परमेश्वर की मेरी गवाही और उनके उत्कर्ष का मेरा अभ्यास बहुत ही बेतुके थे

14 सितम्बर, 2019

झांग चेंग, शानडोंग प्रांत

मैं जब भी कलीसिया में किसी अगुवा और सह-कर्मी को मसीह-विरोधी बनते और परमेश्वर द्वारा इसलिए हटाए जाते देखता था, क्योंकि वे हमेशा अपनी गवाही देते थे और भाई-बहनों को अपने समक्ष लाते थे, तो मैं अपने आपको चेतावनी देता था: मुझे हर मामले में निश्चित रूप से परमेश्वर का ही उत्कर्ष करना चाहिये और उन्हीं की गवाही देनी चाहिये; मुझे किसी भी हालत में न तो दिखावा करना चाहिये, न ही खुद को ऊंचा उठाना चाहिये, कहीं ऐसा न हो कि मैं नाकाम लोगों की राह पर चलने लगूँ। इसलिये, मैं जब भी सहभागिता करता, मैं केवल अपनी भ्रष्टता के प्रकाशन पर ही ध्यान देता था, कभी सकारात्मक पहलू से अभ्यास या प्रवेश की बात नहीं करता था। जब कोई कहता कि मैंने थोड़ा ही प्रवेश किया है या मुझमें ज़रा-सा परिवर्तन हुआ है, तो मैं उस बात को सिरे से नकार देता। मुझे यकीन था, इस तरह से अभ्यास करना परमेश्वर का उत्कर्ष करना और उनकी गवाही देना है।

एक दिन, मैंने एक सहभागिता में ये वचन सुने: "परमेश्वर का उत्कर्ष करने और उनकी गवाही देने को लेकर, कुछ लोगों का ज्ञान अधूरा है, इसलिये जो अभ्यास वे लोग करते हैं, वह पूरी तरह से सही नहीं है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के कार्य के अनुभव के बारे में बात करने का मुख्य अर्थ है अपनी भ्रष्टता की जानकारी की चर्चा करना, अपनी भ्रष्टता को उजागर करना, खुलने का अभ्यास करना, और अपनी भ्रष्टता के प्रकाशन का विश्लेषण करना—उनकी नज़र में यही परमेश्वर का उत्कर्ष करना और गवाही देना है। अनुभव और गवाही के ऐसे पहलुओं की चर्चा इस तरह करना मानो वो स्वयं में आया परिवर्तन हो और उस प्रक्रिया की चर्चा करना जिससे परिवर्तन आता है, या वास्तविकता में प्रवेश की बात करना, ऐसा है जैसे आप परमेश्वर की गवाही न देकर, अपनी गवाही दे रहे हों। क्या यह ज्ञान सही है? क्या उस प्रक्रिया के बारे में बात करना जिसके ज़रिये आपने परिवर्तन का अनुभव किया है, अपनी गवाही देना है? नहीं है। ... एक बात हमें अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये कि परमेश्वर के सामने लोगों को लाने की ख़ातिर सबसे प्रभावी होने के लिये, जब आप केवल नकारात्मक अनुभवों की ही बात करते हैं, और सकारात्मक प्रवेश की बात नहीं करते, तो उसका प्रभाव सीमित होता है, वह आदर्श नहीं होता, लोग तब भी मार्ग से वंचित रहेंगे। आपकी सहभागिता के दौरान, अन्य लोग केवल यह देखते हैं कि आप अपने आपको कैसे खोलते हैं, कैसे अपना विश्लेषण करते हैं, और आप कैसे अपने आपको सामने लाते हैं। आपके सकारात्मक प्रवेश का क्या, आपके अभ्यास का क्या? आप लोगों को अभ्यास का कौन-सा मार्ग देते हैं? आपने लोगों को यह नहीं बताया कि अब से वे कैसे अभ्यास करें। ... कुछ लोग नहीं जानते कि अपनी गवाही देने का क्या अर्थ है? उन्हें लगता है कि सकारात्मक पहलू और वास्तविकता में उनके प्रवेश करने के पहलू के बारे में बात करना ही अपनी गवाही देना है—लेकिन दरअसल यह परमेश्वर की बेहतर गवाही है, परमेश्वर की अधिक