क्या सर्वशक्तिमान परमेश्वर में आस्था प्रभु यीशु से विश्वासघात है?
अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर, को प्रकट हुए पूरे तीस साल हो चुके हैं। उसने 1991 में अपना काम करना और सत्य व्यक्त करना शुरू किया। उसने वचन देह में प्रकट होता है को व्यक्त किया है, उसके लाखों वचन ऑनलाइन मौजूद हैं, पूर्व से पश्चिम तक महान प्रकाश की तरह चमकते हुए, पूरी दुनिया को झकझोर रहे हैं। सभी संप्रदायों के सत्य से प्रेम करने वाले कई लोगों ने देखा है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सत्य हैं, पवित्र आत्मा द्वारा कलीसियाओं से कहे गए हैं। परमेश्वर की वाणी सुनकर उन्होंने बड़े चाव से सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार लिया है। वे परमेश्वर के तख्त के सामने उठाए गए हैं और मेमने के विवाह-भोज में शामिल हो रहे हैं, हर रोज परमेश्वर के मौजूदा वचन खाते-पीते हुए, जीवित जलों के पोषण का सुख भोग रहे हैं। उनके दिल ज्यादा प्रबुद्ध हो रहे हैं, और वे कई सत्य जान चुके हैं। उन्हें परमेश्वर का निजी मार्गदर्शन और चरवाही प्राप्त है। परमेश्वर के न्याय के जरिए उनके भ्रष्ट स्वभाव शोधित होकर बदल रहे हैं और वे सुंदर गवाहियाँ दे रहे हैं। वे आपदाओं से पहले परमेश्वर द्वारा विजेता बनाए गए हैं, वे प्रथम फल बन हैं, जो परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष पा चुके हैं। आज, अनेक देशों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया पनपने लगी है, जैसे वसंत की बारिश के बाद कलियाँ खिलती हैं। परमेश्वर के चुने हुए लोग जी-जान से उसके राज्य का सुसमाचार फैलाने में लगे हुए हैं, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम की गवाही दे रहे हैं। सभी देशों, क्षेत्रों और संप्रदायों के ज्यादा-से-ज्यादा लोग परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकार रहे हैं। राज्य का सुसमाचार तूफानी रफ्तार और ताकत से फैलता और विस्तार करता जा रहा है, बाइबल की इस भविष्यवाणी को पूरा कर रहा है : “अन्त के दिनों में ऐसा होगा कि यहोवा के भवन का पर्वत सब पहाड़ों पर दृढ़ किया जाएगा, और सब पहाड़ियों से अधिक ऊँचा किया जाएगा; और हर जाति के लोग धारा के समान उसकी ओर चलेंगे” (यशायाह 2:2)। “क्योंकि जैसे बिजली पूर्व से निकलकर पश्चिम तक चमकती है, वैसे ही मनुष्य के पुत्र का भी आना होगा” (मत्ती 24:27)। फिर भी, कई विश्वासी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़ने और उनके सत्य होने पर यकीन करने के बाद भी, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के एक आम इंसान जैसे दिखने, और बादलों पर सवार होकर आने वाला प्रभु यीशु न होने के कारण, वे उसे स्वीकार नहीं कर पा रहे। कुछ लोग बाइबल के शब्दों से चिपके रहते हैं, इसके एक पद “यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक–सा है” (इब्रानियों 13:8) का ये अर्थ निकालते हैं कि प्रभु यीशु का नाम कभी नहीं बदलेगा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर को यीशु नहीं कहा जाता और बाइबल में “सर्वशक्तिमान परमेश्वर” का कोई उल्लेख नहीं है, इसलिए वे उसे स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार कर बाइबल के बजाय सिर्फ उसके वचन पढ़ना, और यीशु के नाम से प्रार्थना न करना, सीधे-सीधे प्रभु यीशु से विश्वासघात होगा। इतने बरसों से प्रभु में आस्था रखके, और उसकी इतने अनुग्रह भोगकर, वे उसे धोखा नहीं दे सकते। उनका यही तर्क है, इसलिए वे कहते हैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के विश्वासी प्रभु यीशु से गद्दारी करने वाले, धर्मभ्रष्ट लोग हैं। इससे बहुत-से लोग सच्चे मार्ग की खोज नहीं कर पाए हैं, भले ही वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को सत्य और परमेश्वर की वाणी मानते हों, फिर भी उसे स्वीकारने की हिम्मत नहीं करते। नतीजतन वे अपनी जिंदगी में आपदाओं के शिकार हो रहे हैं। यह बड़े दुख की और मूर्खता और अज्ञानता की बात है। इससे बाइबल की एक और बात साकार होती है : “मूढ़ लोग निर्बुद्धि होने के कारण मर जाते हैं” (नीतिवचन 10:21)। “मेरे ज्ञान के न होने से मेरी प्रजा नष्ट हो गई” (होशे 4:6)। तो क्या सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार करना प्रभु यीशु के साथ गद्दारी है? इस पर थोड़ी संगति करते हैं।
