मैं सचमुच बड़े लाल अजगर की संतान हूँ

14 सितम्बर, 2019

झांग मिन, स्पेन

परमेश्वर के वचन कहते हैं: "पहले यह कहा गया था कि ये लोग बड़े लाल अजगर की संतानें हैं। वास्तव में, स्पष्ट कहा जाए तो, वे बड़े लाल अजगर के मूर्त रूप हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 36)। हालाँकि मैंने ज़बानी तौर पर स्वीकार कर लिया कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और वे हमारी वास्तविक स्थिति को प्रकट करते हैं, मगर मैं अपने दिल में इस बात सहमत नहीं थी कि मैं बड़े लाल अजगर की संतान या उसका प्रतिरूप हूँ। बल्कि मैंने तो हमेशा यह महसूस किया कि मैं परमेश्वर का अनुसरण करने और उसके लिये ख़ुद को खपाने के योग्य हूँ। मैं यह मानती थी कि मैं अधिकतर भाई-बहनों के साथ मिलकर चल सकती हूँ, और मेरे बारे में मेरे आसपास के लोगों की राय भी काफ़ी अच्छी है। हालाँकि मेरे अंदर भ्रष्ट स्वभाव विद्यमान है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं बड़े लाल अजगर की तरह दुष्ट हूँ। मैं तो उजागर किये जाने के अनुभव से गुज़रने के बाद ही आख़िरकार इस सत्य को जान पाई कि शैतान ने किस हद तक मुझे भ्रष्ट कर दिया है। मैंने यह भी जाना कि मेरे अंदर बड़े लाल अजगर का ज़हर भरा हुआ है, और मैं बड़े लाल अजगर के जैसे काम कर सकती हूँ।

कलीसिया में मेरा काम लेखों को संकलित करना था। एक दिन, मेरे समूह के अगुवा ने मुझसे कहा कि अब से मैं और वह बहन जिसके साथ मैं काम कर रही थी, दोनों सारी कलीसियाओं से लेखों के संकलन की ज़िम्मेदारी संभालेंगे। अगर किसी को कोई परेशानी होती है, तो हम लोग उस पर मिलकर चर्चा और सहभागिता कर सकते हैं। यह सुनकर मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ और मैं भयंकर दबाव में आ गई, लेकिन फिर भी मैं अपने आप से ख़ुश थी। मैंने सोचा: "हम लोग मिलकर सारे कलीसिया के लेखों का संकलन कर लेंगे। मुझे लगा कि मैं अपना काम बख़ूबी करने लायक हूँ और कलीसिया में एक काबिल इंसान हूँ।" मेरे अंदर अचानक एक "ज़िम्मेदारी" का एहसास उभरने लगा। मुझे पता भी नहीं चला कि मैं कब एक समीक्षक की भूमिका में काम और बातें करने लगी। एक बार, जब हम लोग सर्व-कलीसिया लेखन कार्य समूह के भाई-बहनों के साथ विचारों का आदान-प्रदान कर रहे थे, तो मैंने गौर किया कि समूह में एक भाई हमारे काम में बहुत ही सक्रियता से लगा हुआ है। जब कभी कोई परेशानी आती, तो वह अपने विचार व्यक्त करने में पहल करता था, जब कोई भा‌ई या बहन कोई सवाल पूछता और मेरे ऑनलाइन उस सवाल का जवाब दे चुकने के बावजूद वह अपने विचार व्यक्त करने पर ज़ोर देता था। उसके विचार अचूक ढंग से मेरे विचारों से अलग होते थे। जब भी ऐसा होता, तो मुझे अच्छा नहीं लगता था। मैं सोचती: "यह व्यक्ति इतनी सक्रियता से इस समूह से जुड़ा हुआ है और बहुत से लोग इसके विचारों से सहमत भी होते हैं। कहीं यह मुझसे आगे तो नहीं निकलना चाहता है? हुँह! यह मेरे बारे में बहुत ही कम जानता है। इसे तो यह भी पता नहीं कि मैं क्या काम करती हूँ, फिर भी मुझसे स्पर्धा करना चाहता है। क्या इसमें आत्म-बोध की कमी नहीं है?" यह सोचकर, मन ही मन मुझे इस व्यक्ति से बैर रखने लगी।