पूर्ण गवाही है। हम अपने कर्तव्य निभाने में थोड़ी-सी वास्तविकता का प्रयोग करने, कुछ अच्छे कर्म करने, कुछ निष्ठा दिखाने में सक्षम हैं—क्या यह परमेश्वर का प्रेम नहीं है? क्या यह परमेश्वर का अनुग्रह नहीं है? क्या यह पवित्र आत्मा के कार्य का प्रभाव नहीं है? ऐसी बातों पर सहभागिता करके, आप परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की गवाही दे सकते हैं। आप इसकी गवाही बेहतर ढंग से दे सकते हैं कि परमेश्वर का कार्य कैसे इंसान के उद्धार का कार्य है, परमेश्वर के वचन कैसे इंसान को बदलकर, उसे पूर्ण कर सकते हैं, बचा सकते हैं। इस तरह, परमेश्वर के कार्य की गवाही के लिए यह भी अपेक्षित है कि आप अपने सकारात्मक प्रवेश के बारे में बोलें, यह बताएं कि आप प्रवेश न कर पाने से आख़िरकार प्रवेश कर पाने तक कैसे पहुँचे; अपने आपको न जान पाने से आख़िरकार अपने आपको जान पाने तक कैसे पहुँचे, अपनी प्रकृति के सार को जान पाने तक कैसे पहुँचे; परमेश्वर का विरोध और उनके विरुद्ध विद्रोह करने से परमेश्वर की आज्ञाकारिता तक, उन्हें संतुष्ट करने, और उनकी गवाही देने तक कैसे पहुँचे। अगर आप अपने ऐसे अनुभवों और गवाही की समग्रता में सहभागिता कर सकें, तो परमेश्वर के प्रति आपकी गवाही सकल और संपूर्ण होगी। यही सच्चे अर्थों में परमेश्वर का उत्कर्ष करना और गवाही देना है। ... अगर आप केवल अपनी भ्रष्टता और मलिनता की ही बात करते रहें, और अगर एक दशक या अधिक समय के बाद, आप अपने में आये परिवर्तनों पर कुछ न कह पाएँ, तो क्या यह परमेश्वर का उत्कर्ष करना और उनकी गवाही देना है? क्या यह परमेश्वर का गुणगान करना है? क्या यह परमेश्वर के कार्य की सर्वशक्तिमत्ता की गवाही दे सकती है? ... अगर आपकी गवाही लोगों को नकारात्मक बनाए और उन्हें परमेश्वर से दूर कर दे, तो फिर यह गवाही नहीं है। अगर आपका कार्य परमेश्वर का विरोधी है, तो यह शैतान का कार्य है; यह परमेश्वर का विरोध करने वाला कार्य है" (जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति)। मैंने जब यह सुना तो मुझे अचानक एहसास हुआ कि अपने आपको दृढ़ता से उजागर करना और अपनी भ्रष्टता के प्रकाशन की बात करना, परमेश्वर का उत्कर्ष करना और उनकी गवाही देना नहीं है; परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के कार्य का अनुभव करते समय, अपने भ्रष्ट सार के बारे में जान लेने के बारे में चर्चा कर लेना भर ही परमेश्वर की सच्ची गवाही देने और उनका उत्कर्ष करने में शामिल नहीं है; अधिक महत्वपूर्ण यह है कि आप अपने सकारात्मक अभ्यास और प्रवेश के बारे में बात करें। मिसाल के तौर पर, आपने किन सत्यों को जाना है, आपने परमेश्वर के बारे में क्या जाना है, आपके अंदर परमेश्वर के कार्य ने क्या प्रभाव पैदा किया है, आपके पुराने स्वभाव में क्या बदलाव आये हैं, और भी बहुत कुछ। अगर आप अनुभव और ज्ञान के इन पहलुओं पर सच्चाई से बोलेंगे, तो आप जिन वास्तविक अनुभवों पर सहभागिता कर रहे हैं, उनसे भाई-बहनों को परमेश्वर के बारे में जानकारी मिलेगी, इससे वे समझ पायेंगे कि परमेश्वर का कार्य वाकई लोगों को बचा सकता है, उनमें बदलाव ला सकता है। इस