दूसरों की सराहना पाने के चक्कर ने मुझे कहाँ पहुँचा दिया
पिछले साल अक्तूबर में, कर्तव्य निभाने मैं एक कलीसिया गई। कलीसिया अगुआ बहन लियाँग ने पहले मुझे कुछ सभा समूहों की अगुआई करने को कहा। हर सभा के बाद, मैं हमेशा बहन लियाँग से खुल कर उन सवालों के बारे में पूछती, जिन्हें मैं नहीं समझ पाई थी, और बहन लियाँग सब्र से मुझसे संगति करतीं। उस दौरान, लगता जैसे हर दिन मैं कुछ नया सीख रही थी। करीब एक हफ्ते बाद, हमारी वरिष्ठ, बहन चेन हमसे मिलने आईं। कभी-कभी, मैंने बहन लियाँग को कहते सुना कि मैं युवा थी, मुझमें अच्छी काबिलियत थी, मानवता में सयानी थी, और कर्तव्य की जिम्मेदारी निभाती थी। मुझे बड़ी हैरानी हुई। उम्मीद नहीं थी कि बहन लियाँग मुझे इतना बढ़िया आंकेंगी। मैंने बहन चेन को कई बार कहते सुना कि वे कलीसिया अगुआ के रूप में मेरा पोषण करना चाहती हैं, और बहन लियाँग से मुझे कलीसिया के विभिन्न कामों के बारे में बताने को कहा। तब, मैं बाहर से शांत थी, मगर मन-ही-मन फूले नहीं समा रही थी। लगा, मानो मैं कलीसिया की एक अनमोल प्रतिभा थी! सबके मेरे बारे में इतना ऊँचा सोचने से लगा, आगे से मुझे बढ़िया काम करना होगा, मैं दूसरों को अपनी कमियाँ नहीं देखने दे सकती। वरना, कोई भी मेरा आदर नहीं करेगा।
जल्द ही, अगली सभा में, बहन चेन को देख मैं अनायास घबरा गई। डर लगा कि अगर मैंने उनके सामने बुरे ढंग से काम किया, तो उनकी नजरों में बनी मेरी अच्छी छवि बिगड़ जाएगी, और फिर वे मेरा पोषण नहीं करेंगी। फिर, बहन चेन ने एकाएक हमसे पूछा कि इस दौरान हमने क्या हासिल किया था। मैंने सोचा, "इस दौरान तो मैंने कलीसिया का कार्य शुरू ही किया है। हर दिन व्यस्त रही हूँ, जीवन प्रवेश पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है, तो मेरे पास कहने को कुछ नहीं है। लेकिन अगर मैं ईमानदार रही, तो क्या बहन चेन नहीं कहेंगी कि मैं जीवन प्रवेश पर ध्यान नहीं देती, और सत्य का अनुसरण नहीं करती? फिर भी क्या वे मेरा पोषण करेंगी? नहीं, मैं उन्हें नहीं देखने दे सकती कि मैंने जीवन प्रवेश नहीं किया है।" तो, मैंने हाल के अपने कुछ छोटे-मोटे अनुभव याद करने को दिमाग कुरेदा, जिनकी मुझे थोड़ी समझ थी, और मैंने ये अनुभव सबके साथ साझा किए। संगति के बाद, जब मैंने देखा कि बहन चेन ने मेरे बारे में कुछ नहीं कहा, तो मैंने राहत की लंबी साँस ली।
इसके बाद, जब कभी बहन चेन सभाओं में आतीं, मैं बहुत सतर्क रहती, और बोलने से पहले हर चीज पर विस्तार से सोचती। अगर मुझे कुछ कमियाँ न दिखतीं, तो मैं बोलने को तैयार हो जाती। अपनी हालत बयान करते समय मैं गंभीर समस्याओं का जिक्र करने से भी बचती, और मसलों पर चर्चा करते समय विरले ही अपना नजरिया पेश करती। मुझे याद है, एक सभा में, बहन चेन ने एक संभावित सुसमाचार ग्रहण करने वाले के बारे में पूछा। मेरी साझीदार बहन की बात पूरी होने पर, बहन चेन ने सुसमाचार का प्रचार करने में उनसे हुए भटकावों के बारे में बताया, और फिर हमसे पूछा, "आपसे प्रचार करने को कहा जाए, तो आप क्या करेंगी?" मैं चौंक गई, बहुत घबरा गई। "बहन चेन क्यों पूछ रही हैं कि हम क्या सोचते हैं? क्या वे देखना चाहती हैं कि हममें अगुआ बनने लायक दिमाग और काबिलियत है भी?" मैंने सुसमाचार के प्रचार की पहले पढ़ी सामग्री को याद करने की कोशिश की, और जवाब देने का सही तरीका खोजा। तब, मेरे मन में कुछ विचार थे, मगर यकीन नहीं था वे सही थे, तो मैं कुछ नहीं बोली। सोचने लगी, "अगर मेरे विचार कारगर लगे, तो ठीक, वरना, दूसरी कोई बहन बेहतर विचार पेश कर दे, तो क्या अगुआ सोचेंगी, मुझमें काबिलियत नहीं है और मैं चीजों को हल्के में लेती हूँ? इससे