बहुत-से लोग सोचते हैं कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार करना प्रभु के साथ गद्दारी है। इस मामले को समझने का सबसे अच्छा तरीका क्या है? हम सिर्फ इससे फैसला नहीं कर सकते कि उनके नाम अलग-अलग हैं, हमें यह देखना है कि क्या वे एक आत्मा हैं, क्या यह एक ही परमेश्वर का कार्य है। व्यवस्था के युग में यहोवा परमेश्वर कार्य कर रहा था, जबकि अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु यही काम कर रहा था। तो हम देखते हैं कि परमेश्वर का नाम बदला था, उसे यहोवा नहीं, यीशु कहा जा रहा था। पर क्या आप यह कह सकते हैं कि प्रभु यीशु यहोवा नहीं कोई अन्य परमेश्वर था? क्या प्रभु यीशु में विश्वास करना यहोवा परमेश्वर के साथ गद्दारी थी? बिल्कुल भी नहीं। पर यहूदी धर्म के बहुत-से लोगों ने प्रभु यीशु को स्वीकार नहीं किया, ये कहकर कि ये यहोवा से गद्दारी है उन्होंने उसे सलीब पर चढ़ाने में मदद की। ऐसा क्यों हुआ? इसका कारण था कि उन्हें यह एहसास नहीं हुआ कि प्रभु यीशु दरअसल यहोवा परमेश्वर के आत्मा का देहधारी रूप था। उसका नाम अलग था, पर प्रभु यीशु और यहोवा एक आत्मा और एक परमेश्वर थे। बाइबल में एक शानदार कथा है, फिलिप्पुस प्रभु यीशु से कहता है, “हे प्रभु, पिता को हमें दिखा दे, यही हमारे लिये बहुत है” (यूहन्ना 14:8)। यीशु जवाब देता है, “हे फिलिप्पुस, मैं इतने दिन से तुम्हारे साथ हूँ, और क्या तू मुझे नहीं जानता? जिसने मुझे देखा है उसने पिता को देखा है। तू क्यों कहता है कि पिता को हमें दिखा? क्या तू विश्वास नहीं करता कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है? ये बातें जो मैं तुम से कहता हूँ, अपनी ओर से नहीं कहता, परन्तु पिता मुझ में रहकर अपने काम करता है” (यूहन्ना 14:9-10)। प्रभु यीशु के वचन बिल्कुल स्पष्ट थे। वह और यहोवा एक ही परमेश्वर थे, और उसका आत्मा यहोवा का आत्मा था। प्रभु यीशु एक ही सच्चे परमेश्वर, यहोवा परमेश्वर का प्रकटन था। और इसलिए, प्रभु यीशु में विश्वास करना यहोवा परमेश्वर से गद्दारी न होकर उसके प्रति समर्पण था। यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप था। अगर तुम अपनी आस्था में एक नाम और बाइबल के शब्दों से चिपके रहते हो, आत्मा और उसके कार्य को नहीं समझते, तो तुम्हारे भटकने और परमेश्वर का विरोध करने की संभावना है। तब तुम परमेश्वर से गद्दारी कर सकते हो, जिसके नतीजे बहुत खतरनाक होंगे। जब प्रभु ने प्रकट होकर काम करना शुरू किया तो यहूदी धर्म के लोगों ने उसे ठुकरा दिया। क्या यह यहोवा परमेश्वर के साथ गद्दारी नहीं थी? उनके कृत्य का सार विश्वासघात था, इसी कारण इस्राएल के लोगों को परमेश्वर का शाप मिला। साथ ही, प्रभु यीशु के प्रकटन और काम करने से बहुत पहले, उसके बारे में बाइबल में एक भविष्यवाणी थी, “देखो, एक कुँवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी, और उसका नाम इम्मानुएल रखा जाएगा” (मत्ती 1:23)। लेकिन जब वह आया तो उसे इम्मानुएल के बजाय यीशु कहा गया। यहूदी धर्म के फरीसी कट्टरता से धर्मग्रंथों के शब्दों से चिपके रहे, परमेश्वर का नया नाम मेल न खाने पर उन्होंने प्रभु को नकारने और निंदा करने का पूरा प्रयास किया। प्रभु यीशु की शिक्षाओं में कितना ही अधिकार या शक्ति क्यों न रही हो, वे उसे स्वीकारने से इनकार करते रहे, और आखिर में उसे सलीब पर चढ़ाने का घिनौना पाप कर बैठे, और परमेश्वर द्वारा निंदित और दंडित किए