्रसिद्धि और लाभ आ जाए, तो वे ऊँचे रुतबे और अपार धन-संपत्ति का आनंद लेने के लिए, और जीवन का आनंद लेने के लिए इन चीजों का लाभ उठा सकते हैं। उन्हें लगता है कि प्रसिद्धि और लाभ एक प्रकार की पूँजी है, जिसका उपयोग वे भोग-विलास का जीवन और देह का प्रचंड आनंद प्राप्त करने के लिए कर सकते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ की खातिर, जिसके लिए मनुष्य इतना ललचाता है, लोग स्वेच्छा से, यद्यपि अनजाने में, अपने शरीर, मन, वह सब जो उनके पास है, अपना भविष्य और अपनी नियति शैतान को सौंप देते हैं। वे एक पल की भी हिचकिचाहट के बगैर ऐसा करते हैं, और सौंपा गया अपना सब-कुछ वापस प्राप्त करने की आवश्यकता के प्रति सदैव अनजान रहते हैं। लोग जब इस प्रकार शैतान की शरण ले लेते हैं और उसके प्रति वफादार हो जाते हैं, तो क्या वे खुद पर कोई नियंत्रण बनाए रख सकते हैं? कदापि नहीं। वे पूरी तरह से शैतान द्वारा नियंत्रित होते हैं, सर्वथा दलदल में धँस जाते हैं और अपने आप को मुक्त कराने में असमर्थ रहते हैं" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही मैं समझ पाई कि शोहरत और रुतबा, लोगों को भष्ट करने के शैतान के तरीके हैं। अगर मैं शोहरत और रुतबे के बंधन से बच निकलना चाहूँ, तो मुझे स्पष्ट देखना होगा कि लोगों को काबू में कर हानि पहुँचाने के लिए शैतान उनका इस्तेमाल कैसे करता है। जब मैं बड़ी हो रही थी, तो स्कूल, समाज और परिवार सभी ने मुझे बताया कि भविष्य में मुझे भीड़ में अलग दिखना होगा, ताकि मैं खुद को और अपने माता-पिता को गौरव दिला सकूँ, और अपने आसपास के लोगों से प्रशंसा पा सकूँ। मैं ऐसे विचारों से सहमत थी, "भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो," और "इस जीवन की प्रसिद्धि सैकड़ों पीढ़ियाँ टिकती है।" खास तौर से जब मैंने देखा कि प्रसिद्ध और महान लोगों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद किया जाता है, उनकी पूजा होती है, तो लगा ऐसा जीवन वाकई जीने लायक होगा, और मैं सचमुच ऐसी इंसान बनना चाहती थी। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, जब मेरी बार-बार तरक्की हुई, और दूसरों के मन में मेरे बारे में ऊँची राय होती, तो मुझे उम्मीद होती कि भाई-बहन आपस में मेरा जिक्र करेंगे, ताकि उनके दिलों में मेरी जगह बने। इससे मुझे बड़ा संतोष मिलता। अब, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैं जान गई कि ऐसा अनुसरण खास तौर से बुरा है। सिर्फ दानव और शैतान ही हमेशा लोगों के दिलों में जगह पाना चाहते हैं, और उन पर स्थाई छाप छोड़ना चाहते हैं। सीसीपी खुद को स्थापित करना चाहती है, ताकि लोग परमेश्वर की तरह उसकी आराधना और अनुसरण करें, वह लोगों के दिलों में परमेश्वर का स्थान लेने का भ्रम पाले हुए है, ताकि मृत्यु के बाद भी लोग उसका एक पुतला स्थापित कर सदा-सदा उसकी स्तुति करें। क्या मेरा स्वभाव ऐसा ही नहीं था? मैं जहाँ भी जाती, लोगों के दिलों में जगह बनाना चाहती, सराहना और प्रशंसा चाहती। मेरी महत्वाकांक्षा बहुत तीव्र थी। यह बंद गली थी! पहले, मुझे दूसरों की ऊँची राय पाकर आनंद मिलता था, लगता था प्रतिष्ठा और रुतबे से खुशी मिल सकती है, लेकिन सच्चाई यह है कि रुतबे के पीछे भागने से मुझे सिर्फ दुख मिला, इससे मैंने बहन का दिल दुखाया, दुष्टता की और परमेश्वर का प्रतिरोध किया। मैंने पौलुस को याद किया, जो अक्सर अपनी गवाही देकर सराहना पाने की कोशिश करता था, दो हजार साल तक बहुत-से विश्वासियों ने उसे सराहा, उसे परमेश्वर जैसा माना। पौलुस ने लोगों को अपने करीब लाकर परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया, तो परमेश्वर ने उसे दंडित किया, और वह अब भी नरक में जल रहा है। यह हमारे लिए एक सबक है!