मेरी अच्छी छवि नष्ट तो नहीं होगी?" यह सोचते हुए, अनजाने ही दो साझीदार बहनों पर मेरी नजर पड़ी, और मेरा दिमाग हिसाब लगाने लगा, "पहले देख लें ये क्या कहती हैं। उनके विचार मुझसे बेहतर हुए, तो उनके आधार पर अपने विचार बेहतर कर सकती हूँ। उनके विचार ज्यादा अच्छे न हुए, तो अपनी सोच बता सकती हूँ। इस तरह, मेरी कमियों पर किसी का ध्यान नहीं जाएगा, और अगुआ की नजरों में बनी मेरी अच्छी छवि पर असर नहीं पड़ेगा।" तो, मैंने एक ओर सिर घुमाकर सोचने का बहाना किया, और दोनों बहनों के जवाब का इंतजार करने लगी। उनकी बातें खत्म होने पर, मैंने उनकी सोच की खूबियाँ अपनी सोच में जोड़कर सबको बताया। जब मैंने देखा बहन चेन मेरी प्रशंसा करते नहीं अघा रही थीं, तो मैं बहुत खुश हुई। मेरा दिल मानो बाग-बाग हो गया। लगा, बहन चेन की नजरों में मेरी छवि यकीनन सुधर गई थी। लेकिन फिर, शांत होने पर जब मुझे याद आया कि सभाओं में मैं हमेशा कितनी सतर्क रहती थी, तो दिल में फटकार-सी महसूस हुई, "अगुआ के साथ मुलाकात में मेरी सोच इतनी पेचीदा क्यों हो जाती है? शायद मुझे बहन चेन को अपनी हालत के बारे में खुलकर बताना चाहिए?" अगर मैंने अब अपनी हालत और मुश्किलों के बारे में खुलकर बताया, तो क्या बहन चेन कहेंगी कि मैं कपटी हूँ, बहुत कुछ छिपाती हूँ? क्या वे तब भी मेरा पोषण करेंगी? कुछ पल खुद से जूझने के बाद, मैंने कुछ कुछ नहीं बोला।
उस दौरान, मैं हमेशा लीपापोती कर खुद को बढ़िया दिखाने की कोशिश करती रही, क्योंकि मैं सोचती थी, पोषित किए जाने वाले लोगों में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। कभी-कभी ऐसी मुश्किलें आतीं जिन्हें सुलझाना मुझे नहीं आता था, और मैं बहन लियाँग के साथ खुलकर सत्य खोजना चाहती थी, मगर हर बार, झिझक जाती, "बहन लियाँग मुझे हमेशा बढ़िया आँकती थीं। अगर मैं खुलकर सत्य खोजूँ, तो क्या वे सोचेंगी अगुआ का काम संभालने के लिए मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है?" जब मैंने यूँ सोचा, तो बोलना नहीं चाहा, मगर ऊपर से मैं अब भी अपने कर्तव्य में सक्रिय होने का नाटक कर रही थी, मानो मुझे कोई मुश्किल या कमजोरी न हो। धीरे-धीरे, सभाओं में, मैं अपनी असली हालत और मुश्किलों के बारे में बहुत कम खुलने लगी। जब कभी मैं भाई-बहनों को कहते सुनती कि मेरा पोषण किया जा रहा है, तो मैं एक मोटा मुखौटा पहन लेती, बहुत सतर्क हो जाती। हालाँकि मेरे आसपास के भाई-बहन मेरे बारे में ऊँची राय रखते थे, मैं जहाँ भी जाती, मुझे बधाइयाँ मिलती थीं, फिर भी मुझमें एक अकथनीय कड़वाहट थी। मुझे अक्सर लगता मैं मुखौटा पहने जी रही थी। एक भी शब्द बोलने से पहले मुझे बहुत सोचना पड़ता था। लगता, मानो मेरे दिल पर कोई बोझ लदा हो, परमेश्वर से मेरे रिश्ते में दूरी और बढ़ गई, मैं सभाओं में कोई प्रकाश नहीं बिखेर पाती थी, मेरी हालत बद से बदतर होती जा रही थी। लगता जैसे मैं बंद गली के छोर की ओर जा रही थी। तब, मैं परमेश्वर से सिर्फ प्रार्थना कर अपनी इस हालत को बदलने में मदद करने को कह सकती थी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन में पढ़ा, "कुछ लोगों को डर रहता है कि उनके भाई-बहन उनसे बातचीत करते समय या उनके साथ सहयोग करते हुए, जान जाएँगे कि उनके भीतर समस्याएँ हैं, फिर भाई-बहन कहेंगे कि उनका आध्यात्मिक कद छोटा है या उन्हें हिकारत से देखेंगे। जब वे बालते हैं, तो हमेशा ऐसी छाप छोड़ने का प्रयास करते है कि वे उत्साही हैं, वे परमेश्वर के लिए तड़पते हैं, और सत्य को अभ्यास में लाने के इच्छुक हैं लेकिन असल में, अपने हृदय में वे काफी कमजोर और बहुत ही नकारात्मक होते हैं। वे मजबूत होने का ढोंग करते