लोगों को हीन मानकर फटकारने से मेरी बदसूरती उजागर हुई
पिछले साल अक्तूबर में मैं कलीसिया का सुसमाचार-कार्य देख रहा था। कलीसिया के कुछ नए सदस्यों ने हाल ही में कर्तव्य निभाना शुरू किया था, इसलिए मैं अक्सर उनसे सुसमाचार साझा करने के सिद्धांतों पर संगति करता, और सुसमाचार साझा करने के लिए उन्हें बाहर ले जाता। कुछ समय बाद उन सबने थोड़ी प्रगति कर ली, और मुझे अच्छा लगा। उन्हें जल्द-से-जल्द स्वतंत्र रूप से काम करने देने के लिए मैंने उन्हें खुद सुसमाचार साझा करने का अभ्यास करने दिया। शुरू-शुरू में, समस्याएँ आने पर मैं प्रेम से उनकी सहायता करता, पर कुछ समय बाद मैं उकताने लगा। मुझे उनसे घृणा होने लगी : "मैं तो पहली बार में ही किसी के सिखाने से सीख जाता था। मैंने आप सबको सिखाने में काफी समय लगाया है, फिर भी आपके मन में इतने सवाल क्यों हैं? मेरे सिखाते समय क्या आप ध्यान नहीं दे रहे थे? लंबे समय के बाद भी अगर आप लोग स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकते, तो उच्च अगुआ जरूर कहेंगे कि मैं इस काम में दक्ष नहीं हूँ और लोगों को ठीक से प्रशिक्षित नहीं कर सकता। यह नहीं चलेगा। मुझे आप लोगों को खरी-खोटी सुनानी होगी और सबक सिखाना होगा।" यह सब सोचकर मैंने उन्हें गुस्से से फटकार लगाई। एक बार, मुझे बहन आई ने फोन कर कहा : "भाई, मैं आपसे पूछना चाहती हूँ, आज रात की सभा में हम परमेश्वर के वचनों के किस पहलू पर संगति करेंगे?" मैंने सोचा : "मैं आपको बता चुका हूँ, फिर आप अब भी कैसे नहीं जानतीं? क्या आप मेरी बात नहीं सुन रही थीं?" तो, ऊँचे, आक्रामक स्वर में मैंने उससे कहा : "आपने मेरी भेजी हुई पिछली फाइल पढ़ी या नहीं? आपको हर बार मुझसे पूछने की जरूरत क्यों पड़ती है?" बहन ने जवाब नहीं दिया और मैंने गुस्से से फोन रख दिया। बाद में, मुझे अपने किए का एहसास हुआ, तो मैंने थोड़ा दोषी महसूस किया। पर फिर मैंने सोचा, "यह बात मैंने उनकी भलाई के लिए ही कही थी। वरना, मेरे भरोसे रहने से वे भला तरक्की कैसे कर सकेंगी? यह दरअसल उनके लिए मददगार रहा होगा।" यह सोचकर मैंने चिंता करना छोड़ दिया।
अगले दिन मेरे साथी भाई ने कहा : "बहन आई ने मुझे बताया कि कल जब उन्होंने आपसे एक सवाल पूछा, तो आप गुस्सा हो गए थे। उन्होंने यह भी कहा कि वे आपसे बहुत बेबसी और डर महसूस करती हैं।" मैंने यह सुना तो मुझे विश्वास नहीं हुआ, और मैं मन में बहाने बनाने लगा : "मेरा लहजा थोड़ा सख्त रहा होगा, पर यह सब उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने हेतु प्रेरित करने के लिए था। अगर मैं ऐसे न कहूँ, तो हर बार सवाल होने पर वे मेरे पास आती रहेंगी। फिर वे कभी स्वतंत्र कैसे बन सकेंगी?" तब मैंने सोचा : "हो सकता है, मैंने कुछ अनुचित बोल दिया हो। आखिर बहन आई ने अभी-अभी प्रशिक्षण लेना शुरू किया है। मुझे स्नेह से उनकी मदद करनी चाहिए, गुस्सा होकर डांटना नहीं चाहिए।" तो मैंने क्षमा-याचना के लिए उन्हें संदेश भेजा : "कल मैंने गलती कर दी। मुझे आप पर ऐसे गुस्सा नहीं करना चाहिए था। उम्मीद है, आप समझ जाएँगी, कृपया बुरा न मानें। उस वक्त मेरा मिजाज ठीक नहीं था, इसलिए आपको परेशान कर दिया।" बहन आई ने जवाब में कहा, कोई बात नहीं। इसके बाद, मैंने आत्म-चिंतन कर खुद को ज्यादा नहीं जाना।
