काम की निगरानी करने की हिम्मत न करके किससे बचा जा रहा है?

03 अगस्त, 2022

क्षुनकीउ, नीदरलैंड

पिछले वर्ष मई में, मुझे नए सदस्यों के सिंचन का प्रभारी बनाया गया। पहले मैं इसे आसान काम समझती थी— बस उनके साथ दर्शन पर संगति करनी थी, और देखना था कि वे नियमित रूप से सभाओं में भाग लें। लेकिन शुरू किया, तो मुझे एहसास हुआ कि नए सदस्यों का सिंचन करना सच में बहुत बड़ा काम है। सच्चे मार्ग पर पक्की बुनियाद बनाने में उनकी मदद के लिए सत्य पर संगति करने के अलावा, मुझे उन लोगों में से अगुआओं, कार्यकर्ताओं और हर प्रकार की प्रतिभाओं का पोषण करना था, ताकि वे स्वतंत्र रूप से काम कर सकें। मेरे अगुआ ने मुझे सिंचन कार्य की निगरानी करने और उसे सही तरीके से चलाने का आग्रह किया, क्योंकि जैसे ही हम काम टालेंगे या समस्याएँ होंगी, वह काम की पूरी प्रगति पर सीधा असर डालेगा। मुझे निगरानी के महत्व का एहसास हुआ, और मैं भाई-बहनों के काम की प्रगति की नियमित जाँच करने लगी।

शुरू में जब मैंने काम पर चर्चा के लिए उनसे मिलने का समय तय करना शुरू किया, तो बहुत समय बीत जाने पर भी कोई मेरे संदेशों का जवाब नहीं देता था, अगर देते भी, तो उसे टालते रहते। एक बार, मैंने एक बहन से एक प्रोजेक्ट पर चर्चा के लिए मिलने का समय तय किया। पहले उसने सुबह से दोपहर पर टाला, और फिर उसे रात पर टाल दिया। आखिर, दो दिन बाद भी हमारी मुलाकात नहीं हुई। मैंने मन-ही-मन सोचा : क्या ये लोग जान-बूझकर मुझसे बच रहे हैं, क्योंकि वे मुझे नीची नजर से देखते हैं और सोचते हैं मैं उनके मसले हल नहीं कर सकती? वे काम में कितने भी व्यस्त हों, क्या उनके पास मुझसे चर्चा के लिए समय ही नहीं है? ऐसा ही चलता रहा, तो मैं अपना काम कैसे करूंगी? बाद में, आखिरकार मैंने उनसे कुछ मुलाकातें तय कीं, लेकिन जब मैंने उनसे काम की बारीकियों और उनकी प्रगति पर सवाल किए, तो कुछ लोगों ने बड़े रूखे जवाब दिए और वे थोड़े प्रतिरोधी भी थे। मैंने सोचा : अगर मैं हमेशा उनके काम की जाँच करती रही, तो क्या वे सोचेंगे कि मैं उनका जीना मुश्किल कर रही हूँ, और ख्याल नहीं कर रही हूँ कि वे कितनी मुश्किलें झेल रहे हैं? अगर काम सौंपते ही मैं उनकी प्रगति के बारे में पूछने लगूं, तो कहीं भाई-बहन ऐसा न सोचें कि मैं उनसे मशीन की तरह पेश आ रही हूँ, मुझमें इंसानी भावना नहीं है? यह सोचकर, मैं उन लोगों से सवाल करने को तैयार नहीं हो सकी। एक और बार, मैंने देखा कि एक बहन जिन नए सदस्यों का सिंचन करती थी, उनमें से ज्यादातर नियमित रूप से सभाओं में नहीं आते थे। मैंने उससे पूछा कि क्या वह सत्य पर संगति कर उनके मसले सुलझा रही थी। बहन ने तुरंत जवाब दिया, "सभी नए सदस्य खुद को व्यस्त बताते हैं, मैं उन्हें सभाओं में आने को मजबूर नहीं कर सकती।" मुझे फिक्र हुई कि बहन यह न सोचे कि मैं उसका और उसकी असली समस्याओं का ख्याल नहीं कर रही हूँ, तो मैंने इस मामले को तूल देने की हिम्मत नहीं की। इतना ही नहीं, उनमें से कुछ लोग काम पर चर्चा के लिए हमारी मुलाकात के बाद भी नकारात्मक थे, उन्हें लग रहा था कि इतने घंटे लगातार काम करने पर भी इतनी समस्याएं थीं, उन्होंने कोई प्रगति नहीं की थी, और वे काम के लायक नहीं थे। तब मैं यह बात कहना चाहती थी : अगर वे नकारात्मक थे, समस्याएँ आने पर अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ रहे थे, तो इसका मतलब वे समस्याओं का सामना नहीं कर रहे थे और सत्य को स्वीकार नहीं पा रहे थे। लेकिन मुझे यह भी फिक्र थी कि कहीं वे यह न कहें कि मैं उनका ख्याल नहीं करती और उन्हें डांटती रहती हूँ। इसलिए बोलने से पहले मैंने थोड़ा सोचा। इसके बाद, मैं और भी ज्यादा संकोची हो गई, और काम की निगरानी और जाँच