जब मुझे सुसमाचार के प्रचार में मुश्किलें आईं
2020 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। प्रभु की वापसी का स्वागत कर पाना मेरे लिए बड़ा आशीष था। यह बेहद अहम खुशखबरी फैलाने के लिए मैंने सुसमाचार का प्रचार शुरू कर दिया, ताकि और ज्यादा लोग परमेश्वर की वाणी सुनकर उसके पास लौट आएँ। लेकिन फरवरी 2022 में म्यांमार सरकार द्वारा धार्मिक विश्वास के दमन के कारण मेरी कलीसिया का उत्पीड़न किया गया, और सुसमाचार-कार्य में भारी रुकावट आ गई। कुछ भाई-बहन कायरता और कमजोरी के कारण सभाओं में शामिल नहीं हुए, कुछ अपने कर्तव्यों में निष्क्रिय हो गए, और सुसमाचार-कार्य ठप हो गया। उस समय मैं भी अपने कर्तव्य में निष्क्रिय हो गई। मैं वही करती, जो मेरी अगुआ कहती। मुझे लगता कि मैं सामान्य रूप से लोगों का सिंचन कर रही हूँ, लेकिन वे सभाओं में नियमित नहीं आ रहे थे और अपने कर्तव्यों में भी निष्क्रिय थे। मेरे पास कोई चारा नहीं था। कभी-कभी इंटरनेट न होता, जिससे मैं काम के बारे में पता करने भाई-बहनों से ऑनलाइन न जुड़ पाती, मुझे इंटरनेट ढूँढ़ने बाहर जाना पड़ता। कभी-कभी ढूँढ़ने में घंटों लग जाते, फिर भी अच्छा इंटरनेट न मिलता, और जैसे-जैसे समय बीता, ऑनलाइन जाने में मेरी रुचि कम होती गई। उस समय मैं एक बहन के रिश्तेदार को सुसमाचार सुनाती थी। तीन लोगों के उस परिवार ने अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया था, इसलिए मैं वहीं रहकर उनका सिंचन करती रही। मैं उन तीनों का सिंचन करके संतुष्ट थी और आगे प्रचार नहीं करना चाहती थी। मैंने सोचा, "वे आस-पास के गांवों में इतनी अफवाहें फैलाते हैं कि सुसमाचार फैलाना मुश्किल हो गया है। अगर मैं इन तीनों का सिंचन कर पाऊँ, तो ये मुझे अपने मित्रों-संबंधियों के बीच प्रचार के लिए ले जाएँगे। क्या यह सुसमाचार फैलाने का अच्छा तरीका नहीं?" इसलिए, जब भाई-बहनों ने पड़ोस के गांवों में सुसमाचार पाने वाले संभावित लोगों की बात की, तो मैंने चर्चा नहीं की कि उन्हें सुसमाचार कैसे सुनाना है। इससे सुसमाचार-कार्य सीधे प्रभावित हुआ।
बाद में जब हम काम पर गए, तो अगुआ ने कहा कि इस महीने हमारी कलीसिया का सुसमाचार-कार्य ठप रहा, और उसने कुछ दूसरी समस्याओं का भी जिक्र किया। इससे मेरा मन काफी दुखी हुआ। बाद में, एक बहन ने मुझे चेताया कि मैं यथास्थिति से संतुष्ट होकर अपने काम में प्रगति नहीं कर रही। यह मुझे अचानक जगाने जैसा था। मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने कार्य में दायित्व नहीं उठा रही। मैं कलीसिया-अगुआ से अपेक्षित कार्य, मुश्किलों का सामना या उनका समाधान नहीं कर रही थी, जिससे सुसमाचार-कार्य प्रभावित हो रहा था। जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही मुझे बुरा लगा। आत्म-चिंतन कर मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा, "वर्तमान में, कुछ ऐसे लोग हैं जो कलीसिया के लिए कोई बोझ नहीं उठाते। ये लोग सुस्त और ढीले-ढाले हैं, और वे केवल अपने शरीर की चिंता करते हैं। ऐसे लोग बहुत स्वार्थी होते हैं और अंधे भी होते हैं। यदि तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम नहीं होते हो, तो तुम कोई बोझ नहीं उठा पाओगे। तुम जितना अधिक परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखोगे, तुम्हें परमेश्वर उतना ही अधिक बोझ सौंपेगा। स्वार्थी लोग ऐसी चीज़ें सहना नहीं चाहते; वे कीमत नहीं चुकाना चाहते, परिणामस्वरूप, वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के अवसर से चूक जाते हैं। क्या वे अपना नुकसान नहीं कर रहे हैं? यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखता है, तो तुम कलीसिया के लिए वास्तविक बोझ विकसित करोगे। वास्तव में, इसे कलीसिया के लिए बोझ उठाना कहने की बजाय, यह कहना चाहिए कि तुम खुद अपने जीवन के लिए बोझ उठा रहे हो, क्योंकि कलीसिया के प्रति बोझ तुम इसलिए पैदा करते हो, ताकि तुम ऐसे अनुभवों का इस्तेमाल परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के लिए कर सको। इसलिए, जो भी कलीसिया के लिए सबसे भारी बोझ उठाता है, जो भी जीवन में प्रवेश के लिए बोझ उठाता है, उसे ही परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाता है। क्या तुमने इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लिया है? जिस कलीसिया के साथ तुम हो, यदि वह रेत की तरह बिखरी हुई है, लेकिन तुम न तो चिंतित हो और न ही व्याकुल, यहाँ तक कि जब तुम्हारे भाई-बहन परमेश्वर के वचनों को सामान्य ढंग से खाते-पीते नहीं