तरह, उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था पैदा होगी। साथ ही, उन्हें अभ्यास और प्रवेश का एक मार्ग मिलेगा, उन्हें यह जानकारी मिलेगी कि परमेश्वर को किस तरह संतुष्ट किया जाए, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में कैसे प्रवेश किया जाए। केवल यही परमेश्वर का सच्चा उत्कर्ष करना और गवाही देना है। ऐसी गवाही ही शैतान को शर्मिंदा कर सकती है। जबकि परमेश्वर का उत्कर्ष करने और गवाही देने की मेरी समझ बिल्कुल एकतरफ़ा, और बहुत ही बेतुकी थी। मुझे लगता था कि भाई-बहनों के सामने अपनी भ्रष्टता के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा बोलना चाहिये, ताकि वे मुझे तुच्छ जानें, यही परमेश्वर का उत्कर्ष करना और गवाही देना है। मैं सोचता था कि अपने प्रवेश के सकारात्मक पहलू के बारे में बात करना अपना उत्कर्ष करना और अपनी गवाही देना है। मैं भी कितना मूर्ख था! इस मुकाम पर, मैं अपने अभ्यास और परमेश्वर के उत्कर्ष और गवाही के प्रभाव पर सोचने के लिये विवश हो गया।

एक समय, मुझे याद है जब एक बहन जो मेरी मेज़बानी कर रही थी, बोली, "आप अगुवाओं ने घर से दूर अपने कर्तव्य की ख़ातिर अपने परिवारों और करियर का त्याग कर दिया, आप लोगों ने बहुत मुश्किलें सही हैं, अनेक अनुभव हासिल किये हैं, और बहुत से सत्यों को जान लिया है। आप सभी लोगों में, कुछ प्रवेश और बदलाव आया है। लेकिन घर पर रहकर, मैं देह के बंधन में बँधी हूँ, ऐसा बहुत कम होता है, जब परमेश्वर के आगे मेरे दिल को सुकून मिलता हो। मेरे अंदर कोई बदलाव नहीं आया। मैं आप लोगों जैसी बनना चाहूँगी।" यह सुनकर मैंने सोचा, "मुझे परमेश्वर का उत्कर्ष करना चाहिये और उनकी गवाही देनी चाहिये, मुझे अपनी भ्रष्टता पर सहभागिता करनी चाहिये, मुझे अपने अंदर आये बदलाव पर नहीं बोलना चाहिये, वरना यह बहन मुझे बहुत सम्मान देने लगेगी।" परिणामस्वरूप, मैंने तय किया कि मैं इस पर बोलूँगा कि पहले मैं बहुत अहंकारी था, अपने कर्तव्य निभाते समय, कलीसिया की व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारी नहीं था, मैं भाई-बहनों के साथ मिलकर काम नहीं कर पाता था। मेरी बातें झूठ से दागदार होती थीं, मैं लोगों से धोखा करता था, उनके प्रति शंकालु रहता था...। मेरी सहभागिता को सुनने के बाद, बहन बोली, "मुझे तो लगा था कि आप सभी कमोबेश पूरी तरह से बदल गये हैं—लेकिन अब पता चला कि आप में भी कोई बदलाव नहीं आया है। ओफ्फो! आप में से किसी में भी बदलाव नहीं आया है, यह सुनकर तो मुझे और बुरा लग रहा है।" उसके बाद, बहन की नज़र में मेरे लिये वह सम्मान नहीं रहा, वह मेरी ओर आशा भरी नज़रों से नहीं देखती थी। नतीजा यह हुआ कि वह नकारात्मक हो गई। उसे लगा कि अब उसके लिये उद्धार की कोई उम्मीद नहीं बची। एक बार, सभा के दौरान, मैंने भाई-बहनों से अपनी भ्रष्टता के एक पहलू पर चर्चा की: कैसे परमेश्वर के बारे में मेरी धारणाएँ थीं। मैं केवल इसी पर चर्चा करता था कि कैसे मेरे मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएं थीं, इस बारे में चर्चा नहीं करता था कि कैसे मैंने उन धारणाओं को सुधारा। मुझे पता