बाद में, मैंने लेखों से संबंधित समस्याओं पर चर्चा करने के लिये भाई-बहनों को सर्व-कलीसिया लेखन कार्य समूह में इकट्ठा किया। अधिकतर भाई-बहन मेरी बात से सहमत हो गये, लेकिन इस भाई ने एक बार फिर अपना अलग विचार पेश किया और मेरी कमियाँ गिनाने लगा। मैं जानती थी कि जब कभी कोई समस्या पेश आती है तो लोगों का अलग-अलग सुझाव रखना एक सामान्य बात है और अगर कोई सुझाव हमारे काम के फ़ायदे के लिये है, तो हमें मान लेना चाहिये। लेकिन जब मैंने यह देखा कि इस भाई ने इतने सारे भाई-बहनों के सामने मेरे सुझाव को नकार दिया है, तो मेरे अंदर एक विरोध और असंतुष्टि का स्वर उभरा। मैंने सोचा: "दूसरे भाई-बहन मेरे सुझाव को बिना किसी विरोध के स्वीकार कर सकते हैं। लेकिन तुम्हें तो अपनी बात को ही ऊपर रखना है—क्या तुम जान-बूझकर मेरे लिये चीज़ों को मुश्किल बनाने की कोशिश कर रहे हो, यह दिखाने के लिये कि तुम काम के प्रति कितने ज़िम्मेदार हो और चीज़ों को कितने साफ़ तौर पर समझते हो? तुम बेहद अहंकारी हो, तुम्हारे साथ काम करना बहुत मुश्किल है!" मैं जितना इस बारे में सोचती, मेरा मन उस भाई के प्रति उतना ही खट्टा होता जाता। वह भाई मुझे इतना खटकने लगा कि मेरी उससे कुछ भी कहने की इच्छा नहीं हुई। कुछ दिनों के बाद, इस भाई ने पढ़ने के लिये हमारे पास एक लेख भेजा। उसने कहा कि लेख बहुत ही अच्छे तरीके से लिखा गया है, हमें संदर्भ के लिये इसे सबके पास भेज देना चाहिये। जब मैंने उसे इतने आत्म-विश्वास भरे लहजे में बोलते हुए सुना, तो मैं बेचैन होने लगी। मैंने सोचा: "हम लोग इन लेखों को पहले ही पढ़ चुके हैं। अगर इस लेख को नहीं चुना गया है, तो ज़रूर इसमें कोई गड़बड़ होगी। अगर आप यह भी न बता सकें, तो अवश्य ही आप अंधे होंगे।" इस तरह, मैंने अपनी बेचैनी को अपने अंदर ही दबा लिया और मैंने बड़े ही बेमन से इस लेख को फिर से पढ़ा। उसके बाद, मैंने अपनी राय और उस लेख में जो कुछ मसले थे, वे मैंने उसे बता दिये, लेकिन उसने मेरी बात को नकार दिया, बल्कि मुझे याद दिलाने लगा कि मुझे हर लेख पर एक गंभीर रुख अपनाना चाहिये, या मुझे अपने वरिष्ठों को यह लेख फिर से पढ़ने के लिये आग्रह करना चाहिये। मेरे अंदर जो विरोध का स्वर था, वह उस पल उभरने लगा, और मैंने सोचा: "जब से मैं तुमसे मिली हूँ, तुमने शायद ही कभी मेरी बात मानी हो या मेरे सुझावों को स्वीकार किया हो। जबकि तुम हमेशा अपने अलग सुझाव देते हो और चाहते हो कि सब लोग उन्हें देखें और स्वीकार कर लें। जब भी मौका मिलता है, तो तुम अपनी योग्यता का दिखावा करने लगते हो। तुम बेहद अहंकारी इंसान हो। तुम्हारे दिल में मेरे लिये किसी तरह का कोई सम्मान नहीं है। तुम्हारे जैसे इंसान के साथ व्यवहार करना