करने की इच्छुक नहीं रही। मुझे लगा, "वे अनेक वर्षों से विश्वासी रहे हैं, वे अपना कर्तव्य पूरा करने की पहल जरूर करेंगे। कुछ भाई-बहन इतने व्यस्त हैं कि उनके पास धार्मिक कार्यों के लिए भी वक्त नहीं है, वे यकीनन ढीले नहीं पड़ेंगे। मुझे बस काम के सिद्धांतों के बारे में स्पष्ट संगति कर उन्हें काम की जिम्मेदारी सौंपनी होगी। मुझे सारा दिन उनकी नाक में दम नहीं करते रहना चाहिए, वरना वे लाचार महसूस करेंगे।" इसके बाद, मैंने दूसरों के काम की बारीकी से निगरानी और जाँच करना छोड़ दिया, और हर महीने के अंत में काम की प्रगति का एक सामान्य अंदाजा लेने लगी। मगर बाद में, मुझे एहसास हुआ कि भले ही सब लोग काम में गले तक डूबे हुए-से लगते थे, लेकिन जब मैंने उनसे बारीकियों पर सवाल किए, तो ज्यादातर लोग मुझे सीधा जवाब नहीं दे पाए, और बहुत-से लोग बारीकियाँ भी ठीक से नहीं बता पाए। इसलिए मैंने सबको मेरी नजर में आई समस्याओं और भटकावों के बारे में बताया, मगर किसी ने भी जवाब नहीं दिया। मुझे फिक्र हुई कि अगर मैंने यह चर्चा जारी रखी, तो वे प्रतिरोधी और नकारात्मक हो जाएंगे, तो मैंने यूँ ही समस्याओं को मोटे तौर पर बताकर उनसे समय रहते बदलाव करने को कहा, और फिर परमेश्वर के वचनों के कुछ अंशों का जिक्र कर अपनी समझ के बारे में संगति की।

कुछ दिन बाद, काम में समस्याएँ उभरने लगीं। किसी ने रिपोर्ट कर दी कि कुछ सिंचन कर्मी नए सदस्यों की जिम्मेदारी नहीं ले रहे थे। वे सभाओं में न आने वाले नए सदस्यों की जाँच-पड़ताल नहीं कर रहे थे। जब किसी ने इसका जिक्र किया, तो सिंचन कर्मियों का दिल दुखा और वे आलोचना सह नहीं पाए। नतीजतन, कुछ नए सदस्यों की जाँच नहीं हुई और उन्होंने कलीसिया छोड़ दी। एक बार, एक सभा के दौरान, एक उच्च अगुआ ने नए सदस्यों के मासिक सिंचन कार्य की प्रगति के बारे में पूछा, जानना चाहा कि कितने नए सदस्य नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ रहे थे और क्यों। कुछ बहनों ने कहा कि उन्हें नहीं मालूम। तो अगुआ ने यह कहकर हमारा निपटान किया : "आप नए सदस्यों के साथ बहुत गैर-जिम्मेदार रहे हैं! आपने उनका सही ढंग से सिंचन नहीं किया, इसलिए उन्होंने कलीसिया छोड़ दी। यह उनकी आत्मा जब्त कर लेने के समान है। आप परमेश्वर के आदेश को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं!" अगुआ की बातें सीधे दिल में चुभ गईं। वे सही थे। भाई-बहनों ने इन नए सदस्यों को लाने में कड़ी मेहनत की थी। उनके सभाओं में न आने पर, सिंचन कर्मियों ने लगन से उनका सिंचन करना और उन्हें सहारा देना तो दूर, उनकी सही हालत के बारे में भी पता नहीं किया, तो उन्होंने कलीसिया छोड़ दी। यह लापरवाही का गंभीर मामला है। मुझे यह भी एहसास हुआ कि सामने आई इन समस्याओं ने मेरे मसले उजागर कर दिए थे। मैं भाई-बहनों के काम से अवगत नहीं रहती थी, उनके काम की बारीकी से निगरानी करना तो दूर, मैं यह भी नहीं समझती थी कि उनके व्यावहारिक मसले क्या थे। नतीजतन, वे अपने मसलों और भटकावों के बारे में नहीं बता पाए। मेरे जिम्मेदारी न संभालने के कारण ही ऐसा हुआ। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर, उससे आत्मचिंतन करने और खुद को जानने में मदद करने की विनती की।

अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मेरी नजर परमेश्वर के वचनों के एक अंश पर पड़ी, जिससे मुझे अपनी मौजूदा हालत को समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "चूँकि नकली अगुआ कार्य की प्रगति की स्थिति को नहीं समझते, वे तुरंत पहचान नहीं कर पाते, तो फिर काम में आने वाली समस्याओं का समाधान करने की तो बात ही दूर है, जिससे अकसर बार-बार देरी होती रहती है। किसी खास काम में, चूँकि लोगों के पास सिद्धांतों की कोई समझ नहीं होती, और, इसकी देखरेख के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं होता, इसलिए उस काम को अंजाम देने वाले लोग नकारात्मकता, निष्क्रियता और प्रतीक्षा की स्थिति में रहते हैं, जो कार्य की प्रगति को गंभीर रूप से प्रभावित करती है। यदि अगुआ ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर दी होतीं—यदि उसने कार्यभार सँभाल लिया होता, काम आगे बढ़ाया होता, काम में तेजी दिखाई होती, और मार्गदर्शन देने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ा होता जो संबंधित किस्म के काम को समझता है, तो बार-बार की देरी से नुकसान होने के बजाय काम और अधिक तेजी से प्रगति करता। तो अगुआओं के लिए काम की वास्तविक स्थिति को समझना और उस पर पकड़ रखना अति महत्वपूर्ण है। निस्संदेह अगुआओं के लिए यह समझना और जानना अत्यधिक आवश्यक है कि कार्य कैसे प्रगति कर रहा है—क्योंकि प्रगति कार्य की दक्षता और उस कार्य से अपेक्षित परिणामों से संबंध रखती है। अगर किसी अगुआ में इस बात की समझ की भी कमी है कि काम कैसे आगे बढ़ रहा है, और उसकी जाँच नहीं करता या उस पर नजर नहीं रखता, तो काम करने वाले अधिकतर लोगों का रवैया नकारात्मक और निष्क्रिय हो जाता है, वे गंभीर रूप से बेपरवाह हो जाते हैं और उनमें भार का कोई बोध नहीं रहता, वे लापरवाह और अनमने हो जाते हैं और इस तरह कार्य की प्रगति धीमी पड़ जाती है। यदि मार्गदर्शन और निरीक्षण के लिए, लोगों को अनुशासित और उनका निपटारा करने के लिए ऐसा कोई न हो जिसमें भार का बोध हो, कार्य का व्यावहारिक ज्ञान हो—तो स्वाभाविक तौर पर कार्यकुशलता और प्रभावशीलता बहुत धीमी पड़ जाएगी। यदि अगुआ और कर्मी यह भी न देख पाएँ, तो वे मूर्ख और अंधे हैं। तो, यह बेहद महत्वपूर्ण है कि अगुआ और कर्मी कार्य की प्रगति की खोज-खबर लें, उस पर नजर रखें और खुद को उससे परिचित कराएँ, क्योंकि अगुआओं और कर्मियों के मार्गदर्शन, प्रेरणा और पूछने-जानने की कार्रवाई के बिना लोग आलसी हो जाते हैं, कार्य की प्रगति की नवीनतम जानकारी रखने वाले अगुआओं के बिना लोगों के धीमे पड़ने, सुस्त होने, असावधान हो जाने की संभावना होती है—अगर काम के प्रति यही उनका रवैया रहता है, तो इस कार्य की प्रगति और साथ ही इसकी प्रभावशीलता गंभीर रूप से प्रभावित होगी। इन परिस्थितियों को देखते हुए, योग्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चुस्ती से काम की हर मद पर नजर रखनी चाहिए और कर्मचारियों और काम से संबंधित स्थिति के बारे में अवगत रहना चाहिए; उन्हें नकली अगुआओं की तरह बिल्कुल नहीं होना चाहिए। नकली अगुआ अपने काम में लापरवाह और असावधान होते हैं, उनमें जिम्मेदारी का कोई भाव नहीं होता, समस्याएँ आने पर वे उन्हें नहीं सुलझाते, और काम चाहे जो भी हो, वे हमेशा 'सरपट भागते घोड़े की पीठ पर बैठे हुए रास्ते के फूलों की प्रशंसा करते हैं'; वे लापरवाह और जैसे-तैसे काम निपटाने वाले होते हैं; उनकी हर बात आडंबरपूर्ण और खोखली होती है, वे सिद्धांत झाड़ते हैं, और यंत्रवत ढंग से काम करते हैं। आम तौर पर, नकली अगुआओं का काम करने का यही तरीका होता है। अगर मसीह-विरोधियों से उनकी तुलना करें तो, हालाँकि वे खुले तौर पर कुछ भी बुरा नहीं करते और जानबूझकर नुकसानदेह नहीं होते, लेकिन प्रभावशीलता के दृष्टिकोण से उन्हें लापरवाह और कामचलाऊ कहा जा सकता है, उनमें दायित्व का कोई बोध नहीं होता; उनमें अपने काम के प्रति कोई जिम्मेदारी और निष्ठा नहीं होती" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं कि झूठे अगुआ किस तरह अपना काम लापरवाही से करते हैं, सिर्फ सूत्रवाक्य और सिद्धांत उगलते हैं, काम की निगरानी और