चला कि भाई-बहनों में ऐसी कोई धारणा नहीं थी, लेकिन मेरी सहभागिता सुनने के बाद उनमें ये धारणाएं आ गईं। परमेश्वर के लिये मेरे कथित उत्कर्ष और गवाही का ऐसा प्रभाव था। मैंने परमेश्वर के प्रति जिस उत्कर्ष और गवाही का अभ्यास किया था, उससे न केवल परमेश्वर के वचनों के सामर्थ्य और प्रताप की गवाही प्रमाणित नहीं होती थी, बल्कि उससे भाई-बहनों के अंदर परमेश्वर के बचाने के कार्य के प्रति, बदलाव के कार्य के प्रति, और लोगों को पूर्ण करने के प्रति भी शंका और धारणाएँ पैदा हो गईं; उनमें उद्धार के प्रति आस्था समाप्त हो गई। उनमें न तो सत्य का अनुसरण करने का जोश बचा था, न ही सक्रिय सहयोग करने का संकल्प। मैंने परमेश्वर के प्रति जिस उत्कर्ष और गवाही का अभ्यास किया था, उससे लोगों के सामने परमेश्वर की दयालुता, प्रियता, और धार्मिकता की गवाही प्रमाणित नहीं होती थी, इससे परमेश्वर के इंसान को बचाने के उदार इरादों की, लोगों के प्रति परमेश्वर के प्रेम की गवाही प्रमाणित नहीं होती थी, और न ही इससे लोग परमेश्वर को जान पाते थे; बल्कि इससे भाई-बहनों के मन में परमेश्वर के प्रति धारणाएँ और गलतफ़हमियाँ पैदा हो गईं, और वे गलत दशा में रहने लगे। मैं कैसे परमेश्वर का उत्कर्ष कर रहा था और गवाही दे रहा था? मैं तो बस नकारात्मकता फैला रहा था और लोगों को मौत बाँट रहा था। मूलत:, मैं लोगों को आहत कर रहा था और उन पर तबाही ला रहा था। हालाँकि देखने में, ऐसा नहीं लगता था कि मैंने साफ़ तौर पर कोई बुरा काम किया है, लेकिन निष्कर्ष यही था कि मेरे कृत्य परमेश्वर के विरुद्ध थे, ये परमेश्वर से लोगों के संबंधों में नफ़रत के बीज बो रहे थे। यह भाई-बहनों की सकारात्मकता पर प्रहार था। इससे वे लोग परमेश्वर से दूर हो रहे थे। सीधी-सी बात है, मैं दुष्टता कर रहा था! इससे सचमुच परमेश्वर को घृणा और नफ़रत है!

परमेश्वर का उत्कर्ष करना और गवाही देना वास्तव में क्या होता है, इस बारे में मुझे प्रबुद्ध करने के लिये, और इस बात की जानकारी देने के लिये कि परमेश्वर के उत्कर्ष और गवाही के बारे में मेरी समझ कितनी बेतुकी थी, और यह देखने देने के लिए कि सार रूप से परमेश्वर के प्रति मेरा कथित उत्कर्ष और गवाही परमेश्वर की कितनी घोर विरोधी थी, मैं परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ। अगर मैं यही सोच रखता, तो अंतत: मेरा हश्र यह होता कि मुझे हटा दिया जाता और दण्डित किया जाता, क्योंकि मैंने परमेश्वर की सेवा करते हुए, उनका विरोध किया। उस दिन के बाद से, मैंने अपने अभ्यास के बेतुके साधनों को पूरी तरह से बदलने की ठान ली; जब मैं अपने आपको जानने के बारे में सहभागिता करूँगा, तो मैं सकारात्मक प्रवेश के मार्ग पर अवश्य ज़्यादा बोलूँगा, मैं परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास करने की गवाही पर अवश्य बोलूँगा। मैंने जो कुछ भी जान लिया है, मुझे उन बातों की गवाही देनी चाहिए—ताकि, अपने अनुभव और ज्ञान की मदद से, भाई-बहन परमेश्वर की इच्छा को समझ सकें, परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर सकें, परमेश्वर का ज्ञान अर्जित कर सकें और वे सचमुच परमेश्वर के सामने आ सकें।

