परमेश्वर का अनुसरण करने से मुझे क्या रोक रहा है?
2011 में दिसंबर का महीना था, हमारी कलीसिया के दो अगुआ गिरफ़्तार कर लिये गये थे। यह ख़बर सुनने के बाद मेरे भाई-बहनों और मुझे उसके नतीजों से तुरंत निपटना था। कुछ दिन बाद मुझे एक पत्र मिला, जिसमें लिखा हुआ था कि अन्य कलीसियाओं के भाई-बहनों को पुलिस लगातार गिरफ़्तार कर रही है, मेरे दरवाज़े के बाहर एक संदिग्ध व्यक्ति था, तो शायद मुझ पर भी निगरानी रखी जा रही हो। पत्र में लिखा था कि मुझे घर नहीं जाना चाहिए, इसके बजाय मुझे किसी सुरक्षित जगह जाकर वहां से कलीसिया का काम करना चाहिए। पत्र पढ़ने के बाद मैं बहुत बेचैन हो गयी। मैंने पिछले कुछ दिनों से सड़कों पर लगातार गश्त लगाती पुलिस की कारों, और हर जगह होती निगरानी के बारे में सोचा। क्या उन्हें पता चल गया है कि मैं कलीसिया की उपयाजिका हूँ? क्या वे मुझे हिरासत में लेने के लिए मेरे घर पर नज़र गड़ाये हुए हैं? मैंने उन सभी भाई-बहनों के बारे में सोचा जिन्हें पकड़ा जा चुका था, जिनमें से कुछ को पंगु होते तक पीटा गया था, कुछ को पीट-पीट कर मार डाला गया था। इन दिनों मैं कलीसिया का कार्य कर रही थी, जिसके लिए मुझे हमेशा बाहर भाग-दौड़ करनी पड़ती थी। अगर पुलिस मेरा पीछा करे, मुझे पकड़ ले, तो मैं क्या करूंगी? इस बारे में मैं जितना सोचती उतनी ही ज़्यादा डर जाती। अगर मुझे सच में पीट-पीट कर मार डाला गया, तो मुझे उद्धार और अनंत जीवन कैसे मिल पायेगा? ऐसा लगा जैसे मेरे दिल को कोई भारी पत्थर दबा रहा हो। मुझे सांस लेने में भी तकलीफ होने लगी। बाद में, कुछ दिन रहने के लिए मैं अपने एक रिश्तेदार के घर चली गयी। मेरे पति ने मेरा पता लगाकर कहा, "यहाँ सुरक्षित नहीं है। बेहतर होगा कि तुम एक दूसरे प्रांत में जाकर किसी दोस्त के घर में छिप जाओ। पुलिस जानती है कि तुम कलीसिया में एक उपयाजिका हो। वे तुम्हें भला क्यों छोड़ेंगे?" अपने पति की बात सुनकर मैं थोड़ा झिझकी, खास तौर पर इसलिए क्योंकि मेरी कलीसिया के अगुआ गिरफ़्तार हो चुके थे। अभी भी बहुत सारा काम बाकी था जिसे तुरंत निपटाना था, अगर मैं इस वक्त चली जाऊं, तो कलीसिया का कार्य करने के लिए कोई नहीं होगा। लेकिन अगर मैं नहीं गयी और पुलिस मुझे गिरफ़्तार कर ले, फिर या तो मुझे मरने तक यातना दी जाएगी, या मुझे लूली-लंगड़ी कर दिया जाएगा। इसलिए, मैंने फैसला किया कि दूर जाकर कुछ दिन के लिए छिप जाना ठीक रहेगा, फिर माहौल शांत हो जाने के बाद अपना काम जारी रखने के लिए लौट आऊँगी। इसलिए मैंने अपना काम छोड़ दिया और एक दूसरे प्रांत में एक दोस्त के घर चली गयी। दरअसल, ऐसे अहम मोड़ पर मैंने अपना काम छोड़ दिया। यह परमेश्वर को धोखा देना था! लेकिन उस वक्त मैं सिर्फ अपनी सुरक्षा के बारे में सोच रही थी, मुझमें आस्था थी ही नहीं। मैंने जो किया उस कार्य की प्रकृति की मुझे कोई समझ नहीं थी।
