बाह्य आवरणों के आधार पर राय कायम करना नितांत बेतुका होता है
पहले, मैं अक्सर लोगों के बाह्य आवरण से उनके बारे में राय बनाती थी और आकर्षक व्यक्तित्व, ज्ञानी, वाक्पटु लोगों को ख़ासकर अधिक सम्मान देती थी। मेरा मानना था कि ऐसे लोग समझदार, दूसरों को समझने में कुशल और आमतौर पर अच्छे और दयालु होते हैं। अभी हाल ही में, जब वास्तविकता का खुलासा हुआ तब जाकर मैंने अपने सोचने के इस बेतुके तरीके को ठीक किया।
एक रात सूर्यास्त के करीब, जब मैं अपने मेज़बान परिवार के घर लौटी, तो मैंने सूट और चमड़े के जूते पहने हुए एक नौजवान को देखा जो बहुत ही सभ्यता से बर्ताव और बातें कर रहा था। उसने बारीकी से तराशा हुआ चश्मा पहन रखा था जो उसकी शिष्टता और विद्वत्ता को और भी ज्यादा निखार रहा था। मेरी मेज़बान ने हम दोनों का परिचय करवाया और मुझे बताया कि वह नौजवान उनका बेटा था और उन दिनों वह किसी बड़े शहर की नगरपालिका में अधिकारी के रूप में काम करता था। गरीब परिवार की पृष्ठभूमि में पले-बढ़े हुए होने और कम उम्र में ही पढ़ाई छोड़ देने की वजह से, मुझे उसके सुंदर पहनावे, विकसित की गई आकर्षकता और साथ ही प्रसिद्द संस्था से पायी ऊँची पदवी और एक सम्माननीय नौकरी से बहुत ही ज्यादा जलन महसूस हुई। मैंने अपनी ज़िंदगी में वाकई पहली बार ऐसे आकर्षक व्यक्तित्व और विद्वत्ता वाले किसी इन्सान को देखा था। मैंने मन में सोचा कि, इतने सुसंस्कृत, सभ्य और उच्च प्रतिष्ठा वाला व्यक्ति निश्चय ही सुशील, दयालु और समझदार होगा। ऐसा सोचकर, मैंने उस नौजवान के साथ विश्वास के विषय पर चर्चा करने की कोशिश की, लेकिन उसकी प्रतिकिया मेरी सोच के ठीक विपरीत निकली। वह तिलमिला कर खड़ा हो गया और टेबल पर ज़ोर से मुठ्ठी पटकते हुए चिल्लाया, "यहाँ से तुरंत निकल जाओ! अगर तुम इसी पल यहाँ से नहीं जाओगी तो मैं पुलिस को बुला लूँगा!" ऐसा कहते ही उसने तुरंत अपना सेल फोन बाहर निकाला और 110 डायल करना शुरू कर दिया। मैंने बात संभालने की कोशिश करते हुए कहा, "मेरे दोस्त, मुझे पूरा यकीन है कि तुम पुलिस को फोन नहीं करोगे, तुम ज़रुर मजाक कर रहे हो।" लेकिन, वह अपनी जि़द पर अड़ा रहा और मुझे वहाँ से तुरंत निकल जाने पर जोर देता रहा। मैं पूरी तरह से हक्की-बक्की हो गयी और समझ नहीं पा रही थी कि, मुझे आगे क्या करना चाहिए। मैंने अपनी घड़ी में देखा कि रात के लगभग 10 बजे थे और अगर मैं उस समय वहाँ से जाती तो रात कहाँ गुज़ारती? तभी मेरी मेज़बान ने कहा, "अब बहुत देर हो चुकी है, आप कल जा सकती हैं।" जैसे ही मेरी मेज़बान के बेटे ने देखा कि मैं रात वहीं रुकने के बारे में सोच रही हूँ, उसने अपने प्रयास तीव्र कर दिए और मुझे दरवाज़े के बाहर धक्का देकर निकालने की कोशिश करते हुए ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा, "मैं एक सरकारी अफसर जो सार्वजनिक निधियों का लाभ लेता है; कैसे अपने घर में किसी मिशनरी को रहने दे सकता हूँ? यहाँ से अभी चली जाओ!" ऐसा