हैं, ताकि कोई उनकी असलियत न जान न सके। यह भी कपट है। संक्षेप में, तुम्हारे हर काम में, चाहे यह जीवन में हो, या कर्तव्य-निर्वहन में, अगर तुम अधर्म और दिखावे में संलग्न होते हो और झूठ से दूसरों को धोखा देते या उन्हें छलते हो, कुछ इस तरह कि वे तुम्हारा सम्मान करने लगें, तुम्हारी आराधना करें, या तुम्हें नीची नजर से न देखें, तब तुम जो कर रहे हो वह सब धोखेबाजी है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचन साफ खुलासा करते हैं कि अपने आसपास के लोगों से ऊंचा आदर पाने के लिए, आप कभी अपनी मुश्किलें या अनुभव की गई बुरी हालत नहीं दिखाते, और आप हमेशा ताकत दिखाकर और भ्रम पैदा कर दूसरों से छल करते हैं, और कभी भी दूसरों को अपनी असली हालत नहीं देखने देते, यह कपट है। मैंने अपने बर्ताव का जायजा लिया, तो एहसास हुआ कि उस दौरान मैं ठीक यही कर रही थी। जब से मैंने अगुआ को कहते सुना कि वे मेरा पोषण करना चाहती हैं, तो मैं अगुआ के मन में बनी अपनी छवि की परवाह करने लगी। जब अगुआ ने मेरी हालत के बारे में पूछा, और उस वक्त साफ और पर मेरे पास जीवन-प्रवेश था ही नहीं, तो मुझे फिक्र हुई कि मेरे ऐसा कहने से अगुआ की नजरों में बनी मेरी अच्छी छवि नष्ट हो जाएगी, तो मैंने कुछ छोटे-मोटे अनुभवों के लिए अपना दिमाग कुरेदा और अपनी गंभीर समस्याओं पर चर्चा करने से बचती रही, ताकि असली तथ्य छिपा सकूँ। जब अगुआ ने सुसमाचार के प्रचार के लिए हमारे विचार जानने चाहे, तो मुझे गलत होने का डर लगा, और यह भी कि अगुआ को मेरी सच्चाई पता चल गई, तो वे मेरा पोषण नहीं करेंगी, इसलिए मैंने जानबूझ कर सोचने का बहाना किया, और इंतजार करती रही कि साझीदार बहनें पहले बोलें ताकि मैं उनकी खास बातों के आधार पर अपने जवाब को विस्तार दे सकूँ। मैंने और गहराई से स्वांग रचा, अपनी नकारात्मक हालत के बारे में खुलकर बताने की हिम्मत नहीं की, और हमेशा सकारात्मक हालत में रहने का नाटक करती रही। मैं एक झूठा जीवन जी रही थी। क्या यह पाखंडी होकर लोगों से छल करना नहीं था? इसे पहचान लेने पर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं इस हालत में नहीं जीना चाहती। अपनी हालत के बारे में खुलकर बोलने और एक ईमानदार इंसान बनने में मेरी मदद करो।"
अगले दिन, बहन चेन हमसे मिलने आईं, तब मैं खुलकर अपनी हालत के बारे में बोली। फिर हम सबने मिलकर परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा। परमेश्वर कहते हैं, "अगर तुम सत्य की खोज करना चाहते हो, अगर तुम विभिन्न पहलुओं, जैसे कि अपने गलत उद्देश्यों, स्थितियों, या मनोदशाओं में बड़े पैमाने का बदलाव लाना चाहते हो, तो सबसे पहले तुम्हें खुलकर बात करना और संगति करना सीखना होगा। ... खुलकर अपनी बात कहना और अपनी भावनाओं को उजागर करना—सबसे पहले तो यह ऐसा रवैया है जो व्यक्ति का परमेश्वर के समक्ष होना चाहिए, और यह रवैया उच्च महत्त्व रखता है। चीजों को अपने अंदर दबाकर रखते हुए यह मत कहो कि 'ये मेरे उद्देश्य हैं, ये मेरी मुश्किलें हैं, मेरी बहुत बुरी स्थिति है, मैं नकारात्मक हूँ, लेकिन तब भी ये बातें मैं किसी से कहूँगा नहीं, यह सब मैं अपने तक ही सीमित रखूँगा।' अगर तुम प्रार्थना करते समय अपनी स्थिति के बारे में कभी खुलकर नहीं बोलते, तो पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त करना कठिन हो जाएगा, और धीरे-धीरे तुम्हारी प्रार्थना करने की इच्छा नहीं रह जाएगी, तुम्हारी परमेश्वर के वचन को खाने और पीने की इच्छा नहीं रह जाएगी, तुम्हारी स्थिति और अधिक खराब और बदतर होती जाएगी, और स्थितियों में बदलाव लाना मुश्किल हो जाएगा। और इसलिए, तुम्हारी हालत कैसी भी क्यों