ईर्ष्या को खुद पर हावी न होने दें
2017 की गर्मियों में मैं कलीसिया अगुआ के तौर पर काम कर रही थी। काम की जरूरतों के चलते, उच्च स्तर की अगुआ ने मेरे साथ काम करने के लिए बहन यांग गुआंग और बहन चेंग शिन की व्यवस्था की, जिन्होंने कलीसिया का कार्यभार संभाला, और मुझसे उनकी मदद करने को कहा। कुछ समय बाद, मैंने देखा ये दोनों बहनें अपने कर्तव्य में बोझ उठाती थीं और तेजी से तरक्की कर रही थीं। कुछ चीजों को लेकर मेरी फिक्र खत्म हो गई—दोनों बहनें अपने दम पर चर्चा करके काम संभालने में सक्षम थीं। शुरू में, मैं बहुत खुश थी, मगर जैसे-जैसे समय बीतता गया, मुझे बुरा लगने लगा। मैंने मन-ही-मन सोचा, “मैं अगुआ हूँ, तो सही यही है कि कलीसिया के मामलों पर, चाहे वे छोटे हों या बड़े, पहले मुझसे चर्चा की जाए। लेकिन अब, ये दोनों बहनें बिना मुझसे बात किए ही कुछ चीजों की व्यवस्थाएँ कर रही थीं। वे मुझे गंभीरता से नहीं ले रही थीं! यूँ ही चलता रहा, तो क्या मैं सिर्फ नाम की अगुआ नहीं रह जाऊँगी?”
एक सभा में, सिंचन उपयाजक ने यांग गुआंग और चेंग शिन का जिक्र किया। वह बोली, “वे सच में अपने कर्तव्य में बोझ उठाती हैं। पहले सिंचन-कर्मियों की हमेशा कमी रहती थी, मगर उनके आने के बाद से, न सिर्फ तबादले जल्दी किए जा रहे हैं, बल्कि सिंचन का काम भी काफी प्रभावी हो गया है...।” यह सुनकर, बाहर से तो मैंने परमेश्वर को धन्यवाद दिया, मगर दिल से मैं उतनी खुश नहीं थी, मेरा चेहरा तमतमाने लगा। मैंने मन-ही-मन सोचा, “लगता है दूसरे लोग इन दो बहनों को मुझसे ज्यादा अच्छा मानते हैं। मैं अनेक वर्षों से अगुआ रही हूँ, उन दो बहनों को तो काम करते कुछ ही दिन हुए हैं। क्या वे मुझसे बेहतर हैं?” मैं यह नहीं मानना चाहती थी, आगे सिंचन उपयाजक ने जो भी कहा मैंने सुना ही नहीं। सभा के बाद मैं धीरे-धीरे चलते हुए घर पहुँची। उस रात मैं बिस्तर पर पड़ी करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई। मन में सिंचन उपयाजक की बातें कौंधने पर मैं बहुत परेशान हो जाती। वर्षों से अगुआ रहकर भी मैं इन दो बहनों की बराबरी नहीं कर पा रही थी, जिन्होंने हाल में प्रशिक्षण लेना शुरू किया था। उच्च स्तर की अगुआ को पता लगा, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगी? क्या वे कहेंगी, मैं नाकाबिल थी, अगुआ बनने के लायक नहीं थी? दूसरे मुझे आदर से देखा करते थे, मगर अब क्या वे सोचेंगे कि वे बहनें मुझसे बेहतर हैं? आगे से, क्या वे मेरे बजाय उनका साथ देंगे? लगा, यांग गुआंग और चेंग शिन ने मेरी चमक चुरा ली थी, मैं उनके प्रति जलन और रोष से भर गई। उस दौरान मैं सोचती ही जा रही थी, यही डर लगा रहता था कि मेरा पद सुरक्षित नहीं था। मैंने मन-ही-मन खुद का हौसला बढ़ाया कि मैं अच्छा काम करूँ, सभी प्रोजेक्ट सही ढंग से पूरे करूँ, दूसरों को दिखा दूँ कि आखिर मैं भी उन दो बहनों से कम नहीं हूँ। इसके बाद, हर दिन मैं सुबह जल्द उठ जाती और रात देर तक जागती; सभी अहम प्रोजेक्ट के लिए सबसे आगे रहती और जो समस्याएँ आतीं, उन्हें इस डर से तुरंत निपटा देती थी, कि कहीं बहनें वहाँ मुझसे पहले न पहुँच जाएँ। कभी-कभी यह भी मनाती कि उनसे काम बिगड़ जाए और वे शर्मिंदा हो जाएँ। एक दिन कलीसिया की किताबों की जाँच करते समय, भेजी और प्राप्त की गई प्रतियों की संख्या में गलतियाँ दिखाई पड़ीं। किताबें बाँटने और वापस पाने का काम वे बहनें ही सँभालती थीं, जब वे बेचैनी से इसका कारण खोज रही थीं, तब मैंने न सिर्फ उनकी मदद नहीं की, बल्कि मैं तो यह सोचकर उनके दुर्भाग्य का मजा ले रही थी, “मुझे लगा था कि तुम दोनों बड़ी काबिल हो—अब क्या करोगी?” फटकार के लहजे में मैंने उन्हें बताया कि अगर कलीसिया की किताबों के साथ कोई समस्या हुई, तो ये बहुत बड़ी बात है। यह सुनकर उनका तनाव और बढ़ गया, उनकी हालत पर भी प्रभाव पड़ा। मैं मन-ही-मन काफी खुश थी, “देखते हैं, इतनी बड़ी गलती करने के बाद, क्या अगुआ अभी भी तुम दोनों को मुझसे बेहतर मानेंगी! अगर तुम ऐसी नकारात्मक हालत में पड़ी रहीं, तो मेरे ओहदे को तुम दोनों से खतरा होने की मुझे चिंता नहीं होगी।” तब मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ, एहसास हुआ कि मैं एक सीमा लांघ रही थी, मगर मैंने इस पर ज्यादा सोच-विचार नहीं किया।