गए। यह सबक सोचने को मजबूर करता है! इसलिए जहां तक प्रभु के स्वागत का प्रश्न है, क्या हमें शास्त्रों के शब्दों और सिर्फ यीशु के, नाम से चिपके रहना चाहिए? ऐसा करके परमेश्वर को नकारना और उसकी निंदा करना बहुत आसान हो जाता है। बहुत-से विश्वासियों में यह अंतर्दृष्टि ही नहीं है, इसलिए वे बाइबल के शब्दों और यीशु के नाम से कसकर चिपके रहते हैं, और सच्चे रास्ते की खोजबीन करते समय पूछते रहते हैं, “क्या सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम का बाइबल में कोई आधार है? अगर बाइबल में सर्वशक्तिमान परमेश्वर का नाम नहीं है, तो हम उसे नहीं स्वीकारेंगे।” बाइबल में नाम न होने के कारण अगर आप उसे स्वीकार नहीं सकते, तो फिर आप प्रभु यीशु में क्यों विश्वास करते हैं, जबकि पुराने नियम में उसका नाम भी नहीं है? क्या यह विरोधाभास नहीं है? साफ है कि बहुत सारे लोग बाइबल को अच्छे से नहीं समझते, सिर्फ धर्मग्रंथों के शब्दों और नियमों से चिपके रहते हैं। वे न प्रार्थना करते हैं, न परमेश्वर के वचनों में सत्य या पवित्र आत्मा द्वारा पुष्टि की खोज करते हैं, और इसके बुरे नतीजे उन्हें भुगतने पड़ेंगे। दरअसल, बाइबल में ये भविष्यवाणियाँ हैं कि अंत के दिनों में परमेश्वर प्रकट होकर अपना काम करेगा, जिसका नाम सर्वशक्तिमान परमेश्वर होगा। “तब जाति जाति के लोग तेरा धर्म और सब राजा तेरी महिमा देखेंगे, और तेरा एक नया नाम रखा जाएगा जो यहोवा के मुख से निकलेगा” (यशायाह 62:2)। “जो जय पाए उसे मैं अपने परमेश्वर के मन्दिर में एक खंभा बनाऊँगा, और वह फिर कभी बाहर न निकलेगा; और मैं अपने परमेश्वर का नाम और अपने परमेश्वर के नगर अर्थात् नये यरूशलेम का नाम, जो मेरे परमेश्वर के पास से स्वर्ग पर से उतरनेवाला है, और अपना नया नाम उस पर लिखूँगा” (प्रकाशितवाक्य 3:12)। “प्रभु परमेश्वर, जो है और जो था और जो आनेवाला है, जो सर्वशक्तिमान है, यह कहता है, ‘मैं ही अल्फ़ा और ओमेगा हूँ’” (प्रकाशितवाक्य 1:8)। “हे सर्वशक्तिमान प्रभु परमेश्वर, जो है और जो था, हम तेरा धन्यवाद करते हैं कि तू ने अपनी बड़ी सामर्थ्य को काम में लाकर राज्य किया है” (प्रकाशितवाक्य 11:17)। “फिर मैं ने बड़ी भीड़ का सा और बहुत जल का सा शब्द, और गर्जन का सा बड़ा शब्द सुना: ‘हल्लिलूय्याह! क्योंकि प्रभु हमारा परमेश्वर सर्वशक्तिमान राज्य करता है’” (प्रकाशितवाक्य 19:6)। आप यह प्रकाशितवाक्य 4:8 और 16:7 में भी देख सकते हैं। धर्मग्रंथ के इन अंशों में भविष्यवाणी है कि अंत के दिनों में परमेश्वर का नया नाम होगा, “सर्वशक्तिमान”, मतलब कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर। हम देख सकते हैं कि अंत के दिनों में परमेश्वर सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम से प्रकट होकर काम करता है, और परमेश्वर ने इसकी योजना बहुत पहले बनाई थी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के सभी विश्वासियों ने प्रभु की वाणी सुनी है और उसे वापस आए प्रभु यीशु के रूप में पहचान लिया है। उन्होंने प्रभु का स्वागत किया है, और उसके तख्त के सामने उठाए गए हैं, वे मेमने के विवाह भोज में शामिल हैं। वे सच्चे विश्वासी हैं और उनमें सही आस्था है। उन्होंने आखिरकार प्रभु का स्वागत करके उसे पा लिया है। प्रभु का स्वागत न करने वाले अपनी आस्था खो बैठेंगे। वे प्रभु को भी खो बैठेंगे। जो यीशु के नाम से चिपके हुए हैं, प्रभु के आने पर उसकी वाणी नहीं पहचानते हैं वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर को प्रभु यीशु के आत्मा के प्रकटन के रूप में नहीं स्वीकारते। प्रभु यीशु की वापसी को स्वीकारे बिना, वे प्रभु में विश्वास तो करते हैं पर पहचानते नहीं। यह प्रभु को नकारना है, यही वे लोग हैं जो प्रभु यीशु से सच में गद्दारी कर रहे हैं। प्रभु से विश्वासघात क्या है? उसे पहचाने बिना उसमें विश्वास करना! यह बात अब बिल्कुल साफ है न?