न हो, चाहे तुम नकारात्मक हो, या मुश्किल में हो, तुम्हारे उद्देश्य या योजनाएँ चाहे जो भी हों, छानबीन के माध्यम से तुमने जो कुछ भी क्यों न जाना या समझा हो, तुम्हें खुलकर बात कहना और संगति करना सीखना ही होगा, और जैसे ही तुम संगति करते हो, पवित्र आत्मा काम करता है। और पवित्र आत्मा अपना काम कैसे करता है? वह तुम्हें प्रबुद्ध करता है और समस्या की गंभीरता समझने देता है, वह तुम्हें समस्या की जड़ और सार से अवगत कराता है, फिर तुम्हें सत्य और अभ्यास के सिद्धांतों को थोड़ा-थोड़ा करके समझने के लिए प्रबुद्ध करता है, ताकि तुम सत्य को अभ्यास में ला सको, और वहाँ से सत्य की वास्तविकताओं में प्रवेश कर सको। यह पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा हासिल परिणाम है। जब व्यक्ति खुलकर संगति कर सकता है, तो इसका मतलब है कि उसका सत्य के प्रति ईमानदार रवैया है। कोई व्यक्ति ईमानदार है या नहीं, और क्या वह एक ईमानदार व्यक्ति है, यह सत्य और परमेश्वर के प्रति उसके दृष्टिकोण से मापा जाता है, साथ ही इस बात से भी कि क्या वह सत्य को स्वीकार कर सकता है और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकता है। यही सबसे ज्यादा मायने रखता है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही, मैं खुलकर बोलने और सत्य खोजने की अहमियत समझ सकी। यह सत्य की वास्तविकताओं में प्रवेश का मार्ग है। किसी के खुलकर संगति कर सकने का अर्थ है कि सत्य के प्रति उसका रवैया सच्चा है, यह सत्य खोजने और स्वीकारने का रवैया है। सिर्फ खुलकर संगति करने से ही हम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता पा सकते हैं, तभी हम अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचान कर अपनी मुश्किलें दूर कर सकते हैं। उस दौरान आत्मचिंतन कर, समझ गई कि मैं भाई-बहनों के सामने एक परिपूर्ण छवि बनाना चाहती थी। बोलने से पहले, मुझे हमेशा दो बार सोचना पड़ता था ताकि दूसरों को अपने आरपार कैसे न देखने दूँ या मुझे नीची नजर से न देखने दूँ। इससे मेरा सोचने का तरीका बहुत जटिल हो गया। मेरी हालत साफ तौर पर अच्छी नहीं थी, मगर मैं इसका खुलासा नहीं कर सकती थी। यह दुखदाई और थकाऊ था, यातना से कम नहीं था, मेरी हालत बद से बदतर होती गई, और यह पूरी तरह खुद का किया हुआ था। परमेश्वर का सार वफादारी है, परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है। उनके मन में जो भी चल रहा हो, वे जैसी भी भ्रष्टता दिखाते हों, ईमानदार लोग अपने भाई-बहनों के सामने किसी भी बहाने या मुखौटे के बिना खुलकर बोल सकते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर सकते हैं, सत्य का अभ्यास करने को तैयार होते हैं, और ईमानदारी से जी सकते हैं। परमेश्वर के विश्वासी को ऐसा ही बर्ताव करना चाहिए। इसके बाद, काम की चर्चा में, मैं सचेतन होकर अपना नजरिया पेश करने लगी, जब चीजें न समझ पाती, तो दूसरों से पूछती। सभाओं में, मैं दूसरों से अपनी असली हालत के बारे में खुलकर बता पाती। ऐसा करने से, मेरे दिल का बोझ थोड़ा कम हो गया।
बाद में, मैंने परमेशर के वचनों का एक अंश देखा, जिससे हमेशा दूसरों से ऊँचा आदर चाहने के अपने सार को समझने में मदद मिली। परमेश्वर कहते हैं, "चाहे कोई भी संदर्भ हो, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य निभा रहे हों, वे यह छाप छोड़ने की कोशिश करेंगे कि वे कमजोर नहीं हैं, कि वे हमेशा मजबूत, आत्मविश्वास से भरे हुए रहते हैं, कभी नकारात्मक नहीं होते। वे कभी अपना असली आध्यात्मिक कद या परमेश्वर के प्रति अपना असली रवैया प्रकट नहीं करते। वास्तव में, अपने दिल की गहराइयों में