सिर्फ़ मुसीबत और परेशानी है!" मैंने यह भी सोचा: "कलीसिया ने ऐसे व्यक्ति को लेख संकलित करने के लिये कैसे चुन लिया? इतने ज़्यादा अहंकारी स्वभाव वाला व्यक्ति ऐसे काम के उपयुक्त बिल्कुल नहीं है। शायद मुझे उसकी शिकायत अपने अगुवा से कर देनी चाहिये और अगुवा तय करे कि वह व्यक्ति इस काम के उपयुक्त है या नहीं। अगर मेरा अगुवा उसे कहीं और भेज दे तो यही सबसे अच्छा होगा।" जब मैं ऐसा सोच रही थी, तो मुझे एहसास हुआ कि मेरी सोच ठीक नहीं है। मुझे इस भाई के बारे में ज़्यादा कुछ पता नहीं है, तो मुझे उसके बारे में इतने हल्के में कोई राय नहीं बनानी चाहिये, बल्कि मुझे उसके साथ उचित तरीके से पेश आना चाहिये। मैंने इन बातों पर केवल सोचा, लेकिन इस मामले को लेकर, आगे मैंने ख़ुद कोई आत्म-मंथन नहीं किया, न ही मैंने अपनी भ्रष्टता को दूर करने के लिये सत्य की कोई खोज की। बल्कि उसी भाई के बारे में सोच-विचार करती रही।

एक दिन, मेरे अगुवा ने सुझाव दिया कि हम लोग तमाम कलीसियाओं के अगुवाओं और सह-कर्मियों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करें। उसमें चर्चा इस बात पर की जाएगी कि हम लोग किस प्रकार से लेख लिखने के सिद्धांतों को बेहतर ढंग से समझ कर इस काम को करें। मैंने हाँ तो कर दी, लेकिन फिर मैं बहुत ही ज़्यादा घबरा गई। मेरे लिये मध्यम-स्तर के अगुवाओं और सहकर्मियों के साथ विचार-विमर्श करने के लिये ऑनलाइन चर्चा में शामिल होने का यह पहला मौका था। इसके अलावा, मैं अपने आपको कोई बहुत अच्छे ढंग से व्यक्त नहीं का पाती थी। मुझे चिंता थी कि मैं स्पष्ट तरीके से सहभागिता नहीं कर पाऊँगी, और व्यर्थ में अपना तमाशा बना लूँगी। तो यह सोचकर ही मैं बेहद परेशान हो गई। जिस दिन ऑनलाइन सभा शुरू होने वाली थी, उस दिन अचानक मुझे उसी भाई से एक संदेश मिला, जिसमें उसने पूछा था कि क्या वह इस सभा में शामिल हो सकता है। यह संदेश पढ़कर मेरा दिमाग ख़राब हो गया। मैंने सोचा: "तुम विचारों के आदान-प्रदान के लिये पहले भी कई बार सभाओं में शामिल हो चुके हो, लेकिन तुमने कभी भी हमारे सुझावों को स्वीकार नहीं किया, तो इस सभा में शामिल होने का क्या औचित्य है? इस सभा को लेकर मैं पहले ही काफ़ी दबाव में हूँ। अगर कल को तुमने कोई मुश्किल सवाल पूछ लिया, तो तुम मेरे लिये सारी चीज़ों को और भी ज़्यादा असहनीय बना दोगे।" जब मैंने अगले दिन सभा में उसके शामिल होने पर विचार किया, तो मैं समझ गई कि मुझे वहाँ उसकी उपस्थिति बिल्कुल नहीं चाहिये। मैं सोचने लगी कि उससे क्या कहूँ ताकि वह सभा में शामिल न हो। मैं कुछ देर सोचती रही कि उसे क्या कहूं लेकिन मुझे सही कारण नहीं सूझा। फिर मैंने साफ़ ही कह दिया, "इस सभा की विषय-वस्तु काफी-कुछ पिछली सभा जैसी ही है। इसलिये आपको इसमें शामिल होने की ज़रूरत नहीं है।" मैंने सोचा था कि अगर मैंने उसे इस ढंग से जवाब दिया तो फिर उसके पास कहने के लिये कुछ और नहीं होगा। लेकिन मुझे आश्चर्य तब हुआ, जब