हैं, तब भी तुम आँख मूंद लेते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम कोई जिम्मेदारी वहन नहीं कर रहे। ऐसे मनुष्य से परमेश्वर प्रसन्न नहीं होता। परमेश्वर जिनसे प्रसन्न होता है वे लोग धार्मिकता के भूखे और प्यासे होते हैं और वे परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखो)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मुझे अपराध-बोध हुआ। मैं कलीसिया-अगुआ थी, लेकिन सुसमाचार-कार्य ठप हुआ देखकर भी मुझे शीघ्रता महसूस नहीं हुई, मैंने बहाने ढूँढ़ लिए, कि चूंकि मेरे पास अच्छा इंटरनेट नहीं है, इसलिए मेरा काम की जानकारी न ले पाना सही है। भाई-बहनों ने जिन संभावित सुसमाचार पाने वालों का जिक्र किया था, मैंने किसी से इस बारे में संगति नहीं की कि उनके बीच सुसमाचार का प्रचार कैसे करना है और जब बहनों ने मुझसे चर्चा करनी चाही, तो मैं उनके लिए उपलब्ध नहीं थी। कलीसिया का उत्पीड़न होते देखकर भाई-बहन डरपोक और कमजोर हो गए और सामान्य रूप से इकट्ठा होने या अपना कार्य करने में समर्थ नहीं रहे, लेकिन मैंने समाधान के लिए सत्य नहीं खोजा। अंतत: मुझे एहसास हुआ कि सुसमाचार-कार्य में रुकावट की वजह मैं ही हूँ। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "वर्तमान में, कुछ ऐसे लोग हैं जो कलीसिया के लिए कोई बोझ नहीं उठाते। ये लोग सुस्त और ढीले-ढाले हैं, और वे केवल अपने शरीर की चिंता करते हैं। ऐसे लोग बहुत स्वार्थी होते हैं और अंधे भी होते हैं।" मुझे लगा, परमेश्वर के वचनों में वर्णित स्वार्थी व्यक्ति मैं ही हूँ। मैंने कलीसिया-कार्य का दायित्व नहीं उठाया, हमेशा यथास्थिति से संतुष्ट रही, मैंने केवल अपने आराम की परवाह की, कष्ट उठाने या कीमत चुकाने से मना कर दिया। सुसमाचार-कार्य को नुकसान होते देखकर भी मुझे शीघ्रता या चिंता महसूस नहीं हुई, मैं मुश्किलों में कमजोर और निष्क्रिय हो गई। मैं वाकई बहुत स्वार्थी थी। सरकार अन्य कलीसियाओं का भी उत्पीड़न कर रही थी, लेकिन भाई-बहन फिर भी सुसमाचार का प्रचार कर रहे थे और नई कलीसियाएँ बना रहे थे, जबकि हमारी कलीसिया का सुसमाचार-कार्य ठप हो गया था। यह सब मेरे स्वार्थी और नीच होने, कोई दायित्व न उठाने और कोई जिम्मेदारी न लेने की वजह से था। मैंने परमेश्वर की बहुत ऋणी महसूस किया। जब मैं दायित्व उठाती थी, उस समय अगर कोई सच्चे मार्ग की जाँच करता, तो मैं तुरंत किसी को सुसमाचार सुनाने भेज देती, और अगर भाई-बहनों को कोई समस्या होती, तो उसे दूर करने के लिए मैं सत्य पर संगति करती। मैं जितना सहयोग करती, उतना ही मेरे पास पवित्र आत्मा का कार्य होता, हमारा सुसमाचार-कार्य प्रभावी रहता, और मुझे सुकून और आनंद मिलता। लेकिन हाल ही में, मेरे दायित्व न उठाने से सुसमाचार-कार्य प्रभावी नहीं रहा था। उस समय परमेश्वर के इन वचनों से, "जो भी कलीसिया के लिए सबसे भारी बोझ उठाता है, जो भी जीवन में प्रवेश के लिए बोझ उठाता है, उसे ही परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाता है।" आखिर मुझे थोड़ी समझ हासिल हुई। परमेश्वर केवल उन्हें ही पूर्ण बनाता है, जो उसकी इच्छा का ध्यान रखते हैं और कलीसिया-कार्य का दायित्व उठाते हैं। मैंने यह भी जाना, कि अगर मैंने अपनी निष्क्रिय अवस्था नहीं बदली, तो कलीसिया का कार्य तो प्रभावित होगा ही, अंतत: मुझे भी उजागर कर त्याग दिया जाएगा। यह सोचकर मैं थोड़ा डर गई। अब मैं निष्क्रिय और लापरवाह नहीं हो सकती। मैंने परमेश्वर से दायित्व उठाने में मदद करने, और उसकी इच्छा का ध्यान रखते हुए अच्छे से कर्तव्य निभाने में मार्गदर्शन करने की प्रार्थना की।
इसके बाद मैंने निरीक्षक और समूह-अगुआओं के साथ चर्चा की कि हम सुसमाचार का प्रचार करने और कहाँ जा सकते हैं। हमें एक ऐसा गाँव मिला, जहाँ सभी लोग प्रभु में विश्वास रखते थे, लेकिन उस समय वहाँ जाने के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं था। मैंने सोचा, "इस बार, मुझे परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना है, और मैं पहले की तरह दायित्व उठाने से मना नहीं सकती। मुझे सक्रियता से यह जिम्मेदारी लेनी होगी।" तो मैं स्वेच्छा से उस गाँव में सुसमाचार फैलाने के लिए तैयार हो गई। पर मैं थोड़ी घबरा रही थी, क्योंकि मैं पहले कभी अकेले अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य की गवाही देने नहीं गई थी, इसलिए मुझे चिंता थी कि मैं स्पष्ट नहीं बोल पाऊँगी। मैंने सोचा, "पता नहीं, वहाँ इंटरनेट है या नहीं। क्या सुसमाचार का प्रचार करने वाले भाई-बहनों को ऑनलाइन संगति नहीं