क्या वे सचमुच यह मानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है जो वे नहीं कर सकते? क्या वे वाकई मानते हैं कि उनमें कोई कमजोरी, नकारात्मकता या भ्रष्टता नहीं भरी है? बिलकुल नहीं। वे दिखावा करने में अच्छे होते हैं, चीजों को छिपाने में माहिर होते हैं। वे लोगों को अपना मजबूत और सम्मानजनक पक्ष दिखाना पसंद करते हैं; वे नहीं चाहते कि वे उनका वह पक्ष देखें जो कमजोर और सच्चा है। उनका उद्देश्य स्पष्ट होता है : सीधी-सी बात है, वे अपनी साख, इन लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाए रखना चाहते हैं। उन्हें लगता है अगर वे अपनी नकारात्मकता और कमजोरी दूसरों के सामने उजागर करेंगे, अपना विद्रोही और भ्रष्ट पक्ष प्रकट करेंगे, तो यह उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए एक गंभीर क्षति होगी—तो बेकार की परेशानी खड़ी होगी। इसलिए वे अपनी कमजोरी, विद्रोह और नकारात्मकता को सख्ती से अपने तक ही रखना पसंद करते हैं। और अगर ऐसा कभी हो भी जाए जब हर कोई उनके कमजोर और विद्रोही पक्ष को देख ले, जब वे देख लें कि वे भ्रष्ट हैं, और बिलकुल नहीं बदले, तो वे अभी भी उस दिखावे को बरकरार रखेंगे। वे सोचते हैं कि अगर वे अपने भीतर किसी भ्रष्ट स्वभाव का होना स्वीकार करते हैं, एक सामान्य व्यक्ति होना जो छोटा और महत्वहीन है, तो वे लोगों के दिलों में अपना स्थान खो देंगे, सबकी श्रद्धा और आदर खो देंगे, और इस प्रकार पूरी तरह से विफल हो जाएँगे। और इसलिए, कुछ भी हो जाए, वे बस लोगों के सामने नहीं खुलेंगे; कुछ भी हो जाए, वे अपना सामर्थ्य और हैसियत किसी और को नहीं देंगे; इसके बजाय, वे प्रतिस्पर्धा करने का हर संभव प्रयास करते हैं, और कभी हार नहीं मानते। ... यदि कोई बड़ी घटना घटती है और कोई उनसे पूछता है कि वे घटना को कैसे समझते हैं, तो वे अपने विचार प्रकट करने से कतराते हैं और दूसरों को पहले बोलने देते हैं। उनके संकोच के कारण होते हैं : ऐसा नहीं है कि उनका अपना कोई विचार नहीं होता, बल्कि वे डरते हैं कि अगर उनका विचार गलत हुआ और सबके सामने रखने पर लोगों ने उसका खंडन कर दिया, तो उन्हें शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी और इसलिए वे अपने विचार व्यक्त नहीं करते; या उनके पास कोई विचार ही नहीं होता और वे उस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते, वे यह सोचकर मनमाने ढंग से बोलने की हिम्मत नहीं कर पाते कि उनकी गलती पर लोग हँसेंगे—इसलिए मौन ही उनका एकमात्र विकल्प होता है। संक्षेप में, वे इसलिए अपने विचार व्यक्त करने को तैयार नहीं होते क्योंकि वे डरते हैं कि वे अपनी असलियत प्रकट कर देंगे, कि लोग यह देख लेंगे कि वे दरिद्र और दयनीय हैं, इससे दूसरों के मन में उनकी छवि खराब हो जाएगी। इसलिए, जब बाकी लोग अपने नजरिए, विचारों और ज्ञान पर संगति कर लेते हैं, तो वे कुछ ऊंचे और अधिक मजबूत दावों को पकड़कर ऐसे पेश करते हैं मानो ये उनके विचार हों। वे उनका सारांश निकालकर संगति में समूह को प्रदान कर देते हैं और इस तरह लोगों के मन में ऊँची हैसियत बना लेते हैं। ... ऐसे तमाम लोग जो खुद को निर्दोष और पवित्र समझते हैं, सभी ढोंगी होते हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वे सभी ढोंगी हैं? मुझे बताओ, क्या भ्रष्ट मनुष्यों में कोई निर्दोष है? क्या वाकई कोई पवित्र है? (नहीं।) बिल्कुल नहीं है। मनुष्य निर्दोष कैसे हो सकता है जब उसे शैतान ने इतनी बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है? इसके अलावा, इंसान सहज रूप से सत्य से युक्त नहीं होता। केवल परमेश्वर पवित्र है; सारी भ्रष्ट मानवता मलिन है। यदि कोई