बाद में, इस डर से कि मैं अपनी दोस्त को भी इसमें घसीट लूंगी, मेरी दोस्त ने अपने गाँव के बाहर एक टूटे-फूटे घर में मेरे रहने का इंतज़ाम कर दिया। वह घर इतना टूटा-फूटा था कि दरवाज़ा तो बंद ही नहीं होता था, वहां खाने के लिए कुछ भी नहीं था, और नल में पानी भी नहीं आता था। ऐसे माहौल में पहुँचकर मुझे बहुत दुख हुआ। तभी मैंने आत्मचिंतन करना शुरू किया। क्या एक दूसरे प्रांत में छिपने के लिए मेरा अपना काम छोड़ना सही था? फिर परमेश्वर के इन वचनों पर ध्यान गया : "वर्तमान में, कुछ ऐसे लोग हैं जो कलीसिया के लिए कोई बोझ नहीं उठाते। ये लोग सुस्त और ढीले-ढाले हैं, और वे केवल अपने शरीर की चिंता करते हैं। ऐसे लोग बहुत स्वार्थी होते हैं और अंधे भी होते हैं। यदि तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम नहीं होते हो, तो तुम कोई बोझ नहीं उठा पाओगे। तुम जितना अधिक परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखोगे, तुम्हें परमेश्वर उतना ही अधिक बोझ सौंपेगा। स्वार्थी लोग ऐसी चीज़ें सहना नहीं चाहते; वे कीमत नहीं चुकाना चाहते, परिणामस्वरूप, वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के अवसर से चूक जाते हैं। क्या वे अपना नुकसान नहीं कर रहे हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखो)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मेरे दिल में टीस उठी; मैं समझ गयी कि मैं खुद भी वैसी ही स्वार्थी और नीच थी जिसे परमेश्वर ने उजागर कर दिया। हमारी कलीसिया के अगुआओं को गिरफ़्तार कर लिया गया था और उसके नतीजों से तुरंत निपटना ज़रूरी था। उस अहम मोड़ पर, मुझे परमेश्वर पर भरोसा करके कलीसिया का कार्य करते रहना चाहिए था, भाई-बहनों की सुरक्षा करते रहनी चाहिए थी। मगर, मैंने सिर्फ अपनी सुरक्षा के बारे में सोचा और कायर बन गयी, कलीसिया का कार्य छोड़कर दूर जाकर छिप गयी, अपने भाई-बहनों के जीवन की ज़रा भी परवाह नहीं की। यह परमेश्वर के साथ बहुत गंभीर धोखा था! इस समय मैंने परमेश्वर के वचनों के एक भजन की कुछ पंक्तियाँ याद कीं। "अब्राहम ने इसहाक को बलिदान किया—तुमने किसे बलिदान किया है? अय्यूब ने सब-कुछ बलिदान किया—तुमने क्या बलिदान किया है? इतने सारे लोगों ने अपना जीवन दिया है, अपने सिर कुर्बान किए हैं, अपना खून बहाया है, सही राह तलाशने के लिए। क्या तुम लोगों ने वह कीमत चुकाई है?" ("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'तुमने ईश्वर को क्या समर्पित किया है?')। वाकई, मैंने परमेश्वर के लिए क्या भेंट किया था? इब्राहीम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने बेटे की बलि दे पाया था; अय्यूब ने उसे संतुष्ट करने के लिए सब-कुछ दे दिया था। और मैंने? पकड़े जाने और मरने तक यातना पाने के डर से, मैं अपनी सुरक्षा के लिए भाग खड़ी हुई थी। क्या मैं मौत का सामना करने के बजाय जीवन से चिपके रहनेवाली कायर भगोड़ी जैसी नहीं थी? जैसी कि कहावत है, "मेहनत का फल मीठा होता है।" परमेश्वर के घर में वर्षों तक पाली-पोसी गयी एक कलीसिया उपयाजिका होने के नाते, इस सबसे अहम मोड़ पर, मैंने मुझे सौंपे गये काम के बारे में ज़रा भी नहीं सोचा, यह भी नहीं सोचा कि कलीसिया का कार्य कैसे जारी रखा जाए। मैंने सिर्फ खुद के बारे में सोचा, खुद के अस्तित्व को संजोया, और खतरे से दूर भाग गयी। क्या मैं अब भी इंसान कहलाने लायक हूँ? मैंने सच में जिस पत्तल में खाया उसी में छेद कर डाला, मैं एक जानवर जितनी भी अच्छी नहीं थी!
उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा, "परमेश्वर तुमसे चाहे कुछ भी माँगे, तुम्हें अपनी पूरी ताकत के साथ केवल इस ओर काम करने की आवश्यकता है, और मुझे आशा है कि अंत में तुम परमेश्वर के समक्ष आने और उसे अपनी परम भक्ति प्रदान करने में सक्षम होगे। अगर तुम सिंहासन पर बैठे परमेश्वर की संतुष्ट मुसकराहट देख सकते हो, तो भले ही यह तुम्हारी मृत्यु का नियत समय ही क्यों न हो, आँखें बंद करते समय भी तुम्हें हँसने और मुसकराने में सक्षम होना चाहिए। पृथ्वी पर अपने समय के दौरान तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपना अंतिम कर्तव्य अवश्य निभाना चाहिए। अतीत में, पतरस को परमेश्वर के लिए क्रूस पर उलटा लटका दिया गया था; परंतु तुम्हें अंत में परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए, और उसके लिए अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर देनी चाहिए। एक सृजित प्राणी परमेश्वर के लिए क्या कर सकता है? इसलिए तुम्हें जल्दी से अपने आपको परमेश्वर को सौंप देना चाहिए, ताकि वह अपनी इच्छा के अनुसार तुम्हारा निपटारा कर सके। अगर इससे परमेश्वर खुश और प्रसन्न होता हो, तो उसे अपने साथ जो चाहे करने दो। मनुष्यों को शिकायत के शब्द बोलने का क्या अधिकार है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 41)। परमेश्वर के इन वचनों से मैं बहुत प्रोत्साहित हुई, मैंने खुद को दोष भी दिया। मैंने सोचा कि पतरस किस तरह जेल से भागा था, किस तरह प्रभु यीशु ने उसके सामने प्रकट होकर कहा था कि उसकी खातिर वह फिर सूली पर चढ़ा दिया जाएगा। प्रभु के वचनों ने पतरस को यह समझाया : "प्रभु यीशु मनुष्य को छुटकारा दिलाने के लिए पहले एक बार सूली पर चढ़ाया जा चुका है, मैं उसे दोबारा सूली पर नहीं चढ़ने दे सकता। उसने हमारे लिए अपना जीवन दे दिया; इस बार उसके लिए मुझे अपना जीवन देना चाहिए।" इसलिए पतरस बिना किसी संकोच के जेल वापस आ गया, आखिर में, परमेश्वर के लिए उसे सूली पर उल्टा लटकाने को कहा गया। पतरस परमेश्वर के लिए अपना जीवन दे पाया था, लेकिन मैंने क्या किया? थोड़ा-सा खतरनाक माहौल सामने आते ही मैंने मुझे सौंपा गया काम छोड़ दिया, कहीं दूर भाग गयी। कोई कैसे कह सकता है कि मुझमें रत्ती भर भी ज़मीर था? मैंने कई वर्षों से परमेश्वर का अनुसरण किया था, मुझे उसके बहुत सारे वचनों का पोषण दिया गया था, फिर भी एक अहम मोड़ पर मैंने परमेश्वर को धोखा दे दिया। मैं परमेश्वर के सामने ज़िंदा रहने लायक नहीं हूँ। मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेककर प्रार्थना करते हुए प्रायश्चित किया, विनती की, "हे परमेश्वर! मैंने ग़लत किया। मैंने अपनी खुद की सुरक्षा के लिए अपना कर्तव्य छोड़ दिया। मैं बहुत ज़्यादा स्वार्थी और नीच हूँ! अब मैं अपने हितों पर ध्यान नहीं देना चाहती। मैं पतरस से सीखना चाहती हूँ, आपका सौंपा हुआ काम पूरा करूंगी, भले ही इसमें मेरी मौत हो जाए।" इसके बाद, मैं कलीसिया वापस लौट आयी। जब एक बहन ने मुझे देखा, तो उसने कहा, "आज, हमें परमेश्वर के बिल्कुल नये धर्मोपदेश मिले हैं। मुझे नहीं मालूम था कि ये धर्मोपदेश हमारे भाई-बहनों को भेजने के लिए किससे संपर्क करूं। जैसे ही मेरी बेचैनी बढ़ी, आप वापस लौट आयीं।" बहन की यह बात सुनकर, वक्त रहते लौट आने पर मैं बहुत खुश हुई। मैंने कलीसिया के कार्य को बहुत ज़्यादा नुकसान नहीं पहुंचाया था। मैंने तुरंत बहन के साथ इस काम के लिए उपयुक्त लोगों की व्यवस्था करने पर चर्चा की, ताकि सही समय पर भाई-बहनों तक इन्हें भेजा जा सके। उसके बाद से अपना काम करते समय मैं पहले की तरह डरपोक नहीं रही।