तो परमेश्वर का नाम बदलता क्यों रहता है? हर युग में वह एक नया नाम क्यों रख लेता है? इस सत्य का रहस्य इसके भीतर है। आइये इस पर स्पष्टता के लिए सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन देखें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “हर बार जब परमेश्वर पृथ्वी पर आता है, तो वह अपना नाम, अपना लिंग, अपनी छवि और अपना कार्य बदल देता है; वह अपने कार्य को दोहराता नहीं है। वह ऐसा परमेश्वर है, जो हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता। जब वह पहले आया, तो उसे यीशु कहा गया; जब वह इस बार फिर से आता है, तो क्या उसे अभी भी यीशु कहा जा सकता है? जब वह पहले आया, तो वह पुरुष था; क्या वह इस बार फिर से पुरुष हो सकता है? जब वह अनुग्रह के युग के दौरान आया था, तो उसका कार्य सलीब पर चढ़ाया जाना था; जब वह फिर से आता है, तो क्या तब भी वह मानवजाति को पाप से छुटकारा दिला सकता है? क्या उसे फिर से सलीब पर चढ़ाया जा सकता है? क्या वह उसके कार्य की पुनरावृत्ति नहीं होगी? क्या तुम्हें नहीं पता था कि परमेश्वर हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता? ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं कि परमेश्वर अपरिवर्तनशील है। यह सही है, किंतु यह परमेश्वर के स्वभाव और सार की अपरिवर्तनशीलता को संदर्भित करता है। उसके नाम और कार्य में परिवर्तन से यह साबित नहीं होता कि उसका सार बदल गया है; दूसरे शब्दों में, परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा, और यह तथ्य कभी नहीं बदलेगा। यदि तुम कहते हो कि परमेश्वर का कार्य अपरिवर्तनशील है, तो क्या वह अपनी छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना पूरी करने में सक्षम होगा? तुम केवल यह जानते हो कि परमेश्वर हमेशा अपरिवर्तनशील है, किंतु क्या तुम यह जानते हो कि परमेश्वर हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता? यदि परमेश्वर का कार्य अपरिवर्तनशील है, तो क्या वह मानवजाति की आज के दिन तक अगुआई कर सकता था? यदि परमेश्वर अपरिवर्तनशील है, तो ऐसा क्यों है कि उसने पहले ही दो युगों का कार्य कर लिया है? ... और इसलिए, ‘परमेश्वर हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता’ वचन उसके कार्य को संदर्भित करते हैं, और ‘परमेश्वर अपरिवर्तनशील है’ उसे संदर्भित करते हैं, जो परमेश्वर का अंतर्निहित स्वरूप है। इसके बावज़ूद, तुम छह-हज़ार-वर्ष के कार्य को एक बिंदु पर आधारित नहीं कर सकते, या उसे केवल मृत शब्दों के साथ सीमित नहीं कर सकते। मनुष्य की मूर्खता ऐसी ही है। परमेश्वर इतना सरल नहीं है, जितना मनुष्य कल्पना करता है, और उसका कार्य किसी एक युग में रुका नहीं रह सकता। उदाहरण के लिए, यहोवा हमेशा परमेश्वर का नाम नहीं हो सकता; परमेश्वर यीशु के नाम से भी अपना कार्य कर सकता है। यह इस बात का संकेत है कि परमेश्वर का कार्य हमेशा आगे की ओर प्रगति कर रहा है।
“परमेश्वर हमेशा परमेश्वर है, और वह कभी शैतान नहीं बनेगा; शैतान हमेशा शैतान है, और वह कभी परमेश्वर नहीं बनेगा। परमेश्वर की बुद्धि, परमेश्वर की चमत्कारिकता, परमेश्वर की धार्मिकता और परमेश्वर का प्रताप कभी नहीं बदलेंगे। उसका सार और उसका स्वरूप कभी नहीं बदलेगा। किंतु जहाँ तक उसके कार्य की बात है, वह हमेशा आगे बढ़ रहा है, हमेशा गहरा होता जा रहा है, क्योंकि वह हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता। हर युग में परमेश्वर एक नया नाम अपनाता है, हर युग में वह नया कार्य करता है, और हर युग में वह अपने सृजनों को अपनी नई इच्छा और नया स्वभाव देखने देता है। यदि नए युग में लोग परमेश्वर के नए स्वभाव की अभिव्यक्ति देखने में असफल रहेंगे, तो क्या वे उसे हमेशा के लिए सलीब पर नहीं टाँग देंगे? और ऐसा करके, क्या वे परमेश्वर को परिभाषित नहीं करेंगे?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3))।