जाँच-पड़ताल नहीं करते और कार्य की प्रगति की व्यावहारिक समझ हासिल करने में नाकाम होते हैं। काम में ऐसे बहुत-से मसले उभरते हैं जिनका समय रहते पता लगाकर समाधान नहीं किया जाता, जिससे काम की प्रगति पिछड़ जाती है। अपनी हालत पर परमेश्वर के वचन लागू करूँ, तो मैं बस अपने इस विश्वास पर चलती रही कि भाई-बहन लंबे समय से विश्वासी थे, और अक्सर इतने व्यस्त रहते थे कि उनके पास धार्मिक कार्यों के लिए भी समय नहीं था, तो शायद वे अपना कर्तव्य सही ढंग से निभाते रहे होंगे। इसलिए, मैंने उन्हें अपना काम करने दिया और बारीकी से उनके काम की निगरानी नहीं की, उनके काम में हुए भटकावों को नहीं देखा, या यह नहीं जाँचा कि क्या वे सिद्धांत के अनुसार काम कर रहे थे, मालूम नहीं किया कि क्यों कुछ प्रोजेक्ट के अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे। मैं इनमें से कोई भी चीज बारीकी से नहीं जानती थी। कुछ समस्याओं के बारे में जान कर भी, मैंने समय रहते उनका निपटान करना या उन्हें रास्ता दिखाना तो दूर, उनके मसलों और भटकावों का सारांश पेश करने और सत्य और समाधान खोजने में भी उनकी मदद नहीं की, मैं बस सिद्धांत के बारे में लापरवाही से बोली, और उनके व्यावहारिक मसले बिल्कुल नहीं सुलझाए। नतीजतन, कुछ नए सदस्यों का समय से सिंचन नहीं हुआ और उन्होंने कलीसिया छोड़ दी। मैं दुष्टता कर रही थी! मुझे एहसास हुआ कि कार्य की व्यवस्था करने के अलावा, अगुआओं और कार्यकर्ताओं का सबसे अहम काम सारे काम की प्रगति की निगरानी करना होता है, सबके काम के हालात की जानकारी रखना और समस्याएँ सुलझाने के लिए तुरंत संगति करना होता है। लेकिन मैं एक अगुआ की भूमिका निभाने में नाकाम रही, यह लापरवाही का एक गंभीर मामला था!

आत्मचिंतन से मुझे एहसास हुआ कि मेरी भी एक मूर्खतापूर्ण धारणा थी। मैं सोचती थी कि लंबे समय के विश्वासी भाई-बहनों की निगरानी जरूरी नहीं है। मैं सोचती वे सभी व्यस्त हैं, इसलिए वे अपने कर्तव्य में कड़ी मेहनत करते होंगे, तो मैंने बस उन्हें अपना काम करने दिया, उनकी निगरानी नहीं की या इस बात की फिक्र नहीं की, यह सोचकर कि ऐसा करके मैं उन पर दबाव नहीं डाल रही हूँ। असलियत में, यह मेरी धारणाओं और कल्पनाओं का नतीजा था। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा, जिससे मुझे निगरानी का अर्थ समझने में मदद मिली। परमेश्वर कहते हैं, "हालाँकि, आज, बहुत से लोग कर्तव्य का निर्वहन करते हैं, लेकिन कुछ ही लोग सत्य का अनुसरण करते हैं। लोग अपने कर्तव्य-पालन के दौरान सत्य का अनुसरण करते हुए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कम ही करते हैं; अधिकांश लोगों के काम करने के तरीके में कोई सिद्धांत नहीं होते, वे अब भी सच्चाई से परमेश्वर की आज्ञा का पालन नहीं करते; केवल जबान से कहते हैं कि उन्हें सत्य से प्रेम है, सत्य का अनुसरण करने और सत्य के लिए प्रयास करने के इच्छुक हैं, लेकिन पता नहीं उनका यह संकल्प कितने दिनों तक टिकेगा। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनका भ्रष्ट स्वभाव किसी भी समय या स्थान पर बाहर आ सकता है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनमें अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे अक्सर लापरवाह और अनमने होते हैं, मनमर्जी से कार्य करते हैं, यहाँ तक कि काट-छाँट और निपटारा स्वीकार नहीं पर पाते। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे नकारात्मक और कमजोर होते ही हार मान लेते हैं—ऐसा अक्सर होता रहता है, यह सबसे आम बात है; सत्य का अनुसरण न करने वाले लोगों का व्यवहार ऐसा ही होता है। और इसलिए, जब लोगों को सत्य की प्राप्ति नहीं होती, तो वे भरोसेमंद और विश्वास योग्य नहीं होते। उनके भरोसेमंद न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जब उन्हें कठिनाइयों या असफलताओं का सामना करना पड़ता है, तो बहुत संभव है कि वे गिर पड़ें, और नकारात्मक और कमजोर हो जाएँ। जो व्यक्ति अक्सर नकारात्मक और कमजोर हो जाता है, क्या वह भरोसेमंद होता है? बिल्कुल नहीं। लेकिन जो लोग सत्य समझते हैं, वे अलग ही होते हैं। जो लोग वास्तव में सत्य की समझ रखते हैं, उनके अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला, उसकी आज्ञा का पालन करने वाला हृदय होता है, एक ऐसा हृदय जो परमेश्वर की आज्ञा का पालन करता है, और जिन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, वही लोग भरोसेमंद होते हैं; जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, वे लोग भरोसेमंद नहीं होते। जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, उनसे कैसे संपर्क किया जाना चाहिए? उन्हें प्रेमपूर्वक सहायता और सहारा देना चाहिए। जब वे कर्तव्य निभा रहे हों, तो उनकी अधिक निगरानी करनी चाहिए, अधिक से अधिक मदद कर उनका मार्गदर्शन करना चाहिए; तभी वे अपना कार्य प्रभावी ढंग से कर पाएँगे। और ऐसा करने का उद्देश्य क्या है? मुख्य उद्देश्य परमेश्वर के घर के काम को बनाए रखना है। दूसरा मकसद है समस्याओं की तुरंत पहचान करना, तुरंत उनका पोषण करना, उन्हें सहारा देना, उनसे निपटना और उनकी काट-छाँट करना, भटकने पर उन्हें सही मार्ग पर लाना, उनके दोषों और कमियों को दूर करना। यह लोगों के लिए फायदेमंद है; इसमें दुर्भावनापूर्ण कुछ भी नहीं है। लोगों की निगरानी करना, उन पर नजर रखना, वे जो कर रहे हैं उसके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करना—यह सब उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते में प्रवेश करने में मदद करने के लिए है, ताकि वे परमेश्वर की अपेक्षा और सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सकें, ताकि वे किसी प्रकार की गड़बड़ी या व्यवधान उत्पन्न न करें, ताकि वे समय बर्बाद न करें। ऐसा करना पूरी तरह से उनके और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना से उपजी है; इसमें कोई दुर्भावना नहीं है" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट हैं। सभी लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है, और पूर्ण किए जाने से पहले कोई भी भरोसमंद नहीं होता। हमारे भीतर थोड़ा जोश हो सकता है, हम अपना कर्तव्य निभाने को तत्पर हो सकते हैं, मगर हमारा भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह नहीं बदल पाया है और हम अभी भी निष्क्रिय हैं। अगर कोई भी हमारे काम की निगरानी न करे, हमारा निपटान और काट-छाँट न करे, तो हम अपने काम में, कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव के आगे झुक सकते हैं, और सतही तौर पर लापरवाही से काम कर सकते हैं या अनजाने ही बाधा डाल सकते हैं, जिससे परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान हो सकता है। काम की प्रगति का जायजा लेने, लोगों के कामकाज में भटकावों की पहचान करने और उनके मसले सुलझाने के मकसद से संगति करने के लिए काम की निगरानी की जाती है, ताकि परमेश्वर के घर के कार्य पर बुरा असर न पड़े। निगरानी जान-बूझकर लोगों की गलती पकड़ने के लिए नहीं, बल्कि यह अपने कर्तव्य के प्रति जवाबदेह और समर्पित होने, लोगों के जीवन-प्रवेश की जिम्मेदारी लेने, परमेश्वर की इच्छा का ख्याल रखने और परमेश्वर के घर के काम का मान रखने के लिए होती है। अगर भाई-बहनों को अपने काम में समस्या हो, और कोई उसे नजरअंदाज करे, उनकी मदद के लिए संगति न करे या उनका निपटान और काट-छाँट न करे, तो यह गंभीर