बाद में, कुछ कारणों से चेंग शिन के कर्तव्य में बदलाव किया गया, अब मैं और यांग गुआंग ही साथ काम करने को रह गए। एक दिन काम की एक चर्चा के दौरान, मैंने देखा उच्च स्तर की अगुआ हमेशा यांग गुआंग की राय माँग रही थीं, जबकि मैं एक ओर अपमानित-सी बैठी थी। मैं सोचे बिना नहीं रह सकी कि कहीं अगुआ उसे जवान और ज्यादा काबिल मानकर प्रशिक्षण देने की तो नहीं सोच रही थीं। मुझे बहुत निराशा हुई। पहले, अगुआ विषयों पर हमेशा मुझसे चर्चा करती थीं, मगर अब वे यांग गुआंग का इतना मान कर रही थीं। क्या यह नहीं दिखाता कि यांग गुआंग मुझसे बेहतर है? मेरी ईर्ष्या फिर से बाहर आने लगी। उस दौरान, यांग गुआंग के काम में जब कभी भटकाव दिखाए देते, तो मैं उसे डांटती, कभी-कभी उसकी अनदेखी कर देती। मैं हर सभा की अध्यक्षता करने दौड़ती, और दूसरों की समस्याएँ सुलझाती, उसे संगति का मौका नहीं देती। उसकी हालत बद से बदतर हो गई, उसने वह कलीसिया के कार्य में जिम्मेदारी उठानी बंद कर दी; उसने कुछ काम जल्दी से नहीं देखे और इससे कलीसिया के कार्य को बहुत नुकसान हुआ। तब मैंने थोड़ा दोषी महसूस किया। लगा, उसकी नकारात्मक हालत के पीछे मेरा बड़ा हाथ था, मगर मैंने आत्मचिंतन नहीं किया, जब तक परमेश्वर ने मुझे अनुशासित नहीं किया तब तक मुझे अपनी हालत की समझ नहीं आई।
एक दिन मैंने अचानक बीमार और बुखार-सा महसूस किया, और फिर खाँसी आने लगी। सोचा, शायद फिर से दमा जकड़ रहा है, मगर बाद में, मेरी खाँसी और बिगड़ गई, कोई भी दवा काम नहीं कर रही थी। चाहकर भी मैं सभाओं में संगति नहीं कर पा रही थी। मैं जाँच के लिए डॉक्टर के पास गई, वहाँ मुझे बताया गया कि मुझे गंभीर ब्रॉन्कीएक्टैसिस और टीबी था। डॉक्टर ने कहा ये बड़े गंभीर रोग थे, और इन पर काबू पाने के लिए साल भर से ज्यादा दवाएं लेनी पड़ेंगी। यह सुनकर मैं अवाक-सी बस बैठी रही, बहुत दुखी हो गई। मुझे पहले टीबी हुआ था और इसका इलाज बहुत मुश्किल था। यह फिर से कैसे हो गया, और इस बार यह इतना गंभीर हो गया? टीबी संक्रामक बीमारी होने के कारण मैं किसी भाई-बहन से मिल-जुल नहीं सकती थी। यानी मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती थी। आस्था के तमाम वर्षों में, मैंने हमेशा कर्तव्य निभाया था। खुद को खपाने के लिए परिवार और नौकरी तक छोड़ दी थी। खास तौर से उस वक्त, कलीसिया का काम जोरों पर था, और मैं सबसे आगे थी। मुझे ऐसी गंभीर बीमारी क्यों हो गई? परमेश्वर का इरादा क्या था? इस बारे में जितना सोचती, उतना ही बुरा लगता, मैं अक्सर रजाई में मुँह छिपाकर रोती रहती थी। एक बार, मैंने रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! बहुत पीड़ा हो रही है। नहीं जानती इससे कैसे बाहर निकलूँ। मुझे प्रबुद्ध करो, ताकि मैं तुम्हारे इरादे समझ सकूँ और इस बीमारी के जरिए सबक सीख सकूँ।”