इंसान खुद को पवित्र और निर्दोष कहे, तो वह व्यक्ति कैसा होगा? वह शैतान, राक्षस और महादूत होगा—वह पक्के तौर पर मसीह-विरोधी होगा। केवल कोई मसीह-विरोधी ही निर्दोष और पवित्र व्यक्ति होने का दावा करेगा" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दस))। परमेश्वर ने खुलासा किया है कि मसीह-विरोधी अपनी असली सोच के बारे में किसी को खुलकर नहीं बताते, बोलने से पहले वे दो बार सोचते हैं, हमेशा लीपापोती कर झूठ कहते हैं, प्रतिष्ठा पाने और उसके लाभों का आनंद लेने की उम्मीद में, लोगों के बीच सबसे बेहतर और परिपूर्ण होने की छवि बनाते हैं। ऐसा लगा मानो परमेश्वर मेरे ही सामने मेरा खुलासा कर रहा हो। जिस पल मैंने अगुआ से मेरा पोषण करने की उनकी इच्छा सुनी, मैं खुशी से फूलने लगी। लगा, मेरा पोषण किया जाएगा, तो मैं यकीनन औसत इंसान से बेहतर हूँ, मैं दूसरों से आदर पाने और कद्र किये जाने के एहसास का आनंद लेने लगी। इसलिए अगुआ के साथ सभाओं में, या भाई-बहनों से मेल-जोल में, मैं बस यही सोचती कि सबके दिलों में अच्छी छवि कैसे बनाए रखूँ, सबसे कैसे आदर पाऊँ। मुझे बोलने से पहले हमेशा दो बार सोचना पड़ता था, मैं कभी भी अपनी राय या अपनी कमियों को हल्के में नहीं बताती थी, मैं यह घिनौना तरीका सबसे छल कर उनके दिलों में बसने के लिए इस्तेमाल करती थी। मैं बहुत पाखंडी और दुष्ट थी। क्या मुझमें जरा भी मानवता थी? लोगों को सबसे ज्यादा परमेश्वर का सम्मान कर उसे दिल में बसाना चाहिए, मगर मैं हमेशा खुद को परिपूर्ण दिखा कर पेश करना चाहती हूँ, ताकि लोग मुझे आदर से देखें, अपने दिलों में बसा सकें। क्या यह ओहदे के लिए परमेश्वर से होड़ नहीं थी? ख़ास तौर से जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े, "क्या भ्रष्ट मनुष्यों में कोई निर्दोष है? क्या वाकई कोई पवित्र है? (नहीं।) बिल्कुल नहीं है। मनुष्य निर्दोष कैसे हो सकता है जब उसे शैतान ने इतनी बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है? इसके अलावा, इंसान सहज रूप से सत्य से युक्त नहीं होता। केवल परमेश्वर पवित्र है; सारी भ्रष्ट मानवता मलिन है। यदि कोई इंसान खुद को पवित्र और निर्दोष कहे, तो वह व्यक्ति कैसा होगा? वह शैतान, राक्षस और महादूत होगा—वह पक्के तौर पर मसीह-विरोधी होगा। केवल कोई मसीह-विरोधी ही निर्दोष और पवित्र व्यक्ति होने का दावा करेगा।" तो मैंने इन वचनों में परमेश्वर का प्रताप और आक्रोश महसूस किया, वे दिल में चुभने वाले और डरावने थे। ऐसा लगा, मानो परमेश्वर मेरी निंदा कर रहा हो। इस ब्रह्मांड की तमाम चीजों में एकमात्र परमेश्वर ही सर्वशक्तिमान है। मैं शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई सिर्फ एक इंसान थी, भ्रष्ट स्वभाव से भरपूर, मुझे जरा भी आत्मज्ञान नहीं था। मेरा आचार-व्यवहार ठीक नहीं था, मैं पाखंडी थी, हमेशा लोगों के दिलों में अच्छी छवि बनाने की कोशिश करती थी, ताकि वे मुझे आदर से देखें। मैं वाकई बहुत घमंडी और बेशर्म थी, जिससे परमेश्वर मुझे नापसंद कर घृणा करता था! खुद को इस तरह जानने के बाद ही, मैं अपनी "परिपूर्ण" छवि के पीछे का घिनौनापन, बदसूरती और गंदगी देख सकी। अब पहले भाई-बहनों से सराहना मिलने पर, अपने घमंडी और आत्मतुष्ट होने पर, और खुद की लीपापोती करते समय अपनी दिमागी हालत के बारे में सोचकर, मुझे खुद से चिढ़ हुई, लगा जैसे मैं पूरी तरह विवेकहीन थी। दरअसल, भले ही बहुत-से लोग मेरे बारे में ऊँचा सोचकर मुझे स्वीकार कर लेते थे, अगर मेरा स्वभाव नहीं बदला, और मैं सिर्फ शैतान की पाखंडी और कपटी छवि लेकर जीती रही, और अंत में मुझे त्याग दिया गया, तो क्या सब-कुछ बेकार नहीं होगा?