उसने यह कहते हुए एक और संदेश भेज दिया, "मेरे पास कल थोड़ा समय है, मैं सुनना चाहूँगा हूँ कि बाकी लोग क्या चर्चा कर रहे हैं।" यह संदेश पढ़कर मैं बहुत परेशान हो गई, लेकिन अब मेरे पास उसे मना करने का कोई कारण नहीं था। बेमन से हाँ करने के अलावा, मेरे पास कोई चारा नहीं था, लेकिन मैं अब भी उसे ग्रुप में शामिल करने से झिझक रही थी। मैंने सोचा: "तुम एक मुसीबत ही हो! मैं तुमसे पिण्ड क्यों नहीं छुड़ा पाती? तुम्हारे होते हुए क्या हम लोग इस सभा से कुछ सार्थक हासिल कर पाएँगे? क्या तुम जान-बूझकर मेरे लिये मुसीबत खड़ी करने की कोशिश कर रहे हो?" मैं लगातार यही सोचती रही कि उसे इस सभा में शामिल होने से कैसे रोकूँ, मैंने उससे ऑनलाइन समूह से निकालने तक की सोच ली, लेकिन फिर मैंने सोचा: "ठीक है, हो जाओ शामिल। अगर तुमने पिछली सभा की तरह ही असहमति दिखाई और बाल की खाल निकाली, तो सबको पता चल जाएगा कि तुम कितने अहंकारी और मगरूर हो, तुम्हें कोई भी गंभीरता से नहीं लेगा।..." तभी मुझे एहसास हुआ कि उसके प्रति मेरे पूर्वाग्रह ने नफ़रत का रूप ले लिया है और मैं मात्र अपने बुरे इरादों का इज़हार कर रही हूँ। अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो मैं इस भाई के साथ कैसे पेश आऊँगी, यह सोचकर भी मुझे डर लगता था। इसलिये, मैंने तुरंत परमेश्वर को पुकारा, उससे प्रार्थना की, और कहा कि वह मेरे हृदय की रक्षा करे। जब मन शांत हुआ, तो मैंने आत्म-मंथन किया कि अगर कोई बात मेरे विचारों से मेल नहीं खाती है, तो मैंन उसका इतना घोर विरोध क्यों किया, मैं अपने विरोधी स्वरों को स्वीकार क्यों नहीं कर पाई। इस भाई के विरुद्ध मैंने इतना ज़बर्दस्त पूर्वाग्रह क्यों पाल लिया।

जब मैं इसका उत्तर खोज रही थी, तो मुझे सहभागिता में यह अंश पढ़ने का अवसर मिला: "अगुआ के तौर पर कार्य करने वाले लोग उन भाइयों और बहनों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं जो उनके साथ सहमत नहीं होते, जो उनका विरोध करते हैं, और जो उनके विचारों से बिल्कुल भिन्न विचार रखते हैं, यह एक बहुत ही गंभीर मुद्दा है और इससे सावधानी से निपटना चाहिए। अगर वे इस मुद्दे के सत्य में प्रवेश नहीं करते, तो वे निश्चित तौर पर भेदभाव करेंगे और जब वे इस प्रकार के मुद्दे का सामना करेंगे तो वे इस प्रकार के लोगों की निंदा करेंगे। इस प्रकार की हरकत, सटीकता से महान लाल ड्रैगन की प्रकृति की एक अभिव्यक्ति है, जो परमेश्वर का विरोध और विश्वासघात करती है। अगर अगुआ के तौर पर कार्य करने वाले सत्य का अनुसरण करें और उनके पास ज़मीर हो, और विवेक हो, वे सत्य खोजेंगे और इस मामले का सही प्रकार से प्रबंधन करेंगे। ...