“‘यहोवा’ वह नाम है, जिसे मैंने इस्राएल में अपने कार्य के दौरान अपनाया था, और इसका अर्थ है इस्राएलियों (परमेश्वर के चुने हुए लोगों) का परमेश्वर, जो मनुष्य पर दया कर सकता है, मनुष्य को शाप दे सकता है, और मनुष्य के जीवन का मार्गदर्शन कर सकता है; वह परमेश्वर, जिसके पास बड़ा सामर्थ्य है और जो बुद्धि से भरपूर है। ‘यीशु’ इम्मानुएल है, जिसका अर्थ है वह पाप-बलि, जो प्रेम से परिपूर्ण है, करुणा से भरपूर है, और मनुष्य को छुटकारा दिलाता है। उसने अनुग्रह के युग का कार्य किया, और वह अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व करता है, और वह प्रबंधन-योजना के केवल एक भाग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। ... यीशु का नाम अनुग्रह के युग के लोगों को पुनर्जन्म दिए जाने और बचाए जाने के लिए अस्तित्व में आया, और वह पूरी मानवजाति के उद्धार के लिए एक विशेष नाम है। इस प्रकार, ‘यीशु’ नाम छुटकारे के कार्य को दर्शाता है और अनुग्रह के युग का द्योतक है। ‘यहोवा’ नाम इस्राएल के उन लोगों के लिए एक विशेष नाम है, जो व्यवस्था के अधीन जिए थे। प्रत्येक युग में और कार्य के प्रत्येक चरण में मेरा नाम आधारहीन नहीं है, बल्कि प्रातिनिधिक महत्व रखता है : प्रत्येक नाम एक युग का प्रतिनिधित्व करता है। ‘यहोवा’ व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व करता है, और वह सम्मानसूचक शब्द है, जिससे इस्राएल के लोग उस परमेश्वर को पुकारते थे जिसकी वे आराधना करते थे। ‘यीशु’ अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व करता है और उन सबके परमेश्वर का नाम है, जिन्हें अनुग्रह के युग के दौरान छुटकारा दिया गया था। यदि मनुष्य अब भी अंत के दिनों के दौरान उद्धारकर्ता यीशु के आगमन की अभिलाषा करता है, और उसके अब भी उसी छवि में आने की अपेक्षा करता है जो उसने यहूदिया में अपनाई थी, तो छह हज़ार सालों की संपूर्ण प्रबंधन-योजना छुटकारे के युग में रुक गई होती, और आगे प्रगति न कर पाती। इतना ही नहीं, अंत के दिनों का आगमन कभी न होता, और युग का समापन कभी न किया जा सकता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उद्धारकर्ता यीशु सिर्फ मानवजाति के छुटकारे और उद्धार के लिए है। ‘यीशु’ नाम मैंने अनुग्रह के युग के सभी पापियों की खातिर अपनाया था, और यह वह नाम नहीं है जिसके द्वारा मैं पूरी मानवजाति को समापन पर ले जाऊँगा। यद्यपि यहोवा, यीशु और मसीहा सभी मेरे पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं, किंतु ये नाम केवल मेरी प्रबंधन-योजना के विभिन्न युगों के द्योतक हैं, और मेरी संपूर्णता में मेरा प्रतिनिधित्व नहीं करते। पृथ्वी पर लोग मुझे जिन नामों से पुकारते हैं, वे मेरे संपूर्ण स्वभाव और स्वरूप को व्यक्त नहीं कर सकते। वे मात्र अलग-अलग नाम हैं, जिनके द्वारा मुझे विभिन्न युगों के दौरान पुकारा जाता है। और इसलिए, जब अंतिम युग—अंत के दिनों के युग—का आगमन होगा, तो मेरा नाम पुनः बदल जाएगा। मुझे यहोवा या यीशु नहीं कहा जाएगा, मसीहा तो कदापि नहीं—मुझे सामर्थ्यवान स्वयं सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहा जाएगा, और इस नाम के तहत ही मैं समस्त युग का समापन करूँगा। मैं कभी यहोवा के नाम से जाना जाता था। मुझे मसीहा भी कहा जाता था, और लोग कभी मुझे प्यार और सम्मान से उद्धारकर्ता यीशु भी कहते थे। किंतु आज मैं वह यहोवा या यीशु नहीं हूँ, जिसे लोग बीते समयों में जानते थे; मैं वह परमेश्वर हूँ जो अंत के दिनों में वापस आया है, वह परमेश्वर जो युग का समापन करेगा। मैं स्वयं परमेश्वर हूँ, जो अपने संपूर्ण स्वभाव से परिपूर्ण और अधिकार, आदर और महिमा से भरा, पृथ्वी के छोरों से उदित होता है। लोग कभी मेरे साथ संलग्न नहीं हुए हैं, उन्होंने मुझे कभी जाना नहीं है, और वे मेरे स्वभाव से हमेशा अनभिज्ञ रहे हैं। संसार की रचना के समय से लेकर आज तक एक भी मनुष्य ने मुझे नहीं देखा है। यह वही परमेश्वर है, जो अंत के दिनों के दौरान मनुष्यों पर प्रकट होता है, किंतु मनुष्यों के बीच में छिपा हुआ है। वह सामर्थ्य से भरपूर और अधिकार से लबालब भरा हुआ, दहकते हुए सूर्य और धधकती हुई आग के समान, सच्चे और वास्तविक रूप में, मनुष्यों के बीच निवास करता है। ऐसा एक भी व्यक्ति या चीज़ नहीं है, जिसका मेरे वचनों द्वारा न्याय नहीं किया जाएगा, और ऐसा एक भी व्यक्ति या चीज़ नहीं है, जिसे जलती आग के माध्यम से शुद्ध नहीं किया जाएगा। अंततः मेरे वचनों के कारण सारे राष्ट्र धन्य हो जाएँगे, और मेरे वचनों के कारण टुकड़े-टुकड़े भी कर दिए जाएँगे। इस तरह, अंत के