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा। "एक साधारण और सामान्य इंसान बनने के लिए तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? यह कैसे किया जा सकता है? ... पहली बात, अपनी उपाधि के फेर में मत पड़ो। मत कहो, 'मैं अगुआ हूँ, मैं टीम का मुखिया हूँ, मैं निरीक्षक हूँ, इस काम को मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता, मुझसे ज्यादा इन कौशलों को कोई नहीं समझता।' अपनी स्व-प्रदत्त उपाधि के फेर में मत पड़ो। जैसे ही तुम ऐसा करते हो, वह तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देगी, और तुम जो कहते और करते हो, वह प्रभावित होगा; तुम्हारी सामान्य सोच और निर्णय भी प्रभावित होंगे। तुम्हें इस हैसियत की बेड़ियों से खुद को आजाद करना होगा; पहले खुद को इस आधिकारिक पद से नीचे ले आओ, जो तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास है, और एक आम इंसान की जगह खड़े हो जाओ; अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम्हारा रवैया सामान्य हो जाएगा। तुम्हें यह भी स्वीकार करना और कहना चाहिए, 'मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मुझे वह भी समझ नहीं आया—मुझे कुछ शोध और अध्ययन करना होगा,' या 'मैंने कभी इसका अनुभव नहीं किया है, इसलिए मुझे नहीं पता कि क्या करना है।' जब तुम वास्तव में जो सोचते हो, उसे कहने और ईमानदारी से बोलने में सक्षम होते हो, तो तुम सामान्य समझ से युक्त हो जाओगे। दूसरों को तुम्हारा वास्तविक स्वरूप पता चल जाएगा, और इस प्रकार वे तुम्हारे बारे में एक सामान्य दृष्टिकोण रखेंगे, और तुम्हें कोई दिखावा नहीं करना पड़ेगा, न ही तुम पर कोई बड़ा दबाव होगा, इसलिए तुम लोगों के साथ सामान्य रूप से संवाद कर पाओगे। इस तरह जीना निर्बाध और आसान है; जिसे भी जीवन थका देने वाला लगता है, उसने उसे ऐसा खुद बनाया है। ढोंग या दिखावा मत करो; पहले वह खुलकर बताओ, जो तुम अपने दिल में सोच रहे हो, अपने सच्चे विचारों के बारे में खुलकर बात करो, ताकि हर कोई उन्हें जान और उन्हें समझ ले। नतीजतन, तुम्हारी चिंताएँ और तुम्हारे और दूसरों के बीच की बाधाएँ और संदेह समाप्त हो जाएँगे। तुम किसी और चीज से भी बाधित हो। तुम हमेशा खुद को टीम का मुखिया, अगुआ, कार्यकर्ता, या किसी पदवी और हैसियत वाला इंसान मानते हो : अगर तुम कहते हो कि तुम कोई चीज नहीं समझते, या कोई काम नहीं कर सकते, तो क्या तुम खुद को बदनाम नहीं कर रहे? जब तुम अपने दिल की ये बेड़ियाँ हटा देते हो, जब तुम खुद को एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सोचना बंद कर देते हो, और जब तुम यह सोचना बंद कर देते हो कि तुम अन्य लोगों से बेहतर हो, और महसूस करते हो कि तुम एक आम इंसान हो जो अन्य सभी के समान है, कि कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें तुम दूसरों से कमतर हो—जब तुम इस रवैये के साथ सत्य और काम से संबंधित मामलों में संगति करते हो, तो प्रभाव अलग होता है, और अनुभूति भी अलग होती है। अगर तुम्हारे दिल में हमेशा शंकाएँ रहती हैं, अगर तुम हमेशा तनावग्रस्त और बाधित महसूस करते हो, और अगर तुम इन चीजों से छुटकारा पाना चाहते हो लेकिन नहीं पा सकते, तो तुम परमेश्वर से गंभीरता से प्रार्थना करके, आत्मचिंतन करके, अपनी कमियाँ देखकर, सत्य की दिशा में प्रयास करके और सत्य को अमल में लाकर ऐसा करने में सफल हो सकते हो" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। मैं हमेशा सोचती थी कि मेरा पोषण किया जाएगा, तो यकीनन मैं सबसे अच्छी और सबसे परिपूर्ण हूँ। अब मैं जानती