लापरवाही है और इससे जिम्मेदारी की कमी झलकती है। बाद में, मैंने सचेतन होकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास किया। फिर, मेरी साझीदार बहन और मैंने हमारे काम के मौजूदा मसलों का सारांश तैयार किया, फिर, मसलों को श्रेणियों में बाँटने के बाद, हमने भाई-बहनों को संगति के लिए बुलाया। संगति के जरिए, उन्हें एहसास हुआ कि अपने कर्तव्य में उनका रवैया गलत था, और वे निगरानी के महत्व को समझ सके। इसके बाद, सबका रवैये और हालत में थोड़ा सुधार हुआ, और मैं उनके कार्य की स्थिति से अवगत रहने की सचेतन कोशिश करती रही, उनकी प्रगति की बारीकी से निगरानी और जाँच करती रही। मैंने समस्याओं और कमियों को ठीक करने में भी उनकी मदद की। कुछ समय बाद, मैंने देखा कि हमारे काम के बेहतर परिणाम मिल रहे थे और सबने अपने कर्तव्य में प्रगति की थी।

बाद में, मैं आत्मचिंतन करती रही : मैं निगरानी को महत्व क्यों नहीं देती? इससे और कौन-से भ्रष्ट स्वभावों का पता चलता है? अपनी खोज में, मेरी नजर परमेश्वर के वचनों के एक अंश पर पड़ी : "कलीसिया के कुछ अगुआ अपने भाई-बहनों को अपने कर्तव्य लापरवाही और मशीनी ढंग से निभाते देख फटकार नहीं लगाते, हालाँकि उन्‍हें ऐसा करना चाहिए। जब वे कुछ ऐसा देखते हैं जो परमेश्‍वर के घर के हितों के लिए स्पष्ट रूप से हानिकारक है, तो वे आँख मूँद लेते हैं, और कोई पूछताछ नहीं करते, ताकि दूसरों के थोड़े भी अपमान का कारण न बनें। पर असल में वे दूसरों की कमजोरियों का लिहाज नहीं करते हैं, बल्कि उनका इरादा दूसरों को अपने पक्ष में करना होता है और वे यह बात अच्छी तरह से जानते हैं : 'अगर मैं इसे बनाए रखूँ और किसी के भी अपमान का कारण न बनूँ, तो वे सोचेंगे कि मैं अच्‍छा अगुआ हूँ। मेरे बारे में उनकी अच्‍छी, ऊँची राय होगी। वे मुझे मान्यता देंगे और मुझे पसंद करेंगे।' परमेश्‍वर के घर के हितों को चाहे जितनी अधिक क्षति पहुँची हो, और परमेश्‍वर के चुने हुए लोगों को उनके जीवन प्रवेश में चाहे जितना अधिक बाधित किया जाए, या कलीसिया का उनका जीवन चाहे जितना अधिक अशांत हो, ऐसे अगुआ अपने शैतानी फलसफ़े पर अड़े रहते हैं और किसी को नुकसान नहीं पहुँचाते। उनके दिलों में कभी भी आत्म-धिक्कार का भाव नहीं होता; अगर वे किसी को बाधा या व्यवधान पैदा करते देखें तो ज्यादा-से-ज्यादा वे बातों-बातों में इस मुद्दे का हल्का-सा उल्लेख कर सकते हैं, और फिर बस हो गया। वे सत्‍य पर संगति नहीं करते, न ही वे उस व्यक्ति को समस्‍या का सार बताते हैं, उनकी दशाओं का विश्‍लेषण करना तो दूर की बात है। वे कभी नहीं बतलाते कि परमेश्‍वर की इच्‍छा क्‍या है। झूठे अगुआ कभी भी उजागर या विश्लेषित महीन करते कि लोग अकसर कैसी ग़लतियाँ करते हैं, या लोग अक्सर किस तरह के भ्रष्‍ट स्‍वभाव प्रकट करते हैं। वे कोई असली समस्या हल नहीं करते, बल्कि लोगों के बुरे आचरण और भ्रष्टता के प्रदर्शन को बर्दाश्त करते रहते हैं। लोग चाहे कितने भी नकारात्मक या कमजोर हों, वे कोई परवाह नहीं करते, सिर्फ थोड़ी-सी परिकल्पना या धर्म-सिद्धांत झाड़ देते हैं, अनमने ढंग से कुछ उपदेश दे देते हैं, और टकराव से बचने की कोशिश करते रहते हैं। परिणामस्वरूप, परमेश्वर के चुने हुए लोग आत्मचिंतन करके खुद को जानने की कोशिश नहीं कर पाते, अपने व्यवहार में झलकती तरह-तरह की भ्रष्टता का कोई समाधान नहीं कर पाते, और किसी तरह के जीवन प्रवेश के बिना सिर्फ शब्दों, जुमलों, धारणाओं और कल्पनाओं में जीते रहते हैं। वे दिल-ही-दिल में यह भी विश्वास करते हैं कि, 'हमारे अगुआ को हमारी कमजोरियों की परमेश्‍वर से भी ज्‍़यादा समझ है। हमारा आध्यात्मिक कद परमेश्‍वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की