झांग चेंग, शानडोंग प्रांत

मैं जब भी कलीसिया में किसी अगुवा और सह-कर्मी को मसीह-विरोधी बनते और परमेश्वर द्वारा इसलिए हटाए जाते देखता था, क्योंकि वे हमेशा अपनी गवाही देते थे और भाई-बहनों को अपने समक्ष लाते थे, तो मैं अपने आपको चेतावनी देता था: मुझे हर मामले में निश्चित रूप से परमेश्वर का ही उत्कर्ष करना चाहिये और उन्हीं की गवाही देनी चाहिये; मुझे किसी भी हालत में न तो दिखावा करना चाहिये, न ही खुद को ऊंचा उठाना चाहिये, कहीं ऐसा न हो कि मैं नाकाम लोगों की राह पर चलने लगूँ। इसलिये, मैं जब भी सहभागिता करता, मैं केवल अपनी भ्रष्टता के प्रकाशन पर ही ध्यान देता था, कभी सकारात्मक पहलू से अभ्यास या प्रवेश की बात नहीं करता था। जब कोई कहता कि मैंने थोड़ा ही प्रवेश किया है या मुझमें ज़रा-सा परिवर्तन हुआ है, तो मैं उस बात को सिरे से नकार देता। मुझे यकीन था, इस तरह से अभ्यास करना परमेश्वर का उत्कर्ष करना और उनकी गवाही देना है।

एक दिन, मैंने एक सहभागिता में ये वचन सुने: "परमेश्वर का उत्कर्ष करने और उनकी गवाही देने को लेकर, कुछ लोगों का ज्ञान अधूरा है, इसलिये जो अभ्यास वे लोग करते हैं, वह पूरी तरह से सही नहीं है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के कार्य के अनुभव के बारे में बात करने का मुख्य अर्थ है अपनी भ्रष्टता की जानकारी की चर्चा करना, अपनी भ्रष्टता को उजागर करना, खुलने का अभ्यास करना, और अपनी भ्रष्टता के प्रकाशन का विश्लेषण करना—उनकी नज़र में यही परमेश्वर का उत्कर्ष करना और गवाही देना है। अनुभव और गवाही के ऐसे पहलुओं की चर्चा इस तरह करना मानो वो स्वयं में आया परिवर्तन हो और उस प्रक्रिया की चर्चा करना जिससे परिवर्तन आता है, या वास्तविकता में प्रवेश की बात करना, ऐसा है जैसे आप परमेश्वर की गवाही न देकर, अपनी गवाही दे रहे हों। क्या यह ज्ञान सही है? क्या उस प्रक्रिया के बारे में बात करना जिसके ज़रिये आपने परिवर्तन का अनुभव किया है, अपनी गवाही देना है? नहीं है। ... एक बात हमें अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये कि परमेश्वर के सामने लोगों को लाने की ख़ातिर सबसे प्रभावी होने के लिये, जब आप केवल नकारात्मक अनुभवों की ही बात करते हैं, और सकारात्मक प्रवेश की बात नहीं करते, तो उसका प्रभाव सीमित होता है, वह आदर्श नहीं होता, लोग तब भी मार्ग से वंचित रहेंगे। आपकी सहभागिता के दौरान, अन्य लोग केवल यह देखते हैं कि आप अपने आपको कैसे खोलते हैं, कैसे अपना विश्लेषण करते हैं, और आप कैसे अपने आपको सामने लाते हैं। आपके सकारात्मक प्रवेश का क्या, आपके अभ्यास का क्या? आप लोगों को अभ्यास का कौन-सा मार्ग देते हैं? आपने लोगों को यह नहीं बताया कि अब से वे कैसे अभ्यास करें। ... कुछ लोग नहीं जानते कि अपनी गवाही देने का क्या अर्थ है? उन्हें लगता है कि सकारात्मक पहलू और वास्तविकता में उनके प्रवेश करने के पहलू के बारे में बात करना ही अपनी गवाही देना है—लेकिन दरअसल यह परमेश्वर की बेहतर गवाही है, परमेश्वर की अधिक पूर्ण गवाही है। हम अपने कर्तव्य निभाने में थोड़ी-सी वास्तविकता का प्रयोग