उस माहौल से गुज़रने के बाद, मुझे लगा मेरी थोड़ी आस्था बढ़ गयी है, लेकिन मुझे अचरज हुआ कि एक और परिस्थिति सामने आते ही मैं दोबारा उजागर हो गयी। एक दिन, मेरी सहकर्मी बहन झाऊ ने मुझसे कहा, "ऐसे कई घर खतरे में हैं, जहां कलीसिया का पैसा रखा है।" फिर उसने मुझे उस पैसे को एक सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने का काम सौंपा। हर जगह गश्त लगाती पुलिस की गाड़ियों के बारे में सोचकर, मुझे थोड़ा डर लगा, मुझे फ़िक्र हुई कि शायद उन घरों पर पुलिस की नज़र होगी। अगर कलीसिया का पैसा पहुंचाते समय मेरा पीछा कर मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया, तो क्या होगा? मैं यह सोचे बिना नहीं रह सकी, "मैं कलीसिया की उपयाजिका हूँ; अगर मुझे पकड़ लिया गया, तो ज़रूर मुझे यातना दी जाएगी। फिर शायद मैं ज़िंदा बाहर निकल ही न पाऊँ। फिर मुझे उद्धार कैसे मिलेगा, मैं स्वर्ग के राज्य में कैसे प्रवेश करूंगी?" इस बारे में बार-बार सोचकर मैं बस पीछे हट जाना चाहती थी। मुझे लगा, यह काम करना बहुत ज़्यादा खतरनाक होगा। उसी पल, मैंने अपना पुराना अनुभव याद किया। मैं बहुत ज़्यादा स्वार्थी और नीच थी, सिर्फ अपनी सुरक्षा के लिए काम कर रही थी, इसलिए मैंने परमेश्वर के घर के कार्य में देर कर दी थी। मैंने खुद को चेतावनी दी कि पहले वाला असफलता का रास्ता न पकडूँ। इसके बजाय, मैं परमेश्वर पर भरोसा करूंगी, इस महत्वपूर्ण काम को पूरा करूंगी। ऐसा सोचकर अब मैंने उतनी बेचैनी महसूस नहीं की। इस वक्त, मैं अक्सर सोचती, "ऐसे अहम मौकों पर मुझे हमेशा इतना डर क्यों लगता है कि गिरफ़्तार कर ली जाऊंगी, यातना देकर मार डाली जाऊंगी?" बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "आज से शुरू करके, मैं सभी लोगों को यह अवसर दूँगा कि वे मुझे—एकमात्र सच्चे परमेश्वर को—जानना प्रारंभ करें, जिसने सभी कुछ रचा, जो मनुष्यों के बीच आया और उनके द्वारा अस्वीकृत और कलंकित किया गया, और जो हर चीज को उसकी समग्रता में नियंत्रित और व्यवस्थित करता है; जो राज्य का प्रभारी राजा है; जो ब्रह्मांड का प्रबंधन करने वाला स्वयं परमेश्वर है, और इससे भी बढ़कर, जो मनुष्यों के जीवन और मृत्यु को नियंत्रित करने वाला वह परमेश्वर है, जिसके पास अधोलोक की चाबी है। मैं सभी मनुष्यों (वयस्क और बच्चे, चाहे उनमें आत्मा हो या न हो, या चाहे वे मूर्ख हों या न हों अथवा उनमें कोई अक्षमता हो या न हो, आदि) को यह अवसर दूँगा कि वे मुझे जानें। मैं किसी को भी इस कार्य से बचने नहीं दूँगा; यह सबसे गंभीर कार्य है, एक ऐसा कार्य जिसे मैंने अच्छे से तैयार किया है, और जो ठीक अभी से शुरू करके क्रियान्वित किया जा रहा है। मैं जो कहता हूँ, वह होगा। अपनी आध्यात्मिक आँखें खोलो, अपनी व्यक्तिगत धारणाएँ छोड़ दो, और यह पहचानो कि केवल मैं ही वह सच्चा परमेश्वर हूँ जो ब्रह्मांड का प्रशासन चलाता है! मैं किसी से छिपा हुआ नहीं हूँ, और मैं अपनी प्रशासकीय आज्ञाएँ सभी पर लागू करता हूँ" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 72)। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ने पर, मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। पूरे ब्रह्मांड पर सर्वशक्तिमान परमेश्वर का प्रभुत्व है, वह मनुष्य के भाग्य को नियंत्रित करता है; लोगों की जिंदगी और मौत उसके हाथ में हैं, सब उसकी व्यवस्थाओं के अधीन हैं। फिर भी, मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता की कोई समझ नहीं थी। अपना कर्तव्य निभाते समय, मैंने सिर्फ अपने जीवन के बारे में सोचा था। मैं पुलिस के हाथों में पड़ जाने और मौत आते तक यातना सहने को लेकर सचमुच डरी हुई थी। मेरे अंदर परमेश्वर में सच्ची आस्था का एक तिनका भी नहीं था। मेरा आध्यात्मिक कद निहायत छोटा था। मैं जीवन से चिपकी हुई एक कायर इंसान थी, जो खतरनाक काम सामने आते ही हमेशा मैदान छोड़कर भाग जाना चाहती थी। यानी, अगर सच में मुझे गिरफ़्तार कर यातना दी जाए, तो मैं यकीनन परमेश्वर को धोखा दूंगी, इस तरह एक यहूदा बन जाऊंगी, आखिर में मुझे दंड देकर नरक में भेज दिया जाएगा। यह एहसास वाकई मुझे बहुत ज़्यादा डरा देता।
बाद में, मेरी नज़र परमेश्वर के वचनों के एक और अंश पर पड़ी : "जब लोग अपने जीवन का त्याग करने के लिए तैयार होते हैं, तो हर चीज तुच्छ हो जाती है, और कोई उन्हें हरा नहीं सकता। जीवन से अधिक महत्वपूर्ण क्या हो सकता है? इस प्रकार, शैतान लोगों में आगे कुछ करने में असमर्थ हो जाता है, वह मनुष्य के साथ कुछ भी नहीं कर सकता। हालाँकि, 'देह' की परिभाषा में यह कहा जाता है कि देह शैतान द्वारा दूषित है, लेकिन अगर लोग वास्तव में स्वयं को अर्पित कर देते हैं, और शैतान से प्रेरित नहीं रहते, तो कोई भी उन्हें मात नहीं दे सकता" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 36)। परमेश्वर के इन वचनों ने यह पहचानने में मेरी मदद की कि मौत का डर हमेशा से मेरी दुखती रग रहा है। शैतान तन-सुख पाने की मेरी इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाकर मुझ पर हमला करता, जिससे मैं परमेश्वर को धोखा देती, और शैतान के साथ-साथ खुद भी विनाश के रास्ते पर आ जाती। शैतान पूरी तरह से नीच और दुष्ट है! मेरा जिंदगी और मौत परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन हैं और वो ही इसे निर्धारित करता है। शैतान चाहे जितना भी भयानक क्यों न हो, परमेश्वर की इजाज़त के बिना वह मेरा कुछ भी बिगाड़ने की हिमाकत नहीं कर सकता। मुझे अपनी जिंदगी और मौत परमेश्वर को सौंप देना चाहिए, उसके आयोजन के सामने समर्पण कर देना चाहिए; सीसीपी चहे मुझे यातना देकर मौत के घाट उतार दे, फिर भी मुझे परमेश्वर की गवाही देनी होगी, उसका गुणगान करना होगा। फिर मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेककर प्रार्थना की, विनती की, "हे परमेश्वर, मैं अपनी जिंदगी आपके सुपुर्द कर देना चाहती हूँ, अपनी जिंदगी या मौत का आयोजन आपको करने देना चाहती हूँ। मेरे दिल की गहराई में देखो।"