करने दी सकती?" मुझे एहसास हुआ, मेरी स्थिति गलत है, मैं लोगों पर निर्भर हो रही हूँ, इसलिए मैंने मन ही मन प्रार्थना करके परमेश्वर से वहाँ सुसमाचार फैलाते समय मुझे बुद्धि और आस्था देने के लिए कहा। जब मैं वहाँ पहुँची, तो एक बहन मुझे प्रचार के लिए सीधे महापौर के घर ले गई। महापौर ने मुझे पादरी के यहाँ ले जाने की इच्छा जताई। यह सुनकर मैं रोमांचित हो गई, लेकिन मेरी कुछ चिंताएँ भी थीं, "मैंने कभी अकेले सुसमाचार का प्रचार नहीं किया था। अगर पादरी की धारणाएँ हुईं, तो मैं उसके साथ संगति कैसे करूँगी? अगर उसने इसे स्वीकारने के बजाय, मेरा विरोध किया तो? तब भी क्या हम इस गांव में सुसमाचार का प्रचार कर पाएंगे?" मैं बहुत आशंकित थी। पादरी के घर पहुँचकर मैंने मदद के लिए भाई-बहनों को फोन करना चाहा, लेकिन मेरे फोन में इंटरनेट नहीं था। असमंजस की हालत में मैंने परमेश्वर से बार-बार प्रार्थना की कि वह मेरे साथ रहकर मुझे आस्था दे, ताकि मैं अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य की गवाही दे सकूं। प्रार्थना के बाद मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए, "मनुष्य का हृदय और आत्मा परमेश्वर के हाथ में हैं, उसके जीवन की हर चीज़ परमेश्वर की दृष्टि में रहती है। चाहे तुम यह मानो या न मानो, कोई भी और सभी चीज़ें, चाहे जीवित हों या मृत, परमेश्वर के विचारों के अनुसार ही जगह बदलेंगी, परिवर्तित, नवीनीकृत और गायब होंगी। परमेश्वर सभी चीज़ों को इसी तरीके से संचालित करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। यह सच है। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, सभी लोग, मामले और चीजें परमेश्वर के हाथों में हैं, यहाँ तक कि लोगों का दिल और आत्मा भी, मुझे परमेश्वर पर निर्भर रहना चाहिए। मैंने मन में परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, अगर यह पादरी तेरी भेड़ है, तो मुझे यकीन है, वह तेरी वाणी समझकर तेरा कार्य स्वीकारेगा।" प्रार्थना के बाद, मुझे अपने हृदय में शक्ति महसूस हुई, मानो परमेश्वर साथ हो तो कुछ भी असंभव नहीं। फिर, मैंने वर्तमान आपदाओं और विश्व के मामलों के जरिये प्रभु के आने की भविष्यवाणियों पर बात की। यह सुनकर पादरी प्रभु के लौटने की संभावना पर सहमत हो गया। उसने लोगों को भेजकर दो अन्य पादरी भी बुला लिए। मुझे डर था, कहीं ऐसा न हो कि मैं स्पष्ट न बोल पाऊँ और उनके मुद्दे हल न कर पाऊँ, इसलिए मैंने मन ही मन मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर को पुकारा। मुझे परमेश्वर के मूसा से इस्राएलियों को मिस्र से बाहर ले जाने के लिए कहने की याद आई। मूसा जानता था कि मिस्र के फिरौन के पास जाना कठिन और खतरनाक होगा, लेकिन उसका रवैया आज्ञाकारिता और समर्पण का था। परमेश्वर उसके साथ था, उसका मददगार था, परमेश्वर के मार्गदर्शन से मूसा इस्राएलियों को मिस्र से बाहर ले गया। फिर मुझे दाऊद के गोलियात को हराने की कहानी याद आई। गोलियात को देखकर इस्राएली डर गए थे। केवल दाऊद ने सामने आकर उसका मुकाबला किया। दाऊद ने गोलियात से कहा, "तू तो तलवार और भाला और साँग लिये हुए मेरे पास आता है; परन्तु मैं सेनाओं के यहोवा के नाम से तेरे पास आता हूँ" (1 शमूएल 17:45)। नतीजतन, दाऊद ने गोलियात को महज एक पत्थर से मार गिराया। इन दो कहानियों से मैंने जाना कि मुश्किल वक्त में सच्ची आस्था से ही हम परमेश्वर के कर्म देख सकते हैं, और लोगों के लिए जो अंत है, वह परमेश्वर के लिए शुरुआत है। यह सोचकर मुझमें हिम्मत आ गई।
तभी दो और पादरी आ गए। मैंने बाइबल की भविष्यवाणियों के जरिये उनसे संगति की कि कैसे परमेश्वर अंत के दिनों में प्रकट होकर देहधारी रूप में कार्य करता है, परमेश्वर के देहधारण का क्या अर्थ है देहधारण क्या है। मैंने यह भी गवाही दी कि परमेश्वर न्याय और शुद्धिकरण का कार्य करने आया है, अंत के दिनों में परमेश्वर का नाम सर्वशक्तिमान परमेश्वर है और वह लौटकर आया प्रभु यीशु है। मेरी बात खत्म होते ही पहला पादरी खुशी से रो पड़ा। अपने आँसू पोछते हुए वह बोला, "मैंने करीब 40 साल प्रभु का प्रचार और अधिकांश जीवन उसकी वापसी की प्रतीक्षा की है। अब प्रभु वाकई लौट आया है! मैं इस बात के लिए परमेश्वर का बहुत आभारी हूँ कि मैं प्रभु का स्वागत कर सकता हूँ!" पादरी की बात सुनकर मैं भी भावुक होकर रोने लगी, मैं भी परमेश्वर की बहुत आभारी हुई। दरअसल, मेरी संगति इतनी गहरी नहीं थी कि पादरी सुसमाचार स्वीकार पाता और परमेश्वर के वचन अच्छे से समझ पाता, यह परमेश्वर के मार्गदर्शन के कारण हो पाया।