करने, कुछ अच्छे कर्म करने, कुछ निष्ठा दिखाने में सक्षम हैं—क्या यह परमेश्वर का प्रेम नहीं है? क्या यह परमेश्वर का अनुग्रह नहीं है? क्या यह पवित्र आत्मा के कार्य का प्रभाव नहीं है? ऐसी बातों पर सहभागिता करके, आप परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की गवाही दे सकते हैं। आप इसकी गवाही बेहतर ढंग से दे सकते हैं कि परमेश्वर का कार्य कैसे इंसान के उद्धार का कार्य है, परमेश्वर के वचन कैसे इंसान को बदलकर, उसे पूर्ण कर सकते हैं, बचा सकते हैं। इस तरह, परमेश्वर के कार्य की गवाही के लिए यह भी अपेक्षित है कि आप अपने सकारात्मक प्रवेश के बारे में बोलें, यह बताएं कि आप प्रवेश न कर पाने से आख़िरकार प्रवेश कर पाने तक कैसे पहुँचे; अपने आपको न जान पाने से आख़िरकार अपने आपको जान पाने तक कैसे पहुँचे, अपनी प्रकृति के सार को जान पाने तक कैसे पहुँचे; परमेश्वर का विरोध और उनके विरुद्ध विद्रोह करने से परमेश्वर की आज्ञाकारिता तक, उन्हें संतुष्ट करने, और उनकी गवाही देने तक कैसे पहुँचे। अगर आप अपने ऐसे अनुभवों और गवाही की समग्रता में सहभागिता कर सकें, तो परमेश्वर के प्रति आपकी गवाही सकल और संपूर्ण होगी। यही सच्चे अर्थों में परमेश्वर का उत्कर्ष करना और गवाही देना है। ... अगर आप केवल अपनी भ्रष्टता और मलिनता की ही बात करते रहें, और अगर एक दशक या अधिक समय के बाद, आप अपने में आये परिवर्तनों पर कुछ न कह पाएँ, तो क्या यह परमेश्वर का उत्कर्ष करना और उनकी गवाही देना है? क्या यह परमेश्वर का गुणगान करना है? क्या यह परमेश्वर के कार्य की सर्वशक्तिमत्ता की गवाही दे सकती है? ... अगर आपकी गवाही लोगों को नकारात्मक बनाए और उन्हें परमेश्वर से दूर कर दे, तो फिर यह गवाही नहीं है। अगर आपका कार्य परमेश्वर का विरोधी है, तो यह शैतान का कार्य है; यह परमेश्वर का विरोध करने वाला कार्य है" (जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति)। मैंने जब यह सुना तो मुझे अचानक एहसास हुआ कि अपने आपको दृढ़ता से उजागर करना और अपनी भ्रष्टता के प्रकाशन की बात करना, परमेश्वर का उत्कर्ष करना और उनकी गवाही देना नहीं है; परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के कार्य का अनुभव करते समय, अपने भ्रष्ट सार के बारे में जान लेने के बारे में चर्चा कर लेना भर ही परमेश्वर की सच्ची गवाही देने और उनका उत्कर्ष करने में शामिल नहीं है; अधिक महत्वपूर्ण यह है कि आप अपने सकारात्मक अभ्यास और प्रवेश के बारे में बात करें। मिसाल के तौर पर, आपने किन सत्यों को जाना है, आपने परमेश्वर के बारे में क्या जाना है, आपके अंदर परमेश्वर के कार्य ने क्या प्रभाव पैदा किया है, आपके पुराने स्वभाव में क्या बदलाव आये हैं, और भी बहुत कुछ। अगर आप अनुभव और ज्ञान के इन पहलुओं पर सच्चाई से बोलेंगे, तो आप जिन वास्तविक अनुभवों पर सहभागिता कर रहे हैं, उनसे भाई-बहनों को परमेश्वर के बारे में जानकारी मिलेगी, इससे वे समझ पायेंगे कि परमेश्वर का कार्य वाकई लोगों को बचा सकता है, उनमें बदलाव ला सकता है। इस तरह, उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था पैदा