दिनों के दौरान सभी लोग देखेंगे कि मैं ही वह उद्धारकर्ता हूँ जो वापस लौट आया है, और मैं ही वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर हूँ जो समस्त मानवजाति को जीतता है। और सभी देखेंगे कि मैं ही एक बार मनुष्य के लिए पाप-बलि था, किंतु अंत के दिनों में मैं सूर्य की ज्वाला भी बन जाता हूँ जो सभी चीज़ों को जला देती है, और साथ ही मैं धार्मिकता का सूर्य भी बन जाता हूँ जो सभी चीज़ों को प्रकट कर देता है। अंत के दिनों में यह मेरा कार्य है। मैंने इस नाम को इसलिए अपनाया और मेरा यह स्वभाव इसलिए है, ताकि सभी लोग देख सकें कि मैं एक धार्मिक परमेश्वर हूँ, दहकता हुआ सूर्य हूँ और धधकती हुई ज्वाला हूँ, और ताकि सभी मेरी, एक सच्चे परमेश्वर की, आराधना कर सकें, और ताकि वे मेरे असली चेहरे को देख सकें : मैं केवल इस्राएलियों का परमेश्वर नहीं हूँ, और मैं केवल छुटकारा दिलाने वाला नहीं हूँ; मैं समस्त आकाश, पृथ्वी और महासागरों के सारे प्राणियों का परमेश्वर हूँ” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, उद्धारकर्ता पहले ही एक “सफेद बादल” पर सवार होकर वापस आ चुका है)।
इन वचनों से स्पष्ट है कि परमेश्वर हर युग में अपने कार्य के लिए अलग नाम का इस्तेमाल क्यों करता है और उसके नामों से जुड़े रहस्यों का सत्य क्या है। परमेश्वर का नाम युग के साथ और उसके कार्य के साथ बदलता है। उसका हर नाम, उस युग के उसके कार्य का प्रतिनिधि है। पर भले ही परमेश्वर का नाम और उसका कार्य बदलता रहे, उसका सार कभी नहीं बदलता—परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहता है। परमेश्वर ने व्यवस्था के युग में यहोवा के नाम से कार्य किया, नियम-कायदे जारी किए और पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन का नेतृत्व किया, लोगों को सिखाया कि पाप क्या है और यहोवा परमेश्वर की आराधना कैसे करें। अनुग्रह के युग में परमेश्वर के आत्मा ने मनुष्य के पुत्र के रूप में देह धारण किया। उसने यीशु के नाम से सत्य व्यक्त किया और छुटकारे का कार्य किया। आखिर में, उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया और वह मानवजाति के लिए पापबलि बन गया, और हमें हमारे पापों से छुटकारा दिलाया। अब अंत के दिनों में, परमेश्वर ने फिर से देहधारण किया है, वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम से अंत के दिनों का न्याय-कार्य कर रहा है, मनुष्यजाति के न्याय और शोधन के लिए सत्य व्यक्त करते हुए, हमें पाप से और शैतान की ताकतों से पूरी तरह बचाते हुए, इस अंधेरी और दुष्ट दुनिया का खात्मा कर रहा है। वह मनुष्य को एक खूबसूरत मंजिल पर ले जाएगा। इस तरह मनुष्य को बचाने की परमेश्वर की 6,000 वर्ष लंबी प्रबंधन योजना पूरी होगी। परमेश्वर के कार्य के तथ्य हमें बताते हैं कि यहोवा, यीशु और सर्वशक्तिमान परमेश्वर ये तीन नाम मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य के तीन भिन्न चरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऊपर से देखने पर लगता है कि परमेश्वर का नाम और उसका कार्य बदल रहा है, पर परमेश्वर का सार नहीं बदलता। परमेश्वर का स्वभाव और स्वरूप कभी नहीं बदलता। वह एक ही परमेश्वर रहता है और इंसान को राह दिखाने, छुटकारा दिलाने, पूरी तरह शुद्ध कर बचाने का काम करता है। जब हम पुराने नियम में व्यवस्था के युग से यहोवा परमेश्वर के वचन देखते हैं, अनुग्रह के युग से प्रभु यीशु के वचन देखते हैं, और अब राज्य के युग में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन देखते हैं, तो हम समझ सकते हैं कि ये सभी सत्य एक ही आत्मा से आते हैं और ये एक ही आत्मा के कथन हैं, क्योंकि अलग-अलग युगों में परमेश्वर के सभी कथनों में उसका प्रेम और उसका धार्मिक स्वभाव निहित है। परमेश्वर का स्वरूप इनके भीतर है। परमेश्वर का प्रेम, उसका स्वभाव, और स्वरूप ये सभी एकमात्र सच्चे परमेश्वर के सार हैं, उसकी संपदा और उसके अस्तित्व हैं। अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु को सुनना यहोवा परमेश्वर की वाणी सुनने की तरह था। जब हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सुनते हैं, तो बिल्कुल ऐसा लगता है मानो खुद प्रभु यीशु और यहोवा परमेश्वर हमसे बात कर रहे