पादरी ने इसे स्वीकारते हुए कहा कि वह उस रात पूरे गांव को मेरा उपदेश सुनवाएगा। मैं इतनी उत्साहित हुई कि मैंने परमेश्वर को बार-बार धन्यवाद दिया। उस शाम पादरी और महापौर ने दो गांवों के लोगों को एक-साथ सभा के लिए आमंत्रित किया और सभी को प्रभु के आने का शुभ समाचार सुनाया। उस रात 30 से अधिक लोगों ने अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारा। कुछ गाँववाले बोले, "सरकार को प्रभु में हमारे विश्वास पर प्रतिबंध लगाए चार साल हो गए। हम लोग तकलीफ में जी रहे हैं, हमें सभाओं की बहुत याद आती है। परमेश्वर का धन्यवाद!" एक और ग्रामीण भावुक होकर बोला, "हमें सभा किए बरसों हो गए। तुम हमें सुसमाचार सुनाने आई, ताकि हम परमेश्वर की वाणी सुन सकें, इसके लिए मैं परमेश्वर का बहुत आभारी हूँ।" एक ही रात में सुसमाचार पूरे गांव में फैल गया। मुझे उम्मीद नहीं थी कि पादरी पहली बार में ही सुसमाचार स्वीकार लेगा, वो भी इतने लोगों के साथ। यह आश्चर्यजनक था! मैं जानती थी कि यह पवित्र आत्मा के कार्य का परिणाम है, फिर भी मुझे लगा कि मैं कुशल हूँ और मैंने अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया। मैं अनजाने ही खुद पर गर्व करने लगी और फिर से यथास्थिति से संतुष्ट हो गई, इसलिए मैं केवल सिंचन-कार्य की प्रभारी बहन के साथ इन नवागतों का सिंचन करना चाहती थी और अब सुसमाचार के प्रचार के लिए नहीं जाना चाहती थी। उस दौरान, मैं कलीसिया के काम के बारे में कभी न पूछती, और परमेश्वर से प्रार्थना भी पहले से कम करती।
एक बार मैं अपना फोन चार्ज कर रही थी, तो उसमें शॉर्ट-सर्किट हो गया। मैंने अपना सिम दूसरे फोन में डाल लिया, लेकिन हैरानी की बात है कि वह फोन भी टूट गया। उस समय मुझे गतिरोध का एहसास हुआ, शायद यह परमेश्वर का अनुशासन होगा, मैंने अपनी समस्याओं पर विचार करना शुरू कर दिया। मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा, "आमतौर पर, तुम लोग आलस्य की अवस्था में रहते हो, व्यक्तिगत त्याग करने में प्रेरणारहित और अनिच्छुक रहते हो; या निष्क्रिय रहकर प्रतीक्षा करते हो, और कुछ लोग तो शिकायत भी करते हैं; वे परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य और उसके मायने नहीं समझते, उनके लिए सत्य का अनुसरण करना कठिन होता है। ऐसे लोग सत्य से घृणा करते हैं और वे अंतत: हटा दिए जाएँगे। उनमें से किसी को भी पूर्ण नहीं बनाया जा सकता, और कोई भी जीवित नहीं बच सकता। अगर लोगों में शैतानी ताकतों का विरोध करने का ज़रा-सा भी संकल्प नहीं है, तो उनमें सुधार की कोई उम्मीद नहीं है!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (7))। "परमेश्वर के निष्क्रिय अनुयायी मत बनो, और उसकी खोज मत करो जिससे तुम्हारे भीतर कौतूहल जागता है। इस तरह की दुविधा में पड़कर तुम अपने-आपको बर्बाद कर लोगे और अपने जीवन-विकास में देरी करोगे। तुम्हें स्वयं को ऐसी शिथिलता और निष्क्रियता से मुक्त करके, सकारात्मक चीजों का अनुसरण करने एवं अपनी कमजोरियों पर विजय पाने में कुशल बनना चाहिए, ताकि तुम सत्य को प्राप्त करके उसे जी सको। तुम्हें अपनी कमजोरियों को लेकर डरने की जरूरत नहीं है, तुम्हारी कमियां तुम्हारी सबसे बड़ी समस्या नहीं है। तुम्हारी सबसे बड़ी समस्या, और सबसे बड़ी कमी है तुम्हारा दुविधाग्रस्त होना, और तुममें सत्य खोजने की इच्छा की कमी होना। तुम लोगों की सबसे बड़ी समस्या है तुम्हारी डरपोक मानसिकता जिसके कारण तुम लोग यथास्थिति से खुश हो जाते हो, और निष्क्रिय होकर इंतजार करते हो। यही तुम्हारी सबसे बड़ी बाधा है, यही सत्य की खोज करने में तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने आत्म-चिंतन किया। जब मैंने देखा कि सुसमाचार सारे गाँव में फैल गया है, तो मुझे लगा कि परमेश्वर मेरे कर्तव्य-प्रदर्शन से संतुष्ट है, इसलिए मुझे गर्व हुआ और मैं यथास्थिति से संतुष्ट हो गई, और मैंने आगे सुसमाचार का प्रचार नहीं करना चाहा। जब मुझे परिणाम मिल गए, तो मैंने आगे प्रगति का प्रयास नहीं किया। यथास्थिति से संतुष्ट होने की मेरी इच्छा बहुत प्रबल थी। अतीत में, मैंने सुसमाचार-कार्य में इसलिए देरी की कि मैं यथास्थिति से संतुष्ट थी और अब मैं फिर से वही कर रही थी। परमेश्वर चाहता है कि हम अपना कर्तव्य पूरी लगन और निष्ठा से करें। परमेश्वर मेरे कर्तव्य-प्रदर्शन से संतुष्ट कैसे हो सकता था? तब मुझे एहसास हुआ, कि अगर मैंने अपने कर्तव्य में प्रगति नहीं की, तो मेरा पतन हो जाएगा, और जीवन-प्रवेश और सुसमाचार के प्रचार के परिणामों में मैं पिछड़ जाऊंगी। मैं