होगी। साथ ही, उन्हें अभ्यास और प्रवेश का एक मार्ग मिलेगा, उन्हें यह जानकारी मिलेगी कि परमेश्वर को किस तरह संतुष्ट किया जाए, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में कैसे प्रवेश किया जाए। केवल यही परमेश्वर का सच्चा उत्कर्ष करना और गवाही देना है। ऐसी गवाही ही शैतान को शर्मिंदा कर सकती है। जबकि परमेश्वर का उत्कर्ष करने और गवाही देने की मेरी समझ बिल्कुल एकतरफ़ा, और बहुत ही बेतुकी थी। मुझे लगता था कि भाई-बहनों के सामने अपनी भ्रष्टता के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा बोलना चाहिये, ताकि वे मुझे तुच्छ जानें, यही परमेश्वर का उत्कर्ष करना और गवाही देना है। मैं सोचता था कि अपने प्रवेश के सकारात्मक पहलू के बारे में बात करना अपना उत्कर्ष करना और अपनी गवाही देना है। मैं भी कितना मूर्ख था! इस मुकाम पर, मैं अपने अभ्यास और परमेश्वर के उत्कर्ष और गवाही के प्रभाव पर सोचने के लिये विवश हो गया।

एक समय, मुझे याद है जब एक बहन जो मेरी मेज़बानी कर रही थी, बोली, "आप अगुवाओं ने घर से दूर अपने कर्तव्य की ख़ातिर अपने परिवारों और करियर का त्याग कर दिया, आप लोगों ने बहुत मुश्किलें सही हैं, अनेक अनुभव हासिल किये हैं, और बहुत से सत्यों को जान लिया है। आप सभी लोगों में, कुछ प्रवेश और बदलाव आया है। लेकिन घर पर रहकर, मैं देह के बंधन में बँधी हूँ, ऐसा बहुत कम होता है, जब परमेश्वर के आगे मेरे दिल को सुकून मिलता हो। मेरे अंदर कोई बदलाव नहीं आया। मैं आप लोगों जैसी बनना चाहूँगी।" यह सुनकर मैंने सोचा, "मुझे परमेश्वर का उत्कर्ष करना चाहिये और उनकी गवाही देनी चाहिये, मुझे अपनी भ्रष्टता पर सहभागिता करनी चाहिये, मुझे अपने अंदर आये बदलाव पर नहीं बोलना चाहिये, वरना यह बहन मुझे बहुत सम्मान देने लगेगी।" परिणामस्वरूप, मैंने तय किया कि मैं इस पर बोलूँगा कि पहले मैं बहुत अहंकारी था, अपने कर्तव्य निभाते समय, कलीसिया की व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारी नहीं था, मैं भाई-बहनों के साथ मिलकर काम नहीं कर पाता था। मेरी बातें झूठ से दागदार होती थीं, मैं लोगों से धोखा करता था, उनके प्रति शंकालु रहता था...। मेरी सहभागिता को सुनने के बाद, बहन बोली, "मुझे तो लगा था कि आप सभी कमोबेश पूरी तरह से बदल गये हैं—लेकिन अब पता चला कि आप में भी कोई बदलाव नहीं आया है। ओफ्फो! आप में से किसी में भी बदलाव नहीं आया है, यह सुनकर तो मुझे और बुरा लग रहा है।" उसके बाद, बहन की नज़र में मेरे लिये वह सम्मान नहीं रहा, वह मेरी ओर आशा भरी नज़रों से नहीं देखती थी। नतीजा यह हुआ कि वह नकारात्मक हो गई। उसे लगा कि अब उसके लिये उद्धार की कोई उम्मीद नहीं बची। एक बार, सभा के दौरान, मैंने भाई-बहनों से अपनी भ्रष्टता के एक पहलू पर चर्चा की: कैसे परमेश्वर के बारे में मेरी धारणाएँ थीं। मैं केवल इसी पर चर्चा करता था कि कैसे मेरे मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएं थीं, इस बारे में चर्चा नहीं करता था कि कैसे मैंने उन धारणाओं को सुधारा। मुझे पता चला कि भाई-बहनों में ऐसी कोई धारणा नहीं थी, लेकिन मेरी सहभागिता सुनने के