हूँ, यह नजरिया गलत है। परमेश्वर का घर परिपूर्ण लोगों, अतिमानवों और महान लोगों को आगे नहीं बढ़ाता, उनका पोषण नहीं करता। यह कमियों और भ्रष्टताओं वाले साधारण लोगों को आगे बढ़ाता और उनका पोषण करता है। पोषण किया जाना परमेश्वर द्वारा आपको अभ्यास का मौका दिए जाने से बढ़कर कुछ नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि लोगों में कोई कमियाँ नहीं हैं या वे साधारण लोगों से बेहतर हैं। दरअसल, मैं जो भी कर्तव्य निभाऊँ, मेरा पोषण किया जाए या नहीं, मैं भ्रष्टता और कमियों वाली साधारण इंसान हूँ, और कुछ चीजें मुझसे परे हैं। मुझे अपनी खूबियों और कमजोरियों से सही ढंग से पेश आना चाहिए, ऊँचे पद से नीचे उतरना सीखना चाहिए, खुद को जाँचने के लिए अक्सर परमेश्वर के सामने आना चाहिए, साथ ही, दूसरों के सामने उजागर हुई चीजों और अपनी सोच के बारे में खुलकर बोलने में समर्थ होना चाहिए, ताकि सब लोग मेरी भ्रष्टता और कमियाँ देख सकें। सिर्फ यही उचित है। पहले, मैं हमेशा अपनी कमियों और कमजोरियों को छुपाती थी, और हमेशा डरती थी कि इनके बाहर आने से लोग मुझे नीची नजर से देखेंगे। दरअसल, मैं खुद को ही नुकसान पहुँचा रही थी। इससे मैं न सिर्फ परमेश्वर से सामान्य रिश्ता नहीं रख पाई, बल्कि जब लोग कर्तव्य में मेरी कमियाँ नहीं देख पाए, तो वे न मेरी मदद कर पाए, न ही उनकी भरपाई कर पाए, इसका अर्थ था कि मैं अपना कर्तव्य चाहे जब तक निभा लेती, कभी तरक्की नहीं कर पाती। यह जान लेने के बाद, मैं परमेश्वर की अपेक्षा अनुसार एक ईमानदार इंसान बनने, उसके कहे अनुसार, पानी के ग्लास की तरह बिल्कुल साफ रहने, दिल की बात जबाँ पर ला सकने और अब खुद को न छिपाने की कोशिश करना चाहती थी। परमेश्वर के सामने मैंने शपथ ली, "मैं एक साधारण इंसान बनाकर सबको अपना असली चेहरा दिखाना चाहती हूँ!" कुछ दिन बाद, कलीसिया ने मेरे लिए एक दूसरी कलीसिया में कर्तव्य निभाने की व्यवस्था की। मैंने उन तमाम पलों के बारे में सोचा जब मैंने खुद को छिपाया था, जब मैं लोगों के साथ मिली-जुली, तब मुझे यह सोचकर बेहद दुख और पछतावा हुआ, "मैंने बहुत लंबे समय तक भाई-बहनों के साथ छल किया। जाने से पहले, मुझे उन्हें खुलकर सब बताना होगा, और अपना असली चेहरा दिखाना होगा।" हमारी सभा में, मैंने इस दौरान अपनी हालत और अपने सीखे हुए सबक के बारे में बताया, और हर चीज के बारे में उनसे खुलकर बातें कीं। मेरे खुलकर बोलने के बाद, बोतल में बंद रहने वाली मेरी पुरानी समझ तुरंत गायब हो गई, और इसकी जगह गहरी राहत ने ले ली। मुझे यह देख हैरानी हुई कि भाई-बहनों ने मुझे नीची नजर से देखने के बजाय मेरा हौसला बढ़ाया। मैं भावुक हो गई, आँखों से आँसू बह निकले। उस दिन घर जाते समय, जाड़े की धूप मेरे शरीर को खास गर्मी देती-सी लगी, मैंने दिल से परमेश्वर का धन्यवाद कर उसकी सराहना की। इसके बाद, अपने नए काम में, मैंने अब अपनी तथाकथित अच्छी छवि पर ध्यान नहीं लगाया। जब भी मेरी हालत अच्छी नहीं होती या कोई दिक्कत होती, मैं दूसरों के साथ खुलकर सत्य खोज करती। सभाओं के दौरान, मैं जितना समझती, उतना ही बोलती थी, समझ न आने पर, भाई-बहनों से मदद माँगती थी। उनकी संगति और मदद से, मैं धीरे-धीरे वे चीजें समझ पाई जिन्हें पहले नहीं समझती थी। कुछ समय ऐसा करके देखा, मैंने कर्तव्य में थोड़ी प्रगति की थी, और मुझे आजादी और राहत का गहरा एहसास हुआ। मुझे ईमानदार इंसान होने का अभ्यास करने से मिलने वाली सुरक्षा और शांति का एहसास भी हुआ। मैं तहे-दिल से कह सकती हूँ कि यह अनुभव अद्भुत था!
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