एक दिन, मैंने अपने धार्मिक कार्यों में परमेश्वर के ये वचन पढ़े। परमेश्वर कहता है : “आम तौर पर जब तुम किसी गंभीर या अजीब बीमारी का सामना करते हो और बेहद पीड़ा झेलते हो तो ऐसा संयोगवश नहीं होता। चाहे तुम बीमार हो या खूब तंदुरुस्त हो, इसके पीछे परमेश्वर का इरादा होता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है)। इस पर मनन कर मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने मुझे इतनी गंभीरता से बीमार होने दिया, यह कोई इत्तफाक नहीं था, इसमें जरूर उसका इरादा छिपा है। मुझे गंभीरता से अपनी जाँच करनी चाहिए। मैंने बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य की खोज की। आत्मचिंतन के दौरान, मुझे एकाएक एहसास हुआ कि इस दौरान यांग गुआंग से मेरी निरंतर ईर्ष्या, और शोहरत और लाभ के लिए मेरे निरंतर संघर्ष से, उन दोनों ने बेबस महसूस किया और इससे कलीसिया के कार्य पर बुरा असर पड़ा। जब मुझे यह समझ आया, तो मैं दोषी महसूस कर पछतावे से भर गई। परमेश्वर के वचनों में मैंने यह पढ़ा : “क्रूर मानवजाति! साँठ-गाँठ और साज़िश, एक-दूसरे से छीनना और हथियाना, प्रसिद्धि और संपत्ति के लिए हाथापाई, आपसी कत्लेआम—यह सब कब समाप्त होगा? परमेश्वर द्वारा बोले गए लाखों वचनों के बावजूद किसी को भी होश नहीं आया है। लोग अपने परिवार और बेटे-बेटियों के वास्ते, आजीविका, भावी संभावनाओं, हैसियत, महत्वाकांक्षा और पैसों के लिए, भोजन, कपड़ों और देह-सुख के वास्ते कार्य करते हैं। पर क्या कोई ऐसा है, जिसके कार्य वास्तव में परमेश्वर के वास्ते हैं? यहाँ तक कि जो परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं, उनमें से भी बहुत थोड़े ही हैं, जो परमेश्वर को जानते हैं। कितने लोग अपने स्वयं के हितों के लिए काम नहीं करते? कितने लोग अपनी हैसियत बचाए रखने के लिए दूसरों पर अत्याचार या उनका बहिष्कार नहीं करते?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बुरे लोगों को निश्चित ही दंड दिया जाएगा)। “कुछ लोग हमेशा इस बात से डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊपर हैं, अन्य लोगों को पहचान मिलेगी, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है, और इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह प्रतिभाशाली लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या यह स्वार्थपूर्ण और निंदनीय नहीं है? यह कैसा स्वभाव है? यह दुर्भावना है! जो लोग दूसरों के बारे में सोचे बिना या परमेश्वर के घर के हितों को ध्यान में रखे बिना केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, जो केवल अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं, वे बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर में उनके लिए कोई प्रेम नहीं होता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर ने जिसका खुलासा किया वही मेरी अवस्था थी। जब से मैंने उन दोनों बहनों को कुशलता से अपना कर्तव्य निभाते, तेजी से आगे बढ़ते, और मुझसे चर्चा किए बिना थोड़े काम संभालते देखा, मैं बेचैन हो गई थी, मैंने सोचा कि वे मेरा आदर नहीं करते। जब उस सिंचन उपयाजक ने कर्तव्य में प्रभावी होने पर उनकी प्रशंसा की, तो मुझे और ज्यादा लगा मानो वे मेरे ओहदे के लिए खतरा हैं, और उन्होंने मेरी चमक चुरा ली है। खुद को उनसे बेहतर साबित कर अपना ओहदा सुरक्षित रखने के लिए, सभाओं में संगति करते समय मैं उनसे आगे रहती और बढ़-चढ़कर दूसरों की समस्याएँ सुलझाती, उन्हें संगति करने का मौका ही नहीं देती थी। जब कलीसिया की किताबों की संख्या का मिलान नहीं हो पाया, तो मैं इसका कारण ढूँढ़ने में उनकी मदद करने के बजाय, उनकी मुसीबत का मजा लेती रही और ताने मारे, जिससे वे नकारात्मकता में जीने लगीं। मैं इतनी ज्यादा विद्वेषी थी। यह सोचकर मैंने दोषी महसूस किया, मुझे पछतावा हुआ, मैंने रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! तेरे अनुग्रह से ही मैं कलीसिया के कार्य का निरीक्षण करने में सक्षम हुई, पर मैं बहुत विद्रोही रही हूँ। न केवल मैंने अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने और तुम्हारे प्रेम की कीमत चुकाने में अक्षम रही हूँ, बल्कि मैं मुझसे अधिक काबिल लोगों से जलती भी रही, और अपने शोहरत और लाभ के लिए लड़ती रही। मेरा बर्ताव तुम्हारे लिए चिढ़ पैदा करने वाला और घिनौना है। हे परमेश्वर, मैं प्रायश्चित कर बदलना चाहती हूँ।”