कुछ समय बाद, मुझे प्रचारक चुन लिए जाने पर कुछ और जिम्मेदारियां मिल गईं। कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने हाल ही में प्रशिक्षण लेना शुरू किया था और वे कलीसिया-कार्य से परिचित नहीं थे, इसलिए मैं अक्सर कार्य के सिद्धांतों पर उनके साथ संगति करता। मैं उनके काम की भी जाँच करता और उन्हें विस्तृत मार्गदर्शन और सहायता देता। शुरू-शुरू में, उनके सवालों पर मैं धैर्य से उनके साथ संगति करता। लेकिन अगर वे बार-बार पूछते, तो मैं अधीर हो जाता। उन्हें यह कहकर फटकारता : "आपके दिमाग में यह घुस क्यों नहीं रहा? जब मैंने पहले-पहल कलीसिया में काम शुरू किया था, तो मुझे अपने अगुआ द्वारा सौंपे गए सभी कार्य स्पष्ट याद रहते थे, और मैं उन्हें तेजी और दक्षता से पूरा कर देता था। मैंने आपको सब-कुछ बता दिया है, और विस्तृत निर्देश दे दिए हैं, तो आप चीजें समझ क्यों नहीं पाते?" वे जवाब में एक शब्द भी न बोलते।
अगले दिन, एक अगुआ ने मुझे यह संदेश भेजा : "मैं नालायक इस काम के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। मेरी जगह किसी और को ढूँढ़ लें।" मैं बुरी तरह चौंक गया : वे नए प्रशिक्षणार्थियों में श्रेष्ठ लोगों में से एक हैं। वे ऐसा क्यों सोचती हैं? फिर एक और अगुआ ने मुझे यह संदेश भेजा : "कुछ लोग कह रहे हैं कि आप उन्हें बहुत बेबस कर देते हैं।" तब जाकर मैंने आत्म-चिंतन शुरू किया। मुझे एहसास हुआ कि मैं दूसरों की खामियों से सही ढंग से नहीं निपटता। धैर्य से उनका मार्गदर्शन और सहायता करने के बजाय मैं गुस्सा होकर उन्हें फटकारता था। नतीजतन, वे बेबस महसूस करते थे। बाद में, मैंने सुना कि एक बहन बेबस होने से इतनी निराश हो गई थी कि दस से भी ज्यादा दिनों तक उसने अपना कर्तव्य नहीं निभाया। यह सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा। यकीन नहीं हुआ कि मैंने उनका दिल इतना ज्यादा दुखाया था। मैं व्याकुल हो गया, और सोचने लगा कि मैं गुस्सा करके सब पर इतना बुरा प्रभाव क्यों डालता हूँ। इसलिए मैंने परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना की : "प्यारे परमेश्वर, मैं भाई-बहनों पर गुस्सा नहीं दिखाना चाहता, लेकिन जब भी कुछ होता है, मैं अपने आवेश पर काबू नहीं रख पाता। मैं यह समस्या कैसे सुलझाऊँ? मेरी अगुआई कर मुझे रास्ता दिखाओ।"
बाद में, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला। परमेश्वर कहते हैं, "एक बार जब मनुष्य को हैसियत मिल जाती है, तो उसे अकसर अपनी मन:स्थिति पर नियंत्रण पाने में कठिनाई महसूस होगी, और इसलिए वह अपना असंतोष व्यक्त करने और अपनी भावनाएँ प्रकट करने के लिए अवसरों का इस्तेमाल करने में आनंद लेता है; वह अकसर बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के क्रोध से आगबबूला हो जाता है, ताकि वह अपनी योग्यता दिखा सके और दूसरे जान सकें कि उसकी हैसियत और पहचान साधारण लोगों से अलग है। निस्संदेह, बिना किसी हैसियत वाले भ्रष्ट लोग भी अकसर नियंत्रण खो देते हैं। उनका क्रोध अकसर उनके निजी हितों को नुकसान पहुँचने के कारण होता है। अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए वे बार-बार अपनी भावनाएँ जाहिर करते हैं और अपना अहंकारी स्वभाव दिखाता है। मनुष्य पाप के अस्तित्व का बचाव और समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला हो जाता है, अपनी भावनाएँ जाहिर करता है, और इन्हीं तरीकों से मनुष्य अपना असंतोष व्यक्त करता है; वे अशुद्धताओं, कुचक्रों और साजिशों से, मनुष्य की भ्रष्टता और बुराई से, और अन्य किसी भी चीज़ से बढ़कर, मनुष्य की निरंकुश महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से लबालब भरे हैं" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी मौजूदा स्थिति उजागर कर दी। मैंने विचार किया कि अपना पद बचाए रखने के लिए मैं कैसे गुस्सा होता हूँ। आम तौर पर, मुझे काम के अच्छे नतीजे मिलते थे और लोग मुझे काबिल अगुआ मानते थे। लेकिन इन भाई-बहनों के प्रशिक्षण का काम मिलने पर, अगर मैं लंबे समय के बाद भी उन्हें स्वयं काम करने