हों। इससे पूरी तरह साबित हो जाता है कि कार्य के तीनों चरण एक ही परमेश्वर द्वारा निष्पादित हैं। परमेश्वर का नाम बदलता है, पर उसका सार, उसका स्वरूप, और उसके द्वारा व्यक्त धार्मिक स्वभाव वही रहता है, जरा-सा भी नहीं बदलता है। आज सर्वशक्तिमान परमेश्वर का सारा कार्य प्रभु यीशु के कार्य का विस्तार है। यह छुटकारे के कार्य की नींव पर आधारित, उससे ज्यादा गहरे और ऊंचे काम का एक चरण है—मनुष्य को पूरी तरह शुद्ध करने और बचाने का काम है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने ढेरों सत्य व्यक्त किए हैं, और सिर्फ बाइबल के रहस्य ही नहीं, बल्कि मनुष्य को बचाने की परमेश्वर की 6,000 वर्ष लंबी प्रबंधन योजना के रहस्य भी उजागर किए हैं, जैसेकि प्रबंधन कार्य को लेकर परमेश्वर के लक्ष्य, मनुष्य को बचाने के लिए परमेश्वर किस तरह कार्य के तीन चरणों का उपयोग करता है, देहधारण के रहस्य, परमेश्वर कैसे मनुष्य का न्याय, शुद्धि करता और उसे पूरी तरह बचाता है, हर किस्म के व्यक्ति का अंजाम और मंजिल कैसे निर्धारित होते हैं, पृथ्वी पर मसीह का राज्य कैसे साकार होता है, इत्यादि। परमेश्वर शैतान द्वारा मनुष्य की भ्रष्टता को भी उजागर करता है, वह मनुष्य की शैतानी और परमेश्वर-विरोधी प्रकृति का न्याय और खुलासा करता है। वह सत्यों के हर उस पहलू की व्याख्या करता है, जिसका मनुष्य को अभ्यास करना चाहिए, हमें अपनी भ्रष्टता को त्यागने और अपने स्वभाव को बदलने का व्यावहारिक रास्ता दिखाता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर जो सत्य व्यक्त करता है वे सभी मनुष्य की शुद्धि और पूर्ण उद्धार के लिए जरूरी हैं, और प्रभु यीशु की भविष्यवाणी को पूरी तरह साकार करते हैं : “मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा” (यूहन्ना 16:12-13)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का न्याय का कार्य मनुष्य को पूरी तरह शुद्ध करने और बचाने के लिए, और परमेश्वर ने जिन्हें बचाना तय कर लिया है, उन्हें उसके सम्मुख लाकर न्याय और ताड़ना से शुद्ध करने के लिए है। उसने पहले ही, आपदाओं से पहले विजेताओं का एक समूह तैयार कर लिया है। अब बड़ी आपदाएँ आने लगी हैं, परमेश्वर अच्छों को पुरस्कृत और बुरों को दंडित करना शुरू कर चुका है। परमेश्वर को नकारने वाले शैतान के लोग मिटा दिए जाएंगे, जबकि परमेश्वर के न्याय से शुद्ध हुए लोगों की परमेश्वर आपदाओं से रक्षा कर उन्हें बनाए रखेगा। आपदाओं के बाद, पृथ्वी पर मसीह के राज्य का प्रकट होगा, और प्रकाशितवाक्य की ये भविष्यवाणियाँ साकार होंगी : “जगत का राज्य हमारे प्रभु का और उसके मसीह का हो गया, और वह युगानुयुग राज्य करेगा” (प्रकाशितवाक्य 11:15)। “हल्लिलूय्याह! क्योंकि प्रभु हमारा परमेश्वर सर्वशक्तिमान राज्य करता है” (प्रकाशितवाक्य 19:6)। “देख, परमेश्वर का डेरा मनुष्यों के बीच में है। वह उनके साथ डेरा करेगा, और वे उसके लोग होंगे, और परमेश्वर आप उनके साथ रहेगा और उनका परमेश्वर होगा। वह उनकी आँखों से सब आँसू पोंछ डालेगा; और इसके बाद मृत्यु न रहेगी, और न शोक, न विलाप, न पीड़ा रहेगी; पहली बातें जाती रहीं” (प्रकाशितवाक्य 21:3-4)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने इतने सारे सत्य व्यक्त किए हैं, और इतना महान काम किया है। इससे साबित होता है कि वह देह में परमेश्वर का आत्मा है और मनुष्य के पुत्र के रूप में काम करने आया है। उसे यीशु नहीं कहा जाता, और वह प्रभु यीशु की यहूदी छवि जैसा नहीं है, बल्कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर का आत्मा प्रभु यीशु का आत्मा है—वह वापस लौटा प्रभु यीशु है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर, प्रभु यीशु और यहोवा सभी एक ही परमेश्वर हैं। ये अच्छे से समझ लेने पर आप यह नहीं कहेंगे कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास करना प्रभु यीशु से गद्दारी है, क्योंकि सर्वशक्तिमान परमेश्वर का स्वागत करना प्रभु का स्वागत करना है, मेमने के पद-चिन्हों पर चलना और परमेश्वर के सम्मुख उठाया जाना है। धार्मिक दुनिया में बहुत-से लोग अब भी धर्मग्रंथों के शब्दों से, प्रभु यीशु के नाम से चिपके हुए हैं, उसके बादलों पर सवार होकर लौटने की प्रतीक्षा