बाद उनमें ये धारणाएं आ गईं। परमेश्वर के लिये मेरे कथित उत्कर्ष और गवाही का ऐसा प्रभाव था। मैंने परमेश्वर के प्रति जिस उत्कर्ष और गवाही का अभ्यास किया था, उससे न केवल परमेश्वर के वचनों के सामर्थ्य और प्रताप की गवाही प्रमाणित नहीं होती थी, बल्कि उससे भाई-बहनों के अंदर परमेश्वर के बचाने के कार्य के प्रति, बदलाव के कार्य के प्रति, और लोगों को पूर्ण करने के प्रति भी शंका और धारणाएँ पैदा हो गईं; उनमें उद्धार के प्रति आस्था समाप्त हो गई। उनमें न तो सत्य का अनुसरण करने का जोश बचा था, न ही सक्रिय सहयोग करने का संकल्प। मैंने परमेश्वर के प्रति जिस उत्कर्ष और गवाही का अभ्यास किया था, उससे लोगों के सामने परमेश्वर की दयालुता, प्रियता, और धार्मिकता की गवाही प्रमाणित नहीं होती थी, इससे परमेश्वर के इंसान को बचाने के उदार इरादों की, लोगों के प्रति परमेश्वर के प्रेम की गवाही प्रमाणित नहीं होती थी, और न ही इससे लोग परमेश्वर को जान पाते थे; बल्कि इससे भाई-बहनों के मन में परमेश्वर के प्रति धारणाएँ और गलतफ़हमियाँ पैदा हो गईं, और वे गलत दशा में रहने लगे। मैं कैसे परमेश्वर का उत्कर्ष कर रहा था और गवाही दे रहा था? मैं तो बस नकारात्मकता फैला रहा था और लोगों को मौत बाँट रहा था। मूलत:, मैं लोगों को आहत कर रहा था और उन पर तबाही ला रहा था। हालाँकि देखने में, ऐसा नहीं लगता था कि मैंने साफ़ तौर पर कोई बुरा काम किया है, लेकिन निष्कर्ष यही था कि मेरे कृत्य परमेश्वर के विरुद्ध थे, ये परमेश्वर से लोगों के संबंधों में नफ़रत के बीज बो रहे थे। यह भाई-बहनों की सकारात्मकता पर प्रहार था। इससे वे लोग परमेश्वर से दूर हो रहे थे। सीधी-सी बात है, मैं दुष्टता कर रहा था! इससे सचमुच परमेश्वर को घृणा और नफ़रत है!

परमेश्वर का उत्कर्ष करना और गवाही देना वास्तव में क्या होता है, इस बारे में मुझे प्रबुद्ध करने के लिये, और इस बात की जानकारी देने के लिये कि परमेश्वर के उत्कर्ष और गवाही के बारे में मेरी समझ कितनी बेतुकी थी, और यह देखने देने के लिए कि सार रूप से परमेश्वर के प्रति मेरा कथित उत्कर्ष और गवाही परमेश्वर की कितनी घोर विरोधी थी, मैं परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ। अगर मैं यही सोच रखता, तो अंतत: मेरा हश्र यह होता कि मुझे हटा दिया जाता और दण्डित किया जाता, क्योंकि मैंने परमेश्वर की सेवा करते हुए, उनका विरोध किया। उस दिन के बाद से, मैंने अपने अभ्यास के बेतुके साधनों को पूरी तरह से बदलने की ठान ली; जब मैं अपने आपको जानने के बारे में सहभागिता करूँगा, तो मैं सकारात्मक प्रवेश के मार्ग पर अवश्य ज़्यादा बोलूँगा, मैं परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास करने की गवाही पर अवश्य बोलूँगा। मैंने जो कुछ भी जान लिया है, मुझे उन बातों की गवाही देनी चाहिए—ताकि, अपने अनुभव और ज्ञान की मदद से, भाई-बहन परमेश्वर की इच्छा को समझ सकें, परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर सकें, परमेश्वर का ज्ञान अर्जित कर सकें और वे सचमुच परमेश्वर के सामने आ सकें।

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