बाद में, परमेश्वर के वचनों में मैंने अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ा। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "जब तुम्हें रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की निरंतर तीव्र इच्छा होती है, तो तुम्हें यह बात पता होनी चाहिए कि अगर इस तरह की स्थिति को अनसुलझा छोड़ दिया जाए तो कैसी बुरी चीजें हो सकती हैं। इसलिए समय बर्बाद न करते हुए सत्य खोजो, इससे पहले कि रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की इच्छा बढ़कर प्रबल हो जाए, इसे मिटा दो और इसके स्थान पर सत्य का अभ्यास करो। जब तुम सत्य का अभ्यास करने लगोगे, तो रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की तुम्हारी इच्छा कम हो जाएगी और तुम कलीसिया के काम में हस्तक्षेप नहीं करोगे। इस तरह, परमेश्वर तुम्हारे कार्यों को याद रखेगा और उनकी प्रशंसा करेगा। तो मैं किस बात पर जोर दे रहा हूँ? वह बात यह है : इससे पहले कि तुम्हारी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ फलीभूत होकर बड़ी विपत्ति लाएँ, तुम्हें उनसे छुटकारा पा लेना चाहिए। यदि तुम उन्हें शुरुआत में ही काबू नहीं करोगे, तो तुम एक बड़े अवसर से चूक जाओगे; अगर वे बड़ी विपत्ति का कारण बन गईं, तो उनका समाधान करने में बहुत देर हो जाएगी। यदि तुममें दैहिक-सुख त्यागने की इच्छा तक नहीं है, तो तुम्हारे लिए सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना बहुत मुश्किल हो जाएगा; प्रतिष्ठा पाने के प्रयास में असफलताओं और नाकामयाबियों का सामना करने पर यदि तुम होश में नहीं आते, तो यह स्थिति बहुत खतरनाक होगी : इस बात की संभावना है कि तुम्हें निकाल दिया जाए। जब सत्य से प्रेम करने वालों को अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को लेकर एक-दो असफलताओं और नाकामियों का सामना करना पड़ता है, तो वे रुतबे और प्रतिष्ठा को पूरी तरह से त्यागने में सक्षम होते हैं। वे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि प्रतिष्ठा और रुतबे का कोई मूल्य नहीं है, वे इस बात को लेकर दृढ़ होते हैं कि भले ही उन्हें कभी रुतबा न मिले, फिर भी वे सत्य का अनुसरण करते हुए अपना कर्तव्य अच्छे से निभाते रहेंगे, अपने अनुभवों और गवाही पर बात करते रहेंगे और परमेश्वर की गवाही देंगे। वे साधारण अनुयायी होकर भी, अंत तक अनुसरण करने में सक्षम बने रहते हैं। उनकी बस एक ही चाहत होती है कि उन्हें परमेश्वर की प्रशंसा मिले। ऐसे लोग ही वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं और दृढ़ संकल्पी होते हैं। परमेश्वर के घर को बहुत से मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों का त्याग करते देखकर, सत्य का अनुसरण करने वाले कुछ लोग मसीह-विरोधियों की विफलता को देखकर मसीह-विरोधियों द्वारा अपनाए गए मार्ग पर चिंतन करते हैं। इससे उन्हें परमेश्वर की इच्छा की समझ प्राप्त होती है, वे सामान्य अनुयायी बनने का संकल्प लेते हैं, सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने पर ध्यान देते हैं। परमेश्वर उन्हें सेवाकर्ता या पतित भी कह दे, तो भी वे परमेश्वर की नजर में नीच बनकर, एक तुच्छ और महत्वहीन अनुयायी बनकर संतुष्ट रहते हैं, अंततः ऐसा व्यक्ति परमेश्वर द्वारा स्वीकार्य प्राणी कहलाता है। केवल ऐसा व्यक्ति ही नेक होता है, परमेश्वर ऐसे ही व्यक्ति की प्रशंसा