बतौर जनता, हमें न्यायप्रिय और उचित होने की आवश्यकता है। बतौर अगुआ, हमें परमेश्वर के वचनोंके अनुसार इनका प्रबंधन करना चाहिए ताकि हम उसके साक्षी बन सकें। अगर हम सभी कुछ अपनी इच्छासे करें, जिसमें हम अपनी भ्रष्टप्रवृत्ति को खुला छोड़ दें, तो वह एक भयंकर विफलता होगी" (ऊपर से संगति)। इस सहभागिता ने मुझे छू लिया। मैं सोचने लगी कि मैं उस भाई के प्रति इतनी विरोधी और प्रतिकूल क्यों हो गई कि मैं उससे नफ़रत तक करने लग गई थी। क्या इसका कारण मात्र इतना नहीं था कि वह मेरी सहभागिता से सहमत नहीं था। उसने कुछ ऐसे सुझाव दिये थे जिससे मेरी नाक कट गई थी। क्या इसका कारण महज़ इतना नहीं था कि चूंकि वह हमारे समूह में बहुत सक्रिय था, उसे सबका समर्थन मिलता था इसलिये, मुझे लगा कि उसने मेरी सफलता चुरा ली है? पहले, हम सभी भा‌ई‌-बहन मिलकर अपना काम करते थे, अलग-अलग योग्यताओं और समझ के कारण, किसी विशेष मसले पर अलग-अलग विचारों का होना एक सामान्य-सी बात थी। यह भाई केवल अपने विचार ही तो व्यक्त कर रहा था—उसके कोई ख़राब इरादे तो थे नहीं। फिर भी मैं हमेशा ये चाहती थी कि वह मेरी बात सुने और माने। मैं चाहती थी कि वह मेरी हर बात माने, उसे मुझसे अलग कोई बात नहीं कहनी चाहिये। लेकिन जब उसकी बातों और कामों ने मेरी हैसियत और आत्म-सम्मान को आहत किया, तो मेरे अंदर विरोध का स्वर इस हद तक उभरा कि मैंने उसे बाहर कर दिया। मैं नहीं चाहती थी कि वह सभा में शामिल हो। और अगर मैंने उसे सभा में शामिल किया था, तो सिर्फ़ इसलिये क्योंकि मैं चाहती थी कि वह मूर्ख साबित हो। मैंने इन सोच और विचारों का विश्लेषण किया तो जाना कि यह सब मेरा द्वेषपूर्ण और अहंकारी शैतानी स्वभाव है। मेरी हरकतें वाकई बेहद घृणा-योग्य और मलिन थीं!

मैंने तब सहभागिता में पढ़ा: "तुम चाहे कोई भी हो, अगर तुम उनसे असहमत हो, तो तुम उनके दण्ड के भागी बन जाते हो—यह क्या स्वभाव है? क्या यह बड़े लाल अजगर जैसा स्वभाव नहीं है? बड़ा लाल अजगर हर चीज़ पर कब्ज़ा चाहता है और अपने आपको हर चीज़ का केंद्र-बिंदु समझता है: 'अगर तुम मुझसे सहमत नहीं हो, तो मैं तुम्हें दण्डित करूँगा; अगर तुम मेरा विरोध करने का साहस दिखाओगे, तो मैं तुम्हें सैनिक बल से कुचल दूँगा।' ये बड़े लाल अजगर की नीतियाँ हैं, बड़े लाल अजगर का स्वभाव शैतान का स्वभाव है, स्वर्गदूत का स्वभाव है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अगुवा या कर्मी बनने के बाद, बड़े लाल अजगर की नीतियों को लागू करना शुरू कर देते हैं। वे लोग ऐसा कैसे करते हैं? मैं अब एक अगुवा हूँ और मेरा पहला काम है कि मैं सब लोगों से पूरे मन और वचन से अपनी बात मनवाऊँ, तभी मैं अपना आधिकारिक काम शुरू कर सकती हूँ'" (जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति)। "अगर कोई भाई या बहन अपना कोई दृष्टिकोण रखता है या किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में राय रखता है जिसके अंदर सचमुच सत्य है, जो सत्य को स्वीकार करके उसे अमल में ला सकता है, या उसे पता चले कि उस व्यक्ति में कमियाँ हैं, और वह गलतियाँ करता है, और वह उसे फटकारता है, उसकी आलोचना करता है या उसकी काट-छाँट करता है, उससे निपटता है, तो क्या वह व्यक्ति