कहते हुए उसने ग़ुस्से से मेरी साइकल उठाई और मेरी ओर फेंक दी, और मुझे मेरी साइकल के साथ दरवाजे से बाहर धक्का देकर निकाल दिया। मुझे किसी और मेज़बान परिवार के घर तक पहुँचाने के इरादे से मेरी मेज़बान मेरे पीछे-पीछे आने लगी तो उनके बेटे ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया, उसने मेरी मेज़बान को वापस अंदर खी़च कर दरवाज़ा बंद कर लिया। जब मैं वहाँ से निकल रही थी, तब मैंने मेरी मेज़बान को चिल्लाते हुए सुना, "इतनी रात को तुम उस अकेली लड़की से कहाँ जाने की उम्मीद करते हो?" "जहां उसका मन करे उसे जाने दो – उसके परमेश्वर की रक्षा के तहत उसे किसी बात का डर नहीं, है ना?" इस तरह चिल्लाते हुए वह मेरी मेज़बान को खींच कर अंदर ले गया।
रात के आकाश में जगमगाते सितारों को और महामार्ग पर गुज़रती हुई तेज़ गाडि़यों की चमकती रोशनी को भावशून्य दृष्टि से घूरते हुए, मैंने बहुत ही उदास और खिन्न महसूस किया। मेरे दिल में शिकायतें उमड़ पड़ीं: ठीक है कि तुम मुझे अपने घर में नहीं रहने देना चाहते हो, लेकिन मेरी मेज़बान को मुझे किसी और मेज़बान परिवार तक ले जाने से रोकने की कोई वजह ही नहीं है। तुम इतने निर्दयी कैसे हो सकते हो, इतने क्रूर! किसी भिखारी के साथ भी ऐसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए! मुझे कोई अंदाज़ा नहीं कि दूसरा मेज़बान परिवार कहाँ है और इतनी रात गए जाने के लिए कोई जगह के बिना मैं बिलकुल परेशानी में फंसी हूँ। ऐसे में मैं क्या करूं? ... इन विचारों के मेरे दिमाग में आने पर मेरी आँखों में आँसू भर आए। उस पल में, मेरी मेज़बान के बेटे के आकर्षण, ज्ञान, रूतबे और सभ्यता के सभी प्रभाव पूरी तरह से मिट गए। मैंने एक उपदेश के वचनों के बारे में सोचा, "परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले या परमेश्वर को सताने वाले लोगों को हम अच्छा कैसे कह सकते हैं? जब से शैतान ने मनुष्य को भ्रष्ट किया है, तब से वह भेष बदलने और खुद को जीवन-सिद्धांतों के पीछे छिपाने में माहिर हो गया है। बाहरी तौर पर वह सामान्य व्यक्ति की तरह ही लगता है, लेकिन जब कोई परमेश्वर पर विश्वास प्रकट करने लगता है तब उसका राक्षसी स्वभाव उजागर हो जाता है। अधिकांश लोग यह समझ नहीं पाते, इसलिए वे अक्सर दूसरों के आडंबर और नज़ाकत के आवरण से धोखा खाते हैं। परमेश्वर के कार्य और वचन मनुष्य को सबसे अच्छे तरीके से उजागर कर सकते हैं। सत्यहीन लोग सिर्फ पाखंडी होते हैं। जो सत्य को समझते हैं वे इस मुद्दे के संबंध में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। जो सत्य को नहीं समझते वे कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, और जिसके परिणामस्वरूप उनके दृष्टिकोण बेतुके होते हैं" (ऊपर से संगति)। इन वचनों पर मनन करते हुए, मुझे एक तात्कालिक बोध हुआ। वाकई, यह संगति बिल्कुल सही थी: सभी भ्रष्ट लोग नाटक करने में बहुत अच्छे होते हैं, और केवल इसलिए कि वे बाहर से