में सक्षम नहीं बना पाया, तो उच्च अगुआ जरूर कहेंगे कि मैं सक्षम नहीं हूँ। इसलिए बार-बार सिखाने के बावजूद जब भाई-बहन समझ न पाते, तो मैं बहुत प्रतिरोधी और बेसब्र हो जाता। जब वे सवाल लेकर मेरे पास आते, तो उन पर गुस्सा करता, उन्हें फटकारता और उनकी आलोचना करता। मैं खुद से उनकी तुलना करता, और उनके प्रति शिकायत और घृणा से भर जाता। नतीजतन, वे सब बेबस महसूस करते, और इतने निराश हो जाते कि अपना कर्तव्य भी न निभाना चाहते। जब दूसरे मेरी समस्या बताते, तब भी मैं उसे सुलझाने के लिए सत्य न खोजता था। हालाँकि मैंने बहन आई से माफी माँग ली, फिर भी मेरे शब्दों का निहित और स्पष्ट उद्देश्य अपना रुतबा और छवि बचाना, और बहन आई को यह दिखाना था कि मैं विरले ही नाराज होता हूँ, आम तौर पर ऐसा नहीं होता, ताकि मेरी झूठी क्षमा-प्रार्थना से वह यह सोचे कि दरअसल मैं बहुत विवेकशील हूँ। मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : "कुछ लोगों का स्पष्ट रूप से बुरा स्वभाव होता है और वे हमेशा खुद को गर्म मिजाज वाला बताते हैं। क्या यह सिर्फ खुद को सही ठहराना नहीं है? बुरा स्वभाव बस बुरा स्वभाव होता है। जब कोई कुछ गलत या ऐसा कुछ कर देता है जो सभी को नुकसान पहुँचाता है, तो समस्या उसके स्वभाव और मानवता के साथ होती है, लेकिन वे हमेशा कहते हैं कि उन्होंने कुछ समय के लिए खुद पर नियंत्रण खो दिया या थोड़ा गुस्सा हो गए; वे समस्या को उसके सार में कभी नहीं समझते। क्या यह वास्तव में विश्लेषण करना और खुद को प्रकट करना है?" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में)। मैं ऐसा ही था। अपनी क्षमा-याचना के बारे में सोचने पर वह बहुत गरिमापूर्ण लगी थी, लेकिन मैं समस्या का असली तत्व नहीं समझ पाया था और अपने बचाव की भी कोशिश कर रहा था। मैं बहुत पाखंडी था! इसका एहसास होने पर मुझे बहुत ग्लानि हुई। मैं अक्सर भाई-बहनों को लोगों से प्रेम और धैर्य से बरताव करने करने के लिए कहता था, लेकिन ये महज नारे थे, जो मेरे असली बरताव से मेल नहीं खाते थे।
इसके बाद, मैंने अपना मन शांत कर आत्म-चिंतन किया : "ऐसा क्यों है कि जब भी चीजें मेरे मुताबिक नहीं होतीं, मैं गुस्सा होकर अपना भ्रष्ट स्वभाव दिखाता हूँ। मैं भाई-बहनों से ठीक से सहयोग क्यों नहीं कर पाता?" इसके बाद, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अहंकार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। लोग जितने ज़्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं, और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्या कितनी गम्भीर है? अहंकारी स्वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं, और उनके दिलों में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्छ मसला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव उसको परमेश्वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्यक्ति हमेशा दूसरों पर सत्ता स्थापित करने की ख़ातिर परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्त होता है। इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे, जो इतने घमंडी होते हैं कि अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पित नहीं हो पाते, यहाँ तक कि बढ़-बढ़कर खुद के लिए गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं और उन्हें परमेश्वर का बिलकुल भी भय नहीं होता। यदि लोग परमेश्वर का आदर करने की स्थिति में पहुँचना चाहते हैं, तो पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभावों का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, उतना अधिक आदर तुम्हारे भीतर परमेश्वर के लिए