उसके बाद, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “कोई समस्या आने पर, कुछ लोग दूसरों से उत्तर खोजते हैं, लेकिन जब वह व्यक्ति सत्य के अनुसार बोलता है, तो वे उसकी बात को स्वीकार नहीं करते, वे मानने को तैयार नहीं हो पाते और मन ही मन सोचते हैं, ‘मैं उससे बेहतर हूँ। अगर मैं इस बार उसके सुझाव सुन लेता हूँ, तो क्या ऐसा नहीं लगेगा कि वह मुझसे श्रेष्ठ है? नहीं, मैं इस मामले में उसकी बात नहीं सुन सकता। मैं यह काम सिर्फ अपने तरीके से करूंगा।’ फिर वे दूसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण को नकारने का कोई कारण और बहाना ढूंढ लेते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को देखता है जो उनसे बेहतर है, तो लोगों के मन में अपनी जगह बचाए रखने के लिए वह उन्हें नीचे गिराने की कोशिश करता है, उनके बारे में अफवाहें फैलाता है, या उन्हें बदनाम करने और उनकी प्रतिष्ठा कम करने के लिए कुछ घिनौने तरीकों का इस्तेमाल करता है—यहाँ तक कि उन्हें रौंदता है—यह किस तरह का स्वभाव है? यह केवल अहंकार और दंभ नहीं है, यह शैतान का स्वभाव है, यह द्वेषपूर्ण स्वभाव है। यह व्यक्ति अपने से बेहतर और मजबूत लोगों पर हमला कर सकता है और उन्हें अलग-थलग कर सकता है, यह कपटपूर्ण और दुष्ट है। वह लोगों को नीचे गिराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगा, यह दिखाता है कि उसके अंदर का दानव काफी बड़ा है! शैतान के स्वभाव के अनुसार जीते हुए, संभव है कि वह लोगों को कमतर दिखाए, उन्हें फँसाने की कोशिश करे, और उनके लिए मुश्किलें पैदा कर दे। क्या यह कुकृत्य नहीं है? इस तरह जीते हुए, वह अभी भी सोचता है कि वह ठीक है, अच्छा इंसान है—फिर भी जब वह अपने से बेहतर व्यक्ति को देखता है, तो संभव है कि वह उसे परेशान करे, उसे पूरी तरह कुचले। यहाँ मुद्दा क्या है? जो लोग ऐसे बुरे कर्म कर सकते हैं, क्या वे अनैतिक और स्वेच्छाचारी नहीं हैं? ऐसे लोग केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, वे केवल अपनी भावनाओं का खयाल करते हैं, और वे केवल अपनी इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और अपने लक्ष्यों को पाना चाहते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि वे कलीसिया के कार्य को कितना नुकसान पहुँचाते हैं, और वे अपनी प्रतिष्ठा और लोगों के मन में अपने रुतबे की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हितों का बलिदान करना पसंद करेंगे। क्या ऐसे लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट, स्वार्थी और नीच नहीं होते? ऐसे लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट ही नहीं, बल्कि बेहद स्वार्थी और नीच भी होते हैं। वे परमेश्वर के इरादों को ले कर बिल्कुल विचारशील नहीं हैं। क्या ऐसे लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है? उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। यही कारण है कि वे बेतुके ढंग से आचरण करते हैं और वही करते हैं जो करना चाहते हैं, उन्हें कोई अपराध-बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती, और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते। यही वे अक्सर करते हैं, और इसी तरह उन्होंने हमेशा आचरण किया है। इस तरह के आचरण की प्रकृति क्या है? हल्के-फुल्के ढंग से कहें, तो इस तरह के लोग बहुत अधिक ईर्ष्यालु होते हैं और उनमें अपनी निजी प्रतिष्ठा और हैसियत की बहुत प्रबल आकांक्षा होती है; वे बहुत धोखेबाज और धूर्त होते हैं। और अधिक कठोर ढंग से कहें, तो समस्या का सार यह है कि इस तरह के लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। उन्हें परमेश्वर का भय नहीं होता, वे अपने आपको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, और वे अपने हर पहलू को परमेश्वर से भी ऊंचा और सत्य से भी बड़ा मानते हैं। उनके दिलों में, परमेश्वर जिक्र करने के योग्य नहीं है और महत्वहीन है, उनके दिलों में परमेश्वर का बिल्कुल भी महत्व नहीं होता। क्या वो लोग सत्य का अभ्यास कर सकते हैं जिनके हृदयों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, और जिनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है? बिल्कुल नहीं। इसलिए, जब वे सामान्यतः मुदित मन से और ढेर सारी ऊर्जा खर्च करते हुए खुद को व्यस्त बनाये रखते हैं, तब वे क्या कर रहे होते हैं? ऐसे लोग यह तक दावा करते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के लिए खपाने की खातिर सब कुछ त्याग दिया है और बहुत अधिक दुख झेला है, लेकिन वास्तव में उनके सारे कृत्य, निहित प्रयोजन, सिद्धान्त और लक्ष्य, सभी खुद के रुतबे, प्रतिष्ठा के लिए हैं; वे केवल सारे निजी हितों की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। तुम लोग ऐसे व्यक्ति को बहुत ही बेकार कहोगे या नहीं कहोगे? किस तरह के लोगों में कई वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी, परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता? क्या वे अहंकारी नहीं हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? और किन चीजों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल सबसे कम होता है? जानवरों के अलावा, बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों में, दानवों और शैतान के जैसों में। वे सत्य को जरा-भी नहीं स्वीकारते; उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। वे किसी भी बुराई को करने में सक्षम हैं; वे परमेश्वर के शत्रु हैं, और उसके चुने हुए लोगों के भी शत्रु हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। लगा जैसे परमेश्वर मेरे सामने हो, मेरा न्याय कर रहा हो। मैं सोचती थी, चूँकि मैं कई वर्षों से अगुआ हूँ, तो जरूर दूसरों से अधिक काबिल और बेहतर हूँ, इसलिए खुद से ज्यादा काबिल किसी भी व्यक्ति से मैं ईर्ष्या करती और उसे ठुकराती थी। मैं जानती थी, ये दो बहनें ज्यादा काबिल थीं, कर्तव्य में वे बोझ उठातीं थीं और प्रभावी थीं—यह कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश के लिए अच्छी बात थी। लेकिन मैंने इन पर ध्यान नहीं दिया, मैंने बस अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की परवाह की। मैंने उनके साथ छिपकर लड़ती रही, उनके काम के भटकाव और कमियाँ ढूँढ़ीं, ताकि उन्हें परेशान और शर्मिंदा कर सकूँ। जिसके कारण उनकी हालत बुरी हो गई और कर्तव्य में वे जिम्मेदारी नहीं उठा पाईं, इससे कलीसिया के कार्य को भी नुकसान पहुँचा। अपना रुतबा बनाए रखने के लिए, मैं अपने से ज्यादा प्रतिभाशाली लोगों से ईर्ष्या करती थी, मैंने उन दो बहनों को, जो वास्तविक काम कर सकती थीं, इतना बेबस किया कि वे नकारात्मक हो गईं। ऐसा करके, मैं कलीसिया का कार्य बाधित कर रही थी, कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचा। मुझमें जरा भी मानवता नहीं थी। मैं सिर्फ और सिर्फ शैतानी स्वभाव दिखा रही थी। शैतान लोगों को बढ़िया काम करते देख नहीं सकता, वह बेताब रहता है कि वे नकारात्मक होकर पतित हो जाएँ, परमेश्वर को धोखा दे दें। मैं शैतान की चाकर जैसी थी, कलीसिया के काम को बाधित कर रही थी। कलीसिया अगुआ के तौर पर, मुझे परमेश्वर के इरादों का ख्याल करना चाहिए, कलीसिया के लिए लोगों को तैयार करना चाहिए, ताकि मेरे भाई-बहन अपने कर्तव्य निभा सकें। मगर मैं न सिर्फ प्रतिभाशाली लोगों को तैयार करने में नाकाम रही, बल्कि मैंने उनसे ईर्ष्या की और उनका दमन किया। यह अपना कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? मैं बस कुकर्म कर परमेश्वर का विरोध कर रही थी।