सभ्य और भद्र लगते हैं, इसका मतलब यह नहीं है वे सार में भी अच्छे हैं। केवल वे जो सत्य से प्रेम करते हैं, उसे स्वीकारते हैं वे ही भले, दयालु लोग हैं। अगर कोई बाहर से अच्छा मालूम दे, लेकिन परमेश्वर को स्वीकार न करे या परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य को स्वीकार न करे और विरोध, खीज और नफरत करने में भी समर्थ हो—तो उसे अच्छा इंसान नहीं कहा जा सकता। हालाँकि, मैं दूसरों का आकलन करने के लिए अपनी खुद की कल्पना और धर्मनिरपेक्ष वैश्विक दृष्टिकोण का इस्तेमाल किया करती थी। मैं हमेशा सोचती थी कि, ज्ञान, प्रतिष्ठा और सभ्यता से परिपूर्ण लोग हमेशा ही दयालु, विवेकशील और दूसरों को समझनेवाले होते हैं। मेरा नज़रिया और अधिक बेतुका नहीं हो सकता था। मैं नहीं जानती थी कि, परमेश्वर पर विश्वास नहीं करने वाले लोग परमेश्वर का विरोध करनेवाले राक्षस होते हैं। बाहरी तौर पर वे सुसंस्कृत और आकर्षक दिख सकते हैं, लेकिन अंदर से वे सत्य से परेशान होते हैं और उससे घृणा करते हैं। इस सरकारी अधिकारी का विश्वास और विश्वासियों के प्रति जो रवैया था वह इस बात का सटीक उदाहरण था। बाहरी तौर पर, उसके पास आकर्षक व्यक्तित्व, वाक्पटुता, सभ्यता थी, लेकिन जैसे ही मैंने विश्वास का विषय उठाया वह अपना आपा खो बैठा। मुझ पर आरोप लगाते हुए, मुझे निकल जाने के लिए कहते हुए और मुझे धमकी देते हुए उसने अपनी शैतानी प्रकृति को पूरी तरह से प्रकट किया, जो कि परमेश्वर के प्रति हिंसक है। इन तथ्यों का सामना करते हुए, मुझे यह पता चला कि मुझे लोगों का आकलन बाहरी रूप से नहीं करना चाहिए; मुझे परमेश्वर और सत्य के प्रति उनका रवैया देखना चहिये। अगर वे सत्य को प्रेम नहीं करते हैं और उसे स्वीकार नहीं करते हैं, तो उनका अनुभव या कद-काठी कितनी भी बड़ी हो, वे बाहर से कितने ही प्रभावशाली क्यों न दिखें, वे कितने ही सभ्य क्यों न हों, वे फिर भी वास्तव में भले नहीं हैं।
इस अनुभव के माध्यम से, मैं यह समझ गई कि मैं अब तक लोगों की सच्चाई को न देखते हुए उनके बाह्य आवरण पर ही अपनी राय आधारित कर रही थी। कितनी दयनीय और मूर्ख थी मैं। मुझे यह भी पता चला कि, इतने सालों तक परमेश्वर का अनुसरण करके भी मैं अभी तक सत्य को समझ नहीं पायी थी और निश्चित रूप से मेरा सत्य को प्राप्त करना अभी शेष था। क्योंकि, जिनके पास सत्य होता है केवल वे ही लोगों में अंतर समझ सकते हैं और परिस्थितियों के निहित सत्व को देख सकते हैं; जो लोग सत्य को नहीं समझ सकते वे किसी के भी सत्य को कभी नहीं देख सकते। मैं भविष्य में, सत्य को समझने और सत्य को प्राप्त करने की कोशिश करने, परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और परिस्थितियों में फर्क करना सीखने, अपने सभी बेतुके दृष्टिकोणों को ठीक करने और परमेश्वर के अनुरूप बनने की कोशिश करने के लिए अपने आप को समर्पित करने की प्रतिज्ञा करती हूं।
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