हमेशा यथास्थिति से संतुष्ट हो जाती थी, सत्य का अनुसरण नहीं करती थी और परमेश्वर से दूर होती जा रही थी। इस तरह, आगे चलकर मैं अपना ही नुकसान कर सकती थी। यथास्थिति से संतुष्ट होना सत्य का अनुसरण करने और कर्तव्य निभाने में मेरी सबसे बड़ी बाधा थी, और मैं खुद को ही नुकसान पहुंचाकर बरबाद हो सकती थी। जैसा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं, "इस तरह की दुविधा में पड़कर तुम अपने-आपको बर्बाद कर लोगे और अपने जीवन-विकास में देरी करोगे।" और प्रकाशितवाक्य कहता है, "इसलिये कि तू गुनगुना है, और न ठंडा है और न गर्म, मैं तुझे अपने मुँह में से उगलने पर हूँ" (प्रकाशितवाक्य 3:16)। मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार गुनगुनी थी, मैं न ठंडी थी, न गर्म, और यथास्थिति से संतुष्ट थी। अगर मैं ऐसी ही रही, तो मेरे लिए कोई उम्मीद नहीं होगी, और मुझे त्याग दिया जाएगा। यह सोचकर मैं थोड़ा डर गई, मैंने पश्चात्ताप कर परमेश्वर से कहा कि भविष्य में चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, मैं प्रयास करूंगी, कभी पीछे नहीं हटूंगी और यथास्थिति से संतुष्ट नहीं होऊँगी।
लेकिन जैसे ही मैंने प्रचार में सक्रिय होना शुरू किया, मेरे सामने एक और बड़ी मुश्किल आ गई। हमारी शिकायत कर दी गई, जिससे स्थानीय सरकार को पता चल गया कि लोग सुसमाचार-प्रचार के लिए आए थे। अगर हम पकड़े जाते, तो गाँववालों और महापौर के साथ हम भी गिरफ्तार हो सकते थे। महापौर व ग्रामीणों को फंसने का डर था, इसलिए उन्होंने हमें जाने और हालात सामान्य होने पर वापस आने को कहा। मैंने सोचा, "अगर हम चले गए, तो इन नवागतों का क्या होगा? इन्होंने अभी-अभी सुसमाचार स्वीकारा है और इनकी कोई बुनियाद नहीं है। लेकिन अगर हम दोनों रुके, तो आसानी से देखे जा सकते हैं।" अंतत:, हमने सिंचन-कर्मी बहन को जाने को कह दिया और मैं नवागतों की मदद के लिए अकेले वहाँ रुक गई। हालाँकि मैं जानती थी कि यह व्यवस्था सही है, पर मैं थोड़ी दुखी थी। मुझे लगा, एक अजनबी जगह पर मैं बिल्कुल अकेली हूँ। पादरी के मन में अभी भी कई धारणाएँ थीं और वह सच्चे मार्ग को लेकर पूरी तरह से निश्चित नहीं था, उसे गिरफ्तारी का डर था, इसलिए वह चाहता था कि मैं भी चली जाऊँ। मुझे बहुत दुख हुआ। पादरी और महापौर मुझे भगा रहे थे, और लगता था, मेरा कोई घर नहीं है। इस स्थिति में मेरा प्रार्थना करने का भी मन नहीं किया, और मुझे घर की याद आने लगी। जब मैंने पादरी के साथ संगति की, तो देखा कि उसके मन में अभी भी कई धारणाएँ हैं। इसलिए मैं मानती थी कि पादरी में अच्छी समझ नहीं है। गिरफ्तारी के डर से सभाओं में थोड़े ही नवागत आते देख मैंने उनका समर्थन करने का दायित्व नहीं उठाया। उस समय मैंने सोचा, "अच्छा है, ये कुछ लोग आए। मैंने औरों को भी बुलाया था, लेकिन वे नहीं आए, तो इससे ज्यादा मैं क्या कर सकती हूँ।" धीरे-धीरे, सभाओं में नवागतों की उपस्थिति कम होती गई, और मैं मुसीबत में फँसकर और ज्यादा उदास हो गई। बाद में, मैंने एक बहन को फोन पर अपनी हालत बताई, तो उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा। "जब लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया होता, तो उनकी स्थिति ऐसी ही होती है, वे सभी जुनून में जीते हैं—जुनून को बनाए रखना बेहद कठिन होता है : कोई न कोई ऐसा होना चाहिए जो हर दिन उन्हें उपदेश दे और उनके साथ संगति करे; जब कोई उनका सिंचन और देखभाल करने वाला तथा उनका समर्थन करने वाला नहीं होता, तो वे फिर से ठंडे पड़ जाते हैं और सुस्त हो जाते हैं। और जब उनका हृदय शिथिल हो जाता है, तो वे अपने कार्य में कम प्रभावी हो जाते हैं; यदि वे अधिक मेहनत करते हैं, तो उनकी प्रभावशीलता बढ़ जाती है, कार्य की उत्पादकता में वृद्धि हो जाती है और उन्हें अधिक लाभ होता है। क्या तुम लोगों का यह अनुभव है? ... लोगों में इच्छाशक्ति होनी चाहिए; जिनमें इच्छाशक्ति है, वही वास्तव में सत्य के लिए प्रयास कर सकते हैं, सत्य समझ लेने के बाद ही वे अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकते हैं, परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं और शैतान को शर्मसार कर सकते हैं। यदि तुममें इस प्रकार की ईमानदारी है, और तुम अपने लिए कोई योजना नहीं बनाते हो, बल्कि सत्य प्राप्त कर अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहते हो, तो तुम्हारा कर्तव्य-निष्पादन सामान्य हो जाएगा और पूरे समय स्थिर रहेगा; तुम्हारे सामने चाहे कोई भी परिस्थिति हो, तुम दृढ़ता से अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहोगे। चाहे तुम्हें कोई भी गुमराह या परेशान करने आए, तुम्हारी मनःस्थिति चाहे अच्छी हो या बुरी, तब भी तुम अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा पाओगे। इस तरह, तुम्हारी ओर से परमेश्वर का मन निश्चिंत हो सकता है, पवित्र आत्मा सत्य के सिद्धांत समझने में तुम्हें प्रबुद्ध कर पाएगा और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। परिणामस्वरूप, तुम्हारा कर्तव्य-निष्पादन यकीनन मानक के अनुरूप होगा। ... तुम्हें विश्वास होना ही चाहिए कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है और मनुष्य तो बस उसके साथ सहयोग भर कर रहे हैं। अगर तेरा दिल सच्चा है, तो परमेश्वर इसे देखेगा, और वह तेरे लिए सभी मार्ग खोल देगा, मुश्किलों को आसान बनाएगा। यह विश्वास तुझमें होना ही चाहिए। इसलिए, अपना कर्तव्य निभाते समय तुम लोगों को तब तक किसी बात की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, जब तक लोग तुम अपनी पूरी शक्ति का उपयोग करते हो और इसमें अपना पूरा दिल लगाते हो। परमेश्वर तुम्हारे लिए चीज़ों को कठिन नहीं बनाएगा या तुम्हें वह करने के लिए मज़बूर नहीं करेगा जिसकी क्षमता तुममें नहीं है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मैं अपना कर्तव्य सिर्फ जोश के चलते कर रही थी, परमेश्वर के प्रति वफादारी के चलते नहीं। जब हम पर सरकार का उत्पीड़न आया, तो महापौर ने मुझे जाने के लिए कह दिया और नवागतों ने गिरफ्तारी के डर से सभाओं में आना बंद कर दिया। इन मुश्किलों के चलते, मैंने सकारात्मक रवैया नहीं अपनाया, परमेश्वर का मार्गदर्शन नहीं खोजा, नवागतों के सिंचन की भरसक कोशिश नहीं की, जिससे आस्था में उनकी नींव पड़ सकती। बल्कि मैं निष्क्रिय हो गई और थोड़े-से नवागतों से ही संतुष्ट हो गई। चूँकि मैंने अपने कर्तव्य में दायित्व नहीं उठाया या प्रगति का प्रयास नहीं किया, इसलिए सभाओं में नवागतों की उपस्थिति घटती चली गई। जैसा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं, "जब उनका हृदय शिथिल हो जाता है, तो वे अपने कार्य में कम प्रभावी हो जाते हैं; यदि वे अधिक मेहनत करते हैं, तो उनकी प्रभावशीलता बढ़ जाती है, कार्य की उत्पादकता में वृद्धि हो जाती है और उन्हें अधिक लाभ होता है।" यह वाकई सच है। जब मैं दायित्व उठा रही थी और कीमत चुकाने को तैयार थी, तो मैं परमेश्वर का मार्गदर्शन और आशीष देख सकती थी, मेरा सुसमाचार का प्रचार प्रभावी था। लेकिन जब मुश्किलें आईं, तो मैंने अपने कर्तव्य में दायित्व नहीं उठाया, मैं गैर-जिम्मेदार, कमजोर और निष्क्रिय हो गई, तो मेरा कर्तव्य प्रभावी नहीं रहा। यह परमेश्वर का अनुग्रह था कि मैं कर्तव्य निभा पाई, पर उसे अच्छे से कर परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाई। मैं बहुत विद्रोही थी! बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, "'अपना कर्तव्य दृढ़ता से निभाने' का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि व्यक्ति के सामने जो भी कठिनाइयाँ आएँ, वह हाथ खड़े नहीं करता, या पलायन नहीं करता, या अपनी जिम्मेदारी से कतराता नहीं। वह वो सब करता है, जो वह कर सकता है। अपना कर्तव्य दृढ़ता से निभाना यही है। उदाहरण के लिए, मान लो, तुम्हारे लिए कुछ करने की व्यवस्था की गई है। वहाँ कोई तुम्हें देखने वाला नहीं, न ही कोई तुम्हारी निगरानी करने वाला और तुमसे आग्रह करने वाला है। तो तुम्हारे लिए, अपना कर्तव्य दृढ़ता से निभाना क्या होगा? (परमेश्वर की जाँच स्वीकारना और उसके सामने रहना।) परमेश्वर की जाँच स्वीकारना पहला कदम है; वह इसका एक हिस्सा है। दूसरा हिस्सा है उस काम को पूरे दिलो-दिमाग से करना। पूरे दिलो-दिमाग से काम कर पाने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें सत्य स्वीकार कर उसे अमल में लाना चाहिए; परमेश्वर को जो भी अपेक्षित हो, उसे स्वीकार कर उसका पालन करना चाहिए; तुम्हें अपने कर्तव्य को अपना व्यक्तिगत मामला मानना चाहिए, जिसमें किसी और को चिंता करने की आवश्यकता न हो, न उसकी निरंतर निगरानी, जाँच और आग्रह की, न ही उसके निरीक्षण की—यहाँ तक कि उसके द्वारा निपटे जाने और काट-छाँट किए जाने की भी नहीं। तुम्हें मन में सोचना चाहिए, 'यह कर्तव्य निभाना मेरी जिम्मेदारी है। यह मेरा हिस्सा है, और चूँकि यह मुझे करने के लिए दिया गया है, और मुझे सिद्धांत बता दिए गए हैं और मैंने उन्हें समझ लिया है, इसलिए मैं दृढ़ संकल्पित होकर इसे दत्तचित्त होकर करूँगा। इसका अच्छी तरह से होना सुनिश्चित