एक दिन, मैंने एक बहन के सामने खुलकर अपनी ईर्ष्यालु अवस्था पर संगति की। उसने मेरी बात सुनी, फिर उसने मुझे दाऊद से शाऊल की ईर्ष्या की मिसाल दी। वह बोली, “यह देखकर कि परमेश्वर युद्ध जीतने के लिए दाऊद का इस्तेमाल कर रहा था और सारे इस्राएली उसका साथ देते थे, शाऊल दाऊद से जलने लगा और उसकी जान लेने की कोशिश में लगा रहा। अंत में परमेश्वर ने शाऊल को घृणा से ठुकरा दिया, दंड दिया।” यह सुनकर मैं सिहर उठी। अपने हाल के बर्ताव के बारे में सोचने लगी। जब उन दो बहनों को अपने कर्तव्य में कुछ अच्छे नतीजे हासिल किए, मैं उनसे जलने लगी, और हर मोड़ पर उन्हें बेबस कर दबाने लगी। मैं बस उनके लिए मुश्किलें ही नहीं खड़ी कर रही थी, बल्कि खुद को भी परमेश्वर का दुश्मन बना रही थी। क्या मैं ठीक शाऊल जैसी नहीं थी? इस बारे में सोचकर मुझे थोड़ा डर लगा, और मुझे एहसास हुआ कि यह सही समय पर परमेश्वर की ताड़ना और अनुशासन का मुझे कुकर्म की राह में जाने से रोकना था। अगर मैं ऐसी ही रही, तो परिणामों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। बाद में, मैंने इस पर कई बार सोचा : अच्छी तरह जानते हुए भी कि परमेश्वर को ईर्ष्या पसंद नहीं है, क्यों मैं दूसरों को किनारे करने से खुद को रोक नहीं सकी? मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो कहता है : “मसीह-विरोधी के सार की सबसे स्पष्ट विशेषताओं में से एक यह होती है कि वे अपनी सत्ता का एकाधिकार और अपनी तानाशाही चलाते हैं : वे किसी की नहीं सुनते हैं, किसी का आदर नहीं करते हैं, और लोगों की क्षमताओं की परवाह किए बिना, या इस बात की परवाह किए बिना कि वे क्या सही विचार या बुद्धिमत्तापूर्ण मत व्यक्त करते हैं और कौन-से उपयुक्त तरीके सामने रखते हैं, वे उन पर कोई ध्यान नहीं देते; यह ऐसा है मानो कोई भी उनके साथ सहयोग करने या उनके किसी भी काम में भाग लेने के योग्य न हो। मसीह-विरोधियों का स्वभाव ऐसा ही होता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह बुरी मानवता वाला होना है—लेकिन यह सामान्य बुरी मानवता कैसे हो सकती है? यह पूरी तरह से एक शैतानी स्वभाव है; और ऐसा स्वभाव अत्यंत क्रूरतापूर्ण है। मैं क्यों कहता हूँ कि उनका स्वभाव अत्यंत क्रूरतापूर्ण है? मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर और कलीसिया की संपत्ति से सब-कुछ हर लेते हैं और उससे अपनी निजी संपत्ति के समान पेश आते हैं जिसका प्रबंधन उन्हें ही करना हो, और वे इसमें किसी भी दूसरे को दखल देने की अनुमति नहीं देते हैं। कलीसिया का कार्य करते समय वे केवल अपने हितों, अपनी हैसियत और अपने गौरव के बारे में ही सोचते हैं। वे किसी को भी अपने हितों को नुकसान नहीं पहुँचाने देते, किसी योग्य व्यक्ति को या किसी ऐसे व्यक्ति को, जो अनुभवजन्य गवाही देने में सक्षम है, अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत को खतरे में डालने तो बिल्कुल भी नहीं देते। ... जब कोई व्यक्ति थोड़ा कार्य करके अलग दिखने लगता है, या जब कोई सच्ची अनुभवजन्य गवाही बताने में सक्षम होता है, और इससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को लाभ, शिक्षा और सहारा मिलता है और इसे सभी से बड़ी प्रशंसा प्राप्त होती है, तो मसीह-विरोधियों के मन में ईर्ष्या और नफरत पैदा हो जाती है, और वे उस व्यक्ति को अलग-थलग करने और दबाने की कोशिश करते हैं। वे किसी भी परिस्थिति में ऐसे लोगों को कोई काम नहीं करने देते, ताकि उन्हें अपने रुतबे को खतरे में डालने से रोक सकें। ... मसीह-विरोधी मन-ही-मन सोचते हैं, ‘मैं इसे कतई बरदाश्त नहीं करूँगा। तुम मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए मेरे क्षेत्र में एक भूमिका पाना चाहते हो। यह असंभव है; इसके बारे में सोचना भी मत। तुम मुझसे अधिक शिक्षित हो, मुझसे अधिक मुखर हो, और मुझसे अधिक लोकप्रिय हो, और तुम मुझसे अधिक परिश्रम से सत्य का अनुसरण करते हो। अगर मुझे तुम्हारे साथ सहयोग करना पड़े और तुम मेरी सफलता चुरा लो, तो मैं क्या करूँगा?’ क्या वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हैं? नहीं। वे किस बारे में सोचते हैं? वे केवल यही सोचते हैं कि अपनी हैसियत कैसे बनाए रखें। हालाँकि मसीह-विरोधी जानते हैं कि वे वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हैं, फिर भी वे सत्य का अनुसरण करने वाले और अच्छी योग्यता वाले लोगों को विकसित नहीं करते या बढ़ावा नहीं देते; वे केवल उन्हीं को बढ़ावा देते हैं जो उनकी चापलूसी करते हैं, जो दूसरों की आराधना करने को तत्पर रहते हैं, जो अपने दिलों में उनका अनुमोदन और सराहना करते हैं, जो सहज संचालक हैं, जिन्हें सत्य की कोई समझ नहीं और जो अच्छे-बुरे की पहचान करने में असमर्थ हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधियों को कलीसिया के कार्य का जरा भी ख्याल नहीं है, वे बस सत्ता पर कब्जा चाहते हैं। वे कलीसिया को अपने काबू में लाते हैं, किसी दूसरे को उससे जुड़ने नहीं देते। अपने रुतबे के लिए खतरा बनने वाले किसी को भी दूर रख उसका दमन करते हैं, दूसरों की खूबियों और गुणों को छिपाने के लिए बड़े ज़ोर-शोर से काम करते हैं। मैं ठीक मसीह-विरोधी जैसा बर्ताव कर रही थी। अपना रुतबा मजबूत करने के लिए, मैं हमेशा सत्ता पर दबदबा चाहती थी और कलीसिया में निर्णय लेने वाली अकेली इंसान बनना चाहती थी। मैं इन विचारों पर कायम थी कि “सिर्फ एक अल्फा पुरुष हो सकता है” और “सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ,” और मैं किसी और को खुद से आगे नहीं जाने देती थी। जब दो बहनें किसी मामले को देख रही थीं और मुझसे उन पर चर्चा नहीं कर रही थीं, तो मुझे लगा कि वे मुझे गंभीरता से नहीं ले रहीं जबकि मैं अगुआ हूँ, इसलिए कलीसिया के मामले पहले मेरे पास लाए जाने चाहिए। जब उनके कामों में समस्याएँ आईं, तो मैंने मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर बताया और उनकी आलोचना की और जानबूझकर उन्हें खुद को मूर्ख बनने दिया। मैं खुद ही सभाओं की मेजबानी करती, उन बहनों को संगति करने का मौका न देती। और मैंने उनके बारे में उनकी पीठ पीछे अपमानजनक बातें भी कहीं ताकि सुपरवाइजर को लगे कि वे संगति करने के लिए इच्छुक नहीं हैं और सभाओं में हमेशा अजीब सी खामोशी अख्तियार किए रहती हैं, कि मैं ही हमेशा मेजबानी करती हूँ, मानो सारा श्रेय सिर्फ मुझे ही जाता है। मेरा स्वभाव धोखेबाज और दुष्ट था और मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। उस मुकाम पर समझ आया कि परमेश्वर की ताड़ना और अनुशासन, उसके वचनों के न्याय और प्रकाशन के बिना, मैं अपने कर्मों की गंभीर प्रकृति कभी नहीं देख पाती। मैंने अपनी साथी बहनों को न केवल दबाया था और नुकसान पहुँचाया था, बल्कि मैंने अपराध और बुरे कर्म भी किए थे। उस दौरान, मैंने खुद को धिक्कारा और मुझे बहुत पछतावा हुआ। बुरे काम करने की वजह से मुझे पश्चात्ताप हुआ कि मैंने अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाया था, मुझे लगा मैं परमेश्वर की बहुत ऋणी हूँ।