होगा, और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पित होकर सत्य प्राप्त कर सकते हो और उसे जान सकते हो। केवल सत्य को प्राप्त करने वाले ही वास्तव में मनुष्य होते हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर ने प्रकट किया कि घमंड किस तरह से लोगों के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। जो जितना घमंडी होगा, उतना ही वह परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है। मुझे एहसास हुआ कि मैं ऐसा ही था। मैं यह सोचकर दूसरे लोगों को गंभीरता से नहीं लेता था कि वे मुझसे हीन हैं। मैं हमेशा यह मानता था कि मेरी काबिलियत अच्छी है, मैं प्रतिभाशाली हूँ, और बाकी सबसे बेहतर हूँ। मैं हमेशा दूसरों की खामियों की तुलना अपनी खूबियों से करता था। एक बार सिखाने पर ही मैं उस काम में महारत पा लेता था, लेकिन ये लोग इतने लंबे समय बाद भी नहीं सीख पाए। मैं उनका जरा भी सम्मान किए बिना उन पर उबल पड़ता, और उनकी आलोचना कर उन्हें फटकार लगाता। स्नेहपूर्ण मदद देना तो दूर, मैं उनकी खूबियाँ और गुण स्वीकारता तक नहीं था। जब भाई-बहनों के सामने समस्याएँ आतीं, तो मैं यह न सोचता कि उन्हें सुलझाने के लिए मैंने उनके साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति की थी या नहीं, या मेरी तरफ से और कोई कमी तो नहीं रह गई थी। इसके बजाय, मैं बस यही सोचता कि उन्होंने मेरी बात ठीक से नहीं सुनी, और मैं उन पर अंधाधुंध बरसकर उनका निपटान कर देता था। मैं व्यर्थ ही इतना घमंडी था! हमारी कलीसिया परमेश्वर के सुसमाचार का प्रसार कर रही थी, पर मैं लोगों को डांट-फटकार कर बेबस कर रहा था, उन्हें डरा रहा था और सीमित कर रहा था, यहाँ तक कि वे निराश होकर अपना कर्तव्य भी नहीं निभाना चाहते थे। क्या मैं सुसमाचार-कार्य को अव्यवस्थित और बाधित नहीं कर रहा था? यह सब सोचकर मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। मैंने दूसरों के जीवन-प्रवेश के लिए कुछ भी लाभदायक नहीं किया। इसके बजाय, मैंने उनका दिल दुखाया और कलीसिया का कार्य बाधित किया। मैं अपने घमंडी स्वभाव के अनुसार जी रहा था और कभी भी बुराई और परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता था। मैंने जो कुछ किया था, उसके बारे में सोचकर मुझे खुद से घृणा हो गई, मेरा खुद को बार-बार तमाचे मारने का मन हुआ। मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की : "प्यारे परमेश्वर, मैंने अपने घमंडी स्वभाव के कारण आँख मूँदकर लोगों का निपटान किया, उनका दिल दुखाया, और कलीसिया का कार्य बाधित किया। प्यारे परमेश्वर, मैं प्रायश्चित्त करने और बदलने को तैयार हूँ। कृपया मेरा घमंडी स्वभाव ठीक करने में मार्गदर्शन कर मेरी मदद करो।"
फिर एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना : "अपने स्वभाव को बदलने के लिए ईश्वर के वचनों के सहारे जियो।" "पहले तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा करके अपने भीतर की सभी कठिनाइयों को हल करना होगा। अपने पतित स्वभाव को छोड़ दो और अपनी अवस्था को वास्तव में समझने में सक्षम बनो और यह जानो कि तुम्हें कैसे व्यवहार करना चाहिए; जो कुछ भी तुम्हें समझ में न आए, उसके बारे में सहभागिता करते रहो। व्यक्ति का खुद को न जानना अस्वीकार्य है। पहले अपनी बीमारी ठीक करो, और मेरे वचनों को खाने और पीने और उन पर चिंतन-मनन द्वारा, अपना जीवन मेरे वचनों के अनुसार जीओ और उन्हीं के अनुसार अपने कर्म करो; चाहे तुम घर पर हो या किसी अन्य जगह पर, तुम्हें परमेश्वर को अपने भीतर शक्ति के प्रयोग की अनुमति देनी चाहिए। देह और स्वाभाविकता को त्याग दो। अपने भीतर हमेशा परमेश्वर के वचनों का प्रभुत्व बना रहने दो। यह चिंता करने की आवश्यकता नहीं है कि तुम लोगों का जीवन बदल नहीं रहा है; समय के साथ, तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे स्वभाव में एक बड़ा परिवर्तन हुआ है। ..." (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। परमेश्वर के वचनों का यह भजन मेरे लिए सचमुच प्रेरणादायी था। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का एक मार्ग मिला। मेरे सामने कैसी भी स्थिति आए, मुझे पहले परमेश्वर का इरादा जानकर सत्य खोजना चाहिए, अपने मसले सुलझाने चाहिए, परमेश्वर के वचनों से अपने घमंडी स्वभाव को समझना चाहिए, रोजमर्रा के जीवन में अहं त्यागने पर ध्यान देकर सत्य पर अमल करना चाहिए। फिर धीरे-धीरे मेरा घमंडी स्वभाव बदल जाएगा। अपने घमंडी स्वभाव के कारण लोगों को फटकारने, बेबस कर देने और हमेशा खुद को श्रेष्ठ मानने के तथ्य ने यह दिखाया कि मैंने सच में खुद को नहीं समझा। असल में, मेरे पास दिखाने लायक कुछ नहीं था। अपने कर्तव्य में मैं तेजी से सीख लेता था और मुझमें कुछ विशेष गुण थे, लेकिन यह काबिलियत और गुण मुझे परमेश्वर से मिले थे, व्यक्तिगत रूप से मुझमें कोई खास बात नहीं थी। मुझे परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए। हर इंसान की अलग काबिलियत और अलग क्षमताएँ होती हैं। सभी भाई-बहनों की अपनी खूबियाँ थीं। बहन आई लोगों से बातचीत करने में अच्छी थीं, उनमें एक प्यार भरा स्पर्श और धैर्य था। मैंने ऐसे गुण नहीं दर्शाए थे। इसका एहसास होने पर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। मैं परमेश्वर के वचनों पर अमल करने को तैयार था। समस्याएँ सामने आने पर मैं सजगतापूर्वक अहं त्यागकर सत्य पर अमल करता।
मुझे याद है, एक बार, मैंने अपनी एक साथी बहन से एक परियोजना में उसकी प्रगति के बारे में पूछा, तो उसने जवाब दिया था : "मैंने अभी उस पर काम शुरू नहीं किया। परियोजना पर अपने विचारों पर चर्चा करते समय मेरे मन में स्पष्टता थी, पर उस पर वास्तव में काम शुरू करने पर मैं तय नहीं कर पाई कि आगे कैसे बढ़ूँ।" यह सुनकर मैं दोबारा अपने भीतर उबाल महूसस करने लगा। मैंने सोचा : "आपके लिए यह इतना मुश्किल क्यों है? इस परियोजना पर चर्चा करते समय मैंने सब-कुछ स्पष्ट रूप से बताया था। आप इतनी जल्दी कैसे भूल गईं? क्या आप काम पर ध्यान नहीं दे रहीं? लगता है, मुझे आपसे गंभीरता से बात करनी होगी।" जैसे ही मैं उस पर उबलने को हुआ, मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आ गए : "यदि लोग सजगतापूर्वक परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, सत्य को व्यवहार में ला सकते हैं, स्वयं को त्याग सकते हैं, अपने विचारों को छोड़ सकते हैं, और परमेश्वर की इच्छा के प्रति आज्ञाकारी और विचारशील हो सकते हैं—यदि वे इन सभी चीजों को सजगतापूर्वक करने में सक्षम हैं—तो यह सत्य को सटीक रूप से व्यवहार में लाना है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचन एक सामयिक चेतावनी थे : मुझे अहं त्यागकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना था। मैं अपने घमंडी स्वभाव के अनुसार बरताव करता नहीं रह सकता था। उन्होंने शायद कोई समस्या होने या आगे का रास्ते स्पष्ट न होने के कारण काम शुरू नहीं किया होगा। मुझे उनकी असली स्थिति समझकर उनकी कमियाँ सही ढंग से देखनी होंगी। इसलिए मैंने वास्तविक स्थिति के अनुसार उनके काम शुरू करने के तरीके की बारीकियाँ शांति से दोहराईं। मेरी बात पूरी होने पर उन्होंने खुशी से जवाब दिया : "तो मुझे इस तरह करना होगा! अब मुझे आगे का रास्ता स्पष्ट है।" बहन के यह कहने पर मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। अपने काम में मैं हमेशा नारेबाजी करता था, सबकी समस्याएँ और मसले समझने में समय नहीं लगाता था, उन्हें एक-एक कर सिखाना तो दूर की बात है। अगर अपने काम में मैं थोड़ा और धैर्यवान और विवरण-उन्मुख होता, तो भाई-बहन बहुत पहले ही स्वतंत्र रूप से काम कर रहे होते।