करने के लिए मैं वह सब करूँगा, जो मैं कर सकता हूँ। मैं तभी रुकूँगा, जब कोई कहेगा कि "रुको"; तब तक मैं इसे पूरे मन से करता रहूँगा।' पूरे दिलो-दिमाग से अपना कर्तव्य दृढ़ता से निभाने का यही अर्थ है। लोगों को इसी तरीके से व्यवहार करना चाहिए। तो, व्यक्ति को पूरे दिलो-दिमाग से अपना कर्तव्य दृढ़ता से निभाने के लिए किस चीज से लैस होना चाहिए? पहले उसके पास वह अंतःकरण होना चाहिए, जो किसी सृजित प्राणी के पास होना जरूरी है। कम से कम यह तो होना ही चाहिए। इसके अलावा, उसे समर्पित भी होना चाहिए। एक मनुष्य के तौर पर परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने के लिए व्यक्ति को समर्पित होना चाहिए। उसे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए और वह अनमना या जिम्मेदारी लेने में विफल नहीं हो सकता; अपनी रुचि या मनोदशा के आधार पर काम करना गलत है, यह समर्पित होना नहीं है। समर्पित होने से क्या आशय है? इसका आशय यह है कि अपने कर्तव्य पूरे करते समय, तुम मनोदशा, वातावरण, लोगों, मुद्दों और चीज़ों से प्रभावित और विवश नहीं होते हो। तुम्हें मन में सोचना चाहिए, 'मुझे यह आदेश परमेश्वर से प्राप्त हुआ है; उसने यह मुझे दिया है। मुझसे यही अपेक्षित है। अतः मैं इसे अपना मामला मानकर जिस भी तरीके से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं उस तरह इस काम को करूंगा, परमेश्वर को संतु्ष्ट करने पर ज़ोर दूँगा।' जब तुम इस स्थिति में होते हो, तो तुम न केवल अपने अंत:करण से नियंत्रित होते हो, बल्कि इसमें श्रद्धा भी शामिल होती है। यदि तुम काम में दक्षता या परिणाम पाने की आशा किए बिना इसे बस यों ही कर देने में संतुष्ट हो और ऐसा महसूस करते हो कि कुछ प्रयास कर लेना ही पर्याप्त है, तो यह केवल अंत:करण का ही मानक है और इसे समर्पण नहीं माना जा सकता है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आ गया कि मुझे अपना कर्तव्य कैसे निभाना है। यह कार्य मुझे सौंपा गया था, इसलिए बिना किसी के निरीक्षण के इसे मुझे अच्छे से करना था। चाहे मुश्किलें आएँ, चाहे मेरे अपने हित जुड़े हों, या मुझे कष्ट उठाना पड़े, मुझे परमेश्वर का निरीक्षण स्वीकार कर कर्तव्य अच्छे से निभाना था। जब तक सुसमाचार का कार्य चल रहा था, मुझे भरसक प्रयास करना और अपने कर्तव्य को मिशन समझना चाहिए, मैं गैर-जिम्मेदारी से उसे न तो छोड़ सकती थी, न चीजें अपने मन-मुताबिक कर सकती थी। तभी मैं अपने कर्तव्य पर अडिग रह सकती थी।
इसके बाद, मैं उन नवागतों के साथ संगति करने लगी, जो सभाओं में नहीं आ रहे थे। मैंने कहा, "अगर तुम रात को सभा में नहीं आ सकते, तो दिन में जब तुम्हारे पास समय हो, मैं तुम्हारे साथ संगति करने आ सकती हूँ।" इससे कुछ नवागत प्रेरित हुए और सभा में आने के लिए तैयार हो गए। एक रात मैंने पादरी और ग्रामीणों के साथ एक सभा की। मैंने कहा, "अब परमेश्वर का कार्य समाप्त होने वाला है, इसलिए हमें सरकार के उत्पीड़न के कारण परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए इकट्ठे होने से डरना नहीं चाहिए। अगर हम डरे, तो परमेश्वर का उद्धार गँवा देंगे। अब आपदाएं बढ़ती जा रही हैं और सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही हमें बचा सकता है। हमें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सभी चीजों पर शासन करता है, और आस्था रखकर उत्पीड़न का सामना करना चाहिए। मैंने तुम्हारे गाँव में सुसमाचार का प्रचार किया, अगर वे मुझ तक पहुँच जाएँ तो मुझे पकड़ लेंगे। मैं एक युवती हूँ और गिरफ्तारी से डरती हूँ, फिर भी मैं क्यों नहीं जाती? क्योंकि यह मेरी जिम्मेदारी है। तुमने अभी-अभी परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार स्वीकारा है और परमेश्वर की वाणी सुनी है। इस जरा-से उत्पीड़न के चलते तुम मुझे जाने को कह रहे हो, लेकिन अगर मैं खुद को बचाने के लिए तुम लोगों को छोड़कर चली गई, तो यह कर्तव्य में चूक होगी।" मुझे ईमानदारी से बोलता देख पादरी ने गाँववालों से कहा, "अब से हमें इसकी रक्षा करनी है। किसी को मत बताना कि यह गांव में सुसमाचार का प्रचार कर रही है। अगर कोई पूछे तो कह देना कि तुम नहीं जानते।" पादरी की बात सुनकर मैं भावुक हो गई। हालाँकि उसमें अभी भी कई धार्मिक धारणाएँ थीं, लेकिन वह खोजने को तैयार था, इसलिए मैंने उसकी धारणाओं के मद्देनजर संगति की, भाई-बहनों ने भी पादरी को सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कुछ वचन भेजे। पादरी ने ध्यान से सुना और उसकी कुछ धारणाओं का समाधान हो गया। बाद