उससे नफ़रत नहीं करेगा? सबसे पहले उस व्यक्ति को मामले को देखना और सोचना चाहिये: 'आप जो कह रहे हैं वह सही है या गलत? क्या यह तथ्यों के अनुरूप है? अगर यह तथ्यों के अनुरूप है, तो मैं इसे स्वीकर कर लूँगा। अगर आप जो कह रहे हैं वह आधा सच है या यह मूलत: तथ्यों के अनुरूप है, तो मैं इसे स्वीकार कर लूँगा। अगर आप ओ कह रहे हैं, वह तथ्यों के अनुरूप नहीं है, लेकिन मैं समझ सकता हूँ कि आप दुष्ट इंसान नहीं हैं, आप एक भाई या बहन हैं, तो मैं सह लूँगा, और मैं आपके साथ सही ढंग से पेश आऊँगा'" (जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति)। सहभागिता से, मैंने जाना कि जब से बड़ा लाल अजगर सत्ता में आया है, तब से उसने आम आदमी के हितों के बारे में कभी नहीं सोचा, न वो कभी यह सोचता है कि देश का प्रबंधन अच्छे ढंग से कैसे किया जाए या चीनी लोगों को कैसे सुख-चैन से रहने दिया जाए। बल्कि, वह जो भी करता है केवल अपने पद और सत्ता को सुरक्षित रखने के लिये करता है। लोगों पर स्थायी रूप से शासन करने और उन पर मज़बूती से अपनी पकड़ बनाए रखने के लिये, वो संयुक्त विचारधारा और संवेत स्वर की नीति को कार्यांवित करता है। वह लोगों को अपने विरोधी विचार रखने और उसे न कहने से रोकता है। अगर वह कोई विचार पेश करता है और उसकी वकालत करता है, तो फिर चाहे वह विचार सही हो या गलत, हर किसी को उसे स्वीकार करना ही पड़ेगा, हर एक को उसके साथ चलना ही पड़ेगा। अगर कोई उससे सहमत न हो, या उसका विरोध करे, तो वह उसकी जान ले लेगा और उस पर प्रतिबंध लगा देगा। उन्हें लेकर उसकी शैतानी व्यवस्था इस प्रकार की है: "जो मेरा अनुपालन करते हैं उन्हें फूलने-फलने दो और जो मेरा विरोध करते हैं उन्हें नष्ट होने दो।" अगर कोई आपत्ति उठाता है, तो उसे कैंसर की तरह देखा जाता है जिसे काटकर निकाल देने की ज़रूरत है और जो उसका विरोध करते हैं, उन्हें वह जल्द से जल्द ख़त्म कर देना चाहता है, उन्हें जड़ से मिटा देना चाहता है। इसका विशिष्ट उदाहरण है जून 4, 1989 में तियानमेन स्क्वायर में कॉलेज के छात्रों का हुआ नरसंहार। वे छात्र केवल भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे थे और लोकतंत्र की माँग कर रहे थे, लेकिन सीसीपी ने उन छात्रों के साथ शत्रुओं जैसा व्यवहार किया। सीसीपी ने छात्र आंदोलन को प्रति-क्रांति विद्रोह करार दिया और छात्रों के उस आंदोलन को ख़ून से दबाने का फैसला किया। जब मैंने अपने व्यवहार की तुलना उस बड़े लाल अजगर से की, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं जो प्रकृति प्रकट करती रही थी वो बिल्कुल बड़े लाल अजगर जैसी ही थी। मैं एक भ्रष्ट इंसान थी, मेरे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया था। न ही मेरे अंदर रत्ती भर भी सत्य की वास्तविकता थी। मैं जो विचार व्यक्त करती थी, ज़रूरी नहीं कि वे हमेशा सही ही रहे हों। मैं चाहती थी लोग हमेशा मेरी ही बात सुनें, मानें और मुझसे कोई