में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की तलाश और खोजबीन से मना कर रहे हैं। वह चाहे कितने ही सत्य व्यक्त करे, वे इसे परमेश्वर के आत्मा से आया हुआ नहीं मानते, इसे प्रभु यीशु के आत्मा का प्रकटन और कार्य नहीं मानते। वे हमें सत्य प्रदान करने वाले सर्वशक्तिमान परमेश्वर की निंदा कर उसे ठुकराते भी हैं। क्या वे फरीसियों जैसी ही भूल नहीं कर रहे? वे इसे प्रभु यीशु की भक्ति समझते हैं, पर प्रभु ने कुकर्मी कहकर उनकी निंदा की थी। प्रभु यीशु ने कहा था, “उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:22-23)। और इसलिए, प्रभु उन्हें मिटा देगा।
चर्चा समाप्त करते हुए आइए सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कुछ और वचन देखें। “अंत के दिनों का मसीह जीवन लाता है, और सत्य का स्थायी और शाश्वत मार्ग लाता है। यह सत्य वह मार्ग है, जिसके द्वारा मनुष्य जीवन प्राप्त करता है, और यही एकमात्र मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य परमेश्वर को जानेगा और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत किया जाएगा। यदि तुम अंत के दिनों के मसीह द्वारा प्रदान किया गया जीवन का मार्ग नहीं खोजते, तो तुम यीशु की स्वीकृति कभी प्राप्त नहीं करोगे, और स्वर्ग के राज्य के द्वार में प्रवेश करने के योग्य कभी नहीं हो पाओगे, क्योंकि तुम इतिहास की कठपुतली और कैदी दोनों ही हो। जो लोग नियमों से, शब्दों से नियंत्रित होते हैं, और इतिहास की जंजीरों में जकड़े हुए हैं, वे न तो कभी जीवन प्राप्त कर पाएँगे और न ही जीवन का अनंत मार्ग प्राप्त कर पाएँगे। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके पास सिंहासन से प्रवाहित होने वाले जीवन के जल के बजाय बस मैला पानी ही है, जिससे वे हजारों सालों से चिपके हुए हैं। जिन्हें जीवन के जल की आपूर्ति नहीं की जाती, वे हमेशा मुर्दे, शैतान के खिलौने और नरक की संतानें बने रहेंगे। फिर वे परमेश्वर को कैसे देख सकते हैं? यदि तुम केवल अतीत को पकड़े रखने की कोशिश करते हो, केवल जड़वत् खड़े रहकर चीजों को जस का तस रखने की कोशिश करते हो, और यथास्थिति को बदलने और इतिहास को खारिज करने की कोशिश नहीं करते, तो क्या तुम हमेशा परमेश्वर के विरुद्ध नहीं होगे? परमेश्वर के कार्य के कदम उमड़ती लहरों और घुमड़ते गर्जनों की तरह विशाल और शक्तिशाली हैं—फिर भी तुम निठल्ले बैठकर तबाही का इंतजार करते हो, अपनी नादानी से चिपके हो और कुछ नहीं करते। इस तरह, तुम्हें मेमने के पदचिह्नों का अनुसरण करने वाला व्यक्ति कैसे माना जा सकता है? तुम जिस परमेश्वर को थामे हो, उसे उस परमेश्वर के रूप में सही कैसे ठहरा सकते हो, जो हमेशा नया है और कभी पुराना नहीं होता? और तुम्हारी पीली पड़ चुकी किताबों के शब्द तुम्हें नए युग में कैसे ले जा सकते हैं? वे परमेश्वर के कार्य के कदमों को ढूँढ़ने में तुम्हारी अगुआई कैसे कर सकते हैं? और वे तुम्हें ऊपर स्वर्ग में कैसे ले जा सकते हैं? जिन्हें तुम अपने हाथों में थामे हो, वे शब्द हैं, जो तुम्हें केवल अस्थायी सांत्वना दे सकते हैं, जीवन देने में सक्षम सत्य नहीं दे सकते। जो शास्त्र तुम पढ़ते हो, वे केवल तुम्हारी जिह्वा को समृद्ध कर सकते हैं और वे दर्शनशास्त्र के वे वचन नहीं हैं, जो मानव-जीवन को जानने में तुम्हारी मदद कर सकते हों, तुम्हें पूर्णता की ओर ले जाने वाले मार्ग देने की बात तो दूर रही। क्या यह विसंगति तुम्हारे लिए गहन चिंतन का कारण नहीं है? क्या यह तुम्हें अपने भीतर समाहित रहस्यों का बोध नहीं करवाती? क्या तुम अपने बल पर परमेश्वर से मिलने के लिए अपने आप को स्वर्ग पहुँचाने में समर्थ हो? परमेश्वर के आए बिना, क्या तुम परमेश्वर के साथ पारिवारिक आनंद मनाने के लिए अपने आप को स्वर्ग में ले जा सकते हो? क्या तुम अभी भी स्वप्न देख रहे हो? तो मेरा सुझाव यह है कि तुम स्वप्न देखना बंद कर दो और उसकी ओर देखो, जो अभी कार्य कर रहा है—उसकी ओर देखो, जो अब अंत के दिनों में मनुष्य को बचाने का कार्य कर रहा है। यदि तुम ऐसा नहीं करते, तो तुम कभी भी सत्य प्राप्त नहीं करोगे, और न ही कभी जीवन प्राप्त करोगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है)।
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