में, पादरी पूरे जोश से सभाओं में आने लगा और गाँववालों से बोला, "मैं चाहता हूँ कि तुम सभी लोग सभाओं में आओ, हमें अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकार कर उस पर अडिग रहना है, पीछे नहीं हटना। सर्वशक्तिमान परमेश्वर लौटकर आया प्रभु यीशु है!" परमेश्वर का धन्यवाद! इस अनुभव के बाद, मैंने जाना कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है। पहले मैं बस कहती थी कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है, लेकिन मैंने अब सच में अनुभव किया कि सब-कुछ वाकई परमेश्वर के हाथों में है, और अगर लोग ईमानदारी से परमेश्वर से सहयोग करें, तो परमेश्वर उनकी अगुआई करेगा। परमेश्वर साथ हो तो कुछ भी असंभव नहीं।
कुछ समय बाद, स्थानीय अधिकारी गाँव आए और मुझे और पादरी को सरकारी दफ्तर ले गए। मैं घबराई और डरी हुई थी, लेकिन मुझे याद आया कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है, और चूँकि यह परिवेश परमेश्वर की इच्छा से ही आया है, इसलिए मुझे आज्ञापालन करना चाहिए। रास्ते में चलते-चलते, मैंने मन ही मन परमेश्वर से साथ रहने की प्रार्थना की। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए, "शैतान चाहे जितना भी 'सामर्थ्यवान' हो, चाहे वह जितना भी दुस्साहसी और महत्वाकांक्षी हो, चाहे नुकसान पहुँचाने की उसकी क्षमता जितनी भी बड़ी हो, चाहे मनुष्य को भ्रष्ट करने और लुभाने की उसकी तकनीकें जितनी भी व्यापक हों, चाहे मनुष्य को डराने की उसकी तरकीबें और योजनाएँ जितनी भी चतुराई से भरी हों, चाहे उसके अस्तित्व के रूप जितने भी परिवर्तनशील हों, वह कभी एक भी जीवित चीज सृजित करने में सक्षम नहीं हुआ, कभी सभी चीजों के अस्तित्व के लिए व्यवस्थाएँ या नियम निर्धारित करने में सक्षम नहीं हुआ, और कभी किसी सजीव या निर्जीव चीज पर शासन और नियंत्रण करने में सक्षम नहीं हुआ। ब्रह्मांड और आकाश के भीतर, एक भी व्यक्ति या चीज नहीं है जो उससे पैदा हुई हो, या उसके कारण अस्तित्व में हो; एक भी व्यक्ति या चीज नहीं है जो उसके द्वारा शासित हो, या उसके द्वारा नियंत्रित हो। इसके विपरीत, उसे न केवल परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन रहना है, बल्कि, परमेश्वर के सभी आदेशों और आज्ञाओं का पालन करना है। परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान के लिए जमीन पर पानी की एक बूँद या रेत का एक कण छूना भी मुश्किल है; परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान धरती पर चींटियों का स्थान बदलने के लिए भी स्वतंत्र नहीं है, परमेश्वर द्वारा सृजित मानव-जाति की तो बात ही छोड़ दो" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। परमेश्वर के वचन याद कर मेरा मन शांत हो गया और डर जाता रहा, मुझे विश्वास था कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है।
स्थानीय सरकारी दफ्तर में मुझे और पादरी को पूछताछ के लिए एक कमरे में बंद कर दिया गया। तभी पादरी का माइग्रेन उभर आया। उसमें ताकत नहीं रही, हाथ-पैर काँपने लगे, भयंकर दर्द के कारण उसे मौत का भय सताने लगा। मैंने उसके साथ संगति करते हुए कहा, "यह परिवेश हमारा इम्तहान है, कि हम सच में परमेश्वर का अनुसरण करते हैं या नहीं। सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है, शैतान परमेश्वर की अनुमति के बिना हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, इसलिए हमें आस्था रखनी चाहिए।" मेरी संगति से पादरी की आंखों में आंसू आ गए। वह बोला, "परमेश्वर का धन्यवाद! सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है, और परमेश्वर हमारे साथ है, इसलिए मैं मौत से नहीं डर सकता।" फिर उसने मुझसे कहा, "अगर वे पूछेंगे, तो मैं कह दूँगा कि तुम मेरी बेटी हो, यहाँ काम में मेरी मदद करने आई हो।" इस तरह, मुझमें और पादरी में इस परिवेश से गुजरने का आत्मविश्वास पैदा हो गया। आखिर, स्थानीय गवर्नर ने 300 युआन का जुर्माना लगाकर हमें छोड़ दिया।
इस गिरफ्तारी के दौरान मैंने परमेश्वर की सर्वशक्तिमान संप्रभुता देखी और जाना कि लोगों का हृदय और आत्मा सब परमेश्वर के हाथों में है। हालाँकि सुसमाचार के प्रचार का मार्ग कठिन और खतरनाक है, पर इस दौरान मैं परिपक्व हो गई। अतीत में जब मुझे सताया गया था, तो मैं निष्क्रिय हो गई थी, लेकिन अब खतरा आने पर मैं पूरी सक्रियता से जिम्मेदारी ले पा रही थी। यह बदलाव और बहुमूल्य उपलब्धि मैं किसी और तरीके से हासिल नहीं कर सकती थी। परमेश्वर का धन्यवाद!
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