करेगा" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। मैंने पतरस को याद किया। वह रुतबे के पीछे नहीं भागा, न ही इस पर ध्यान दिया कि क्या लोग उसके बारे में ऊँचा सोचते हैं। इसके बजाय, उसने परमेश्वर के प्रेम का अनुसरण करने पर ध्यान दिया, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए हर चीज में सत्य पर अमल करने की इच्छा रखी। बाहर से, वह पौलुस जैसा प्रसिद्ध नहीं था, मगर उसने सफलता का मार्ग पकड़ा। परमेश्वर ने उसके अनुसरण की प्रशंसा की, और अंत में, परमेश्वर ने पतरस को पूर्ण किया। पौलुस ने सत्य का अनुसरण नहीं किया, और हालाँकि अनगिनत विश्वासियों ने उसकी आराधना की, मगर उसने नाकामी की राह पकड़ी, और उसका स्वभाव कभी नहीं बदल पाया। अंत में, परमेश्वर ने उसे त्याग कर दंडित किया। मैंने इन वर्षों में,परमेश्वर में विश्वास रखा, मगर बार-बार तरक्की मिलने पर भी, मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, कर्तव्य निभाने के मौके नहीं संजोए। इसके बजाय, मैं हमेशा शोहरत और रुतबे के पीछे भागती रही, मैंने परमेश्वर द्वारा दिए गए सत्य हासिल करने के मौके बेकार ही गँवा दिए। अपना कर्तव्य निभाकर मैंने सिर्फ पछतावा किया, ऋणी ही रही। मैं समझ गई कि परमेश्वर में विश्वास रख रुतबे के पीछे भागना सही मार्ग नहीं है। सत्य का अनुसरण और परमेश्वर की अपेक्षाओं पर चलना सबसे ज्यादा मायने रखते हैं। सिर्फ तभी हम परमेश्वर की स्वीकृति पाकर उसके द्वारा बचाए जा सकते हैं। साथ ही, परमेश्वर के वचनों में मुझे अभ्यास का एक मार्ग मिला। शोहरत और रुतबे के लिए दूसरों से होड़ करने की चाह हो, तो मुझे परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी चाहिए, खुद की इच्छाओं को त्याग कर सत्य पर अमल करना चाहिए। सिर्फ इसी तरह मैं शैतानी स्वभाव के अनुसरण से बचकर परमेश्वर के विरोध में काम करने से बच सकती हूँ।
बाद में, हमने बहन वांग को प्रशिक्षित कर, हमारे साथ काम करने के लिए उसे तरक्की देने की योजना बनाई। लेकिन जब मैंने दूसरों को कहते सुना कि उसकी काबिलियत और समझ अच्छी है, तो मुझे थोड़ी झिझक होने लगी। वह मुझसे छोटी थी, पर उसमें अच्छी काबिलियत थी। तरक्की मिल गई तो क्या जल्द ही वह मुझसे आगे नहीं निकल जाएगी? क्या कोई तब भी मुझे आदर से देखेगा? क्या उसे प्रशिक्षित न करना ही ठीक रहेगा? मुझे एहसास हुआ कि प्रतिष्ठा और रुतबे की मेरी चाह फिर उभर आई थी, इसलिए मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की और खुद की इच्छाओं का त्याग किया। मुझे पता था कलीसिया कार्य के लिए हर प्रकार की प्रतिभा के सहयोग की जरूरत होती है। प्रतिभा का दमन, कलीसिया के कार्य को बर्बाद करना और परमेश्वर का विरोधी होना है। इसलि मैंने सचेत होकर खुद की इच्छाओं का त्याग किया, और बहन वांग को प्रशिक्षित किया, इस उम्मीद से कि जितनी जल्दी हो सके वह काम करेगी। इस तरह अभ्यास करके, मुझे बड़ा सुकून मिला, मैंने सुरक्षित महसूस किया।
इन अनुभवों के जरिये, न्याय और ताड़ना के बिना, मैं आत्मचिंतन नहीं कर सकती थी, सिर्फ अपने भ्रष्ट स्वभाव में जी सकती थी, कुकर्म कर सकती थी और कभी भी परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकती थी। अब मुझे थोड़ा आत्मज्ञान है। यह परमेश्वर के वचन पढ़ने का नतीजा है, और मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार है।
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