इसके बाद, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अगर तुम केवल सिद्धांत की बातें दोहराते हो, और लोगों को व्याख्यान देते हो, उनसे निपटते हो, तो क्या तुम उन्हें सत्य समझा सकते हो और उसकी वास्तविकता में प्रवेश करा सकते हो? जिस सत्य की तुम संगति करते हो, अगर वह वास्तविक नहीं है, अगर वह सिद्धांत के शब्दों के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम कितना भी उनसे निपटो और उन्हें व्याख्यान दो, उसका कोई लाभ नहीं होगा। क्या तुम्हें लगता है कि लोगों का तुमसे डरना और जो तुम उनसे कहते हो वह करना, और विरोध करने की हिम्मत न करना, उनके सत्य को समझने और आज्ञाकारी होने के समान है? यह एक बड़ी गलती है; जीवन में प्रवेश इतना आसान नहीं है। कुछ अगुआ एक मजबूत छाप छोड़ने की कोशिश करने वाले एक नए प्रबंधक की तरह होते हैं, वे अपने नए प्राप्त अधिकार को परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर थोपने की कोशिश करते हैं ताकि हर व्यक्ति उनके अधीन हो जाए, उन्हें लगता है कि इससे उनका काम आसान हो जाएगा। अगर तुममें सत्य की वास्तविकता का अभाव है, तो जल्दी ही तुम्हारा असली आध्यात्मिक कद उजागर हो जाएगा और तुम्हारे असली रंग सामने आ जाएँगे, और तुम्हें निकाला भी जा सकता है। कुछ प्रशासनिक कार्यों में थोड़ा निपटान, काट-छाँट और अनुशासन स्वीकार्य है। लेकिन अगर तुम सत्य की संगति करने में असमर्थ हो, तो अंत में, तुम समस्या हल करने में असमर्थ होगे, और कार्य के परिणामों को प्रभावित करोगे। अगर, कलीसिया में चाहे जो भी समस्याएँ आएँ, तुम लोगों को व्याख्यान और दोष देना जारी रखते हो—अगर तुम हमेशा बस अपना आपा खोते हो—तो यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है जो प्रकट हो रहा है, और तुमने अपनी भ्रष्टता का बदसूरत चेहरा दिखा दिया है। अगर तुम हमेशा मंच पर खड़े होकर इसी तरह लोगों को व्याख्यान देते हो, तो जैसे-जैसे समय बीतेगा, लोग तुमसे जीवन का प्रावधान प्राप्त करने में असमर्थ हो जाएँगे, वे कुछ भी वास्तविक हासिल नहीं करेंगे, बल्कि तुमसे घृणा करेंगे और तुम्हें ठुकरा देंगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि कलीसिया में भाई-बहनों के साथ काम करने की कुंजी सत्य पर स्पष्ट संगति करना है, ताकि सभी लोग सिद्धांत अच्छी तरह समझ लें। तभी हम अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकेंगे। अगर मैं हमेशा लोगों पर गुस्सा दिखाकर उन्हें फटकारता रहूँगा, तो मैं न सिर्फ मसले सुलझाने में नाकाम रहूँगा, बल्कि लोगों को निराश कर दूर धकेल दूंगा। बाद में दूसरों के साथ काम करते या उनके काम की जाँच करते समय, मैं पहले उनकी असली समस्याएँ समझता। अगर कोई बात उन्हें समझ न आती या उन्होंने उसे अभी सीखा न होता, तो मैं उनके साथ सिद्धांतों और सत्य पर धैर्य से संगति कर समस्याएँ सुलझाने में उनकी मदद करता। इस तरह से, कुछ समय बाद, भाई-बहन कुछ काम स्वतंत्र रूप से पूरा करने लगे, और हम सौहार्दपूर्वक एक-साथ काम कर पाए। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने अपने घमंडी स्वभाव की थोड़ी समझ हासिल की, लोगों की कमियाँ सही ढंग से देखना और फिर दूसरों के साथ मिल-जुलकर काम करना सीखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!
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