इसके बाद मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “कलीसिया का अगुआ होने के नाते तुम्हें समस्याएँ सुलझाने के लिए केवल सत्य का प्रयोग सीखने की आवश्यकता ही नहीं है, बल्कि प्रतिभाशाली लोगों का पता लगाने और उन्हें विकसित करना सीखने की आवश्यकता भी है, जिनसे तुम्हें बिल्कुल ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए या जिनका बिल्कुल दमन नहीं करना चाहिए। इस तरह के अभ्यास से कलीसिया के काम को लाभ पहुँचता है। अगर तुम अपने कार्यों में सहयोग के लिए सत्य के कुछ खोजी तैयार कर सको और सारा काम अच्छी तरह से करो, और अंत में, तुम सभी के पास अनुभवजन्य गवाहियाँ हों, तो तुम एक योग्य अगुआ या कार्यकर्ता होंगे। यदि तुम हर चीज़ सिद्धांतों के अनुसार संभाल सको, तो तुम अपनी वफादारी निभा रहे हो। ... अगर तुम वाकई परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने में सक्षम होंगे। अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो और उसे प्रशिक्षण प्राप्त करने और कोई कर्तव्य निर्वहन करने देते हो, और इस तरह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति को परमेश्वर के घर में शामिल करते हो, तो क्या उससे तुम्हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या यह तुम्हारा कर्तव्य के प्रति वफादारी प्रदर्शित करना नहीं होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; अगुआ के रूप में सेवाएँ देने वालों के पास कम-से-कम इतनी अंतश्चेतना और तर्क तो होना ही चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि अगुआओं और कर्मियों को प्रतिभाशाली लोगों को खोजने और विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए। अपने हितों के लिए उन्हें दबाने और उनसे ईर्ष्या करने से, परमेश्वर को चिढ़ होती है। उन बहनों के साथ काम करने पर मुझे जो पछतावा हुआ था, उसके बारे में सोचकर, मैंने एक संकल्प लिया। आगे से किसी के साथ भी काम क्यों न करूँ, मैं कलीसिया के हितों को आगे रखूँगी, जो भी प्रतिभाशाली लोग दिखेंगे, उनकी तुरंत सिफारिश करूँगी, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करूँगी। बाद में, एक सभा में मैंने दूसरों के सामने अपनी भ्रष्टता का खुलासा कर विश्लेषण किया, और दूसरों के साथ काम करते हुए मैं खुद को निरंतर याद दिलाती रही कि उनके साथ सहयोग करना है, उनकी खूबियों से सीखना है और कलीसिया के कार्य में बाधा डालने का कोई काम नहीं करना है।
कुछ समय बीतने के बाद, मैं अपनी बीमारी से थोड़ा उबर पाई, और कलीसिया ने मेरे लिए वीडियो बनाने के काम की व्यवस्था की। जल्द ही, कलीसिया ने कहा कि मैं एक बहन को थोड़ा तकनीकी प्रशिक्षण दूँ। उसकी काबिलियत अच्छी थी, वह जल्द सीख लेती थी। मैंने सोचा, “अगर उसने ये सारी तकनीक सीख ली, तो क्या वह मेरी जगह ले लेगी? अगर अगुआ देखें कि यह बहन मेरी अपेक्षा तेज सीखती है, तो क्या वे मुझे नीची नजर से देखेंगी?” ये सब सोचकर मैं उसे लगन से प्रशिक्षण नहीं देना चाहती थी। फिर मुझे एहसास हुआ, मेरी हालत सही नहीं थी, तो मैं तुरंत प्रार्थना करने चली गई, परमेश्वर से अपने दिल की निगरानी करने को कहा। परमेश्वर के वचनों में से मुझे कुछ याद आय : “तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियतकी स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचन ने मुझे सामी से चेताया और मैंने अपनी गलत सोच के विरुद्ध विद्रोह कर उस बहन को प्रशिक्षित करने की भरसक कोशिश की। कुछ ही दिन बाद, वह अपने दम पर वीडियो बनाने लगी। साथ काम करने से हमारे कर्तव्य की उत्पादकता थोड़ी बढ़ गई थी। यह अनुभव करने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मेल-जोल वाले सहयोग से हमें दिल से आनंद और शांति मिलती है। मेलजोल से सहयोग करने से ही हम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन पा सकते हैं और हमारे कर्तव्य में अच्छे नतीजे मिल सकते हैं। मुझमें हुआ यह बदलाव पूरी तरह परमेश्वर के वचनों से हासिल हुआ है। परमेश्वर का धन्यवाद!
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