सवाल न करें। अगर ऐसा नहीं होता तो मैं उनसे उखड़ जाती, उन्हें नकार देती, यहाँ तक कि फिर हमारे संबंधों में कभी सुधार नहीं आ पाता। मैं उनसे पिण्ड छुड़ाने का हर संभव तरीका अपनाती—मैं बेहद दुष्ट थी, मेरे अंदर कोई मानवता नहीं थी! मैंने विचार किया कि किस तरह कलीसिया ने प्रबंध किया था कि सभी भाई-बहन और मैं मिलकर काम करें ताकि हम एक-दूसरे की ताकत से सीख सकें, परस्पर सामँजस्य स्थापित कर सकें, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिये मिलकर काम कर सकें। फिर भी मैंने इन बातों पर ज़रा भी विचार नहीं किया, बस यही सोचती रहती कि किस तरह से मैं अपनी पद-प्रतिष्ठा को बनाए रख सकती हूँ, कहीं मेरे आत्म-सम्मान और गरिमा को किसी तरह की ठेस तो नहीं पहुँचेगी, कोई मेरी बात सुनेगा या नहीं। जो लोग मेरी बात से सहमत नहीं होते थे, मैं उन्हें निकाल देती और दबाती थी—मैं वाकई एक ऐसी डकैत की तरह पेश आई जो अपनी पहाड़ी पर एक सरदार की तरह निरंकुश शासन करता है। ऐसा करके, मैं अपने काम से परमेश्वर को किस तरह संतुष्ट कर सकती थी? मैं तो सिर्फ़ दुष्टता और परमेश्वर का विरोध कर रही थी! जब मैंने इन बातों पर विचार किया, तो मुझे और भी ज़्यादा शर्म आई; मैंने जाना कि मैं बेहद अहंकारी और मगरूर हूँ, मेरा स्वभाव भी बड़े लाल अजगर जैसा ही था। मेरे अंदर स्पष्टत: वो सब-कुछ करने की दुष्टता थी जो बड़े लाल अजगर के अंदर थी। तब जाकर मुझे समझ में आया कि मैं तो बड़े लाल अजगर की संतान हूँ, मेरे अंदर बड़े लाल अजगर का ही ज़हर भरा हुआ है। अ‍गर मैं अपने अंदर स्वभावगत बदलाव नहीं लाई, तो मैं अनजाने में ऐसे काम करूँगी, जिससे परमेश्वर के कार्य में बाधा और रुकावट आएगी। इसका नतीजा यह होगा कि परमेश्वर के स्वभाव को नाराज़ करने के कारण मुझे परमेश्वर के द्वारा दण्डित और शापित किया जाएगा। उस पल, मुझे परमेश्वर की इच्छा और अच्छे इरादे समझ में आने लगे। अगर मेरे सामने यह स्थिति उपस्थित न होती, तो मैं कभी भी न समझ पाती कि मेरे अंदर बड़े लाल अजगर के दोनों सार समाए हुए हैं—एक तो अहंकार और दम्भ, जिन्होंने हर जगह कब्ज़ा किया हुआ है, और दूसरा—परमेश्वर-विरोधी शैतानी स्वभाव। साथ ही, मुझे यह बात भी समझ में आ गई कि परमेश्वर ने यह जो स्थिति मेरे लिये आयोजित की थी, वह मेरे जैसे अहंकारी और दम्भी इंसान के लिये, जो ख़ुद को सबसे ऊपर समझता है, सचमुच सर्वोत्तम सुरक्षा थी। अगर सभी भाई-बहनों ने मुझे समर्थन दिया होता, किसी ने कोई आपत्ति न की होती, तो मैं और भी ज़्यादा अहंकारी और दम्भी हो जाती। फिर तो मैं सभी से अपना अनुसरण करवाती और हर मामले में अपनी मनचाही करवाती, अनजाने में ही मैं ख़ुद को परमेश्वर की जगह स्थापित कर देती, और अपने राज्य पर शासन करती। आगे चलकर, इसका नतीजा यह होता कि मैं परमेश्वर के स्वभाव को नाराज़ कर देती। आख़िरकार, परमेश्वर मुझसे घृणा करता और मुझे नकार देता। जब मुझे ये बातें समझ में आईं, तो मैंने तहे-दिल से परमेश्वर को धन्यवाद दिया और उसका गुणगान किया। उस भाई के बारे में मैंने अपने दिल से सारे पूर्वाग्रह और गलत ख़्याल निकाल दिये। विचार-विमर्श के लिये आयोजित उस सभा की चिंता किये बगैर, मैं अपनी शैतानी प्रकृति का त्याग, परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने को तैयार थी। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि सभा का परिणाम मेरी उम्मीदों से इतना बढ़कर होगा। उस दिन, परमेश्वर के मार्गदर्शन में, सभा बड़ी ही सहजता से चली, जब मैंने उस भाई से अपने विचारों का आदान-प्रदान किया, तो हम लोगों में एक आम सहमति बन गई, और हम दोनों ने एक-दूसरे की कमज़ोरियों को दूर करने में मदद की। हमने परमेश्वर के मार्गदर्शन पर भरोसा किया और सभा का समापन बहुत ही सुन्दर ढंग से हुआ।

परमेश्वर के हाथों उजागर होकर, मैं पहचान पाई कि मैं दरअसल बड़े लाल अजगर की संतान हूँ और बड़े लाल अजगर का ज़हर बहुत पहले ही मेरी ज़िंदगी बन चुका था। अगर मैं इन भ्रष्ट स्वभावों को अपने अंदर से न निकाल सकी, तो अंत में परमेश्वर मुझसे नफ़रत करेगा, मुझे ठुकरा देगा, और मुझे निकाल बाहर करेगा। इस तरह, मैंने अपने उद्धार पाने का अवसर हाथ से गँवा दिया होता। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए जो कहते हैं: "मेरे लोग जो बड़े लाल अजगर के देश में पैदा हुए हैं, निश्चित रूप से तुम लोगों के भीतर बड़े लाल अजगर के ज़हर का थोड़ा-सा या अंश-मात्र भी नहीं है। इस प्रकार, मेरे कार्य का यह चरण मुख्य रूप से तुम लोगों पर केंद्रित है, और चीन में मेरे देहधारण की महत्ता का यह एक पहलू है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 11)। "पहले यह कहा गया था कि ये लोग बड़े लाल अजगर की संतानें हैं। वास्तव में, स्पष्ट कहा जाए तो, वे बड़े लाल अजगर के मूर्त रूप हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 36)। मुझे परमेश्वर के वचनों से यह बात भी समझ में आई कि इंसान को बचाने का परमेश्वर का कार्य बहुत ही व्यवहारिक और विवेकपूर्ण है। परमेश्वर हमारे अंदर मौजूद बड़े लाल अजगर के ज़हर और शैतानी प्रकृति को उजागर करने के लिये अपने वचनों को व्यक्त करता है। तथ्यों को उजागर करके, परमेश्वर ने मुझे अपने अंदर मौजूद बड़े लाल अजगर के ज़हर को थोड़ा-बहुत समझने और पहचानने दिया, जिससे मैंउन्हें नकार सकूँ और त्याग सकूँ, ताकि ये मुझे फिर कभी भ्रष्ट न कर पाएँ या नुकसान न पहुँचा पाएँ। मुझे पता था कि मेरे अंदर अभी भी बहुत से शैतानी फ़लसफ़े और सिद्धांत हैं, बड़े लाल अजगर के ज़हर हैं। लेकिन उस दिन से, मैं चाहती थी कि अब मैं पूरी तत्परता से केवल सत्य का अनुसरण करूँ, परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करूँ, यथाशीघ्र बड़े लाल अजगर के तमाम विषों से पीछा छुड़ाऊँ, और परमेश्वर के दिल को सुख पहुँचाने के लिये इंसान की मानिंद जिऊँ!

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