दृष्टि से काफ़ी छोटा हो सकता है, लेकिन हमें केवल अपने अगुआ की अपेक्षाएँ पूरी करने की आवश्यकता है; अपने अगुआ का अनुसरण करके हम परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। अगर कोई दिन ऐसा आए जब उच्च हमारे अगुआ को बदल दे, तो हम जोर-जोर से बोलेंगे; अपने अगुआ को रखने और उसे उच्च द्वारा बदले जाने से रोकने के लिए उच्च से बातचीत करेंगे और उसे अपनी माँगों पर सहमत होने के लिए मजबूर करेंगे। इस तरह हम अपने अगुआ के साथ उचित व्यवहार करेंगे।' जब लोगों के मन में ऐसे विचार होते हैं, जब उनका अगुआ के साथ इस तरह का संबंध होता है, और अपने दिलों में वे अपने अगुआ के प्रति निर्भरता, प्रशंसा, और सम्मान की भावना महसूस करते हैं, तो वे इस अगुआ में और भी ज्यादा आस्था रखने लगेंगे, वे अगुआ की बातें सुनना चाहते हैं, वे परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजना बंद कर देते हैं। इस तरह का अगुआ लोगों के दिलों में लगभग परमेश्वर की जगह ले चुका होता है। अगर अगुआ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ ऐसे रिश्ते को बनाए रखने का इच्छुक होता है, अगर अगुआ के दिल में इससे आनंद की भावना उत्पन्न होती है, और वह मानता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए, तो उसके और पौलुस के बीच कोई फर्क नहीं रहता, और वह पहले ही मसीह-विरोधियों के मार्ग पर कदम रख चुका होता है। ... मसीह-विरोधी वास्तविक कार्य नहीं करते, वे सत्य की संगति और समस्याओं का समाधान नहीं करते, वे परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में लोगों का मार्गदर्शन नहीं करते। वे केवल हैसियत और प्रसिद्धि के लिए काम करते हैं, वे केवल खुद को स्थापित करने की परवाह करते हैं, लोगों के दिलों में अपने स्थान की रक्षा करते हैं, और सबसे अपनी आराधना करवाते हैं, अपना सम्मान करवाते हैं, और अपना अनुसरण करवाते हैं; यही वे लक्ष्य होते हैं जिन्हें वे प्राप्त करना चाहते हैं। मसीह-विरोधी इसी तरह लोगों को जीतने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। क्या काम करने का यह तरीका दुष्टता नहीं है यह? अत्यंत घृणित है!" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं')। मसीह-विरोधियों का स्वभाव दुष्ट होता है, वे सिर्फ रुतबा हासिल करने के लिए काम करते हैं, भाई-बहनों के सामने समस्याएँ आने पर, वे उन्हें उजागर कर सुधारते नहीं, बल्कि उनके साथ समझौता करते और सहानुभूति जताते हैं, ताकि उनका साथ पा सकें, उन्हें फुसला सकें, जिससे सभी लोग उनसे प्रेम करें, उनकी आराधना करें और उनके करीब आएँ। अपने काम में मेरे हाल के बर्ताव के संदर्भ में, परमेश्वर के वचनों पर चिंतन कर, मुझे एहसास हुआ कि मैं उन लोगों जैसी ही थी जिन्हें परमेश्वर ने उजागर किया था : लोगों के दिलों में, अपना रुतबा और छवि बनाए रखने के लिए जब कभी मैं काम की निगरानी करती या उस बारे में पूछताछ करती, और दूसरे लोग शिकायत करते या प्रतिरोध दिखाते, तो मैं उनका निपटान और काट-छाँट करना तो दूर, पूछताछ भी जारी रखने की हिम्मत नहीं करती थी, इस फिक्र से कि कहीं वे ये न सोचें कि मुझमें इंसानी भावना नहीं, उनके मसलों पर विचार किए बिना, उनसे बहस करती और उनका दमन करती थी, उनके मसलों के सार का विश्लेषण किए बिना बस यूँ ही उनकी समस्याएँ उठा देती। कभी-कभी मैंने यह भी देखा कि सबके व्यस्त होने के बावजूद काम में कोई प्रगति नहीं दिखाई देती, फिर तो किसी तरह की समस्या जरूर होगी। लेकिन मेरे सुधारने के बाद हर बार जब भाई-बहन चुप्पी साध लेते, तो मैं लाचार हो जाती और संगति जारी रखने की हिम्मत नहीं कर पाती। नतीजतन, बहुत लंबे समय तक काम में कोई प्रगति नहीं हुई, वे अपनी लापरवाही के