उस पल, मैंने परमेश्वर द्वारा बोले हुए कुछ और वचनों के बारे में सोचा : "मानवजाति के एक सदस्य और एक सच्चे ईसाई होने के नाते अपने मन और शरीर परमेश्वर के आदेश की पूर्ति करने के लिए समर्पित करना हम सभी का उत्तरदायित्व और कर्तव्य है, क्योंकि हमारा संपूर्ण अस्तित्व परमेश्वर से आया है, और वह परमेश्वर की संप्रभुता के कारण अस्तित्व में है। यदि हमारे मन और शरीर परमेश्वर के आदेश और मानवजाति के धार्मिक कार्य के लिए नहीं हैं, तो हमारी आत्माएँ उन लोगों के योग्य महसूस नहीं करेंगी, जो परमेश्वर के आदेश के लिए शहीद हुए थे, और परमेश्वर के लिए तो और भी अधिक अयोग्य होंगी, जिसने हमें सब-कुछ प्रदान किया है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)। परमेश्वर के वचनों से यह स्पष्ट है कि सृजित प्राणियों का, परमेश्वर द्वारा सौंपे गये कार्यों को पूरा करने में, अपनी जान दे देना सबसे सार्थक चीज़ है। उस ज़माने में प्रभु यीशु का अनुसरण करने वाले शिष्यों और प्रेरितों के बारे में सोचें, तो बहुत-से सुसमाचार को फैलाते समय शहीद हो गये थे, लेकिन उनकी मृत्यु को परमेश्वर याद करता है। शरीर से शायद वे मर चुके हैं, लेकिन उनकी आत्माएं जीवित हैं। अगर हम मृत्यु के डर से एक यहूदा बन जाएं, परमेश्वर को धोखा दें, तो फिर वह हमें दंड देता है और हम मर जाते हैं, वह असली मृत्यु है; हम नरक में जाएंगे। यह अनंत पीड़ा है। प्रभु यीशु ने कहा था, "क्योंकि जो कोई अपना प्राण बचाना चाहे, वह उसे खोएगा; और जो कोई मेरे लिये अपना प्राण खोएगा, वह उसे पाएगा" (मत्ती 16:25)। ऐसे मुश्किल माहौल में, जहां सीसीपी लोगों का इतना अंधाधुध दमन कर उन्हें गिरफ़्तार कर रही है, परमेश्वर ने मेरा रवैया देखा; वह देख रहा था कि क्या मैं उसे संतुष्ट करने के लिए मौत का खतरा मोल लूंगी और शैतान के सामने इसकी गवाही दूंगी। मौत से डरने के कारण अगर मैं अपना कर्तव्य छोड़कर परमेश्वर को धोखा देती हूँ, तो मैं एक ज़िंदा लाश हूँ। यह महसूस कर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि मैं अपने तन-सुख को धोखा देने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए उस पर भरोसा करने को तैयार हूँ। जब मैं कलीसिया का पैसा दूसरी जगह पहुंचा रही थी, तो मैंने मन-ही-मन परमेश्वर के वचनों का एक भजन गाया : "तुम सृजित प्राणी हो—तुम्हें निस्संदेह परमेश्वर की आराधना और सार्थक जीवन का अनुसरण करना चाहिए। चूँकि तुम मानव प्राणी हो, इसलिए तुम्हें स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाना और सारे कष्ट सहने चाहिए! आज तुम्हें जो थोड़ा-सा कष्ट दिया जाता है, वह तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक और दृढ़तापूर्वक स्वीकार करना चाहिए और अय्यूब तथा पतरस के समान सार्थक जीवन जीना चाहिए। तुम सब वे लोग हो, जो सही मार्ग का अनुसरण करते हो, जो सुधार की खोज करते हो। तुम सब वे लोग हो, जो बड़े लाल अजगर के देश में ऊपर उठते हो, जिन्हें परमेश्वर धार्मिक कहता है। क्या यह सबसे सार्थक जीवन नहीं है?" ("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'सबसे सार्थक जीवन')। मैंने यह भजन जितना गाया, उतना ही मुझे अच्छा लगा। एक सृजित प्राणी के तौर पर, अपना कर्तव्य निभा पाना सबसे अनमोल चीज़ होती है। इस प्रकार का जीवन सार्थक होता है। परमेश्वर इसी की प्रशंसा करता है। यह पल आते-आते अब मैंने कायर और डरपोक महसूस नहीं किया, बिना किसी दुर्घटना के कलीसिया का पैसा दूसरी जगह पहुंचा सकी। भीतर गहराई तक मुझे पूरा सुकून और आराम महसूस हो रहा था। उसके बाद, परमेश्वर के मार्गदर्शन से, अनेक अवसरों पर मैं परमेश्वर के घर की चीज़ों और क़िताबों को दूसरी जगह पहुंचा सकी।
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