सार को नहीं जान पाए, और जीवन-प्रवेश में कोई प्रगति नहीं कर पाए। मैं शैतानी फलसफे "लोगों की कमियों का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए" के अनुसार जी रही थी, लोगों से अपने रिश्ते बनाए हुए थी, ताकि वे सोचें कि मैं उनकी समस्याओं का ख्याल करती हूँ, और मैं एक विचारशील अगुआ हूँ, ताकि उनके दिलों में मेरे लिए जगह रहे। मैं सत्य पर अमल नहीं करती थी और हमेशा भाई-बहनों को बर्दाश्त करती थी, इससे उन्हें एहसास नहीं हो पाया कि उनके मसले कितने गंभीर थे, और इससे परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीर नुकसान पहुँचा था। मैं बहुत ज्यादा स्वार्थी और घिनौनी थी! परमेश्वर का घर सभी अगुआओं और कर्मियों से काम की प्रगति की निगरानी करने, खोज-खबर रखने, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने, काम की समस्याओं को जल्द पहचानकर हल करने, और व्यावहारिक कार्य करने की अपेक्षा रखता है। अपनी बात कहूँ, तो मैं परमेश्वर के घर के हितों को किनारे कर, सिर्फ अपना रुतबा और शोहरत बनाए हुए थी, भाई-बहनों को उनके भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीने दे रही थी, अपने कर्तव्य के प्रति चलताऊ रवैये के साथ काम में देर कर रही थी। मैं सही मायनों में परमेश्वर के इरादों के अनुसार नहीं जी रही थी। आत्मचिंतन कर इसका एहसास करके, मुझे पछतावा हुआ, तो मैंने प्रायश्चित कर अपने कर्तव्य में अपना रवैया सुधारने को तत्पर होकर, परमेश्वर से प्रार्थना की।

कुछ समय बाद, जब एक अगुआ हमारे काम की जाँच करने आए, और उन्होंने देखा कि कुछ प्रोजेक्ट अब भी पिछड़े हुए थे और नतीजे नहीं दे रहे थे, तो उन्होंने हमसे सबकी प्रगति की बारीकी से पड़ताल करने और मसले पहचान कर उन्हें जल्द ठीक करने को कहा। मैंने सोचा, "यह काम तो अभी हाल ही में सौंपा गया था। अगर इनकी प्रगति के बारे में हम अभी पूछेंगे, तो क्या भाई-बहनों को नहीं लगेगा कि हम बहुत सख्त हैं, और हममें जरा भी इंसानी भावना नहीं है?" मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर एक बार शोहरत और रुतबे के दबाव में आ रही थी, सत्य पर अमल नहीं कर रही थी। मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : "हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा या हैसियत पर विचार मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह करनी चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, तू वफादार रहा है या नहीं, तूने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन पर बार-बार विचार कर और इनका पता लगा, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। मुझे एहसास हुआ कि जो लोग सच में परमेश्वर की इच्छा का ख्याल रखते हैं, वे अपने हितों को दूर रखेंगे, और परमेश्वर के घर के हितों को अपनी पहली प्राथमिकता बनाएँगे। वे विचार करेंगे कि काम का कौन-सा तरीका कलीसिया के कार्य और दूसरों के जीवन-प्रवेश के लिए सबसे अच्छा है। सिर्फ इस प्रकार अपना कर्तव्य निभाना ही परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलना है। इसका एहसास करके, मैंने अगले ही दिन सबके काम की प्रगति के बारे में पूछताछ की, और पाया कि वे तरह-तरह की समस्याओं से घिरे हुए थे, तो हमने सिद्धांतों पर संगति की, रास्ता खोजा, और समस्याएँ सुलझाने की योजनाएँ बनाईं। दो हफ्ते बाद, हमें पहले की अपेक्षा बेहतर नतीजे मिलने लगे। परमेश्वर का धन्यवाद! पिछले कुछ महीनों में हुए अपने अनुभवों से, मुझे निगरानी के महत्व का एहसास हुआ है। मैं आगे से अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारने को तैयार हूँ।

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